Thursday, January 25, 2018

चरि‍त्रों में कहानि‍याँ बीनते काशीनाथ सिंह Kashinath Singh : Gathering Stories from Characters Life



सन् 1960 से कहानी-लेखन की शुरुआत करते ही काशीनाथ सिंह (1937) के कथा-कौशल ने भावकों को सम्‍मोहि‍त कर लि‍या था। सन् 1984 तक के चौबीस वर्षों में उन्‍होंने कुल चालीस कहानियाँ लिखीं। उपन्यास, नाटक, संस्‍मरण और कुछ आलोचनात्‍मक आलेख भी लिखे; पर केन्द्रित रहे कहानियों पर। इस केन्‍द्रीभूत लेखन में भी‍ उन्‍होंने केवल लिखने के लिए कहानियाँ नहीं लिखीं; समकालीन कथाधारा का अनुसरण करते हुए अचि‍न्‍ति‍त रचनाओं का ढेर नहीं लगाया। समकालीन मुहावरों की मरीचि‍का के पीछे बदहवास हि‍रण की तरह नहीं भागे; कलमघि‍स्‍सू लेखकों की तरह कमरे में कैद होकर नहीं लि‍खा। अपने समय और समाज के प्रति‍ सावधान होकर पूरे दायि‍त्‍व से लि‍खा। इसी वैशि‍ष्‍ट्य के कारण वे केवल ढाई दर्जन कहानि‍यों की ताकत से अपने समकालीनों के लि‍ए चुनौती और परवर्ति‍यों के लि‍ए आदर्श बने हुए हैं? अब तक प्रकाशि‍त उनकी कृति‍यों में प्रमुख हैं-- नौ कहानी संग्रह--लोग बिस्तरों पर (1968), सुबह का डर (1975), आदमीनामा (1978), नई तारीख (1979), कल की फटेहाल कहानियाँ (1980), सदी का सबसे बड़ा आदमी (1986), लेखक की छेड़छाड़ (2012), कवि‍ता की नई तारीख (2012), कहानी उपखान (2003), प्रति‍नि‍धि‍ कहानियाँ (2008); पाँच उपन्‍यास--अपना मोर्चा (1972), काशी का अस्सी (2002), रेहन पर रग्घू (2008), महुआ चरि‍त (2012), उपसंहार (2014); तीन संस्‍मरण--याद हो कि न याद हो (1992), आछे दिन पाछे गए (2004), घर का जोगी जोगड़ा (2007); एक नाटक--घोआस (1982); और एक आलोचना आलोचना भी रचना है (1996) पुस्‍तकें प्रकाशि‍त हुईं। कहानी उपखान में उनकी कुल चालीस कहानियाँ संकलि‍त हैं।

फत्ते गुरु, उर्फ शशांक शेखर पाण्‍डेय को आप नहीं जानते होंगे। ऐसे पात्र हर काल में अपने भि‍न्‍न-भि‍न्‍न नामों के साथ हर गाँव-शहर में होते हैं। परन्‍तु, तेरह-चौदह वर्ष के इस कि‍शोर का अवतरण, सन् 1982 के आसपास, बीसवीं शताब्‍दी के सातवें दशक के श्रेष्‍ठ कथाकार काशीनाथ सिंह (1937) की चर्चि‍त कहानी पहला प्‍यार में, नायक के रूप में हुआ। आप चाहें, तो तर्क कर सकते हैं कि‍ पैंतालीस बरस की पकी उम्र के इस कहानीकार को‍ ऐसे कि‍शोर के पहले प्‍यार के तरंगों और संघर्षों में झाँकने की क्‍या जरूरत थी? वि‍श्‍लेषण कर सकते हैं कि‍ बीसवीं शताब्‍दी के आठवें दशक में आकर, जब पूरे भारत का सामान्‍य नागरि‍क अनास्‍था, पाखण्‍ड, अनैति‍कता, वि‍वि‍धमुखी द्वेष, चंचल शासन-व्‍यवस्‍था, अमानवीय एवं आपराधि‍क राजनीति‍, राजनीति‍क अपराध जैसे मानववि‍रोधी आचरणों की चपेट में था; ऐसे में इन परि‍पक्‍व कौशल के कथाकार को इस कि‍शोरकालीन भावोछ्वास ने क्‍यों सम्‍मोहि‍त कि‍या? उत्तर बहुत आसानी से मि‍ल जाएगा।
काशीनाथ सिंह के कथा-कौशल के गम्‍भीर अध्‍येता जानते होंगे कि‍ कथा-लेखन में उनका पदार्पण सन् 1960 के आसपास हुआ। तब तक 'नई कहानी' की घोषणा/स्‍थापना हो चुकी थी। फि‍र साठोत्तरी पीढ़ी की घोषणा हुई। 'अकहानी’, ‘श्मशानी पीढ़ी’, ‘भूखी पीढ़ी’, जनवादी कहानी,सचेतन कहानी’, ‘समान्‍तर कहानी जैसे नारे और मुहावरे बुलन्‍द होने लगे थे। भारतीय रचनाकारों की कहानि‍यों में स्‍वातन्‍त्र्योत्तर भारत के प्रारम्‍भि‍क तेरह वर्षों की भयावह राजनीति‍क व्‍यवस्‍था का चरि‍त्र बड़ी सि‍द्दत से उजागर कि‍या जा रहा था। काम जोखि‍म का था, कि‍न्‍तु उस दौर के कहानीकार अपनी जि‍म्‍मेदारी नि‍भाने में लगे थे। सन् 1960 के बाद के भारतीय समाज की वास्‍तवि‍क स्‍थि‍ति‍याँ नि‍रन्‍तर भि‍न्‍न-भि‍न्‍न मुहावरों में व्‍यक्‍त हो ही रही थीं, कि‍न्‍तु भयावहता कम होने को राजी नहीं थी। ऐसे में, इन बेढब परि‍स्‍थि‍यों की बुनि‍याद ढूँढने, तनि‍क-सा भी कुछ नया तलाशने, और मुश्‍तैदी से उन गुत्‍थि‍यों को सुलझाने की ओर, काशीनाथ सिंह ने अपनी पैनी दृष्‍टि‍ फि‍राई। वे जनाकांक्षा और सत्ता-वृत्ति‍ के बीच उत्‍पन्‍न वि‍शाल खाई का गुणसूत्र तलाशने में तल्‍लीन हुए। अपनी इसी अन्‍वेषण-वृत्ति‍ के कारण वे अपनी पीढ़ी के तमाम रचनाकारों से भि‍न्‍न लगते हैं। अपनी साठोत्तरी कहानि‍यों को एक और शुरुआत कहने की सार्थकता यहीं दि‍खती है। उन्‍होंने साफ-साफ देखा कि दुर्वह जीवन-व्‍यवस्‍थावाले स्‍वातन्‍त्र्योत्तरकालीन भारतीय नागरि‍क को'नई कहानी' ने जो आशाएँ, आकांक्षाएँ, और सपने दि‍खाए, वे भारत-चीन युद्ध के आते-आते ध्वस्त हो गए; भ्रष्टाचार के गि‍रफ्त में देश की व्‍यवस्‍था दम तोड़ने लगी; राष्‍ट्रनायक स्‍वयं को निरीह और राष्‍ट्र के नागरि‍क स्‍वयं को नि‍रुपाय देखने लगे। मृयमान मूल्यों का वह सि‍लसि‍ला थमा नहीं, नि‍रन्‍तर बढ़ता गया।
स्‍वाधीन भारत का चौथा लोकसभा-चुनाव सन् 1967 में हुआ। चुनाव-परिणाम में कांग्रेस पार्टी के आन्तरिक कलह का स्‍पष्‍ट प्रभाव दिखा। विधानसभा चुनाव की परि‍णति‍याँ भी कांग्रेस पार्टी के लि‍ए कम अवसादमय नहीं थीं। बिहार, केरल, उड़ीसा, मद्रास, पंजाब और पश्चिम बंगाल में गैर-कांग्रेसी सरकारें स्थापित हुईं। आने वाला समय कांग्रेस पार्टी के लि‍ए और भी बुरा साबित होने वाला था। ग्‍यारह जनवरी 1966 को लाल बहादुर शास्त्री के दुखद नि‍धन; और 24 जनवरी 1966 को इन्‍दिरा गाँधी को प्रधानमन्‍त्री पद की शपथ दिलाने के बाद, पार्टी में मतभेद बढ़ा, सन् 1969 में अनुशासनहीनता के आरोप में मोरारजी देसाई को निष्कासित कि‍या गया। कांग्रेस पार्टी विभाजित हो गई। 'गरीबी हटाओ' के चुनावी नारे के साथ सन् 1971 में पाँचवीं लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से कांग्रेस की जीत हुई। सन् 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान इन्‍दिरा गाँधी के साहसिक निर्णय का पूरे भारत ने स्वागत किया, कि‍न्‍तु युद्ध की आर्थिक लागत, दुनिया में तेल की कीमतों में वृद्धि और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट के कारण आर्थिक कठिनाइयाँ वि‍कट हो गईं। तत्‍कालीन प्रधानमन्‍त्री इन्‍दि‍रा गाँधी द्वारा सन् 1974 में घोषि‍त आपातकाल को प्रति‍पक्ष और सामान्‍य नागरि‍क ने कांग्रेस-शासन की नि‍रंकुशता और जन-दमन के रूप में देखा। फलस्‍वरूप सन् 1977 में आयोजित छठी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को घनघोर मुँहकी खानी पड़ी। आपातकाल के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन, अनिवार्य बन्‍ध्याकरण और नि‍रंकुशतापूर्वक राजनेताओं को जेल में डालने की वजह से इन्‍दिरा गाँधी की लोकप्रियता कम हुईं और जि‍सकी कीमत उन्हें चुनाव परि‍णाम में चुकानी पड़ी। कई राजनीति‍क दलों ने जनता पार्टी के रूप में मिलकर चुनाव लड़ा और स्वतन्‍त्र भारत की चुनाव-शृंखला में पहली बार कांग्रेस को ऐसी हार का सामना करना पड़ा। कांग्रेस पार्टी की शासन-व्‍यवस्‍था से कुपि‍त जनता के भावोच्‍छ्वास पर सवार हुई सत्तासीन जनता पार्टी के गठबन्‍धन ने इतना तो साबित कर दिया कि कांग्रेस को भी हराया जा सकता है; कि‍न्‍तु शीघ्र ही उसके अन्‍तर्कलह सामने आ गए। सन् 1979 आते-आते जनता पार्टी विभाजित हो गई, और सन् 1980 में भारतीय जनता के सि‍र पर फि‍र से सातवीं लोकसभा चुनाव आ गया।...स्‍वातन्‍त्र्योत्तरकालीन इन तैंतीस वर्षों की ऐसी सि‍लसि‍लेवार बदहाली साँस फुला देती है। ये स्‍थि‍ति‍याँ तो पत्‍थर को उद्बुद्ध कर दे, फि‍र काशीनाथ सिंह जैसे जि‍म्‍मेदार कहानीकार कैसे उद्बुद्ध न होएँ! 'मुसइ चा', 'सुधीर घोषाल', 'जंगल-जातकम्', 'लाल किले के बाज, 'चोट' और 'हस्तक्षेप' जैसी उनकी कहानि‍यों में ये स्‍थि‍ति‍याँ वि‍शि‍ष्‍ट कौशल से उजागर हुई हैं। जि‍न वि‍लक्षणताओं के कारण साठोत्तरी हि‍न्‍दी कहानि‍यों को 'जनवादी कहानी' कहा गया था, इन कहानियों ने उन्‍हें सार्थक तर्क से प्रबल समर्थन दि‍या था।
लेखन-कार्य को सदैव बड़े दायि‍त्‍व की तरह लेनेवाले काशीनाथ सिंह, लेखकीय उदारता में औरों को बेशक छूट दे दें; अपना दायि‍त्‍व सतत बढ़ाते रहे हैं। नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों को अपनी 'नागरिकता' सन्‍दिग्ध कर लेने की सुवि‍धा वे देते हैं, क्योंकि उनके कई वैयक्‍ति‍क स्वार्थ होते हैं, हि‍स्‍से से अधि‍क, समय से पूर्व कुछ अति‍रि‍क्‍त पाने की उनमें बेशुमार मजबूरि‍याँ होती हैं; इस कारण उन्‍हें कई गलत-सही समझौते करने पड़ते हैं। कि‍न्‍तु लेखकों को वे ऐसी छूट नहीं देते। उन्‍हें वे अपनी धरती का सच्चा नागरिक मानते हैं, क्योंकि उनकी जड़ें जनता में होती हैं।...काशीनाथ सिंह की यही लेखकीय-प्रति‍बद्धता और जीवन-दृष्‍टि उन्‍हें वि‍शि‍ष्‍ट बनाती है‍। प्रति‍बद्धता और जीवन-दृष्‍टि‍ के बि‍ना लि‍खना, कचहरी के मोहरि‍र का लि‍खना होता है, जो सुबह से शाम तक, तमाम फरि‍यादि‍यों के नसीब को इधर से उधर करते हुए, लि‍खते ही रहते हैं। साहि‍त्‍यसेवि‍यों को लि‍खने और कागज गन्‍दा करने में फर्क समझना बहुत जरूरी है। हि‍न्‍दी कथा-लेखन में काशीनाथ सिंह का पदार्पण जैसे राजनीति‍क वातावरण और सामाजि‍क जीवन-व्‍यवस्‍था में हुआ था; वह वि‍गत डेढ़ दशकों की आधी-अधूरी आजादी और नकली लोक-तन्‍त्र का उद्भव था। उनके पूर्ववर्ति‍यों ने उन स्‍थि‍ति‍यों का संज्ञान अपनी रचनाओं में ले लि‍या था। फि‍र भी देश की राजनीति‍क व्‍यवस्‍था में कोई नैति‍क सुधार नहीं हुआ। बाह्य आपदा के बावजूद, आन्‍तरि‍क कलह, शासकीय वीभत्‍सता, आपातकाल जैसी क्रूरता परवान चढ़ती गई। ऐसे क्षण में जि‍म्‍मेदारी से लि‍खना, और कुछ नई शैली की तलाश करना बड़े जोखि‍म का काम था। काशीनाथ सिंह ने यह जोखि‍म भरा मार्ग अपनी आत्‍मचेतना से अपनाया और केवल लि‍खने के लि‍ए नहीं, सूरत बदलने की नीयत से, जनता को उनकी सही स्‍थि‍ति‍ की जानकारी देने की आत्‍मीयता से अपने वि‍षय-बोध और कहानी-कला को नया मार्ग दि‍खाया। वापस उनकी कहानी 'पहला प्‍यार' की तरफ चलते हैं और चि‍न्‍तन करते हैं कि‍ पकी उम्र में आकर कि‍शोरकालीन प्‍यार में झाँकने की उनकी मंशा क्‍या थी?
