यथार्थ के मिथक
मिथिकों एवं पुरा-कथाओं के सन्दर्भों से ओत-प्रोत होने के बावजूद उपेन्द्र कुमार का प्रबन्ध-काव्य ‘वायु पुरुष’ (सन 2018, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली) रूपकार्थ में आधुनिक संसार की मंगल-कामना करता एक अनुपम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का अवगाहन समकालीन वैश्विक संकट एवं प्रदूषण से जूझते समाज के लिए प्रेरणास्पद है। आज की वैश्विक चिन्ता जिस ग्लोबल वार्मिंग, पर्यावरण और पारिस्थितिकी से जुड़ी हुई और वायु-प्रदूषण जिस तरह प्राण लेने पर तुला है, उसके उद्भव-स्रोत कोई और नहीं हम ही हैं।
इस कृति के शीर्षनाम से ही स्पष्ट है कि इसके कई सन्दर्भ वायु-पुराण से मिलते हैं। वायुदेव इसमें चरित-नायक हैं, किन्तु कवि ने इन्हें पौराणिक से लेकर आधुनिक समय तक के सभी सन्दर्भों में निरूपित किया है। तथ्यतः एक ही वायु जनजीवन में समयानुरूप विभिन्न रूपों में--कभी प्राण-वायु, कभी पवन, कभी वृष्टि के घटक, कभी आँधी-तूफान के कारण, कभी शीतलता-ऊष्मा-ऊष्णता के साधन बनकर... प्रविष्ट होता है। भौतिक रूपों में वह उन्हीं के अनुरूप स्वयं को ढाल लेता है। इस कृति में नायकत्व तो ‘वायु’ को मिला है, पर जो वायु हमारे इतिहास पुराण से लेकर दिनचर्या के विभिन्न प्रसंगों में उपस्थित है, उस पर कवि की राय है कि ‘प्रकृति और पवन के लिए प्रदूषण हिंसा है, अभिशाप है, जैसे संसार के लिए आतंकवाद। ऐसा अभिशाप या आतंकवाद, एक मनुष्य या एक देश का नहीं होता। वह तो एक सभ्यता विनाशक है।’
इस प्रबन्ध-काव्य के दसवें सर्ग में एक वैश्विक विडम्बना के कारण ‘डरती है इसी बात से प्रकृति/कि वे मानव कर तो पाएँगे नया कुछ नहीं/परन्तु देगी वह उन्हें जो भी उत्तम, विरासत में/करेंगे क्रोध उसी के प्रति/होना था जिन आँखों में प्रेम/स्वार्थ में वे ही बनेंगीं अन्धी/छा जाएगा अविवेक सभ्यता की समझ पर/वे अदूरदर्शी/उठा लेंगे बन्दूकें विध्वंसक उन्हीं हाथों में/जिनमें होने चाहिए थे हल।’ हाथ में हल होने का प्रतीक यहाँ कृषि-संस्कृति के संवर्द्धन और पवन-पावस के संकेत निरूपित हैं। इस अदृश्य वायु-देव का दर्शन तो किसी को नहीं हुआ, पर वे सबको जानते हैं। वे सभी मनुष्य को, पशु, पक्षी, फसल, पेड़, पौधे, जड़ी-बूटी, वन-उपवन को वे छूते हैं। हर किसी के संग चलते हैं, ऋतुओं की अगुआई-विदाई वही करते हैं। उनके अनेक रूप हैं--सौम्य, प्रशान्त, भीषण प्रलयंकारी।
