Deo Shankar Navin at the gate of Vidyapati's Birth Place on December18, 2019 |
Deo Shankar Navin in Vidyapati Memorial Hall on December18, 2019 |
Deo Shankar Navin with Ajit, Mihir and Pushpa, infront of Vidyapati's statue at his Birth Place Vsfi (Madhubani, Bihar) on December18, 2019 |
महाकवि विद्यापति भारतीय साहित्य के अनूठे रचनाकार हैं। उनका जीवन-प्रसंग और रचना-विधान असंख्य दन्तकथाओं से भरा पड़ा है। दन्तकथाओं के कारण उनका मूल्यांकन करते हुए कई बार लोग गलत निष्पत्ति भी निकालते रहे हैं। उनकी जीवनानुभूति और कौशल की उपेक्षा करते हुए उनके रचनात्मक उत्कर्ष में किसी दैवीय शक्ति का प्रबल योगदान समझते रहे हैं। जनश्रुति है कि स्वयं भगवान शिव, उगना नाम से उनके निजी सेवक के रूप में साथ रहते थे।
अनुसन्धान के क्रम में पाया गया
है कि उनकी रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट, मैथिली-- तीन भाषाओं में उपलब्ध
हैं। प्रसिद्ध ग्रन्थ हिन्दी साहित्य का इतिहास में प्रख्यात समालोचक
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने काल विभाजन करते हुए विषय-बोध के स्तर पर जिन बारह
ग्रन्थों को आधार मानकर आदिकाल का नामकरण वीरगाथाकाल किया था, उसमें दो ग्रन्थ विद्यापति के ही
थे--कीर्तिलता और कीर्तिपताका। पर यह विचित्र रहस्य है कि बावजूद
इसके विद्यापति को उन्होंने अपने साहित्येतिहास में एक अवतरण से अधिक जगह नहीं दी।
अनेक कारणों से भारत के अधिकांश
मनीषियों के जन्म-मृत्यु का काल आज के शोधकर्मियों के लिए विवाद का मसला बना हुआ
है। विद्यापति उस प्रकरण के सार्थक उदाहरण हैं। उनके जन्म-मृत्यु की स्पष्ट सूचना
का उल्लेख कहीं नहीं मिलने के कारण विद्वान लोग उनकी रचनाओं में अंकित राजाओं के
उल्लेख से तिथि-निर्धारण हेतु तर्क करते आए हैं। दशरथ ओझा विद्यापति की आयु एकासी
वर्ष मानकर उनका काल सन् 1380-1460
बताते हैं (हिन्दी नाटक: उद्भव और विकास/दशरथ ओझा/राजपाल एण्ड सन्स/2008/पृ. 50)। रामवृक्ष बेनीपुरी उस काल के
राजाओं और राजवंशों की तजबीज करते हुए विद्यापति की आयु नब्बे वर्ष मानकर उनका काल
सन् 1350-1440 (ल.सं.
241-331) बताते हैं।
कीर्तिलता की भूमिका लिखते हुए महामहोपाध्याय उमेश मिश्र उनका समय सन् 1360-1448 (ल.सं. 241-329) बताते हैं। इस
गणना में विद्यापति की आयु नबासी वर्ष, और लक्ष्मण संवत् तथा इसवी सन् के बीच 1119 वर्ष का अन्तर हो जाता है, जबकि यह अन्तर मात्र 1110 वर्ष का है। इस समय लक्ष्मण संवत
910 चल रहा है, जो 21 जनवरी 2020 (माघ कृष्ण द्वादशी, शक संवत 1941) को पूरा होगा। इस आलोक में पं.
शिवनन्दन ठाकुर की स्थापना सत्य के सर्वाधिक निकट लगती है। पर्याप्त शोध-सन्दर्भ
और तर्कसम्मत व्याख्या देकर उन्होंने विद्यापति की आयु सन्तानबे वर्ष और उनके समय
की गणना सन् 1342-1439 (ल.सं.
232-329) की है।
कुछ दशक पूर्व तक तो उनके
जन्मस्थान के बारे में भी गहरा विवाद था। बंगलाभाषियों का दावा था कि विद्यापति
बंगाल के थे, और
बंगला के रचनाकार थे। कुछ अनुसन्धानकर्ताओं ने तो बंगाल में उनके जन्म-स्थान के
साथ-साथ बंगवासी राजा शिवसिंह और रानी लखिमा की खोज भी कर ली। विवाद गहराता गया।
दरअसल मैथिली में रची गई राधाकृष्ण प्रेम विषयक उनकी पदावली उन दिनों अत्यधिक
लोकानुरंजक थी। उन मनोहारी पदों की लोकप्रियता जन-जन के कण्ठ में बसी हुई थी।
लोकोक्ति, मुहावरे की
तरह पदों की पंक्तियाँ लोकजीवन में प्रयुक्त होने लगी थीं। कवि-कोकिल, कविकण्ठहार जैसे सम्मानित
सम्बोधनों के साथ वे सच्चे अर्थ में जनकवि की तरह लोकप्रिय और चर्चित थे। मैथिली
लिपि में लिखी गई उस पदावली के कई वर्णों के स्वरूप बंगला वर्णमाला से मेल खाते
थे। उन्हीं दिनों बंगाल में राधाकृष्ण के परम भक्त चैतन्य महाप्रभु (सन् 1486-1534) का आविर्भाव
हुआ। लोककण्ठ में बसे विद्यापति के पदों को सुनकर वे मन्त्रमुग्ध हो उठे। कहते हैं
कि शृंगार-रस से परिपूर्ण विद्यापति के गीत गाते हुए चैतन्य महाप्रभु भक्तिभाव से
बेसुध हो जाते थे। उनकी शिष्य-परम्परा में भी इस प्रथा का अनुसरण हुआ। कुछ तो उस
