नई संस्कृति के लिए संघर्ष : आलोचना का प्रबल दायित्व
Struggling For New Culture Is Onus of Criticism
हिन्दी समालोचना में इतिहास-बोध, समाजशास्त्रीय समझ, दलित-प्रश्न और स्त्री-चेतना जैसी चार-चार चिन्तन-दृष्टियों के आरम्भिक उद्गाता प्रो. मैनेजर पाण्डेय नहीं रहे। वे 81 वर्ष के थे। छह नवम्बर 2022 को साढ़े आठ बजे सुबह मुनिरका, नई दिल्ली स्थित अपने आवास पर उन्होंने अन्तिम साँसें लीं, अगले दिन अपराह्न चार बजे लोदी रोड शवदाह-गृह में उनकी अन्त्येष्टि हुई।
उनका जन्म बिहार के गोपालगंज जिले के लोहटी गाँव में 23 सितम्बर, 1941 को हुआ। उनकी आरम्भिक शिक्षा गाँव में, तथा उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई। 'सूर का काव्य : परम्परा और प्रतिभा' विषय पर सन् 1968 में जगन्नाथ प्रसाद शर्मा के निर्देशन में पी-एच.डी. की उपाधि लेकर उन्होंने सन् 1969 में बरेली कॉलेज से अध्यापन शुरू किया। सात जुलाई 1970 को वहाँ से जोधपुर विश्वविद्यालय आ गए। ग्यारह मार्च 1977 को उन्होंने भारतीय भाषा केन्द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में अपना योगदान दिया और 30 सितम्बर 2006 को प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त हुए।
उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं -- शब्द और कर्म (1981), साहित्य और इतिहास-दृष्टि (1981), साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका (1989), भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य (1993), संकट के बावजूद (1998), अनभै साँचा (2002), आलोचना की सामाजिकता (2005), मेरे साक्षात्कार (1998), मैं भी मुँह में जुबान रखता हूँ (2006)।
उनका लालन-पालन नितान्त किसानी-संस्कृति के बीच हुआ। उनके परिवार में उनसे पहले किसी ने पढ़ाई नहीं की थी। किन्तु उनकी माँ और पिता की गहन दिलचस्पी उनकी पढ़ाई में थी। वे अपने गाँव के पहले ग्रेजुएट थे। पाँचवीं कक्षा में थे, तभी उनकी माँ का निधन हो गया। अपनी माँ के बारे में उन्हें इससे अधिक कुछ भी याद नहीं था किवे इन्हें बहुत पढ़ा-लिखा देखना चाहती थीं । उनका लालन-पालन अकाल-विधवा हुई उनकी बुआ ने किया।
वे कहा करते थे किआलोचना लिखना निरन्तर आत्मसंघर्ष से गुजरना है। यह आत्मसंघर्ष निरन्तर उनके जीवन में भी बना रहा। पाँचवीं कक्षा में थे तो माँ का निधन हो गया। नौंवी में आए, तो पिता की घनघोर बिमारी की वजह से पढ़ाई स्थगित हो गई, जो बाद में पिता के स्वस्थ होने पर फिर शुरू हुई। उच्च शिक्षा में बनारस आए, तो कुछ राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। उनकी इच्छा राजनीतिशास्त्र पढ़ने की थी, पर अकादेमिक राजनीतिज्ञों ने भाँजी मार दी, उन्हें बी.ए. में राजनीतिशास्त्र में दाखिला नहीं मिला। पर उन्होंने हार नहीं मानी, प्रथम श्रेणी से बी.