आत्मालोचन करते हुए ईमानदार रहना और जरूरत हो
तो अपनी भी बुराई करने में पीछे न हटना बहुत मुश्किल काम है। वैसे इन दिनों खुद को
उदार,
बुद्धिजीवी,
प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए अपनी जाति, वंश-परम्परा,
सम्प्रदाय,
देश,
संस्कृति,
आचार-विचार की निन्दा और सामने वाले की प्रशंसा करने का फैशन चल पड़ा है। ऐसा
करते हुए उच्च विचारवानों की सूची में अपना नाम दर्ज करवाने होड़ लगी है। इसी तरह
खुद को नारीवादी साबित करने और नारियों के बीच लोकप्रिय होने के लिए कुछ प्रवंचक
पुरुष नारियों के समक्ष दुनिया के हर पुरुषों को कुकर्मी और नीच साबित करने में
लीन-तल्लीन हैं। दुनिया भर के जिन मर्दों के बारे में वह कुछ जानकारी नहीं रखता, उनके बारे में सब कुछ बोलेगा; पर अपने बारे में सब कुछ जानने के बावजूद कुछ
नहीं बोलेगा। इसके उलट,
मिथिलांचल में एक महात्मा हुए, हरिमोहन झा
(सन् 1908-1984)। उनके महात्म्य की व्याख्या विस्तार से की जाए तो कई आधुनिक लोग कहेंगे कि यह
धर्मान्ध भक्ति से लिखी गई किसी सन्त की जीवनी है। वे कहें! भारत जैसे
लोकतान्त्रिाक देश में अभिव्यक्ति की स्वाधीनता तो गधों को भी है! जब मन करे, वह ढेंचू-ढेंचू रेंक सकता है!
पर तथ्य है यही है कि प्राच्य-पाश्चात्य, प्राचीन-आधुनिक--सारे सन्दर्भों के गहन ज्ञाता, दर्शनशास्त्र
के प्रकाण्ड विद्वान,
सामाजिक विसंगतियों एवं पाखण्डों के घोर विरोधी और भारतीय साहित्य के
सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिमोहन झा के साहित्यिक-सामाजिक अवदानों को स्मरण करते समय
सुविज्ञ समाज श्रद्धावनत हो ही जाएगा! उनकी कृतियों के विवेकशील अध्येता को वे
क्रान्तिकारी सन्त दिखेंगे ही। असली वाला सन्त; सन्तगिरी का
धन्धा करनेवाला सन्त नहीं। विसंगतिमुक्त, तर्कोन्मुख, चेतना-सम्पन्न नागरिकों के समाज के आग्रही इस व्यंग्यकार ने जिस मिथिला को
ढोंग और पाखण्ड के गन्दे डबरे में आकण्ठ डूबते देखा, उसे उबारने
के लिए उन्होंने क्या-क्या जतन नहीं किए! मैथिली में प्रकाशित उनके उपन्यास ‘कन्यादान’ (1933) और ‘द्विरागमन’ (1943) अत्यन्त प्रहारक कृति है; पर मैथिल-जन हँसकर रह गए; जबकि दोनों कृतियों की मूल ध्वनि विडम्बना का रेखांकन था! फिर प्रकाशित हुआ
कथा-संग्रह ‘प्रणम्य देवता’ (1945), ‘रंगशाला’
(1949),
‘चर्चरी’ (1960); पर स्थिति लगभग वैसी ही रही।
सुविख्यात रचनाकार, प्रकाण्ड दर्शनशास्त्री, सामाजिक-व्यवस्था के निवष्टि चिन्तक हरिमोहन झा
(बिहार के वैशाली जिले के कुमरबाजितपुर में जन्म) ने लेखन तो मैथिली, हिन्दी,
अंग्रेजी--तीन भाषाओं में किया, पर उनका
आत्मिक जुड़ाव मैथिली लेखन से ही था। धार्मिक रूढ़ियों एवं सामाजिक मान्यताओं के
आतंक से उन दिनों मैथिलों की जीवन-व्यवस्था व्याकुल थी। वे इस जनविरोधी रूढ़ियों
एवं मान्यताओं के उग्र विरोधी थे। जनसामान्य की तंगहाल जीवन-व्यवस्था को
विसंगतियों का अड्डा बनाने की नीति के निन्दक थे। उनके पिता जनार्दन झा ‘जनसीदन’
भी मैथिली के बड़े रचनाकार थेे। जनसीदन के लेखन में भी जनजीवन की विकृतियों का
घोर विरोध परिलक्षित है। सम्भव हो कि विकृति-विरोध का संस्कार हरिमोहन झा के
बाल्यकाल में अपने पिता की संगति में विकसित हुआ हो। हरिमोहन झा के सबसे बड़े बेटे
राजमोहन झा और सबसे छोटे बेटे मनमोहन झा के सबल कथा-लेखन से भी मैथिली
भाषा-साहित्य का कोश गुणात्मक रूप से पुष्ट हुआ है! गत शताब्दी के छठे दशक की
स्तरीय हिन्दी पत्रिकाओं,
खासकर ‘कहानी’
और ‘नई कहानी’
के जिल्दों पर जिन पाठकों की नजर पड़ी होगी, उन्होंने
साफ-साफ देखा होगा कि हिन्दी के नई कहानी आन्दोलन के दिग्गज पुरोधाओं के समानान्तर
मैथिली के चार बड़े स्तम्भ--पिता-पुत्र हरिमोहन झा, राजमोहन झा; राजकमल चैधरी और उनकी अगली पीढ़ी के युवा कथाकार प्रभास कुमार चैधरी की
ऊर्जस्वित कहानियाँ बार-बार छपती थीं। हरिमोहन झा का लेखन इतना ताकतवर, प्रभावशाली,
लोकप्रिय और व्यंग्यात्मक होता था कि पुस्तकाकार संकलित होने से पहले ही, अर्थात् पत्रिकाओं में छपने के तत्काल बाद, हिन्दी एवं
अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो जाता था।
सन् 1932 में
उन्होंने दर्शनशास्त्र में एम.ए. की डिग्री हासिल कर सन् 1933 में बी.एन. कॉलेज पटना से अध्यापन शुरू किया और सन् 1953 से वे दर्शनशास्त्र विभाग, पटना विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
हुए। उनकी प्रकाशित कृतियों में प्रमुख हैं--मैथिली में (उपन्यास) ‘कन्यादान’ (1933), ‘द्विरागमन’ (1943); (कथा-संग्रह) ‘प्रणम्य
देवता’ (1945), ‘रंगशाला’ (1949), ‘चर्चरी’
(1960), ‘एकादशी’ (ग्यारह
कहानियों का संग्रह,
प्रथम संस्करण की सूचना उपलब्ध नहीं, दूसरे
संस्करण का प्रकाशन सन् 1987 में);
(विचार-लहरी) ‘खट्टर ककाक
तरंग’ (1948)। ‘खट्टर काका’
शीर्षक से सन् 1971 में इस कृति का हिन्दी अनुवाद राजकमल प्रकाशन से आया। इसका अनुवाद हरिमोहन
झाा ने स्वयं किया था। सन् 1984 में ‘जीवन-यात्रा’ शीर्षक से प्रकाशित उनकी आत्मकथा के लिए उन्हें (मृत्यूपरान्त) सन् 1985 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया गया। उनकी अनेक रचनाएँ हिन्दी समेत कन्नड़, गुजराती,
तेलुगु,
मराठी अनेक भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। पर उल्लेखनीय है कि उनकी हर रचना, उपन्यास,
कहानी,
विचार-लहरी...जो भी हो;
हर रचना का मूल स्वर व्यंग्य है; केवल शैली
में नहीं,
पूरी संरचना में! अंग्रेजी में इनका रिसर्च है ‘ट्रेण्ड्स ऑफ लिंग्विस्टिक एनालिसिस इन इण्डियन फिलॉसफी’।
हरिमोहन झा अध्यापक तो थे दर्शन-शास्त्र के, पर उनके अध्यवसाय का क्षेत्र विराट था। प्राच्य एवं पाश्चात्य
दर्शन-सिद्धान्तों के रास्ते उन्होंने मानव-सभ्यता की लम्बी धारा का संज्ञान ले
रखा था। सामाजिक-व्यवस्था और लोक-जीवन-परम्परा की जमीनी हकीकत का सूक्ष्म और
विवेकशील अनुशीलन वे कर चुके थे। उनका वह अनुशीलन किसी किताबी सिद्धान्त के सहारे
नहीं,
विराट जनवृत्त के जीवन-यापन की पद्धति को देखते हुए निजी जीवन-दृष्टि से
प्रसूत था। बड़े फलक पर देश-दुनिया के सर्वतोन्मुखी विकास को देखते हुए उन्हें अपने
जनपद मिथिला की सामाजिक-व्यवस्था और जीवन-यापन की पद्धति बहुत पिछड़ी लग रही थी।
मिथिलांचल की अतार्किक आस्था और कूपमण्डूकता उन्हें आत्मिक क्लेश दे रही थी। उनके
अध्यवसाय का क्षेत्र जितना भी विराट हो, पर अपनी
जन्मभूमि मिथिला की सांस्कृतिक-शैक्षिक भव्य विरासत और गतिकता के समक्ष समकालीन
बौद्धिक रुग्णता भली नहीं लग रही थी। कूपमण्डूकता, अतार्किक
आस्तिकता,
पाखण्ड,
जड़ता,
आलस्य,
निरर्थक अहंकार,
उद्यम-विमुखता,
रीतिबद्धता के जिस घातक कीचड़ में मिथिला का नागरिक-परिदृश्य उन दिनों
आपादमस्तक डूबा हुआ था;
दुनिया भर के साहित्यिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों और गतिकताओं की अनुगूँज से
निरपेक्ष मैथिल जिस तरह अपने ही राग अलापे जा रहे थे, उसमें बाहर से उनकी समरसता तोड़ने के लिए किसी का प्रवेश बहुत बड़े जोखिम का काम
था। हरिमोहन झा ने बहुत समझ-बूझ के साथ वह जोखिम उठाया।
हरेक जनपद के सांस्कृतिक उत्थान में समकालीन
साहित्य का अमूल्य योगदान होता है। मिथिलांचल में भव्य साहित्यिक परम्परा का धरोहर
था। ज्योतिरीश्वर,
विद्यापति से लेकर चन्दा झा, सीताराम झा तक के सृजन-संसार का अनुपम उदाहरण
मौजूद था। फिर भी वहाँ के बुद्धिजीवी लगातार रीतिबद्धता में घुसे चले जा रहे थे।
साहित्य का सरोकार,
जनसमुदाय से कटता जा रहा था। मैथिली साहित्य में हरिमोहन झा का उदय ऐसे ही समय
में हुआ,
जब उन्हें एक तरफ साहित्य के लिए पाठक-वर्ग तैयार करना था, तो दूसरी तरफ नागरिक-चेतना को जाग्रत करना था। इसी विकट परिस्थिति में
उन्होंने अपने रचना-विधान के लिए धारदार, किन्तु सहज
भाषा में तीक्ष्ण व्यंग्य की शैली अपनाई। व्यंग्य एक तरह का शालीन धिक्कार भी है।
सम्भव है कि हरिमोहन झा ने इसी कारण यह शैली अपनाई हो। मान्य तथ्य है कि लेखन के
स्तर पर व्यंग्य,
जितना जटिल कार्य है,
पाठ एवं बोध के स्तर पर उससे भी अधिक जटिलता होती है। व्यंग्य साहित्य को