शाश्‍वत सत्‍य है कि‍ 'प्‍यार' चराचर की जैवि‍क वृत्ति‍ है। प्‍यार पाकर हर प्राणी, पशु-पक्षी-पेड़-पादप पुलक उठता है। जीवन के सारे बन्‍धन और बाधाओं को तोड़ देना चाहता है। पारि‍वारि‍क और सामाजि‍क वातावरण में अर्जि‍त रूढ़ि‍याँ उसे तरह-बेतरह परेशान करती हैं; कि‍न्‍तु प्रेमी उन रूढ़ि‍यों को तोड़ने की परि‍णति‍ और आतंक से मुक्‍त होता है। यह मुक्‍ति‍ मनुष्‍य को जीवन की ढेर सारी वि‍डम्‍बनाओं से मुक्‍त करती है। प्रेम के कारण जर्जर रूढ़ि‍यों से मुक्‍ति‍ की शुरुआत कोई हवाई-महल नहीं है। यह मुक्‍ति‍ मनुष्‍य को अनेक कुसंस्‍कारों और संलि‍प्‍ति‍यों से आजाद करती है। इस कहानी का लक्ष्‍य आत्‍मकेन्‍द्रि‍कता में संलि‍प्‍त उन तमाम 'नरोत्तमों' को सन्‍देश देना है कि‍ भई! प्रेम करो, फत्ते गुरु की तरह तुम भी अपनी जड़ता और रूढ़ि‍यों से, ओछी हरकतों से, स्‍वार्थपरता और आत्‍मलीनता से मुक्‍त हो जाओगे।
उल्‍लेखनीय है कि‍ इस काल तक आते-आते कहानि‍यों की पद्धति‍ बदल गई। शृंखलाबद्ध घटनाओं के ढेर से वि‍दाई लेकर कहानि‍याँ सूक्ष्‍म घटना-सूत्र के सहारे वि‍राट सन्‍देश देने लगी थी। घटना तो पाठकों को पकड़े रखने का साधन मात्र होती थी, कहानी का असल उद्देश्‍य कहानीकार के कहन में चमकने लगा था। कहानि‍यों की बुनावट में जीवन-दर्शन और समाज-संरचना के बुनि‍यादी तत्त्‍व झाँकने लगे थे। कि‍न्‍तु, इस कारण कहानी दर्शन-शास्‍त्र या कि‍ समाज-शास्‍त्र नहीं हो गई थी। कम से कम काशीनाथ के लि‍ए तो यह बात अलग से कहने की जरूरत है कि समाज-शास्‍त्र, जीवन-दर्शन, राजनीति‍क सूक्ष्‍मता, लौकि‍क व्‍यवहार, पात्रों के जैवि‍क आयास और मनोवैज्ञानि‍क आचरण ...सब कुछ से गहरे जुड़ाव के बावजूद उनकी कहानि‍यों पर इन कथेतर अनुशासनों का कोई तनाव नहीं दि‍खता। उनकी कहानी कि‍सी गम्‍भीर समालोचक को चि‍न्‍तन-सरोबर में गोता लगाने और कि‍सी सामान्‍य पाठक को कथा-सुख लेकर मुग्‍ध हो जाने का समान अवसर देती है। 'पहला प्‍यार' कहानी में पाठक चाहें तो युवती के अंग-सौष्‍ठव वर्णन अथवा कथानायक के अधेड़ अग्रज की द्वि‍अर्थी बातों से अपने मन की गुदगुदी बेशक शान्‍त कर लें; पर कहानीकार का लक्ष्‍य यह बताना नहीं है कि‍ फत्ते गुरु को कि‍सी कण्‍डे थापनेवाली कि‍सी कठमस्‍त युवती से प्‍यार हो गया। यह तो पाठकों को अपनी लेखकीय चि‍न्‍ता में खींच लाने का चमत्‍कारि‍क कौशल है। वहाँ असल बात है 'प्‍यार हो जाने के बाद की परि‍णति‍याँ'; 'प्‍यार के कारण प्रेमी के आचरण और व्‍यवहार में डेरा डाली रूढ़ि‍यों की चरमराहट'; 'प्रेमातुर नायक का रूढ़ि‍यों से होड़ लेने का उद्यम'; 'प्रेमवि‍हीन नि‍रर्थक आचरणों से मुक्‍ति‍ का प्रयास'...। इस कहानी का एक-एक प्रसंग इस प्रेरणा का स्रोत है कि‍ प्रेम वस्‍तुत: कि‍सी मनुष्‍य को वासनाओं में सीमि‍त नहीं करता; उसे उन्‍मुक्‍त, उदार, नैति‍क और ज्ञानी बनाता है। प्रेम के प्रभाव में मनुष्‍य जि‍न रूढ़ि‍यों और जड़ताओं से मुक्‍त होता है, वह उसके हृदय-क्षि‍ति‍ज को वि‍स्‍तार देता है; और मनुष्‍य फत्ते गुरु की तरह अपनी समस्‍त जड़ताओं से मुक्‍त होना चाहता है। प्रेमासक्‍ति‍ का तनि‍क-सा स्‍पर्श उसे पूरी तरह बदल देता है। फत्ते गुरु अचानक-से बदल गए। उन्‍हें मालूम भी न था कि‍ विभाव, अनुभाव, संचारी भाव आदि‍ के संयोग से जो रस का सागर उमरता है, वही प्रेम का सागर होता है, और उस सागर डूबने पर ढलती दोपहरी की धूप भी लू की तपि‍श देने लगेगी। वह बेचारा कि‍शोर, तो अपने बड़े भाई की साध पूरी करने, अर्थात् दरोगा बनने के लि‍ए यहाँ अंग्रेजी सीखने आया था। अंग्रेजी शब्‍दों के हि‍ज्‍जे और अर्थ का रट्टा मार रहा था। ऐन उसी वक्‍त; विभाव, अनुभावदोनों की स्‍थि‍ति‍ आ गई। इधर एल-ओ-व्ही-ई लोभे, लोभे माने प्‍यार का रट्टा मार रहा था; उधर खि‍ड़की के बाहर फैले मैदान में कछाना मारकर, गोबर की चि‍पड़ी पाथती एक भरी-पुरी युवती की काँखों के भूरे-भूरे बाल, कछाना के बन्‍धन में जकड़ी पि‍ण्‍डलि‍याँ, और उसके झुकने पर, कुरती नहीं पहने होने की वजह से जरा-सा कुछ और दि‍ख गया। अब क्‍या था, संचारी भाव को तो आना ही था, सो आया; और फत्ते को 'उनसे' प्‍यार हो गया--पहला प्‍यार।
कि‍शोरकालीन प्‍यार का यह वि‍लक्षण घोसला रचने में कथाकार ने 'मुनि‍हुक मानस मनमथ जाग' की स्‍थि‍ति‍ ला दी है। ऐसा कौशल तो जरावस्‍था के वृद्ध को भी कि‍शोरावस्‍था में ला दे। वाकई, काशीनाथ सिंह की कलम जादू जानती है। पाठकों पर पकड़ बनाए रखने के इतने साधन वे जुटाए रखते हैं, कि‍ नि‍मेष मात्र के लि‍ए भावक का राग-ताल वि‍चलि‍त नहीं होता। पर इस एकाग्रता में लीन होकर भी पाठकों से काशीनाथ सिंह का वह कौशल ओझल नहीं होता, जि‍सके द्वारा वे समाज को एक नूतन दृष्‍टि‍ देना चाहते हैं, कि‍ भई! रूढ़ि‍यों से मुक्‍त होइए, जीवन की गति‍शीलता को अवरुद्ध करनेवाली जड़ता का गर्द-गुबार झाड़ि‍ए, प्रेम अन्‍तत: मनुष्‍य को सारी दुवि‍धाओं से मुक्‍त कर देता है। इस कहानी में दर्ज कि‍शोरावस्‍था के प्रेम का चि‍त्रण, असल में सकल समाज के लि‍ए प्रेम का महत् सन्‍देश है। वैसे कथाकार स्‍वयं अपने कथा-कौशल के बारे में इतनी ऊँची धारणा नहीं रखते, पर उनके नहीं रखने से क्‍या होगा, उनके बारे में कोई उनसे पूछकर तो राय नहीं बनाएगा!
अपने बहुचर्चि‍त संस्‍मरण घर का जोगी जोगड़ामें उन्‍होंने घोषणा की कि‍ हि‍न्‍दी आलोचना के शि‍खर-पुरुष प्रो. नामवर सिंह को शायद ही काशीनाथ सिंह की कोई कहानी पसन्द हो, इसके ठीक उलट, उनका शायद ही कोई संस्मरण और कथा-रिपोर्ताज उन्‍हें नापसन्द हो।...अब यह लेखक-आलोचक या अग्रज-अनुज के सापेक्ष सम्‍बन्‍ध का प्रति‍मान हो, तो कुछ कहना कठि‍न है; कि‍न्‍तु तथ्‍य है कि‍ काशीनाथ सिंह मूलत: एक महान कथाकार हैं। सावधानी से सही जगह पर चि‍कोटी काटनेवाली वि‍लक्षण कि‍स्‍सागोई, उनकी रचनात्‍मकता का प्राण-तत्त्‍व है। संस्मरण और कथा-रिपोर्ताज लेखन में भी उन्‍हें जैसी महारत हासि‍ल है; और उसके लि‍ए उन्‍हें जैसी प्रशस्‍ति‍ प्राप्‍त है; उसकी वि‍लक्षण सरणि‍ उनकी कि‍स्‍सागोई ही है। कि‍स्‍सागोई की वि‍लक्षण वि‍धि‍ ही अन्‍तत: कि‍सी संस्‍मरण और रि‍पोर्ताज को प्राणवान करती है।
काशीनाथ सिंह वस्‍तुत: एक वि‍शि‍ष्‍ट शि‍ल्‍पी हैं। बड़ी चतुराई से वे ‍अपनी हर रचना के लि‍ए नई-नई भंगि‍माएँ तलाशते हैं। रचनात्‍मक उद्देश्‍य की पूर्ति‍ हेतु, वे अर्जुन की तरह नि‍शाना साधे रहते हैं, ताकि‍ तीर ठीक मछली की आँख में जाकर धँसे, इधर-उधर नहीं। कथा-भूमि‍ की तलाश हेतु उन्‍होंने कैमरे की आँखें पाई हैं। सम्‍मुख पड़े दृश्‍य का जो प्रसंग सामान्‍य आँख, अर्थात् आम आदमी से अगोचर रह जाता है; कैमरा उसे भी कैद कर लेता है। धारक उन दृश्‍यों का उपयोग अपनी योजनानुसार करता है। पता लगाना उपादेय होगा कि‍ अपनी कि‍शोरावस्‍था में काशीनाथ सिंह, गि‍ल्‍ली-डण्‍डा, कंचा-कौड़ी, वॉली-बॉल, फुटबॉल, या क्रि‍केट के अच्‍छे खि‍लाड़ी तो नहीं थे; क्‍योंकि‍ इ‍न खेलों में अचूक नि‍शानेबाजी की बड़ी आवश्‍यकता होती है। उन्‍होंने स्‍वयं स्‍वीकारा है कि‍--'लम्बे-चौड़े मैदान में एक ही स्थान पर खड़े रहकर जिन्दगी भर बाएँ-दाएँ करते रहने से बेहतर है, अपनी सम्भावनाओं और क्षमताओं के लिए नए क्षितिज खोजना और किसी ऊसर पड़े खेत को हरा-भरा बनाना...!' जी हाँ, इसी धारणा में‍ वे अपनी कहन-भंगि‍मा से बंजर-ऊसर प्रसंग में भी व्‍यंजना की बाढ़ ला देते हैं। भावक-गण चमत्‍कार से भर उठते हैं। उनकी अत्‍यन्‍त चर्चित कहानी 'सूचना' में कथानायक, रोज-ब-रोज, जगह-जगह, वक्‍त-बेवक्‍त घटनेवाली तरह-तरह की खौफनाक और टुच्‍ची घटनाओं की सूचाएँ देता है; जि‍सका लोग संज्ञान तक नहीं लेते। कहानी के अन्‍त में वह, एक लावारि‍स लाश का वि‍वरण देता है'उसकी आँखें फैली हुई हैं, मुँह खुला हुआ है और गोश्‍त की मोटाई को नापते चाकू का सि‍रा छाती के बीचोंबीच उभरा है जि‍स पर बैठने के लि‍ए मक्‍खि‍याँ आपस में मार कर रही हैं। समूचे धड़ पर इतनी अधि‍क मक्‍खि‍याँ भनभना रही हैं जैसे वहाँ पानी से तर कोई चीनी का बोरा हो। उसके दो सुनहले दाँतों से बँधी हुई जबड़े के बराबर एक दफ्ती खड़ी है जि‍स पर सुर्ख हर्फों में लि‍खा हैकृपया मक्‍खि‍याँ उड़ाने की हि‍म्‍मत न करें, वे भूखी हैं।'---हम गौर करें कि‍ गोश्‍त की मोटाई नापते ये चाकू, पानी से तर चीनी के बोरे, सुनहले दाँत, ये मक्‍खि‍याँ, और इन मक्‍खि‍यों के बारे में ये चेतावनि‍याँ क्‍या कहती हैं? ये गोश्‍त कि‍सके हैं? ये चाकू कि‍सके हैं? ये सुनहले दाँत कि‍सके हैं? ये मक्‍खि‍याँ कौन हैं? इनकी इस आक्रामक भूख का मतलब क्‍या है?...क्‍या कथाकार ने अपने वांछि‍त दृश्‍य को महज माँसल बनाने हेतु इन्हें उपस्‍थि‍त कि‍या है?...बि‍ल्‍कुल नहीं। काशीनाथ सिंह की कहानि‍यों के पात्र जम्‍हाई भी नि‍रर्थक नहीं लेते। पल-पल अपनी कहानि‍यों में कहन-भंगि‍मा का नया शास्‍त्र रचते हुए वे हमेशा कि‍सी नई वि‍धि‍ की तलाश में डूबे रहते हैं; नएपन की इस तलाश में वे कभी सन्‍तुष्‍ट नहीं होते, और लगे हाथ अपना असन्‍तोष अग्रज के हि‍स्‍से डाल लेते हैं।
