Saturday, October 15, 2016

बाबा नागार्जुन : जि‍तने बड़े कवि‍, उससे भी बड़े मनुष्‍य Baba Nagarjuna: The Great Poet



बाबा नागार्जुन (वैद्यनाथ मि‍श्र यात्री) से मेरी पहली भेंट सम्‍भवतः 1985 में हुई। उससे पहले उनके बारे में पढ़ता रहता था। सन् 1980 के आसपास मैं सहरसा कॉलेज (बिहार) में बी.एस-सी. का छात्र था। वहीं कोई आयोजन हुआ था। मैथि‍ली-हि‍न्‍दी के उस दौर के दो महत्त्‍वपूर्ण कवि‍-- नागार्जुन और आरसी प्रसाद सिंह को काव्‍य-पाठ हेतु आमन्‍त्रि‍त कि‍या गया था। एक धुँधली-सी तस्वीर याद आती है कि किसी ने उन दोनों के स्‍वागत में एक कविता पढ़ी, जिसकी पहली पंक्ति थी शायद 'आ आरसी, ना नागार्जुन दोनों मिलकर हुआ आना', बाकी पंक्तियाँ भी इसी तरह कुछ थीं। कवि‍ता आधी भी नहीं पढ़ी गई कि‍ बाबा चि‍ढ़ गए। कोई इन्‍तजार कि‍ए बगैर उन्होंने उन्‍हें डपट दि‍या। कहा -- बन्‍द करो यह विरुदावली। सारे के सारे चौंक पड़े। कवि‍ महाशय तो शाबाशी की उम्‍मीद लगा बैठे थे, पर यहाँ तो आयोजक तक वि‍चलि‍त हो गए। मैं वि‍ज्ञान का छात्र था। साहि‍त्‍य एवं साहि‍त्‍यि‍क पत्रि‍काएँ पढ़ता अवश्‍य था, पर उस समय तक श्रेष्‍ठ साहि‍त्य की मेरी समझ स्‍पष्‍ट नहीं हुई थी, वैसे अभी भी क्या समझ है? पर बाबा का वह व्यक्तित्व मेरी स्मृति में दर्ज रहा।
जनवरी 1985 में मैं जी.एल.ए. कॉलेज डालटनगंज में मैथिली का लेक्चरर नियुक्त हुआ। वहीं से जाड़े की छुट्टि‍यों में घर जा रहा था। उन दि‍नों मेरे एक मित्र तारानन्द वियोगी (मेरी पीढ़ी के मैथिली के लेखक) पटना वि‍श्‍ववि‍द्यालय से संस्‍कृत में एम.ए. कर रहे थे। हर छुट्टी में तय कार्यक्रम के अनुसार पटना उतरकर उनको साथ करता था, फि‍र गाँव की ओर बढ़ता था। वे भगीरथी लेन (महेन्‍द्रू, पटना) में एक कि‍राये के कमरे में रहते थे। सुबह-सुबह मैं वहीं पहुँचा था। अच्‍छी-खासी ठण्‍ड पड़ रही थी। अभी पहुँचा ही था, कि तारानन्द वियोगी आदतन मेरे थैले-वैले की तलाशी लेने लगे। कोई नई किताब, कोई नई पत्रि‍का, जो मैंने उस बीच पढ़ी या खरीदी हो। इस क्रम में मेरे थैले का सारा सामान उनके बि‍स्‍तर पर फैला था। कपड़े-वपड़े तो कुछ होते नहीं थे, कि‍ताब-पत्रि‍काएँ ही रहती थीं। उस तलाशी में उन्‍हें मेरी लि‍खी एक ताजा कविता मि‍ली, जि‍से वे पढ़ने लगे। ऐन मौके पर दरवाजे पर दस्‍तक हुई। खोला, तो वहाँ बाबा यात्री को खड़ा पाया। मैं कुछ समझूँ इससे पहले ही वि‍योगी ने फटाफट कि‍ताबें कि‍नारे कर बाबा के बैठने के जगह बनाई। वे बैठ गए। उन दि‍नों बाबा भगीरथी लेन में ही हरिहर प्रसाद के यहाँ रुके हुए थे। हरिहर जी हि‍न्‍दी के प्रसि‍द्ध कहानीकार थे। बाबा उन्‍हें बहुत प्‍यार करते थे। पटने में होते तो अक्‍सर उन्‍हीं के घर रुकते थे।... उस वक्‍त वह छोटा-सा अति‍ सामान्‍य कमरा बाबा की भव्‍य उपस्‍थि‍ति‍ से मुझे अत्‍यन्‍त गरि‍मामय लग रहा था। वि‍योगी ने बाबा को मेरा परि‍चय दि‍या। उद्धरण की तरह उन्‍होंने बाबा से कहा कि‍ ये मूलत: साइन्‍स के छात्र थे, चोटी पर साहि‍त्‍य में आए। बाबा अपनी सहज मुस्‍कान के साथ मेरी तरफ देखते-देखते कमरे में बि‍खरे उन सामानों की तरफ देखने लगे। वि‍योगी द्वारा अचानक छोड़ी हुई मेरी उस अधपढ़ी कवि‍ता का पृष्‍ठ वहीं पड़ा था। बाबा की नजर से वह कवि‍ता कैसे बचती? उधर उँगली उठाते हुए उन्‍होंने कहावह कवि‍ता है क्‍या? वियोगी ने कहा-- जी बाबा, कविता है, दो दि‍न पहले नवीन ने लिखी है, अभी-अभी इनके थैले से निकली है। बाबा ने कहा सुनाइए।... मैं तो रोमांचि‍त हो उठा। सन् 1986 में, साहित्य की दुनिया में प्रवि‍ष्‍ट एक नए व्यक्ति को पहली ही भेंट में बाबा कहें कि‍ अपनी कवि‍ता सुनाइए। मेरे तो पांव के नीचे जमीन न रही। पुलकि‍त, हर्षि‍त मन से मैं सुनाने लगा। कवि‍ता समाप्‍त हुई। मैं तो यह उम्‍मीद कर रहा था कि‍ बाबा कुछ एक दो शब्‍द में प्रोत्‍साहन देकर दूसरी बात पर उतर जाएँगे, पर ऐसा हुआ नहीं। दरअसल उस कवि‍ता में कुछ गाँधीवाद का जिक्र था, बाबा ने उस कवि‍ता पर लम्‍बा-सा संशोधनात्‍मक वक्‍तव्‍य दिया और बताया कि इसमें आपके सोच में ये सब गड़बड़ि‍याँ हैं। परिणामास्‍वरूप मैंने उस कविता को बाबा के उतने भाषण के बावजूद सुधारा नहीं। वह कमजोर कविता मेरे जीवन की एक स्मृति है जो मैंने पहली बार बाबा को सुनाई और बाबा उस कविता के पहले स्रोता/पाठक हुए। मेरे दिमाग में बाबा इसी तरह दर्ज हुए।
फि‍र थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा-- चलो तुम लोगों को पान खिलाता हूँ। वि‍योगी का तो नहीं मालूम, पर मेरी खुशी का कोई ओर-छोर न था। कमरे में ताला लगाकर हम उस भगीरथी लेन में नि‍कल पड़े। महेन्‍द्रू की मुख्‍य सड़क में मि‍लनेवाली उस लेन में थोड़ी चढ़ाई थी। दोनों तरफ मैं और वियोगी, बीच में बाबा, तीन छोटे-छोटे बच्‍चों की तरह मजे से जा रहे थे। हम दोनों तो उनके सामने बच्‍चों की तरह थे ही, बाबा भी बच्‍चों की तरह ही कर रहे थे। हाथ में पकड़ी अपनी छड़ी की कहानी बताए जा रहे थेदेखि‍ए, यह छड़ी मैंने काठमाण्‍डू में खरीदी है, यह मेरी जीवन संगिनी है। इसकी कीमत बताइए।... ऐसे महात्‍मा के साथ चलते हुए मैं अपनी गम्‍भीरता बघारने से कैसे बचता! मैंने कहा-- बाबा, जीवनसंगि‍नी की क्‍या कीमत होगी। बाबा बोले-- कोई वस्‍तु अमूल्‍य अवश्‍य होती है, नि‍र्मूल्‍य कदापि‍ नहीं होती। फि‍र उन्‍होंने कुछ कीमत भी बताई। इसी बीच बाबा की नजर उस गली के बगलवाले मकान के बरामदे में चली गई। वहाँ एक सुन्‍दर-सी युवती टहल रही थी। वह अति‍शय मोटी थी, पर उसका मोटापा उसके सौन्‍दर्य में कोई बाधा उत्‍पन्‍न नहीं कर रहा था। बाबा उसकी ओर गौर से देख रहे थे। अच्‍छा तो हमें भी लग रहा था, पर बाबा साथ में हों, तो युवती का सौन्‍दर्य हमारे लि‍ए सम्‍मोहक क्‍यों होता? हम बाबा की अगली बातें सुनने के लि‍ए सावधान थे। इसी बीच बाबा ने छड़ी सहि‍त दोनों हाथ उठाकर अँजुरी जोड़े, और बोलेनमस्‍कार! हम दोनों की एक साथ हँसी छूट गई, फि‍र भयभीत भी हुए। क्‍योंकि‍ वह युवती वि‍योगी के मकान-मालि‍क की बेटी थी। हमें लगा कि‍ अब तो कुछ अघट जरूर घटेगा। शर्म के मारे वह युवती मुस्‍कुराकर जो पीछे भागी, तो ठाँय से अपनी चौखट से टकरा गई। फि‍र हम आगे बढ़ गए। हमें तो चि‍न्‍ता थी कि अब मकान-मालि‍क इस घटना पर वि‍योगी से सवाल करेंगे, पर बाबा को इस बात की कतई फि‍क्र न थी। अगले ही क्षण वे दूसरे प्रसंग में इस तरह उतर आए, जैसे कुछ हुआ ही न हो। गनीमत हुई कि मकान-मालि‍क तक वह बात नहीं पहुँची। वि‍योगी ने बताया कि‍ बाद में वह युवती उनसे पूछ रही थी-- वो बाबा फि‍र कब आएँगे? खैर...इन्हीं कथा-प्रसंगों के बीच हम महेन्‍द्रू मुख्‍य सड़क पर आ गए, एक पान-दुकान के सामने खड़े हुए। बाबा ने दुकानदार से कहा-- दोनों बच्चों को पान खिलाइए। बाबा ने भी बुरादे वाली सुपारी के साथ पान खाया, उन्‍होंने अपने कोट की जेब से पैसे नि‍काले, भुगतान कि‍या, और वापस चल पड़े। ज्यों ही पीछे मुड़े कि‍ देखा स्‍कूल, कॉलेज, युनिवर्सिटी जानेवाले छात्रों की साइकि‍लें बड़ी संख्‍या में कतारबद्ध खड़ी हो गईं। हमें तो नि‍कलने तक का रास्‍ता नहीं दि‍ख रहा था। जाड़े की सुबह थी। सारे छात्र उन दुकानों से अपने-अपने मतलब की वस्‍तुएँ-- चाय, पान, सि‍गरेट आदि‍ लेने में मशगूल थे। उन नई उम्र के छात्रों को हमारी दि‍क्‍कतों की फि‍क्र क्‍यों होती। जब तक हम दोनों कुछ करते बाबा एक साइकि‍ल के नि‍कट पहुँच गए। साइकि‍ल वाला छात्र भी तब तक वहाँ पहुँच गया। बाबा ने हाथ के इशारे से उन्‍हें साइकि‍ल हटाने को कहा। वह छात्र उनकी बात समझ नहीं पाया। उस नशे वाली उम्र में कोई नौजवान बुजुर्गों की बात सुनता-समझता भी कहाँ है! फि‍र बाबा बुदबुदाकर कुछ कहने लगे। वह फि‍र भी समझ नहीं पाया। ऐं-ऐं की ध्‍वनि‍ नि‍कालकर सवाल दुहराता रहा। एक तो बाबा यूँ ही मद्धम बोलते थे, उनकी आवाज तेज और सावधान रचना में होती थी, सामान्‍य व्‍यवहार में नहीं। दूसरा कि‍ उन्‍हीं दि‍नों बीमार से उठे थे। तीसरे मुँह में पान दबाए हुए थे। मैं और वि‍योगी घबराया हुआ था। सोचता था कि‍ कि‍सी भी तरह बाबा को गुस्‍सा न आए। अभी-अभी बीमार से उठे हैं, गुस्से की वजह से फि‍र न कुछ हो जाए। भय के मारे उन छात्रों से हम हाथ जोड़ने लगे, कहने लगेबन्‍धुवर, ये जैसा कह रहे हैं, मान लीजि‍ए, साइकि‍ल हटा लीजि‍ए, फि‍र मैं आपको सारी बातें स्‍पष्‍ट कर दूँगा। पर वे कहाँ सुननेवाले थे। अब बाबा से रहा न गया, उन्‍होंने आव देख न ताव, उस बूढ़ी हड्डी में न जाने कहाँ की ताकत आई, उन्होंने दाएँ हाथ से एक साइकि‍ल की कैरियर पकड़ी, और उठाकर आगे की ओर झटक दि‍या। अब क्‍या था, एक के बाद एक वहाँ जि‍तनी भी साइकिलें कतारबद्ध खड़ी थीं, सब के सब बारी-बारी से एक दूसरी पर गि‍रती गई। पल भर में सड़क जाम हो गई। और बाबा एकदम से मस्तमौला चलते बने। सारे छात्रों ने पहले तो ठहाके लगाए, पर तुरन्‍त भौंचक नि‍गाहों से बाबा की ओर देखने लगे। बाबा चले जा रहे थे, वियोगी बाबा के साथ हो लिए। मैंने सोचा कि‍ उन छात्रों को बात स्‍पष्‍ट कर दी जाए। उनसे पूछा-- आप इन्‍हें पहचानते हैं? उन्होंने कहानहीं, कौन हैं? मैंने पूछाबाबा नागार्जुन हैं, नाम सुना है? उन्होंने कहा-- नहीं। मैंने पूछाकहाँ पढ़ते हैं आप लोग? उन्होंने कहा-- पटना कॉलेज में। अब मेरे पास सि‍र पीटने के अलावा कोई उपाय न था। शिक्षण-व्यवस्था को कोसते हुए तेज कदमों से वापस हुआ।