पाठकों से बड़े व्यवस्थित और समझदार मस्तिष्क की अपेक्षा रहती है। इसका सीधा
सम्बन्ध व्यंजना से है,
जिसमें अर्थ-सम्प्रेषण के लिए एक खास तरह की बौद्धिकता की आवश्यकता होती है।
मैथिल नागरिक की तत्कालीन निश्चिन्तता से इस बात की अपेक्षा रखना सम्भव नहीं था।
स्पष्टतः उसे सम्प्रेषणीय बनाने के लिए भाषाई सहजता अपेक्षित थी।
इसलिए उन्होंने अपनी व्यंग्य-दृष्टि को अत्यधिक
सावधान रखा। उनकी व्यंग्य-दृष्टि एक तरह की समाजशास्त्रीय और नृतत्त्वशास्त्रीय
समीक्षा से परिशोधित थी। सामान्य जन की जीवन-प्रणाली का हर आयाम उनके लेखन का विषय
बना। आहार से लेकर व्यवहार तक, जीवन-सन्धान से लेकर शील-संस्कार तक, जनसेवा से लेकर अतिथि-सत्कार तक के सारे विषय उनके लेखन-परिदृश्य में आए और
उनमें समकालीन समाज की जीवन-पद्धति को जो आचरण आहत कर रहा था, उसकी धज्जियाँ उड़ाईं। वेद-पुराण, धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र के गम्भीर अध्ययन के साथ-साथ वे समाज के भी
रग-रग से परिचित थे। मैथिल मनोविज्ञान, जीवन-यापन
में मैथिलों के धर्मशास्त्रीय और अनुशासनात्मक छद्म सार्थक जीवन के प्रति उनकी
अनिष्टकारी निर्लिप्तता और जर्जर परम्परा के प्रति अतार्किक आसक्ति से हरिमोहन झा
क्षुब्ध रहते थे। अपने सम्पूर्ण लेखन में उन्होंने इन सभी बातों का संज्ञान लिया
और प्रहारक व्यंग्य से आम नागरिक की आँखें खोलीं। निःसंकोच कहा जा सकता है कि
हरिमोहन झा का लेखन-संसार मिथिला के समकालीन समाज का ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय
विश्लेषण है। शिल्प-संरचना, भाषा-शैली, विषय-विस्तार
को लेकर उनके साहित्य का अनुशीलन एक महत्त्वपूर्ण और साहसिक उद्यम होगा। इस साहस
के साथ जब भी कोई आगे आएगा,
उसे हरिमोहन झा की व्यंग्य-दृष्टि और समाजशास्त्रीय समझ का सूक्ष्मता से
विश्लेषण करना होगा।
मिथिला का जनपदीय जीवन-यापन हरिमोहन झा के समय
में आस्तिकता और परम्परा-पालन के ऐसे छद्मों का घटाटोप था कि अच्छा-भला सुबुद्ध
नागरिक दिग्भ्रम के जंजाल में उलझ जाता था। यह मानने में कोई द्वैध नहीं होना
चाहिए कि उनका लेखन आम नागरिक को इस दिग्भ्रम से उबारता है। उनकी रचनाओं से स्पष्ट
होता है कि उस दौर के मैथिली साहित्य को समकालीन बनाने की नई दृष्टि हरिमोहन झा के
उद्यम से ही आई। सचाई है कि इस तरह के साहित्य-सृजन का नवजागरण फैलाने के लिए
उन्हें बहुत आहत भी किया गया। धार्मिक छद्म पारम्परिक पाखण्ड और सामाजिक रूढ़ियों
के उन पोषकों का वश चलता तो हरिमोहन झा को वे सलमान रुसदी या तसलीमा नसरीन की तरह
देशनिकाला दे दिए होते। मिथिलावासी होने के नाते मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच
नहीं कि आज भी,
जबकि हरिमोहन झा को गुजरे भी चालीस बरस से अधिक हो गए, मैथिल समाज अपने पाखण्ड के जाल से, अपने आडम्बर
की खाई से बाहर नहीं आना चाहता। जिन मान्यताओं को वे जीवन का सार और जिन पारम्परिक
ग्रन्थों को जीवन का आधार मानकर जीते आ रहे हैं, उनकी
विवेकपूर्ण व्याख्या करने में सिरे से असमर्थ हैं; यहाँ तक कि
अधिकतम लोगों ने उन ग्रन्थों की परछाईं तक नहीं देखी होगी; पर उस हरिमोहन झा के विरोध पर उतर आए, जो प्रकाण्ड
दर्शनशास्त्री तो थे ही,
साथ-साथ प्राच्य और पाश्चात्य--दोनों परम्पराओं के मर्मज्ञ विद्वान थे और
विचारधारा से प्रगतिशील थे,
विवेकशील रचनाकार होने के कारण अपने परिवेश की दुर्दशा से व्यथित थे। व्यथा
यदि सहनीय हो तो व्यक्ति कराहता है, पर व्यथा
सहनशक्ति की सीमा पार कर जाए तो रोने-कराहने के बजाय हँसने लगता है, हँसाने लगता है,
दीगर बात है कि इस हँसी को दुनियावाले पागलपन की हँसी कहते हैं, पर इस हँसी में गम्भीर व्यंग्य और धिक्कार भरा रहता है; इस व्यंग्य और धिक्कार का उद्देश्य केवल विडम्बना के सृजेता को आहत करना नहीं, उस विडम्बना के भोक्ताओं को सचेत करना भी होता है। पर इससे भी बड़ी विडम्बना यह
होती है कि वे भोक्ता ही सबसे पहले विकृति-समर्थन की फौज बनकर आगे आ जाते हैं!
