पुस्तक व्यवसाय का विहंगम दृश्य
‘ज्ञान’ और ‘जानकारी’ अलग-अलग बात बेशक हो, पर शिक्षा दोनों के लिए जरूरी है। शिक्षा मनुष्य को अज्ञान के अन्धकार से उबारती है, जड़ता के अन्ध-कूप से बाहर लाती है, उनकी आँखों में रोशनी भरती है। इस उपक्रम में ‘पुस्तक’ का महत्त्व सर्वदा सर्वत्र अपरिहार्य है। जीवन-यापन के क्रम में पुस्तकें मनुष्य का पथदर्शी गुरु है, दोस्त है, स्वामी है, सहारा है, सेवक है, पूरक है...तय करना कठिन है, कहें कि सब कुछ है!
पहले कुछ विडम्बनाओं की बात करें! सरस्वती, ब्रह्मा, गणेश जैसे बुद्धिदेवों; वाल्मीकि, व्यास, परशुराम, चाणक्य, विष्णु शर्मा, गार्गी, मैत्रोयी, मण्डन मिश्र, भारती, शंकराचार्य, वाचस्पति...जैसे विद्वान-विदुषियों; विवेकानन्द, गाँधी, राजेन्द्र प्रसाद, लोहिया जैसे चिन्तकों के देश में शिक्षा के प्रति आम भारतीयों की उदासीनता चिन्तनीय है। स्वाधीनता के बाद की स्थितियाँ तो इस नजरिए को और भी पुख्ता करती हैं। बीते दशकों में भारत देश की अस्मिता के दलालों, घपलेबाजों, सरकारी खजाने के लुटेरों की जो सूची बनेगी, उनमें कोई अशिक्षित नजर नहीं आएँगे! तो क्या शिक्षा के प्रचार-प्रसार का यही लक्ष्य है?...बिल्कुल नहीं, देश के इन सारे उचक्कों ने शिक्षा से जानकारी, तो प्राप्त कर ली, ज्ञान से इनकी भेंट हो न सकी, दरअसल इन्हें ज्ञान की जरूरत भी नहीं थी। तथ्यतः इन्हें ठीक से जानकारी भी नहीं मिली, अपने अतीत में ये पुस्तकों के सान्निध्य में बस समय बिता रहे थे; सद्कृपा पुस्तकों की ही है कि अब तक उन्होंने किसी इससे भी बड़े अघट की दलाली नहीं की। बहरहाल...
भारत की एक बड़ी-सी जनसंख्या अभी भी शिक्षा एवं पुस्तकों के सान्निध्य को अर्थोपार्जन एवं रोजगार से अलग रखना चाहती है; पड़ोसियों को सलाह देती है कि वे शिक्षा को रोजगार से अलग रखें। साक्षर, शिक्षित, उच्च शिक्षित अथवा सर्वोच्च शिक्षित होने के बावजूद इस देश में कोई रोजगार न मिले, तो देश की व्यवस्था अथवा शिक्षा के प्रति उदासीन न होए, अपना मूल्यांकन करे और तय करे कि शिक्षित होकर भी वे किसी लायक हुए हैं या नहीं? शिक्षा प्राप्ति के बाद उन्हें जो तर्कशक्ति और विवेकशीलता मिली है, क्या किसी निरक्षर को प्राप्त है?
हमारा देश प्रगति किए जा रहा है, वैज्ञानिक अवदान के साथ आगे बढ़े जा रहा है। दूरदर्शन, इण्टरनेट, सी.डी. के सहारे मनोरंजन के साधन और सुविधाएँ जुटाई जा रही हैं। लोग उस ओर तेजी से उन्मुख हुए जा रहे हैं। बीते कुछ वर्षों से कहा जाने लगा है कि संचार माध्यमों में इलेक्ट्रोनिक्स के आगमन से, साइबर युग के प्रभाव से लिखित माध्यमों पर अथवा पुस्तकों के भविष्य पर खतरा आ गया है। अर्थात्, विज्ञान के प्रादुर्भाव से उपलब्ध उपकरणों और संसाधनों ने देश और देश के नागरिक की सांस्कृतिक विरासत को क्षति पहुँचाई है और भारत क्रमशः विज्ञान और वैज्ञानिक उपकरणों के साथ अपसंस्कृति की ओर उन्मुख हुआ है।
हमारे देश की सरकार इस सांस्कृतिक विरासत और इन परम्पराओं को लेकर इतनी चिन्तित है कि पुस्तकों के प्रोन्नयन हेतु तरह-तरह के आयोजनों और उत्सवों को प्रश्रय दे रही है। ‘हिन्दी दिवस’ और ‘बाल दिवस’ अब इतना हृष्ट-पुष्ट हो गया कि ‘हिन्दी सप्ताह’, ‘हिन्दी पखवाड़ा’ होते-होते ‘हिन्दी माह’ मनाया जाने लगा, जो हिन्दी के पुरोहितों के लिए ‘पितृपक्ष’ की तरह फलदायी हो गया है। ‘बाल दिवस’ बढ़कर ‘पुस्तक सप्ताह’ में तब्दील हो गया। विगत कुछ वर्षों से 23 अप्रैल को ‘विश्व पुस्तक एवं स्वत्वाधिकार दिवस’ मनाया जाने लगा है। इस दिवस की घोषणा सन् 1995 में संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने प्रख्यात रचनाकार विलियम शेक्सपीयर, मिगुएल डी सर्वान्तेस सावेदरा तथा इंका गार्सिलासो डी ला वेगा की पुण्य तिथि 23 अप्रैल 1616 की स्मृति में की थी। तभी से दुनिया के सभी देशों में 23 अप्रैल को प्रति वर्ष विश्व पुस्तक दिवस एवं स्वत्वाधिकार दिवस मनाया जाता है। इस घोषणा की उल्लासमय सफलता से उत्साहित यूनेस्को ने सन् 2001 में स्पैन की राजधानी मैड्रिड को विश्व पुस्तक राजधानी घोषित किया; जो फिर से एक सफल प्रयास साबित हुआ। आगे के वर्षों में व्रोक्लाव (पोलैण्ड) को सन् 2016 की, कोनेक्री (गिनी, दक्षिण अफ्रीका) को सन् 2017 की, एथेन्स को सन् 2018 की, शरजाह (संयुक्त अरब अमीरात) को सन् 2019 की विश्व पुस्तक राजधानी घोषित की गई। कुछ बरस पहलेे भारत सरकार ने पूरे वर्ष को ‘पुस्तक वर्ष’ घोषित कर दिया। देश के कोने-कोने में उसके कार्यक्रमों की सूचनाएँ देखी गईं।