उसी दि‍न या अगले दिन शाम को मैं और वि‍योगी, हरिहर प्रसाद जी के घर बाबा से मिलने गया। आगे वि‍योगी थे, पीछे मैं था, बाबा एक चारपाई पर लेटे हुए थे, वि‍योगी को देखकर उठते हुए बोलेवे साइन्‍सवाले वि‍द्यार्थी नहीं आए? तब तक मुझ पर नजर पड़ी। बोलेहाँ, आए तो। फि‍र अपने तकिए के नीचे से अपनी एक किताब निकाली, कि‍ताब का कवर पेज पलटा और कहा-- नाम बताइए? मैंने कहा-- नवीन नाम है मेरा...। पूरा नाम बताइए, कल तो कुछ और बताया गया था। मैंने कहा-- बाबा नाम तो सर्टिफिकेट में देवशंकर झा है, पर लोग नवीन कहते हैं। लिखते हैं तो देवशंकर झा नवीन लिख देते हैं।
अब उन्होंने किताब पर लिखना शुरू किया। मैं यह सोचकर पुलकि‍त था कि बाबा शायद अपनी यह किताब मुझे भेंट देंगे। फि‍र देखा कि‍ उस पर उन्‍होंने लिखा प्रिय...। मैं सोचने लगा मेरे लिए तो इनको आयुष्मान लिखना चाहिए, चिरंजीवी लिखना चाहिए, ये प्रिय क्यों लिख रहे हैं? फिर देखा कि प्रिय के बाद लगाया मित्र! मेरी उस समय की मन:स्‍थि‍ति‍ का आप अनुमान कर सकते हैं। मैंने फि‍र सोचा कि‍ हो न हो बाबा अपने किसी मित्र को यह कि‍ताब मेरे हाथों भेजेंगे। मित्र के बाद उन्होंने लिखा दे.शं. झा नवीन के लिए, सस्नेह नागार्जुन, निराला दिवस। अब आप उस समय की मेरी मनोदशा का अन्‍दाज लगाएँ। आज के लोग, तीन कविताएँ छप जाएँ, चार लोग नाम जान जाएँ, तो तुर्रम खाँ हो जाते हैं। आशीष की मुद्रा में आ जाते हैं। चेला मूड़ने लगते हैं। बाबा सन् 1985 में भी बाबा ही थे। और मैं एक प्रोबेशनर। अभी-अभी साहित्य में कलम पकड़ी थी। नतमस्‍तक था उस हद की उदारता के सामने।
उसके बाद फिर काफी दिनों तक कोई सम्‍पर्क नहीं रहा। उनके साथ कभी कोई पत्राचार भी नहीं हुआ। पर भक्‍ति‍ तो हृदय में बसी हुई थी। सन् 1991 में डालटनगंज की नौकरी छोड़कर मैं जे.एन.यू. आ गया, दुबारा पी-एच.डी. करने। यहाँ देखा कि पाण्डेय जी (प्रो. मैनेजर पाण्डेय) के यहाँ बाबा आते रहते हैं। पाण्डेय जी मेरे शोध-नि‍देशक नहीं थे, पर न जाने क्‍यों, उनसे ऐसी आत्‍मीयता बनी कि‍ उनके घर मेरा आना-जाना खूब होता था। बहुत प्‍यार मि‍ला उनसे। पाण्‍डेय जी के एक शोधार्थी रमेश जी (अभी श्रीवार्ष्‍णेय कॉलेज अलीगढ़ में हिन्दी के अध्‍यापक हैं) मेरे मित्र हैं, उन्‍हीं के साथ आते-जाते पाण्‍डेय जी सम्‍बन्‍ध सघन हुआ था। हम दोनों वहाँ बरवक्‍त आते-जाते रहते थे। बाबा से मि‍लने-जुलने का सि‍लसि‍ला फि‍र वहीं शुरू हुआ। उस दौरान पाण्डेय जी अकेले रहते थे। बाबा की आवभगत में उन्हें हमारी जरूरत भी पड़ती रहती थी। कभी-कभी सादतपुर से बाबा को ले आने या फिर सादतपुर पहुँचाने में मेरी जरूरत होती थी। धीरे-धीरे बाबा को भी मेरे साथ यात्रा करने में सहजता होने लगी थी। पाण्‍डेय जी भी मेरे साथ जाने के कारण बाबा के मामले में नि‍श्‍चि‍न्‍त रहते थे। बाबा के समस्‍त मनोभावों की रक्षा हेतु पाण्‍डेय जी अत्‍यधि‍क चि‍न्‍ति‍त रहते थे। बहुत आदर करते थे उनका। अपने हाथों दलि‍या बनाकर, कम्‍प्‍लान घोलकर बाबा को खि‍लाते-पि‍लाते मैंने पाण्‍डेय जी को कई बार देखा है। फिर कभी-कभी बाबा को जे.एन.यू. में रुकने की इच्छा जगती थी और अचानक कहते कि आज मैं दरियागंज जाऊँगा प्रकाशकों से मिलने। उस वक्‍त उनके साथ मैं जाया करता। इसी तरह उनके साथ उठने-बैठने का अनुभव बढ़ा, निकटता भी बढ़ी।
उल्‍लेखनीय है कि‍ बाबा कि‍सी भी प्रसंग को बड़ी पैनी नजर से देखते थे। एक दिन पाण्डेय जी से मि‍लने उनके घर गया तो देखा, बाबा अपने मैग्‍नि‍फाइंग ग्‍लास के सहारे कुछ पढ़ रहे हैं। मुझे देखते ही कहाआइए, आइए, आदरणीय नवीन जी! मैं थोड़ा सहम गया, मुझे लगा कि क्या बोल रहे हैं बाबा! कहीं कुछ अनजाने में कोई अभद्रता तो नहीं हुई मुझसे! पर अगले ही पल वे बोले--फादरणीय नागार्जुन जी से मिलिए। फि‍र मेरी जान में जान आई। उनका वि‍नोदी स्‍वभाव कभी भी कि‍सी को भी चक्‍कर में डाल देता था। फि‍र मैं बैठ गया। बाबा बोले--आजकल आप बहुत दिख रहे हैं इधर-उधर! असल में उसी बीच दो-तीन जगह काव्य-पाठ का आयोजन होना था, उनमें मुझे भी बुलाया गाया था। अभि‍प्राय यह कि‍ नि‍मन्‍त्रण-पत्र को भी वे इतनी सावधानी से पढ़ते थे। और, वहाँ अपने परिचितों का नाम देखकर उनकी स्मृति जाग्रत रहती थी। परि‍चि‍तों का नाम पढ़कर उनकी खबर अपनी स्मृति में दर्ज रखना बाबा की बड़ी विशेषता थी।
बाबा से जुड़े सारे लोग सहमत होंगे कि‍ जिस घर में प्रवेश उनका होता था, स्‍पष्‍टत: प्रवेश का कारण व्यक्ति होता था, पर वहाँ पहुँचकर बाबा, व्यक्ति तक अपना संबंध सीमित नहीं रखते थे। वे उस व्यक्ति के चूल्हे-चौके, जीवन-संसार-जंजाल तमाम प्रसंगों से जुड़ जाते थे। इसका एक अभूतपूर्व नमूना बताऊँ-- एकबार मैं उनको लेकर सादतपुर से लौट रहा था। जे.एन.यू. से टैक्‍सी (एम्बसेडर) लेकर उनको सादतपुर से लाने गया था। फिल्म निर्माता अनवर जमाल (उन्‍होंने बाबा पर भी फिल्म बनायी है) ने वह टैक्सी भेजी थी। सादतपुर मैं पहली बार गया था। बाबा वहाँ अपने बेटे श्रीकान्‍त मि‍श्र के घर थे। सादतपुर मुहल्‍ले में पहुँकर मैं टैक्‍सी से उतरा और वहाँ सड़क किनारे सब्जी बेच रही एक महिला से पूछा कि इस इतना नम्‍बर का मकान किधर है। नम्‍बर सुनते ही कई लोग, सब्‍जी वाले, मसाले वाले, पान वाले, चाय वाले सारे के सारे पूछने लगेअच्छा, तो आप बाबा के यहाँ जाएँगे? पूछा एक से, बताने लगे दस। इस घटना से आप अन्‍दाज कर सकते हैं कि एक कवि जि‍सका विश्वास निश्चय ही कभी कि‍सी आत्‍मप्रचार में नहीं रहा होगा, उन्‍हें उनके मुहल्‍ले का पान दुकानदार से लेकर सब्जी बेचनेवालियाँ तक इस तरह सम्‍मान देती थीं।
फिर श्रीकान्‍त जी के यहाँ पहुँचे, चाय-वाय पीकर वापस चले। टैक्सी में बैठे, अभी चार कदम भी न चले होंगे कि‍ बाबा ने पूछा--टैक्सी वाले का नाम क्या है? मैंने कहामुझे नहीं मालूम। उन्‍होंने कहापूछ लो (बाबा अब मुझे तुम कहने लगे थे)। मैंने टैक्‍सीवाले से पूछा-- भई आपका क्या नाम क्या है? टैक्सी वाले ने बड़ी बेरुखी से कहा-- मेरे नाम से के करोगे। मैं टैक्‍सीवाले की उस उद्दण्‍डता पर झल्‍ला गया। बाबा से कहा-- बाबा वह बताना नहीं चाह रहा है, छोड़िए ना। वे बोलेफि‍र भी पूछ लो। इस बार मैंने पूछाभई, बाबा जानना चाहते हैं, आप अपना नाम बता दीजि‍ए ना! टैक्सीवाला अब भी अपनी उजड्डता पर अड़ा रहा। कहा--के करोगे नाम जानकर ताऊ? फिर दूसरी-दूसरी बातें होने लगीं, रास्ता कटता गया। दुनिया जहान की बातें हुई। छोटी-छोटी ठिठोलियाँ हुईं, कई मजाक हुए। मैं इतना दुबला क्‍यों हूँ, कि‍तने दि‍नों पर कपड़े साफ करता हूँ, खाने की रुटीन क्‍या है, आदि‍-आदि‍।
महिषी (राजकमल चौधरी का गाँव) और राजकमल चौधरी के बारे में उनको बहुत अनुराग था। बाबा का बचपन महिषी में ही बीता था। वहाँ के बारे में वे बरवक्‍त कुछ-कुछ पूछते रहते थे। मेरा ननि‍हाल महिषी है और मेरे गाँव के बगल में है। राजकमल चौधरी पर काम करने के क्रम में उस गाँव में मेरा आना-जाना लगा रहा था। यह सब होते-हवाते हमलोग जे.एन.यू. के नि‍कट बेरसराय पहुँच गए। वहाँ मुझे कि‍सी दुकान से कुछ सामान लेना था। मैंने टैक्सी वाले से कहा-- भाई दो मिनट आप यहीं खड़े रहिए, मैं कुछ सामान लेकर आ रहा हूँ।... अब दो मिनट की जगह सम्‍भव है कि‍ पाँच मिनट लग गया हो। पर जब लौटा और टैक्सी में बैठा तो बाबा ने बताया कि इनका नाम राजेन्दर है। इनकी दो बेटियाँ हैं, इनकी शादी पाँच साल पहले हुई है, इनके पिताजी किसान हैं, इनको जलेबी बहुत अच्छी लगती है...। मैं चकित था कि इस आदमी से इतना सम्मानपूर्वक मैंने पूछा, इसने मुझे कुछ नहीं बताया और पाँच मिनट में बाबा ने ऐसा क्या जादू किया कि इसने अपने बारे में इतनी बातें बता दीं। फि‍र यह भी देखा कि‍ अब तक जि‍स ड्राइवर के ललाट पर बल पड़े हुए थे, वह प्रमुदि‍त था। उस ड्राइवर से न फिर कभी मेरी मुलाकात हुई, न बाबा की हुई होगी। स्वयं बाबा भी जानते होंगे कि‍ उनसे कभी भेंट नहीं होगी। पर वह व्यक्ति अभी सामने है, तो उसके बारे में जानना जरूरी है। इतना कुछ जानने की इच्‍छा, जिज्ञासा की यह प्रवृत्ति कि‍सी सामान्य मनुष्य को बड़ा मनुष्य बनाती है; और बड़े मनुष्य को बड़ा कवि बनाती है। बाबा की यह पद्धति मुझे लगातार उनके नि‍कट ले गई। इसके बाद फि‍र तो बाबा मेरी अनि‍वार्यता में शामि‍ल हो गए।
