बाबा नागार्जुन
(वैद्यनाथ मिश्र यात्री) से मेरी पहली भेंट सम्भवतः 1985 में हुई। उससे पहले उनके बारे में
पढ़ता
रहता था। सन् 1980 के आसपास मैं सहरसा कॉलेज (बिहार)
में बी.एस-सी. का छात्र था। वहीं
कोई आयोजन हुआ था। मैथिली-हिन्दी के उस दौर के दो महत्त्वपूर्ण कवि-- नागार्जुन
और आरसी प्रसाद सिंह को काव्य-पाठ हेतु आमन्त्रित किया गया था। एक धुँधली-सी
तस्वीर याद आती है कि किसी ने उन दोनों के स्वागत में एक कविता पढ़ी, जिसकी पहली
पंक्ति थी शायद 'आ आरसी, ना नागार्जुन दोनों मिलकर हुआ आना', बाकी पंक्तियाँ भी इसी तरह
कुछ थीं। कविता आधी भी नहीं पढ़ी गई कि बाबा चिढ़ गए। कोई इन्तजार किए बगैर उन्होंने
उन्हें डपट दिया। कहा -- बन्द करो यह विरुदावली। सारे के सारे चौंक पड़े। कवि
महाशय तो शाबाशी की उम्मीद लगा बैठे थे, पर यहाँ तो आयोजक तक विचलित हो गए। मैं
विज्ञान का छात्र था। साहित्य एवं साहित्यिक पत्रिकाएँ पढ़ता अवश्य था, पर
उस समय तक श्रेष्ठ साहित्य की
मेरी समझ स्पष्ट नहीं हुई थी, वैसे अभी भी क्या समझ है? पर बाबा का वह व्यक्तित्व मेरी
स्मृति में दर्ज रहा।
जनवरी 1985
में मैं जी.एल.ए.
कॉलेज डालटनगंज में मैथिली
का लेक्चरर नियुक्त हुआ। वहीं से जाड़े की छुट्टियों में घर जा रहा था। उन दिनों
मेरे एक मित्र तारानन्द वियोगी (मेरी पीढ़ी के मैथिली के लेखक) पटना विश्वविद्यालय
से संस्कृत में एम.ए. कर रहे थे। हर छुट्टी में तय कार्यक्रम के अनुसार पटना उतरकर
उनको साथ करता था, फिर गाँव की ओर बढ़ता था। वे भगीरथी लेन (महेन्द्रू, पटना) में एक किराये
के कमरे में रहते थे। सुबह-सुबह मैं वहीं पहुँचा था। अच्छी-खासी ठण्ड पड़ रही
थी। अभी पहुँचा ही था, कि तारानन्द वियोगी आदतन मेरे थैले-वैले की तलाशी लेने लगे। कोई नई
किताब, कोई नई पत्रिका, जो मैंने उस
बीच पढ़ी या खरीदी हो। इस क्रम में मेरे थैले का सारा सामान उनके बिस्तर पर फैला
था। कपड़े-वपड़े तो कुछ होते नहीं थे, किताब-पत्रिकाएँ ही रहती थीं। उस तलाशी
में उन्हें मेरी लिखी एक ताजा कविता मिली, जिसे वे पढ़ने लगे। ऐन मौके पर
दरवाजे पर दस्तक हुई। खोला, तो वहाँ बाबा यात्री को खड़ा पाया। मैं कुछ समझूँ
इससे पहले ही वियोगी ने फटाफट किताबें किनारे कर बाबा के बैठने के जगह बनाई। वे
बैठ गए। उन दिनों बाबा भगीरथी लेन में ही हरिहर प्रसाद के यहाँ रुके हुए थे। हरिहर जी हिन्दी
के प्रसिद्ध कहानीकार थे। बाबा उन्हें बहुत प्यार करते थे। पटने में होते तो
अक्सर उन्हीं के घर रुकते थे।... उस वक्त वह छोटा-सा अति सामान्य कमरा बाबा
की भव्य उपस्थिति से मुझे अत्यन्त गरिमामय लग रहा था। वियोगी ने बाबा को
मेरा परिचय दिया। उद्धरण की तरह उन्होंने बाबा से कहा कि ये मूलत: साइन्स के
छात्र थे, चोटी पर साहित्य में आए। बाबा अपनी सहज मुस्कान के साथ मेरी तरफ
देखते-देखते कमरे में बिखरे उन सामानों की तरफ देखने लगे। वियोगी द्वारा अचानक छोड़ी
हुई मेरी उस अधपढ़ी कविता का पृष्ठ वहीं पड़ा था। बाबा की नजर से वह कविता कैसे
बचती? उधर उँगली उठाते हुए उन्होंने कहा—वह कविता है क्या? वियोगी ने कहा-- जी बाबा, कविता है, दो
दिन पहले नवीन ने लिखी है, अभी-अभी इनके थैले से निकली है। बाबा ने कहा सुनाइए।...
मैं तो रोमांचित हो उठा। सन् 1986 में,
साहित्य
की दुनिया में
प्रविष्ट एक नए व्यक्ति को पहली ही भेंट में बाबा कहें कि अपनी कविता सुनाइए। मेरे
तो पांव के नीचे जमीन न रही। पुलकित, हर्षित मन से मैं सुनाने लगा। कविता समाप्त हुई। मैं
तो यह उम्मीद कर रहा था कि बाबा कुछ एक दो शब्द में प्रोत्साहन देकर दूसरी बात
पर उतर जाएँगे, पर ऐसा हुआ नहीं। दरअसल उस कविता में कुछ गाँधीवाद का जिक्र था, बाबा
ने उस कविता पर लम्बा-सा संशोधनात्मक वक्तव्य दिया और बताया कि इसमें आपके सोच
में ये सब गड़बड़ियाँ हैं। परिणामास्वरूप मैंने उस कविता को बाबा के उतने भाषण के
बावजूद सुधारा नहीं। वह कमजोर कविता मेरे जीवन की एक स्मृति है जो मैंने पहली बार बाबा को सुनाई और बाबा उस कविता
के पहले स्रोता/पाठक हुए। मेरे दिमाग में बाबा इसी तरह दर्ज हुए।
फिर थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा-- चलो तुम लोगों को पान खिलाता हूँ। वियोगी
का तो नहीं मालूम, पर मेरी खुशी का कोई ओर-छोर न था। कमरे में ताला लगाकर हम उस
भगीरथी लेन में निकल
पड़े। महेन्द्रू की मुख्य सड़क में मिलनेवाली उस लेन में थोड़ी चढ़ाई थी। दोनों
तरफ मैं और वियोगी, बीच
में बाबा, तीन छोटे-छोटे बच्चों की तरह मजे से जा रहे थे। हम दोनों तो उनके सामने
बच्चों की तरह थे ही, बाबा भी बच्चों की तरह ही कर रहे थे। हाथ में पकड़ी अपनी छड़ी
की कहानी बताए जा रहे थे—देखिए,
यह छड़ी मैंने काठमाण्डू में खरीदी है, यह मेरी जीवन संगिनी है। इसकी कीमत
बताइए।... ऐसे महात्मा के साथ चलते हुए मैं अपनी गम्भीरता बघारने से कैसे बचता!