तरह की रचनाएँ भी करने लगे। सैकड़ो वर्षों तक बंगलाभाषियों द्वारा गाए जाने के कारण
विद्यापति के पदों का स्वरूप भी वहाँ बंगला हो गया। अब इतना-सा आधार तो साहित्यिक
विवाद के लिए पर्याप्त होता है। विवाद चला, पर ग्रियर्सन,
महामहोपाध्याय
हरप्रसाद शास्त्री, बाबू
नगेन्द्रनाथ गुप्त, सुनीति
कुमार चटर्जी आदि विद्वानों की एकस्वर घोषणा के बाद अब वे सारी बहसें समाप्त हो
गईं। अब कोई दुविधा नहीं कि विद्यापति मिथिला के बिस्फी गाँव के थे, जो अब बिहार के मधुबनी जिले में
आता है। कर्मकाण्ड, धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र, न्यायशास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र के प्रकाण्ड
पण्डित महाकवि विद्यापति की संस्कृत, अवहट्ट, मैथिली--तीनो
भाषाओं की रचनाएँ गाथा, कीर्तिगान, उपदेश, नीति, धर्म, भक्ति, शृंगार, संयोग-वियोग, मान-अभिसार--जीवन-यापन के हर
क्षेत्र से सम्बन्धित विषय की हैं। शास्त्र और लोक--दोनों ही संसार की मोहक छवियाँ
उनकी कालजयी रचनाओं में चित्रित मिलती हैं।
उपलब्ध शोधों के आधार पर उनकी
निम्नलिखित कृतियों की जानकारी मिलती है:--
कीर्तिलता
|
: (कीर्तिसिह के
शासन-काल में उनके राज्यप्राप्ति के प्रयत्नों पर आधारित अवहट्ट में रचित
यशोगाथा)
|
कीर्तिपताका
|
: (कीर्तिसिह के
प्रेम प्रसंगों पर आधारित अवहट्ट में रचित)
|
भूपरिक्रमा
|
: (देवसिंह की आज्ञा
से, मिथिला से
नैमिषारण्य तक के तीर्थस्थलों का भूगोल-ज्ञानसम्पन्न संस्कृत में रचित ग्रन्थ)
|
पुरुष
परीक्षा
|
: (महाराज शिवसिंह
की आज्ञा से रचित नीतिपूर्ण कथाओं का संस्कृत ग्रन्थ)
|
लिखनावली
|
: (राजबनौली के राजा
पुरादित्य की आज्ञा से रचित अल्पपठित लोगों को पत्रलेखन सिखाने हेतु संस्कृत
ग्रन्थ)
|
शैवसर्वस्वसार
|
: (महाराज पद्मसिह
की धर्मपत्नी विश्वासदेवी की आज्ञा से संस्कृत में रचित शैवसिद्धान्तविषयक
ग्रन्थ)
|
शैवसर्वस्वसार-प्रमाणभूत
संग्रह
|
: (शैवसर्वस्वसार की
रचना में उल्लिखित शिवार्चनात्मक प्रमाणों का संग्रह)
|
गंगावाक्यावली
|
: (महाराज पद्मसिह
की पत्नी विश्वासदेवी की आज्ञा से रचित गंगापूजनादि, एवं हरिद्वार से गंगासागर तक के
तीर्थकृत्यों से सम्बद्ध संस्कृत ग्रन्थ)
|
विभागसार
|
: (महाराज
नरसिंहदेव दर्पनारायण की आज्ञा से रचित सम्पत्तिविभाजन पद्धति विषयक संस्कृत
ग्रन्थ)
|
दानवाक्यावली
|
: (महाराज नरसिंहदेव
दर्पनारायण की पत्नी धीरमति की आज्ञा से दानविधि वर्णन पर रचित संस्कृत ग्रन्थ)
|
दुर्गाभक्तितरंगिणी
|
: (धीरसिंह की
आज्ञा से रचित दुर्गापूजन पद्धति विषयक संस्कृत ग्रन्थ, और विद्यापति की अन्तिम कृति)
|
गोरक्ष
विजय
|
: (महाराज शिवसिंह
की आज्ञा से रचित मैथिली एकांकी,
गद्यभाग
संस्कृत एवं प्राकृत में और पद्यभाग मैथिली में)
|
मणिमंजरि
नाटिका
|
: (संस्कृत में लिखी
नाटिका, सम्भवतः इस
कृति की रचना कवि ने स्वेच्छा से की)
|
वर्षकृत्य
|
: (पूरे वर्ष के
पर्व-त्यौहारों के विधानविषयक,
मात्र
96 पृष्ठों की
कृति, सम्भवतः )
|
गयापत्तलक
|
: (जनसाधारण हेतु
गया में श्राद्ध करने की पद्धतिविषयक संस्कृत कृति)
|
पदावली
|
: (शृंगार एवं
भक्तिरस से ओतप्रोत अत्यन्त लोकप्रिय पदों का संग्रह)
|
उक्त सूची से स्पष्ट है कि
विद्यापति का रचना-फलक बहुआयामी था। मानवजीवन व्यवहार के प्रायः हर पहलू पर उनकी
दृष्टि सावधान रहती थी। पर इन सभी विविधता के बावजूद उनकी सर्वाधिक प्रसिद्धि
पदावली को लेकर ही है। मैथिली में रचे उनके सैकड़ो पद के मूल विषय राधाकृष्ण
प्रेमविषयक शृंगार और शिव, दुर्गा, गंगा आदि देवी-देवता की भक्ति के
हैं; पर उनके कई
भेदोपभेद हैं, जिनमें
उनके भाषा-साहित्य-संगीत-कला-संस्कृति के तात्त्विक ज्ञान के संकेत स्पष्ट दिखाई
देते हैं; साथ-साथ
समाज-सुधार, रीति-नीति
से सम्बद्ध उनकी धारणाएँ, एवं
अनुरागमय जनसरोकार के चमत्कारिक स्वरूप निदर्शित हैं। पाण्डुलिपि की प्राप्ति के
आधार पर उनके पदों का वर्गीकरण निम्नलिखित सात खण्डों में किया गया है:--
नेपाल पदावली,
रामभद्रपुर
पदावली,
तरौनी पदावली,
रागतरंगिणी,
वैष्णव पदावली,
चन्दा झा
संकलन,
लोककण्ठ से
एकत्र पदावली।
विषय के आधार पर उनके पदों को तीन
कोटि में बाँटा जा सकता है:--