उनको महिषी जाने की बड़ी इच्छा हुआ करती थी। अक्सर चर्चा करते रहते थे। उन दि‍नों मैं नेशनल बुक ट्रस्ट में नौकरी करता था। मुझसे हर भेंट में कहते-- इस बार गर्मी की छुट्टी आने दो, मैं अरविन्द (अरविन्द कुमार, नेशनल बुक ट्रस्ट के तत्‍कालीन निदेशक) से कहकर तुम्हें दो महीने की सरकारी छुट्टी दिलाता हूँ, तुम मेरे साथ चलो महिषी, वहाँ दो महीने रुकेंगे।... पर वह कभी हो न सका।
सन् 1991-96 के बीच ही श्‍यामानन्द नाम के एक मैथि‍ल छात्र जे.एन.यू. में पी-एच.डी. कर रहे थे। वे भी मेरी ही लम्‍बाई के हैं। एक बार उन्‍होंने जानकारी दी कि‍ वे कहीं बाबा से मि‍ले। उनको उन्‍होंने प्रणाम किया, और बड़े अनुराग से मैथि‍ली में पूछाबाबा, चिन्हलौं? अर्थात् आपने पहचाना मुझे? बाबा ने नजर उठाई, देखा, और कहाहाँ, पहचाना, देवशंकर नवीन। और इतना कहकर चलते बने। तीन-चार और लोगों ने ऐसी जानकारी दी। इस घटना से लोगों ने यह अर्थ लगाया कि‍ वे मुझसे मि‍लती-जुलती उनकी लम्बाई की वजह से ऐसा करते थे। पर, मुझे ऐसा नहीं लगता। उनकी चयन-दृष्‍टि‍ स्‍पष्‍ट थी, जि‍स प्रसंग में वे घुसना नहीं चाहते थे, उस पर इसी तरह कन्‍नी काटकर नि‍कल जाते थे। याद करने पर ऐसे कई प्रसंग सुनाए जा सकते हैं।
साहित्य के अलावा अन्‍य कि‍सी वि‍षय पर उनसे कभी मेरी बातचीत नहीं हुई। मैथिली की रचनाशीलता पर वे बड़े चिन्‍तित रहते थे। मैथिली के कुछ लोगों को अत्यधिक प्यार करते थे। जब-तब मुझसे चर्चा भी किया करते थे। मेरी ही पीढ़ी के हैं केदार कानन। उनको वे अति‍शय स्‍नेह करते थे। सारी कहानी बताना तो मुश्किल है। एक घटना का जि‍क्र करता हूँ। उन दि‍नों केदार की एक विचित्र आदत थी। वे यात्रा से बहुत घबराते थे। वे मैथिली के बहुत बड़े रचनाकार रामकृष्ण झा कि‍सुन के बेटे हैं। इसके साथ ही वे स्‍वयं मैथिली के स्‍थापि‍त रचनाकार हैं। श्रेष्‍ठ पुस्‍तकों के संग्रह और विश्व साहित्य के अवगाहन का उन्‍हें बहुत शौक है। उन दिनों केदार मैथिली में एक पत्रिका सम्‍पादित किया करते थे। उस पत्रि‍का के लि‍ए मुझ पर जोर दे रहे थे कि‍ मैं बाबा से कोई मैथिली कविता लि‍खवाकर उन्‍हें भेजूँ। हर सप्ताह केदार का एक पोस्टकार्ड आ जाता था। टेलीफोन का चलन था नहीं, चि‍ट्ठी ही एक सहारा था। साथ ही साथ वे बाबा को भी पोस्टकार्ड भेजते थे। एक दिन, दो दिन, तीन दिन पर जब कभी बाबा से भेंट होती, मैं तगादा कर देता-- बाबा केदार ने कहा है कि‍ एक कविता के लिए आपको चिट्टी लिखी है। कभी अपनी ही तरफ से वे कह देतेदेखो, ये जो तुम्हारा केदार है, मुझको कहता है कि मैं मैथिली में कविता लिखूँ। अब बताओ कि जब तक कण्‍ठ में, जीभ पर माँगुर मछली का स्वाद न जाए, कान में मैथिली के सोहर-समदाओन की रागि‍नी न गूँजे, मैथि‍ल अंचल की फसलों की हवा नाक में न जाए, मैथिली में बात न करें, तब तक मैथिली में कविता कैसे लिखी जा सकती है? कविता लिखने की उनकी यह पद्धति‍ सुनकर एक बार फि‍र सन् 1985 की भेंट में हुई बातचीत याद आ गई। उन्होंने कहा था कि कुछ बांग्ला कविताएँ लिखनी है, इसलिए मुझे कलकत्ता जाना है। अज्ञानतावश मैं बोल पड़ाबाबा, जब आपको बांग्ला भाषा आती है, तो बांग्ला कविता लिखने के लिए कलकत्ता जाने की क्या जरूरत है। आप तो यहाँ बैठ कर भी लिख सकते हैं। मैं उनकी बगल में ही बैठा था। उन्होंने मेरे सिर पर पीछे से एक चाँटा दे मारा और कहामन्दबुद्धि‍! कविता भाषा-ज्ञान से नहीं लिखी जाती। वातावरण से प्राप्‍त अनुभूति‍ से उपजती है।... हालाँकि केदार के लि‍ए उन्‍होंने दि‍ल्‍ली में ही बगैर माँगुर मछली का स्वाद चखे, बगैर सोहर-समदाओन की रागि‍नी सुने, बगैर मैथि‍ल अंचल की फसलों की हवा सूँघे मैथि‍ली में कवि‍ता लि‍खी। एक दिन पाण्डेय जी के घर बैठे थे, इधर-उधर की सारी बातें हुईं। चलने लगे तो अचानक से बोलेसुनो, कल सुबह आकर अपने केदार के लिए कविता ले जाना। अगले दिन गया तो वाकई मैथिली कविता तैयार थी। मैं भी प्रसन्‍न था, कवि‍ता पाकर केदार भी बहुत प्रसन्‍न हुए।
केदार से जुड़ी एक ममतामय बात और है। वे उन दिनों बेरोजगार थे। नौकरी नहीं थी। पर बाबा की लगातार इच्छा रहती थी कि केदार कानन घूमें, यात्रा करें। वे हर बार कहते नवीन, तुम नौकरी करते हो, तुम्‍हें तो कोई दि‍क्‍कत है नहीं। दि‍ल्‍ली में दस-बीस दिन या महीना दिन केदार के रुकने की व्यवस्था कर दो। उसके आने-जाने के लिए टिकट की व्यवस्था मैं कहीं से करवा दूँगा। उसको बोलो कि घूमे-फि‍रे। घूमने-फि‍रने से ज्ञान बढ़ता है, अनुभव बढ़ता है, रचनात्मकता में भी दमखम आता है।...बाबा के हृदय में केदार के लि‍ए इस अनुराग को देखकर मुझे ईर्ष्‍या होती थी। केदार से कहा भी। पर वे कहाँ आए कभी...?
बाबा से किसी ने एक बार पूछा कि आप आत्मजीवन चरित क्यों नहीं लिखते? उन्होंने कहा-- मेरी सारी रचनाओं को मिला दो, मेरा आत्मजीवन चरित हो जाएगा। तथ्‍यत: बाबा का नि‍जी जीवन जन-जन की जीवन-पद्धति‍ से रत्ती भर अलग नहीं था, उसका सहचर था। और, उनकी रचनाएँ जन-जन के जीवन का प्रति‍बि‍म्‍ब हैं। लि‍हाजा समग्रता में उनकी रचनाएँ उनका वास्‍तवि‍क आत्‍मजीवन चरि‍त ही हैं। जीवन और लेखन का एकात्‍म सतत उनकी रचनाओं में स्‍पष्‍ट हुआ है। उनकी गद्य रचनाएँ गद्यं कविनां निकषं वदन्‍ति’ (गद्य-कौशल ही कवि-कर्म की कसौटी है) के सूत्र को चरि‍तार्थ करती हैं। उनके गद्य इस बात के प्रमाण हैं कि‍ सचमुच जिसको अच्छा गद्य लिखने आ गया वही व्यक्ति अच्छी कविता लिख सकता है।
बाबा की मैथिली, हिन्दी दोनों ही भाषाओं की रचनाओं में तत्सम शब्दों की भरमार दि‍खेगी, कि‍न्‍तु उस कारण कहीं अर्थ-बाधा उत्पन्न नहीं होती। प्रतीत होता है कि‍ वह कि‍सी ठेठ गाँव की चलती-फिरती भाषा हो। कहीं कोई पाण्‍डि‍त्‍य नहीं। मक्‍खन की तरह फि‍सलती हुई बोधगम्‍य और कर्णप्रि‍य भाषा की वे रचनाएँ अकारण ही मोहक नहीं लगतीं। वि‍षय और भाषा-व्‍यवहार का सन्‍तुलन ही उनकी रचनाओं को प्राणवान बनाता है। जनजीवन के सामान्‍य व्‍यवहार से पगी उनकी रचनाओं में लोकजीवन की वृत्ति‍याँ कूट-कूट कर भरी हुई हैं। अपनी कि‍सी रचना में उन्‍होंने कहीं से दूर की कौड़ी लाने का उद्यम नहीं कि‍या। हर रचना जीवन की मौलि‍क अनुभूति से उपजी हुई हैं।
पारो उनका मैथिली उपन्यास है, हिन्दी में भी उसका अनुवाद उपलब्ध है। मैथिली में उनका दूसरा उपन्यास है नवतुरिया, वही उपन्‍यास हिन्दी में नई पौध नाम से है। साहित्य में जिस समय बाबा का प्रवेश हुआ, वह समय मैथिल समाज के लिए बहुत विकट समय था। पारम्‍परिक जीवन-व्यवस्था की जड़ता इस तरह व्‍याप्‍त थी कि‍ पूरा समाज एक छद्म जीवन जी रहा था। जी कुछ और रहा था, दिखा कुछ और रहा था। उस दौर का मैथिली साहित्य भी उसी जड़ता का पृष्‍ठपोषण कर रहा था। पूरी रचना-प्रक्रि‍या रजनी-सजनी के आँचल में उलझी हुई थी। मैथिली साहित्य विवाह, दहेज, भोग-वि‍लास, दैहि‍क उत्ताप जैसी मामूली स्थितियों से बाहर आने का नाम नहीं ले रहा था। बाबा से पहले मैथिली में कांचीनाथ झा किरणप्रगतिशील चेतना के साथ आ चुके थे। मैथि‍ली साहि‍त्‍य के ठहराव में, ठहरे हुए पानी पर जमी काई में गति‍कता की कंकड़ी मारकर वहाँ हलचल पैदा कर चुके थे। बहु-विवाह, बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, बेमेल-विवाह जैसी बदसूरत कुरीतियों पर मैथिल समाज की कुपि‍त दृष्‍टि‍ उठने लगी थी। फि‍र भी उस अलंघ्‍य सागर को लांघकर आगे जाना कठि‍न था। बौद्धि‍क पाखण्‍ड बदस्‍तूर कायम था। उनके सारे समकालीन रचनाकार उसी वैवाहिक सन्‍दर्भ, प्रेम और काम-क्रीडा के आस-पास घूमते नजर आ रहे थे। साहित्य-सृजन के उस जड़ीभूत वातारण में पारो जैसा उपन्‍यास लिखा जाना एक सुनियोजित नीति‍ का प्राथमि‍क सोपान था। अत्‍यन्‍त तर्कसंगत पद्धति से बाबा ने मैथि‍ली साहित्य को आधुनिक बनाया। मेरा तो दावा है कि‍ बाबा ने पारो लिखकर ठहरे हुए पानी में छोटी-सी कंकडी मारी, और कि‍नारे बैठकर मैथिल-समाज का उद्वेलन देखने लगे। खूब धूम मची। मैथि‍लों ने कहना शुरू कि‍या कि‍ यात्री जी ने यह क्‍या कि‍या है; भाई-बहन (पारो-बिरजू) का ऐसा रिश्ता अमान्‍य है, अगाह्य है। पर बाबा ने तो ऐसा कि‍या ही था उद्वेलन के लि‍ए। पारो की रचना का अभि‍प्राय दरअसल नवतुरिया की रचना की पृष्‍ठभूमि‍ बनाना था। पारो की रचना हुए बगैर नवतुरिया की रचना नहीं हो सकती थी।  अभि‍प्राय यह कि‍ 'नवतुरि‍या' (नई पौध) को आगे लाने में बाबा ने एक बेहतरीन रणनीति‍ अपनाई। अपनी एक कवि‍ता में उन्‍होंने इच्‍छा भी व्‍यक्‍त की है कि‍ 'नवतुरिए आबओ आगाँ' (अर्थात् नई पीढ़ी ही आगे आए)। मैथिली कविताओं में पुरानी पीढ़ी की बखिया खूब उधेड़ी है। उन्‍हें लगातार सलाह दी है कि आप नई पीढ़ी को समझिए, अपना ही राग मत आलापते रहिए। उसको आगे बढ़ने दीजिए, मन से आशीर्वाद दीजिए।
