सन् 1960 से कहानी-लेखन
की शुरुआत करते ही काशीनाथ सिंह (1937) के कथा-कौशल ने भावकों को
सम्मोहित कर लिया था। सन् 1984 तक के चौबीस वर्षों में उन्होंने कुल चालीस कहानियाँ लिखीं। उपन्यास, नाटक, संस्मरण और कुछ आलोचनात्मक आलेख भी लिखे; पर
केन्द्रित रहे कहानियों पर। इस केन्द्रीभूत
लेखन में भी उन्होंने केवल लिखने के लिए कहानियाँ नहीं लिखीं; समकालीन कथाधारा का
अनुसरण करते हुए अचिन्तित रचनाओं का ढेर नहीं लगाया। ‘समकालीन मुहावरों’ की मरीचिका के पीछे बदहवास
हिरण की तरह नहीं भागे; कलमघिस्सू लेखकों की तरह कमरे में कैद होकर नहीं लिखा।
अपने समय और समाज के प्रति सावधान होकर पूरे दायित्व से लिखा। इसी वैशिष्ट्य
के कारण वे केवल ढाई दर्जन कहानियों की ताकत से अपने समकालीनों के लिए चुनौती और
परवर्तियों के लिए आदर्श बने हुए हैं? अब तक प्रकाशित उनकी कृतियों में प्रमुख
हैं-- नौ कहानी संग्रह--लोग बिस्तरों पर (1968), सुबह
का डर (1975), आदमीनामा (1978), नई तारीख (1979), कल की फटेहाल कहानियाँ
(1980), सदी का सबसे बड़ा आदमी (1986), लेखक की छेड़छाड़ (2012), कविता की नई तारीख (2012), कहानी उपखान (2003), प्रतिनिधि
कहानियाँ (2008); पाँच उपन्यास--अपना मोर्चा (1972), काशी का अस्सी (2002), रेहन पर रग्घू (2008), महुआ चरित (2012), उपसंहार (2014); तीन संस्मरण--याद हो कि न याद हो (1992), आछे दिन पाछे गए (2004), घर
का जोगी जोगड़ा (2007); एक नाटक--घोआस (1982); और एक आलोचना आलोचना भी रचना है (1996) पुस्तकें प्रकाशित हुईं। कहानी उपखान में उनकी कुल चालीस कहानियाँ संकलित हैं।
फत्ते गुरु, उर्फ शशांक शेखर पाण्डेय को आप नहीं
जानते होंगे। ऐसे पात्र हर काल में अपने भिन्न-भिन्न नामों के साथ हर गाँव-शहर
में होते हैं। परन्तु, तेरह-चौदह वर्ष के इस किशोर का अवतरण, सन् 1982 के आसपास,
बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के श्रेष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह (1937) की चर्चित कहानी पहला प्यार में, नायक के
रूप में हुआ। आप चाहें, तो तर्क कर सकते हैं कि पैंतालीस बरस की पकी उम्र के इस
कहानीकार को ऐसे किशोर के पहले प्यार के तरंगों और संघर्षों में झाँकने की क्या
जरूरत थी? विश्लेषण कर सकते हैं कि बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में आकर, जब
पूरे भारत का सामान्य नागरिक अनास्था, पाखण्ड, अनैतिकता, विविधमुखी द्वेष,
चंचल शासन-व्यवस्था, अमानवीय एवं आपराधिक राजनीति, राजनीतिक अपराध जैसे
मानवविरोधी आचरणों की चपेट में था; ऐसे में इन परिपक्व कौशल के कथाकार को इस किशोरकालीन
भावोछ्वास ने क्यों सम्मोहित किया? उत्तर बहुत आसानी से मिल जाएगा।
काशीनाथ सिंह के कथा-कौशल के गम्भीर अध्येता जानते
होंगे कि कथा-लेखन में उनका पदार्पण सन् 1960
के आसपास हुआ।
तब तक 'नई कहानी' की घोषणा/स्थापना हो चुकी थी। फिर साठोत्तरी पीढ़ी की घोषणा हुई। 'अकहानी’, ‘श्मशानी पीढ़ी’, ‘भूखी पीढ़ी’, ‘जनवादी कहानी’,
‘सचेतन कहानी’, ‘समान्तर कहानी’ जैसे नारे और मुहावरे बुलन्द होने लगे थे। भारतीय रचनाकारों की कहानियों में स्वातन्त्र्योत्तर भारत के प्रारम्भिक
तेरह वर्षों की भयावह राजनीतिक व्यवस्था का चरित्र बड़ी सिद्दत से उजागर किया जा रहा था। काम जोखिम का
था, किन्तु उस
दौर के कहानीकार अपनी जिम्मेदारी निभाने में लगे थे। सन् 1960
के बाद के भारतीय समाज की वास्तविक स्थितियाँ निरन्तर भिन्न-भिन्न
मुहावरों में व्यक्त हो ही रही थीं, किन्तु भयावहता कम
होने को राजी नहीं थी। ऐसे में, इन बेढब परिस्थियों की बुनियाद ढूँढने, तनिक-सा
भी कुछ नया तलाशने, और मुश्तैदी से उन गुत्थियों को सुलझाने की ओर, काशीनाथ सिंह
ने अपनी पैनी दृष्टि फिराई। वे जनाकांक्षा और सत्ता-वृत्ति के बीच उत्पन्न विशाल खाई
का गुणसूत्र तलाशने में तल्लीन हुए। अपनी इसी अन्वेषण-वृत्ति के कारण वे अपनी
पीढ़ी के तमाम रचनाकारों से भिन्न लगते हैं। अपनी साठोत्तरी कहानियों को ‘एक और शुरुआत’ कहने की सार्थकता यहीं दिखती
है। उन्होंने साफ-साफ देखा कि दुर्वह जीवन-व्यवस्थावाले स्वातन्त्र्योत्तरकालीन भारतीय
नागरिक को 'नई कहानी' ने जो आशाएँ, आकांक्षाएँ, और सपने दिखाए, वे भारत-चीन युद्ध के
आते-आते ध्वस्त हो गए; भ्रष्टाचार के गिरफ्त में देश की व्यवस्था दम तोड़ने लगी;
राष्ट्रनायक स्वयं को निरीह और राष्ट्र के नागरिक स्वयं को निरुपाय देखने
लगे। मृयमान मूल्यों का वह सिलसिला थमा नहीं, निरन्तर बढ़ता गया।
स्वाधीन भारत का चौथा लोकसभा-चुनाव सन् 1967 में हुआ। चुनाव-परिणाम में कांग्रेस पार्टी के आन्तरिक कलह का स्पष्ट प्रभाव दिखा। विधानसभा चुनाव की परिणतियाँ भी कांग्रेस पार्टी के लिए कम