भारत में पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए मानव संसाधन एवं विकास मन्त्रलय के अधीन गठित स्वायत्त संस्था नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया ने अपने स्थापना काल से ही इस दिशा में बेशुमार सराहनीय कार्य किए हैं। सन् 1972 में दो सौ प्रकाशकों की भागीदारी के साथ प्रथम विश्व पुस्तक मेले की शुरुआत का श्रेय उसी को जाता है। तब से निरन्तर विश्व पुस्तक मेलों का आयोजन होता आ रहा है। पहले यह मेला हर दूसरे वर्ष लगता था। प्रतिभागियों की संख्या निरन्तर बढ़ती गई। बीसवी सदी के अन्तिम और इक्कीसवी सदी के आरम्भिक वर्षों में यह संख्या 1700 तक चली गई थी। अब यह मेला प्रति वर्ष लगता है। लभगभ 800 प्रकाशकों की प्रतिभागीदारी से 21वाँ विश्व पुस्तक मेला 6-14 जनवरी 2018 तक आयोजित हुआ; अगला विश्व पुस्तक मेला 5-13 जनवरी, 2019 और फिर अगला 4-12 जनवरी 2020 को हुआ। पुस्तक संस्कृति के प्रोन्नयन हेतु नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया ने पूरे देश में अब तक 23 विश्व पुस्तक मेलों, साढ़े तीन दर्जन से अधिक राष्ट्रीय पुस्तक मेलों, सवा दो सौ से अधिक क्षेत्रीय पुस्तक मेलों के अलावा पूरे देश में लगभग 11,000 से अधिक चलन्त पुस्तक-प्रदर्शनियों का आयोजन किया है।
इन सबके बावजूद प्रकाशकों की राय है कि ‘पुस्तकों के प्रति लोगों की रुचि घटती जा रही है। इसी कारण देश की विभिन्न भाषाओं में मुद्रण संख्या घटकर 500 और 300 तक आ गई है। कागज, स्याही, छपाई की बढ़ती कीमत और प्रकाशन उद्योग में सौष्ठव के नए-नए अनुप्रयोग के कारण पुस्तकों की कीमत बढ़ाना मजबूरी थी। हमारी भी रोजी-रोटी तो इसी से चलती है।’...उधर पुस्तक व्यवसायी संघ के चिन्तकों का एक अभिप्राय यह भी है कि पुस्तक मेलों और प्रदर्शनियों का आयोजन भारत के कोने-कोनेेे में न तो होता है, न होना सम्भव है। पर पाठकों की संख्या उन दूर-दराज के गाँवों में भी पर्याप्त है, जहाँ देर-सबेर मात्र डाक द्वारा ही पुस्तकें भेजी या मँगवाई जा सकती हैं। ऐसे में यदि ‘ब्रेल’ (दृष्टि-बाधित पुस्तक-प्रेमियों के लिए विशेष रूप से तैयार की गई पढ़ने की विधि) पुस्तकों की तरह अन्य सारी पुस्तकों पर भी डाक खर्च समाप्त कर दिया जाए या नगण्य कर दिया जाए, तो शायद स्थितियाँ बेहतर हों। पुस्तकों की आवा-जाही पर डाक-व्यय समाप्त करने का निवेदन-प्रतिवेदन कई वर्षों से, कई मौकों पर किया जाता रहा है, पर शायद आने वाले समय में कुछ बात बने।
पाठकों की राय में प्रकाशन व्यवसाय से जुड़े अभिकर्मियों का उद्देश्य, मात्र अर्थोंपार्जन नहीं होता; यह शुद्ध समाज-सेवा या धर्मखाते की गतिविधियाँ बेशक न हो, पर पुस्तकें छाप-बेचकर वह समाज की मनोवृत्तियों और संस्कृतियों का संशोधन-परिशोधन कर रहा होता है; इसलिए वह शुद्ध रूप से धनलोलुप व्यापारी नहीं है; पुस्तक उद्योग एक मिशन है, व्यापार नहीं। इसीलिए पुस्तक उद्योग से जुड़े लोगों को समान संवेदनशीलता के साथ पुस्तक प्रेमियों का भी ध्यान रखना चाहिए। लेखक लिखता है पाठकों के लिए, लेकिन व्यवसायिकता के मारे पुस्तकें छपकर पुस्तकालयों में बन्द हो जाती हैं। इसका दोष पाठक प्रकाशकों के सिर मढ़ते हैं। कई लेखकों की भी राय कुछ ऐसी ही बनती है।
असल में मामला कुछ उलझा हुआ है। प्रकाशन जगत की बारीकियों से अवगत न होने के कारण और मुद्रण-उद्योग के संसाधनों (कागज, स्याही, गत्ता, डिजाइन खर्च, छपाई, जिल्दसाजी, गोदाम के रखरखाव...आदि) की लागत में बेशुमार वृद्धि के कारण लागत मूल्य में अत्यधिक बढ़त आ गई है। पुस्तक-व्यवसाय और उद्योग में कार्यरत कर्मचारियों का वेतन भी तो इसी में शामिल होगा! नई तकनीक के प्रवेश से भी कई खर्च बढ़े हैं। विचारणीय यह भी है कि तीन दशक पूर्व छह रुपये में मिलनेवाली गंजी आज एक सौ दस रुपये में मिल रही है; तीन रुपये में मिलनेवाला साबुन आज साठ रुपये में मिल रहा है; किताब की कीमत इसी अनुपात में बढ़ी है? किसी भी वस्तु की कीमत उसके अवयवों के लागत मूल्य से तय होती है। जहाँ तक सरकारी खरीद की बात है, प्रकाशकों की ओर से सोचने पर स्पष्ट होगा कि सारे सरकारी अधिकारी घात लगाए बैठे रहते हैं कि प्रकाशक आए कि धर दबोचें! ऐसे में प्रकाशक भी क्या करे! प्रकाशन सौष्ठव के प्रतिस्पद्र्धी बाजार में उन्हें अपनी गरदन भी ऊँची करनी है।