मनसा, वाचा, कर्मणा वे जीवन से, जमीन से जुड़े हुए कवि थे। एक रचनाकार के रूप में उनकी गहन जीवन-दृष्‍टि‍ और रचना-दृष्टि लोकसम्‍मत अनि‍वार्यताओं से सम्‍पोषि‍त थी। इस जीवन-दृष्‍टि‍ और रचना-दृष्टि के कारण ही वे अपने समस्‍त समकालीनों से भि‍न्‍न थे। आरसी प्रसाद सिंह उन्‍हीं के समकालीन कवि‍ हैं। जिस दौर में आरसी प्रसाद सिंह को गरजते मेघ, उमड़ते बादल देखकर प्रेमि‍का की कजरारी आँखें याद आईं, मन-मोर नाच उठा-- मेघ पड़ै छै, बूँद झड़ै छै, नाचै छै मन मोर रे। कोन प्रिया केर कजरायल दृग, आइ झड़ै छै नोर रे।बादल गरज रहा है, घटा छाई हुई है, बूँदें बरस रही हैं, कवि‍ का मन-मोर नाच रहा है, प्रतीत होता है कि प्रियतमा की कजरारी आँखों से आँसू झड़ रहे हैं। उसी दौर में वही मेघ जब बाबा को दिखता है तो बाबा कहते हैं'जखनहि गरजल इन्द्रक हाथी, छोड़ि नचारी गाबए लगला कृषक वृन्‍द मलहार।' यहाँ इन्द्र के हाथी का मतलब छाया हुआ मेघ है, इन्द्र बारिश के देवता हैं। ज्‍यों ही घटा छाई, मेघ गरजा, नचारी गा रहे कि‍सान, भगवत भजन में लीन किसान सब कुछ छोड़-छाड़ कर मलहार गाने लगे। उल्‍लेखनीय है कि‍ रोपाई के गीत को ही मलहार कहा जाता है। यहाँ बिम्‍ब और प्रतीक का अद्भुत प्रयोग हुआ है। यह बाबा की रचना-दृष्टि ही है, जो उनकी रचनात्‍मकता, रचनाओं के विषय-फलक एवं भाषा-वि‍धान को इस गहनता के साथ लोकजीवन से सम्‍बद्ध रखती है।
उनकी मैथि‍ली कवि‍ताओं के संग्रह चित्रा (1949) में सन् 1941 की लि‍खी एक कविता है कविक स्वप्न। उसमें बाबा ने मिथिलांचल और मैथि‍ल जनजीवन की रूढ़ियों को लेकर ढेर सारी बातें उसमें उठाई हैं। वृद्ध-वि‍वाह, बेमेल-वि‍वाह जैसी उस दौर की गन्‍दी प्रथा की कथा सुनकर भी आज जुगुप्‍सा उत्‍पन्‍न होने लगती है। पता नहीं उस समय के लोग उस प्रथा को बर्दास्त कैसे करते थे। ढलती उम्र में आकर वृद्ध जमीन्‍दार बारह-चौदह साल की कुँवारियों से शादी कर लेते थे। वंशवाद के नाम पर, श्रेष्ट कुलोद्भव ब्राह्मण होने के नाम पर उन कुँवारियों के माता-पि‍ता शादी कराने को राजी भी हो जाते थे। वह किशोरी जब तक जवान होती थी, बूढ़े जमीन्‍दार चल वसते थे। ऐसी ही वि‍कृति‍ को बाबा ने अपनी बूढ़ वर कवि‍ता में उजागर कि‍या है, और उस अकाल-वि‍धवा युवती की पीड़ा को जि‍स भयावहता से प्रस्‍तुत कि‍या है, उसे पढ़कर लोगों की साँसें फूलने लगती है। विलाप शीर्षक कवि‍ता में भी बाबा यात्री ने उसी वि‍डम्‍बना को रेखांकि‍त कि‍या है। कविक स्वप्न कविता में उन्‍होंने रूढ़ि‍यों एवं पुरातनों की भर्त्‍स्‍ना, नवता का स्‍वागत, नई पीढ़ी से समाज की अपेक्षा, नई पीढ़ी को उत्‍साह-लालकार से भर दि‍या है।
बाबा के इस प्रगति‍शील प्रयाण की उस दौर में उपेक्षा, अवहेलना भी खूब हुई। हालाँकि‍ उपेक्षा, अवहेलना, निन्‍दा का ऐसा प्रहार उस दौर में राजकमल चौधरी पर बाबा यात्री की तुलना में बहुत अधि‍क हुआ। कारण बे बाबा की तरह रणनीति‍ से नहीं चल रहे थे। बाबा जहाँ कदम-कदम बढ़ रहे थे, राजकमल छलांग मार गए थे, खुले तौर पर मैदान में उतर आए थे। उनकी 'स्‍वरगन्‍धा' (सन् 1959) संग्रह की कवि‍ताओं को काव्‍य के मैथुनी आसन पर बैठे जरद्गव कवि‍ दुर्गन्‍धा कहने लगे थे। बाबा देख रहे थे कि‍ मैथि‍ल जनजीवन में रूढ़ि‍याँ जि‍स तरह जड़ि‍याई हुई हैं, उन्‍हें नीति‍गत तरीके से ही उखाड़ी जा सकती है। उन्‍होंने सुनियोजित पद्धति से कविक स्वप्न कवि‍ता लि‍खी, एक कवि‍ की अकांक्षा व्‍यक्‍त की। पारो उपन्‍यास लिखकर सामान्‍य जन का मन टटोला, फिर नवतुरिया लिखा। यह उनकी नीति‍ का परि‍णाम है कि‍ वीभत्‍स रूढ़ि‍यों में जकड़ा मैथि‍ल समाज राजकमल चौधरी की आक्रामकता पर वाक्‍युद्ध तक ही सीमि‍त रहा। कविक स्वप्न  कवि‍ता के सारे दृश्य मिथि‍लांचल की रूढ़ि‍यों, जड़ताओं, पाखण्‍डों, अवांछि‍त और जनवि‍रोधी नीतियों के उदाहरण हैं। उसमें उन्‍होंने साफ-साफ कहासुनो कवि! हम ही हैं वह देवता। जिन्दगी भर जो अमृत-मन्थन करे, सुधा संचित करे, वे ही प्‍यास से मर रहे हैं, उसे ही जगत अमृत पीने से वंचित कर रहा है। असंख्‍य मेधावी बालक यहाँ अपढ़ रहकर गाय चरा रहे हैं। न जाने कि‍तने वाचस्पति, उदयन उपले चुन रहे हैं। कि‍तने तानसेन, रविवर्मा वागमती तट पर घास छील रहे हैं। बेशुमार कालिदास, विद्यापति भैंस चरानेवालों के झुण्‍ड में खोए हुए हैं। अन्‍न नहीं है, धन नहीं है, फि‍र गरीब के बच्‍चे कैसे पढ़ेंगे? इसलि‍ए हे कवि‍, तुम उठो! तनि‍क जोर से ललकारा दो, ताकि‍ पथिक-दल गिरि-शिखर पर चढ़े!... मि‍थि‍ला की ऐसी ही त्रासद व्‍यवस्‍था को देखकर उन्‍होंने 'नवतुरि‍ए आबओ आगाँ' कवि‍ता में आह्वान कि‍या कि‍-- युग-सत्य की आवा में भली-भाँति‍ पि‍घले सनातन आस्था, भली-भाँति‍ पके चेतन कुम्हार का नवनि‍र्मि‍त बर्तन, बूढ़े-बहरे कानों की कोई परवाह न करें, यह ताजा मन्त्र है कि‍ अब नई पौध ही आगे आए! रूढ़िभंजन वही करेगी, वही बढ़ेगी आगे। हम लोग तनि‍क निश्छल मन से उन्‍हें आशीर्वाद दें; न खींचें उनकी टाँग पीछे, अपने ही अमरत्व की ढेकी न कूटें...। उसी संकलन की एक कविता में उन्‍होंने देवाधि‍देव बाबा वैद्यनाथ को चुनौती दी है। महादेव के पौराणि‍क प्रतीक द्वारा उन्‍होंने उस दौर के देवताओं से पूछा है कि‍--तुम कि‍स तरह के ईश्‍वर हो! तुम्‍हारे सामने इस देश की स्‍त्रि‍याँ, अर्थात् गौरी फटी हुई साड़ी पहन रही हैं, तुम्हारे बच्चे कार्तिक, गणेश वनस्पति ऊबाल कर खा रहे हैं, जी रहे हैं। फि‍र भी तुम ईश्‍वर होने का दम्‍भ कैसे पाले हुए हो! असल में तुम ईश्‍वर नहीं, पत्‍थर हो, तुम्‍हारे सामने मेरा सि‍र कदापि‍ नहीं झुकेगा। प्रति‍पालक जब अपने पालि‍तों की बुनि‍यादी जरूरतें भी पूरी न करे, तो वह ईश्‍वर कैसे होगा, महान कैसे होगा, उसकी महत्ता का क्‍या मूल्‍य है? यह कवि‍ता देखने में जि‍तनी सहज है, ध्‍वन्‍यार्थ में उतनी ही गूढ़ है। सब जानते हैं कि‍ बाबा यात्री परम नास्‍ति‍क थे। उन्‍हें कि‍सी ईश्‍वर-उश्‍वर से कोई लेना-देना नहीं था। इसलि‍ए सुधी पाठक इस कवि‍ता के महादेव को महादेव न मानें, तो बेहतर होगा। यहाँ बाबा का जनसरोकार देखने योग्‍य है। वे जनता के पक्ष में त्रि‍काल के ईश्‍वर और अपने समय के ईश्‍वर से मोल-जोल कर रहे हैं, और उन्‍हें अपनी भी ताकत दि‍खा रहे हैं कि‍ तुम्‍हें यदि‍ अपने सामने मेरा सि‍र झुकवाना है तो पहले अपना दायि‍त्‍व नि‍र्वाह करो। त्रि‍काल और वर्तमान के ईश्‍वर की ऐसी फजीहत बाबा ही कर सकते थे।
अन्‍तिम दि‍नों में मैं बाबा से मिलने दरभंगा गया था। उन दिनों बाबा की पोती की शादी होने वाली थी और जैसा कि मैथि‍लों में होता है, किसी मैथि‍ल को इस बात का गौरव नहीं हो रहा था कि‍ यात्री-नागार्जुन के परिवार से मेरे यहाँ रिश्ता आया है। मैं पहुँचा तो देखा कि बाबा कुछ चिन्‍तित से लग रहे थे। मैंने बैठते ही पूछा-- बाबा कुछ सोच रहे हैं? यह ऐसा सवाल है कि‍ हर सामान्‍य व्‍यक्‍ति‍ कहेगानहीं तो! मैं कहाँ कुछ सोच रहा था! पर बाबा तो आवरणविहीन जीवन जीने वाले व्यक्ति थे, उन्होंने फौरन कहा-- हाँ सोच रहा था। मैंने पूछा--क्या? तो कहा-- देखो मनुष्य के जीवन की अस्सी प्रतिशत ऊर्जा विवाह और वैवाहिक समस्या में खप जाती है। मैंने कहाबाबा, बात मेरी समझ में उतनी नहीं आई।... यह बात मैंने इसलिए कही कि इस पर मेरी अपनी समझ जो भी हो, पर बाबा इसकी व्याख्या करें तो थोड़ा विस्तार से समझें। उन्होंने कहा-- देखो, ज्यों ही मनुष्य की चेतना विकसित होने लगती है, मतलब विवाह का दृश्य देखकर बच्चों की समझ में कुछ-कुछ आने लगता है, वह बच्चा विवाह को बड़े गौर से देखता है। वि‍वाह के सपने पालता है। वि‍वाह करता है। सन्‍तान उत्‍पन्‍न करता है। उसे योग्‍य बनाकर वि‍वाह कराना अपना दायि‍त्‍व समझता है। सारी ऊर्जा इस वि‍वाह और वि‍वाह की तैयारी में झोंक देता है और जीवन भर इस समस्या से जूझता रहता है। तो तुम लोग नई पीढ़ी के लोग हो और संसार के कई देशों में विवाहेतर मातृत्व की बात चल रही है। इस पर तुम लोग सोचो।... वैचारि‍क रूप से यह बात जि‍तनी भी महत्त्‍वपूर्ण हो, पर बाबा की उस दौर की भयावह पीड़ा इस वक्‍तव्‍य में स्‍पष्‍ट थी। फि‍र दूसरी बात यह, कि‍ जहाँ उस उम्र के मैथि‍ल वृद्ध शुचि‍तावादी मैथि‍ल आचार की पोटली बनाने में लि‍प्‍त थे, बाबा यात्री उस दौर के नौजवानों से भी आगे बढ़कर सोच रहे थे।