अवसादमय नहीं थीं। बिहार, केरल, उड़ीसा, मद्रास, पंजाब और पश्चिम बंगाल में गैर-कांग्रेसी सरकारें स्थापित हुईं। आने वाला समय कांग्रेस पार्टी के लिए और भी बुरा साबित होने वाला था। ग्यारह जनवरी 1966 को लाल बहादुर शास्त्री के
दुखद निधन; और 24 जनवरी 1966
को इन्दिरा गाँधी को प्रधानमन्त्री पद की शपथ दिलाने के बाद, पार्टी में मतभेद
बढ़ा, सन् 1969 में अनुशासनहीनता के आरोप में मोरारजी
देसाई को निष्कासित किया गया। कांग्रेस पार्टी विभाजित हो गई। 'गरीबी हटाओ' के चुनावी नारे के साथ सन् 1971 में पाँचवीं लोकसभा चुनाव
में भारी बहुमत से कांग्रेस की जीत हुई। सन् 1971
के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान इन्दिरा गाँधी के साहसिक
निर्णय का पूरे भारत ने स्वागत किया, किन्तु युद्ध की आर्थिक लागत, दुनिया
में तेल की कीमतों में वृद्धि और औद्योगिक उत्पादन
में गिरावट के कारण आर्थिक कठिनाइयाँ विकट हो गईं। तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा
गाँधी द्वारा सन् 1974 में घोषित आपातकाल को प्रतिपक्ष और सामान्य नागरिक ने कांग्रेस-शासन
की निरंकुशता और जन-दमन के रूप में देखा। फलस्वरूप सन् 1977 में आयोजित छठी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को घनघोर
मुँहकी खानी पड़ी। आपातकाल के दौरान मानवाधिकारों के
उल्लंघन, अनिवार्य बन्ध्याकरण और निरंकुशतापूर्वक राजनेताओं को जेल में डालने की वजह से इन्दिरा गाँधी की लोकप्रियता कम
हुईं और जिसकी कीमत उन्हें चुनाव परिणाम में चुकानी पड़ी। कई राजनीतिक दलों ने जनता पार्टी के रूप में मिलकर चुनाव लड़ा और स्वतन्त्र भारत की चुनाव-शृंखला में
पहली बार कांग्रेस को ऐसी हार का सामना करना
पड़ा। कांग्रेस पार्टी की शासन-व्यवस्था
से कुपित जनता के भावोच्छ्वास पर सवार हुई सत्तासीन जनता पार्टी के गठबन्धन ने
इतना तो साबित कर दिया कि कांग्रेस को भी हराया जा सकता है; किन्तु शीघ्र ही
उसके अन्तर्कलह सामने आ गए। सन् 1979 आते-आते जनता पार्टी
विभाजित हो गई, और सन् 1980 में भारतीय जनता के सिर पर फिर से सातवीं लोकसभा चुनाव आ
गया।...स्वातन्त्र्योत्तरकालीन इन तैंतीस वर्षों की ऐसी सिलसिलेवार बदहाली साँस
फुला देती है। ये स्थितियाँ तो पत्थर को उद्बुद्ध कर दे, फिर काशीनाथ सिंह जैसे
जिम्मेदार कहानीकार कैसे उद्बुद्ध न होएँ! 'मुसइ चा', 'सुधीर घोषाल',
'जंगल-जातकम्', 'लाल किले के बाज’, 'चोट' और 'हस्तक्षेप' जैसी उनकी कहानियों
में ये स्थितियाँ विशिष्ट कौशल से उजागर हुई हैं। जिन विलक्षणताओं के कारण साठोत्तरी हिन्दी कहानियों को 'जनवादी कहानी' कहा गया था, इन कहानियों ने उन्हें सार्थक तर्क से प्रबल समर्थन दिया था।
लेखन-कार्य को सदैव बड़े दायित्व की तरह लेनेवाले काशीनाथ
सिंह, लेखकीय उदारता में औरों को बेशक छूट दे दें; अपना दायित्व सतत बढ़ाते रहे
हैं। नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों को अपनी 'नागरिकता' सन्दिग्ध कर लेने की सुविधा
वे देते हैं, क्योंकि उनके कई वैयक्तिक
स्वार्थ होते हैं, हिस्से
से अधिक, समय से पूर्व कुछ अतिरिक्त पाने की उनमें बेशुमार
मजबूरियाँ होती
हैं; इस कारण उन्हें कई गलत-सही समझौते करने पड़ते हैं। किन्तु लेखकों को वे ऐसी छूट नहीं देते। उन्हें
वे अपनी धरती का सच्चा नागरिक मानते हैं, क्योंकि
उनकी जड़ें जनता
में होती हैं।...काशीनाथ सिंह की यही लेखकीय-प्रतिबद्धता और जीवन-दृष्टि
उन्हें विशिष्ट बनाती है। प्रतिबद्धता और जीवन-दृष्टि के बिना लिखना,
कचहरी के मोहरिर का लिखना होता है, जो सुबह से शाम तक, तमाम फरियादियों के
नसीब को इधर से उधर करते हुए, लिखते ही रहते हैं। साहित्यसेवियों को लिखने और
कागज गन्दा करने में फर्क समझना बहुत जरूरी है। हिन्दी कथा-लेखन में काशीनाथ सिंह का पदार्पण जैसे राजनीतिक
वातावरण और सामाजिक जीवन-व्यवस्था में हुआ था; वह विगत डेढ़ दशकों की
आधी-अधूरी आजादी और नकली लोक-तन्त्र का उद्भव था। उनके पूर्ववर्तियों ने उन स्थितियों
का संज्ञान अपनी रचनाओं में ले लिया था। फिर भी देश की राजनीतिक व्यवस्था में
कोई नैतिक सुधार नहीं हुआ। बाह्य आपदा के बावजूद, आन्तरिक कलह, शासकीय वीभत्सता,
आपातकाल जैसी क्रूरता परवान चढ़ती गई। ऐसे क्षण में जिम्मेदारी
से लिखना, और कुछ नई शैली की तलाश करना बड़े जोखिम का काम था। काशीनाथ सिंह ने यह
जोखिम भरा मार्ग अपनी आत्मचेतना से अपनाया और केवल लिखने के लिए नहीं, सूरत
बदलने की नीयत से, जनता को उनकी सही स्थिति की जानकारी देने की आत्मीयता से
अपने विषय-बोध और कहानी-कला को नया मार्ग दिखाया। वापस उनकी कहानी 'पहला
प्यार' की तरफ चलते हैं और चिन्तन करते हैं कि पकी उम्र में आकर किशोरकालीन
प्यार में झाँकने की उनकी मंशा क्या थी?