शृंगारिक पद,
भक्ति पद,
विविध पद।
विद्यापति के पदों के संकलन में
भारतीय मनीषा के कई श्रेष्ठ अनुसन्धानवेताओं ने अपना अमूल्य योगदान दिया है। उनमें
से बाबू नगेन्द्रनाथ गुप्त, शिवपूजन
सहाय, डॉ. ग्रियर्सन
के अवदान के प्रति नतमस्तक होना हर विद्यापति-प्रेमी का दायित्व बनता है। बाद के
दिनों में रामवृक्ष बेनीपुरी और नागार्जुन ने भी कुछ चुने हुए पदों का अर्थ सहित
संचयन किया।
महाकवि विद्यापति भारतीय साहित्य
के उन गिने-चुने जिम्मेदार रचनाकारों में से हैं, जिनकी रचनात्मकता राज्याश्रय में रहने के बावजूद चारण-काव्य की
ओर कभी उन्मुख नहीं हुई। उनका राष्ट्र-बोध, संस्कृति-बोध,
इतिहास-बोध, और समाज-बोध सदा उनको संचालित
करता रहा। उनके सामाजिक सरोकार, रचनात्मक
दायित्व, नैतिकता एवं
निष्ठा के प्रमाण, पदावली
के अलावा संस्कृत और अवहट्ट में भी रचित उनकी कृतियों में स्पष्ट दिखते हैं। पर
उन्हें जन-जन तक पहुँचाने का श्रेय उनकी कोमलकान्त पदावली को जाता है। राजमहल से
झोपड़ी तक, देवमन्दिर से
रंगशाला तक, प्रणय-कक्ष
से चैपाल तक उनके पद समान रूप से आज भी समादृत हैं। वयःसन्धि, पूर्णयौवना, विरहाकुल, कामातुरा, कामदग्धा...सभी कोटि की नायिकाओं
के नखशिख वर्णन; मान, विरह, मिलन, भावोल्लास वर्णन; शिव, कृष्ण, दुर्गा, गंगा के स्तुति-पद में कवि ने
सामाजिक जीवन के व्यावहारिक स्वरूप को उजागर किया है। इतिहास गवाह है कि उनके पद न
केवल ओइनवार वंश के राजघरानों; या
चैतन्य महाप्रभु एवं उनके भक्त शिष्यों; या ग्रियर्सन,
रवीन्द्रनाथ
टैगोर, महामहोपाध्याय
हरप्रसाद शास्त्री, महामहोपाध्याय
उमेश मिश्र, नगेन्द्रनाथ
गुप्त जैसे श्रेष्ठ विद्वानों को सम्मोहित करते थे, बल्कि आज भी वे पद आम जनजीवन के सर्वविध सहचर बने हुए हैं; नागरिक जीवन के संस्कारों, लोकाचारों में लोकजीवन के अनुषंग
बने हुए हैं। जन्म, मुण्डन, उपनयन, विवाह, द्विरागमन, पूजा-अर्चना --हर अवसर पर उनके पद
लोक-कण्ठ से स्वतः फूट पड़ते हैं। उन पदों की असंख्य पंक्तियाँ मैथिल-समाज में आज
कहावत की तरह प्रचलित हैं। उन पदों का विधिवत संकलन किया जाए, तो लगभग हजार के आँकड़े होंगे।
पदों में चित्रित जनजीवन का वैविध्य देखकर अचरज होना स्वाभाविक है कि किसी एक
व्यक्ति के पास स्थान-काल-पात्र,
लिंग-जाति-
वर्ग-सम्प्रदाय, शोक-उल्लास, जय-पराजय, नीति-धर्म-दर्शन-इतिहास-शासन, साहित्य- कला-संगीत-संस्कृति, युद्ध-प्रेम-पूजा...जैसे तमाम
क्षेत्रों का इतना सूक्ष्म अवबोध कैसे हो सकता है। अचरज जो भी हो, पर सत्य यही है! ऐसे पूर्वज
साहित्यसेवी के अवदान से गौरवान्वित भारतीय साहित्य धन्य है।
Goddess statue, kept in the traditional temple of Vidyapati's family at his Birth Place Vsfi (Madhubani, Bihar) on December18, 2019 |
Deo Shankar Navin with Mihir and Pushpa,, showing the Goddess statue, kept in the traditional temple of Vidyapati's family at his Birth Place Vsfi (Madhubani, Bihar) on December18, 2019 |
Deo Shankar Navin with Mihir and Pushpa,, in the traditional temple of Vidyapati's family at his Birth Place Vsfi (Madhubani, Bihar) on December18, 2019 |
विद्यापति के सम्बन्ध में
जनश्रुति के आधार पर तरह-तरह की धारणाएँ बना ली गई हैं। धारणा बनाते समय लोग अक्सर
भूल जाते हैं कि जिन बातों को ऐतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर प्रामाणिक रूप से
जाना जा सकता है, उनके
लिए जनश्रुति का सहारा लेना अच्छी बात नहीं है। सारी जनश्रुतियाँ अपने प्रारम्भिक
स्वरूप में एक घटना या एक कथा ही रही होगी और इसकी सम्भावना शत-प्रतिशत है कि
उनमें से कई कथाएँ लोकरंजन के लिए कथावाचक द्वारा गढ़ी गई होंगी, जिसका आधार शुद्ध कल्पना रही
होगी। विद्यापति के सम्बन्ध में जनश्रुतियों के आधार पर राय बनाने से बेहतर है कि
हम उनके रचना संसार के आधार पर उनके बारे में अपनी राय सुनिश्चित करें।
महाकवि विद्यापति ने अपने जन्म और
मृत्यु के सम्बन्ध में तिथि इत्यादि का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है। राजा
गणेश्वर, कीर्ति सिंह, शिव सिंह...कई राजाओं के