पर, लोग हैं कि ‘पवन प्रदूषित करने के महापाप के भागी/अपने कष्ट मिटाने को भागेंगे/मन्दिर-मन्दिर/हनुमान के आगे हाथ जोड़े प्रसाद चढ़ाएँगे/परन्तु अपने-अपने पिता के हत्यारों को/क्यों कर पवनपुत्र उबारेंगे?’ ध्यान रहे कि हनुमान का नाम ही है पवनपुत्र। अंजना और पवन के संयोग से उनका जन्म हुआ। इसी बात को रेखांकित करते हुए इस काव्य के प्रथम सर्ग में वायु के आत्मकथ्य का विलक्षण निरूपण है, जिसमें आधुनिक समाज-व्यवस्था के अनुकूल सारी बातें सामने आ गई हैं। विभिन्न रूपों में पवन हमारे चतुर्दिक प्रसारित हैं, वे सारे पौराणिक प्रसंग यहाँ आधुनिक सन्दर्भ में, आज के समाज की जीवन-लीला रूप में वैज्ञानिक ढंग से निरूपित हैं। ‘वायु पुरुष’ को नया अर्थ देते हुए, ग्यारह सर्गों में रचित इस प्रबन्ध-काव्य को हम न तो खण्डकाव्य कह सकते, न महाकाव्य। परिभाषाओं के यत्न से बचते हुए इसकी प्रबन्धकता के मद्देनजर इसे प्रबन्ध-काव्य कहना ही श्रेयस्कर है। हर सर्ग का कथा-सूत्र अगले-पिछले से सम्बद्ध है। वायुदेव की आत्मकथात्मकता इसकी प्रबन्धात्मकता को निर्देशित कर एक लक्ष्य तक पहुँचाती है जो अन्ततः कवि का चरम लक्ष्य है। और, कवि का लक्ष्य इतिहास-पुराण सम्बन्धी अपना ज्ञान बघारना नहीं बल्कि इतिहास-पुराण के सन्दर्भों से प्रेरित होकर, नई व्याख्या के साथ उस पाठ को समयानुकूल और उपादेय बनाना है।
पहले सर्ग में, वायु स्वयं उपस्थित होकर अपना परिचय देते हैं कि ‘मैं वायु हूँ/कहाँ हुआ जन्म मेरा/...मैं जानता हूँ और नहीं भी/एक अबूझ पहेली है या स्वप्न।’ इस अबूझ पहेली को रेखांकित करते हुए कवि कई भारतीय प्रसंगों के साथ-साथ मिस्र की सभ्यता तक पहुँच जाते हैं। और, वायु के पुलिंग होने और हवा के स्त्रीलिंग होने का उल्लेख करते हुए, वायुपुत्र भीम और पवनपुत्र हनुमान तक की चर्चा करते हुए, मिस्र के मातृदेवीपूजक निवासियों की ओर चल पड़ते हैं, जहाँ पुरातनता के इतिहास में उल्लिखित एकलिंगी दिव्य-भृंग की पूजा सभी प्राचीन काल के मिस्रवासी करते रहे। माना जाता रहा कि तब पुरुष मात्र ही मौजूद थे। फिर वहाँ ‘चील’ को माँ का प्रतीक भी माना जाता रहा, जिसका धर स्त्री का और सिर चील का होता है। इस तरह कई ऐतिहासिक सन्दर्भों से एकत्र इन प्रसंगों को रेखांकित करते हुए कवि उस सन्दर्भ की ओर भी जाते हैं जहाँ चीलों के गर्भवती होने की क्रिया सम्भव हुई। प्रसंग रोचक है कि चील हवा में उड़ती, अठखेलियाँ करती, आकाश की असीम ऊँचाइयों में वायु को रिझाकर उससे गर्भवती होती थी। ‘वायु-पुराण’ और ‘अग्नि-पुराण’ के सन्दर्भों से रचित इस काव्य के कथ्य से आज के वैज्ञानिक समय में भावकों को चिन्तित नहीं होना चाहिए। उन्हें चिन्ता करनी चाहिए अपने समय के वायु-प्रदूषण की। सभी दिशाओं से चलनेवाले वायु का अधुनातन रूप इस काव्य में पाठकों को अवश्य उद्बुद्ध करेगा, जहाँ मानव-जीवन और प्रकृति-विकास में वायु के अवदान मोहक ढंग से निरूपित हैं।