मैंने कहा-- बाबा, जीवनसंगिनी की क्या कीमत होगी। बाबा बोले-- कोई वस्तु अमूल्य
अवश्य होती है, निर्मूल्य कदापि नहीं होती। फिर उन्होंने कुछ कीमत भी बताई।
इसी बीच बाबा की नजर उस गली के बगलवाले मकान के बरामदे में चली गई। वहाँ एक सुन्दर-सी
युवती टहल रही थी। वह अतिशय मोटी थी, पर उसका मोटापा उसके सौन्दर्य में कोई बाधा
उत्पन्न नहीं कर रहा था। बाबा उसकी ओर गौर से देख रहे थे। अच्छा तो हमें भी लग
रहा था, पर बाबा साथ में हों, तो युवती का सौन्दर्य हमारे लिए सम्मोहक क्यों
होता? हम बाबा की अगली बातें सुनने के लिए सावधान थे। इसी बीच बाबा ने छड़ी सहित
दोनों हाथ उठाकर अँजुरी जोड़े, और बोले—नमस्कार! हम दोनों की एक साथ हँसी छूट गई, फिर भयभीत भी
हुए। क्योंकि वह युवती वियोगी के मकान-मालिक की बेटी थी। हमें लगा कि अब तो
कुछ अघट जरूर घटेगा। शर्म के मारे वह युवती मुस्कुराकर जो पीछे भागी, तो ठाँय से
अपनी चौखट से टकरा गई। फिर हम आगे बढ़ गए। हमें तो चिन्ता थी कि अब मकान-मालिक
इस घटना पर वियोगी से सवाल करेंगे, पर बाबा को इस बात की कतई फिक्र न थी। अगले
ही क्षण वे दूसरे प्रसंग में इस तरह उतर आए, जैसे कुछ हुआ ही न हो। गनीमत हुई कि मकान-मालिक
तक वह बात नहीं पहुँची। वियोगी ने बताया कि बाद में वह युवती उनसे पूछ रही थी--
वो बाबा फिर कब आएँगे? खैर...इन्हीं कथा-प्रसंगों के बीच हम महेन्द्रू मुख्य
सड़क पर आ गए, एक पान-दुकान के सामने खड़े हुए। बाबा ने दुकानदार से कहा-- दोनों
बच्चों को पान
खिलाइए। बाबा ने भी बुरादे वाली सुपारी के साथ पान खाया, उन्होंने अपने कोट की जेब
से पैसे निकाले, भुगतान किया, और वापस चल पड़े। ज्यों ही पीछे मुड़े कि देखा स्कूल,
कॉलेज, युनिवर्सिटी जानेवाले छात्रों की साइकिलें बड़ी संख्या में कतारबद्ध खड़ी
हो गईं। हमें तो निकलने तक का रास्ता नहीं दिख रहा था। जाड़े की सुबह थी। सारे
छात्र उन दुकानों से अपने-अपने मतलब की वस्तुएँ-- चाय, पान, सिगरेट आदि लेने
में मशगूल थे। उन नई उम्र के छात्रों को हमारी दिक्कतों की फिक्र क्यों होती।
जब तक हम दोनों कुछ करते बाबा एक साइकिल के निकट पहुँच गए। साइकिल वाला छात्र
भी तब तक वहाँ पहुँच गया। बाबा ने हाथ के इशारे से उन्हें साइकिल हटाने को कहा।
वह छात्र उनकी बात समझ नहीं पाया। उस नशे वाली उम्र में कोई नौजवान बुजुर्गों की
बात सुनता-समझता भी कहाँ है! फिर बाबा बुदबुदाकर कुछ कहने लगे। वह फिर भी समझ
नहीं पाया। ऐं-ऐं की ध्वनि निकालकर सवाल दुहराता रहा। एक तो बाबा यूँ ही मद्धम
बोलते थे, उनकी आवाज तेज और सावधान रचना में होती थी, सामान्य व्यवहार में नहीं।
दूसरा कि उन्हीं दिनों बीमार से उठे थे। तीसरे मुँह में पान दबाए हुए थे। मैं
और वियोगी घबराया हुआ था। सोचता था कि किसी भी तरह बाबा को गुस्सा न आए। अभी-अभी
बीमार से उठे हैं, गुस्से की वजह से फिर न कुछ हो जाए। भय के मारे उन छात्रों से
हम हाथ जोड़ने लगे, कहने लगे—बन्धुवर,
ये जैसा कह रहे हैं, मान लीजिए, साइकिल हटा लीजिए, फिर मैं आपको सारी बातें स्पष्ट
कर दूँगा। पर वे कहाँ सुननेवाले थे। अब बाबा से रहा न गया, उन्होंने आव देख न
ताव, उस बूढ़ी हड्डी में न जाने कहाँ की ताकत आई, उन्होंने दाएँ हाथ से एक साइकिल
की कैरियर पकड़ी, और उठाकर आगे की ओर झटक दिया। अब क्या था, एक के बाद एक वहाँ
जितनी भी साइकिलें कतारबद्ध खड़ी थीं, सब के सब बारी-बारी से एक दूसरी पर गिरती
गई। पल भर में सड़क जाम हो गई। और बाबा एकदम से मस्तमौला चलते बने। सारे छात्रों
ने पहले तो ठहाके लगाए, पर तुरन्त भौंचक निगाहों से बाबा की ओर देखने लगे। बाबा
चले जा रहे थे,
वियोगी बाबा के
साथ हो लिए। मैंने सोचा कि उन छात्रों को बात स्पष्ट कर दी जाए। उनसे पूछा-- आप इन्हें पहचानते
हैं? उन्होंने कहा—नहीं, कौन हैं? मैंने पूछा—बाबा नागार्जुन हैं, नाम सुना है? उन्होंने कहा-- नहीं। मैंने पूछा—कहाँ पढ़ते हैं आप लोग? उन्होंने कहा-- पटना कॉलेज में। अब
मेरे पास सिर पीटने के अलावा कोई उपाय न था। शिक्षण-व्यवस्था को कोसते हुए तेज कदमों से वापस
हुआ।
उसी दिन या अगले दिन शाम को मैं और वियोगी, हरिहर प्रसाद जी के घर बाबा से मिलने गया। आगे
वियोगी थे, पीछे मैं था, बाबा एक चारपाई पर लेटे हुए थे, वियोगी को देखकर उठते हुए बोले—वे साइन्सवाले विद्यार्थी नहीं आए? तब तक मुझ पर नजर पड़ी। बोले—हाँ, आए तो। फिर अपने तकिए के नीचे
से अपनी
एक किताब
निकाली, किताब का कवर पेज पलटा और कहा-- नाम बताइए? मैंने कहा-- नवीन नाम है मेरा...। पूरा नाम बताइए, कल तो कुछ और बताया गया था। मैंने कहा-- बाबा नाम तो
सर्टिफिकेट में देवशंकर झा है, पर लोग नवीन कहते हैं। लिखते हैं तो देवशंकर झा
नवीन लिख देते हैं।
अब उन्होंने किताब पर लिखना शुरू किया। मैं यह सोचकर पुलकित था कि बाबा शायद अपनी
यह किताब मुझे भेंट देंगे। फिर देखा कि उस पर उन्होंने लिखा प्रिय...। मैं सोचने लगा मेरे
लिए तो इनको आयुष्मान लिखना चाहिए, चिरंजीवी लिखना चाहिए, ये प्रिय क्यों लिख रहे हैं? फिर देखा कि प्रिय के बाद लगाया
मित्र! मेरी उस समय की
मन:स्थिति का आप अनुमान कर सकते हैं। मैंने फिर सोचा कि हो न हो बाबा अपने
किसी मित्र को यह किताब मेरे हाथों भेजेंगे। मित्र के बाद उन्होंने लिखा दे.शं. झा नवीन के लिए, सस्नेह –नागार्जुन, निराला दिवस। अब आप उस
समय की मेरी मनोदशा का अन्दाज लगाएँ। आज के लोग, तीन कविताएँ छप जाएँ, चार लोग नाम जान जाएँ, तो तुर्रम खाँ
हो जाते हैं। आशीष की मुद्रा में आ जाते हैं। चेला मूड़ने लगते हैं। बाबा सन् 1985 में भी बाबा ही थे। और मैं एक
प्रोबेशनर। अभी-अभी साहित्य में कलम पकड़ी थी। नतमस्तक था उस हद की उदारता के सामने।
उसके बाद फिर
काफी दिनों तक कोई सम्पर्क नहीं रहा। उनके साथ कभी कोई पत्राचार भी नहीं हुआ। पर
भक्ति तो हृदय में बसी हुई थी। सन् 1991 में डालटनगंज की नौकरी छोड़कर मैं जे.एन.यू. आ गया, दुबारा पी-एच.डी.