राज्याश्रय में उन्होंने अपना जीवन बिताया और साहित्य सृजन किया। उन्हीं राजाओं के
शासन काल और विद्यापति की रचनाओं में अंकित सूचनाओं के आधार पर ताल-मेल बैठाकर
विद्वानों ने तर्क-वितर्क किया और निर्धारित किया कि सन् 1350 से 1360 के बीच उनका जन्म और सन् 1438 से 1448 के बीच निधन हुआ होगा। मिथिला
(बिहार) क्षेत्र के बिस्फी गाँव में उनका जन्म हुआ। उनके पिता का नाम गणपति ठाकुर
तथा माँ का नाम गंगा देवी था।
साहित्य में विद्यापति का प्रवेश
कथाकार के रूप में हुआ। ‘कीर्तिलता’ उनकी पहली
कृति है। इसके बाद ‘कीर्तिपताका’, ‘पुरुष परीक्षा’, ‘भू-परिक्रमा’, ‘गोरक्ष विजय’, ‘लिखनावली’, ‘विभागसार’, ‘मणिमंजरी’, ‘गंगा
वाक्यावली’...कई
ग्रन्थ उन्होंने विभिन्न पहलुओं और भिन्न-भिन्न विधाओं में लिखे। वैसे यह तथ्य भी
बड़े मजबूत तर्क के साथ सामने आया है कि ‘कीर्तिलता’ महाकवि
विद्यापति की प्राथमिक रचना नहीं है। बहुत बाद में सामाजिक आग्रह के कारण उन्होंने
बेमन से इस ग्रन्थ की रचना की। ‘कीर्तिपताका’ तो सम्पूर्ण पुस्तक है भी नहीं।
पर इस तथ्य पर फिर कभी विचार किया जा सकेगा। इसके अलावा विद्यापति पदावली जैसा एक
बड़ा भण्डार सामने है, जिसमें
विद्यापति की कई-कई छवियाँ अपने विराट स्वरूप में दिखती हैं। दुर्योग ही है कि ऐसे
विराट व्यक्तित्व और अजस्र प्रतिभा वाले रचनाकार की किसी पंक्ति विशेष और रचना
विशेष की सतही जानकारी हासिल कर लोगों ने राय बना ली कि विद्यापति दरबारी कवि थे, शृंगारिक कवि थे, शैव थे, शाक्त थे, वैष्णव थे...। पर सचाई है कि उनके
गीतों में दरबारी संस्कृति नहीं,
जनता
के आत्मा की आवाज है। यही आवाज उनके गीतों में अपने विविध रूपों में दर्ज हुई है
और अनुशीलन के दौरान समग्रता में सर्जक की विराट छवि उभरती है। जरूरत है
पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर उनके वास्तविक पक्ष को जानने की। गीतिकाव्य परम्परा
में विद्यापति के योगदान, पदावली
की विशेषता, भक्ति
और शृंगार का द्वन्द्व, उनकी
भाषा, और परवर्ती
काव्यधारा पर उनके प्रभाव पर विचार करने की।
पदावली की भाषा मिथिला की आम जनता
की भाषा मैथिली है। संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान विद्यापति के इन गीतों में भाषा, शब्द, छन्द, गीतात्मकता, लयात्मकता, ताल आदि का श्रेष्ठतम रूप दिखता
है। जागतिक संघर्ष, व्यतिक्रम
से भरे जीवन की अशान्ति, युगीन
समस्याएँ, मानवीय दैन्य, सामाजिक अनाचार, पारिवारिक विग्रह, कौटुम्बिक पाखण्ड आदि से उद्वेलित
कवि-मन कहीं गहरे क्षोभ से भर जाता है। गेयधर्मिता, अनुभूति की संक्षिप्तता, भाव की एकसूत्राता, प्रभाव की श्रेष्ठता और सम्बद्धता से परिपूर्ण विद्यापति की
गीतिरचना इन्हीं प्रबल भावों की अभिव्यक्ति है। कवि कोकिल विद्यापति के यहाँ यह ‘गीति’ इतनी ताकतवर हुई कि उसकी एक
स्वतन्त्रा दुनिया कायम हो गई। इन गीतियों का मूल विषय यद्यपि राधा-कृष्ण विषयक
प्रेम है, जो जयदेव के ‘गीतगोविन्द’ का भी विषय है। पर; यहाँ राधा-कृष्ण के प्रेम विषयक
संयोग-वियोग की चित्त-वृत्तियों के संवेगात्मक चित्रा के साथ-साथ गंगा और शिव की
स्तुतियाँ भी मानव मन की तरल रागात्मक वृत्तियों को जागरित करती हैं। मानव-मन के
गहन अनुराग और संगीतात्मकता के अनूठे मिलन से उन्हें हिन्दी-मैथिली का प्रथम
गीतिकार मानना मुनासिब होगा।
उनके रचनात्मक संस्पर्श से
गीति-परम्परा न केवल पुष्ट हुई, बल्कि
उसकी दिशाएँ स्पष्ट हुईं और पीढ़ियों तक उसकी धारा बढ़ती गई। भक्तिकाल के सन्त
कवियों में कबीर, दादू, मलूकदास आदि के पदों में गीति के
उत्कृष्ट रूप दिखाई देते हैं। दिलचस्प है कि धर्मोपदेश, मानव-धर्म की स्थापना, अभेद और सहानुभूति के प्रचार, पाखण्ड एवं कर्मकाण्ड के खण्डन
आदि के भाव चित्रा के बावजूद इन पदों से गीति की तरलता कम नहीं हुई है। वैष्णव
भक्त कवियों के यहाँ तो गीति का और भी नैसर्गिक रूप निखर उठा। अष्टछाप के सभी सन्त
कवियों में, तुलसीदास, चण्डीदास, मीराबाई के पदों में गीति के
मनोहारी फलक देखे जा सकते हैं।
Kapileshwar Temple (Madhubani, Bihar) |