प्रकाशन व्यवसाय की एक बड़ी समस्या मुद्रण संख्या की भी है। ज्ञान की शाखाओं के विकास के कारण और विशेषज्ञता पूरित रोजगारोन्मुख पुस्तकों की जरूरत के कारण अब लोगों ने अपना अध्ययन क्षेत्र सुनिश्चित कर लिया है। हर कोई हर कुछ नहीं पढ़ता। पहले भी नहीं पढ़ते थे, किन्तु अब क्रेताओं, पाठकों की पसन्द बहुत सीमित हो गई है। लिहाजा पुस्तकों की मुद्रण संख्या घट गई है। इसका सीधा असर पुस्तकों की कीमत पर पड़ा है। मुद्रण संख्या बढ़ेगी, तो प्रति इकाई लागत मूल्य कम होगी, और इस स्थिति में पुस्तक का विक्रय मूल्य कम हो सकता है। किन्तु जिन अधिकांश किताबों की बिक्री तेजी से नहीं होती, उनकी प्रतियाँ गोदाम में ढेर लगी रहती हैं। उन प्रतियों के मुद्रण की लागत का स्थगित हो जाना और उन प्रतियों के रखरखाव में अतिरिक्त निवेश करना प्रकाशकों के लिए एक अलग दायित्व हो जाता है। मजबूरन वे पुस्तकों की मुद्रण संख्या घटा लेते हैं। ... कुल मिलाकर इस पूरे मामले पर बात करना बड़ा पेचीदा है। पाठकों को खुद ही तय करना होगा कि किताब उनके जीवन की मजबूरी है या नहीं। यदि पाँच सौ रुपये के जूते के बदले ग्यारह हजार के जूते पहन सकते हैं, तो पाँच सौ रुपये की किताब भी खरीद सकते हैं। आखिरकार प्रकाशकों और प्रकाशन उद्योग के कर्मियों के भी घर-परिवार और मनोरथ हैं।
पहले के समय में नई और बेहतरीन पुस्तकों का प्रकाशन संचार-तन्त्र के अभिकर्ताओं को सम्मोहित करता था। वे जन-जन को नव प्रकाशित पुस्तकों की सूचना देने में रुचि रखते थे। अखबारों में प्रकाशित समीक्षाओं द्वारा लोगों तक नई और बेहतरीन पुस्तकों की सूचना पहुँचती थी। दुर्योगवश पुस्तकों का यह महत्त्वपूर्ण सूचना स्रोत अब समाप्त हो गया। दैनिक अखबारों के परिशिष्टों से पुस्तकों की जगह समाप्त हो गई। सम्भवतः संचार-माध्यम के स्वामियों/सलाहकारों को पुस्तकों की बात करना असामाजिक(?) उद्यम लगा होगा। आकाशवाणी और दूरदर्शन के कार्यक्रमों में तो साहित्य की जगह वैसे भी कम थी, अब तो नगण्य हो गई है। ले-देकर पत्रिकाओं में प्रकाशित पुस्तक-समीक्षाएँ ही पाठकों का सहारा हैं।
प्रकाशन-क्षेत्र में शौकिया लेखक, विवेकहीन प्रकाशक और सरकारी-खरीद के आखेटकों ने भी इस पवित्र-कर्म के आँगन को दूषित किया है। एक से एक निरर्थक किताबें छपने लगी हैं। ऐसी किताबों का प्रकाशन, सरकारी खरीद, समीक्षा के बाजार में उसका तुमुल कोलाहल, पुरस्कारों की बस्ती में उसके तिकड़म इतने प्रबल हो गए हैं कि उपादेय पुस्तकें पीछे बैठकर ठगी-सी देखती रहती हैं। सम्पादकों-समीक्षकों के लिए पात्र-अपात्र का निर्णय करना कठिन नहीं हुआ है, किन्तु शतरंज की चाल में उन्हें बार-बार फँसना पड़ता है। ज्यादातर समय में उन्हें निर्मम और ईमानदार होने के खतरे दिखते रहते हैं। आखिरकार वे भी तो इसी तिकड़मी समाज के नागरिक हैं।... इन्हीं स्थितियों से गुजरते हुए पाठकों को कुछ श्रेष्ठ पुस्तकों की सूचनाएँ अब हंस, समकालीन भारतीय साहित्य, समीक्षा, आजकल, पुस्तकवार्ता, कथादेश, आलोचना, तद्भव, लमही, परिकथा, नया ज्ञानोदय, नई धारा, संवेद, पहल, पल-प्रतिपल, साक्षात्कार, साखी, अनुवाद, अन्तरंग एवं अन्य विशिष्ट पत्रिकाओं द्वारा मिलती रहती हैं।
पर लेखक तो अलग ही राग में रहते हैं। भारतीय भाषाओं के लेखक तो खासकर। उन्हें हमेशा ही यह शिकायत रहती है कि प्रकाशकों ने उनकी रायल्टी मार ली। यद्यपि इस पूरे परिदृश्य के मूल तत्त्व लेखक हैं, उनका महत्त्व सबसे अधिक होना चाहिए, पर देखा ऐसा जाता है कि सबसे अधिक उपेक्षा भाव वे ही महसूस करते रहते हैं। ऐसे खुशनसीब लेखक कम हैं, जिनके सम्बन्ध प्रकाशकों के साथ आर्थिक रूप से पारदर्शी हैं। यूँ यह बात समझ आने लायक नहीं है कि जो प्रकाशक अपने उद्योग में इतना संसाधन लगाता है, वह सौ रुपये में मात्र दस रुपये (लेखक की रायल्टी) क्यों कर बेईमानी करेगा?...बहरहाल, चारो तरफ से स्थितियाँ ये ही हैं...।
पुस्तक-पाठक सम्बन्ध बड़ा पुराना और बहुत ही अनुराग भरा है। हर पुस्तक पढ़ने के बाद हर पाठक नव-स्नात हो उठता है, यह घटना उसे अनेक अच्छे सन्दर्भों से जोड़ती है, अनेक बुरे सन्दर्भों से काटती है। कहा जाता है कि इधर आकर पुस्तक-पाठक के अनुराग का स्तर घटा है। कुछ वर्षों में इलेक्ट्रानिक मीडिया और इन्फाॅरमेशन टेक्नोलाॅजी के वर्चस्व के कारण बहुत हाय-तौबा मचाई गई है। किसी बड़े खतरे के अन्देशे से लोग बेवजह परेशान हैं। बेचैन हो-होकर घोषणा कर रहे हैं कि किताबों का भविष्य खतरे में है। इलेक्ट्रानिक मीडिया और इन्फॉरमेशन टेक्नोलॉजी के कारण प्रिण्ट मीडिया और किताबों पर बड़ा संकट छा जाएगा। ... अब तो काफी समय गुजर गया, देश के छोटे-छोटे शहरों में भी इन्फाॅरमेशन टेक्नोलाॅजी ने अपनी जगह बना ली, अब तक तो किताबों का कुछ नह° बिगड़ा, बल्कि इनसे लाभ ही हुआ है। वेबसाइट की मदद से किताबों को व्यापक प्रचार मिला है। फिर समझ में नह° आता कि यह बावेला किस लिए?