ए. पास किया। गौरतलब है किउनकी इच्छा बेशक पूरी नहीं हुई, पर हिन्दी साहित्य को इस बहाने 'मैनेजर पाण्डेय' तो मिला ! ... जीवन कुछ ठीक-ठीक चलने लगा तो उनके पिता का देहान्त ऐसे समय में हुआ, जब इन्दिरा गाँधी की हत्या की वजह से दिल्ली से गोपालगंज जाने के सारे मार्ग 48 घण्टे तक अवरुद्ध हो गए; उसी 48 घण्टे की मानसिक प्रतारणा में वे मात्र 40-42 वर्ष की आयु में घनघोर मधुमेह के शिकार हो गए। इस विपत्ति से जूझकर तनिक रास्ते पर आ ही रहे थे किचेहरे पर लकवे का आक्रमण हो गया। पर, वे तो मैनेजर पाण्डेय थे ! इन सबको परास्त करते गए। आगे के दिनों में बिहार राज्य के पुलिस-बल ने वंचनापूर्वक उनके निष्कलुष-निष्काम जवान बेटे की नृशंस हत्या कर दी। इस घटना ने उन्हें तरह-बेतरह आहत कर दिया -- सामने जवान बेटे की निष्प्राण काया, उधर नई-नवेली बहू और नन्हीं-सी पौत्री को देखकर भी धैर्य रखना शायद उन्हीं से सम्भव था। ... जीवन की इतनी विपदाओं को झेलते हुए मैनेजर पाण्डेय की जुझारू प्रवृत्ति, बौद्धिक पराक्रम, आलोचनात्मक मुखरता, लेखकीय ओज कभी कम नहीं हुआ। किसी अतिरिक्त लालसा के लिए कभी दुर्बल नहीं हुए। अपनी शर्तों पर जीवन जीया।
प्रो. मैनेजर पाण्डेय हिन्दी के उन थोड़े से आलोचकों में से हैं जिनकी राय में साहित्य का अस्तित्व समाज से अलग नहीं होता; साहित्य का विकास समाज के विकास से कटा नहीं हो सकता। समाज में नई संस्कृति का विकास, साहित्य के विकास का घटक है। आलोचना का दायित्व नई संस्कृति के लिए संघर्ष करना है। उनकी आलोचना पद्धति कृति के साथ-साथ कृति की सामाजिक अस्मिता की व्याख्या करती है। क्योंकि, हर रचना, सामाजिक सन्दर्भ और सामाजिक अस्तित्व के साथ ही महत्त्वपूर्ण होती है।
'शब्द और कर्म' शीर्षक उनकी पुस्तक में शामिल उनके कुछ प्रारम्भिक (सन् 1970 के आसपास का) निबन्ध समसामयिक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक सन्दर्भ के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों की जाँच-प्रक्रिया की उपज हैं। वह दौर साहित्य के अर्थ और साहित्य में विचारों के उग्र संघर्ष का दौर था। उन दिनों कुछ लोग शब्द और कर्म को लड़ाने की कोशिश कर रहे थे। वे शब्दों की दुनिया को साहित्य की दुनिया और कर्म की दुनिया को सामान्य नागरिक जीवन की दुनिया मानते थे। वे इन दोनों के बीच सम्बन्ध की खोज करना ठीक नहीं मान रहे थे। पर मैनेजर पाण्डेय 'शब्द और कर्म' के सघन सरोकार तय कर रहे थे। सन् 1972-73 के आस-पास से उन्होंने सघनता से आलोचना लिखना शुरू किया। जीवन-संघर्ष में जुटे आम नागरिक, अस्तित्व के संकटों से जूझते दलित समुदाय और अपना ही चेहरा ढूँढती स्त्रियों की दारुण परिस्थितियों के साथ देश में सीना ताने खड़े संकटों को उन्होंने सदैव अपनी आलोचना का प्रेरक-सूत्र बनाया। पीड़ितों और वंचितों की पक्षधरता उनके आलोचना-कर्म का उपस्कर यहीं से बना। नई दृष्टि और नवाचार के प्रति उनका आग्रह इस मान्यता के साथ रहा कि कोई भी आन्दोलन व्यापक सामाजिक परिवर्तन का हिस्सा बनकर ही सार्थक हो सकता है। जो लोग उनके जीवन, लेखन और अध्यापन के विविध आयामों से परिचित हैं, वे उनके आत्मसंघर्ष को बेहतर समझ सकेंगे। हिन्दी साहित्य चिन्तन में इतिहास-दृष्टि, समाजशास्त्रीय दृष्टि, दलित दृष्टि और स्त्री दृष्टि के साथ-साथ उन्होंने अनुगामी आलोचकों को मूल-पाठ के प्रति आग्रहशील और पाठ-शोध के प्रति उन्मुख किया। संस्कृति और समाज के प्रति चिन्तित होने की प्रेरणा दी। हिन्दी में 'साहित्य के समाजशास्त्र' के अध्ययन की सबसे बड़े बाधक