Deo Shankar Navin in Kapileshwar Temple (Madhubani, Bihar) premises on December18, 2019 |
Deo Shankar Navin with Mihir and his son, in Kapileshwar Temple (Madhubani, Bihar) on December18, 2019 |
उनकी भक्तिपरक रचनाओं में उपस्थित जन-भावना के अविरल स्रोत, ईष्टदेव के प्रति समर्पण, भाव के वैविध्य, गीति के उत्कर्ष आदि उनकी रचनात्मक प्रगल्भता, जन चित्त-वृत्ति की परख और सामाजिक सरोकार के प्रमाण है। उनकी प्रेम-प्रधान रचनाएँ तो कुछ और ही विशिष्ट हैं। उनके काव्य की विरह व्याकुल नायिका स्वप्न में भी अपने प्रिय (कृष्ण) से मिलकर पुलकित होती हैं, अपनी सखि को उलाहना देती हैं कि सपने में भी मुझे तुमने अपने प्रिय से मन भर नहीं मिलने दिया। मेरा यह सुख छीनकर तुम्हें क्या मिला।--यह लोक चित्त की दशा है। यह दशा केवल विद्यापति की राधा की ही नहीं, विरह की आग में झुलसती किसी भी नायिका की हो सकती है। नारी मन की इस व्यथा को राधा के सहारे व्यक्त करते हुए महाकवि ने आवेगमय भावनाओं का जिस लयात्मकता के साथ चित्राण किया है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। व्यक्ति चित्त की भावनाओं को व्यक्त करते हुए महाकवि विद्यापति लोकचित्त की भावनाओं के इकलौते गायक हैं, जिनकी गीति शैली और अभिव्यक्ति कौशल में जनभावनाएँ आकार भी पाती हैं, ध्वनि भी पाती हैं और अपने समग्र प्रभाव के साथ उपस्थित होती हैं। गीतिकाव्य की विकास परम्परा के मद्देनजर महाकवि विद्यापति की गीति शैली का यह स्पर्श मात्रा है। दीगर बात है कि उनका जीवनकाल भक्तिकाल के पहले चरण में ही समाप्त हो गया, पर अकेले विद्यापति हिन्दी की तीन-तीन काव्यधारा--‘वीरगाथात्मक’, ‘भक्तिपरक’ और ‘रीतिपरक’ प्रवृत्तियों को पूरी क्षमता से रेखांकित कर रहे हैं। सत्य है कि एक बड़ा कवि अपनी रचना में भावी युग की घोषणा भी करता है। रचना फलक का यह वैराट्य कवि की गहन जीवन-दृष्टि का परिचायक है।
विद्यापति पदावली में मोटे तौर पर
दो कोटि की रचनाएँ हैं--भक्तिपरक और पे्रमपरक। भक्तिपरक रचनाओं के आधार पर
विद्वानों में उन्हें शैव, शाक्त, वैष्णव आदि सम्प्रदाय में बैठाने
का मतभेद चलता रहा है, शायद
यह मतभेद चलता ही रहेगा। शृंगारिक रचनाओं में भी उनके फलक काफी विस्तृत और
बहुमुखगामी हैं। पर सारी स्थितियों के साथ जो एक विशेषता सर्वनिष्ठ है, वह है इन रचनाओं की गीतिमयता।
गेयधर्मिता का यह उत्कृष्ट समायोजन महाकवि के अनूठे शिल्प का दर्शन कराता है।
विद्वानों की बैठक से लेकर चूल्हे-चैके तक, गृहस्थों की मण्डली से लेकर साधुओं के समुदाय तक, भक्तों-पुजारियों से लेकर
प्रेमी-प्रेमिका के प्रणय तक में यदि विद्यापति के गीत इतने प्रसिद्ध, प्रशंसित और मनोहारी हैं, लोक कण्ठ में बसी हुई सांस्कृतिक
चेतना की तरह प्रिय हैं, तो
इसके प्रमुख कारणों में से गीतिमयता भी एक है। इन गीतों में उनके शब्दानुशासन, छन्दानुशासन, जनसरोकार एवं प्रामणिक
जीवनानुभूति के साथ-साथ संगीत-शास्त्रा पर उनके नियन्त्राण परिलक्षित होते हैं।
यद्यपि महाकवि विद्यापति भक्तिकाल
के प्रारम्भ में ही चल बसे, पर उनकी रचनाएँ हिन्दी के आदिकाल
एवं मध्यकाल--दोनों में दखल रखती हैं। अपने आत्मीय सखा राजा शिव सिंह का
देहान्त/तिरोधान (लगभग सन् 1405)
के
बाद उन्होंने कोई शृंगारिक रचनाएँ नहीं कीं। सभी शृंगारिक रचनाएँ भक्तिकाल से
पूर्व ही रची गईं।
विरह व्याकुल उनकी नायिका स्वप्न
में भी अपने प्रिय(कृष्ण) से मिलकर पुलकित होती हैं, अपनी सखि को उलाहना देती हैं कि सपने में भी मुझे तुमने अपने
प्रिय से मन भर नहीं मिलने दिया। मेरा यह सुख छीनकर तुम्हें क्या मिला।--यह लोक
चित्त की दशा है। यह दशा केवल विद्यापति की राधा की ही नहीं, विरह की आग में झुलसती किसी भी
नायिका की हो सकती है। नारी मन की इस व्यथा को राधा के सहारे व्यक्त करते हुए
महाकवि ने आवेगमय भावनाओं का जिस लयात्मकता के साथ चित्रण किया है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है।
व्यक्ति चित्त की भावनाओं को व्यक्त करते हुए महाकवि विद्यापति लोकचित्त की
भावनाओं के इकलौते गायक हैं, जिनकी
गीति शैली और अभिव्यक्ति कौशल में जनभावनाएँ आकार भी पाती हैं, ध्वनि भी पाती हैं और अपने समग्र