मौके बेमौके लोग फतबा देते रहते हैं कि लोगों की प्राथमिकता बदल गई, पठन रुचि में गिरावट आई है, लोग अच्छा साहित्य नह° पढ़ना चाहते, किताबों का बाजार घटा है, किताबें बिकती नहीं हैंै... कई तरह की बातें होती हैं... पर उदाहरणों से तर्क करें कि प्रकाशकों की संख्या लगातार बढ़ रही है, नई पीढ़ी पूरी प्रतिबद्धता से इस क्षेत्र में आ रही है, पुस्तक मेलों के आयोजकों की संख्या बढ़ रही है, भागीदारों की संख्या बढ़ रही है, उत्तरोत्तर व्यापार बढ़ रहा है, पुराने और स्थापित पुस्तक-व्यवसायियों का जीवन-स्तर ऊँचा हो रहा है, प्रकाशन-उद्योग में नई-नई टेक्नोलाॅजी का प्रवेश और आधुनिक सुविधाओं का आगमन हो रहा है, लेखकों की संख्या बढ़ रही है, पुस्तकालयों में आलमारियाँ भरती जा रही हैं, पुस्तक मेलों में दर्शकों की भीड़ बढ़ रही है, समाज में साक्षरों और बुद्धिजीवियों की संख्या बढ़ रही है, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं में किताबों का और किताबों के कॉपीराइट्स का आदान-प्रदान बढ़ रहा है... सारा कुछ हो रहा है... फिर भी यह हल्ला मचा हुआ ही है कि किताबें बिकती नहीं, लोग खरीदते नहीं, लोग पढ़ते नहीं...
अब इस समय यदि पाठकों की संख्या को कमतर कहा जाए तो सवाल उठेगा कि संख्या इससे अधिक कब थी? तथ्यतः पाठकों की संख्या बढ़ी है। शिक्षा का क्षेत्र बढ़ा है, ज्ञान की शाखाएँ बढ़ी हैं, लोगों की रुचि, पढ़ने की जरूरत और विशेषज्ञता का फलक बढ़ा है, लेखकों और प्रकाशकों की संख्या बढ़ी है, इस विविधमुखी विस्तार की परिधि में साहित्य के पाठकों की संख्या में अपेक्षित वृद्धि न देखकर लोग घोषणा कर डालते हैं कि पाठकों की संख्या में ह्रास हुआ है। वैसे संज्ञान में तो यह बात भी आनी चाहिए कि बरसाती मेढक की तरह टर्राने वाले लेखकों की संख्या भी बढ़ गई है! विगत पाँच-छह दशकों में विभिन्न विषयों और विभिन्न विधाओं की पुस्तकों के पाठक निश्चित रूप से बढ़े हैं, और पाठकों की संख्या की इस वृद्धि में पुस्तक मेला संस्कृति ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।
मेला और प्रर्दशनी जैसे अवसर पाठकों को मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से प्रभावित करते हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि लोग मेला देखने यूँ ही चले आते है। बिना किसी कारण के, और देखते-देखते अचानक उन्हें कोई पुस्तक पसन्द आ जाए तो बगैर खरीदे नहीं रहते, और जब पुस्तक खरीदी गई, तो पढ़ी तो जाएगी ही।
किसी भी शहर में या गाँव में विद्यमान पुस्तक दुकान से वह समस्या हल नहीं होती, जो पुस्तक मेला या पुस्तक प्रदर्शनी से हल होती है। दुकान में रखी पुस्तकें, पाठ्यक्रम की पुस्तकें खरीदनेवालों के लिए लाभप्रद होती हैं। कस्बाई क्षेत्र एवं छोटी जगहों की दुकानों में सामान्यतः ऐसी ही किताबें होती हैं। प्रदर्शनी में लोगों के सामने सारी किताबें फैली रहती हैं। उन्हें चयन की पूरी सुविधा रहती है। ऐसे अवसर पर लोग यह सोचकर नहीं चलते कि अमुक किताब खरीदनी है। वे किताब खरीदने चलते हैं और जो उनको पसन्द होती है, वह खरीद लाते हैं।
छोटे-छोटे बच्चों का मेले में आना और भी मनोवैज्ञानिक प्रभाव उत्पन्न करता है। बच्चे यहीं से अपने संस्कार का संवर्द्धन करते हैं। मेले के दौरन शहर के लोगों का जैसा रुझान देखा जाता है, वह वहाँ की सांस्कृतिक विरासत के प्रति आम लोगों को आश्वस्त करता है।
कहा जाता है कि जिस देश में अल्कोहल की बिक्री सबसे ज्यादा हो, आर्थिक रूप से उस देश को सबसे उन्नत देश माना जाएगा। पर, ढंग से सोचने पर यह बात ज्यादा समीचीन लगेगी, कि जहाँ पर पुस्तक व्यवसाय ज्यादा उन्नत हो वही देश, बौद्धिक रूप से ज्यादा उन्नत माना जाएगा। सिन्धु घाटी सभ्यता से लेकर आज तक की मानव सभ्यता के विकास के मूल में मानव मस्तिष्क के व्यायाम का ही ज्यादा योगदान है। बौद्धिक सम्पदा ने ही मनुष्य को पशुवत जीवन यापन से निकालकर सभ्य और सुसंस्कृत बनाया है। बौद्धिक समृद्धि ही किसी देश को सर्वविध समृद्ध करती है। आज अमेरिका, ब्रिटेन और जापान में पुस्तकें महँगी होने के बावजूद यदि काफी संख्या में खरीदी और पढ़ी जाती हैं, तो उसका मूल कारण यह भी है कि वहाँ का नागरिक न केवल आर्थिक दृष्टि से, बल्कि बौद्धिक दृष्टि से भी प्रगतिकामी है। यूँ समृद्ध अर्थव्यवस्था में पुस्तकों की खरीद फरोख्त होने के कुछ अवान्तर प्रसंग भी हैं। कुछ धनशाली लोग तो पुस्तकें या अन्य सांस्कृतिक उपकरणों की खरीद अपने ड्राइंग रूम को सुसंस्कृत और बौद्धिक बनाने के लिए भी करते हैं, पर यह शाश्वत और सार्वभौम सत्य नहीं है।