वे इस बात को मानते थे कि जो लेखक समाजशास्त्र का ज्ञान रखते हैं, वे साहित्य का कोई ज्ञान नहीं रखते और जो साहित्य का ज्ञान रखते, उन्हें समाजशास्त्र में कोई दिलचस्पी नहीं होती। इसके साथ ही वे वर्तमान को समझने के लिए इतिहास-दृष्टि को अनिवार्य मानते थे। इतिहास चाहे समाज का इतिहास हो या साहित्य का; इतिहास का बोध उनके साथ प्रवृत्ति की तरह बना रहता था। उनके अनुसार व्यापक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक सवालों से मुठभेड़ पर आलोचना का भविष्य निर्भर करता है।
वैचारिक रूप से प्रो. मैनेजर पाण्डेय जितने भी दृढ़ हों, अध्यापन के दौरान वे ज्ञानाकुल छात्र-छात्राओं के लिए सदैव उदार और नम्य बने रहे। उन्हें निकटता से जाननेवाले हर व्यक्ति को मालूम होगा किवे पढ़ाई-लिखाई में बड़े अनुशासित थे, इसलिए अपने निकट आए लोगों से वैसा ही चाहते थे। ज्ञानाकुलता से उनके पास कोई भी पहुँच जाए, निराश नहीं लौटते थे। सामनेवालों के अनर्गल आचरण पर यकीनन उन्हें उग्र क्रोध आ जाता था, पर वह क्रोध दूध के उबाल की तरह होता था, अगले क्षण में पता भी नहीं चलता था कि थोड़ी देर पहले वे क्रोधित हुए थे। उनके लिए तय कर पाना कठिन हो जाता है कि वे आलोचक बड़े थे या अध्यापक या अन्वेषक !
भक्ति आन्दोलन को वे केवल कविता का आन्दोलन नहीं सांस्कृतिक और धार्मिक आन्दोलन के साथ-साथ मातृभाषाओं के जागरण से लेकर नई विश्व दृष्टि के विकास तक का आन्दोलन मानते थे, जिसमें अनेक वर्गों-समुदायों के लोग सक्रिय थे। इसलिए उनकी व्यक्तिगत या सामूहिक दृष्टियों के बीच एकता और टकराव भी होता था।
'आज का समय और मार्क्सवाद' शीर्षक अपने एक लेख में मार्क्सवाद के सम्बन्ध में तरह-तरह से विचार करने के बाद अन्त में उन्होंने मुक्तिबोध के कथन के सहारे अपनी राय दी कि मुक्तिबोध कोरावण के घर पानी भरना स्वीकार नहीं था पर आज के अनेक मार्क्सवादी बुद्धिजीवी रावण के घर पानी भरने के लिए ही नहीं, बल्कि कुआँ खोदने के लिए भी तैयार बैठे हैं। इस सम्बन्ध में जर्मनी के प्रसिद्ध कवि हंस माग्नूस आइजेनवर्गर की 'कार्ल मार्क्स' शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियों के हवाले से स्पष्ट किया किदुनिया भर के क्रान्तिकारी विचार विरोधियों की मार से नहीं अनुयायियों के अवसरवाद से मरते हैं। भारत के प्रसंग में गौतम बुद्ध और कबीर के विचारों के साथ यही हुआ है। मार्क्स के विचार भी इसके अपवाद नहीं हैं।
विचारों के ऐसे धनी, वैचारिक प्रतिबद्धता के ऐसे अडिग, ज्ञान-प्रसार के ऐसे आकाश-धर्मा सन्त, नई पीढ़ी के उन्नायक, सचेत अध्यापक प्रो. मैनेजर पाण्डेय आज अपने पार्थिव शरीर से हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी कृतियों में मौजूद उनके विचार हमें उपलब्ध हैं। हैं। उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता, सामाजिक सरोकार और लेखकीय निष्ठा निश्चय ही परवर्ती समालोचकों का मार्ग प्रशस्त करेगी।
ऐसे कृती विद्वान, महान समालोचक, उदारचेता अध्यापक की स्मृति को नमन करते हुए अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और नियति से प्रार्थना करता है कि उनके परिवार को यह विपत्ति सहने की शक्ति दे।