सुधी जनों के लि‍ए अनुमान करना सहज होगा कि श्रुति-परम्परा की नि‍रन्‍तरता में कई पीढ़ि‍यों की स्‍मृति‍याँ रक्षि‍त होती हैं। समय पाकर बहुश्रुत स्‍मृति‍याँ ही जनश्रुति‍यों में तब्‍दील हो जाती हैं। जिस गाँव (जीयनपुर) एवं नगर (बनारस) में काशीनाथ सिंह का जीवन बीता, वह मूल रूप से स्मृति और श्रुति-परम्परा का नागरि‍क-परि‍दृश्‍य है। तथ्‍य है, और काशीनाथ सिंह की स्‍वीकारोक्‍ति‍ भी, कि‍ उन्‍हें अपने ग्रामीण परि‍दृश्‍य से प्राप्‍त इन श्रुति-परम्पराओं के बीजांकुर को सम्‍पोषि‍त-पल्‍लवि‍त करने का कौशल आचार्य हजारीप्रसाद द्वि‍वेदी एवं आचार्य नामवर सिंह के सान्‍नि‍ध्‍य में मि‍ला। अर्जि‍त कौशल एवं नि‍जी जीवन-दृष्‍टि के समग्र सहयोग ने उनकी कि‍स्‍सागोई को इस तरह चमकाया कि‍ वे न केवल पूर्ववर्ती कथाधारा से, बल्‍कि‍ अपनी पीढ़ी के तमाम कथाकारों से खुद को अलग साबि‍त कर दि‍या।
आचार्य नामवर सिंह पर संस्‍मरण लि‍खते हुए उन्‍होंने जि‍स तरह वि‍पन्‍नता में जीते हुए, मगर जीवन की चाहत रखनेवाले अपने गाँव के नाम जीयनपुर की व्‍युत्‍पत्ति‍ बताई है; और महारानी विक्टोरिया-राज के हिन्दुस्तानी फौज के सूबेदार, जीयनपुर के घूरी सिंह द्वारा फकत कम्बल एवं लोटे के सहारे एक खूँखर बाघ को मार डालने की बहादुरी तथा दिलेरी की कथा कही है; वह काशी जी के वि‍लक्षण कि‍स्‍सागोई का नमूना है। घूरी सिंह खड़ान गाँव के थे, कि‍न्‍तु इस बहादुरी के इनाम में उन्‍हें तीन गाँव दिए गए थे--पहाड़पुर, करजौंड़ा और जीयनपुर। घूरी सिंह जीयनपुर आकर बसे। घूरी के प्रपौत्र नागर सिंह (घूरी>द्वारिका>रामनाथ>नागर सिंह), प्राइमरी स्कूल के मास्टर हुए; काशीनाथ उन्‍हीं की कनि‍ष्‍ठ सन्‍तान हैं! अपने खानदान की इन पाँच पीढ़ि‍यों का वि‍वरण जि‍स खास अन्‍दाज में उन्‍होंने दि‍या है; वह कि‍सी गल्‍प-स्‍वाद-लोलुप व्‍यक्‍ति‍ को तो केवल बतरस और घटनाक्रम का आनन्‍द देगा; मगर इस कथा में गोता लगाने पर कई संकेत सामने आते हैं। संकेत यह, कि‍ काशीनाथ सिंह आज जो भी हैं, उनमें उनकी प्रति‍भा, लगन, कौशल, जीवन-दृष्‍टि‍ के अलावा पूर्ववर्ती पाँच पीढ़ि‍यों के पेशागत संस्‍कार का परि‍पाक भी है। कि‍सी घातक हथि‍यार का सहारा लि‍ए बि‍ना भी बाघ से लड़कर उसे पछाड़ देने का आत्‍मवि‍श्‍वास, साहस, अक्‍खड़पन, कि‍सानी एवं ग्रामीण संस्‍कृति‍ से अनुराग, पशुपालन-धर्म के प्रति‍ सम्‍मान, शैक्षि‍क उद्यम में नि‍ष्‍ठा, दायि‍त्‍व-नि‍र्वहन का संस्‍कार, झूठ-पाखण्‍ड-धूर्तता से चिढ़ एवं सहज मानवीयता तथा ईमानदारी से प्रेम, बैठकबाजी, नि‍रर्थक प्रसंगों से परहेज, मानव-मनोवि‍ज्ञान की गति‍कता एवं शासकीय दुर्नीति‍ की चालबाजी की गहरी समझ...आदि के खानदानी संस्‍कार ने नि‍श्‍चय ही उनकी वैचारि‍क पृष्‍ठभूमि‍ में कुछ न कुछ जोड़ा होगा और उनके‍ पारि‍वारि‍क-सामाजि‍क-लेखकीय दायि‍त्‍वबोध को दृढ़ कि‍या होगा।
दायि‍त्‍वबोध और सामाजि‍क सरोकार के कि‍सी ऐसे ही क्षण में कथाकार को फत्ते अथवा फत्ते की स्‍मृति‍यों ने पहला प्‍यार जैसा आख्‍यान रचने के लि‍ए बेचैन कि‍या होगा। वर्ना पल-पल नई कहन-भंगि‍मा के आखेट में तल्‍लीन काशीनाथ सिंह पैंतालीस की पकी उम्र में आकर फत्ते की कि‍शोरावस्‍था में क्‍यों झाँकने जाते?...गौरतलब है कि‍ यह कहानी कि‍सी कि‍शोर के मन में अनायास उपज आए पहले प्‍यार का वि‍वरण मात्र नहीं है। इस कहानी ने यदि‍ समाचार की तरह कहानी पढ़नेवाले कुछ पाठकों की कि‍शोरकालीन पहले प्‍यार की अतृप्‍त कामनाओं में गुदगुदी लगा दी हो, तो तय मानि‍ए कि‍ इससे कथाकार को कोई दुख नहीं होगा; कि‍न्‍तु वे चाहें तो कथाकार के अन्‍य वि‍लक्षण संकेतों को भी गौर कर सकते हैं।
शास्‍त्र और लोक द्वारा प्‍यार की व्‍याख्‍या लम्‍बे समय से होती आई है। इधर आकर तो प्‍यार पर राजनीति‍ भी होने लगी है। व्‍याकरण के हि‍साब से जो प्‍यार स्‍वयं भाववाचक संज्ञा था, अब उस प्‍यार में 'सच्‍चा', 'झूठा', 'गन्‍दा', 'दैहि‍क', 'आत्‍मि‍क', 'नैसर्गि‍क' वि‍शेषण लगने लगा है। हद तो यह हो गई कि‍ अब प्‍यार (इश्‍क) कमीना भी होने लगा है। प्‍यार की पारम्‍परि‍क और सामाजि‍क परि‍भाषाओं में तो प्‍यार के बेशुमार वर्गीकरण हुए पड़े हैं। नामालूम कारणों से प्‍यार करने या होने की मोटी-तगड़ी आचार-संहि‍ता बनी हुई है। पंच, बि‍रादर, और पंचाटों ने इस पर भली-भाँति‍ अपना ज्ञान-प्रदर्शन कि‍या है। कबीर ने तो ढाई आखर के ज्ञाता को ही पण्‍डि‍त घोषि‍त कर दि‍या; कि‍न्‍तु प्‍यार के इन स्‍वम्‍भू संवि‍धान-नि‍र्माताओं के ज्ञानबोध का स्‍तर जानना कठि‍न है। सम्‍भवत: कबीर ने कुछ नहीं कहा। अब कबीर ने नहीं कहा, तो फि‍र काशीनाथ सिंह या उनके फत्ते गुरु इनकी चि‍न्‍ता क्‍यों करें? फत्ते को तो बस प्‍यार हो गया! वह तो जानता भी नहीं था कि‍ उसे प्‍यार हो गया। शुक्र है कि‍ प्‍यार के मर्मज्ञ कथाकार काशीनाथ सिंह भाँप गए कि‍ बस्‍स! अब फत्ते को 'उनसे' प्‍यार हो गया!
दि‍लचस्‍प है कि‍ उनके फत्ते ने इसके लि‍ए अलग से कुछ नहीं कि‍या था; कभी सोचा भी नहीं था। कोई पारम्‍परि‍क रीति‍ के आलम्‍बन-उद्दीपन जैसी बात भी नहीं थी; वसन्‍त ऋतु की मादक हवाएँ नहीं थीं, आम्र-मंजरि‍यों की बौर नहीं थीं, पावस ऋतु की कामोद्दीपक फुहारें नहीं थीं, कि‍सी सरोबर में हंस के जोड़े नहीं तैर रहे थे, कि‍सी पेड़ की डाल पर बैठी चि‍ड़ि‍यों की जोड़ी प्रेमालाप नहीं कर रही थी...अर्थात्, प्‍यार के स्‍वयम्‍भू मर्मज्ञों द्वारा अनुसूचि‍त कोई भी उद्दीपक दृश्‍य काशीनाथ सिंह के फत्ते के सामने नहीं था; वस्‍तुत:, वह उसकी दुनि‍या ही नहीं थी। 'उनकी दुनि‍या काँटों की दुनि‍या थीभड़भाड़ों की झाड़, नागफनी के पौधे, कुश,...बि‍सखोपड़े, नेउरे, मेढक, चूहे, चि‍ड़ि‍याँयह उनकी दुनि‍या थी। फत्ते बैठे-बैठे बि‍सखोपड़े या गि‍रगि‍ट या इसी तरह के कि‍सी जीव पर नि‍शाना साधा करते।' मौसम भी गर्मी की छुट्टि‍यों का था।...कथाकार ने नि‍तान्‍त अपारम्‍परि‍क वातावरण में एक कि‍शोर के मन में प्‍यार के अँखुए जगाकर यहाँ प्‍यार की सारी कुलीन स्‍थापनाओं को खण्‍डि‍त कर दि‍‍या। क्‍योंकि‍ घि‍सी-पि‍टी लीक पर चलना, और अतार्कि‍क घोषणाओं का बोझ ढोते रहना, कभी उनका काम्‍य नहीं रहा। युग-यथार्थ की पहचान उन्‍होंने सदैव जीवन-सत्य की व्‍यावहारि‍कता में की; कि‍ताबों में सजी हर्फों या हवाओं में लटकी घोषणाओं में नहीं। वे भली-भाँति‍ जानते थे कि‍ प्‍यार के हो जाने का कोई शास्‍त्र नहीं होता, प्‍यार कि‍सी यजमान की पूजन-वि‍धि‍ या कि‍सी मुवक्‍कि‍ल का मुकदमा नहीं, कि‍ वह पुरोहि‍त अथवा वकील के आज्ञानुसार फूँक-फूँककर कदम उठाए। प्‍यार के डगर के राही अपने सन्‍धान के पुरोहि‍त या वकील खुद होते हैं। वे खुद अपने संवि‍धान बनाते हैं, और उसका पालन करते हैं, कि‍सी सन्‍धान में वि‍फल होकर खुद को मनाते हैं, और 'उनको' मनाने हेतु अगला संवि‍धान रचते हैं; जैसे कभी चन्‍द्रधर शर्मा गुलेरी के लहना सिंह ने रचा था, और एक नई परि‍स्‍थि‍ति‍ में फत्ते गुरु ने रचा। उल्‍लेखनीय है कि 'कि‍शोरकालीन प्‍यार' पर केन्‍द्रि‍त होने के बावजूद दोनों कहानि‍याँ--'उसने कहा था', और 'पहला प्‍यार' की रचना-भूमि‍ भि‍न्‍न है; कथा-दृष्‍टि‍, शि‍ल्‍प, वातावरण, लेखकीय वर्ताव, पात्रों की सामाजि‍क पृष्‍ठभूमि‍ और मानसि‍क गठन...सब कुछ भि‍न्‍न है।
ग्रामीण सादगी के सरोबर में भली-भाँति‍ नहाया हुआ, 'पहला प्‍यार' का कथानायक फत्ते के नि‍र्मल मन में ज्‍यों ही प्‍यार अँकुराया, वह सुध-बुध खो बैठा। कि‍सी प्रोफेशनल प्रेमी की तरह उसके मन में मन्‍मथ नहीं जागा, उसने कि‍सी कि‍शोरी/युवती की कल्‍पना नहीं की, उसके मन में कि‍सी वासना की लहर नहीं उठी...। फकत एक संयोग बैठा कि‍ वह अंग्रेजी के एक शब्‍द का रट्टा मार रहा था, जि‍सका अर्थ प्‍यार होता है; उस वक्‍त उसके जीवन में यह एक नि‍रर्थक सन्‍दर्भ था, जैसे झाड़ि‍यों में टहलते गि‍रगि‍ट पर बेवजह पत्‍थर मारना। उस वक्‍त गि‍रगि‍ट मारने के लि‍ए उसने हाथ उठाकर पत्‍थर से नि‍शाना साधा ही था, कि‍ उस नि‍हायत अनजान युवती की काँखों के भूरे बालों पर उसकी नजर पड़ गई। वही नजर, युवावस्‍था की सौगातों से भरी उस युवती के कि‍सी माँसल अंगों पर चली गई होती; तो कहानी की दि‍शा भटक जाती, वि‍वरण बेमतलब सपाट हो जाता; यह कथाकार की वि‍लक्षण सावधानी का द्योतक है।
कहानी में इस वि‍वरण का उद्देश्‍य महज माँसलता भरना नहीं है; बल्‍कि‍ इशारा करना है कि‍ कि‍सी कि‍शोर के मन में अँकुराया प्‍यार, ज्ञान की अनन्‍त दि‍शाएँ खोलता है, और अपने पल्‍लवन हेतु समुचि‍त वातावरण बनाता है। फत्ते को अब तक कि‍सी स्‍त्री-शरीर के धरम-करम की कोई जानकारी नहीं थी। उसने भरे-पुरे मर्दों की काँखों में तो बाल खूब देखे थे, स्‍त्री के बारे में उसकी ऐसी कोई कल्‍पना नहीं थी। बल्‍कि‍ इस बारे में उसने कभी सोचा भी नहीं था। इसीलि‍ए, उसने 'उनके' काँखों के बाल देखते ही, अपनी काँखों में झाँककर दरि‍याफ्त कि‍या कि‍ उसके तो नहीं हैं। दरि‍याफ्त करवाने की यह घटना भी बेवजह नहीं है; दरअसल प्‍यार के सवार होते ही मनुष्‍य मनत: इतना उदार और संशयात्‍मा हो जाता है कि‍ प्रमाणि‍त सत्‍य को भी अपने लि‍ए फि‍र-फि‍र प्रमाणि‍त करता है। अपनी काँखों में वैसे बाल न देखकर फत्ते बुदबुदाता है'अच्‍छा? तो यह बात है! उनके ऐसा भी होता है!'