शाश्वत सत्य है कि 'प्यार' चराचर की जैविक वृत्ति
है। प्यार पाकर हर प्राणी, पशु-पक्षी-पेड़-पादप पुलक उठता है। जीवन के सारे बन्धन
और बाधाओं को तोड़ देना चाहता है। पारिवारिक और सामाजिक वातावरण में अर्जित
रूढ़ियाँ उसे तरह-बेतरह परेशान करती हैं; किन्तु प्रेमी उन रूढ़ियों को तोड़ने
की परिणति और आतंक से मुक्त होता है। यह मुक्ति मनुष्य को जीवन की ढेर सारी
विडम्बनाओं से मुक्त करती है। प्रेम के कारण जर्जर रूढ़ियों से मुक्ति की
शुरुआत कोई हवाई-महल नहीं है। यह मुक्ति मनुष्य को अनेक कुसंस्कारों और संलिप्तियों
से आजाद करती है। इस कहानी का लक्ष्य आत्मकेन्द्रिकता में संलिप्त उन तमाम
'नरोत्तमों' को सन्देश देना है कि भई! प्रेम करो, फत्ते गुरु की तरह तुम भी अपनी
जड़ता और रूढ़ियों से, ओछी हरकतों से, स्वार्थपरता और आत्मलीनता से मुक्त हो
जाओगे।
उल्लेखनीय है कि इस काल तक आते-आते कहानियों की
पद्धति बदल गई। शृंखलाबद्ध घटनाओं के ढेर से विदाई लेकर कहानियाँ सूक्ष्म
घटना-सूत्र के सहारे विराट सन्देश देने लगी थी। घटना तो पाठकों को पकड़े रखने का
साधन मात्र होती थी, कहानी का असल उद्देश्य कहानीकार के कहन में चमकने लगा था। कहानियों
की बुनावट में जीवन-दर्शन और समाज-संरचना के बुनियादी तत्त्व झाँकने लगे थे। किन्तु,
इस कारण कहानी दर्शन-शास्त्र या कि समाज-शास्त्र नहीं हो गई थी। कम से कम
काशीनाथ के लिए तो यह बात अलग से कहने की जरूरत है कि समाज-शास्त्र, जीवन-दर्शन,
राजनीतिक सूक्ष्मता, लौकिक व्यवहार, पात्रों के जैविक आयास और मनोवैज्ञानिक
आचरण ...सब कुछ से गहरे जुड़ाव के बावजूद उनकी कहानियों पर इन कथेतर अनुशासनों का
कोई तनाव नहीं दिखता। उनकी कहानी किसी गम्भीर समालोचक को चिन्तन-सरोबर में
गोता लगाने और किसी सामान्य पाठक को कथा-सुख लेकर मुग्ध हो जाने का समान अवसर
देती है। 'पहला प्यार' कहानी में पाठक चाहें तो युवती के अंग-सौष्ठव वर्णन अथवा
कथानायक के अधेड़ अग्रज की द्विअर्थी बातों से अपने मन की गुदगुदी बेशक शान्त कर
लें; पर कहानीकार का लक्ष्य यह बताना नहीं है कि फत्ते गुरु को किसी कण्डे
थापनेवाली किसी कठमस्त युवती से प्यार हो गया। यह तो पाठकों को अपनी लेखकीय चिन्ता
में खींच लाने का चमत्कारिक कौशल है। वहाँ असल बात है 'प्यार हो जाने के बाद की
परिणतियाँ'; 'प्यार के कारण प्रेमी के आचरण और व्यवहार में डेरा डाली रूढ़ियों
की चरमराहट'; 'प्रेमातुर नायक का रूढ़ियों से होड़ लेने का उद्यम'; 'प्रेमविहीन निरर्थक
आचरणों से मुक्ति का प्रयास'...। इस कहानी का एक-एक प्रसंग इस प्रेरणा का स्रोत
है कि प्रेम वस्तुत: किसी मनुष्य को वासनाओं में सीमित नहीं करता; उसे उन्मुक्त,
उदार, नैतिक और ज्ञानी बनाता है। प्रेम के प्रभाव में मनुष्य जिन रूढ़ियों और
जड़ताओं से मुक्त होता है, वह उसके हृदय-क्षितिज को विस्तार देता है; और मनुष्य
फत्ते गुरु की तरह अपनी समस्त जड़ताओं से मुक्त होना चाहता है। प्रेमासक्ति का
तनिक-सा स्पर्श उसे पूरी तरह बदल देता है। फत्ते गुरु अचानक-से बदल गए। उन्हें मालूम
भी न था कि विभाव, अनुभाव, संचारी भाव आदि के संयोग से जो रस का सागर उमरता है,
वही प्रेम का सागर होता है, और उस सागर डूबने पर ढलती दोपहरी की धूप भी लू की तपिश
देने लगेगी। वह बेचारा किशोर, तो अपने बड़े भाई की साध पूरी करने, अर्थात् दरोगा
बनने के लिए यहाँ अंग्रेजी सीखने आया था। अंग्रेजी शब्दों के हिज्जे और अर्थ
का रट्टा मार रहा था। ऐन उसी वक्त; विभाव, अनुभाव—दोनों
की स्थिति आ गई। इधर एल-ओ-व्ही-ई लोभे, लोभे माने प्यार का रट्टा मार रहा था;
उधर खिड़की के बाहर फैले मैदान में कछाना मारकर, गोबर की चिपड़ी पाथती एक
भरी-पुरी युवती की काँखों के भूरे-भूरे बाल, कछाना के बन्धन में जकड़ी पिण्डलियाँ,
और उसके झुकने पर, कुरती नहीं पहने होने की वजह से जरा-सा कुछ और दिख गया। अब क्या
था, संचारी भाव को तो आना ही था, सो आया; और फत्ते को 'उनसे' प्यार हो गया--पहला
प्यार।
किशोरकालीन प्यार का यह विलक्षण घोसला रचने में कथाकार ने 'मुनिहुक मानस मनमथ जाग' की स्थिति
ला दी है। ऐसा कौशल तो जरावस्था के वृद्ध को भी किशोरावस्था में ला दे। वाकई, काशीनाथ
सिंह की कलम जादू जानती है। पाठकों पर पकड़
बनाए रखने के इतने साधन वे जुटाए रखते हैं, कि निमेष मात्र के लिए भावक का
राग-ताल विचलित नहीं होता। पर इस एकाग्रता में लीन होकर भी पाठकों से काशीनाथ
सिंह का वह कौशल ओझल नहीं होता, जिसके द्वारा वे समाज को एक नूतन दृष्टि देना
चाहते हैं, कि भई! रूढ़ियों से मुक्त होइए, जीवन की गतिशीलता को अवरुद्ध
करनेवाली जड़ता का गर्द-गुबार झाड़िए, प्रेम अन्तत: मनुष्य को सारी दुविधाओं
से मुक्त कर देता है। इस कहानी में दर्ज किशोरावस्था के प्रेम का चित्रण, असल
में सकल समाज के लिए प्रेम का महत् सन्देश है। वैसे कथाकार स्वयं अपने कथा-कौशल
के बारे में इतनी ऊँची धारणा नहीं रखते, पर उनके नहीं रखने से क्या होगा, उनके
बारे में कोई उनसे पूछकर तो राय नहीं बनाएगा!