करने। यहाँ देखा कि पाण्डेय जी (प्रो. मैनेजर पाण्डेय) के यहाँ बाबा आते रहते हैं।
पाण्डेय जी मेरे शोध-निदेशक नहीं थे, पर न जाने क्यों, उनसे ऐसी आत्मीयता बनी
कि उनके घर मेरा आना-जाना खूब होता था। बहुत प्यार मिला उनसे। पाण्डेय जी के एक
शोधार्थी रमेश जी (अभी श्रीवार्ष्णेय कॉलेज अलीगढ़ में हिन्दी के अध्यापक हैं)
मेरे मित्र हैं, उन्हीं के साथ आते-जाते पाण्डेय जी सम्बन्ध सघन हुआ था। हम
दोनों वहाँ बरवक्त आते-जाते रहते थे। बाबा से मिलने-जुलने का सिलसिला फिर
वहीं शुरू हुआ। उस दौरान पाण्डेय जी अकेले रहते थे। बाबा की आवभगत में उन्हें हमारी जरूरत भी पड़ती
रहती थी। कभी-कभी सादतपुर से बाबा को ले आने या फिर सादतपुर पहुँचाने में मेरी
जरूरत
होती थी। धीरे-धीरे
बाबा को भी मेरे साथ यात्रा करने में सहजता होने लगी थी। पाण्डेय जी भी मेरे साथ
जाने के कारण बाबा के मामले में निश्चिन्त रहते थे। बाबा के समस्त मनोभावों
की रक्षा हेतु पाण्डेय जी अत्यधिक चिन्तित रहते थे। बहुत आदर करते थे उनका।
अपने हाथों दलिया बनाकर, कम्प्लान घोलकर बाबा को खिलाते-पिलाते मैंने पाण्डेय
जी को कई बार देखा है। फिर कभी-कभी बाबा को जे.एन.यू. में रुकने की इच्छा जगती थी और अचानक कहते
कि आज मैं दरियागंज जाऊँगा प्रकाशकों से मिलने। उस वक्त उनके साथ मैं जाया करता।
इसी तरह उनके साथ उठने-बैठने का अनुभव बढ़ा, निकटता भी बढ़ी।
उल्लेखनीय है कि बाबा किसी भी प्रसंग को बड़ी पैनी नजर से देखते थे। एक
दिन पाण्डेय जी से मिलने उनके घर गया तो देखा, बाबा अपने मैग्निफाइंग ग्लास के
सहारे कुछ पढ़ रहे हैं। मुझे देखते ही कहा—आइए, आइए, आदरणीय नवीन जी! मैं थोड़ा सहम गया, मुझे लगा कि क्या बोल रहे
हैं बाबा! कहीं कुछ अनजाने में कोई अभद्रता तो नहीं हुई मुझसे! पर अगले ही पल वे
बोले--फादरणीय नागार्जुन जी से मिलिए। फिर मेरी जान में जान आई। उनका विनोदी स्वभाव
कभी भी किसी को भी चक्कर में डाल देता था। फिर मैं बैठ गया। बाबा बोले--आजकल आप
बहुत दिख रहे हैं
इधर-उधर! असल में उसी बीच दो-तीन जगह काव्य-पाठ का आयोजन होना था, उनमें मुझे भी
बुलाया गाया था। अभिप्राय यह कि निमन्त्रण-पत्र को भी वे इतनी सावधानी से
पढ़ते थे। और, वहाँ अपने परिचितों का नाम देखकर उनकी स्मृति जाग्रत रहती थी। परिचितों
का नाम पढ़कर उनकी खबर
अपनी स्मृति में दर्ज
रखना बाबा की बड़ी विशेषता थी।
बाबा से जुड़े सारे लोग सहमत होंगे कि जिस घर में प्रवेश उनका होता था, स्पष्टत: प्रवेश का कारण व्यक्ति होता
था, पर वहाँ पहुँचकर बाबा, व्यक्ति
तक अपना संबंध सीमित नहीं रखते थे। वे उस व्यक्ति के चूल्हे-चौके, जीवन-संसार-जंजाल तमाम प्रसंगों से
जुड़ जाते थे। इसका एक अभूतपूर्व नमूना बताऊँ-- एकबार मैं उनको लेकर सादतपुर से
लौट रहा था। जे.एन.यू. से टैक्सी (एम्बसेडर) लेकर उनको सादतपुर से लाने गया था। फिल्म निर्माता
अनवर जमाल (उन्होंने बाबा पर भी फिल्म बनायी है) ने वह टैक्सी भेजी थी। सादतपुर मैं पहली
बार गया था। बाबा वहाँ अपने बेटे श्रीकान्त मिश्र के घर थे। सादतपुर मुहल्ले
में पहुँकर मैं टैक्सी से उतरा और वहाँ सड़क किनारे सब्जी बेच रही एक महिला से
पूछा कि इस इतना नम्बर का मकान किधर है। नम्बर सुनते ही कई लोग, सब्जी वाले,
मसाले वाले, पान वाले,
चाय वाले सारे के सारे पूछने लगे—अच्छा,
तो आप बाबा के यहाँ जाएँगे? पूछा
एक से, बताने लगे दस। इस घटना से आप अन्दाज कर सकते हैं कि एक कवि जिसका विश्वास निश्चय ही कभी
किसी आत्मप्रचार में नहीं
रहा होगा, उन्हें उनके मुहल्ले का पान दुकानदार से लेकर सब्जी बेचनेवालियाँ तक इस तरह सम्मान
देती थीं।
फिर श्रीकान्त जी के यहाँ पहुँचे, चाय-वाय पीकर वापस चले। टैक्सी में
बैठे, अभी चार कदम भी न चले होंगे कि बाबा ने पूछा--टैक्सी वाले का नाम क्या है? मैंने कहा—मुझे नहीं मालूम। उन्होंने कहा—पूछ लो (बाबा अब मुझे तुम कहने लगे
थे)। मैंने टैक्सीवाले से पूछा-- भई आपका क्या नाम क्या है? टैक्सी वाले ने बड़ी बेरुखी से कहा--
मेरे नाम से के करोगे।
मैं टैक्सीवाले की उस उद्दण्डता पर झल्ला गया। बाबा से कहा-- बाबा वह बताना
नहीं चाह रहा है,
छोड़िए ना। वे बोले—फिर भी पूछ लो। इस बार मैंने पूछा—भई, बाबा जानना चाहते हैं, आप अपना नाम बता दीजिए ना! टैक्सीवाला
अब भी अपनी उजड्डता पर अड़ा रहा। कहा--के करोगे नाम जानकर ताऊ? फिर दूसरी-दूसरी बातें
होने लगीं, रास्ता कटता गया। दुनिया जहान की बातें हुई। छोटी-छोटी ठिठोलियाँ हुईं,
कई मजाक हुए। मैं इतना दुबला क्यों हूँ, कितने दिनों पर कपड़े साफ करता हूँ, खाने