प्रभाव के साथ उपस्थित होती हैं। गीतिकाव्य की विकास परम्परा के मद्देनजर महाकवि विद्यापति
की गीति शैली का यह स्पर्श मात्र है।
भक्ति और शृंगार--बेशक दो बातें
हों, पर दोनों का
उत्स एक ही है। दोनों का मूल अनुराग और समर्पण है। दोनों ही भाव व्यक्ति के मन में
प्रेम से शुरू होते हैं। कुछ लोग तो अभी भी भक्ति और प्रेम को दो दिशाओं का
व्यापार मानते हैं। वे सोचते हैं कि जब तक मनुष्य को ज्ञान नहीं होता, युवावस्था के उन्माद में वह
स्त्री के रूप जाल में मोहवश फँसा रहता है, भोग में लिप्त रहता है; जब आँखें खुलती हैं, ज्ञान चक्षु खुलता है, भक्ति-भाव से वह ईश्वर की ओर मुड़ता है। पर ऐसा सोचना सर्वथा
उचित नहीं है। वास्तविक अर्थों में दोनों ही उपक्रमों का प्रस्थान बिन्दु एक ही है, व्यापार क्रम एक ही है। दोनों
क्रिया-व्यापार प्रेम के कारण ही होता है और दोनों ही में समर्पण भाव रहता है, स्वीकार भाव रहता है। प्रेम में
प्रेमिका, प्रेमी के
प्रति समर्पित होती है या प्रेमी-प्रेमिका के प्रति, ठीक इसी तरह भक्ति में भक्त, भगवान के प्रति समर्पित होते हैं। मीराबाई की काव्य साधना का
उदाहरण हमारे सामने है, जहाँ
उन्हें कृष्ण की प्रिया मानें या कृष्ण की भक्त...संशय हर स्थिति में मौजूद रहेगा।
विद्यापति पदावली, भक्ति
और शृंगार के बीच विषुवत् रेखा जैसी इसी विभाजक सीमा को समझने हेतु अनुपम उदाहरण
है। महाकवि ने माधव की प्रार्थना करते हुए लिखा है--‘तोहें जनमि पुन तोहें समाओब, सागर लहरि समाना।’ उत्स और विलीन हो जाने का यह
एकात्म, आत्मा और
परमात्मा की यह एकात्मता उनके यहाँ शृंगारिक पदों में बड़ी आसानी से मिलती है। अपने
प्रेम-ईष्ट के प्रति उपासिका का समर्पण इसी तरह का भक्तिपूर्ण समर्पण है।
भक्ति के कई-कई रूप हमारे सामने
निखरे हैं। सगुण, निर्गुण--दोनों
भक्ति के विविध पहलू पर विस्तार से विचार करना यहाँ हमारा ध्येय नहीं। पर आम तौर
पर भक्ति में ईष्ट के प्रति भक्त का समर्पण भाव, प्रशंसा भाव,
कृतज्ञता
भाव, लीन होने की
स्थिति, एकात्म
स्थापित करने की स्थिति पाई जाती है। हम सब जानते हैं कि ये सारी स्थितियाँ शृंगार, अर्थात् ‘प्र्रेम’ में भी विद्यमान हैं। यहाँ भक्ति
और शृंगार को स्पष्ट करने के लिए बेहतर हो कि हम क्रमशः ईष्ट-भक्त प्रेम तथा
स्त्री-पुरुष प्रेम पदों का इस्तेमाल करें।
भक्ति और शृंगार के जो मानदण्ड आज
के प्रवक्ताओं की राय में व्याप्त हैं, उस आधार पर महाकवि विद्यापति के काव्य संसार को बाँटें, तो राधा कृष्ण विषयक ज्यादातर गीत
शृंगारिक हैं, पर जो
भक्ति गीत हैं, उनमें
प्रमुख हैं--शिव स्तुति, गंगा
स्तुति, काली वन्दना, कृष्ण प्रार्थना आदि।
विद्यापति के यहाँ लौकिक प्रेम ही
ईश्वरोन्मुख होकर भक्ति में परिणत हो जाता है। लौकिक प्रे्रम भी जोड़ने का काम करता
है और ईश्वरीय प्रेम भी। भक्ति में एकात्म की स्थिति दिखाई देती है, विद्यापति के यहाँ वह आत्मा
परमात्मा के मिलन रूप में है--‘तोहे
जनमि पुनि तोहे समाओब सागर लहरि समाना’--यह
स्थिति लौकिक प्रेम में कैसे फलित होती है, यह देखने के लिए कृष्ण के विरह में नायिका द्वारा गाया गया वह
गीत है--‘अनुखन
माधव माधव सुमरइत राधा भेल मधाई।’ अर्थात्
सुध-बुध खोकर प्रेम दीवानी होने वाली राधा की जो व्याकुलता यहाँ है, भक्ति में यही व्याकुलता और
विह्वलता भक्तों की होती है।
संगीत के अलावा भक्ति और शृंगार
की यह तात्त्विकता जहाँ एकमेक होती है, वहाँ विद्यापति के कुछ भक्तिपरक पदों में शृंगार और भक्ति का
संघर्ष भी परिलक्षित होता है। जो विद्यापति शृंगारिक गीतों में समर्पण और सौन्दर्य
की हद तक लीन हैं; रमण, विलास, विरह, मिलन के इतने पक्षों को इतनी
तल्लीनता से चित्रित करते हैं; और ‘यौवन बिनु तन, तन बिनु यौवन, की यौनव पिय दूरे’ कहते हुए पिया के बिना तन और यौवन
की सार्थकता ही नहीं समझते, वही
विद्यापति अपने भक्तिपरक गीतों में विनीत हो जाते हैं और पूर्व में किए गए रमण और
आराम को निरर्थक बता देते हैं:
आध
जनम हम निन्दे गमाओल, जरा
शिशु कत दिन गेला,
निधुवन
रमणी रसरंगे मातल, तोहे
भजब कोन बेला।
इतने मनोग्राही शृंगारिक गीतों की