एक यात्रा में उनसे मि‍लने पहुँचा तो देखा कि‍ बाबा के सिरहाने में मनोरमा ईयर बुक रखा हुआ था। उनके सिरहाने में एक रेडियो हर समय पड़ा रहता था। समाचार सुनने के लिए। दैनन्दिन घटनाओं से अपडेट रहने के लिए वे हरदम बेचैन रहते थे। यह उनकी आधुनिकता की धारणा थी।
भ्रमण उनके जीवन का अभिन्न अंग था, जि‍सकी अनेकश: छवि‍याँ उनकी रचनाओं में जीवन्‍त हैं। दि‍ल्‍ली-भ्रमण और दि‍ल्‍ली-प्रवास भी उसी का अंश है। भ्रमण ने उनके अनुभव-संसार को नि‍रन्‍तर पुष्‍ट कि‍या। उनसे बात करते हुए सदैव प्रतीत होता रहता था कि‍ सम्‍भवत: अनुभव जुटाना, जनहि‍त में सोचना, और जन-साहि‍त्‍य रचना ही वे अपने जीवन अभि‍प्राय मानते थे। उन्‍हें लगता था कि‍ नि‍ष्‍ठापूर्वक लेखन करनेवाला व्‍यक्‍ति‍ अन्‍य कुछ नहीं सकता, या उन्‍हें नहीं करना चाहि‍ए, ऐसा करना लेखन के हि‍स्‍से का समय दूसरे काम में लगाना है। अर्थात् लेखन उनके लि‍ए पूर्णकालि‍क काम था। प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने बताया कि‍ एक बार बाबा जे.एन.यू. आए हुए थे। जाहि‍र है कि‍ वे पाण्‍डेय जी के यहाँ रुके हुए थे। पाण्‍डेय जी उन दि‍नों अकेले रहते थे। दोपहर में वि‍श्‍ववि‍द्यालय से घर लौटते, तो बाबा को खिला-पि‍ला कर सुला देते। और खुद दोपहर को वसन्‍तकुंज चले जाते। उन दिनों पाण्डेय जी ने वहाँ एक घर खरीदा था। उस घर में लकड़ी का काम चल रहा था। पाण्‍डेयजी उसी की देख-रेख करने चले जाते। इधर बाबा की नीन्‍द तो मक्‍खी की नीन्‍द होती थी। थोड़ी ही देर में जग जाते, और देखते कि पाण्‍डेयजी नहीं हैं। दो-तीन दिन का रवैया देखकर एक दि‍न उन्‍होंने पाण्डेयजी से पूछ दिया कि आप रोज-रोज दोपहर में कहाँ चले जाते हैं? पाण्डेय जी ने पूरी कहानी सुना दी। बाबा थोड़े गम्‍भीर हुए और बोलेन:, यह नहीं चलेगा। या तो घर ले लीजिए या लेखन कर लीजिए। दोनों नहीं हो सकता।...उनकी यह धारणा लेखन के प्रति‍ उनकी एकाग्रता और नि‍ष्‍ठा-समर्पण को आँकने के लि‍ए पर्याप्‍त है। लेखन उनके लि‍ए सचमुच पूर्णकालि‍क काम था। और इस बात पर वे अमल भी करते थे।
जब नेशनल बुक ट्रस्ट ने बाबा के उपन्‍यास रतिनाथ की चाची को आदान-प्रदान पुस्तकमाला में शामिल कराया तो बाबा के साथ आप एग्रीमेण्‍ट कराने की जिम्मेदारी एन.बी.टी. की तरफ से मुझे ही दी गई। उनसे एग्रीमेण्‍ट पर दस्तखत कराने मैं पाण्‍डेयजी के घर गया था। बाबा उन दि‍नों वहीं थे। दस्तखत करने के बाद बाबा ने एकदम बालसुलभ अन्‍दाज में मेरी दोनों कानें पकड़ीं, थोड़ी देर आराम से झूले, उसके बाद मेरे दोनों गाल थपथपाए, और बोले-- बच्चे कोई-कोई रचना सुहागि‍न हो जाती है। इस एक वाक्य में कि‍तनी बड़ी ध्वनि है। भारत की चौदह भाषाओं में होने वाले अनुवाद के अनुबन्‍ध से उस वक्‍त बाबा के चेहरे पर जो खुशी थी, उस खुशी का वर्णन नहीं कि‍या जा सकता, नि‍रखा जा सकता था। मुझे इस बात का दुख है कि मैं बाबा के जीते जी उस किताब का किसी दूसरी भाषा में अनुवाद मुहैय्या नहीं करा सका।
जे.एन.यू., सादतपुर या पूरी दिल्ली अपनी-अपनी तरह से बाबा की रचना में जगह पाती रही है, कभी रचना को पुष्‍ट कि‍या है, कभी खुद भी महि‍मामय हुआ है। भ्रमण, परि‍चय, सम्‍बन्‍ध आदि‍ के बढ़ते प्रसंग में बाबा जब तब कुछ न कुछ रचनात्‍मक निकलते रहे। उनके पास कुछ अलग दृष्‍टि‍ अवश्‍य थी, जि‍ससे वे वैसा कुछ देख लेते थे, जो और लोग नहीं देख पाते थे। कोसी नदी की बाढ़ को तो सब ने देखा, कि‍न्‍तु वरुण के बेटे उपन्‍यास तो सब ने नहीं लिखा, बाबा ने लि‍खा। बाबा के यात्री रूप, भ्रमण-शैली ने उनके परिचय क्षेत्र को बड़ा विस्तार दि‍या। वे जिस-जिस परिवार में गए उनके चूल्हे-चौके तक से उन्‍होंने सम्‍बन्‍ध बनाया। उनके समृद्ध रचनात्मक फलक में इन सारे अनुभवों का संकेत स्‍पष्‍ट मि‍लता है। वे सही अर्थ में यात्री थे, घूमते ही रहते थे। अपने वि‍राट साहित्यिक समाज को उन्होंने अपना परिवार बनाया।जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ, जनकवि हूँ मैं, साफ़ कहूँगा, क्यों हकलाऊँजैसी पंक्‍ति‍ बहुत बड़ा सन्‍देश है, जो उन्‍हें एक तरफ हकलाने से बरजता था तो दूसरी तरफ पूरे जनसमूह से पारि‍वारि‍क सम्‍बन्‍ध बनाने का अनुराग देता था।

Monday, September 26, 2016

हि‍न्‍दी तुलनात्‍मक साहि‍त्‍य के प्रथम आचार्य : जानकीवल्लभ शास्त्री First Companion of Hindi Comparative Literature: Janakiavallabh Shastri



छायावादोत्तर काल के सुविख्यात कवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री  का जन्‍म 05 फरवरी 1916 को मैगरा गाँव (गया, बि‍हार) में और नि‍धन 07 अप्रैल, 2011 को मुजफ्फरपुर (बि‍हार) में हुआ। उनके सक्रि‍य साहि‍त्‍यि‍क जीवन का कर्म-क्षेत्र मुजफ्फरपुर ही है। हि‍न्‍दी में रचि‍त उनकी कुल ति‍रपन कृति‍यों (बीस काव्य-संग्रह, पाँच आलोचना-संग्रह, तीन संगीतिका, चार नाटक, पाँच उपन्यास, पाँच कहानी संग्रह, एक ग़ज़ल संग्रह, एक महाकाव्य, सात संस्मरणात्‍मक कृति‍याँ, दो ललित निबन्‍ध-संग्रह) के अलावा संस्‍कृत में भी कई रचनाएँ उपलब्‍ध हैं। प्रारम्‍भ में वे संस्कृत में ही कविताएँ लिखते थे। महाकवि निराला की प्रेरणा से वे हिन्‍दी में आए। नि‍र्लि‍प्‍त साहि‍त्‍य-सेवा हेतु उन्‍हें भारत-भारती, राजेन्द्र शिखर सम्मान, शिवपूजन सहाय सम्मान से सम्‍मानि‍त कि‍या गया। आत्‍म-गौरव के प्रति‍ वे इतने दृढ़ रहते थे कि‍ दो बार (सन् 1994 और सन् 2010 में) उन्होंने भारत सरकार का पद्मश्री सम्मान लेने से मना कर दिया। 
वे संस्‍कृत, हिन्दी, बांग्ला, अंग्रेज़ी... अनेक भाषाओं में पारंगत थे। अल्‍पायु में ही वे अपने बहुभाषि‍क ज्ञान, वि‍षद अध्‍ययन और आलोचनात्‍मक वि‍वेक से परि‍पूर्ण रचना-दृष्‍टि‍ के लि‍ए ख्‍यात हो गए थे। उनकी आलोचनात्‍मक कृति‍याँ यद्यपि‍ पाँच ही हैं, पर अनुवर्ती पीढ़ि‍यों की शोध-दृष्‍टि‍ वि‍कसि‍त करने हेतु वे पर्याप्‍त हैं। वे अपने सम्‍पूर्ण लेखन में वस्‍तुनि‍ष्‍ठता, प्रमाणि‍कता, नैति‍कता के प्रति‍ आग्रहशील दि‍खते हैं। जनहि‍त एवं राष्‍ट्रहि‍त में रचनाओं की उपादेयता पर उनकी सावधानी एवं पाठ के प्रति‍ सहृदयता सदैव बनी रहती है। बहुभाषि‍क ज्ञान की बदौलत उन्‍हें मूल-पाठ के अवगाहन की सुवि‍धा थी। भाषा-ज्ञान की इस सुवि‍धा के परि‍पाक से नि‍श्‍चय ही उनका तुलनात्‍मक अध्‍ययन सम्‍पुष्‍ट हुआ होगा, कि‍न्‍तु तुलनात्‍मक-अध्‍ययन के लि‍ए इतना ही पर्याप्‍त नहीं होता। बेहतर तुलनात्‍मक-अध्‍ययन के लि‍ए वि‍वेकशील आलोचना-दृष्‍टि‍ की बड़ी भूमि‍का होती है। 
उल्‍लेखनीय है कि‍ बहुभाषा-ज्ञान एवं वि‍लक्षण आलोचना-दृष्‍टि के साथ-साथ सबद्ध साहि‍त्‍य-धाराओं की सूक्ष्‍मता से भी जानकीवल्लभ का गहन परि‍चय था। आलोचना-दृष्‍टि‍ में हासि‍ल महारत के कारण उन्‍होंने कभी कि‍सी रूढ़ हो गई विचारधारा की लीक नहीं पीटी। साहि‍त्‍य-सृजन हेतु उनकी अपनी जीवन-दृष्‍टि‍ थी, जि‍सका कि‍सी राजनीति‍क धारणा‍ से कोई करार न था। उनका जीवन-दर्शन अनुभूत-सत्‍य और नागरि‍क-जीवन की तर्कपूर्ण व्‍यवस्‍था से नि‍र्धारि‍त था। रचनात्‍मक सन्‍धान हेतु वे सतत लय, रस, आनन्‍द और ज्ञान-दर्शन को प्रश्रय देते थे। सम्‍भवत: यही कारण हो कि‍ उनकी रचनाएँ भावकों को कोलाहल से दूर ले जाकर शान्‍ति और थि‍रता देती हैं। जीवनानन्‍द के बाधक तत्त्‍वों पर सहजतम कि‍न्‍तु घातक व्‍यंग्‍य उनके यहाँ ठौर-ठौर दि‍खता है। आनन्‍द उनके यहाँ पाने की वस्‍तु है, छीनने की नहीं। कि‍न्‍तु जानकीवल्लभ शास्त्री की आलोचना-दृष्‍टि‍ पर वि‍चार करने से पूर्व एक नजर हिन्दी की आरम्‍भिक आलोचना के वि‍कास-क्रम पर डालते हैं।
तथ्‍यत: आरम्‍भिक हिन्दी आलोचना का वि‍कास साहित्यिक वाद-विवाद से हुआ है। भारतेन्दु हरि‍श्‍चन्‍द्र के नाटक शीर्षक निबन्‍ध, लालाश्रीनिवास दास रचि‍त नाटक संयोगिता स्वयंवर, पृथ्वीराज रासो की मौलि‍कता, भारतेन्दु युग में गद्य-पद्य की भाषा, भारतेन्दु रचि‍तपूर्ण प्रकाश और चन्द्रप्रभा के मौलिक या अनूदित होने के तर्क-वि‍तर्क, सन् 1850-1900 तक के समय को भारतेन्दु युग (जबकि‍ उनका जीवन काल सन् 1850-1885 ही है) की संज्ञा, तिलिस्मी घटनाओं से भरे उपन्यास चन्‍द्रकान्ता और चन्द्रकान्ता सन्तति की संरचना एवं घटनाक्रम के सम्‍भव-असम्‍भवहोने के तर्क, प्रेमचन्‍द रचि‍त प्रेमाश्रम पर रघुपति सहाय फिराक की प्रशंसात्मक और हेमचन्द्र जोशी की धज्जियाँ उड़ाती टि‍प्‍पणी, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के समय में भाषा की अनस्थिरतापर बहस, देव-बिहारी विवाद, हिन्दी नवरत्नवि‍वाद, रीतिवाद बनाम स्वच्छन्दतावाद, छायावाद काल में कविता के स्वरूप, भाषा और छन्‍द सम्‍बन्‍धी वि‍वाद...बेशुमार वि‍वाद हैं, जि‍नके व्‍यवस्‍थि‍त तर्कों और कई कुतर्कों से टकराकर हि‍न्‍दी आलोचना पुष्‍ट हुई है, और साहि‍त्‍य की वि‍भि‍न्‍न वि‍धाओं में सम्‍भावनाओं के नए-नए अँखुवे फूटे हैं। इन बहसों की शुरुआत सन् 1885 से हुई, और बहस बढ़ती गई। हि‍न्‍दी-आलोचना और साहि‍त्‍येति‍हास-लेखन का रूप नि‍खरता गया। 