की रुटीन क्या है, आदि-आदि।
महिषी (राजकमल चौधरी का गाँव) और राजकमल चौधरी के बारे में उनको बहुत अनुराग था। बाबा का
बचपन महिषी में ही बीता था। वहाँ के बारे में वे बरवक्त कुछ-कुछ पूछते रहते थे। मेरा ननिहाल
महिषी है और मेरे गाँव के बगल में है। राजकमल चौधरी पर काम करने के क्रम में उस गाँव में मेरा आना-जाना
लगा रहा था। यह सब होते-हवाते हमलोग जे.एन.यू. के निकट बेरसराय पहुँच गए। वहाँ मुझे किसी दुकान
से कुछ सामान लेना था। मैंने टैक्सी वाले से कहा-- भाई दो मिनट आप यहीं खड़े रहिए, मैं कुछ सामान
लेकर आ रहा हूँ।... अब दो मिनट की जगह सम्भव है
कि पाँच मिनट लग गया हो। पर जब लौटा और टैक्सी में बैठा तो बाबा ने बताया कि इनका नाम
राजेन्दर है। इनकी दो बेटियाँ हैं, इनकी शादी पाँच साल पहले हुई है, इनके पिताजी
किसान हैं, इनको जलेबी बहुत अच्छी लगती है...। मैं चकित था कि इस आदमी से इतना सम्मानपूर्वक मैंने
पूछा,
इसने मुझे कुछ
नहीं बताया और पाँच मिनट में बाबा ने ऐसा क्या जादू किया कि इसने अपने बारे में इतनी बातें बता
दीं। फिर यह भी देखा कि अब तक जिस ड्राइवर के ललाट पर बल पड़े हुए थे, वह
प्रमुदित था। उस ड्राइवर से न फिर कभी मेरी मुलाकात हुई, न बाबा की हुई होगी। स्वयं
बाबा भी जानते होंगे कि उनसे
कभी भेंट नहीं होगी। पर वह व्यक्ति अभी सामने है, तो उसके बारे में जानना जरूरी है। इतना कुछ
जानने की इच्छा, जिज्ञासा की यह प्रवृत्ति किसी सामान्य मनुष्य को बड़ा मनुष्य बनाती है; और
बड़े मनुष्य को बड़ा कवि बनाती है। बाबा की यह पद्धति मुझे लगातार उनके निकट ले
गई। इसके बाद फिर तो बाबा मेरी अनिवार्यता में शामिल हो गए।
उनको महिषी
जाने की बड़ी इच्छा हुआ करती थी। अक्सर चर्चा करते रहते थे। उन दिनों मैं नेशनल
बुक ट्रस्ट में नौकरी
करता था। मुझसे हर भेंट में कहते-- इस बार गर्मी की छुट्टी आने दो, मैं अरविन्द (अरविन्द कुमार, नेशनल
बुक ट्रस्ट के तत्कालीन निदेशक) से कहकर तुम्हें दो महीने की सरकारी छुट्टी
दिलाता हूँ, तुम
मेरे साथ चलो महिषी, वहाँ दो महीने रुकेंगे।... पर वह कभी हो न सका।
सन् 1991-96 के बीच ही श्यामानन्द नाम के एक मैथिल छात्र जे.एन.यू. में
पी-एच.डी. कर रहे थे। वे भी मेरी ही लम्बाई के हैं। एक बार उन्होंने जानकारी दी
कि वे कहीं बाबा से मिले। उनको उन्होंने प्रणाम किया, और बड़े अनुराग से मैथिली
में पूछा—बाबा, चिन्हलौं? अर्थात्
आपने पहचाना मुझे? बाबा ने नजर उठाई, देखा, और कहा—हाँ, पहचाना, देवशंकर नवीन। और इतना कहकर चलते बने। तीन-चार
और लोगों ने ऐसी
जानकारी दी। इस घटना से लोगों ने यह अर्थ लगाया कि वे मुझसे मिलती-जुलती उनकी लम्बाई
की वजह से ऐसा करते थे। पर, मुझे ऐसा नहीं लगता। उनकी चयन-दृष्टि स्पष्ट थी,
जिस प्रसंग में वे घुसना नहीं चाहते थे, उस पर इसी तरह कन्नी काटकर निकल जाते
थे। याद करने पर ऐसे कई प्रसंग सुनाए जा सकते हैं।
साहित्य के अलावा अन्य किसी विषय पर उनसे कभी मेरी बातचीत नहीं हुई। मैथिली
की रचनाशीलता पर वे बड़े चिन्तित रहते थे। मैथिली के कुछ लोगों को अत्यधिक प्यार करते
थे। जब-तब मुझसे चर्चा भी किया करते थे। मेरी ही पीढ़ी के हैं केदार कानन। उनको वे अतिशय स्नेह
करते थे। सारी कहानी बताना तो मुश्किल है। एक घटना का जिक्र करता हूँ। उन दिनों केदार
की एक विचित्र आदत थी।
वे यात्रा से बहुत घबराते थे। वे मैथिली के बहुत बड़े रचनाकार रामकृष्ण झा किसुन के बेटे
हैं। इसके साथ ही वे स्वयं मैथिली के स्थापित रचनाकार हैं। श्रेष्ठ पुस्तकों के
संग्रह और विश्व साहित्य के अवगाहन का उन्हें बहुत शौक है। उन दिनों केदार मैथिली
में एक
पत्रिका सम्पादित
किया करते थे। उस पत्रिका के लिए मुझ पर जोर दे रहे थे कि मैं बाबा से कोई
मैथिली कविता लिखवाकर
उन्हें भेजूँ। हर
सप्ताह केदार का एक पोस्टकार्ड आ जाता था। टेलीफोन का चलन था नहीं, चिट्ठी ही एक
सहारा था। साथ ही साथ वे बाबा को भी पोस्टकार्ड भेजते थे। एक दिन, दो दिन, तीन दिन पर जब कभी बाबा से भेंट होती,
मैं तगादा कर देता-- बाबा केदार ने कहा है कि एक कविता के लिए आपको चिट्टी लिखी है।
कभी अपनी ही तरफ से वे कह देते—देखो, ये जो तुम्हारा केदार है,
मुझको कहता है कि
मैं मैथिली में कविता लिखूँ। अब बताओ कि जब तक कण्ठ में, जीभ पर माँगुर मछली का स्वाद न जाए, कान में मैथिली के सोहर-समदाओन की
रागिनी न गूँजे,
मैथिल अंचल की
फसलों की हवा नाक में न जाए, मैथिली
में बात न करें, तब तक मैथिली
में कविता कैसे लिखी जा सकती है?