किसी भी साहित्य में व्यंग्य का उद्भव हँसी के
गर्भ से ही होता है। एक बार व्यंग्य के अहाते में भावक आ जाएँ, फिर हँसी कहीं नहीं आती! यह हँसी कुनैन की तिक्त गोली पर चढ़ी हुई मीठी परत
होती है। पर,
यह भी आश्चर्य की असीम गाथा है कि हरिमोहन द्वारा प्रस्तुत यह कुनैन मिथिलांचल
की मलेरिया दूर नहीं कर सकी और मैथिली के विद्वानों ने हरिमोहन झा पर ‘हास्य सम्राट’
का खिताब चस्पाँ कर दिया। मोती के आगार के किनारे खड़े कुछ मछियारों ने घोंघे
बटोरे,
कुछ को मोतियों का अहसास तो हुआ, पर उन्हें
अपने अस्तित्व पर खतरे की सम्भावनाएँ दिखीं, इसलिए वे
इन्हें घोंघे का खजाना कहकर चलते बने।
अभिप्राय यह कि एक बड़ा काम अभी तक नहीं हो सका
है। बड़ा काम कहने का मेरा तात्पर्य यह नहीं कि हरिमोहन को सन्त साबित नहीं किया जा
सका,
बल्कि बड़ा काम यह कि मिथिला की जिन विकृत स्थितियों की तरफ हरिमोहन झा ने
इशारा किया,
उससे मैथिल सावधान नहीं हो सके। भारत की सांस्कृतिक समृद्धि की ऐतिहासिक
विरासत रखने वाले एक बड़े भूखण्ड (मिथिला) की इतिहास और समाजशास्त्र सापेक्ष
व्याख्या करना अभी शेष है। इस व्याख्या का आधार कोई पुस्तकीय सिद्धान्त नहीं होगा।
इसका आधार होगा मिथिला का समाज और उस परिप्रेक्ष्य में हरिमोहन झा के साहित्य का
अनुशीलन।
भारतीय परिदृश्य में आधुनिक काल के साहित्य में
बिहार के तीन महान रचनाकारों का नाम श्रद्धापूर्वक लिया जाता है--नागार्जुन (यात्री), फणीश्वरनाथ रेणु,
राजकमल चैधरी। तीनों राष्ट्रीय ख्याति के लेखक हैं और स्वातन्त्र्योत्तर
हिन्दी लेखन की चर्चा इन तीनों नामों के बिना नहीं की जा सकती। बाद में चैथा नाम
मायानन्द मिश्र का भी जुड़ा। बेशक, मायानन्द मिश्र एक महान रचनाकार की कोटि में
हैं,
पर हिन्दी साहित्य की विडम्बना है कि समय-समय पर हिन्दी साहित्य को जीवनी
शक्ति देने वाले नागार्जुन,
रेणु,
राजकमल की भी उपेक्षा कर जाते हैं, तब मायानन्द
की चर्चा की उदारता इनमें कैसे आती। बहरहाल...
इन चारों रचनाकारों ने मैथिली में भी रचना की।
रेणु ने तो कम ही लिखा,
पर नागार्जुन (यात्री),
राजकमल,
मायानन्द ने तो पूरी तन्मयता से मैथिली साहित्य को समृद्धि और आधुनिकता दी।
बड़ी दिलचस्प बात है कि नागार्जुन और राजकमल के लेखन का आयाम हिन्दी में जितना
विस्तृत है,
राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय, नगरीय-महानगरीय स्थितियों से जिस साहसिकता के
साथ इनकी हिन्दी रचना के पात्र जूझते हैं, मैथिली के
पात्र उतना नहीं जूझते। यह इन दोनों की समकालीन मजबूरी ही रही होगी। कोई भी रचनाकार
जब तक अपने पात्रों के जरिए अपनी स्थानीय समस्या न निपटा ले, वह राष्ट्र और परराष्ट्र तक कैसे जाए?
हरिमोहन झा इन चारों के पूर्ववर्ती हैं। हिन्दी
में प्रकाशित तत्कालीन समस्त प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ प्रकाशित हुईं, हिन्दी में चर्चित भी हुए, पर इनकी सामाजिक प्रतिबद्धता देखें कि अपनी
स्थानीय समस्याओं से जूझने में ही इन्होंने अपनी सारी ऊर्जा लगा दी।
हरिमोहन झा के लेखन का प्रारम्भिक काल मैथिली
साहित्य के लिए दुरवस्था का काल है, जहाँ
साहित्य एक तरफ अपने पिछड़ेपन के कारण हीन भावबोध से जकड़ा था, दूसरी तरफ पाठकों के अभाव के कारण उपेक्षित भी था। हरिमोहन झा के ‘कन्यादान’(1933) उपन्यास ने मैथिली साहित्य को इन दोनों समस्याओं से एक साथ मुक्त किया। मिथिला
की वैवाहिक समस्याओं को केन्द्रीय कथा बनाते हुए, इस उपन्यास
की धारावाहिक किस्तों में उपन्यासकार ने मिथिला की कई समस्याओं को उजागर किया।
इसके कई वर्ष बाद जब ‘द्विरागमन’(1945) उपन्यास आया,
तो इसके जरिए हरिमोहन ने मिथिला की इन पद्धतियों में व्याप्त एक विराट धुन्ध
को साफ कर दिया।
वैवाहिक समस्याओं से अलग हटकर मिथिला में
व्याप्त असंख्य अव्यवहारिक लोकाचारों और औपचारिकताओं पर बड़ी तीखी चोट की। ‘प्रणम्य देवता’,
‘रंगशाला’
और ‘चर्चरी’ संग्रह की कहानियों में इसे देखा जा सकता है। चाचा-भतीजा संवाद की शैली में
लिखी गई इनकी कुछ रचनाओं का संग्रह है ‘खट्टर ककाक
तरंग’,
जो हिन्दी में ‘खट्टर काका’ शीर्षक से प्रकाशित है। इसमें ‘खट्टर काका’ वे खुद हैं और ‘हम’
हैं मिथिलांचल का कोई भी जिज्ञासु व्यक्ति, जो ‘काका’
से अपने सारे तर्कों के जरिए मिथिला में व्याप्त रूढ़ियों, धर्म-शास्त्र-पुराणादि की विसंगतियों की व्याख्या ‘काका’
से करवाता है। चकित रह जाना पड़ता है, यह देखकर, कि किसी भी परम्परा की विसंगतियों को उजागर करने के लिए उस परम्परा की
गहराइयों में कितना उतरना पड़ता है।
सुबुद्ध जन गौर करें कि हास्य-लेखन हरिमोहन झा
का लक्ष्य कहीं नहीं रहा! शास्त्रीय पद्धति के सुविज्ञ जानते हैं कि हास्य रस का
स्थायी भाव विकृति है। किसी को फिसलकर गिरते देखकर लोगों को हँसी आती है, हमारा समाज इतना अमानवीय हो गया है कि किसी को गिरते देखकर, उसके विरूपण या विकृति के लिए जहाँ लोगों के मन में करुणा उपजनी चाहिए, लोग हँसते हैं! उसे उठाकर सहारा देने, उसके विरूपण
भाव समाप्त करने के बदले लोग हँसते हैं! स्मरणीय हैं कि रंग-कर्म में भी स्वांग
रचकर हँसाने वालों की उसी हरकत पर हँसते हैं, जिसमें
अभिनेता विकृति उत्पन्न करे; और हँसने की इस क्रिया को वे स्वास्थ्यप्रद
कहते हैं। विडम्बना ही है कि लोग प्रसन्न होने और हँसने को समान क्रिया मानते हैं, जबकि ये समान नहीं हैं। जीवन में सब कुछ सुखमय हो, जीवन सहज हो तो लोग प्रसन्न होते हैं, जबकि औरों
के विरूपण या विकृति पर क्रूर लोगों के मन में हास्य उत्पन्न होता है। हँसनेवाले
जरा सोचें कि जिस विरूपण या विकृति पर वे हँसते हैं, वैसा उन पर
हुआ होता,
तो वे कितने व्यथित होते? ऐसे में उन्हें उस विकृति के लिए करुणा क्यों
नहीं उपजती?