बीसवीं शताब्‍दी के चौथे दशक का अन्‍त आते-आते हि‍न्‍दी में कई तरह के वि‍स्‍मयकर बदलाव परि‍लक्षि‍त हुए। उस काल तक आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल की प्रखर आलोचना-दृष्‍टि‍ से लोग परि‍चि‍त हो गए थे। नन्‍ददुलारे वाजपेयी, हजारीप्रसाद द्वि‍वेदी एवं रामवि‍लास शर्मा जैसे समालोचकों की आलोचना-दृष्‍टि‍ आकार लेने लगी थी। अल्‍प-वय जानकीवल्लभ शास्त्री की प्रखर आलोचनात्‍मक-दृष्‍टि की पहचान उन्‍हीं दि‍नों हुई। उसी बहुज्ञ पर्यवस्‍थि‍ति‍‍ में उनके आलोचनात्‍मक लेख पत्रि‍काओं में सम्‍मान पाने लगे। सन् 1936-1941 के बीच लि‍खे उनके नि‍बन्‍धों का बहुचर्चि‍त संकलन साहि‍त्‍य-दर्शन का पहला संस्‍करण (सन् 1943) आया। बीस-पचीस वर्ष की आयु में लि‍खे गए इन आलेखों को सुधी पाठकों का पर्याप्‍त सम्‍मान मि‍ला। हि‍न्‍दी के सुवि‍ख्‍यात आलोचक आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल के उत्‍कर्ष-काल में जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री की आलोचना-दृष्‍टि‍ को मि‍ली वह जनस्‍वीकृति‍ दि‍लचस्‍प थी। उन दि‍नों आचार्य शुक्‍ल के आलोचनात्‍मक लेखन की तूती बजती थी। कि‍न्‍तु जानकीवल्लभ शास्त्री ने उनके आलोचना-स्रोत की उस तीव्र धारा‍ को चुनौती देते हुए अपने लेख आलोचना का आदर्श में कहा कि‍ ''रामचन्‍द्र शुक्‍ल की आलोचनाएँ चरम-सत्‍य का फैसला नहीं देतीं। ऐसा करना उनकी शक्‍ति‍-सामर्थ्‍य के बाहर की बात है।''[1] कोई बेहतर आलोचकीय दृष्‍टि‍ का नमूना प्रस्‍तुत कि‍ए बगैर ऐसी उद्घोषणा असम्‍भव थी। अपने समय के स्‍थापि‍त समालोचक की आलोचना-दृष्‍टि‍ के शक्‍ति‍-सामर्थ्‍य को इस तरह चुनौती देना बहुत आसान नहीं था। इस वक्‍तव्‍य में छवि‍-भंग की अहंकारपूर्ण मंशा अथवा आत्‍ममुग्‍धता नहीं, बल्‍कि‍ एक सतर्क आत्‍मवि‍श्‍वास है। जाहि‍र है कि‍ उस आत्‍मवि‍श्‍वास का सूत्र आचार्य शास्त्री की आलोचकीय-क्षमता में तलाशना होगा। उनका यह आत्‍मवि‍श्‍वास गहन अध्‍यवसाय, तथ्यात्‍मक इति‍हास-बोध, मानवीय समाज-बोध एवं वि‍वेकशील तर्क-दृष्‍टि से परि‍पूर्ण था; जि‍सके प्रति‍मान उनके आलोचना-कर्म में तैनात हैं। 
हर सृजनशील मनुष्‍य उपलब्‍ध परि‍स्‍थि‍ति‍यों में अपनी प्रति‍भा, सुवि‍धा, अनुभव और सपनों के आश्रय से अपनी रचना-प्रक्रि‍या के लि‍ए जैसा दृष्‍टि‍कोण अर्जि‍त करता है वही उसकी जीवन-दृष्‍टि होती है। उसका सम्‍पूर्ण जीवन-क्रम उसी दृष्‍टि‍कोण से संचालि‍त होता है। जन, राष्‍ट्र एवं मानवीयता के पक्ष में उठी हुई उसकी हर चि‍न्‍ता और रचनात्‍मक-वि‍वेक उसी जीवन-दृष्‍टि‍ से नि‍र्देशि‍त रहता है। जीवन-दृष्‍टि नि‍र्धारि‍त कि‍ए बगैर जो कोई कलम उठाता है, वह लेखक नहीं, अपराधी है। आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के पूरे रचनात्‍मक उद्यम में उनकी सुचि‍न्‍ति‍त जीवन-दृष्‍टि स्‍पष्‍ट दि‍खती है। वे बेहद जनसरोकारी, दायि‍त्‍वबोध-सम्‍पन्‍न, राष्‍ट्र-हि‍त भावना से परि‍पूर्ण लेखक थे। उनका शि‍क्षार्जन बेशक संस्‍कृत पद्धति‍ से हुआ, कि‍न्‍तु वे वि‍राट अध्‍ययन-फलक और उदार वैचारि‍क दृष्‍टि‍ के लोग थे। पाश्‍चात्‍य साहि‍त्‍य से भी उनकी अन्‍तरंगता थी। सन्‍तुलि‍त वि‍वेक-दृष्‍टि‍ और कर्मनि‍ष्‍ठ सृजनात्‍मकता के सारे प्रति‍मान उनके यहाँ तैनात मि‍लते हैं। जन एवं राष्‍ट्र के सर्वतोन्‍मुखी वि‍कास की चि‍न्‍ता उनकी रचनात्‍मकता का मूल उद्देश्‍य था। वे पल-पल इस दि‍शा में चि‍न्‍ति‍त दि‍खते हैं। इस चि‍न्‍ता से इतर साहि‍त्‍य के अस्‍ति‍त्‍व की कोई कल्‍पना उनके पूरे रचना-कर्म में कहीं नहीं दि‍खती। उनका गहन इति‍हासबोध, बहुवि‍ध अध्‍यवसाय, जन एवं राष्‍ट्र-हि‍त-चि‍न्‍ता सदैव उनके कहन की स्‍पष्‍टता और नि‍र्भीकता को पुष्‍ट करती है। 
अपनी वि‍शि‍ष्‍ट कृति‍ साहि‍त्‍य-दर्शन के चौथे संस्‍करण के प्रकाशन के समय सन् 1967 में 'वेदना' व्‍यक्‍त करते हुए उन्‍होंने उस दौर के अन्‍य समालोचकों की लेखकीय प्रति‍बद्धता पर भी इशारे में बात की। उन्‍होंने लि‍खा कि‍ ''जब यह (ग्रन्‍थ‍) पहली बार प्रकाशि‍त हुआ था, तब आज के 'अशोक के फूल'[2] नहीं खि‍ले थे, 'कल्‍पलता' का भी पता नहीं था, होता तो कम-से-कम मैं यह अवश्‍य समझ लेता कि‍ 'साहि‍त्‍य कोई गढ़कुण्‍डेश्‍वर के पुदीने का बगीचा नहीं है कि‍ वि‍न्‍ध्‍याटवी में भ्रमण करनेवाला प्रत्‍येक अराजकतावादी जन्‍तु उसमें नाक घुसेड़े। उसमें एक शृंखला है; एक वि‍धान है, एक उद्देश्‍य है, एक साधना है।'[3] इतना ही नहीं, तब 'हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य : बीसवीं शताब्‍दी'[4] या 'आधुनि‍क साहि‍त्‍य'[5] के समान महान् आलोचनात्‍मक ग्रन्‍थ भी नहीं छपे थे, जो मेरे समकालीन वि‍शृंखल वि‍चारधारा को कूल-कि‍नारा बताते। साहि‍त्‍य-दर्शन के नि‍बन्‍ध (!) प्राय: बीस-बाइस की उम्र तक के हैं और मैंने अठारह-उन्‍नीस की उम्र से तो हि‍न्‍दी में लि‍खना शुरू ही कि‍या था।''[6] उल्लेखनीय है कि नन्ददुलारे वाजपेयी ने साहित्य-दर्शन शीर्षक पुस्तक के पहले संस्करण भूमिका लिखी है, और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने उस पहले संस्करण की समीक्षा की है।
अपनी आलोचना-दृष्‍टि‍ स्‍पष्‍ट करते हुए उन्‍होंने आलोचना का आदर्श शीर्षक लेख में साफ-साफ कहा कि‍ ''आदर्श आलोचना में यही देखा जाएगा कि‍ आलोच्‍य वि‍षय के साथ स्‍वयं तन्‍मय होकर वह कहाँ तक पाठक के संशय-सन्‍देह, जि‍ज्ञासा-कुतूहल को शान्‍त कर सकती है; उसे परि‍तृप्‍त तथा तन्‍मय कर सकती है; अपने में घुला-मि‍ला ले सकती है। उसे परमार्थ सत्‍य प्रदान करने का दम्‍भ तो करना ही नहीं चाहि‍ए। उसका काम पाठक के कि‍सी भाववि‍शेष, सौन्‍दर्यवि‍शेष की अनुभूति‍ के अयोग्‍य, अलस-नि‍मीलि‍त हृदय, स्‍वप्‍नि‍ल-तन्‍द्रि‍ल सहृदयता तथा सहानुभूति‍ को आवश्‍यकतानुसार उन्‍मि‍षि‍त, वि‍कसि‍त कर देना ही है। कृति‍कार के कलातत्त्‍व को उसने जैसा समझा उसे पाठक के हृदय में स्‍वच्‍छतया अंकि‍त कर देना, कलाकार ने जो कल्‍पना की पाठक को उसकी अनुभूति‍ करा देना, यही आदर्श आलोचना है।...आलोचक की सबसे बड़ी सफलता यही है कि‍ वह भ्रम से भी पाठक को यह सोचने का अवसर न दे कि‍ वे वि‍चार नि‍श्‍चि‍त रूप से मूल कृति‍कार के नहीं, अपि‍तु उसी आलोचक के हैं। और ऐसा तभी हो सकता है, जब वह आलोच्‍य वि‍षय के अन्‍तरंग में प्रवि‍ष्‍ट होकर, उसका मर्म मालूम करने के लि‍ए अहर्नि‍‍श साधना करता है, उससे एकतान होकर उसका अनाहत नाद सुन लेता है।''[7] 
वि‍डम्‍बना ही है कि जि‍स हि‍न्‍दी में बीस वर्ष के एक युवक की आलोचना-दृष्‍टि आठ दशक पूर्व ही इतनी परि‍पक्‍व हो गई थी, उस हि‍न्‍दी आलोचना का अधि‍कांश हि‍स्‍सा आज आलोचकीय दायि‍त्‍व से वि‍मुख है। आज के आलोचक आलोच्‍य वि‍षय के साथ तन्‍मय नहीं होते; पाठकों के संशय-सन्‍देह, जि‍ज्ञासा-कुतूहल को शान्‍त नहीं करते; पाठक को कृति‍कार के कलातत्त्‍व एवं कल्‍पना की अनुभूति‍ नहीं कराते; वे आलोच्‍य वि‍षय के अन्‍तरंग में प्रवि‍ष्‍ट नहीं होते, पाठ के मर्म तक पहुँचने हेतु साधना नहीं करते; रचना की अनाहत नाद सुनने की चेष्‍टा नहीं करते; वे मान्‍यता और पुरस्‍कार का प्रसाद बाँटते हैं। कृति‍यों और कृति‍कारों पर अवान्‍तर धारणाओं से फतवा जारी करते हैं। जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री की आलोचना-दृष्‍टि‍ आलोचकों को ऐसा करने से बरजती है और गहरी अन्‍तर्दृष्‍टि‍ की ओर उन्‍मुख करती है। 
कारयि‍त्री और भावयि‍त्री प्रति‍भा की बहस से बाहर आकर सोचने पर सृजनशील साहि‍त्‍य भी अन्‍तत: जनजीवन की आलोचना होती है। जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री की गहन आलोचना-दृष्‍टि के मद्देनजर उनका सम्‍पूर्ण रचनात्‍मक उद्यम मुझे समकालीन नागरि‍क-जीवन और आचार-संहि‍ता की ईमादार आलोचना ही लगती है। आलोचना को तो रचना का शेषांश माना जाता है। पर साहि‍त्‍यि‍क चर्चा में रचना है क्‍या? वह समकालीन भावयि‍त्री प्रति‍भा की सर्वेक्षण-परि‍णति‍ ही तो है! नागरि‍क-परि‍दृश्‍य में मनुष्‍य की आत्‍ममुग्‍धता, नि‍रर्थक बेचैनी और उद्देश्‍यवि‍हीन जीवन-यापन देखकर आचार्य शास्त्री को स्‍पष्‍ट दि‍खा कि‍--
सब अपनी-अपनी कहते हैं!
