समकालीन दुनिया के वक्तव्य-वीरों
का तुमुल कोलाहल परवान चढ़ा हुआ है। हर कोई अपने पाक-साफ नीयत का ढिंढोरा पीटने
में जोर-शोर से लगे हुए हैं। उनकी राय में देश का हर मनुष्य बेईमान, भ्रष्ट और
अनैतिक है; बस वही एक हैं, जो नैतिक हैं। इन उद्घोषणाओं के कारण तीस-पैंतीस बरस
पूर्व अपने साथ घटी एक घटना इन दिनों बहुत सताने लगी है। उन दिनों सहर्षा कॉलेज
में आई.एस-सी. में पढ़ता था। दिन चढ़ते ही उस दिन सब्जी बाजार से गुजर रहा था;
सोचा, कुछ साग-सब्जी खरीदता चलूँ! सब्जी-बाजार में खरीद-बिक्री यद्यपि सान्ध्य-वेला
में शुरू होती थी। दिन भर सभी दुकानदार अपने-अपने कौशल से दुकान सजाने में व्यस्त
रहते थे। पर मेरी तरह कोई भूले-भटके ग्राहक आ जाते, तो वे निराश नहीं लौटते थे। सगुनिया
ग्राहक समझकर दुकानदार उन्हें समान देने से हिचकते नहीं थे। सगुनमय बोहनी की चिन्ता
में व्यापारी बड़े सावधान रहते हैं।... सारे दुकानदार पूरे दिन अपने पेशागत शिष्टाचार
में व्यस्त रहते थे। आकर्षक ढंग से दुकान सजाते थे। बासी और सूखती हुई सब्जियों
को ताजा-तरीन बनाकर पेश करना कोई साधारण काम तो होता नहीं! मनुष्य हो या वस्तु; उम्र
बदलना, जाति-धर्म-ईमान बदलने से कहीं अधिक कठिन होता है।
एक दुकानदार के पास जाकर
मैंने पूछा—भई, परवल कैसे? उन्होंने कहा—चार रुपए धरी (पाँच किलो को एक धरी या पसेरी कहते हैं)! मैं
आगे बढ़ गया, सोचा, शायद आगे कोई इससे सस्ता दे दे! दो-तीन दुकानदारों से और
पूछता हुआ एक बड़ी दुकान के पास पहुँचा। वे दुकानदार थोड़े अधिक उद्यमी लग रहे
थे। पूरे परिवार के लोग दुकान सजाने की प्रक्रिया में तल्लीन थे। अन्य
दुकानदारों की तरह वे भी परवल, भिण्डी, तोड़ी जैसी हरी सब्जियाँ एक बड़ी-सी
नाद में गहरे हरे रंग में मनोयोग से रंग रहे थे। बैगन के डण्ठल को हरे रंग में रंगकर
पहले ही ताजा बनाए जा चुके थे; उनकी पत्नी किनारे बैठकर चिकनाई सने कपड़ों से
पोछ-पोछकर बैगनों को चमकदार बना रही थीं। अर्थात् बासी और सूखे हुए बैगन को ताजा
बना रही थीं। मैंने दुकानदार से पूछा—भई, परवल कैसे? उन्होंने
कहा—छह रुपए धरी! मैंने कहा—क्यों भाई! पीछे के दुकानदार तो चार रुपए धरी दे रहे हैं!
दुकानदार ने मेरा उपहास करते हुए कहा—आगे जाइए, तीन रुपए धरी भी
मिल जाएगा। रंगा हुआ परवल तो सस्ते में मिलेगा ही!...
उस दिन तो हँसी भर आकर रह
गई थी, पर इन दिनों वह घटना बहुत सताती है। परवल रंगनेवाला हर व्यक्ति दूसरे
रंगनेवालों को बेईमान कहता है। परवल रंगने के इस कौशल को सुधीजन जरा मुहावरे की
तरह इस्तेमाल करें, तो जीवन की हर चेष्टा में इसके उदाहरण मिल जाएँगे। 'परवल
रंगकर बेचना' उस दुकानदार की नजर में बेशक अनैतिक था, किन्तु औरों के लिए; उनके
लिए नहीं। वे तो वह काम इस बेफिक्री से कर रहे थे, गोया उनके लिए वह परम नैतिक
हो; उन्हें इस बात का इल्म तक नहीं था कि उन्हें वही काम करते हुए सारे लोग देख
रहे हैं। अपने ललाट पर उग आया गूमर किसी को दिखता कहाँ है!