अपने बहुचर्चित संस्मरण ‘घर का जोगी जोगड़ा’
में उन्होंने
घोषणा की कि हिन्दी आलोचना के शिखर-पुरुष प्रो. नामवर सिंह को शायद ही काशीनाथ
सिंह की कोई कहानी पसन्द हो, इसके ठीक उलट, उनका शायद ही कोई संस्मरण और कथा-रिपोर्ताज उन्हें नापसन्द हो।...अब यह लेखक-आलोचक या
अग्रज-अनुज के सापेक्ष सम्बन्ध का प्रतिमान हो, तो कुछ कहना कठिन है; किन्तु
तथ्य है कि काशीनाथ सिंह मूलत: एक महान कथाकार हैं। सावधानी से सही जगह पर चिकोटी
काटनेवाली विलक्षण किस्सागोई, उनकी रचनात्मकता का प्राण-तत्त्व है। संस्मरण
और कथा-रिपोर्ताज लेखन में भी उन्हें
जैसी महारत हासिल है; और उसके लिए उन्हें जैसी प्रशस्ति प्राप्त है; उसकी विलक्षण
सरणि उनकी किस्सागोई ही है। किस्सागोई की विलक्षण विधि ही अन्तत: किसी
संस्मरण और रिपोर्ताज को प्राणवान करती है।
काशीनाथ सिंह वस्तुत: एक विशिष्ट शिल्पी हैं।
बड़ी चतुराई से वे अपनी हर रचना के लिए नई-नई भंगिमाएँ तलाशते हैं। रचनात्मक
उद्देश्य की पूर्ति हेतु, वे अर्जुन की तरह निशाना साधे रहते हैं, ताकि तीर
ठीक मछली की आँख में जाकर धँसे, इधर-उधर नहीं। कथा-भूमि की तलाश हेतु उन्होंने
कैमरे की आँखें पाई हैं। सम्मुख पड़े दृश्य का जो प्रसंग सामान्य आँख, अर्थात्
आम आदमी से अगोचर रह जाता है; कैमरा उसे भी कैद कर लेता है। धारक उन दृश्यों का
उपयोग अपनी योजनानुसार करता है। पता लगाना उपादेय होगा कि अपनी किशोरावस्था में
काशीनाथ सिंह, गिल्ली-डण्डा, कंचा-कौड़ी, वॉली-बॉल, फुटबॉल, या क्रिकेट के अच्छे
खिलाड़ी तो नहीं थे; क्योंकि इन खेलों में अचूक निशानेबाजी की बड़ी आवश्यकता
होती है। उन्होंने स्वयं स्वीकारा है कि--'लम्बे-चौड़े मैदान में एक ही स्थान पर खड़े रहकर जिन्दगी भर बाएँ-दाएँ करते रहने से बेहतर है, अपनी
सम्भावनाओं और क्षमताओं के लिए नए क्षितिज खोजना
और किसी ऊसर पड़े खेत को हरा-भरा बनाना...!' –जी हाँ, इसी धारणा में वे
अपनी कहन-भंगिमा से बंजर-ऊसर प्रसंग में भी व्यंजना की बाढ़ ला देते हैं। भावक-गण
चमत्कार से भर उठते हैं। उनकी अत्यन्त चर्चित कहानी 'सूचना' में
कथानायक, रोज-ब-रोज, जगह-जगह, वक्त-बेवक्त घटनेवाली तरह-तरह की खौफनाक और टुच्ची
घटनाओं की सूचाएँ देता है; जिसका लोग संज्ञान तक नहीं लेते। कहानी के अन्त में वह,
एक लावारिस लाश का विवरण देता है—'उसकी आँखें फैली हुई हैं,
मुँह खुला हुआ है और गोश्त की मोटाई को नापते चाकू का सिरा छाती के बीचोंबीच
उभरा है जिस पर बैठने के लिए मक्खियाँ आपस में मार कर रही हैं। समूचे धड़ पर
इतनी अधिक मक्खियाँ भनभना रही हैं जैसे वहाँ पानी से तर कोई चीनी का बोरा हो।
उसके दो सुनहले दाँतों से बँधी हुई जबड़े के बराबर एक दफ्ती खड़ी है जिस पर सुर्ख
हर्फों में लिखा है—कृपया मक्खियाँ उड़ाने की हिम्मत
न करें, वे भूखी हैं।'---हम गौर करें कि गोश्त की मोटाई नापते ये चाकू, पानी से
तर चीनी के बोरे, सुनहले दाँत, ये मक्खियाँ, और इन मक्खियों के बारे में ये चेतावनियाँ
क्या कहती हैं? ये गोश्त किसके हैं? ये चाकू किसके हैं? ये सुनहले दाँत किसके
हैं? ये मक्खियाँ कौन हैं? इनकी इस आक्रामक भूख का मतलब क्या है?...क्या कथाकार
ने अपने वांछित दृश्य को महज माँसल बनाने हेतु इन्हें उपस्थित किया है?...बिल्कुल
नहीं। काशीनाथ सिंह की कहानियों के पात्र जम्हाई भी निरर्थक नहीं लेते। पल-पल अपनी
कहानियों में कहन-भंगिमा का नया शास्त्र रचते हुए वे हमेशा किसी नई विधि की
तलाश में डूबे रहते हैं; नएपन की इस तलाश में वे कभी सन्तुष्ट नहीं होते, और लगे
हाथ अपना असन्तोष अग्रज के हिस्से डाल लेते हैं।
सुधी जनों के लिए अनुमान करना सहज होगा कि श्रुति-परम्परा
की निरन्तरता में कई पीढ़ियों की स्मृतियाँ रक्षित होती हैं। समय पाकर बहुश्रुत
स्मृतियाँ ही जनश्रुतियों में तब्दील हो जाती हैं। जिस गाँव (जीयनपुर) एवं नगर
(बनारस) में काशीनाथ सिंह का जीवन बीता, वह मूल रूप से स्मृति और श्रुति-परम्परा का नागरिक-परिदृश्य
है। तथ्य है, और काशीनाथ सिंह की स्वीकारोक्ति भी, कि उन्हें अपने ग्रामीण
परिदृश्य से प्राप्त इन श्रुति-परम्पराओं के बीजांकुर को सम्पोषित-पल्लवित