कविता लिखने की उनकी
यह पद्धति सुनकर एक बार फिर सन् 1985 की
भेंट में हुई बातचीत याद आ गई। उन्होंने कहा था कि कुछ बांग्ला कविताएँ लिखनी है,
इसलिए मुझे कलकत्ता
जाना है। अज्ञानतावश मैं बोल पड़ा—बाबा, जब आपको बांग्ला भाषा आती है, तो बांग्ला कविता लिखने के लिए
कलकत्ता जाने की क्या जरूरत
है। आप तो यहाँ बैठ कर भी लिख सकते हैं। मैं उनकी बगल में ही बैठा था। उन्होंने
मेरे सिर पर पीछे से एक चाँटा दे मारा और कहा—मन्दबुद्धि! कविता भाषा-ज्ञान से नहीं लिखी जाती। वातावरण से प्राप्त
अनुभूति से उपजती है।... हालाँकि केदार के लिए उन्होंने दिल्ली में ही बगैर माँगुर
मछली का स्वाद चखे, बगैर
सोहर-समदाओन की रागिनी सुने, बगैर
मैथिल अंचल की फसलों की हवा सूँघे मैथिली में कविता लिखी। एक दिन पाण्डेय जी
के घर बैठे थे, इधर-उधर की सारी
बातें हुईं। चलने लगे तो अचानक से बोले—सुनो, कल सुबह आकर अपने केदार के लिए कविता ले जाना। अगले दिन गया तो वाकई मैथिली कविता
तैयार थी। मैं भी प्रसन्न था, कविता पाकर केदार भी बहुत प्रसन्न हुए।
केदार से जुड़ी एक ममतामय बात और है। वे उन दिनों बेरोजगार थे। नौकरी नहीं थी। पर बाबा
की लगातार इच्छा रहती थी कि केदार कानन घूमें, यात्रा करें। वे हर बार कहते— नवीन, तुम नौकरी करते हो, तुम्हें
तो कोई दिक्कत है नहीं। दिल्ली में दस-बीस दिन या महीना दिन केदार के रुकने की
व्यवस्था कर दो। उसके आने-जाने के लिए टिकट की व्यवस्था मैं कहीं से करवा दूँगा।
उसको बोलो कि घूमे-फिरे। घूमने-फिरने से ज्ञान बढ़ता है, अनुभव बढ़ता है, रचनात्मकता में भी
दमखम आता है।...बाबा के हृदय में केदार के लिए इस अनुराग को देखकर मुझे ईर्ष्या
होती थी। केदार से कहा भी। पर वे कहाँ आए कभी...?
बाबा से किसी ने एक बार पूछा कि आप आत्मजीवन चरित क्यों नहीं लिखते? उन्होंने कहा-- मेरी सारी रचनाओं को मिला दो, मेरा
आत्मजीवन चरित हो जाएगा। तथ्यत: बाबा का निजी जीवन जन-जन की जीवन-पद्धति से
रत्ती भर अलग नहीं था, उसका सहचर था। और, उनकी रचनाएँ जन-जन के जीवन का प्रतिबिम्ब
हैं। लिहाजा समग्रता में उनकी रचनाएँ उनका वास्तविक आत्मजीवन चरित ही हैं। जीवन
और लेखन का एकात्म सतत उनकी रचनाओं में स्पष्ट हुआ है। उनकी गद्य रचनाएँ ‘गद्यं कविनां निकषं वदन्ति’ (गद्य-कौशल ही कवि-कर्म की कसौटी है) के
सूत्र को चरितार्थ करती हैं। उनके गद्य इस बात के प्रमाण हैं कि सचमुच जिसको
अच्छा गद्य लिखने आ गया वही व्यक्ति अच्छी कविता लिख सकता है।
बाबा की मैथिली, हिन्दी दोनों ही भाषाओं की रचनाओं में तत्सम शब्दों की भरमार दिखेगी, किन्तु
उस कारण कहीं अर्थ-बाधा उत्पन्न नहीं होती। प्रतीत होता है कि वह किसी ठेठ गाँव की चलती-फिरती
भाषा हो। कहीं कोई पाण्डित्य नहीं। मक्खन की तरह फिसलती हुई बोधगम्य और
कर्णप्रिय भाषा की वे रचनाएँ अकारण ही मोहक नहीं लगतीं। विषय और भाषा-व्यवहार
का सन्तुलन ही उनकी रचनाओं को प्राणवान बनाता है। जनजीवन के सामान्य व्यवहार से
पगी उनकी रचनाओं में लोकजीवन की वृत्तियाँ कूट-कूट कर भरी हुई हैं। अपनी किसी
रचना में उन्होंने कहीं से दूर की कौड़ी लाने का उद्यम नहीं किया। हर रचना जीवन
की मौलिक अनुभूति से उपजी हुई हैं।
‘पारो’ उनका मैथिली उपन्यास है, हिन्दी में
भी उसका अनुवाद उपलब्ध है। मैथिली में उनका दूसरा उपन्यास है ‘नवतुरिया’, वही उपन्यास हिन्दी में ‘नई पौध’ नाम से है। साहित्य में जिस समय बाबा
का प्रवेश हुआ, वह समय मैथिल समाज के लिए बहुत विकट समय था। पारम्परिक जीवन-व्यवस्था की जड़ता इस
तरह व्याप्त थी कि पूरा समाज एक छद्म जीवन जी रहा था। जी कुछ और रहा था, दिखा कुछ और रहा था।
उस दौर का मैथिली साहित्य भी उसी जड़ता का पृष्ठपोषण कर रहा था। पूरी
रचना-प्रक्रिया रजनी-सजनी के आँचल में उलझी हुई थी। मैथिली साहित्य विवाह, दहेज, भोग-विलास, दैहिक उत्ताप जैसी मामूली स्थितियों से
बाहर आने का नाम नहीं ले रहा था। बाबा से पहले मैथिली में कांचीनाथ झा ‘किरण’ प्रगतिशील चेतना के साथ आ चुके थे। मैथिली साहित्य
के ठहराव में,
ठहरे हुए पानी
पर जमी काई में गतिकता की कंकड़ी मारकर वहाँ हलचल पैदा कर चुके थे। बहु-विवाह, बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, बेमेल-विवाह