हरिमोहन झा जीवन भर अपने समाज की जीवन-चर्या से ढोंग-पाखण्ड जैसी विकृतियाँ
मिटाने के अनुरागी थे;
उनके लेखन का परम-चरम लक्ष्य सामाजिक विकृति को मूलोच्छिन्न करना था। ऐसे
महामान्य चिन्तक के लेखन का अस्त्र विकृति कैसे हो? हाँ इतना
अवश्य है कि जिस तरह गन्दे नाले के कीड़े निकालने के लिए सफाईकर्मी को गन्दगी छूनी
ही पड़ती है,
हरिमोहन झा को विकृति मिटाने के लिए विकृति को स्पर्श करना ही पड़ा है; फलस्वरूप त्याज्य विकृति की ओर इशारा कर पाए हैं। अब पामर पाठक का वे क्या
करें कि वे उस विकृति को ही रामरतन मान बैठे। लोगों को आश्वस्तिपूर्वक हरिमोहन झा
के साहित्य में उत्पन्न हास्य को त्यागकर वहाँ की विडम्बनाओं, विकृतियों पर केन्द्रित होना चाहिए, व्यंग्य को
समझना चाहिए और जनजीवन के पाखण्ड को नष्ट करने की ओर उन्मुख होना चाहिए।
‘कन्यादान’,
‘द्विरागमन’,
‘प्रणम्य देवता’ जैसी रचनाओं पर भी जब समाज हास्य की विकृति में ही लिपटा रहा, तब उन्होंने उस जड़ीभूत आवेग पर ‘खट्टर ककाक
तरंग’
से चोट की। इसमें संकलित तरंगों का प्रकाशन पहले से हो रहा था, पर पुस्तकाकार हुआ सन् 1948 में। रूढ़िग्रस्त समाज
की जड़ता को इस तरह रचनाओं में जड़ता कह देना उस दौर के सामुदायिक परिवेश में कोई
आसान बात नहीं थी;
ऐसे लेखन के लिए उन पर जिस तरह के लांछन लगे, उसे सहना भी
बड़ी बात थी! यद्यपि ‘खट्टर काका’
जैसे चरित्र की अभिकल्पना से उन्होंने एक बेहतरीन प्रविधि की तलाश तो कर ली, पर उन पाखण्डियों को तो भली-भाँति मालूम था कि ये ‘खट्टर काका’
भी हरिमोहन झा खुद हैं! वैसे उन पाखण्डियों से बचने की उन्होंने एक और तरकीब
निकाली थी--उन्होंने ‘खट्टर काका’
को भंगेरी के रूप में प्रस्तुत किया; अर्थात् ‘खट्टर काका’
जो कुछ भी तर्क करते हैं, सब ‘भंग के तरंग’ (भांग का नशा) में करते हैं, सहज मनःस्थिति में नहीं। इस तरह मानवीय चेतना
के प्रसार के लिए,
तर्कपूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा देने के लिए अपनी छवि तक को सहज भाव से धूमिल
कर लेना भी आसान नहीं था। फिर भी समकालीन पामर पाठकों को इन रचनाओं में हास्य ही
दिखा। हास्य की मरीचिका में मुग्ध-मदहोश पाठकों को इन तरंगों की रचना-प्रक्रिया
बेशक सहज दिखे,
पर वस्तुतः यह प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है।
‘तरंग’
शब्द का कोशीय अर्थ होता है--पानी की लहर, मौज,
उमंग,
उछाल,
हिलना-डोलना,
इधर-उधर घूमना,
स्वरों का आरोह-अवरोह, ग्रन्थ का खण्ड या
अध्याय। इन सारे अर्थों में यहाँ तीन अर्थ प्रासंगिक हैं--पानी की लहर, इधर-उधर घूमना,
ग्रन्थ का अध्याय। पानी की लहर के आचरण से हर कोई परिचित हैं कि जल-तल से शृंग
तक और शृंग से पुनः तल तक आने की क्रिया में पानी का एक-एक कण उस लहर का ही
अनुगामी होता है। मैथिल परिवेश में भांग का सेवन किए हुए किसी व्यक्ति की स्थिति
उसी जल-कण की तरह होती है। मिथिलांचल में इसीलिए इस अवस्था को नशा के बजाय ‘भंग का तरंग’
कहकर गरिमामय किया गया है।
स्मरणीय है कि विलक्षण प्रतिभा के स्वामी
हरिमोहन झा के लेखन की मूल ध्वनि व्यंग्य है। रुग्ण समाज की परम्परा-पोषण-वृत्ति
पर उन्होंने ‘चाचा-भतीजा संवाद’
अर्थात् ‘खट्टर काका एवं हरिमोहन झा संवाद’ द्वारा घातक
प्रहार किया;
और इस संवाद को ‘खट्टर ककाक तरंग’
कहा। अब साहित्य के भावक इतना भी न समझें कि यह एक विशिष्ट लेखन-शैली है, तो लेखक मिथिलांचल के किस कुएँ में जाकर डूब मरें! ‘तरंग’
कह देने का अर्थ ‘खट्टर काका’
का नशे में होना नहीं है; ‘तरंग’ का अर्थ उस
कृति में समाविष्ट ‘अध्याय’
है,
किसी एक प्रसंग पर सम्यक विचार का एक खण्ड है! ‘भंग का तरंग’ नहीं है! ऐसा होता तो समाविष्ट सारी विचार-लहरियों का शीर्षक ‘तरंग 1,
2, 3,...’ होता;
जो नहीं है। ऐसा होता तो हिन्दी में अनुवाद करते समय हरिमोहन झा ‘खट्टर काका के तरंग’
लिखते,
जो नहीं लिखा! और नशे में कोई व्यक्ति ऐसे-ऐसे दार्शनिक और गूढ़ प्रसंगों पर
पौराणिक सन्दर्भों के इतने उदाहरण और तर्क कैसे देते?