कुछ प्रसंगों को अस्‍पष्‍ट रखकर कहानीकार ने भावकों को बहुत कुछ सोचने की स्‍वाधीनता भी दे रखी है। शुरुआती प्रसंगों में ही जब युवती कमर में खुँसे आँचल के साथ झुकी, और फत्ते को बोध हुआ कि‍ उन्‍होंने कुरती नहीं पहनी है, तो वह चीख उठा'नहीं! नहीं! नहीं!' उसकी चीख सुनकर युवती पलटी, तो उलटे पाँव भागा, और नाई की दुकान में जाकर सि‍र मुड़वा लि‍या। अब वह क्‍यों चीखा? क्‍यों भागा? क्‍यों बाल मुड़ाया?ये सवाल वि‍चारणीय हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि युवती का कुरती नहीं पहने होना उसे नागवार गुजरा! या उनके झुकने पर उसने उनके ऐसे अंग देख लि‍ए हों, जि‍सके वे अधि‍कारी न हों, और पापबोध से मन भर उठने के कारण चीख पड़े हों, और प्रायश्‍चि‍त करने की नीयत से जाकर अपने प्रि‍यतम शृंगार हटवा लि‍ए हों! या फि‍र युवती के पलटकर देख लेने के कारण भयबोध में अपनी पहचान बदलने हेतु बाल मुड़ा लि‍ए हों!...भावक सम्‍भावनाओं की तलाश, और उसकी तार्कि‍कता ढूँढते रहें; पर इन सभी सम्‍भावनाओं में कहानी की उज्‍ज्‍वलता बरकरार रहती है। सम्‍भावनाओं के अजस्र स्रोत की यही उज्‍ज्‍वलता काशीनाथ सिंह की कहानि‍यों की वि‍लक्षणता है।
उनकी कहानि‍यों की घटना का भौगोलि‍क वि‍स्‍तार बहुत छोटा रहता है, अत्‍यन्‍त मामूली। केन्‍द्रीय चरि‍त्र और काल-सीमा भी अत्‍यन्‍त साधारण। वे कि‍सी महानायक के सहज अथवा वि‍शि‍ष्‍ट आचरण की व्‍याख्‍या में अपना श्रम-स्‍वेद नहीं गँवाते; मामूली-से व्‍यक्‍ति‍ को अपनी कहानी में खड़ाकर महान बना देते हैं। उनकी कहानि‍याँ, मामूली व्‍यक्‍ति‍ के मामूली जीवन के सहारे वि‍राट दर्शन को रेखांकि‍त करती हैं। सदी का सबसे बड़ा आदमी जैसी कुछ कहानि‍यों में शौक साहब जैसे कोई खानदानी रईस कि‍सी नायक की तरह कभी आ जाएँ, तो भी उनकी कहानी की पक्षधरता मामूली व्‍यक्‍ति‍ के मामूली जीवन का दर्शन तलाशती-तरासती रहती है।
आठवें दशक में एक कहानीकार के रूप में उन्‍हें अपने समय की कहानियों के यथार्थ और समाज के यथार्थ में फाँक दि‍ख रही थी। जि‍स वर्ग के पात्रों से कहानियों में विद्रोह और क्रान्ति करवाई जा रही थी, वास्तविक जीवन में वे विद्रोही आत्‍मसुखलीनता के लि‍ए सारे समझौते करने को तत्‍पर रहते थे। आत्‍मालोचन की इसी प्रक्रि‍या ने उन्‍हें सदैव अन्‍वेषी बनाए रखा; और उनका उर्वर-उन्‍नत रचना-कौशल नि‍रन्‍तर नवोन्‍मेष में लगा रहा। बीसवीं सदी के ढलते चरण में उन्‍हें स्‍पष्‍ट दि‍खने लगा था कि‍ ''सतह पर जो चीज़ नज़र आ रही है, वह धूल नहीं है कि दो चार घड़े पानी डालो और बह जाए...यह संस्कार है--ऊँच-नीच के, छोटे-बड़े के,...हाथी-बैल के, राजा-परजा के। जाते जाते जाएँगे। यह मिट्टी है जो सदियों से पड़ी-पड़ी जमकर पत्थर बन चुकी है। उस पर चोट करो, उसे तोड़ो, उसमें धँसो।'' जमकर पत्थर बन चुकी इस मि‍ट्टी की परत को तोड़ने के लि‍ए तनि‍क तेज प्रहार की जरूरत थी, लेकि‍न फत्ते गुरु के इन संस्‍कारों को कथाकार ने प्‍यार के नाजुक स्‍पर्श से तोड़ दि‍या। उल्‍लेख हो चुका है कि‍ काशीनाथ सिंह का कथा-शि‍ल्‍प कि‍सी कुशल योद्धा की युद्ध-नीति‍ की तरह आक्रमक होता है। लक्ष्‍य-प्राप्‍ति‍ के लि‍ए उनकी कहानि‍याँ बेशुमार जतन करती हैं। कहानी होती है प्‍यार पर, और प्रहार हो जाता है गैरमुनासि‍ब संस्‍कार पर, ऊँच-नीच के भेद-भाव पर...।
'पहला प्‍यार' कहानी की मूल संरचना पूरी तरह फत्ते के एकतरफा प्‍यार पर केन्‍द्रि‍त है। प्‍यार के वशीभूत वह इतना मुग्‍ध रहता है कि‍ उसके घुटे सि‍र पर युवती ने चि‍पड़ी पाथ दी, और वह आत्‍मसुख में लीन हो गया। उसने मना कि‍या और युवती ने बीड़ी पीना बन्‍द कर दि‍या। इन दो घटनाओं के बूते फत्ते ने अपने प्‍यार की आश्‍वस्‍ति‍ कर ली। जबकि‍ इ‍नमें युवती द्वारा प्‍यार के स्‍वीकार का कोई स्‍पष्‍ट संकेत नहीं है, केवल भ्रम है। प्‍यार के लि‍ए ऐसा उत्‍साह, ऐसी आस्‍था, ऐसे सपने वस्‍तुत: पहले प्‍यार में ही सम्‍भव है। पहले प्‍यार की गुदगुदी, लाज, भय, संकोच, पुनर्पुन: साहस करने का उद्यम, मान-मनुहार...सारा कुछ यहाँ अपने भव्‍य-दि‍व्‍य रूप में है। कहते हैं कि‍ प्‍यार कोई मर्यादा नहीं मानता, कि‍न्‍तु पूरी कहानी में फत्ते को कहीं मर्यादा लाँघने की जरूरत ही नहीं हुई। बल्‍कि‍ मर्यादा का उल्‍लंघन करते अपने बड़े भाई के वार्तालाप से ग्‍लानि‍ हुई।
सि‍र मुड़ाने की अगली दोपहर में जब फत्ते खि‍ड़की के पास उसकी प्रतीक्षा में बैठा, आवाज लगाकर उसका अभि‍वादन कि‍या; वह लड़की खि‍ड़की के पास आ खड़ी हुई, और उससे पूछा'क्‍या है?' फत्ते ने लड़खड़ाती जबान में अभि‍वादन कि‍या; और युवती ने अभि‍वादन में झुके उसके घुटे सि‍र पर जोर से चि‍पड़ी पाथ दी, फि‍र खि‍लखि‍लाकर हँस पड़ी। इस घटना में सम्‍भावना यह भी है कि‍ युवती ने खि‍लन्‍दड़ अन्‍दाज में इसके साथ परि‍हास कर डाली हो; मगर फत्ते? वह तो तृप्‍त-परि‍तृप्‍त हुए जा रहा था। उसे अपने प्‍यार का घरौन्‍दा वि‍कसि‍त होता नजर आ रहा था। यही होता है पहला प्‍यार। पूरी तरह सकारात्‍मकता से भरपूर। काशीनाथ सिंह के सकारात्‍मकता का यह सन्‍देश, पूरे परि‍दृश्‍य के सभी प्रसंगों के सभी सम्‍प्रदायों के लि‍ए भी है। इस परि‍हास में, कथानायक गोबर की बदबू नहीं देखता; वह 'उनकी' जैसी हँसी हँसने का प्रयत्‍न करता रहता है। इसके बाद तो फि‍र फत्ते के भीतर चमत्‍कार पैदा हो गया। 'प्रेम' का चमत्‍कार। जब कोई नहीं होता, तो फत्ते उस अहाते में घुसकर 'उनके' द्वारा पाथी गई चि‍पड़ि‍यों को चूमता। कभी-कभी गीली चि‍पड़ि‍यों की पुरेसि‍याँ उखड़कर उसके होठ से चि‍पक जातीं; कि‍न्‍तु उसे अश्रद्धा नहीं होती। वह ऐन उसी ठौर 'उन्‍हीं' की तरह पाँव रखकर खड़ा होता। बार-बार अपने सि‍र पर हथेली फि‍ड़ाता, जि‍स पर 'उन्‍होंने' चि‍पड़ी पाथ दी थी। भावक चाहें तो हजारीप्रसाद द्वि‍वेदी के रैक्‍व की पीठ की खुजली को स्‍मरण कर सकते हैं। फत्ते बैठे-बैठे अनायास हँस पड़ता...। पहले प्‍यार की इस बारीकी को जि‍स चि‍त्रात्‍मकता से कथाकार ने अंकि‍त कि‍या है, पूरी घटना जीवन्‍त हो उठती है!