सूचनानुसार सन् 1476 में इंग्लैण्ड में छापाखाने की शुरुआत हुई, पर एमस्टर्डम से सन् 1620 में अंग्रेजी में पहले समाचार-पत्र का प्रकाशन शुरू हुआ। यद्यपि सूचना यह भी है कि 1561 में ‘न्यूज आउट आॅफ केण्ट’ तथा 1575 में ‘न्यू न्यूज’ नाम का अनियतकालीन पत्र भी छपा था। सोलहवीं शताब्दी में पश्चिम जर्मनी में तथा अन्य यूरोपीय देशों में भी मुद्रण की सूचनाएँ मिलती हैं। सतरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही आस्ट्रिया, नीदरलैण्ड तथा इटली में मुद्रण का काम शुरू हुआ। ‘पब्लिक अकरन्सेस बोथ फारेन एण्ड डोमेस्टिक’ नामक पहला अमेरिकी पत्र 25 सितम्बर 1690 को निकला और यह परम्परा चल पड़ी।
भारत में प्रकाशन और मुद्रण की शुरुआत सोलहवीं शताब्दी में हुई। ‘डाक्ट्राइज क्रिश्चियन’ नामक पहली पुस्तक का प्रकाशन जेसुट मिशनरी ने सन् 1557 में किया। वास्कोडिगामा के भारत आने के 59 वर्ष बाद भारत में पहले छापाखाने की स्थापना हुई और जर्मनी में गुटेनबर्ग की बाइबिल के प्रकाशन के एक सौ वर्ष के भीतर भारत ने विभिन्न भाषाओं में टाइप बनाने का काम प्रारम्भ किया।
सचाई है कि भारत में मुद्रणालय और पत्रकारिता के बीजारोपण का श्रेय अंग्रेजों को जाता है। मनोरंजन और सूचना प्रसारण हेतु पत्रों की शुरुआत हुई, बाद में ईसाई मत के प्रचार-प्रसार हेतु पत्रकारिता कारगर साबित हुई। इसी स्थिति से उत्पन्न अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध आवाज उठी। फलस्वरूप भारतीय पत्रकारिता का श्रीगणेश हुआ। राजा राममोहन राय समेत अन्य कई भारतीय चिन्तक इसके सफल अभिकर्मी हुए। ध्यातव्य है कि स्वाधीनता संग्राम के हमारे अधिकांश नेता पत्रकारिता, लेखन और प्रकाशन कार्य से सम्बद्ध थे।
लेखन की परम्परा तो भारत में प्राचीन है। पर, मुगलों के शासनकाल में ‘वाकयानवीस’ की जो परम्परा संवाद सम्प्रेषण के लिए बनी थी, उसी की सेवाएँ लेकर अठारहवीं शताब्दी में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी प्रकाशन कार्य शुरू किया। एक सूचना के अनुसार भारतीय प्रकाशन की शुरुआत सन् 1800 में बंगला भाषा में हुई। सन् 1802 में पहली बार कलकत्ता के हरकारू पे्रस में हिन्दी की पुस्तक ‘मिसकीन की मरसिया’ छपी। सन् 1821 में राजा राममोहन राय ने ‘मिरातुल अखबार’ नामक साप्ताहिक पत्र शुरू किया; 30 मई 1826 को देवनागरी में पहला पत्र ‘उदन्तमार्तण्ड’ प्रकाशित हुआ और फिर ‘सुधाकर’, ‘कवि वचन सुधा’, ‘सरस्वती’ आदि पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ और भारत में प्रकाशन उद्योग फलने फूलने लगा।
हालाँकि पुस्तकों का इतिहास यह भी है कि यूनानी और रोमन युग से पूर्व इस व्यवसाय का कोई रिकार्ड नहीं है, पर यह सूचना है कि पहला पुस्तक विक्रेता मिस्र का था। वह गमजदा लोगों को पुस्तक देता था, कब्र पर पुस्तक की प्रति रख देता था, उस पुस्तक को मौत के बाद जिन्दगी का पासपोर्ट माना जाता था। सम्भव है कि उत्तर भारत की हिन्दू परम्परा में ‘गरुड़-पुराण’ का जो सन्दर्भ है, शायद मिस्र की परम्परा में वही हो। जो भी हो, लेकिन रोमवासियों की जीत के बाद सिकन्दरिया (मिस्र) साहित्यिक केन्द्र बन गया।
वैसे तो विश्व स्तर की स्थिति यह है कि पाँचवीं सदी में ही ‘पुस्तक’ रूप में प्रकाशन कार्य शुरू हो गया था। ‘टाइटस पाम्पोनियस एटिक्स’ रोम के पहले प्रकाशक थे। वे सिसरो के भी साहित्य सलाहकार और प्रकाशक थे। इसी समय में एबर्ट डाइकिंक, फिलिप फ्रेनाड, ड्यूत्र गेन जैसे प्रकाशक भी हुए। न्यूयार्क में नोआ वेबस्टर, बोस्टन में थामस एण्ड एड्रेस और फिलाडेल्फिया में बंेजामिन फ्रैंकलिन बेश जैसे प्रकाशक क्रियाशील हुए। उन दिनों लेखकों द्वारा ही पुस्तकें पुनप्र्रस्तुत की जाती थीं।