जैसी बदसूरत कुरीतियों पर मैथिल समाज की कुपित दृष्टि उठने लगी थी। फिर भी उस
अलंघ्य सागर को लांघकर आगे जाना कठिन था। बौद्धिक पाखण्ड बदस्तूर कायम था। उनके
सारे समकालीन रचनाकार उसी वैवाहिक सन्दर्भ, प्रेम और काम-क्रीडा के आस-पास घूमते नजर आ रहे थे। साहित्य-सृजन
के उस जड़ीभूत वातारण में ‘पारो’ जैसा उपन्यास लिखा जाना एक
सुनियोजित नीति का प्राथमिक सोपान था। अत्यन्त तर्कसंगत पद्धति से बाबा ने
मैथिली साहित्य को आधुनिक बनाया। मेरा तो दावा है कि बाबा ने ‘पारो’ लिखकर ठहरे हुए पानी में छोटी-सी
कंकडी मारी, और किनारे बैठकर मैथिल-समाज का उद्वेलन देखने लगे। खूब धूम मची।
मैथिलों ने कहना शुरू किया कि यात्री जी ने यह क्या किया है; भाई-बहन (पारो-बिरजू)
का ऐसा रिश्ता अमान्य है, अगाह्य है। पर बाबा ने तो ऐसा किया ही था उद्वेलन के
लिए। पारो की रचना का अभिप्राय दरअसल नवतुरिया की रचना की पृष्ठभूमि
बनाना था। पारो की रचना हुए बगैर नवतुरिया की रचना नहीं हो सकती थी।
अभिप्राय यह कि 'नवतुरिया' (नई
पौध) को आगे लाने में बाबा ने एक बेहतरीन रणनीति अपनाई। अपनी एक कविता में
उन्होंने इच्छा भी व्यक्त की है कि 'नवतुरिए आबओ आगाँ' (अर्थात् नई पीढ़ी ही आगे आए)। मैथिली
कविताओं में पुरानी पीढ़ी की बखिया खूब उधेड़ी है। उन्हें लगातार सलाह दी है कि आप नई पीढ़ी को
समझिए, अपना ही राग मत आलापते रहिए।
उसको आगे
बढ़ने दीजिए, मन से आशीर्वाद दीजिए।
मनसा, वाचा, कर्मणा वे जीवन से, जमीन
से जुड़े हुए कवि थे। एक रचनाकार के रूप में उनकी गहन जीवन-दृष्टि और रचना-दृष्टि लोकसम्मत
अनिवार्यताओं से सम्पोषित थी। इस जीवन-दृष्टि और रचना-दृष्टि के कारण ही वे
अपने समस्त समकालीनों से भिन्न थे। आरसी प्रसाद सिंह उन्हीं के समकालीन कवि हैं। जिस दौर में आरसी प्रसाद सिंह को गरजते मेघ, उमड़ते बादल देखकर प्रेमिका की
कजरारी आँखें याद आईं,
मन-मोर नाच उठा-- ‘मेघ
पड़ै छै, बूँद झड़ै छै, नाचै छै मन मोर रे। कोन प्रिया केर कजरायल दृग, आइ झड़ै छै नोर रे।’ बादल गरज रहा है, घटा छाई हुई है, बूँदें
बरस रही हैं, कवि का मन-मोर नाच रहा है, प्रतीत होता है कि प्रियतमा की कजरारी आँखों
से आँसू झड़ रहे हैं। उसी दौर में वही मेघ जब बाबा को दिखता है तो बाबा कहते हैं—'जखनहि गरजल इन्द्रक हाथी, छोड़ि नचारी गाबए लगला कृषक वृन्द
मलहार।' यहाँ इन्द्र
के हाथी का मतलब छाया हुआ मेघ
है, इन्द्र बारिश के देवता हैं।
ज्यों ही घटा छाई, मेघ गरजा, नचारी गा रहे किसान, भगवत भजन में लीन किसान सब कुछ
छोड़-छाड़ कर मलहार गाने लगे। उल्लेखनीय है कि रोपाई के गीत को ही मलहार कहा
जाता है। यहाँ बिम्ब और प्रतीक का अद्भुत प्रयोग हुआ है। यह बाबा की रचना-दृष्टि
ही है, जो उनकी रचनात्मकता, रचनाओं के विषय-फलक एवं भाषा-विधान को इस गहनता के
साथ लोकजीवन से सम्बद्ध रखती है।
उनकी मैथिली कविताओं के संग्रह ‘चित्रा’ (1949) में
सन् 1941 की लिखी एक कविता है ‘कविक स्वप्न’। उसमें बाबा ने मिथिलांचल और मैथिल जनजीवन
की रूढ़ियों को लेकर ढेर सारी बातें उसमें उठाई हैं। वृद्ध-विवाह, बेमेल-विवाह जैसी उस दौर की
गन्दी प्रथा की कथा सुनकर भी आज जुगुप्सा उत्पन्न होने लगती है। पता नहीं उस
समय के लोग उस प्रथा को बर्दास्त कैसे करते थे। ढलती उम्र में आकर वृद्ध जमीन्दार
बारह-चौदह साल की कुँवारियों से शादी कर लेते थे। वंशवाद के नाम पर, श्रेष्ट कुलोद्भव ब्राह्मण होने के नाम पर उन कुँवारियों के
माता-पिता शादी कराने को राजी भी हो जाते थे। वह किशोरी जब तक जवान होती थी,
बूढ़े जमीन्दार चल वसते थे। ऐसी ही विकृति को बाबा ने अपनी ‘बूढ़ वर’ कविता में उजागर किया है, और उस अकाल-विधवा युवती की पीड़ा को
जिस भयावहता से प्रस्तुत किया है, उसे पढ़कर लोगों की साँसें फूलने लगती है। ‘विलाप’ शीर्षक कविता में भी बाबा यात्री
ने उसी विडम्बना को रेखांकित किया है। ‘कविक स्वप्न’ कविता में उन्होंने रूढ़ियों एवं पुरातनों की भर्त्स्ना,
नवता का स्वागत, नई पीढ़ी से समाज की अपेक्षा, नई पीढ़ी को उत्साह-लालकार से भर
दिया है।
बाबा के इस प्रगतिशील प्रयाण की उस
दौर में उपेक्षा, अवहेलना भी खूब हुई। हालाँकि उपेक्षा, अवहेलना, निन्दा का ऐसा