रचना करने के बाद, अन्त
समय में ‘तातल सैकत
वारि बिन्दु सम सुत मित रमणि समाजे’
कह
देते हैं। जिन्होंने शृंगारिक गीतों की नायिका के मनोवेग को जीवन दिया है, उसे प्राणवान किया है, वे विद्यापति उस ‘रमणि’ को तप्त बालू पर पानी की बून्द के
समान कहकर भगवान के शरणागत होते हैं।
जावत
जनम हम तुअ न सेवल पद, युवति
मनि मञो मेलि,
अमृत
तेजि किए हलाहल पीउल, सम्पदे
विपदहि भेलि
कहकर महाकवि स्वयं शृंगार और
भक्ति के सारे द्वैध को खत्म कर देते हैं, ऐसा मानना शायद पूरी तरह ठीक न हो। पूरा जीवन मैंने आपकी
चरण-वन्दना नहीं की, युवतियों
के साथ बिताया, अमृत
(ईष्ट भक्ति) छोड़कर विषपान किया--यह भावना कवि की शालीनता ही दिखाती है। दो
कालखण्डों और दो मनःस्थितियों में एक ही रचनाकार द्वारा रचनाधर्म का यह फर्क कवि
का पश्चाताप नहीं, उनकी
तल्लीनता प्रदर्शित करता है कि वह जहाँ कहीं भी है, मुकम्मल है। हम शृंगारिक कवि विद्यापति और भक्त कवि विद्यापति
को तौलने और समझने का प्रयास तो अवश्य ही करें, उन्हें लड़ाने का प्रयास नहीं कर सकते। दोनों दोनों से या तो
पराजित हो जाएँगे या दोनों दोनों पर विजय पाएँगे।
Deo Shankar Navin with Ajit and Mihir, sitting in the residence of Maithili Poet Uday Chandra Jha Vinod's House while returning from Kapileshwar Temple (Madhubani, Bihar) on December18, 2019 |
ऐसे शक्तिशाली कवि के रचनात्मक
कौशल, भाव, शिल्प, छन्द आदि का सहज प्रभाव परवर्ती
काव्यधारा पर पड़ना ही था, सो
पड़ा। इक्कीसवी सदी के समकालीन रचनाकारों तक पर उनके प्रभाव परिलक्षित होते हैं।
मैथिली में तो लम्बे अन्तराल तक उन्हीं की परम्परा का लगभग निर्वाह गोविन्ददास, उमापति, रत्नपाणि, हर्षनाथ, हरिदास, महाराजा महेश ठाकुर, लोचन प्रभृति के यहाँ हुआ।
वैद्यनाथ मिश्र यात्री और राजकमल चैधरी तक इस सूची में शामिल हैं। भाव, छन्द, विषय के अलावा भाषा रूप एवं विविध
व्याकरणिक पक्षों एवं वर्तनी तक पर विद्यापति का प्रभाव पड़ता रहा। हिन्दी के
रीतिकलीन और भक्तिकालीन कवियों की तो सूची लम्बी बन सकती है --सूरदास, बिहारी, देव, नन्ददास, केसवदास, बल्कि अष्टछाप के सारे कवि, मतिराम, मीराबाई, तुलसीदास, रसखान, जायसी, पद्माकर आदि की रचनाओं में या तो
विद्यापति का सीधा प्रभाव दिखता है या विद्यापति द्वारा प्रारम्भ किए गए भावों, अर्थों, प्रतीकों का विकास। कृष्ण-भक्ति
शाखा के कवियों के अलावा रीतिकाल के रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध कवियों पर उनका
सर्वाधिक प्रभाव है। इसके बाद के कवियों में तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर
भारतेन्दु युग और छायावाद तथा उत्तर छायावाद के समय में यह प्रभाव थोड़ा कम अवश्य
दिखता है, पर इस कारण यह
भी नहीं मानना चाहिए कि आधुनिक काल में आकर रचनाकारों की नजर में महाकवि विद्यापति
का महत्त्व कम हो गया। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने ‘मेरी पसन्द की कविताएँ’ तथा सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने ‘चण्डीदास और विद्यापति’ में महाकवि विद्यापति के सम्बन्ध
में अपनी अनुरक्ति स्पष्ट की है। महाकवि विद्यापति की पंक्ति ‘तोहे जनमि
पुनि तोहे समाओब, सागर
लहरि समाना’ को
यदि कबीर की पंक्ति ‘दरियाव
की लहर दरियाव है जी, दरियाव
और लहर में भिन्न कोयम?’ को मिलाकर देखें तो भाव-साम्य की
स्पष्ट छवि सामने आती है। इसी तरह निराला के पद्यखण्ड--नवगति, नवलय, ताल छन्द
नव/...नव स्वर नव वर दे...पर विद्यापति की पंक्ति--नव वृन्दावन
नव नव तरुगण/नव नव विकसित फूल...का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। नागार्जुन और
राजकमल चैधरी के लिए तो विद्यापति आदर्श कवि रहे हैं। नागार्जुन ने तो विद्यापति
के पदों का अनुवाद भी किया और राजकमल चैधरी ने अपनी कई कविताओं में बड़ी श्रद्धा से
उन्हें स्मरण किया है।
प्रान्तेतर भाषाओं के गीत भी उनके
प्रभाव से बचा नहीं रहे। बंगाल, आसाम, ओड़ीसा तथा नेपाल की साहित्यिक
परम्पराओं पर विद्यापति के गीतों का जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। बंगाल तथा आसाम में