कहानी’, ‘नई कहानी’,
‘धर्मयुग’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके व्यंग्यालेख, कहानियाँ, तरंगें...इतनी लोकप्रिय हुईं, कि कई भारतीय भाषाओं के पाठक ‘खट्टर काका’
का परिचय जानने को व्यग्र हो उठे। पता करने लगे कि ‘खट्टर काका’
कौन हैं,
सम्पर्क-सूत्र क्या है,
उनकी अन्य रचनाएँ कहाँ मिलेंगी?...उन्हें क्या
पता कि ‘खट्टर काका’
और कोई नहीं,
हरिमोहन झा की विलक्षण कहन-शैली को साकार करनेवाले निर्भीक शास्त्रज्ञ और
समाजविज्ञानी हैं,
जो बाहर तो अनंग हैं,
पर हरिमोहन झा की मनीषा में पूरी तरह साकार हैं। इस विशिष्ट चरित्र के सृजन
में उन्होंने पूरी सावधानी रखी। क्योंकि मैथिल समाज की विसंगतियों का दुर्ग अजेय
और अभेद्य था,
उसे ध्वस्त करने के लिए प्रकाण्ड तर्कशास्त्री, विलक्षण शास्त्रज्ञ, मानवतावादी चिन्तक और समाज सुधारक की जरूरत थी! इसलिए उन्होंने ऐसे विनोदी
स्वभाव वाले चरित्र की संकल्पना की।
अपने ही द्वारा अभिकल्पित इस अनंग चरित्र ‘खट्टर काका’
को उन्होंने इतनी प्रतिष्ठा दी कि ‘खट्टर ककाक
तरंग’ पुस्तक के उत्तरोत्तर सुपुष्ट होने को उन्होंने ‘खट्टर काका’
का समृद्ध होना माना। तीसरे संस्करण की भूमिका में उन्होंने लिखा कि--इस अभिनव
रूप में ‘खट्टर काका’
पहली बार उपस्थित किए जा रहे हैं।
विदित
हो कि मैथिली और हिन्दी में ‘खट्टर ककाक तरंग’ शीर्षक कृति आज जिस रूप में उपलब्ध है, शुरुआत में
ऐसी नहीं थी। इसके पहले संस्करण में मात्र बारह तरंगें ही संकलित थीं--‘दही चूड़ा चीनी’,
‘चाणक्यक जन्म-भूमि’, ‘माछक महत्त्व’, ‘आयुर्वेद’,
‘रामायण’,
‘दुर्गापाठ’,
‘ब्राह्मणभोजन’,
‘सत्यदेवक कथा’,
‘ज्योतिष’,
‘महाभारत’,
‘देवताक चरित्र’,
‘ब्रह्मानन्द’। अगले संस्करण में बारह और तरंगें उसमें जुड़ीं--‘शास्त्रक वचन’,
‘प्राचीन आदर्श’,
‘भूतक मन्त्र’,
‘चन्द्र-ग्रहण’,
‘पण्डितक गप्प’,
‘गीताक मर्म’,
‘मोक्षक विचार’,
‘भगवानक चर्चा’,
‘धर्मक तत्त्व’,
‘पुरातन सभ्यता’,
‘मिथिलाक संस्कृति’, ‘काव्यक रस’। सन् 1967 में प्रकाशित होनेवाले संग्रह में परिशिष्ट की तरह तीन और तरंग --‘पुराणक चाशनी’,
‘दर्शन शास्त्रक रहस्य’, ‘वेदक भेद’--जोड़कर अन्त में ‘खट्टर ककाक टटका गप्प’
जोड़ा गया। पाठकों की सुविधा की दृष्टि से उन्होंने संस्तुति भी दी कि अन्तिम
तरंग ‘खट्टर ककाक टटका गप्प’
अर्थात वर्तमान काल (वा अकाल?) पर खट्टर काका की विनोदपूर्ण विचार-लहरी पहले
पढ़ लें तो वे ‘खट्टर कका’
से भलीभाँति परिचित हो जाएँगे। मैथिली में सन् 1948-1967 तक के
तीनों संस्करणों की भूमिका हरिमोहन झा ने खुद लिखी। तीसरे संस्करण में उन्होंने नए
कलेवर में पुस्तक के प्रकाशन के लिए मुद्रक, प्रकाशक को
आभार प्रकट करने से पूर्व यह सूचना दी है कि हर बार कुछ न कुछ नई रचनाएँ इसमें
जोड़ी गईं। संकलन तैयार करते समय उन्होंने ‘पुरातन
सभ्यता’,
‘मिथिलाक संस्कृति’, ‘दर्शनशास्त्रक रहस्य’ जैसे नए तरंगों के अलावा कुछेक पहले के तरंगों में भी इतना परिवर्तन किया कि
पाठकों को नया जैसा लगे।
इस कृति में समाविष्ट इन सभी तरंगों के
शीर्षकों से स्पष्ट है कि मैथिल समाज और एक सीमा तक भारतीय समाज भी जड़ीभूत
परम्पराओं,
अमानवीय मान्यताओं एवं रूढ़ियों से माहाविष्ट था। धर्मान्ध और समाजभीरु समाज
स्वयं अपना जीवन साँसत में डालने को व्यग्र था। जिन क्रियाओं को ये अपनी धार्मिकता, पारम्परिकता,
सामाजिकता कहते आ रहें हैं, इनमें से अधिकांश किसी भी शास्त्र द्वारा
समर्थित नहीं हैं। वे शुद्ध रूप से किंवदन्तियाँ हैं। कुछ का यत्किंचित समर्थन है
भी तो उसके लिए जीवन सम्मत विकल्प भी हैं; जहाँ विकल्प
नहीं है उसकी निरर्थकता का पर्याप्त तर्क ‘खट्टर काका’ के पास है। उक्त सभी तरंगों में शास्त्र, पुराण, सामाजिक रूढ़ियों,
परम्पराओं,
विकृतियों की जर्जर काया की स्पष्ट छवियाँ इन तरंगों में व्यक्त हुई हैं।
जिन पाठकों को ‘खट्टर काका’ के व्यक्तित्व या व्यक्तित्व की संकल्पना के प्रति शंका हो, वे स्पष्ट जान लें कि ‘खट्टर काका’
अलग से कोई व्यक्ति नहीं हैं! वे स्वयं हरिमोहन झा हैं! इधर आकर मैथिल जनपद
में एक घोर घृणित आचरण होने लगा है, कुछ
अत्युत्साही जड़बुद्धि मैथिल हरिमोहन झा की जगह स्वयं को प्रस्तुत कर ‘खट्टर काका’
से संवाद करने लगे हैं। कम्प्यूटर और गूगल की निःशुल्क सुविधा ने ऐसे कुकर्मियों
को सारी सुविधा दे दी है! यह कोई नकल या बदमाशी भर नहीं है। यह उनका नारकीय और
जघन्य पाप है,
जिसके लिए सकल मिथिला समाज को उन्हें विक्षिप्त-स्वान की तरह गली-गली दौड़ाकर
यातना देनी चाहिए!...बहरहाल, कुकर्म से कुकर्मियों को आज तक कौन समाज रोक
पाया है,
अन्ततः वे अपने कुकर्मों से ही बेमौत मरता है!...