करने का कौशल आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी एवं आचार्य नामवर सिंह के सान्निध्य
में मिला। अर्जित कौशल एवं निजी जीवन-दृष्टि के समग्र सहयोग ने उनकी किस्सागोई
को इस तरह चमकाया कि वे न केवल पूर्ववर्ती कथाधारा से, बल्कि अपनी पीढ़ी के
तमाम कथाकारों से खुद को अलग साबित कर दिया।
आचार्य नामवर सिंह पर संस्मरण लिखते हुए उन्होंने जिस
तरह विपन्नता में जीते हुए, मगर जीवन की चाहत रखनेवाले अपने गाँव के नाम जीयनपुर
की व्युत्पत्ति बताई है; और महारानी विक्टोरिया-राज के हिन्दुस्तानी फौज के
सूबेदार, जीयनपुर के घूरी सिंह द्वारा फकत कम्बल एवं लोटे के सहारे एक खूँखर बाघ को
मार डालने की बहादुरी तथा दिलेरी की कथा कही है; वह काशी जी के विलक्षण किस्सागोई
का नमूना है। घूरी सिंह खड़ान गाँव के थे, किन्तु इस बहादुरी के इनाम में उन्हें
तीन गाँव दिए गए थे--पहाड़पुर, करजौंड़ा और जीयनपुर। घूरी सिंह जीयनपुर आकर बसे। घूरी के प्रपौत्र नागर सिंह
(घूरी>द्वारिका>रामनाथ>नागर सिंह), प्राइमरी स्कूल के मास्टर हुए;
काशीनाथ उन्हीं की कनिष्ठ सन्तान हैं! अपने खानदान की इन पाँच पीढ़ियों का विवरण
जिस खास अन्दाज में उन्होंने दिया है; वह किसी गल्प-स्वाद-लोलुप व्यक्ति
को तो केवल बतरस और घटनाक्रम का आनन्द देगा; मगर इस कथा में गोता लगाने पर कई
संकेत सामने आते हैं। संकेत यह, कि काशीनाथ सिंह आज जो भी हैं, उनमें उनकी प्रतिभा,
लगन, कौशल, जीवन-दृष्टि के अलावा पूर्ववर्ती पाँच पीढ़ियों के पेशागत संस्कार
का परिपाक भी है। किसी घातक हथियार का सहारा लिए बिना भी बाघ से लड़कर उसे
पछाड़ देने का आत्मविश्वास, साहस, अक्खड़पन, किसानी एवं ग्रामीण संस्कृति
से अनुराग, पशुपालन-धर्म के प्रति सम्मान, शैक्षिक उद्यम में निष्ठा, दायित्व-निर्वहन
का संस्कार, झूठ-पाखण्ड-धूर्तता से चिढ़ एवं सहज मानवीयता तथा ईमानदारी से
प्रेम, बैठकबाजी, निरर्थक प्रसंगों से परहेज, मानव-मनोविज्ञान की गतिकता एवं
शासकीय दुर्नीति की चालबाजी की गहरी समझ...आदि के खानदानी संस्कार ने निश्चय
ही उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि में कुछ न कुछ जोड़ा होगा और उनके पारिवारिक-सामाजिक-लेखकीय
दायित्वबोध को दृढ़ किया होगा।
दायित्वबोध और सामाजिक सरोकार के किसी ऐसे ही क्षण
में कथाकार को फत्ते अथवा फत्ते की स्मृतियों ने पहला प्यार जैसा
आख्यान रचने के लिए बेचैन किया होगा। वर्ना पल-पल नई कहन-भंगिमा के आखेट में
तल्लीन काशीनाथ सिंह पैंतालीस की पकी उम्र में आकर फत्ते की किशोरावस्था में क्यों
झाँकने जाते?...गौरतलब है कि यह कहानी किसी किशोर के मन में अनायास उपज आए पहले
प्यार का विवरण मात्र नहीं है। इस कहानी ने यदि समाचार की तरह कहानी पढ़नेवाले
कुछ पाठकों की किशोरकालीन पहले प्यार की अतृप्त कामनाओं में गुदगुदी लगा दी हो,
तो तय मानिए कि इससे कथाकार को कोई दुख नहीं होगा; किन्तु वे चाहें तो कथाकार के
अन्य विलक्षण संकेतों को भी गौर कर सकते हैं।
शास्त्र और लोक द्वारा प्यार की व्याख्या लम्बे
समय से होती आई है। इधर आकर तो प्यार पर राजनीति भी होने लगी है। व्याकरण के हिसाब
से जो प्यार स्वयं भाववाचक संज्ञा था, अब उस प्यार में 'सच्चा', 'झूठा', 'गन्दा',
'दैहिक', 'आत्मिक', 'नैसर्गिक' विशेषण लगने लगा है। हद तो यह हो गई कि अब प्यार
(इश्क) कमीना भी होने लगा है। प्यार की पारम्परिक और सामाजिक परिभाषाओं में तो
प्यार के बेशुमार वर्गीकरण हुए पड़े हैं। नामालूम कारणों से प्यार करने या होने
की मोटी-तगड़ी आचार-संहिता बनी हुई है। पंच, बिरादर, और पंचाटों ने इस पर
भली-भाँति अपना ज्ञान-प्रदर्शन किया है। कबीर ने तो ढाई आखर के ज्ञाता को ही पण्डित
घोषित कर दिया; किन्तु प्यार के इन स्वम्भू संविधान-निर्माताओं के
ज्ञानबोध का स्तर जानना कठिन है। सम्भवत: कबीर ने कुछ नहीं कहा। अब कबीर ने
नहीं कहा, तो फिर काशीनाथ सिंह या उनके फत्ते गुरु इनकी चिन्ता क्यों करें?
फत्ते को तो बस प्यार हो गया! वह तो जानता भी नहीं था कि उसे प्यार हो गया। शुक्र
है कि प्यार के मर्मज्ञ कथाकार काशीनाथ सिंह भाँप गए कि बस्स! अब फत्ते को
'उनसे' प्यार हो गया!