विकास के कई चरणों से गुजरने के बाद उन्नीसवीं सदी के मध्य आते-आते पुस्तक प्रकाशन में काफी प्रगति हुई। सिलेण्डर प्रेस और रोटरी प्रेस का आविष्कार इसी दौरान हुआ। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में कई बड़े-बड़े प्रकाशक अस्तित्व में आए। ‘कण्ट्री लाइफ प्रेस’ की स्थापना सन् 1910 में हुई, सन् 1927 में इसका विलय जार्ज डोरान से हुआ।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पुस्तक प्रकाशन का व्यवसाय कागज के कोटे में कटौती के कारण थोड़ा प्रभावित अवश्य हुआ पर इन्हीं उठा-पटक के साथ प्रकाशन व्यवसाय पूरे विश्व में अपनी-अपनी भौगोलिक और सामाजिक-सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और गुणवत्ता के पैमाने पर चलता रहा। भारतीय प्रकाशन उद्योग आजादी के बाद ही तेजी से फला-फूला। स्वातन्त्रयोत्तर काल में शिक्षा के प्रचार-प्रसार हुए, विश्वविद्यालय, महाविद्यालय और प्राथमिक से लेकर उच्चतर विद्यालय तक खुले, साक्षरता बढ़ी, छात्र-छात्रओं की संख्या बढ़ी, लोगों में जागरूकता बढ़ी, फलस्वरूप पुस्तकों की माँग बढ़ी, पर केवल पाठ्य-पुस्तकों की। यूँ तो अभी भी वही हाल है, पर शुरुआती दौर में और भी अधिक था। भारतीय प्रकाशन उद्योग में अभी भी पाठ्य-पुस्तकें और छात्रोपयोगी पुस्तकें ज्यादा प्रकाशित होती हैं। कुछ ऐसी पुस्तकें जो पाठ्यक्रम में नहीं हैं, पर छात्र-छात्रओं को अकादमिक लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक होती हैं, इसी कोटि में आती हैं।
आजादी के बाद भी भारतीय प्रकाशन उद्योग में ब्रिटेन और अमेरिका की दखलन्दाजी से काफी परिवर्तन आया। पहले ब्रिटिश पुस्तकों के आधार पर तैयार की गई पुस्तकें शिक्षार्थियों की आवश्यकताओं के अनुरूप थीं, बीसवीं शताब्दी के छठे दशक में अमेरिका का प्रवेश हुआ तो ब्रिटेन का एकाधिकार टूटा। भारतीय प्रकाशकों ने भी इस मौके का लाभ उठाया और प्रकाशन उद्योग में विषय का विस्तार हुआ। सातवें दशक में नेशनल बुक ट्रस्ट ने विश्वविद्यालय स्तर की पुस्तकों के प्रकाशन हेतु अनुदान देना शुरू किया। यह क्रम अभी भी जारी है।
पर, आज, जब भारत देश अपनी आजादी की बहत्तरवीं जयन्ती मनाकर निश्चिन्त हुआ है; विभिन्न क्षेत्रों में व्यवसायीकरण अपने सौष्ठव के लिए और अपनी लोकप्रियता के लिए भिन्न-भिन्न तरह की पैकेजिंग कर रहा है; प्रकाशन उद्योग ने भी काफी प्रगति की है। भोज-पत्र और ताल-पत्र पर सन्देश लिखने वाले युग के व्यक्तियों ने आज के प्रकाशन उद्योग की उपलब्धियों की कल्पना भी नहीं की होगी। इसी सौष्ठव के अनुकरण में भारतीय प्रकाशन, भारतीय नागरिकों की क्रयशक्ति का अनुमान किए बगैर, काफी उन्नत हो गया। और, इसी उन्नति में शायद भारतीय भाषाओं और भारतीय प्रकाशनों का पाठक समुदाय थोड़ा पीछे छूट गया। यूँ भारत के नागरिकों के पढ़ने की आदतों में भी काफी उन्नति हुई है। भारत के प्रकाशन उद्योग की तुलना आज अमेरिका या यूरोप के किसी भी देश के प्रकाशन उद्योग से की जा सकती है। कई अन्तर्राष्ट्रीय पुस्तक मेलों में भारत की भागीदारी शानदार होती है और प्राप्त खबरों के अनुसार वहाँ भारतीय प्रकाशनों को सराहा जाता है। दो दशक पूर्व जिस भारत में प्रति दस लाख व्यक्ति पर प्रकाशन का आँकड़ा यूरोप की 735 पुस्तकों के मुकाबले 30 बताया जाता है; उस भारत की तुलना आज उन्हीं देशों से हो, यह अभूतपूर्व उपलब्धि अवश्य है। पर सौष्ठव और बाजारवाद के साथ-साथ हमें यह याद रखने की जरूरत है कि भारतीय पाठकों की क्रयशक्ति उतनी सबल नहीं है।
प्रकाशक संघों की घोषणानुसार भारत में प्रकाशकों की अनुमानित संख्या लगभग 19,000 है; हालाँकि हजार से अधिक सदस्य शायद ही किसी संघ में हो। भारत के इस उद्योग-क्षेत्र के बिखराव का अनुमान इससे सम्भव है। सन् 2007 के अन्त तक, भारत के आईएसबीएन (इण्टरनेशनल स्टैण्डर्ड बुक नम्बर) कार्यालय में पंजीकृत प्रकाशकों की कुल संख्या 12,375 थी। भारतीय सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि कई प्रकाशक आईएसबीएन के लिए अपनी पुस्तकों का पंजीकरण नहीं कराते। भिन्न-भिन्न संगठनों द्वारा अनुमान लगाया जाता है कि लगभग 90,000 पुस्तकें प्रति वर्ष प्रकाशित होती हैं। एक सौ चैंतीस करोड़ आबादी वाले देश भारत में प्रति एक लाख व्यक्ति साढ़े छह पुस्तकें हिस्से में आती हैं, जबकि साक्षरता दर बढ़कर 74.4 प्रतिशत हो गई है। सर्वेक्षण के अनुसार गत शताब्दी के अन्तिम वर्ष में संविधान स्वीकृत 18 भाषाओं में कुल 60,000 पुस्तकें प्रकाशित हुईं। भारत की सौ करोड़ आबादी (65.3 प्रतिशत साक्षरता दर) में प्रति एक लाख व्यक्ति छह पुस्तकें हिस्से में थीं। सन् 1996 तक पुस्तकों की संख्या प्रति वर्ष 20,000 थी, उससे पहले के वर्षों में कभी यह संख्या 16,500 तो कभी 18,000 होती रहती थी, और भारत की छियानवे करोड़ आबादी में प्रति एक लाख व्यक्ति दो पुस्तकें हिस्से में थीं। इससे अनुमान करना सहज है कि इस विशाल बाजार में मुश्तैदी से अभिनव प्रयोग करते रहने के बावजूद भारतीय प्रकाशन व्यवसाय अभी किस स्थिति में है!