कोई न किसी की सुनता है,
नाहक कोई सिर धुनता है,
...
सब ऊपर ही ऊपर हँसते,
भीतर दुर्भर दुख सहते हैं!
ध्रुव लक्ष्य किसी को है न मिला,
सबके पथ में है शिला, शिला,
-मौज
बादलों की धृष्‍टता देखकर उन्‍हें गुस्‍सा आया, उसे उन्‍होंने फटकार लगाई, बादलों को उनकी अशक्‍यता याद दि‍लाई--
उतर रेत में, आक जवास भरे खेत में
पागल बादल,
शून्य गगन में व्‍यर्थ मगन मँड़राता है!
इतराता इतना सूखे गर्जन-तर्जन पर,
झूम झूम कर निर्जन में क्या गाता है?
...
रोमल, श्यामल मेष-शशक-सा विचर-विचर कर,
चरता है; परिणत गज-सा वह खेल दिखाता,
नटखट बादल,
जो भूखे-प्यासे को नहीं सुहाता है!
उतर रेत में, आक जवास भरे खेत में
चंचल बादल,
शून्य गगन में व्‍यर्थ मगन मँड़राता है!!
-कुपथ रथ दौड़ाता जो
गौर करने पर स्‍पष्‍ट होता है कि‍ मनुष्‍य, मानवीय आचरण, समाज-व्‍यवस्‍था, प्रकृति‍...हर कुछ को देखने, और उन पर अपनी राय कायम करने की बड़ी तटस्‍थ दृष्‍टि‍ उन्‍होंने प्रारम्‍भि‍क आयु में ही वि‍कसि‍त कर ली थी। जि‍स बादल को रसि‍क जन, प्रेमाकुल प्रेमी, कृषक समुदाय आदि‍ शुभागम मानते हैं; अपने सृजन-कौशल के सहारे जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री ने उसी बादल को पागल, नटखट, बौड़म साबि‍त कर दि‍या। उसके सूखे गर्जन-तर्जन और निर्जन में झूम-झूम कर नर्तन-गायन करने को व्‍यर्थ करार दि‍या। उसकी क्षमता को ललकारा कि‍ पागल बादल, व्‍यर्थ ही शून्य गगन में क्‍या  मँड़राता है! हि‍म्‍मत है तो आ, रेत में उतर, आक जवास से भरे खेत में उतर, जो बात भूखे-प्यासे को नहीं सुहाती, वह क्‍यों करता है! प्राकृति‍क उपादानों से तैयार ये प्रतीकार्थ इस कवि‍ता में अर्थ की कई परतें खोलते हैं।
कहते हैं कि‍ बाल्‍यावस्‍था की असह पीड़ा मनुष्‍य के जीवन-बोध को तीक्ष्‍णतर और उज्‍ज्‍वल बनाती है। उनकी नैसर्गि‍क प्रति‍भा से परांग्‍मुख नहीं हुआ जा सकता, पर यह भी सम्‍भव है कि अल्‍पायु में हुए मातृशोक से उनकी चि‍न्‍तन-पद्धति‍ की दि‍शा बदली हो।‍ पर्यवस्‍थि‍ति‍ को देखने का उनका अन्‍दाज कुछ भि‍न्‍न हो गया था। उल्‍लेखनीय है कि‍ जि‍स दि‍न उन्‍होंने बनारस जाने की अपनी जि‍द अपनी माँ को सुनाई, उसके अगले ही दि‍न उनकी माँ ने शरीर त्‍याग दि‍या। बालक जानकीवल्‍लभ ने उस पीड़ा को ताउम्र अपने प्राणों पर झेला। कि‍न्‍तु मातृसुख से वंचि‍त होने के दुख का उन्‍होंने जीवन भर सकारात्‍मक उपयोग कि‍या। जीवन भर वंचि‍तों, साधनवि‍हीनों, पशु-पक्षि‍यों को प्रेम लुटाया, उनकी वकालत की। बेजुबानों के जुबान बननेवाले जानकीवल्‍लभ तभी तो बारि‍श को उसकी औकात बताते हैं, उसके अवांछि‍त और अभद्र आचरण का अहसास कराते हैं--
क्या खाकर बौराए बादल?
झुग्गी-झोंपड़ियाँ उजाड़ दीं
कंचन-महल नहाए बादल!
दूने सूने हुए घर
लाल लुटे दृग में मोती भर
निर्मलता नीलाम हो गई
घेर अंधेर मचाए बादल!
-बौराए बादल
उनकी कवि‍ताओं में दर्ज ऐसे समस्‍त दृश्‍य एक अर्थ में सांसारि‍क वि‍धानों की आलोचना ही है। एक भावयि‍त्री प्रति‍भा द्वारा जुटाई हुई सर्वेक्षण-सूची।
समीक्षकों ने उन्‍हें तरह-तरह के वि‍शेषण दि‍ए। कि‍सी ने महाप्राण नि‍राला का अन्‍यतम उत्तराधि‍कारी माना; कि‍सी ने छायावाद का पंचम स्‍तम्‍भ, तो कि‍सी ने छायावदोत्तरकाल के मुखरतम वातावरण का सर्वथा भि‍न्‍न स्‍वर। यह उनकी वि‍लक्षण प्रति‍भा और रचनात्‍मक नि‍ष्‍ठा ही है कि‍ इनमें से कोई एक वि‍शेषण पूरे जानकीवल्लभ को नहीं समेट पाता। बहरहाल, उनमें एक वि‍शेषण और जोड़े जाने चाहि‍ए। हि‍न्‍दी में तुलनात्‍मक साहि‍त्‍य के सम्‍भवत: वे पहले आचार्य हैं, जि‍नकी तुलन-दृष्‍टि‍ का समुचि‍त लाभ आज तक के अध्‍येता नहीं ले पाए। तुलनात्मक-साहित्य के वि‍रले ही कि‍सी भारतीय चि‍न्‍तक ने लक्ष्‍य कि‍या हो कि‍ साहि‍त्‍य-दर्शन संकलन के तेइस में से चौदह नि‍बन्‍ध भारतीय तुलनात्‍मक अध्‍ययन के स्वरूप नि‍र्धारि‍त करते हैं। तुलनात्मक-साहित्य (कम्पैरेटिव लिटरेचर) ज्ञान की एक महत्त्‍वपूर्ण शाखा है। स्वतन्त्र अनुशासन के रूप में इसका वि‍कास उन्‍नीसवी शताब्‍दी के अन्‍ति‍म चरण में हुआ और विभिन्न विश्वविद्यालयों में इसके अध्ययन-अध्यापन को महत्त्‍व दिया जाने लगा। सन् 1848 में अंग्रेजी के कवि मैथ्यू आर्नल्ड ने सबसे पहले कम्पैरेटिव लिटरेचर पद का प्रयोग किया। भारत में सन् 1907 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विश्व-साहित्य का उल्लेख करते हुए साहित्य के अध्ययन में तुलनात्मक-दृष्टि की आवश्यकता पर बल दिया। दो पाठों के भाव-संवेदनाएँ-विचार-कला-सन्‍दर्भ के साम्‍य-वैषम्‍य का अनुशीलन तुलनात्मक-साहित्य का लक्ष्‍य होता है। 
अन्‍तर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर तुलनात्‍मक अध्‍ययन के तीन स्‍कूल-- फ्रेंच स्कूल, अमेरिकी स्कूल, जर्मन स्कूल-- माने जाते हैं। इस ज्ञानशाखा के स्वरूप एवं मानदण्ड निर्धारित करने में पीटर स्जो़ण्डी (सन् 1929-1971), जाक देरीदा (सन् 1930-2004), पियरे बौरदिए (सन् 1930-2002), लूसिए गोल्डमान (सन् 1930-1982), पॉल डी मान (सन् 1919-1983), जरशॉम शॉलम (सन् 1897-1982), थियोडोर अडोर्नो (सन् 1903-1969) जैसे विद्वानों की बड़ी भूमि‍का है। प्रारम्भ में तुलनात्मक-साहित्य को सहित्येतिहास की एक शाखा माननेवाले फ्रांसीसी चिन्तकों को बाद में प्रतीत हुआ कि इससे तुलनात्मक-साहित्य का सम्मानित स्वरूप आहत और साहित्य का सौन्दर्यमूलक पक्ष बेमानी हो जाएगा। फलस्‍वरूप व्यावहारिक और ठोस आलोचनात्मक दृष्टि की सहायता से उनलोगों ने साम्य-वैषम्य की तुलना और प्रभाव के सूत्रों के साथ अनुशीलन की संश्लेषणात्मक दृष्टि विकसित की। जबकि अमेरि‍की सम्प्रदाय की नजर में साहित्येतिहास की सामान्य संरचना के अन्तर्गत तुलनात्मक-साहित्य को ज्ञान की अन्य शाखाओं के साथ प्रदत्त पाठ के सम्बन्ध-बन्ध का अनुशीलन माना गया और साहित्यालोचन को तुलनात्मक-साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में स्वीकारा गया।
भारत में रवीन्द्रनाथ टैगोर (सन् 1861-1941) से पहले बंकि‍मचन्‍द्र चट्टोपाध्‍याय (सन् 1838-1894) शकुन्तला, मिराण्‍डा एवं डेस्डिमोना शीर्षक नि‍बन्‍ध में भारतीय तुलनात्मक दृष्टि का परि‍चय दे चुके थे। उल्‍लेखनीय है कि‍ जि‍न दि‍नों यूरोप में जाक देरीदा, पियरे बौरदिए, लूसिए गोल्डमान, पॉल डी मान, जरशॉम शॉलम, थियोडोर अडोर्नो जैसे विद्वानों का व्‍याख्‍यान आयोजि‍त करवाकर पीटर स्जो़ण्डी (सन् 1929-1971) जर्मन तुलनात्‍मक साहित्य का स्वरूप एवं मानदण्ड निर्धारित करने में लगे थे, उससे कई वर्ष पूर्व आचार्य जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री 'मुद्राराक्षस और जूलि‍यस सीजर' का तुलनात्‍मक अध्‍ययन प्रस्‍तुत कर चुके थे। दो पाठों के भाव, संवेदनाएँ, विचार, कला, सन्‍दर्भ के साम्‍य-वैषम्‍य का अनुशीलन प्रस्‍तुत कर चुके थे। उनके तुलनात्‍मक अध्‍ययन का कौशल रोमांचक और प्रेरणास्‍पद है। मीरा-महादेवी, मुद्राराक्षस-जूलि‍यस सीजर, दिंग्‍नाग-कालि‍दास, कालि‍दास-तुलसीदास, जयदेव-वि‍द्यापति‍, गीता-गीतांजलि‍, भक्‍ति‍-शृंगार, साहि‍त्‍य-राजनीति‍, साहि‍त्‍य-दर्शन... जैसे वि‍षयों पर प्रस्‍तुत उनके वि‍लक्षण तुलनात्‍मक-दृष्‍टि‍ की तात्त्‍वि‍क समीक्षा अभी तक नहीं की जा सकी है। उनके द्वारा हि‍न्‍दी में संस्‍थापि‍त तुलनात्‍मक-साहि‍त्‍य की नींव का संज्ञान अभी तक कि‍सी भारतीय वि‍द्वानों ने नहीं लि‍या है। जबकि‍ भारतीय-साहि‍त्‍य, अनुवाद-अध्‍ययन, और तुलनात्‍मक-साहि‍त्‍य में जुटे हर अध्‍येता के लि‍ए शोध एवं आलोचना की दृष्‍टि‍ से आचार्य जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री कृत साहि‍त्‍य-दर्शन एक अनि‍वार्य पुस्‍तक है। तुलनात्‍मक -साहि‍त्‍य से सम्‍बद्ध इस संकलन के चौदहो आलेख तो 'हि‍न्‍दी तुलनात्‍मक-साहि‍त्‍य' के आरम्‍भि‍क शास्‍त्र के रूप में देखा जाना चाहि‍ए। आचार्य शास्‍त्री ने इनमें जि‍न तुलनात्‍मक-वि‍धानों का उपयोग कि‍या है, वे चकि‍त करते हैं। जि‍न दि‍नों (सन् 1936-1941‍ के बीच) ये आलेख लि‍खे गए, भारतीय साहि‍त्‍य-धारा में इस पदबन्‍ध के नाम लेनेवाले भी गि‍नती के ही थे। तुलनात्‍मक-अध्‍ययन का कोई स्‍पष्‍ट वि‍धि-वि‍धान नि‍र्धारि‍त नहीं हुआ था। दुनि‍या के अन्‍य देशों के वि‍द्वान भी इसका स्‍वरूप तय ही कर रहे थे। 
वि‍शाखदत्त-शेक्‍सपि‍यर और कालि‍दास-तुलसीदास की तुलना करते हुए उन्‍होंने जि‍स तरह अपने इति‍हास-बोध, समाज-बोध, साहि‍त्‍य-बोध, मानवीयता और जीवन-दृष्‍टि का परि‍चय दि‍‍या है, वह वि‍लक्षण तो है ही, आज के आलोचकों के लि‍ए अनुकरणीय भी है। आलोचना एवं तुलना के उनके हर सूत्र जनजीवन की सहजता, मानवीयता, समाज और राष्‍ट्र की हि‍त-चि‍न्‍ता से सम्‍बद्ध होते हैं। वि‍दि‍त है कि‍ वि‍शाखदत्त रचि‍त मुद्राराक्षस सुखान्‍त और शेक्‍सपि‍यर रचि‍त जूलि‍यस सीजर दुखान्‍त कृति‍ है। ऐति‍हासि‍क पृष्‍ठभूमि के साथ दोनो राजनीति‍क नाटक हैं, दोनो में कई समानताएँ हैं। इसके बावजूद दोनो के रसास्‍वादन में अन्‍तर है, और इस अन्‍तर का कारण आचार्य शास्‍त्री उनका सुखान्‍त-दुखान्‍त होना नहीं मानते। उन्‍होंने तीनो नाट्य-तत्त्‍व---वस्‍तु, नेता, रस---पर सूक्ष्‍मता से वि‍चार कि‍या है। उन्‍हें राक्षस के आगे ब्रूटस और चाणक्‍य के आगे कैसि‍यस फीके नजर आते हैं। वे पात्रों के आचरण के आधार पर उसकी मानवीयता की भी परख करते हैं, उसका मूल्‍यांकन वे नैति‍कता के साँचे में करते हैं। उन्‍हें कैसि‍यस कुटि‍ल और अनैति‍क लगता है, क्‍योंकि‍ वह मि‍त्र के साथ प्रपंच करता है; कैसि‍यस को आचार्य जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री श्रेष्‍ठ कोटि‍ के राजनीति‍ज्ञ मानने को तैयार नहीं हैं। उन्‍हें उस नाटक की आत्‍मा खण्‍डि‍त दि‍खती है। राजनीति इस नाटक की आत्‍मा है, और उस राजनीति‍ के आचार्य कैसि‍यस अनैति‍कता के सम्‍पोषक, तो रचना की आत्‍मा खण्‍डि‍त होना स्‍वाभावि‍क है।‍ वे कहते हैं--''जनता की मनोवृत्ति‍ का, देश की गति‍वि‍धि‍ का, वि‍श्‍व की परि‍स्‍थि‍ति‍ का--संक्षेप में देशकाल का भी जि‍से सम्‍यक् ज्ञान नहीं; अच्‍छी पहचान नहीं; उसे उच्‍च कोटि‍ का राजनीति‍ज्ञ कैसे कहा जा सकता है?''[8] इस आलोचकीय दृष्‍टि‍ को शतस: नमन!