दिलचस्प है कि उनके फत्ते ने इसके लिए अलग से कुछ
नहीं किया था; कभी सोचा भी नहीं था। कोई पारम्परिक रीति के आलम्बन-उद्दीपन
जैसी बात भी नहीं थी; वसन्त ऋतु की मादक हवाएँ नहीं थीं, आम्र-मंजरियों की बौर
नहीं थीं, पावस ऋतु की कामोद्दीपक फुहारें नहीं थीं, किसी सरोबर में हंस के जोड़े
नहीं तैर रहे थे, किसी पेड़ की डाल पर बैठी चिड़ियों की जोड़ी प्रेमालाप नहीं
कर रही थी...अर्थात्, प्यार के स्वयम्भू मर्मज्ञों द्वारा अनुसूचित कोई भी
उद्दीपक दृश्य काशीनाथ सिंह के फत्ते के सामने नहीं था; वस्तुत:, वह उसकी दुनिया
ही नहीं थी। 'उनकी दुनिया काँटों की दुनिया थी—भड़भाड़ों
की झाड़, नागफनी के पौधे, कुश,...बिसखोपड़े, नेउरे, मेढक, चूहे, चिड़ियाँ—यह उनकी दुनिया थी। फत्ते बैठे-बैठे बिसखोपड़े या गिरगिट
या इसी तरह के किसी जीव पर निशाना साधा करते।' मौसम भी गर्मी की छुट्टियों का
था।...कथाकार ने नितान्त अपारम्परिक वातावरण में एक किशोर के मन में प्यार
के अँखुए जगाकर यहाँ प्यार की सारी कुलीन स्थापनाओं को खण्डित कर दिया। क्योंकि
घिसी-पिटी लीक पर चलना, और अतार्किक घोषणाओं का बोझ ढोते रहना, कभी उनका काम्य
नहीं रहा। युग-यथार्थ की पहचान उन्होंने सदैव जीवन-सत्य की व्यावहारिकता में
की; किताबों में सजी हर्फों या हवाओं में लटकी घोषणाओं में नहीं। वे भली-भाँति
जानते थे कि प्यार के हो जाने का कोई शास्त्र नहीं होता, प्यार किसी यजमान की
पूजन-विधि या किसी मुवक्किल का मुकदमा नहीं, कि वह पुरोहित अथवा वकील के
आज्ञानुसार फूँक-फूँककर कदम उठाए। प्यार के डगर के राही अपने सन्धान के पुरोहित
या वकील खुद होते हैं। वे खुद अपने संविधान बनाते हैं, और उसका पालन करते हैं, किसी
सन्धान में विफल होकर खुद को मनाते हैं, और 'उनको' मनाने हेतु अगला संविधान
रचते हैं; जैसे कभी चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के लहना सिंह ने रचा था, और एक नई परिस्थिति
में फत्ते गुरु ने रचा। उल्लेखनीय है कि 'किशोरकालीन प्यार' पर केन्द्रित
होने के बावजूद दोनों कहानियाँ--'उसने कहा था', और 'पहला प्यार'
की रचना-भूमि भिन्न है; कथा-दृष्टि, शिल्प, वातावरण, लेखकीय वर्ताव,
पात्रों की सामाजिक पृष्ठभूमि और मानसिक गठन...सब कुछ भिन्न है।
ग्रामीण सादगी के सरोबर में भली-भाँति नहाया हुआ, 'पहला
प्यार' का कथानायक फत्ते के निर्मल मन में ज्यों ही प्यार अँकुराया, वह
सुध-बुध खो बैठा। किसी प्रोफेशनल प्रेमी की तरह उसके मन में मन्मथ नहीं जागा,
उसने किसी किशोरी/युवती की कल्पना नहीं की, उसके मन में किसी वासना की लहर नहीं
उठी...। फकत एक संयोग बैठा कि वह अंग्रेजी के एक शब्द का रट्टा मार रहा था, जिसका
अर्थ प्यार होता है; उस वक्त उसके जीवन में यह एक निरर्थक सन्दर्भ था, जैसे झाड़ियों
में टहलते गिरगिट पर बेवजह पत्थर मारना। उस वक्त गिरगिट मारने के लिए उसने
हाथ उठाकर पत्थर से निशाना साधा ही था, कि उस निहायत अनजान युवती की काँखों के
भूरे बालों पर उसकी नजर पड़ गई। वही नजर, युवावस्था की सौगातों से भरी उस युवती के
किसी माँसल अंगों पर चली गई होती; तो कहानी की दिशा भटक जाती, विवरण बेमतलब
सपाट हो जाता; यह कथाकार की विलक्षण सावधानी का द्योतक है।
कहानी में इस विवरण का उद्देश्य महज माँसलता भरना
नहीं है; बल्कि इशारा करना है कि किसी किशोर के मन में अँकुराया प्यार, ज्ञान
की अनन्त दिशाएँ खोलता है, और अपने पल्लवन हेतु समुचित वातावरण बनाता है।
फत्ते को अब तक किसी स्त्री-शरीर के धरम-करम की कोई जानकारी नहीं थी। उसने
भरे-पुरे मर्दों की काँखों में तो बाल खूब देखे थे, स्त्री के बारे में उसकी ऐसी
कोई कल्पना नहीं थी। बल्कि इस बारे में उसने कभी सोचा भी नहीं था। इसीलिए, उसने
'उनके' काँखों के बाल देखते ही, अपनी काँखों में झाँककर दरियाफ्त किया कि उसके
तो नहीं हैं। दरियाफ्त करवाने की यह घटना भी बेवजह नहीं है; दरअसल प्यार के सवार
होते ही मनुष्य मनत: इतना उदार और संशयात्मा हो जाता है कि प्रमाणित सत्य को
भी अपने लिए फिर-फिर प्रमाणित करता है। अपनी काँखों में वैसे बाल न देखकर फत्ते
बुदबुदाता है—'अच्छा? तो यह बात है! उनके ऐसा भी
होता है!'
कुछ प्रसंगों को अस्पष्ट रखकर कहानीकार ने भावकों को
बहुत कुछ सोचने की स्वाधीनता भी दे रखी है। शुरुआती प्रसंगों में ही जब युवती कमर
में खुँसे आँचल के साथ झुकी, और फत्ते को बोध हुआ कि उन्होंने कुरती नहीं पहनी
है, तो वह चीख उठा—'नहीं! नहीं! नहीं!' उसकी चीख सुनकर
युवती पलटी, तो उलटे पाँव भागा, और नाई की दुकान में जाकर सिर मुड़वा लिया। अब
वह क्यों चीखा? क्यों भागा? क्यों बाल मुड़ाया?—ये
सवाल विचारणीय हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि युवती का कुरती नहीं पहने होना उसे
नागवार गुजरा! या उनके झुकने पर उसने उनके ऐसे अंग देख लिए हों, जिसके वे अधिकारी
न हों, और पापबोध से मन भर उठने के कारण चीख पड़े हों, और प्रायश्चित करने की
नीयत से जाकर अपने प्रियतम शृंगार हटवा लिए हों! या फिर युवती के पलटकर देख