वैसे आर्थिक उदारीकरण के बाद से भारतीय मुद्रण उद्योग में नवीनतम तकनीक के प्रवेश और निवेश की गुंजाईश बढ़ी; आधुनिकीकरण के द्वार खुले; और नवीनतम प्रौद्योगिकी के प्रवेश से गुणवत्ता का मानक ऊँचा हुआ। फलस्वरूप मुद्रण उद्योग की सीमाएँ बढ़ीं। स्पष्टतः व्यापार भी बेहतर हुआ। इन दिनों विकसित और विकासशील-- दोनों को मिलाकर भारतीय पुस्तकों, पत्रिकाओं और मुद्रण व्यवसाय के विशेषज्ञों का निर्यात दुनिया के 120 से अधिक देशों में हो रहा है। सन् 2004-05 के दौरान मुद्रित पुस्तक-पुस्तिकाओं, पत्र-पत्रिकाओं के भारतीय निर्यात का अनुमानित आँकड़ा 395.4 करोड़ था। अनुमानतः 2.5 लाख से अधिक मुद्रण कम्पनियों के साथ भारतीय मुद्रण उद्योग इस समय दुनिया में प्रथम स्थान पर है। यह संख्या यूरोप में 1.18 लाख, चीन में 1.13 लाख, अमेरिका में पचास हजार, जापान में पैंतालीस हजार, कोरिया में बयालीस हजार और ऑस्ट्रेलिया में चालीस हजार है। भारत में इस क्षेत्र का वार्षिक कारोबार अभी पचास हजार करोड़ से अधिक बताया जाता है।
भारतीय पुस्तक बाजार की समझ बनाने और इसकी चुनौतियों का मूल्यांकन करने के लिए एसोशिएशन ऑफ पब्लिशर्स इन इण्डिया (एपीआई) और फेडरेशन ऑफ इण्डियन पब्लिशर्स (एफपीआई) के सहयोग से आयोजित सर्वेक्षण ‘नील्सन इंडिया बुक मार्केट रिपोर्ट 2015’ के अनुसार भारत का पुस्तक बाजार इस समय दुनिया का छठा सबसे बड़ा बाजार और अंग्रेजी भाषा का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है; जिसके पुस्तक व्यापार का आँकड़ा 261 अरब रुपये का है; सन् 2020 तक इस आँकड़े के 739 अरब रुपये तक पहुँचने की उम्मीद है। हैरतअंगेज है कि भारतीय पुस्तक उद्योग को सरकार से कोई प्रत्यक्ष निवेश नहीं मिलता।
भारत की लोकतान्त्रिक सत्ता में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के कारण भी कुछ ऐसी पुस्तकें तैयार होने लगीं, जिसमें व्यवस्था को चुनौती दी जा रही हों, विवादास्पद स्थितियों की व्याख्या की जा रही हों। विवादास्पद पुस्तकों और प्रतिपक्ष की मुखबिरी करने वाली पुस्तकों के प्रकाशन का सिलसिला भी भारतीय भाषाओं में, स्वाधीनता संग्राम के समय से ही है, पर बाद के दिनों में इसमें और भी नए-नए आयाम जुड़े।
बीते दिनों की मुद्रण कला की पूरी कहानी लेकर यदि ईमानदारी से व्याख्या की जाए, तो बड़ी उलझन की स्थिति सामने आती है। सर्वतोन्मुखी विकास के बावजूद लेखक, पाठक, प्रकाशक, वितरक--सब-के-सब अपने-अपने राग में रोते रहते हैं। पर वस्तु स्थिति यह है कि समय सापेक्ष मूल्यांकन किया नहीं जाता और तटस्थ दृष्टि से सोचने को कोई तैयार नहीं होते। क्रेताओं का कहना होता है कि पुस्तकें महँगी हो गई हैं। उनसे पूछा जाए कि मानवता के सिवा कौन चीज सस्ती होती जा रही है? वे जवाब नहीं दे पाते। तीन दशक पूर्व दस नए पैसे प्रति सिगरेट मिलता था, आज वह दस रुपये प्रति सिगरेट है। तीस वर्षों में सौ गुनी कीमत अधिक होने के बावजूद अस्वास्थ्यकर चीज की शिकायत लोग नहीं करते, पर पुस्तक की पच्चीस गुनी बढ़ी कीमत की शिकायत करते हैं। प्रकाशन व्यवसायी यदि इस काम में जुटा है, तो उन्हें अपने भरण-पोषण का ध्यान तो रखना ही होगा। बिना स्वार्थ के तो आज तक किसी तपस्वी ने भी तपस्या नहीं की। सारी उम्मीद प्रकाशकों से ही क्यों कर ली जाए? सौ रुपये की कोई पुस्तक को देखकर क्रेता को सोचना चाहिए कि उसका 33 प्रतिशत तो वितरक का बट्टा होगा, दस प्रतिशत लेखक की रायल्टी, 25 प्रतिशत प्रेस से लेकर गोदाम और शो-रूम तक में उसके रख-रखाव खर्च। इस तरह कुल मूल्य का 32 प्रतिशत ही प्रकाशक के पल्ले पड़ता है, जिसमें पुस्तक का लागत मूल्य भी है, प्रकाशन उद्योग के कर्मियों के वेतन, व्यवसाय की औपचारिकताओं का खर्च और उसका अपना भरन-पोषण भी। यदि नेशनल बुक ट्रस्ट जैसी संस्थाओं में मूल्य कम रहता है, तो इन मूल्यों को अन्य प्रकाशनों से प्रकाशित पुस्तकों के मूल्य से नहीं मिलाया जाना चाहिए। कारण, नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित पुस्तकों का मूल्य-निर्धारण करते समय उसके लागत मूल्य में केवल टाइप सेटिंग, प्रूफ रीडिंग, मुद्रण और बाइण्डिंग का खर्च जोड़ा जाता है; पुस्तक-प्रकाशन में लगे अभिकर्मियों, सम्पादक, अनुवादक, उत्पादन प्रबन्धक, गोदाम प्रबन्धक, शो-रूम प्रभारी, बिक्री प्रबन्धक, प्रचार प्रबन्धक, कार्यालय सहायक, आदेशपाल आदि के वेतन और उनके दौड़-धूप में हुए खर्च उसमें शामिल नहीं होते; जबकि प्राइवेट प्रकाशकों को यह करना पड़ेगा।