अगले दि‍न तनि‍क फत्ते का साहस और बढ़ा। प्रफुल्‍ल मन और प्रगल्‍भ चि‍न्‍तन से योजना बनाई। अपने कण्‍ठ में कोयल की कूक पैदा की। 'गणेशाय नम:' और गायत्री मन्‍त्र के मंगलाचरण के साथ प्रेम पत्र लि‍खा और प्‍यार के मैदान में उतर गया।...इस पूरी प्रक्रि‍या में कथाकार के चि‍त्रात्‍मक और संगीतात्‍मक वि‍वरण को महसूस करना कि‍सी भावक के लि‍ए सुखद अनुभूति‍ हो सकती है। इस प्रेम-पूजा की ओर नायक का सन्‍धान कि‍तना नि‍र्मल और 'पवि‍त्र' है कि‍ अग्रमुख होने से पूर्व पत्र में अपनी मांगलि‍क चर्या--'गणेशाय नम:' लि‍खना और गायत्री मन्‍त्र जपना नहीं भूला। अपने प्‍यार की रक्षा हेतु, ब्राह्मण संस्‍कारों में दीक्षि‍त एक कि‍शोर जि‍स तरह यहाँ संघर्ष करता दि‍खता है; रोमांच हो उठता है। नायक का पारम्‍परि‍क संस्‍कार यह स्‍वीकार नहीं करता कि‍ कोई स्‍त्री बीड़ी पीए; इसलि‍ए उसने नि‍होरा की कि‍ आप बीड़ी मत पीएँ, आपको शोभा नहीं देता। अपने प्‍यार के आधार को वह इतना ऊँचा बना लेता है कि‍ बीड़ी के गुणावगुन से उसे कोई मतलब नहीं रहता; उसे बस इतनी फि‍क्र है कि‍ यह कर्म 'उन्‍हें' शोभा नहीं देता। उस युवती ने उसे आश्‍वस्‍त कि‍या कि‍ वह बीड़ी नहीं पीएगी। मगर थोड़ी देर बाद उसके भैया के दवाब पर उसने फि‍र बीड़ी पी ली। इस पूरे घटनाक्रम में नायक, जि‍स तरह नायि‍का को अपनी पारम्‍परि‍क मान्‍यताओं के अनुरूप ढालने की कोशि‍श करता है; और फि‍र उसके पलटी खाने पर खुद ही अपनी पारम्‍परि‍क रूढ़ि‍यों को त्‍यागने की कोशि‍श करता है; कथाकार के महत् रचनात्‍मक उद्देश्‍य की ओर इशारा करता है। प्‍यार, प्रेमि‍का के प्रति‍ सम्‍मान, बड़े भाई के लि‍ए इज्‍जत और उनकी सहजात अभद्रता के लि‍ए ग्‍लानि‍, मगर भाई की अभद्रता पर भी चुप्‍पी साधे रहने की मजबूरी, बैठी हुई प्रेमि‍का के पर्दानसीं अंगों के दि‍ख जाने का संकोच...तमाम स्‍थि‍ति‍यों से संघर्ष करते नायक के मानसि‍क द्वन्‍द्व को कथाकार ने कि‍सी घनघोर युद्ध-भूमि‍ की तरह जीवन्‍त कर दि‍या है।    
कहानी में खलनायक की तरह प्रवि‍ष्‍ट फत्ते के बड़े भाई भोलाशंकर पाण्‍डेय के आचरण को कथाकार ने पूरी तरह सन्‍देहास्‍पद रखा। उसे न तो पूरी तरह सच्‍चरि‍त्र बनाया, न पूरी तरह दुश्‍चरि‍त्र। हर जगह उसे बेनीफि‍ट ऑफ डाउट दि‍या। युवती उसे 'चाचा' कहती है; मगर जब वह उसे 'पाँय लागी' कहती है, तो वह जवाब देता है--'पाँय तो हमेशा लगती हो, कभी हाथ भी...।' यह मजाक फत्ते को अच्‍छा नहीं लगता। ऐसे ही मजाक पर बीते दि‍न तरकारीवाली नाराज हो गई थी। मगर, भोला का चरि‍त्र बार-बार अस्‍पष्‍ट ही रहता। अब भावक चाहें तो भोला के आचरण प्रमाण-पत्र पर थोड़ा कसरत करें।
यही बड़ा भाई भोला, कहानी के अन्‍ति‍म अंश में नायक को बाहर जाकर घूमने-टहलने का हुक्‍म देता है, जि‍सका अनुपालन उसे न चाहते हुए भी करना पडता है। अर्थात्, नायक को उस आनन्‍ददायी क्षण से जबरन वि‍स्‍थापि‍त होना पड़ता है। टाँगें पसारकर आराम से बीड़ी पीती अपनी प्रमि‍का को देखते हुए, अपने बड़े भाई की नि‍र्लज्‍जता पर कुढ़ते हुए, वह वहाँ से नि‍कल जाता है। राजभोग से वंचि‍त कर दि‍ए गए राजा की तरह; शरीर त्‍यागकर भागती हुई अत्‍मा की तरह, शकुन्‍तला को जंगल में छोड़कर नगर को वापस होते दुष्‍यन्‍त की तरह--''क्षण-भर के लि‍ए तो उनके मन में आया कि‍ पन्‍ना की दुकान से उधारी एक बीड़ी माँगें और पीकर देखें कि‍ कैसा लगता है? लेकि‍न इस वि‍चार के आते ही उनकी आँखें भर आईं और सामने की बस्‍ती, पेड़, पौधे सब धुँधले हो गए। उन्‍होंने पलकें गि‍राकरथोड़ा जोर से भींचकरआँखें साफ कीं और सीधे दौड़ना शुरू कि‍या। पहले धीरे-धीरे, फि‍र थोड़ा तेज, और फि‍र धीरे-धीरे। अन्‍त में जहाँ मकान खत्‍म होते हैं, वहीं नंगे सि‍र, 'धोख' की तरह सड़क के बीच में खड़े हो गए। दोपहर ढलने के बावजूद सूरज तप रहा था और लू चल रही थी।'' यह समापन अवतरण अत्‍यन्‍त व्‍याख्‍येय है। अर्थ-ध्‍वनि‍यों से भरपूर ये पंक्‍ति‍याँ बहुआयामी व्‍याख्‍या की माँग करती है। यहाँ भावक को गहन दार्शनि‍कता का सामना करना पड़ता है।
यहाँ आकर फत्ते का मानसि‍क द्वन्‍द्व अगाध हो जाता है। एक बार उसकी बात मानकर बीड़ी पीना छोड़ देनेवाली नायि‍का, फि‍र भोला के दवाब पर बीड़ी पीने लगी...फत्ते बेशक इस रोष में बीड़ी पीने का अनुभव लेना चाह रहा हो, अपने अर्जि‍त संस्‍कारों से मुक्‍त होकर प्रेमि‍का की आदत में ढल जाने की सोच रहा हो; कि‍न्‍तु इस रोष का कारण कहीं उसके बड़े भाई की खलनायकी तो नहीं? बीड़ी पीने की कल्‍पना से नायक की आँखें भर आईं। इसका कारण अर्जि‍त संस्‍कार के टूटने का मोह, या प्रेम डगर में बड़े भाई द्वारा उत्‍पन्‍न अवरोध तो नहीं? फि‍र उसने पलकें भींचकरआँखें साफकर दौड़ना शुरू कि‍या। कारण, पीछे की जकड़नों से मुक्‍ति की चाहत? या आगे कुछ नया पाने की लालसा? बीच सड़क पर, ढलती दोपहर में भी लू का ताप महसूस करनेवाले किंकर्तव्‍यवि‍मूढ़ नायक का ऐसा चि‍त्रण, वस्‍तुत: सवालों की शृंखला बनाता है। और, प्रतीत होता है कि‍ इस समय तक आते-आते वाकई, हि‍न्‍दी कहानी चि‍त्रकला और संगीत के नि‍कट आ गई थी; जो भावकों को पूरी तरह अपने में लपेटे रखने लगी थी। 'पहला प्‍यार' शीर्षक यह चि‍त्रात्‍मक कहानी कि‍शोरावस्‍था के एकतरफा प्रेम की कथा होकर भी केवल प्रेमकथा नहीं है। प्रेम की नि‍श्‍छलता के तमाम द्वार खोलते हुए, यह रूढ़ि‍यों के कई अधि‍भार से लोगों को मुक्‍त होने की प्रेरणा भी देती है।  
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Friday, December 22, 2017

पुस्तक-पाठक सम्बन्ध Book-Reader Relationship



वि‍श्‍व पुस्‍तक मेला एक बार फि‍र सामने है। दस दि‍नों तक मेला परि‍सर में एक बार बौद्धि‍कों का सम्‍मि‍लन और पुस्‍तक-व्‍यवसायि‍यों के वि‍पणन के कई रूप दि‍खेंगे। कई प्रान्‍तों के पुस्‍तकप्रेमी मेला परि‍सर में मुदि‍तमन घूमते नजर आएँगे। ऐसे मौके पर पुस्तक-पाठक के अनुरागमय सम्बन्ध पर नजर डालना मुनासि‍‍ब होगा।
यह कथन अब मुहावरे की तरह दुहराया जाता है कि‍ हर पुस्तक पढ़ने के बाद हर पाठक नव-स्नात हो उठता है। बात अपने वास्‍तवि‍क अर्थों में तो सही है, पर देखना चाहि‍ए कि‍ हमारे में समाज में यह व्‍यावहारि‍क सच हो पाया है क्‍या? पुस्‍तक लि‍खने, छापने, खरीदने, पढ़ने से यदि‍ समाज मानवीय, या कि‍ मनुष्‍य सामाजि‍क होता, तो हमारे समाज में इतनी दारुण घटनाएँ होतीं?...नहीं होतीं।...तो क्‍या, हमें पुस्‍तकों से, या कि‍ अध्‍यवसाय से मुँह मोड़ लेना चाहि‍ए?...बि‍ल्‍कुल नहीं। अन्‍तत: पुस्‍तकों के प्रति‍ अनुराग ही हमें सही राह दि‍खाएगा। यह अनुराग मनुष्‍य को अनेक अच्छे सन्दर्भों से जोड़ता है, और अनेक बुरे सन्दर्भों से काटता है। हाँ, इसमें पात्रता की जरूरत तो होती है! मनुष्‍य ने यदि‍ खुद को न बदलने की जि‍द न ठान ली हो; और अध्‍यवसाय के लि‍ए उसके पाठ का चयन सुचि‍न्‍ति‍त हो; तो प्रमाणि‍त सच है कि‍ पाठक हर पुस्तक के अवगाहन से नव-स्नात हो उठेगा।
कहा जाने है कि इधर आकर पुस्तक-पाठक के अनुराग का स्तर घटा है। सम्‍भव है कि यह बात कुछ हद तक सच हो, पर यह अधूरा सच है। आज के पाठकों की संख्या को कम कहने से एक अनुत्तरि‍त सवाल सामने आएगा कि यह संख्या इससे अधिक कब थी? सम्पूर्णता में पाठकों की संख्या बढ़ी है। शिक्षा का क्षेत्र बढ़ा है, ज्ञान की शाखाएँ बढ़ी हैं, लोगों की रुचि, पढ़ने की जरूरत और विशेषज्ञता का फलक बढ़ा है, लेखकों और प्रकाशकों की संख्या बढ़ी है, इस विविधमुखी विस्तार की परिधि में साहित्य के पाठकों की संख्या में अपेक्षित वृद्धि न देखकर लोग घोषणा कर डालते हैं कि पाठकों की संख्या में ह्रास हुआ है। वैसे संज्ञान में तो यह बात भी आनी चाहिए कि बरसाती मेढक की तरह टर्राने वाले लेखकों की संख्या बढ़ गई है! मुद्रण-सुवि‍धा के वि‍स्‍तार और शौकि‍या लेखकों की आर्थि‍क उन्‍नति‍ के कारण बाजार में कि‍ताबों की संख्‍या भी बढ़ी है। नि‍स्‍सन्‍देह पाठकों की संख्या लगातार बढ़ी है। विगत पाँच-सात दशकों में विभिन्न विषयों और विभिन्न विधाओं की पुस्तकों का पाठक निश्चित रूप से बढ़ा है। पाठकों के इस रुचि‍-वि‍स्‍तार में पुस्तक-मेला-संस्कृति ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। मगर इस सत्‍य से मुँह छि‍पाना असम्‍भव है कि‍ कि‍ताबों के नाम पर बाजार में रद्दी के ढेर से औसत पाठक अक्‍सर दि‍ग्‍भ्रम का शि‍कार हो जाते हैं।  
मेला और प्रर्दशनी जैसे अवसर पाठकों को मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से प्रभावित करते हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि लोग मेला देखने यूँ ही चले आते है। बिना किसी कारण के, और देखते-देखते अचानक उन्हें कोई पुस्तक पसन्द आ जाए तो बगैर खरीदे नहीं रहते, और जब पुस्तक खरीदी गई, तो पढ़ी तो जाएगी ही।
ग्रामीण-शहरी क्षेत्र में संचालि‍त कि‍ताबों की दुकानों से पाठकों के अध्‍यवसाय की भूख का सम्‍पूर्ण नि‍राकरण नहीं होता। दुकानों में रखी पुस्तकें, पाठ्यक्रम की पुस्तकें खरीदनेवालों के लिए लाभप्रद होती हैं। कस्बाई क्षेत्र एवं छोटी जगहों की दुकानों में सामान्यतः ऐसी ही किताबें होती हैं। पुस्तक-मेला या पुस्तक-प्रदर्शनी में लोगों के सामने सारी किताबें फैली रहती हैं। उन्हें चयन की पूरी सुविधा रहती है। ऐसे अवसर पर लोग यह सोचकर नहीं चलते कि अमुक किताब ही खरीदनी है। वे किताबें ढूँढते हैं, जो पसन्द आ जाए, वह खरीद लाते हैं।
मेले में छोटे-छोटे बच्चों का आना, और भी मनोवैज्ञानिक प्रभाव उत्पन्न करता है। बच्चे यहीं से अपने संस्कार का सम्वर्द्धन करते हैं। मेले के दौरन शहर के लोगों का जैसा रुझान देखा जाता है, वह वहाँ की सांस्कृतिक विरासत के प्रति आम लोगों को आश्वस्त करता है।