लेने के कारण भयबोध में अपनी पहचान बदलने हेतु बाल मुड़ा लिए हों!...भावक सम्भावनाओं
की तलाश, और उसकी तार्किकता ढूँढते रहें; पर इन सभी सम्भावनाओं में कहानी की उज्ज्वलता
बरकरार रहती है। सम्भावनाओं के अजस्र स्रोत की यही उज्ज्वलता काशीनाथ सिंह की कहानियों
की विलक्षणता है।
उनकी कहानियों की घटना का भौगोलिक विस्तार बहुत
छोटा रहता है, अत्यन्त मामूली। केन्द्रीय चरित्र और काल-सीमा भी अत्यन्त
साधारण। वे किसी महानायक के सहज अथवा विशिष्ट आचरण की व्याख्या में अपना
श्रम-स्वेद नहीं गँवाते; मामूली-से व्यक्ति को अपनी कहानी में खड़ाकर महान बना
देते हैं। उनकी कहानियाँ, मामूली व्यक्ति के मामूली जीवन के सहारे विराट
दर्शन को रेखांकित करती हैं। सदी का सबसे बड़ा आदमी जैसी कुछ कहानियों
में शौक साहब जैसे कोई खानदानी रईस किसी नायक की तरह कभी आ जाएँ, तो भी उनकी
कहानी की पक्षधरता मामूली व्यक्ति के मामूली जीवन का दर्शन तलाशती-तरासती रहती
है।
आठवें दशक में एक कहानीकार के रूप में उन्हें अपने समय
की कहानियों के यथार्थ और समाज के यथार्थ में फाँक दिख रही थी। जिस वर्ग के
पात्रों से कहानियों में विद्रोह और क्रान्ति करवाई जा रही थी, वास्तविक जीवन में वे विद्रोही आत्मसुखलीनता के लिए सारे समझौते करने को तत्पर
रहते थे। आत्मालोचन की इसी प्रक्रिया ने उन्हें सदैव अन्वेषी बनाए रखा; और उनका
उर्वर-उन्नत रचना-कौशल निरन्तर नवोन्मेष में लगा रहा। बीसवीं सदी के ढलते चरण
में उन्हें स्पष्ट दिखने लगा था कि ''सतह पर जो चीज़ नज़र आ रही है, वह धूल नहीं है कि दो चार घड़े पानी डालो और बह जाए...यह संस्कार है--ऊँच-नीच के,
छोटे-बड़े के,...हाथी-बैल के, राजा-परजा के। जाते जाते जाएँगे।
यह मिट्टी है जो सदियों से पड़ी-पड़ी जमकर पत्थर बन
चुकी है। उस पर चोट करो, उसे तोड़ो, उसमें धँसो।'' जमकर पत्थर बन चुकी इस मिट्टी की परत को
तोड़ने के लिए तनिक तेज प्रहार की जरूरत थी, लेकिन फत्ते गुरु के इन संस्कारों
को कथाकार ने प्यार के नाजुक स्पर्श से तोड़ दिया। उल्लेख हो चुका है कि
काशीनाथ सिंह का कथा-शिल्प किसी कुशल योद्धा की युद्ध-नीति की तरह आक्रमक होता
है। लक्ष्य-प्राप्ति के लिए उनकी कहानियाँ बेशुमार जतन करती हैं। कहानी होती
है प्यार पर, और प्रहार हो जाता है गैरमुनासिब संस्कार पर, ऊँच-नीच के भेद-भाव पर...।
'पहला प्यार' कहानी की मूल संरचना पूरी
तरह फत्ते के एकतरफा प्यार पर केन्द्रित है। प्यार के वशीभूत वह इतना मुग्ध
रहता है कि उसके घुटे सिर पर युवती ने चिपड़ी पाथ दी, और वह आत्मसुख में लीन
हो गया। उसने मना किया और युवती ने बीड़ी पीना बन्द कर दिया। इन दो घटनाओं के
बूते फत्ते ने अपने प्यार की आश्वस्ति कर ली। जबकि इनमें युवती द्वारा प्यार
के स्वीकार का कोई स्पष्ट संकेत नहीं है, केवल भ्रम है। प्यार के लिए ऐसा उत्साह,
ऐसी आस्था, ऐसे सपने वस्तुत: पहले प्यार में ही सम्भव है। पहले प्यार की
गुदगुदी, लाज, भय, संकोच, पुनर्पुन: साहस करने का उद्यम, मान-मनुहार...सारा कुछ
यहाँ अपने भव्य-दिव्य रूप में है। कहते हैं कि प्यार कोई मर्यादा नहीं मानता,
किन्तु पूरी कहानी में फत्ते को कहीं मर्यादा लाँघने की जरूरत ही नहीं हुई। बल्कि
मर्यादा का उल्लंघन करते अपने बड़े भाई के वार्तालाप से ग्लानि हुई।
सिर मुड़ाने की अगली दोपहर में जब फत्ते खिड़की के
पास उसकी प्रतीक्षा में बैठा, आवाज लगाकर उसका अभिवादन किया; वह लड़की खिड़की
के पास आ खड़ी हुई, और उससे पूछा—'क्या है?' फत्ते ने
लड़खड़ाती जबान में अभिवादन किया; और युवती ने अभिवादन में झुके उसके घुटे सिर
पर जोर से चिपड़ी पाथ दी, फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी। इस घटना में सम्भावना यह
भी है कि युवती ने खिलन्दड़ अन्दाज में इसके साथ परिहास कर डाली हो; मगर
फत्ते? वह तो तृप्त-परितृप्त हुए जा रहा था। उसे अपने प्यार का घरौन्दा विकसित
होता नजर आ रहा था। यही होता है पहला प्यार। पूरी तरह सकारात्मकता से भरपूर।
काशीनाथ सिंह के सकारात्मकता का यह सन्देश, पूरे परिदृश्य के सभी प्रसंगों के
सभी सम्प्रदायों के लिए भी है। इस परिहास में, कथानायक गोबर की बदबू नहीं
देखता; वह 'उनकी' जैसी हँसी हँसने का प्रयत्न करता रहता है। इसके बाद तो फिर फत्ते
के भीतर चमत्कार पैदा हो गया। 'प्रेम' का चमत्कार। जब कोई नहीं होता, तो फत्ते
उस अहाते में घुसकर 'उनके' द्वारा पाथी गई चिपड़ियों को चूमता। कभी-कभी गीली चिपड़ियों
की पुरेसियाँ उखड़कर उसके होठ से चिपक जातीं; किन्तु उसे अश्रद्धा नहीं होती।
वह ऐन उसी ठौर 'उन्हीं' की तरह पाँव रखकर खड़ा होता। बार-बार अपने सिर पर हथेली
फिड़ाता, जिस पर 'उन्होंने' चिपड़ी पाथ दी थी। भावक चाहें तो हजारीप्रसाद द्विवेदी
के रैक्व की पीठ की खुजली को स्मरण कर सकते हैं। फत्ते बैठे-बैठे अनायास हँस
पड़ता...। पहले प्यार की इस बारीकी को जिस चित्रात्मकता से कथाकार ने अंकित
किया है, पूरी घटना जीवन्त हो उठती है!