इन सब के बावजूद इधर के दिनों में कुछ प्रकाशकों ने पुस्तकों को आम जनता तक पहुँचाने की चेष्टा की है। पेपर बैक और पाकेट साइज में पुस्तकें छापकर पुस्तकों को किफायती बनाने का सफल प्रयास किया है। हिन्दी में राजकमल, वाणी, किताबघर जैसे प्रकाशनों की इस तरह की कुछ योजनाएँ सम्मान करने लायक हैं। अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रयास हो रहे हैं। यद्यपि हिन्दीतर भारतीय भाषाओं में बंगला, मलयालम, मराठी के अलावा अन्य भाषाओं के प्रकाशन व्यवसाय की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, पर कम से कम ‘मैथिली’ जैसी भाषा से बेहतर तो है ही, जहाँ प्रति वर्ष लेखकगण अपनी जेब से खर्च कर अपनी आम-इमली पुस्तक की तीन सौ प्रतियाँ छपवाकर मुफ्त वितरित कर देते हैं, और साहित्य अकादेमी की कार्यकारिणी समिति के भाषाई प्रतिनिधि के आजू-बाजू पुरस्कार हेतु घूमने लगते हैं। असल में प्रकाशन उद्योग को गन्दा करने का श्रेय हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में ऐसे ही लेखकों और प्रकाशकों को जाता है। हिन्दी में लोगों को व्याख्याता बनना होता है, विश्वविद्यालयीय प्राध्यापकी में प्रोन्नत होना होता है, इस प्रोन्नति में पुस्तकों का लेखक होना सहायक होगा, इसलिए किसी भी व्यापारी (शुद्ध व्यापारी, जिसे प्रकाशन व्यवसाय का कोई भी नैतिक शास्त्रा ज्ञात नहीं) से व्यापार करता है, उसे छापने का खर्च देकर पुस्तक छपवा लेता है, प्रोन्नति पा जाता है, वेतन बढ़वा लेता है। उस प्राध्यापक का वही कूड़ा-कचड़ा लेकर प्रकाशक विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों में जाकर बेहिसाब मूल्य पर, बेहिसाब रिश्वत देकर बेच आता है। इस तरह की स्थितियों ने माहौल को बहुत गन्दा किया है। इसी गन्दगी के कारण पाठक भी बिदके हैं और ऐसे प्रकाशकों के शोर-शराबे से वातावरण में थोड़ा कोलाहल भी भरा है। ...स्थिति सचमुच बहुत खराब रहती, तो ऐसा कैसे होता कि 16-25 जनवरी 1976 में नेशनल बुक ट्रस्ट ने दूसरे विश्व पुस्तक मेले का आयोजन किया, उसमें पूरे संसार के 322 प्रकाशकों ने भाग लिया और दस दिन के इस उत्सव में लगभग डेढ़ लाख पुस्तक प्रेमियों के आवागमन के आँकड़े आँके गए। उसके बाद हर दूसरे वर्ष विश्व पुस्तक मेले का आयोजन हुआ, हर मेले में उत्तरोत्तर आगन्तुकों की संख्या बढ़ी और 5-13 फरवरी 2000 को दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित 14वें विश्व पुस्तक मेले में भागीदारों की संख्या 1270 थी और मेले में आए पुस्तक प्रेमियों की संख्या 5 लाख से ज्यादा आँकी गई। दो दर्जन से अधिक देशों की भागीदारी अब तक के विश्व पुस्तक मेलों में हो चुकी है। अब तो मेलों का आयोजन कई संस्थाओं, संगठनों द्वारा होने लगा है। कोलकाता पुस्तक मेले का आयोजन पब्लिशर्स इण्डिया गिल्ड द्वारा और दिल्ली पुस्तक मेले का आयोजन अखिल भारतीय प्रकाशक संघ द्वारा तो होता ही है, अब कुछ लोग वैयक्तिक प्रयास से भी इस दिशा में आगे आए हैं। ये सारी स्थितियाँ इन पुस्तकों के सम्बन्ध में फैलाई जा रही निराशाजनक सूचनाओं को खण्डित करती हैं।
कुछ खास किस्म के लेखकों-प्रकाशकों के गोरखधन्धों ने इस व्यवसाय को प्रदूषित अवश्य किया है। रचनाओं के परमुटेशन-कम्बिनेशन से तरह-तरह का सेट तैयार कर सरकारी धन का अवान्तर लाभ ले रहा है और पाठकों के साथ धोखा कर रहा है, यह चिन्ताजनक स्थिति अवश्य है। इस पर प्रकाशक संघ भी रोक नहीं लगवा सकता, क्योंकि विवेक समाप्त कर लोकतन्त्र के मैदान में कूद आए मनुष्य को कौन रोकेगा।
सम्पूर्णता में भारतीय प्रकाशन उद्योग के सुनहरे भविष्य पर आशंकित होने का कोई तर्क नहीं दिखता। विषय और सौष्ठव--दोनों दृष्टियों से भारतीय प्रकाशन उद्योग पूरी तरह गतिमान है, अग्रोन्मुख है, पर आस-पास के घटकों से इसे कुछ अपेक्षाएँ हैं :
- प्रकाशन उद्योग को किफायती मूल्य पर कागज मिले और मुद्रित सामग्री पर डाक व्यय न लगे, अथवा नगण्य डाक व्यय लगे--ऐसी व्यवस्था भारत सरकार से होनी चाहिए।
- लेखक-प्रकाशक(कुछ) के आपसी मेल से जो घपले होते हैं, वे न हों; एक ही रचना कई परिधानों में लाकर पाठकों/क्रेताओं को भरमाया न जाए। नैतिकता की रक्षा हो
- पुस्तकों के प्रकाशन और मूल्य निर्धारण के समय पाठकों की क्रय-क्षमता का ध्यान रखा जाए। हर प्रकाशक किफायती संस्करण की व्यवस्था रखे। ‘प्रकाशक लेखकों की रायल्टी मार लेता है’ जैसी रूढ़ भ्रान्ति को प्रकाशक-लेखक अपने सम्मिलित प्रयास से दूर करें।
- क्रेता/पाठक थोड़ा इस मानसिक कब्ज से बाहर आएँ कि पुस्तकें बहुत महँगी हो गई हैं। महँगी तो ‘दवा’ और ‘दारू’ दोनों हुई हैं। पर लोगों ने दो में से कुछ भी खरीदना और इसका सेवन करना बन्द नहीं किया है। पुस्तकों को ठीक से देखें, तो यह ‘दवा’ भी है और ‘दारू’ भी; पर यह दवा-दारू से ज्यादा महँगी नहीं हुई है।
- विश्वविद्यालयों की नौकरियों में और प्रोन्नतियों में डाक्टरेट की उपाधि और पुस्तकों के प्रकाशन से जो वजन बढ़ता है, वह समाप्त हो जाए, इससे न तो कूड़े-कचरे के भाव में शोध-प्रबन्ध लिखा जाएगा और न इसका प्रकाशन होगा। इसके अलावा भी कुछ बकवास लिखने और बकवास छापने वाले आन्दोलनकारी(?) लोग हैं, वे विवेक से काम लें और कागज जैसी राष्ट्रीय सम्पत्ति को बर्बाद न करने का शपथ लें, इससे प्रकाशन उद्योग की ढेर सारी गन्दगी अनायास छँट जाएँगी। अर्थात्, पुस्तक और प्रकाशन उद्योग के भविष्य को लेकर हाय-तौबा मचाने वाले लोगों को चिन्ता अपने भविष्य की करनी चाहिए। साइबर क्रान्ति से न तो पुस्तक को कोई खतरा है, न पुस्तक से साइबर युग को। दोनों अपनी जगह महत्त्वपूर्ण हैं और दोनों, दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण है। ‘शब्द’ ‘अक्षर’ से बनते हैं, और ‘अक्षर’ वह है जिसका ‘क्षरण’ न हो। फिर इसके सुनिश्चित भविष्य की चिन्ता ही क्यों