सोचता रहता हूँ कि वही
दुकानदार रात को सौदा-सुलुफ के बाद जब अपने घर पहुँचते होंगे, और खरीदे हुए
दाल-चावल में कंकड़ की मिलावट पाते होंगे, तो क्या उन्हें अपने अनैतिक आचरण पर
क्षोभ होता होगा? निश्चय ही नहीं होता होगा। हुआ होता तो आज हमारे देशीय नागरिक
इतने अनैतिक कामों में लिप्त नहीं होते। विगत सत्तर वर्षों की आजादी का देशीय
वातावरण देखकर हर व्यक्ति आज अनैतिकता के विरुद्ध भाषण करने में परिपक्व हो
गया है, जिसे देखें, वही दूसरों पर ऊँगली उठाए खड़े मिलते हैं। अध्यापक कहते
हैं डॉक्टर बेईमान है; डॉक्टर कहते हैं इंजीनियर बेईमान है; इंजीनियर कहते हैं
राजनेता बेईमान है; राजनेता कहते हैं जनता बेईमान है...बेईमानों का यह रिले-रेस
बदस्तूर चल रहा है; किसी भी महकमे का अधिकारी नागरिक खुद किसी अनैतिक आचरण
से बाज नहीं आता; दूसरों के आचरण की पहरेदारी करता रहता है।
बेशुमार धन उगाहने के चक्कर
में आज की पीढ़ियाँ विवेक और नैतिकता से पूरी तरह बेफिक्र हैं। बेफिक्री का
यह प्रशिक्षण उन्हें अपने परिवार में मिलता है। धनार्जन का प्रशिक्षण आज की
पीढ़ियाँ विद्यालय में पाए या पारम्परिक पद्धति के घरेलू व्यवहार से; वह इसी
निर्णय पर पहुँचता है कि उन्हें हर हाल में अधिक से अधिक धन कमाना है। विवेकशील
नागरिक बनने की दीक्षा आज की सन्ततियों को अपने पारिवारिक संस्कार में नहीं मिलती।
उपार्जन की प्रतिस्पर्द्धा में वे पल-पल जमाने से होड़ लेना सीखती हैं। विवेक
और नैतिकता जैसे निरर्थक शब्द कभी उनके सामने कभी फटकते ही नहीं।
सब्जी बेचनेवाले की उक्त
कहानी एक मामूली-सा उदाहरण है। बात कहने का एक बहाना भर। सत्य तो यह है कि भारत
देश का हर उपभोक्ता आज जीवन-यापन की आधिकांश चीजें खरीदते समय उसकी गुणवत्ता पर
सशंकित रहता है। जीवन-रक्षा की अनिवार्य वस्तुएँ—अनाज,
पानी, दवाई तक की शुद्धता पर आज कोई आश्वस्त नहीं होता; क्योंकि अपने हर आचरण लोग
स्वयं किसी न किसी ठगी का जाल रचता रहता है। कसाई के हाथों अपनी बूढ़ी-बिसुखी
गाय बेच लेने के बाद लोगों को गो-भक्ति याद आती है। जिस देश की धार्मिक-प्रणाली
में प्रारम्भिक काल से हर जीव-जन्तु से प्रेम करने का उपदेश दिया जाता रहा है;
उस देश की अत्याधुनिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ईश्वर से भी छल कर लिया
जाता है। प्रयोजन से बाजार जाना और शंकाकुल मन से कुछ खरीदकर वापस आना, आज हर नागरिक
की नियति बन गई है। कमजोर क्रय-शक्ति के उपभोक्ता अपनी अक्षमता के कारण निश्चय
ही दोयम दर्जे की चीजें खरीदते हैं, किन्तु आहार/औषधि जैसी जीवन-रक्षक वस्तुओं
में तो धोखाधरी न हो! दूध, पानी, दवाई, अनाज, घी, तेल, मसाला...की गुणवत्ता पर तो सशंकित
न रहें! अपने ही देश के नागरिकों से धोखा खाने की ऐसी परम्परा शायद ही दुनिया
के किसी देश में हो!