अगले दिन तनिक फत्ते का साहस और बढ़ा। प्रफुल्ल मन
और प्रगल्भ चिन्तन से योजना बनाई। अपने कण्ठ में कोयल की कूक पैदा की। 'गणेशाय
नम:' और गायत्री मन्त्र के मंगलाचरण के साथ प्रेम पत्र लिखा और प्यार के मैदान
में उतर गया।...इस पूरी प्रक्रिया में कथाकार के चित्रात्मक और संगीतात्मक विवरण
को महसूस करना किसी भावक के लिए सुखद अनुभूति हो सकती है। इस प्रेम-पूजा की ओर
नायक का सन्धान कितना निर्मल और 'पवित्र' है कि अग्रमुख होने से पूर्व पत्र
में अपनी मांगलिक चर्या--'गणेशाय नम:' लिखना और गायत्री मन्त्र जपना नहीं भूला।
अपने प्यार की रक्षा हेतु, ब्राह्मण संस्कारों में दीक्षित एक किशोर जिस तरह यहाँ
संघर्ष करता दिखता है; रोमांच हो उठता है। नायक का पारम्परिक संस्कार यह स्वीकार
नहीं करता कि कोई स्त्री बीड़ी पीए; इसलिए उसने निहोरा की कि आप बीड़ी मत
पीएँ, आपको शोभा नहीं देता। अपने प्यार के आधार को वह इतना ऊँचा बना लेता है कि
बीड़ी के गुणावगुन से उसे कोई मतलब नहीं रहता; उसे बस इतनी फिक्र है कि यह कर्म
'उन्हें' शोभा नहीं देता। उस युवती ने उसे आश्वस्त किया कि वह बीड़ी नहीं
पीएगी। मगर थोड़ी देर बाद उसके भैया के दवाब पर उसने फिर बीड़ी पी ली। इस पूरे
घटनाक्रम में नायक, जिस तरह नायिका को अपनी पारम्परिक मान्यताओं के अनुरूप
ढालने की कोशिश करता है; और फिर उसके पलटी खाने पर खुद ही अपनी पारम्परिक रूढ़ियों
को त्यागने की कोशिश करता है; कथाकार के महत् रचनात्मक उद्देश्य की ओर इशारा
करता है। प्यार, प्रेमिका के प्रति सम्मान, बड़े भाई के लिए इज्जत और उनकी
सहजात अभद्रता के लिए ग्लानि, मगर भाई की अभद्रता पर भी चुप्पी साधे रहने की
मजबूरी, बैठी हुई प्रेमिका के पर्दानसीं अंगों के दिख जाने का संकोच...तमाम स्थितियों
से संघर्ष करते नायक के मानसिक द्वन्द्व को कथाकार ने किसी घनघोर युद्ध-भूमि
की तरह जीवन्त कर दिया है।
कहानी में खलनायक की तरह प्रविष्ट फत्ते के बड़े भाई
भोलाशंकर पाण्डेय के आचरण को कथाकार ने पूरी तरह सन्देहास्पद रखा। उसे न तो
पूरी तरह सच्चरित्र बनाया, न पूरी तरह दुश्चरित्र। हर जगह उसे बेनीफिट ऑफ
डाउट दिया। युवती उसे 'चाचा' कहती है; मगर जब वह उसे 'पाँय लागी' कहती है, तो वह
जवाब देता है--'पाँय तो हमेशा लगती हो, कभी हाथ भी...।' यह मजाक फत्ते को अच्छा
नहीं लगता। ऐसे ही मजाक पर बीते दिन तरकारीवाली नाराज हो गई थी। मगर, भोला का चरित्र
बार-बार अस्पष्ट ही रहता। अब भावक चाहें तो भोला के आचरण प्रमाण-पत्र पर थोड़ा
कसरत करें।
यही बड़ा भाई भोला, कहानी के अन्तिम अंश में नायक को
बाहर जाकर घूमने-टहलने का हुक्म देता है, जिसका अनुपालन उसे न चाहते हुए भी करना
पडता है। अर्थात्, नायक को उस आनन्ददायी क्षण से जबरन विस्थापित होना पड़ता है।
टाँगें पसारकर आराम से बीड़ी पीती अपनी प्रमिका को देखते हुए, अपने बड़े भाई की
निर्लज्जता पर कुढ़ते हुए, वह वहाँ से निकल जाता है। राजभोग से वंचित कर दिए
गए राजा की तरह; शरीर त्यागकर भागती हुई अत्मा की तरह, शकुन्तला को जंगल में
छोड़कर नगर को वापस होते दुष्यन्त की तरह--''क्षण-भर के लिए तो उनके मन में आया
कि पन्ना की दुकान से उधारी एक बीड़ी माँगें और पीकर देखें कि कैसा लगता है?
लेकिन इस विचार के आते ही उनकी आँखें भर आईं और सामने की बस्ती, पेड़, पौधे सब
धुँधले हो गए। उन्होंने पलकें गिराकर—थोड़ा जोर से भींचकर—आँखें साफ कीं और सीधे दौड़ना शुरू किया। पहले धीरे-धीरे, फिर
थोड़ा तेज, और फिर धीरे-धीरे। अन्त में जहाँ मकान खत्म होते हैं, वहीं नंगे सिर,
'धोख' की तरह सड़क के बीच में खड़े हो गए। दोपहर ढलने के बावजूद सूरज तप रहा था और
लू चल रही थी।'' यह समापन अवतरण अत्यन्त व्याख्येय है। अर्थ-ध्वनियों से
भरपूर ये पंक्तियाँ बहुआयामी व्याख्या की माँग करती है। यहाँ भावक को गहन
दार्शनिकता का सामना करना पड़ता है।
यहाँ आकर फत्ते का मानसिक द्वन्द्व अगाध हो जाता है।
एक बार उसकी बात मानकर बीड़ी पीना छोड़ देनेवाली नायिका, फिर भोला के दवाब पर
बीड़ी पीने लगी...फत्ते बेशक इस रोष में बीड़ी पीने का अनुभव लेना चाह रहा हो,
अपने अर्जित संस्कारों से मुक्त होकर प्रेमिका की आदत में ढल जाने की सोच रहा
हो; किन्तु इस रोष का कारण कहीं उसके बड़े भाई की खलनायकी तो नहीं? बीड़ी पीने की
कल्पना से नायक की आँखें भर आईं। इसका कारण अर्जित संस्कार के टूटने का मोह, या
प्रेम डगर में बड़े भाई द्वारा उत्पन्न अवरोध तो नहीं? फिर उसने पलकें भींचकर—आँखें साफकर दौड़ना शुरू किया। कारण, पीछे की जकड़नों से
मुक्ति की चाहत? या आगे कुछ नया पाने की लालसा? बीच सड़क पर, ढलती दोपहर में भी
लू का ताप महसूस करनेवाले किंकर्तव्यविमूढ़ नायक का ऐसा चित्रण, वस्तुत:
सवालों की शृंखला बनाता है। और, प्रतीत होता है कि इस समय तक आते-आते वाकई, हिन्दी
कहानी चित्रकला और संगीत के निकट आ गई थी; जो भावकों को पूरी तरह अपने में लपेटे
रखने लगी थी। 'पहला प्यार' शीर्षक यह चित्रात्मक कहानी किशोरावस्था के
एकतरफा प्रेम की कथा होकर भी केवल प्रेमकथा नहीं है। प्रेम की निश्छलता के तमाम
द्वार खोलते हुए, यह रूढ़ियों के कई अधिभार से लोगों को मुक्त होने की प्रेरणा
भी देती है।
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