इन दि‍नों पुस्तकों के प्रति लोकरुचि के ह्रास की बात किम्बदन्ती की तरह फैल गई है, बड़े  ऊँचे स्वर में लोग कहते पाए जाते हैं कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दवाब ने समाज में पुस्तकों की जगह संकुचित कर दी है, पठन रुचि का अत्यधिक ह्रास हुआ है। पर लोग इसके गणित से खुद को निरपेक्ष रखते हैं; वे इस ह्रास की नियामक शक्ति की तरफ नहीं देखते। गौर करें तो पूरा परिवेश इसके लिए जि‍म्‍मेदार दि‍खेगा। पाठक, प्रकाशक, लेखक, वितरक--हर कोई थोड़ा-थोड़ा दोषी दि‍खेगा। पर सर्वाधिक दोषी लेखक दि‍खेंगे। अगले दोषी, व्‍यावसायि‍क शिष्टाचार सीखे बगैर प्रकाशन के क्षेत्र में कूद आए अयोग्य प्रकाशक दि‍खेंगे। आज के अधिकांश लेखकों को आम पाठकों की चिन्ता नहीं रहती, उन्हें पाठकों की मान्यता गैरजरूरी लगती हैं। उपभोक्तावादी समाज-व्यवस्था में उनकी दृढ़ मान्यता है कि पाठकों की मान्यता अमूर्त्त गहना है, उसे कहाँ-कहाँ दिखाएँ? असली और मूर्त्त गहना है पुरस्कार! पुरस्कार मिल जाए तो हर कोई बड़ा लेखक मानेगा। पुरस्कार देती हैं संस्थाएँ, पुरस्कार देते हैं धन्ना सेठ, पुरस्कार दिलाते हैं आलोचक, पुरस्कार-दातृ समिति के विशेषज्ञ, जो खुद तरह-तरह के अहंकारों के बोझ तले दबे रहते हैं। जनोपयोगी या उपयोगी या महत्त्वपूर्ण साहित्य की परिभाषा आज जनता नहीं तय करती, आलोचक तय करते हैं, वे प्रमाण-पत्र दें तो लेखक का जनसरोकार साबित हो वर्ना बौखते रह जाएँगे। कोई पुरस्कार नहीं मिल पाएगा। किसी भी पुरस्कार के निर्णय में जनता की भगीदारी नहीं होती। जाहिर है कि निर्णायक समिति के उच्‍च कुल-शीलोद्भव विशेषज्ञों का नयनतारा बनना अधिकांश लेखकों को फलदायी लगता है, उनके मिजाज और उनके एजेण्डों के अनुसार लिखना सार्थक लगता है। तुलसीदास या निराला या नागार्जुन हो जाना उनके धर्म-कर्म-मर्म के लिए अनैतिक है। पुरस्कार झपटने की तरकीब में व्यस्त इस दुनिया के लेखक चतुर-सुजान हो गए हैं। शायद यही कारण हो कि पुस्तक बाजार में वर्गीय साहित्य की भरमार होती जा रही है। रचनाओं की सहजता और बोधगम्यता इस तरह गायब हो गई है कि पाठक कृति से दूर होने लगे हैं। घोषित रूप से महान-महान लेखकों की रचनाएँ दिमाग की नसें हिला देती हैं, अकारण ही सामान्य जन साहित्य छोड़कर पापुलर राइटिंग की ओर तो नहीं भाग जा रहा है, कुछ तो कारण होगा? उपभोक्तावादी समाज के लेखक-आलोचक-प्रकाशक इस ओर नजर दें तो साहित्य का भला होगा। या कहें कि उनका ही भला होगा। और एक बेहतर समाज की पुनर्संरचना में उनकी भूमिका उल्लिखित होगी।
दरअसल सारी बातें जीवन-दृष्टि पर निर्भर होती है। जीवन संग्राम की लम्बी लड़ाई लड़ने के लिए इसी दृष्टि की जरूरत होती है। यह दृष्टि इन्सान को कई-कई दिशाओं से सहारा देती है। केवल वैयक्तिक अनुभव भर इसके लिए पर्याप्त नहीं है। प्रतिभा, परिश्रम, अध्ययनशीलता, कल्पनाशीलता, बौद्धिक-स्तर, सामाजिक समझ, मानवीय सरोकार, शील-संस्कार, संगति, साहित्य, समाज...सबका योगदान इसमें होता है। जाहिर है कि किसी व्यक्ति को अपनी जीवन-दृष्टि निर्धारित करने में समकालीन साहित्य से प्रभूत सहयोग मिलता है। ऐसे में यदि किसी काल के साहित्य का आचरण वर्गीय हो जाए, तो निश्चय ही उस काल का नागरिक परिवेश दिग्भ्रमित होगा, पुस्तकों से दूर भागेगा, पुस्तकों के विकल्प के रूप में वांछित-अवांछित उपकरण ढूँढेगा। इसलिए लेखकों, प्रकाशकों का सामाजिक कर्तव्य बनता है कि वे समाज और समय की जरूरत को देखते हुए पुस्तकें लिखें, और छापें; तथा आलोचकों का कर्तव्य बनता है कि वे सही समय में समाज को सही पुस्तक की सूचना दें। उनके उपदेशक होने का अहं और उस अहं की गरिमा तभी सुरक्षित रह पाएगी। इस स्थापना में कोई संशय नहीं कि पुस्तकें ज्ञान हैं, पुस्तकें आग हैं, पुस्तकें लाठी हैं, पुस्तकें एक प्रभालोक हैं, पुस्तकें बहुत कुछ हैं, लेकिन ये सारी चीजें तभी सम्भव हैं, जब वे पढ़ी जाएँ। इसके साथ यह तथ्य भी शाश्वत है कि साहित्य बोधगम्य हो, तो पुस्तकें जनोपयोगी होंगी; और किफायती कीमत पर उपलब्ध हो तो अधिक लोग पुस्तकें खरीद पाएँगे।
पुस्तक से आम पाठकों के सम्बन्ध तो फिर भी ऐच्छिक हैं, जिन शि‍क्षार्थि‍यों के सम्बन्ध अनिवार्य होने चाहिए, वे भी काफी दयनीय हो गए हैं। उनका काम अब कुँजी और प्रश्नोत्तरी से चल जाता है, पूरी किताब खरीदने, पढ़ने की अब न तो उन्हें इच्छा होती, न जरूरत। बैकडोर से काम हो, कम श्रम से अधिक लाभ हो, ऐसा कौन नहीं चाहता? स्थिति तो यह है कि शिक्षक वर्ग के अधिकांश लोग भी अब पुस्तक से सम्बन्ध रखना अच्छा नहीं समझते। आने वाली सन्ततियों और भावी पीढ़ियों के लिए यह खतरे की घण्टी है। विश्वविद्यालयीय और विद्यालयीय शिक्षा पद्धति की ओर सरकार को ध्यान देना चाहिए और पाठक-पुस्तक सम्बन्धों में दूरी उत्पन्न करने वाले घटकों को समाप्त करना चाहिए, ताकि आनेवाली पीढ़ियों की दृष्टि और ज्ञान कुन्द होने से बच जाए।
पुस्तक हमारा अलोकपुंज है। यही जीवन को जीने का आचार सिखाती है और आगे बढ़ने को हमारा पथ आलोकित करती है।

डि‍रेल्‍ड साहि‍त्‍यि‍क विवाद की हानि‍याँ Harms of Derailed Literary Controversy





'विवाद' का अर्थ यहाँ झगड़ा-झंझट नहीं है। विवादास्पद लेखन का अभि‍प्राय हिन्दी के साहित्यिक विवाद से है। साहित्यिक विवाद झगड़े की सीमा तक पहुँचकर झगड़ा नहीं होता। यह बौद्धिक बहस है, किसी विषय विशेष पर विचार-विमर्श है, विद्वानों के बीच तर्क-वितर्क है। प्राचीन परम्परा तो विद्वानों का समय इसी से कटता था--काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्/व्यसनेन च मूर्खानां निद्रया कलहेन वा।
इस नीति श्लोक में एक यह अर्थ भी छिपा हुआ है कि मूर्खों के बीच हो रही बहस कलह में परिणत हो सकती है, पर विद्वानों के बीच हो रहे कलह भी सृजनात्मक बहस का रूप ले लेता है।  
हिन्दी साहित्य में विवादों की दीर्घ परम्परा है। भारतेन्दु काल से ही विद्वानों के बीच वाद-विवाद होते रहे हैं। हमारे यहाँ वाद-विवाद बुद्धिजीवियों-विद्वानों का वैशिष्ट्य बना रहा है-- विरासत में झाँकें तो साबित होने में देर नहीं लगेगी कि शास्त्रों की प्राचीन परम्परा इसी का उदाहरण है। भरत, भामह, दण्डी, रुद्रट, शूद्रक...संस्कृत के समस्त लक्षणकारों के बीच दृश्य-काव्य, श्रव्य-काव्य, जैसी विधागत और रस, रीति, अलंकार जैसी काव्य की तत्त्वगत बातों को लेकर सहमति-असहमति, तर्क-वितर्क होते रहे हैं। आगे चलकर विद्वानों को दी जाने वाली उपाधियों का आधार भी वाद-विवाद अर्थात् शास्त्रार्थ ही होता था, धौत परीक्षा जैसा अनुष्ठान इस शास्त्रार्थ का ही एक रूप होता था। समय-समय पर सामन्तों, जमीन्दारों, शासकों के दरबार में बुद्धि विलास के लिए भी शास्त्रार्थ का आयोजन होता था, जिसमें ढिंढोरा पीटकर दूर-दूर के विद्वानों को विषय विशेष पर शास्त्रार्थ के लिए बुलाया जाता था। पर चूँकि ये सारी बातें वाचिक परम्परा में ही रह गईं, इसलिए आज लोक-कण्ठ के जरिए हम तक पहुँची हुई कई बातें किम्बदन्ती जैसी लगती हैं। इस तरह की बहसों का कोई आशुलेखन अथवा ध्वन्यांकन होता नहीं था, इसलिए यह परम्परा आगे तक जानी-समझी नहीं जा सकी, खड़ी बोली हिन्दी में भारतेन्दु युग में आकर यह वाद-विवाद, अर्थात यह शास्त्रार्थ, अर्थात् विषय विशेष पर विद्वानों का मतामत लिखित रूप में सामने आने लगा।
विवादास्पद लेखन से तात्पर्य वैसे लेखन से है, जो अन्य विद्वानों को तर्क-वितर्क करने के लिए उत्प्रेरित करे। यह परम्परा लिखित रूप में विकसित हो, इसकी गुंजाईश सर्वप्रथम सन् 1881 में लिखे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के निबन्ध 'नाटक' से बनी और द्विवेदी युग, छायावाद युग, प्रगतिवादी युग, नई कविता-नई कहानी होती हुई आज तक चली आ रही है। अन्तर सिर्फ इतना आया है कि प्रारम्भिक वाद-विवाद साहित्य के स्वरूप और साहित्य की श्रेष्ठता-पवित्रता को अक्षुण्ण रखने के निमित्त होता था, एक विद्वान के अभिमत को ध्वस्त कर दूसरे विद्वान, अपने मत की स्थापना हेतु ऐसा करते थे। पर, आज के विद्वान किसी विचार को ध्वस्त या स्थापित करने के लिए नहीं, व्यक्ति विशेष को ध्वस्त करने के लिए, योजनाबद्ध ढंग से भरास निकालने और व्यक्ति को कलंकित या खारिज करने के लिए विवादास्पद लेखन करते हैं। व्यक्ति केन्द्रित कहानी-कविता-निबन्ध लिखकर उसके चारित्रिक हनन का आयोजन आज कोई नई बात नहीं है। पत्रिकाओं में ऐसे दृश्य मौके-बेमौके दिखते रहते हैं।
विवादास्पद लेखन के आधार कई हैं। समय के बदलते तेवर के साथ इस कोटि के लेखन का कारण बनता रहा है। कभी साहित्य के रूप-स्वरूप, लक्षण-प्रयोजन को लेकर, कभी भाषा के स्वरूप निर्धारण को लेकर, कभी तथ्य के सम्भव-असम्भव को लेकर, कभी सामाजिक आचार-संहिता के खण्डन-मण्डन को लेकर, कभी साहित्य की श्लीलता-अश्लीलता को लेकर, कभी रचनाकार विशेष की श्रेष्ठता-हीनता पर व्यक्त स्थापना को लेकर, कभी स्थापित साहित्यिक धारा को लेकर, कभी साहित्य के शब्द संस्कार और विषय चयन को लेकर, कभी स्थापित सत्ता और धार्मिक भावना को लगी ठेस को लेकर साहित्य में वाद-विवाद होते रहे हैं। समय-समय पर साहित्य द्वारा राज-सत्ता अथवा समाज-सत्ता के विरुद्ध उठाए गए मुद्दों को लेकर कृति विशेष को प्रतिबन्धित भी किया जाता रहा है। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरण में सखाराम गणेश देउसकर द्वारा बंगला में लिखी गई पुस्तक 'देसेर कथा' (पं. माधव प्रसाद मिश्र द्वारा हिन्दी में अनूदित) अंग्रेजों द्वारा प्रतिबन्धित हुई, 'हिन्दू पंच' का 'बलिदान अंक', 'चाँद' का 'फाँसी अंक' आदि स्वतन्त्रता से पूर्व प्रतिबन्धित कर दी गई थी, प्रेमचन्द को बुलाकर उनके लेखन के लिए उन्हें खरी-खोटी सुनाई गई और उन्हें कुछ भी लिखने के लिए अनुमति लेने को कहा गया, तो उन्होंने नाम बदलकर लिखना शुरू किया और अब तो यह है कि उनका बदला हुआ नाम ही मूल नाम हो गया है। छद्म नाम से लिखने की परम्परा तो अभी भी है, जो विवाद से बचने की लेखकीय प्रवृत्ति को दर्शाता है। स्वातन्त्र्योत्तर काल में मुक्तिबोध की पुस्तक को प्रतिबन्धित किया गया। बिहार में डॉ. जगन्नाथ मिश्र के मुख्यमन्त्रित्व में प्रेस बिल लगाया गया था। सम्पूर्ण भारत में आपातकाल के दौरान सेन्सर बोर्ड की स्थापना हुई, जिसमें छपने वाली हर रचना उस बोर्ड से पास करवानी पड़ती थी। उस काल की कई ऐसी रचनाएँ अभी भी लेखकों के पास पड़ी हुई हैं, जिसे उस काल में उन्होंने सेन्सर बोर्ड के 'ज्ञानमुक्‍त' वि‍शेषज्ञों से सम्पादि‍त करवाकर प्रकाशि‍त करवाना अपने लेखकीय स्वाभिमान के वि‍रुद्ध समझा।...खैर, इन बातों की सूची लम्बी हो सकती है, हिन्दी में तो अब स्वतन्त्रता पूर्व की प्रतिबन्धित रचनाओं की मोटी-मोटी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अन्य भाषाओं पर नजर दें तो सलमान रुश्दी और तसलीमा नसरीन इसके उदाहरण हो सकते हैं। पर, यहाँ हमारा उद्देश्य विवादास्पद लेखन है, प्रतिबन्धित साहित्य नहीं। साहित्य पर प्रतिबन्धन जहाँ हमारे मन में निरंकुश शासक की दुर्वृत्ति का चित्र अंकित करता है, वहीं विवादास्पद लेखन उदारता और विद्वता और जनतान्त्रिक बोध का। इस अर्थ में हम प्रतिबन्धित साहित्य की चर्चा से बच निकलें तो बेहतर है।