प्रहार उस दौर में राजकमल चौधरी पर बाबा यात्री की तुलना में बहुत अधिक हुआ। कारण
बे बाबा की तरह रणनीति से नहीं चल रहे थे। बाबा जहाँ कदम-कदम बढ़ रहे थे, राजकमल
छलांग मार गए थे, खुले तौर पर मैदान में उतर आए थे। उनकी 'स्वरगन्धा'
(सन् 1959) संग्रह की कविताओं को काव्य के मैथुनी आसन पर बैठे जरद्गव कवि
दुर्गन्धा कहने लगे थे। बाबा देख रहे थे कि मैथिल जनजीवन में रूढ़ियाँ जिस
तरह जड़ियाई हुई हैं, उन्हें नीतिगत तरीके से ही उखाड़ी जा सकती है। उन्होंने सुनियोजित
पद्धति से ‘कविक स्वप्न’ कविता लिखी, एक कवि की अकांक्षा व्यक्त
की। ‘पारो’ उपन्यास लिखकर सामान्य जन का मन
टटोला, फिर ‘नवतुरिया’ लिखा। यह उनकी नीति का परिणाम है
कि वीभत्स रूढ़ियों में जकड़ा मैथिल समाज राजकमल चौधरी की आक्रामकता पर वाक्युद्ध
तक ही सीमित रहा। ‘कविक
स्वप्न’ कविता के सारे दृश्य मिथिलांचल की रूढ़ियों,
जड़ताओं, पाखण्डों, अवांछित और जनविरोधी नीतियों के उदाहरण हैं। उसमें उन्होंने
साफ-साफ कहा—सुनो कवि! हम ही हैं वह देवता।
जिन्दगी भर जो अमृत-मन्थन करे, सुधा संचित करे, वे ही प्यास से मर रहे हैं, उसे ही जगत अमृत पीने से वंचित
कर रहा है। असंख्य मेधावी बालक यहाँ अपढ़ रहकर गाय चरा रहे हैं। न जाने कितने वाचस्पति, उदयन उपले चुन रहे हैं। कितने तानसेन, रविवर्मा वागमती तट पर
घास छील रहे हैं। बेशुमार कालिदास, विद्यापति भैंस चरानेवालों
के झुण्ड में खोए हुए हैं। अन्न नहीं है, धन नहीं है, फिर गरीब के बच्चे कैसे
पढ़ेंगे? इसलिए हे कवि, तुम उठो! तनिक जोर से ललकारा दो, ताकि पथिक-दल गिरि-शिखर पर चढ़े!... मिथिला की ऐसी ही त्रासद
व्यवस्था को देखकर उन्होंने 'नवतुरिए आबओ आगाँ' कविता में आह्वान किया
कि-- युग-सत्य की आवा में भली-भाँति पिघले सनातन आस्था, भली-भाँति पके चेतन
कुम्हार का नवनिर्मित बर्तन, बूढ़े-बहरे कानों की कोई परवाह न करें, यह ताजा मन्त्र
है कि अब नई पौध ही आगे आए! रूढ़िभंजन वही करेगी, वही बढ़ेगी आगे। हम लोग तनिक
निश्छल मन से उन्हें आशीर्वाद दें; न खींचें उनकी टाँग पीछे, अपने ही अमरत्व की ढेकी न
कूटें...। उसी
संकलन की एक कविता में उन्होंने देवाधिदेव बाबा वैद्यनाथ को चुनौती दी है। महादेव
के पौराणिक प्रतीक द्वारा उन्होंने उस दौर के देवताओं से पूछा है कि--तुम किस
तरह के ईश्वर हो! तुम्हारे सामने इस देश की स्त्रियाँ, अर्थात् गौरी फटी हुई
साड़ी पहन रही हैं, तुम्हारे बच्चे कार्तिक, गणेश
वनस्पति ऊबाल कर खा रहे हैं, जी रहे हैं। फिर भी तुम ईश्वर होने का दम्भ कैसे
पाले हुए हो! असल में तुम ईश्वर नहीं, पत्थर हो, तुम्हारे सामने मेरा सिर कदापि
नहीं झुकेगा। प्रतिपालक
जब अपने पालितों की बुनियादी जरूरतें भी पूरी न करे, तो वह ईश्वर कैसे होगा,
महान कैसे होगा, उसकी महत्ता का क्या मूल्य है? यह कविता देखने में जितनी सहज
है, ध्वन्यार्थ में उतनी ही गूढ़ है। सब जानते हैं कि बाबा यात्री परम नास्तिक
थे। उन्हें किसी ईश्वर-उश्वर से कोई लेना-देना नहीं था। इसलिए सुधी पाठक इस
कविता के महादेव को महादेव न मानें, तो बेहतर होगा। यहाँ बाबा का जनसरोकार देखने
योग्य है। वे जनता के पक्ष में त्रिकाल के ईश्वर और अपने समय के ईश्वर से
मोल-जोल कर रहे हैं, और उन्हें अपनी भी ताकत दिखा रहे हैं कि तुम्हें यदि
अपने सामने मेरा सिर झुकवाना है तो पहले अपना दायित्व निर्वाह करो। त्रिकाल
और वर्तमान के ईश्वर की ऐसी फजीहत बाबा ही कर सकते थे।
अन्तिम दिनों में मैं बाबा से मिलने दरभंगा गया था। उन दिनों बाबा की
पोती की शादी होने वाली थी और जैसा कि मैथिलों में होता है, किसी मैथिल को इस बात का गौरव नहीं हो रहा था कि यात्री-नागार्जुन
के परिवार से मेरे यहाँ रिश्ता
आया है। मैं पहुँचा तो देखा कि बाबा कुछ चिन्तित से लग रहे थे। मैंने बैठते ही पूछा-- बाबा कुछ
सोच रहे हैं? यह ऐसा सवाल है कि हर
सामान्य व्यक्ति कहेगा—नहीं
तो! मैं कहाँ कुछ सोच रहा था! पर बाबा तो आवरणविहीन जीवन जीने वाले व्यक्ति थे,
उन्होंने फौरन कहा-- हाँ सोच रहा था। मैंने पूछा--क्या? तो कहा-- देखो मनुष्य के जीवन की अस्सी प्रतिशत ऊर्जा विवाह और वैवाहिक समस्या में खप जाती है। मैंने कहा—बाबा, बात मेरी समझ में उतनी नहीं आई।...