तो प्रसंग था कि ‘खट्टर काका’
जैसे रूढ़ि-पाखण्ड विरोधी विनोदी चिन्तक कोई और नहीं, उनके सृजेता स्वयं हरिमोहन झा हैं। सामजिक कुरीतियों को उजागर करने के लिए
रचित ‘तरंगों’
(व्यंग्यालेख) में उन्होंने तीक्ष्ण व्यंग्य उचारने के लिए ऐसी संवाद-शैली
अपनाई,
जिसमें लेखक की सारी जिज्ञासाएँ तो मान्यता एवं परम्परा के पोषकों के समर्थन
में हैं! पर उन सबका बखिया उधेड़वाने का काम उन्होंने ‘खट्टर काका’
से करवाया है। पानी में रहकर मगरमच्छ से वैर लेना में भी तो कोई बुद्धिमानी
नहीं होती! मैथिल-स्वभाव अगम अगोचर होता है! उनके विकास के लिए आप आन्दोलन करें, जुलूस निकालें,
धरना दें,
प्रदर्शन करें,
अपने घोंसले से निकलकर साथ देने एक नहीं आएँगे; पर उनके
स्थगन,
यथास्थितिवाद,
रूढ़ि,
पाखण्ड,
पतन के फोड़े में जरा-सी गुदगुदी लगा दें, ‘गऊ से बाघिन’ हो जाएँगे! ऐसे पाखण्ड-प्रेमी मैथिलों के जघन्य प्रहार से बचते हुए उन्होंने
ऐसे पात्र की संकल्पना प्रायः दो कारणों से की--पहला कारण यह कि उन्हें उनका मूल
उद्देश्य स्थापित करने के लिए इतिहास, पुराण, परम्परा,
धार्मिक मान्यता,
सामाजिक विधान आदि के रुग्ण लोकविरोधी प्रसंगों पर कठोर प्रहार करना था; और दूसरा कारण कि पाखण्ड-पर्व के मैथिल होताओं को यह भी बताना था कि मैंने तो
सारे ही तरंगों में स्वयं ‘खट्टर काका’
की धारणाओं का प्रतिपक्ष रचा है! अब उनके तर्कों का खण्डन करने की क्षमता
मुझमें नहीं है,
तो मैं क्या करूँ?
आपमें क्षमता हो तो कीजिए खण्डन! क्योंकि वे जानते थे कि भेंड़ चाल चलनेवाले
पाखण्डी तर्क कहाँ से लाएँगे!...इसका अभिप्राय यह कतई नहीं कि वे डरपोक थे और अपने
समकालीन पाखण्डियों से डरते थे! बिल्कुल नहीं डरते थे! डरते तो ऐसा करते ही क्यों? वस्तुतः ऐसा करके उन्होंने एक विलक्षण शैली निर्मित की थी!
भौंचक करनेवाली उनकी विचार-लहरी में ऐसी-ऐसी
घोषणाएँ और ऐसे-ऐसे तर्क होते हैं, कि उनका काट
निकालना तो दूर की बात है,
आँखें फटी की फटी रह जाती हैं। बडे़-बड़े दिग्गजों को उनके तर्क के समक्ष
श्रद्धावनत हो जाना पड़ता है। जो कुछ बोल जाते हैं, उसे ही
प्रमाणित करने के लिए इतने तर्क दे बैठते हैं जिसके प्रतिकार की किसी को हिम्मत
नहीं होती। उनके तर्कं इतने अकाट्य हैं जिसमें उलझकर बड़-बड़े तर्कवादी मैदान छोड़
देते हैं। उनके तर्कों में वह सामथ्र्य है कि या तो कथन का अर्थ उलट जाता है, या प्रसंग! अर्थात् कथन निष्प्रयोजन! इतिहास, परम्परा,
वेद,
वेदान्त,
रामायण,
महाभारत,
गीता,
पुराण--किसी भी ग्रन्थ के किसी भी असंगत प्रसंग को वे उठा लें, एक से एक प्रतापी नाम ओछे हो जाते हैं। तरंगों में उठे उनके विचारों में गीता
में अर्जुन,
श्रीकृष्ण द्वारा बहकाए हुए दिखते हैं, धर्मराज
उन्हें अधर्मराज दिखते हैं,
सत्यनारायण असत्यनारायण। कन्याओं के हाथ सती-सावित्री के उपाख्यान नहीं देने
चाहिए। बहू-बेटियों को पुराण नहीं पढ़ने देना चाहिए। ब्रह्मचारियों को वेद नहीं पढ़ना
चाहिए। दुर्गा की कथा स्त्रैणों ने रची। रस्सी देखकर दर्शन-शास्त्र की रचना हुई।
मूर्खताओं के प्रधान कारण पण्डित हैं!...