हिन्दी के विवादास्पद लेखन पर चर्चा अभी तक न के बराबर हुई है। जबकि हिन्दी के सृजनात्मक और आलोचनात्मक--दोनों साहित्य के स्वरूप निर्धारण में इस घटना का महत्त्वपूर्ण योगदान है। हिन्दी-आलोचना के उद्भव का सारा श्रेय हिन्दी के प्रारम्भिक वाद-विवाद को ही जाता है। पर लोग इसे भूल गए हैं। सुखद है कि सन् 1857-1920 तक के साहित्यिक वाद-विवाद पर केन्द्रित डा. रमेश कुमार का शोध प्रबन्ध 'आरम्भिक हिन्दी आलोचना के विकास में साहित्यिक विवादों का योगदान'; सन् 1910-1940 तक के समय पर केन्द्रित डा. गोपालजी प्रधान का शोध-प्रबन्ध 'छायावाद युगीन साहित्यिक वाद-विवाद'; और उसके बाद के समय को ध्यान में रखते हुए डा. मृत्युंजय सिंह का शोध-प्रबन्ध 'प्रगतिशील आन्दोलन के साहित्यिक विवाद' जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बीसवीं सदी के अन्तिम दशक में पी-एच.डी की उपाधि हेतु लिखे गए। पर्याप्त श्रम और निष्ठा से लिखी गई ये पुस्तकें जब प्रकाश में आएँगी, तो साहित्यिक विवादों के प्रयास और परिणाम स्पष्ट होंगे।
भारतेन्दु ने अपने 'नाटक' निबन्ध में भारतीय परम्परा, सामाजिक वर्तमान आर पाश्चात्य प्रभाव को रेखांकित करते हुए हिन्दी के नाट्य लेखन पर बातें कीं थीं; समकालीन विद्वानों ने उस पर पर्याप्‍त तर्क-वितर्क किया। परिणामस्वरूप उस समय की रचनाशीलता और विधाओं का स्वरूप निर्धारित हुआ। उसी काल में सन् 1885 में लाला श्रीनिवास दास द्वारा लिखित नाटक 'संयोगिता स्वयंवर' प्रकाश में आया। कई विद्वानों ने इस नाटक की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस नाटक पर बदरी नारायण चौधरी प्रेमघन तथा बालकृश्ण भट्ट ने लिखकर अपनी बात रखी। प्रेमघन ने ऐतिहासिक नाटक के रूप में इसकी समीक्षा लिखते हुए न केवल इस नाटक के दोष बताए बल्कि उन विद्वानों के होश भी ठिकाने लगाए, जिन्होंने इसकी तारीफ की थी। इस विवाद से ऐतिहासिक नाटक के स्वरूप और नाट्य-समीक्षा, आलोचना आदि के प्रतिमान निर्मित होने लगे। इन सबसे पूर्व सन् 1876 में ही एक घनघोर साहित्यिक विवाद चला था; जिसके कुछ सूत्र अभी भी जीवित हैं। यह विवाद 'पृथ्वीराज रासो' को लेकर चला था। 'पृथ्वीराज रासो' नाम से छपी एक पुस्तक की पूर्व मौजूदगी के कारण चन्दवरदायी कृत 'पृथ्वीराज रासो' के प्रकाशन पर एशियाटिक सोसाइटी वालों ने रोक लगा दिया। पूरा विद्वान महकमा दो खेमों में बँट गया। एक चन्दवरदायी रचित इस कृति को मौलिक साबित करने के लिए अखाड़े में उतरे हुए थे, दूसरे इसे नकली साबित करने के लिए जान दे रहे थे। इसी बीच एक तीसरा खेमा निकल आया। यह खेमा 'चन्द' और 'पृथ्वीराज रासो' का अस्तित्व और उसकी मौलिकता तो स्वीकारते थे, पर प्रस्तुत पुस्तक को मौलिक न मानकर मौलिक का संक्षिप्त संस्करण मानते थे। इस विवाद के अनसुलझे सूत्र आज भी साहित्यिक खेमे में जहाँ-तहाँ लम्बित पड़े हैं।
भारतेन्दु युग में ही गद्य-लेखन और पद्य-लेखन की भाषा को लेकर वाद-विवाद शुरू हुआ था। खड़ी बोली हिन्दी को गद्य की भाषा के रूप में तो स्वीकार कर लिया गया था, पर पद्य इसमें नहीं लिखे जाते थे। खड़ी बोली के इतने बड़े पोषक स्वयं भारतेन्दु के लिए कविता की भाषा, ब्रजभाषा थी। ब्रजभाषा की कोमलकान्त शब्दावलियों के माधुर्य कविता के लिए आवश्यक समझे जा रहे थे। अयोध्या प्रसाद खत्री, बाबू महेश नारायण सिन्हा, गौरीदत्त आदि के अकूत प्रयास के बावजूद यह विवाद का विषय बना ही रहा कि पद्य की भाषा खड़ीबोली हिन्दी हो या न हो। अन्त में द्विवेदी युग में आकर इन लोगों की यह अभिलाषा पूरी हुई और लम्बे विवाद के बाद पद्य की लिए खड़ी बोली को स्वीकृति मिली।
उपन्यास का उदय काल भी भारतेन्दु युग ही है। सन् 1889 में भारतेन्दु का उपन्यास 'पूर्ण प्रकाश और चन्द्रप्रभा' प्रकाशित भी हुआ, जिसके मौलिक अथवा अनूदित होने पर विचार-विमर्श भी हुआ। प्रकाशकों द्वारा पुस्तक पर दी गई अपूर्ण और अपुष्ट जानकारी के कारण यह समस्या उत्पन्न हुई। किन्तु सन् 1882 में हिन्दी का प्रथम मौलिक उपन्यास 'परीक्षा गुरु' (लाला श्रीनिवास दास) प्रकाशित हो चुका था। भारतेन्दु युग सन् 1850-1900 तक के समय को माना गया है, भारतेन्दु का जीवन काल सन् 1850-1885 है। इस काल में कई अनूदित उपन्यास अथवा अन्य भाषाओं की कृतियों पर आधारित उपन्यास प्रकाशित हुए, पर सन् 1891 में जब देवकी नन्दन खत्री का उपन्यास 'चन्द्रकान्ता' प्रकाश में आया, 'चन्द्रकान्ता सन्तति' प्रकाशित हुआ, तिलिस्मी घटनाओं से भरे इस उपन्यास की कथा संरचना और घटनाक्रम पर उस काल के विद्वानों ने 'सम्भव-असम्भव' जैसे पदबन्धों के सहारे बहस करना शुरू किया, जिसका सीधा सम्बन्ध यथार्थवाद से जुड़ता था। अर्थात् उपन्यास की कथाओं में यथार्थ चित्रण की बात को लेकर लम्बी बहस चली। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में इस पर विस्तार से विचार-विमर्श हुआ। सुदर्शन, समालोचक, श्री व्यंकटेश समाचार आदि के साथ-साथ अन्य पत्रिकाओं ने भी इस विवाद में रुचि दिखाई। पं. माधव प्रसाद मिश्र तथा चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने गम्भीरता से इस बहस में भाग लिया और उपन्यास की कथाभूमि और घटनाक्रम को समाज के हितकारी बनाने की प्रवृत्ति पर बल दिया। इसी काल में किशोरी लाल गोस्वामी के उपन्यासों पर वृन्दावनलाल वर्मा और चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने खूब चर्चा की। घटनाओं की यथार्थता और पवित्रता को लेकर गम्भीर बहस चली। आगे आकर प्रेमचन्द के उपन्यास 'प्रेमाश्रम' पर जब रघुपति सहाय फिराक ने प्रशंसात्मक टिप्पणी की तो हेमचन्द्र जोशी ने इस उपन्यास की धज्जियाँ उड़ाने की हर कोशिश की।
बाद के दिनों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के समय में 'भाषा की अनस्थिरता' को लेकर वाद-विवाद लम्बा चला। आचार्य द्विवेदी 'भाषा की अनस्थिरता' को ध्यान में रखकर अपने विचार रख रहे थे, पर बालमुकुन्द गुप्त 'भाषा के व्याकरण' पर जोर दे रहे थे। सन् 1905 में 'सरस्वती' में प्रकाशित निबन्ध 'भाषा और व्याकरण' के ध्वन्यार्थ से बालमुकुन्द गुप्त को जब ऐसा आभास हुआ कि यहाँ भारतेन्दु को पूरा सम्मान नहीं दिया गया है, तो वे बड़े कुपित हुए। उन दिनों वे 'भारत मित्र' के सम्पादक थे। पत्रिका के नौ अंकों तक वे इस विषय पर निबन्ध लिखते रहे। उस समय द्विवेदी जी का एक निबन्ध छपा था--'कालिदास की निरंकुशता।' बालमुकुन्द गुप्त को यह बात नहीं सुहाई। उन्होंने इसके विरोध में 'निरंकुशता निदर्शन' शीर्षक से कई लेख लिखे। 'भाषा की अनस्थिरता' के सम्बन्ध में बाद में बदरीनारायण चैधरी प्रेमघन ने खीजकर 'मूर्ख' आदि जैसे शब्दों का प्रयोग करते हुए डाँट-डपट की भाषा में 'आनन्द कादम्बिनी' में 'नागरी समाचार और उसके सम्पादकों का समाज' शीर्षक से सम्पादकीय निबन्ध लिखा और विरोध किया।
भारतेन्दु युग का साहित्यिक विवाद बड़ी नाजुक परिस्थिति का विवाद था, यह दीगर बात है कि हिन्दी साहित्य का हर काल किसी-न-किसी कारण नाजुक बना रहा है। भारतेन्दु का काल साहित्य की भिन्न-भिन्न विधाओं के स्वरूप निर्धारण और तदनुकूल रचनाशीलता का काल था। इसलिए उस काल का विवाद उन्हीं परिस्थितियों के हिसाब से चला। द्विवेदी युग का विवाद 'साहित्य शास्त्र के निर्माण प्रक्रिया' से जुड़ी बातों पर बहस करते हुए दिख रहा है। इस बहस में मुख्यतया महावीर प्रसाद द्विवेदी, मिश्रबन्धु, बालमुकुन्द गुप्त, पद्मसिंह शर्मा, लाला भगवानदीन, कृष्ण बिहारी मिश्र के साथ और भी कई साहित्य-प्रेमी और भाषा-प्रेमी थे। इन्हीं दिनों देव-बिहारी विवाद चला। सारे शीर्षस्थ विद्वान दो खेमों में बँट गए। एक खेमा अपने तर्कों से यह मनवाने को आमादा था कि देव, इस काल का सबसे महत्त्वपूर्ण कवि है। इस खेमे में मिश्रबन्धु और कृष्णबिहारी मिश्र थे। दूसरे खेमे में पद्म सिंह शर्मा और लाला भगवानदीन थे। वे ठीक उनके विपरीत 'बिहारी' को सर्वश्रेष्ठ साबित करने पर तुले हुए थे। इस विवाद ने भी गम्भीर रुख पकड़ लिया। देव-बिहारी विवाद आज भी एक प्रतीक के रूप में चर्चा में आता है। इन्हीं दिनों मिश्रबन्धुओं का प्रथम आलोचना ग्रन्थ 'हिन्दी नवरत्न' प्रकाशित हुआ। इसमें हिन्दी के नौ श्रेष्ठतम कवियों पर आलोचनात्मक लेख था। इन नौ को भी वृहत्त्रयी, मध्यत्रयी, लघुत्रयी करके तीन खण्डों में बाँटा गया था। पर, कबीर का उल्लेख इसमें नहीं था। पूरे हिन्दी-जगत में इस बात को लेकर इतना बावेला मचा कि हारकर 'हिन्दी नवरत्न' के दूसरे संस्करण में मिश्रबन्धु को कबीर का समावेश करना पड़ा।