भिन्न-भिन्न दिशाओं एवं पर्यवस्थितियों से चलनेवाले वायु ‘दखिन या दखिनैया/और उत्तर से आने वाले उत्तरा या उत्तरैया/दक्खिन-पछाही या नरेती कहे जाते हैं/जो लपट लिए गर्मी में चलते हैं झकझोरते/...बर्फीली गिरि-कन्दराओं से वात का आगमन हो तो/हिमवात...।’ प्रकृति में पवन-पावस के तालमेल से किसानी संस्कृति ऐसा गहन लगाव, वायु-संचरण की दिशा से बारिस और फसल का मिजाज भाँप लेने की कला लोकोक्तियों में उल्लेखनीय है। मनुष्य की शारीरिक अवस्था पर भी वायु-पुरुष के छुअन की अलग-अलग तासीर से लौकिक चेतना अवगत है। ऐसे विवरणों से किसानी संस्कृति के प्रति कवि का लगाव पहचाना जा सकता है।
चन्द्रदेव को अपना परिचय देते हुए वायु पुरुष कहते हैं कि ‘...मैं वह हूँ/जो मनुष्य से पहले आया था/और फिर हुए मेरे कई पुनर्जन्म/मैं हवा हूँ और उससे अधिक भी बहुत कुछ हूँ।’ हस्तिनापुर साम्राज्ञी कुन्ती से वायुदेव का समागम और भीमसेन के जन्म का उल्लेख तो उपेन्द्र कुमार ने अपने पूर्वरचित प्रबन्ध-काव्य ‘इन्द्रप्रस्थ’ में भी किया है, पर यहाँ उन्होंने वाल्मीकि रामायण के सन्दर्भ से अंजना-पवनदेव के प्रेम-प्रणय का अत्यन्त माँसल और मोहक चित्र निरूपित किया है--‘एक दिन की बात है/सुशोभित रूप और यौवन से/धारण कर मानव स्त्री का रूप अंजना कर रही थी भ्रमण/काले बादलों की कान्तिवाले/पर्वत शिखर पर/...गुजरे तभी वहाँ से वायुदेव/मोहित हो उनके रूप से/वायुदेव ने उड़ा दिए देवी अंजना के वस्त्र/...लगाई नहीं वायुदेव ने तनिक भी देर/बाहों में भर हृदय से लगा लिया/उस अनिन्द्य सुन्दरी को/...हुई देवि अंजना प्रसन्न/उन्होंने दिया जन्म एक पुत्र को।’ पौराणिक सन्दर्भों से निरूपित पवनदेव के शौर्य-पराक्रम का उल्लेख इस काव्य में ऐसे है कि ‘...महाक्रोध किया वायुदेव ने/और छोड़ दिया/प्रवाहित होना तीनों लोकों में/वायु के प्रकोप से/बन्द हो गया लोगों का साँस लेना/हाहाकार मच गया समस्त सृष्टि में/अवरुद्ध होने से वायु के/तीनों लोकों में मच गई खलबली/अनुनय विनय में वायुदेव के लग गए/समस्त लोकपाल...।’ सुनने में यह वायु-कथा जितनी भी पौराणिक और अव्यवहारिक लगे, पर हम कल्पना करके देखें कि दो पल के लिए ऐसा हो ही जाए, तो जीव-जन्तु की जीवन-लीला का क्या हाल होगा? ऐसे में कवि यहाँ सन्देश देना चाहते हैं कि जिस वायु के कारण हमारी साँस अवरुद्ध हो सकती है उस वायु की प्रकृति को सौन्दर्य-सम्पन्न रहने दें, अपने कुकृत्य से उसे प्रदूषित न करें, क्योंकि उस प्रदूषण का अन्तिम दण्ड हमें ही भोगना पड़ेगा। क्योंकि--‘जब सृष्टि की सर्वोत्तम रचना/मानव प्रजाति ही बन उठेगी/सृष्टि-हन्ता, आत्म-हन्ता/आकाशगंगा तक छूने लगेंगे/मानव के विध्वंसक कारनामे/बना तो पाएँगे बेहतर कुछ भी/परन्तु नासमझी में खाते और खोते रहेंगे/प्राकृतिक संसाधनों को।’