यह बात मैंने इसलिए कही कि इस पर मेरी अपनी समझ जो भी हो, पर बाबा इसकी व्याख्या
करें तो थोड़ा विस्तार से समझें। उन्होंने कहा-- देखो, ज्यों ही मनुष्य की चेतना विकसित
होने लगती है, मतलब विवाह का दृश्य देखकर बच्चों की समझ में कुछ-कुछ आने लगता है, वह
बच्चा विवाह को बड़े गौर से देखता है। विवाह के सपने पालता है। विवाह करता है।
सन्तान उत्पन्न करता है। उसे योग्य बनाकर विवाह कराना अपना दायित्व समझता
है। सारी ऊर्जा इस विवाह और विवाह की तैयारी में झोंक देता है और जीवन भर इस
समस्या से जूझता रहता है। तो तुम लोग नई पीढ़ी के लोग हो और संसार के कई देशों में
विवाहेतर मातृत्व की
बात चल रही है। इस पर तुम लोग सोचो।... वैचारिक रूप से यह बात जितनी भी महत्त्वपूर्ण
हो, पर बाबा की उस दौर की भयावह पीड़ा इस वक्तव्य में स्पष्ट थी। फिर दूसरी
बात यह, कि जहाँ उस उम्र के मैथिल वृद्ध शुचितावादी मैथिल आचार की पोटली बनाने
में लिप्त थे, बाबा यात्री उस दौर के नौजवानों से भी आगे बढ़कर सोच रहे थे।
एक यात्रा में उनसे मिलने पहुँचा तो देखा कि बाबा के सिरहाने में मनोरमा ईयर बुक रखा
हुआ था। उनके सिरहाने में एक रेडियो हर समय पड़ा रहता था। समाचार सुनने के लिए।
दैनन्दिन घटनाओं से अपडेट रहने के लिए वे हरदम बेचैन रहते थे। यह उनकी आधुनिकता की
धारणा थी।
भ्रमण उनके जीवन का अभिन्न अंग था, जिसकी अनेकश: छवियाँ उनकी रचनाओं में
जीवन्त हैं। दिल्ली-भ्रमण और दिल्ली-प्रवास भी उसी का अंश है। भ्रमण ने उनके अनुभव-संसार को
निरन्तर पुष्ट किया। उनसे बात करते हुए सदैव प्रतीत होता रहता था कि सम्भवत:
अनुभव जुटाना, जनहित में सोचना, और जन-साहित्य रचना ही वे अपने जीवन अभिप्राय
मानते थे। उन्हें लगता था कि निष्ठापूर्वक लेखन करनेवाला व्यक्ति अन्य कुछ
नहीं सकता, या उन्हें नहीं करना चाहिए, ऐसा करना लेखन के हिस्से का समय दूसरे
काम में लगाना है। अर्थात् लेखन उनके लिए पूर्णकालिक काम था। प्रो. मैनेजर पाण्डेय
ने बताया कि एक बार बाबा जे.एन.यू. आए हुए थे। जाहिर है कि वे पाण्डेय जी के
यहाँ रुके हुए थे। पाण्डेय जी उन दिनों अकेले रहते थे। दोपहर में विश्वविद्यालय
से घर लौटते, तो बाबा को खिला-पिला कर सुला देते। और खुद दोपहर को वसन्तकुंज चले
जाते। उन
दिनों पाण्डेय
जी ने वहाँ एक घर खरीदा था। उस घर में लकड़ी का काम चल रहा था। पाण्डेयजी उसी की
देख-रेख करने चले जाते। इधर बाबा की नीन्द तो मक्खी की नीन्द होती थी। थोड़ी ही देर
में जग जाते, और देखते कि पाण्डेयजी नहीं हैं। दो-तीन दिन का रवैया देखकर एक दिन
उन्होंने पाण्डेयजी से पूछ दिया कि आप रोज-रोज दोपहर में कहाँ चले जाते हैं? पाण्डेय जी ने पूरी
कहानी सुना दी। बाबा थोड़े गम्भीर हुए और बोले—न:, यह नहीं चलेगा। या तो घर ले लीजिए या लेखन कर लीजिए।
दोनों
नहीं हो सकता।...उनकी
यह धारणा लेखन के प्रति उनकी एकाग्रता और निष्ठा-समर्पण को आँकने के लिए
पर्याप्त है। लेखन उनके लिए सचमुच पूर्णकालिक काम था। और इस बात पर वे अमल भी
करते थे।
जब नेशनल बुक ट्रस्ट ने बाबा के उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची’ को आदान-प्रदान पुस्तकमाला में शामिल कराया तो बाबा के साथ आप एग्रीमेण्ट कराने की जिम्मेदारी
एन.बी.टी. की तरफ से मुझे ही दी गई। उनसे एग्रीमेण्ट पर दस्तखत कराने मैं पाण्डेयजी
के घर गया था। बाबा उन दिनों वहीं थे। दस्तखत करने के बाद बाबा ने एकदम बालसुलभ अन्दाज
में मेरी दोनों कानें पकड़ीं, थोड़ी देर आराम से झूले, उसके बाद मेरे दोनों गाल थपथपाए, और बोले-- बच्चे
कोई-कोई रचना सुहागिन हो जाती है। इस एक वाक्य में कितनी बड़ी ध्वनि है। भारत की
चौदह भाषाओं में होने
वाले अनुवाद के अनुबन्ध से उस वक्त बाबा के चेहरे पर जो खुशी थी, उस खुशी का
वर्णन नहीं किया जा सकता, निरखा जा सकता था। मुझे इस बात का दुख है कि मैं बाबा
के जीते
जी उस किताब का
किसी दूसरी भाषा में अनुवाद मुहैय्या नहीं करा सका।
जे.एन.यू., सादतपुर या पूरी दिल्ली अपनी-अपनी तरह से बाबा
की रचना में
जगह पाती रही है, कभी रचना को पुष्ट किया है, कभी खुद भी महिमामय हुआ है।
भ्रमण, परिचय, सम्बन्ध आदि के बढ़ते प्रसंग में बाबा जब तब कुछ न
कुछ रचनात्मक निकलते रहे। उनके पास कुछ अलग दृष्टि अवश्य थी, जिससे वे वैसा
कुछ देख लेते थे, जो और लोग नहीं देख पाते थे। कोसी नदी की बाढ़ को तो सब ने देखा,
किन्तु ‘वरुण
के बेटे’ उपन्यास
तो सब ने नहीं लिखा, बाबा ने लिखा। बाबा के यात्री रूप, भ्रमण-शैली
ने उनके परिचय क्षेत्र को बड़ा विस्तार दिया। वे जिस-जिस परिवार में गए उनके चूल्हे-चौके
तक से उन्होंने सम्बन्ध बनाया। उनके समृद्ध रचनात्मक फलक में इन सारे अनुभवों
का संकेत स्पष्ट मिलता है। वे सही अर्थ में यात्री थे, घूमते ही रहते थे। अपने
विराट साहित्यिक समाज को उन्होंने अपना परिवार बनाया। ‘जनता
मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ, जनकवि हूँ मैं, साफ़ कहूँगा, क्यों
हकलाऊँ’ जैसी
पंक्ति बहुत बड़ा सन्देश है, जो उन्हें एक तरफ हकलाने से बरजता था तो दूसरी
तरफ पूरे जनसमूह से पारिवारिक सम्बन्ध बनाने का अनुराग देता था।