इसी काल के आस-पास पीछे से चल रही रीतिवादी काव्यधारा से समकालीन विद्वानों का मन खिन्न हुआ। लगातार नारी-देह, यौनोन्माद, नख-शिख वर्णन ने विद्वानों के मन में एक वितृष्णा-सी भावना उत्पन्न की। ध्येय यह था कि साहित्य में यदि जन जीवन की समग्र भावनाओं का चित्रण न हो, तो वह साहित्य किस काम का। रीतिवाद बनाम स्वच्छन्दतावाद का विवाद इसी धारणा के पक्ष-विपक्ष से शुरू हुआ और रीतिवाद से पिण्ड छूटा। फिर छायावाद युग प्रारम्भ हुआ। छायावाद काल में भी साहित्यिक विवाद हिन्दी कविता के स्वरूप, भाषा और छन्द को लेकर चलता रहा। फिर प्रगतिवाद का प्रवेश हुआ। राजनीतिक धारणा, यथार्थवाद, कलावाद, जनपक्षधरता, रसवाद, रूपवाद आदि कई जरूरी-गैरजरूरी मसलों पर काफी विचार-विमर्श हुए, तर्क-वितर्क हुए, भिन्न-भिन्न रचनकारों ने अपने-अपने मन्तव्यों को स्थापित करने की कोशिश की। 'उर्वशी विवाद' इसी दौर की एक उल्लेखनीय घटना है। इसी बीच देश आजाद हुआ। प्रयोगवाद की बुनियाद डाली गई। अकविता जैसी कई धाराओं को स्थापित करने की कोशिश हुई। नई स्थापना के साथ सप्तकों की कड़ी चली। नई कविता आई। नई कहानी, समान्तर कहानी, सचेतन कहानी, सक्रिय कहानी, अकहानी आदि-आदि कई कहानी आन्दोलन भी चले। और साहित्यिक विवाद चलता रहा।
यह कहने में कोई दुविधा नहीं रहनी चाहिए कि समय-समय पर चले इस साहित्यिक विवादों ने समकालीन विद्वानों के बीच तू-तू, मैं-मैं जितना चलवाया हो, आपसी सम्बन्धों को जितना भी रुखड़ा किया हो, पर साहित्यकारों के बीच सहनशीलता और तर्कशक्ति को प्रोन्नत करने का बहुत ही कारगर काम किया और हिन्दी आलोचना का आधार काफी मजबूत हुआ, हिन्दी आलोचना समर्थ हो गई।
सन् उन्नीस सौ साठ के बाद जो कुछ विवाद सामने आए, उनमें ज्यादातर कहानी और कविता को लेकर हुए। इस प्रसंग में कहा जाना चाहिए कि इस काल में स्‍वयं को समय का देवता बनाने की ललक बहुतों पर सवार थी, जिस कारण हर चौथे पाँचवें लेखक एक नए आन्दोलन का मैनीफेस्टो प्रस्तुत कर देते थे। यूँ, इस काल में साहित्य सृजन की स्तरीयता लगातार बढ़ती गई, साहित्य जनोन्मुख होता गया। थोड़ा बहुत कमजोर और वाहियात लेखन तो हर समय में होता रहा है।
बीसवीं शताब्दी के नौवें और अन्तिम दशक के साहित्यिक विवाद को साहित्य केन्द्रित कम, वैयक्तिक राग-द्वेष केन्द्रित ज्यादा कहा जाना चाहिए। यूँ तो इनमें से कुछ बातें छठे दशक से ही शुरू हो गई थी। कविता और कहानी को लेकर थोडे़ ही समयान्तराल में जितनी नई-नई स्थापनाएँ दी गईं, उनमें से हरेक में किसी न किसी स्थापित मान्यता को खण्डित करने की मंशा रहती थी। 'नई कहानियाँ' के वर्षगाँठ विशेषांक, मई 1961 में राजेन्द्र यादव का एक लेख छपा था 'आज की कहानी : परिभाषा के नए सूत्र।' इस लेख में राजेन्द्र यादव ने उस दशक की कहानियों की कुछ विशेषताएँ बताई थीं, कुछ स्थापनाएँ दी थीं, जो आपसी द्वैध और दिग्भ्रान्ति से भरी हुई थी। हरेक पंक्ति अपनी पिछली पंक्ति को खण्डित करती थी। इस निबन्ध के जवाब में 'लहर' के नई कहानी विशेषांक, अगस्त-सितम्बर 1961 में राजकमल चौधरी ने एक लेख लिखा--'कहानी : नई कहानी : पुरानी कहानी'। इस निबन्ध में राजकमल चौधरी ने न केवल राजेन्द्र यादव की, बल्कि फतबेवाजी करनेवाले हर व्यक्ति की प्रवृत्ति की ढंग से खबर ली। 'ज्ञानोदय' के जुलाई 1961 के अंक में 'बंगला की चार आधुनिक प्रेम कविताएँ' शीर्षक के अन्तर्गत दूधनाथ सिंह द्वारा अनूदित, टिप्पणी समेत कविताएँ प्रकाशित हुईं। ज्ञानोदय, अगस्त 1961 में प्रकाशित अपनी टिप्पणी में राजकमल चौधरी ने दी गई भ्रामक स्थापनाओं, और भ्रष्ट अनुवाद पर तीखी प्रतिक्रिया लिखी। प्रकाशन की सुविधा के कारण इस तरह के विवाद बाद में खूब हुए। पाठकीय प्रतिक्रियाओं की चर्चा और गिनती की जाए तो यह निबन्ध, एक शोध-प्रबन्ध हो जाएगा। 'राजेन्द्र यादव' द्वारा प्रकाशित, सम्पादित मासिक पत्रिका 'हंस' के दो स्तम्भ ही इस प्रथा को पुष्ट-सुपुष्ट करते हैं। 'बीच बहस में' तथा 'अपना मोर्चा' की हरेक रचना में वाद-विवाद की तीक्ष्णता दिखाई देती है। सन् 2000 में राजेन्द्र यादव ने नागार्जुन पर एक लेख लिखा, जो मैथिली की पत्रिका 'अन्तिका' में (अनूदित) छपा, साथ ही जून 2000 के 'हंस' के सम्पादकीय के रूप में हिन्दी में भी छपा। 'हंस' के ही 'बीच बहस में' स्तम्भ में उसके विरुद्ध नागार्जुन की सृजनशीलता को अपमानित करने वाली हरकतों का खण्डन किया गया।
हिन्दी में घटनाएँ होती रही हैं। फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास 'मैला आँचल' जब प्रकाशित हुआ, तब उसके प्रभाव और लोकप्रियता से ढेर सारे लोग कुपित हो उठे। उन कुपितों में कुछ वैसे नौसिखिए भी थे, जिन्होंने कदाचित 'रेणु' को पढ़कर लिखना सीखा हो! उन्होंने कलंक लगाना शुरू कर दिया कि यह उपन्यास सतीनाथ भादुड़ी के उपन्यास 'ढोढ़ाइ चरित' का अनुवाद है, बाद में स्वयं सतीनाथ भादुड़ी ने इस बकवासपूर्ण टिप्पणियों का खण्डन किया। उन्हीं दिनों राजकमल चौधरी की रचनाओं पर अश्लीलता का आरोप लगना शुरू हुआ, फिर कुछ उसके पक्ष में, कुछ विपक्ष में बातें आती रहीं, बाद में राजकमल चौधरी को घोषणा करनी पड़ी कि 'साहित्य में अश्लीलता आरोपित करने वाली 'पुलिस' मनोवृत्ति के लोग यह किताब न पढ़ें, उनकी सेहत के लिए यह अच्छा रहेगा।'
असल में छठे दशक के बाद हिन्दी साहित्य के लेखन संसार में दबी साँस से एक प्रवृत्ति जीवन पा गई, वह यह कि, जिस पेड़ को लाँघ नहीं सकते, उसे काट कर गिरा दो। ध्वस्त करने की यह परम्परा इसी प्रवृत्ति के कारण शुरू हुई और सदी के अन्तिम डेढ़ दो दशकों में इसकी साँस इतनी तेज हो गई कि नए तो क्या, पुराने लेखकों में भी यह प्रवृत्ति पूरी औकात के साथ जीने लगी। हो सकता है कि इन सबके लिए सबसे बड़े दोषी फणीश्वरनाथ रेणु और राजकमल चौधरी हों। ये दोनों अपने समय के इतने अधिक प्रतिभाशाली और अपने दायित्व के प्रति इतने अधिक ईमानदार निकले, कि इनके समकालीनों पर इनका आतंक छा गया। जब उन्हें लगा कि इनसे आगे जाना हमारे वश का नहीं, तब टीम बनाकर, आलोचकों की बाँह पकड़ कर, पूँजीपति साहित्य प्रेमियों की खुशामद कर, पत्रिका निकलवा कर, दोनों को ध्वस्त करने में लग गए। चूँकि इन दोनों के पास कोई पत्रिका नहीं थी, इनकी वकालत करने के लिए कोई धृतराष्ट्र आलोचक नहीं थे, इनमें आत्मप्रशंसा की प्रवृत्ति नहीं थी, खेमेबाजी पर विश्वास नहीं था, इसलिए इन पर लगाए गए आरोपों का खण्डन कम ही हो पाता था। बाद के रचनाधर्मियों में वैयक्तिक-ध्वस्तीकरण-यज्ञ की प्रतिभा ही प्रधान हो गई, शायद उसका मूल कारण यही हुआ हो।दशकों पूर्व डॉ. रामविलास शर्मा और नागार्जुन में मैथिली भाषा के अस्तित्व को लेकर एक विवाद चला था। दोनों की आपस में अच्छी मित्रता भी थी। पर मैथिली भाषा पर उठाए गए सारे सवाल रामविलास जी ने डॉ. जयकान्त मिश्र की पुस्तक 'ए हिस्ट्री आफ मैथिली लिटरेचर' से निकाले थे, जाहिर है कि वे इतने कमजोर सवाल थे कि नागार्जुन ने अपने एक निबन्ध से रामविलास जी की सारी जिज्ञासाएँ शान्त कर दीं और बाद में फिर यह चर्चा आगे नहीं बढ़ी। यूँ आज भी किसी मैथिली विरोधी को रामविलास जी का वह लेख कहीं दिख जाता है, तो आनन-फानन में वे बहस में कूद पड़ते हैं।
पवित्र धारणा से शुरू किए गए यज्ञ में होमकुण्ड बनाते, होमाग्नि डालते, हविस देते हुए यदि सावधान नहीं रहा गया, तो उस यज्ञ-कुण्ड की एक छोटी सी चिनगारी केवल यज्ञ-मण्डप नहीं, आसपास के गाँव को भी जलाकर राख कर देती है। इसका सीधा उदाहरण हिन्दी का साहित्यिक विवाद है। एक पुनीत धारणा के साथ भारतेन्दु युग से चली आ रही इस विशिष्ट परम्परा का ऐसा धर्म परिवर्तन हो जाएगा, प्रतिभा के मल्लयुद्ध का स्वरूप इतना घटिया हो जाएगा, यह बात भारतेन्दु, बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुन्द गुप्त, द्विवेदी, गुलेरी, निराला तो क्या, रेणु, नागार्जुन, राजकमल, रामविलास तक ने भी कल्पना नहीं की होगी। सारी असहमतियों के बीच इन लोगों का मूल धर्म साहित्य ही था। वैयक्तिक राग द्वेष और चारित्र-हनन की धारणा से प्रभावित वाद-विवाद की परम्परा पहले कभी नहीं हुई। पर वि‍गत तीन-चार दशकों की पत्र-पत्रिकाओं पर नजर डालें तो स्पष्ट दिखाई पड़ेगा कि नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, अशोक वाजपेयी, विद्यानिवास मिश्र, मैनेजर पाण्डेय किसी न किसी की तलवार की धार पर हैं।
गरज यह, कि वाद-विवाद से हिन्दी साहित्य को जो कुछ प्राप्त करना था, वह कर लिया। इस वाद-विवाद के जरिए जिस तरह समय-समय पर साहित्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन आए, अब उसी तरह 'वाद-विवाद' की मूल अवधारणा में कोई वैचारिक क्रान्ति आनी चाहिए। उदय प्रकाश को लक्ष्य बनाकर उपेन्द्र कुमार की एक कहानी पिछले दिनों प्रकाशित हुई 'झूठ की मूठ'। मेरी समझ से इस कहानी के जरिए यदि समाज को कुछ देने का अभिप्राय ढूँढ़ा जाए, तो वह दिखाई नहीं देगा। हाँ, इतना अवश्य दिखाई देता कि इस कहानी के जरिए उन्होंने उदय प्रकाश, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, गंगा प्रसाद विमल, राजेन्द्र यादव, भारत भारद्वाज आदि की खबर ले ली। उपेन्द्र कुमार जैसे प्रतिभाशाली कवि, कथाकार, समीक्षक से यह बात पूछी जाए कि उनकी मंशा क्या थी, तो किसी रंजिश के कारण बदले की भावना के अलावा और कुछ नहीं बता पाएँगे वे। पर स्वयं उदय प्रकाश भी अपने लेखन में इन हरकतों से बाज नहीं आए हैं--उनकी कई कहानियाँ इस बात का द्योतक हैं।
बहरहाल, वाद-विवाद की इस दीर्घ परम्परा ने हिन्दी आलोचना को बहुत कुछ दिया। आगे भी यह विवाद देता ही रहे, लेखन के सरोवर को गन्दा न करे, इसके लिए सम्पादकों को विवेकशील होने की ज्यादा जरूरत है। क्योंकि ज्यादातर लेखक अब शुक्राचार्य की तरह क्रोधाग्नि से जल रहे हैं, वे अब कुण्ठा का जीवन जी रहे हैं और क्रोध में गालियाँ देते समय सारा विवेक खो बैठते हैं। उनके गाली-गलौज से साहित्य प्रेमी भ्रष्ट न हों, इसके लिए जरूरी है कि वे उन्हें न परोसे जाएँ। जिम्मेदारी अभी सम्पादकों की बढ़ गई है, क्योंकि उन्हें किसी राम या रावण को नहीं, शुक्राचार्य को सम्भालना है।

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