विद्यापति की मान्यता वैष्णव भक्त के रूप में हुई। विद्यापति के जिन गीतों को
मिथिला में शृंगारिक गीत की सत्ता प्राप्त थी, बंगाल में वही कीर्तन के रूप में अभिगृहीत हुए। चैतन्यदेव समेत
कई वैष्णव भक्तों ने इसका अनुसरण किया। कई बंगला कवियों ने इस भाषा तथा भाव का
अनुकरण करते हुए काव्य सृजन किए जो ‘ब्रजबुलि साहित्य’ के नाम से ख्यात हुआ।
वैष्णव धर्म का प्रचार जब
पूर्वांचल में पूरी तरह हो गया तो उस क्षेत्र में विद्यापति के गीतों का गायन होने
लगा। आसाम का ‘वरगीत’ तथा ‘अंकिया नाट’ विद्यापति के प्रभाव से पल्लवित
पुष्पित हुआ। इस साहित्य में रचे गए गीतों के भाव, विषय और शैली,
विद्यापति
के प्रभाव से परिपूर्ण हैं।
ब्रजबुलि साहित्य के माध्यम से
विद्यापति के गीतों का प्रभाव ओड़ीसा के साहित्य पर भी पड़ा। सोलहवीं शताब्दी के कुछ
मैथिली कवि ओड़ीसा के शासक नरसिंह देव के दरबार में थे, जिन पर विद्यापति की रचनाधर्मिता
का भरपूर असर है। और नेपाल में तो सहज ही, विद्यापति का असर दिखेगा। सिंहभूपति, जगज्ज्योतिर्मल्ल और भूपतीन्द्र
जैसे कई रचनाकार सतरहवीं शताब्दी में ऐसे हुए, जो नेपाल में रहकर अपने आश्रयदाता के शासनकाल में विद्यापति की
परम्परा से प्रभावित होकर रचना करते रहे। आज भी विद्यापति पदावली का जो कुछ संग्रह
प्राप्त हो पाया है, उसका
एक बड़ा भाग नेपाल से ही प्राप्त हुआ है।
उनके गीतों प्रभावित बंगला के
विद्वान सुशील कुमार चक्रवर्ती ने तो साफ कहा कि-- No other persons in the world,
not even my brother, sister or wife has given me such joy as these lyric peots
(Vidyapati and Chandidas) have done. और कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने
स्वीकारा कि-- The songs and poems of Vidyapati were one of my earliest delights that
stirred my youthfut imagination. बंगला के एक और चिन्तक ने कहा--उपमाय
तिनि कालिदासौ मत सिद्धिहस्त छिलेन।
सचमुच संगीत और प्रेम--मानव जीवन
को आत्मिक सुख के चरम पर पहुँचाता है। अपने गीतों में उन्होंने ग्राम्य पद, प्राणवान भाषा प्रयुक्ति, उक्ति वैचित्रय, लोकोक्ति, जनपदीय भाषा एवं लोकाचार--सबका
सहारा लिया। सम्भवतः इसी कारण विद्यापति पदावली मनुष्य को सम्पूर्ण रूप से जीवन
जीने का अवसर देती है।
सहायक
ग्रन्थों की सूची
हिन्दी
साहित्यकोश, भाग-1/धीरेन्द्र
वर्मा (सं.)/ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी/1985
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हिन्दी
साहित्य का दूसरा इतिहास/बच्चन सिंह/राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली/2000
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भारत में इतिहास लेखन, धर्म और राज्य का स्वरूप/सतीश
चन्द्रा/एन.ए.खान ‘शाहिद’ (अनु.)/ग्रन्थशिल्पी, दिल्ली/1999
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डबरे पर सूरज
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अनुशीलन, खण्ड-1/डॉ.
वीरेन्द्र श्रीवास्तव(सं.)/बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादेमी, पटना/1973
विद्यापति
अनुशीलन, खण्ड-1/डॉ.
वीरेन्द्र श्रीवास्तव(सं.)/बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादेमी, पटना/1973
सूर के पद और
रचना दृष्टि/डॉ. विजय बहादुर सिंह/हिन्दी प्रचारक पब्लिकेशन्स, वाराणसी/1997
विद्यापति
पदावली भाग-1-2/बिहार
राष्ट्रभाषा परिषद, पटना
कीर्तिलता
(विद्यापति)/महामहोपाध्याय डॉ. उमेश मिश्र (सं.)/अखिल भारतीय मैथिली साहित्य समिति, इलाहाबाद/1960
विद्यापति-सूर-बिहारी
का काव्य सौन्दर्य/प्रा.शरद कणबरकर/चिन्तन प्रकश्षन, कानपुर/1989
विश्व कवि
विद्यापति/सीताराम झा ‘श्याम’/प्रकाशन विभाग, दिल्ली/2005
भक्तिकालीन
कवियों के काव्य सिद्धान्त/डॉ. सुरेश चन्द्र गुप्त/आर्य बुक डिपो, दिल्ली/1986
लोकसंस्कृति
के प्रवर्तक सूर/डॉ. रामशरण गौड़/विभूति प्रकाशन, दिल्ली/1982
रीतिकाव्य: एक
नया मूल्यांकन/डॉ. जगदीश्वर प्रसाद/नई कहानी, इलाहाबाद/ 1993
मैथिली
साहित्य का इतिहास/दुर्गानाथ झा ‘श्रीश’
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