विवेचकों ने निष्पत्ति दी कि विनोदपूर्ण आचरण
के संचालक-परिपोषक ‘खट्टर काका’
सामाजिक रूढ़ि और अन्धविश्वास पर तो प्रहार करते ही हैं, अपने रंग-तरंग में आने पर वेद-पुराण, शास्त्र-विधान, तन्त्र-मन्त्र,
ज्योतिष-आयुर्वेद,
धर्म-अधर्म,
लोक-परलोक,
आत्मा-परमात्मा,
स्वर्ग-नरक,
मरण-मोक्ष...सबकी बखिया उधेड़ देते हैं। भंग के तरंग में ईश्वर तक से भी परिहास
कर बैठते हैं। तर्कों के इतने दाँव-पेंच लगा देते हैं कि प्रतिपक्ष को निरुत्तर
होने के सिवा कोई विकल्प नहीं रहता।
पर विवेकशील भावकों को इतनी समझ स्पष्ट होगी कि
‘खट्टर काका’
के साथ हरिमोहन झा का यह संवाद किसी दो व्यक्ति का संवाद नहीं है; यह हरिमोहन झा द्वारा अनुसन्धित एक अनूठा शिल्प है, ‘खट्टर काका’
जैसे चरित्र की संकल्पना, उन्हें भंगेरी बनाना, उनके द्वारा कही गई बात को भंग के तरंग में किया गया तर्क कहना...सब के सब
हरिमोहन झा के कौशल की निष्पत्ति है। इन तरंगों से उत्पन्न व्यंग्य की सही समझ
हमारे समाज को हो जाए,
तो वस्तुतः हमारा समाज एक विवेकशील मानुषिक समाज का उदाहरण बन जाएगा।
आज, जब हमारे
देश की समस्त तेजस्विता पश्चिम से आए उधार के विचार और तर्क और सूत्र के जरिए अपनी
व्याख्या करने में मशगूल है, यह देखकर दुःख होता है कि हमारे अपने हथियार
यूँ ही जंग लगे पड़े हैं और अपने प्रयोग एवं प्रभाव में कहीं उस विदेशी से बेहतर
हैं। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि हम अपनी परम्परा की व्याख्या अपनी ही आँखों से
करें,
उधार के चश्मे से नहीं। इस दृष्टि से मिथिला की ऐतिहासिक और सामाजिक स्थितियों
को हरिमोहन झा के व्यंग्य साहित्य के जरिए देखने का प्रयास किया जाना चाहिए। इस
प्रयास में सर्वप्रथम हमें साहित्य और समाज के सम्बन्धों के आयाम का परीक्षण करते
हुए व्यंग्य के माध्यम से सामाजिक विकृतियों के निराकरण की सम्भावना पर विचार करना
होगा और हरिमोहन झा के व्यंग्य-लेखन के सहारे उन रूढ़ियों की पहचान करनी होगी जो आज
भी मैथिल समाज या कि भारतीय समाज की व्याधियाँ बनी हुई है। इसी क्रम में उनकी
व्यंग्य-दृष्टि की दशा-दिशा की समीक्षा के लिए रचनाकार के सामाजिक सरोकार, उनके चेतना-सम्पन्न जनसम्बन्ध पर विचार करना होगा। इस लेखकीय चेतना की सही
व्याख्या करने के लिए रचनाकार के जीवनवृत्त की उन परिस्थितियों का अवलोकन करना
होगा,
जिसमें खुद को तपाकर हरिमोहन झा ने अपनी जीवन-दृष्टि विकसित की। इस
जीवन-दृष्टि के सहारे ही किसी रचनाकार की वैचारिकता एवं प्रतिबद्धता सुनिश्चित
होती है;
समकालीन समाज-व्यवस्था और रूढ़ियों से मोह टूटता है। हरिमोहन झा के
व्यंग्य-लेखन मुख्य ध्येय मिथिला की जड़ीभूत समस्याओं को उजागर करना था; इसलिए उन्होंने मैथिली में मिथिला की समस्याओं को उजागर करना उचित समझा; पर जिन बिन्दुओं को उन्होंने रेखांकित किया, वह पूरी तरह
से राष्ट्रीय समस्या भी थी। शास्त्र-पुराण, परम्परा, धर्म-शास्त्र का कोई भी तात्त्विक ज्ञान हासिल किए बिना उसकी डिगडिगिया बजाना
वाहियात काम था। उनका साहित्य इस मूढ़ता को बेरहमी से बेपर्द करता है।
समकालीन समाज के प्रति हरिमोहन झा की सोच-समझ
बिल्कुल साफ थी। वे अपने समय के पूरे समुदाय को पाखण्ड-विमुख कराकर ज्ञान-क्षेत्र
के ऐसे वातावरण में लाना चाहते थे, जहाँ
स्थापित रूढ़ियों और जर्जर मान्यताओं के लिए कोई भी आदर-भाव नहीं था। जहाँ मनुष्य
और मनुष्य का ज्ञान सर्वोपरि था। उनके दोनों उपन्यास--‘कन्यादान’ और ‘द्विरागमन’ का केन्द्रीय विषय तो मिथिला के पाखण्ड पर है, पर इन
पाखण्डों की व्याख्या करते हुए वे वस्तुतः मनुष्य मात्र को सुशिक्षित और तर्कशील
बनाना चाहते थे। जीवन-यापन की विधियों को निरन्तर जटिल बनानेवाली परम्पराओं की
विकृतियों को रेखांकित कर समाज को जगाना चाहते थे।
उनमें आत्मालोचन का ऐसा विवेक भरा था, जिसने कम संख्या में ही सही, पर कई समकालीनों और परवर्ती काल के रचनाकारों
को भी वैसी लेखन-परम्परा का अनुयायी बना दिया। समकालीन और परवर्ती लेखकों पर छाए
उनके प्रभाव का कारण उनकी लोकप्रियता और जनजीवन पर पड़े उनके लेखन का प्रभाव भी रहा
होगा। समीक्षकों को उनकी इस लोकप्रियता के क्षितिज एवं कारण तलाशने होंगे।