इसके प्रति‍कूल उन्‍हें कूटनीति‍ में पारंगत होते हुए भी चाणक्‍य कहीं खूँखार नहीं दि‍खते; शत्रु तक के साथ अनैति‍क आचरण करते नहीं दि‍खते; चाणक्‍य की नैति‍कता ही उन्‍हें उनकी सफलताओं की कुँजी लगती है। वे कहते हैं--''वैराग्‍य, नि‍र्लोभता, प्रशान्‍ति‍ आदि‍ भाव वि‍शेषकर भारत के ही हो सकते हैं, भारत का राजनीति‍ज्ञ भी इतना बड़ा तपस्‍वी होता है।''[9] इसी तरह वे ब्रूटस और राक्षस की तुलना करते हैं। ब्रूटस के उज्‍ज्‍वल, उन्‍नत, पवि‍त्र जीवन के बावजूद अपने परम वि‍श्‍वासी मि‍त्र जूलि‍यस की हत्‍या कर देने के कारण वे उसका सर्वनाश तय मानते हैं। जबकि‍ राक्षस को वे उससे उन्‍नत मानते हैं। उसके आत्‍मसमर्पण को श्रेष्‍ठ मानते हैं। वे मानते हैं कि‍ ''सर्वस्‍वत्‍यागी चाणक्‍य से प्राणत्‍यागी कैसि‍यस का या आत्‍मसमर्पणकारी राक्षस से आत्‍महत्‍याकारी ब्रूटस का ठीक-ठीक मुकाबला नहीं हो सकता।''[10]
मार्च 1936 में जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री अपने लेख 'कालि‍दास और तुलसीदास का शृंगारवर्णन (प्रति‍वाद)' में लि‍खते हैं कि‍ ''कवि‍कुलगुरु कालि‍दास तथा भक्‍तशि‍रोमणि‍ तुलसीदास के शृंगार-वैचि‍त्र्य के वि‍षय में एक तुलनात्‍मक आलोचना 'माधुरी' के गत अंक में प्रकाशि‍त हो चुकी है।...अश्‍लीलता की दुहाई देनेवाले के लि‍ए कालि‍दास से तुलसीदास की तुलना करना गलत है। कारण, कालि‍दास ने शृंगारप्रधान काव्‍य लि‍खे हैं और तुलसीदास ने भक्‍ति‍प्रधान।...मेघदूत का यक्ष और शकुन्‍तला का दुष्‍यन्‍त मर्यादापुरुषोत्तम नहीं; वे सांसारि‍क हैं, अतएव सांसारि‍क चि‍त्रण उनके चरि‍त्र की स्‍वाभावि‍कता के लि‍ए उतना ही आवश्‍यक हैं जि‍तना मर्यादापुरुषोत्तम की मर्यादि‍त भावनाओं की परि‍पुष्‍टि‍ के लि‍ए अलौकि‍क या असांसारि‍क चि‍त्रण।...कालि‍दास केवल आदर्शवादी न थे, फि‍र भी उनकी कला आदर्श से सूनी नहीं है।...तुलसीदास ने शृंगार का वर्णन वि‍स्‍तृत रूप में नहीं कि‍या, यह कोई वि‍शि‍ष्‍ट आदर्श नहीं है। वाल्‍मीकि‍ की यथार्थवादि‍ता तुलसीदास से उनकी न्‍यून प्रति‍भा होने का परि‍चय नहीं देती। सीता के स्‍तन में चोंच मारने की बात वाल्‍मीकि में भी बतलाई गई है। भक्‍त होने के कारण तुलसीदास उसे टाल गए तो इसके मानी यह नहीं कि‍ वाल्‍मीकि‍ या कालि‍दास की दृष्‍टि‍ शृंगारि‍क है। भक्‍ति‍ और कवि‍ता भि‍न्‍न-भि‍न्‍न वस्‍तु हैं। मुख का वर्णन करते समय भक्‍तकवि‍ की दृष्‍टि‍ चरणों पर ही कैसे रहेगी?''[11] इन तर्कों के सहारे जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री कहीं कि‍सी रचनाकार के उखाड़-ति‍रस्‍कार की बात नहीं की। उनकी साफ मान्‍यता है कि‍ प्रसि‍द्धि‍ के लि‍हाज से तुलसीदास कालि‍दास से तनि‍क भी कम नहीं, बल्‍कि‍ भक्‍त की दृष्‍टि‍ से बढ़कर भी हैं; पर इसके मानी यह नहीं कि‍ कवि‍त्‍व-कला के सूक्ष्‍म पर्यवेक्षणावसर पर वे कालि‍दास से बढ़कर हैं।[12] उनका तर्क है कि‍ कि‍सी श्रेष्‍ठ कलाकार का चरम उद्देश्‍य केवल चरि‍त्रगान करना नहीं होता। शृंगारवर्णन मात्र से कोई रचना असंयत और आदर्श-चि‍त्रण मात्र से कोई रचना संयत नहीं हो जाती। ऐसी राय बनाना कि‍सी चि‍न्‍तक के असंयम का द्योतक होगा। तुलसीदास की दृष्‍टि‍ नि‍श्‍चय ही सदैव आदर्श-चि‍त्रण की ओर रहती थी, पर इस कारण कालि‍दास के आदर्श को कम स्‍वच्‍छ नहीं कहा जा सकता। तुलना करते समय वि‍वेकशील दृष्‍टि‍ से पाठ की परख अत्‍यन्‍त प्रयोजनीय होती है। कालि‍दास के नायक दुष्‍यन्‍त एक राजा हैं, पूर्ण वयस्‍क, अनेक रानि‍यों के राजा, समस्‍त राजकीय भोग के अनुभवी; जबकि‍ तुलसीदास के नायक राम जनक की पुष्‍पवाटि‍का में एक कि‍शोर हैं, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए आए एक कुमार। इसलि‍ए समस्‍त सांसारि‍क अनुभवों से अवगत दुष्‍यन्‍त का शृंगारि‍क भाव ब्रह्मचर्यव्रतधारी राम के शृंगारि‍क भाव से नि‍श्‍चय ही भि‍न्‍न होगा।[13] 'माधुरी', जुलाई 1937 में आचार्य दिंग्‍नाग और कवि‍ कालि‍दास शीर्षक उनके तुलनात्‍मक लेख पर वि‍द्यावयोवृद्ध सेठ कन्‍हैयालाल जी पोद्दार ने जब उनके ज्ञान को चुनौती दी तो उस पर भी उन्‍होंने बड़ी ही शालीनता से कि‍न्‍तु व्‍यंग्‍यात्‍मक भाषा में जवाब दि‍या।[14]
खण्‍डन-मण्‍डन की ये प्रक्रि‍याएँ तो जीवन-वि‍धान के हर क्षेत्र में सदैव चलती रही हैं, खण्‍डन करनेवाले वे वि‍द्वान सम्‍भवत: उस दौर में यह अनुमान नहीं कर पाए होंगे कि‍ आगामी कुछ दशकों में आचार्य जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री का यह तुलनात्‍मक-अध्‍ययन ज्ञान की एक नई शाखा का रूप लेगा, जो दुनि‍या के उन्‍नत कहे जानेवाले राष्‍ट्रों के वि‍द्वानों की तुलनात्‍मक-दृष्‍टि‍ को भी चुनौती देगा। तथ्‍यत: तुलनात्‍मक-साहि‍त्‍य के क्षेत्र में आचार्य जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री द्वारा शुरू कि‍या गया प्रयास हि‍न्‍दी के लि‍ए तो नींव का पत्‍थर है ही, इस ज्ञान-शाखा के वि‍शेषज्ञ चाहें तो उनके इन नि‍बन्‍धों में छि‍पी वि‍लक्षण तुलनात्‍मक-दृष्‍टि‍ के सूक्ष्‍म सूत्र भी तलाश सकते हैं। उनकी तुलनात्‍मक-दृष्‍टि स्‍थान-काल-पात्र, इति‍हास-परि‍वेश‍-समाज की सूक्ष्‍मताओं को देखते हुए ही आगे बढ़ती है। भारतीय तुलनात्‍मक-अध्‍ययन को सम्‍पुष्‍ट करने हेतु उन सूक्ष्‍मताओं को गम्‍भीरता से पहचानने और उसे वि‍स्‍तार देने की बड़ी जरूरत है।




[1].  साहि‍त्‍य-दर्शन/कि‍ताबघर/2012/पृ. 73
[2].  गौरतलब है कि यह हजारीप्रसाद द्वि‍वेदी के बहुचर्चि‍त ललि‍त नि‍बन्‍ध का शीर्षक है।  
[3].  उल्‍लेखनीय है कि‍ आचार्य जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री ने अपनी कृति‍ साहि‍त्‍य-दर्शन (पृ. 9) में व्‍यंग्‍यार्थ उत्‍पन्‍न करने हेतु यह उद्धरण आचार्य हजारीप्रसाद द्वि‍वेदी नि‍बन्‍ध 'हम क्‍या करें?' के 'साहि‍त्‍य-सेवा का अधि‍कार सभी को है!' उपशीर्षक से लि‍या है। सन् 2007 में राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशि‍त कृति‍ कल्‍पलता के चौदहवें संस्‍करण में पृ. 132 पर इसे देखा जा सकता है। ‍
[4].  नन्‍ददुलारे वाजपेयी की कृति‍
[5]. नन्‍ददुलारे वाजपेयी की कृति‍
[6].  आचार्य जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री/साहि‍त्‍य-दर्शन/कि‍ताबघर प्रकाशन/2012/पृ. 9
[7].  साहि‍त्‍य-दर्शन/कि‍ताबघर/पृ. 73-74/सं. 2012
[8] . मुद्राराक्षस और जूलि‍यस सीजर'/ साहि‍त्‍य-दर्शन/कि‍ताबघर/सं.2012/पृ. 123-24    
[9].  मुद्राराक्षस और जूलि‍यस सीजर'/ साहि‍त्‍य-दर्शन/कि‍ताबघर/सं.2012/पृ. 25
[10].  मुद्राराक्षस और जूलि‍यस सीजर'/ साहि‍त्‍य-दर्शन/कि‍ताबघर/सं.2012/पृ. 126
[11].  साहि‍त्‍य-दर्शन/कि‍ताबघर/सं.2012/पृ. 130-32
[12].  साहि‍त्‍य-दर्शन/कि‍ताबघर/सं.2012/पृ. 130
[13].  साहि‍त्‍य-दर्शन/कि‍ताबघर/सं.2012/पृ. 132-33
[14].  साहि‍त्‍य-दर्शन/कि‍ताबघर/सं.2012/पृ. 127

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