Friday, July 28, 2017

दुखवा का से कहे अनुवाद Who Would Listen the Pang of Translation




वस्‍तु एवं वि‍चार के वि‍नि‍मय हेतु अनुवाद का आवि‍ष्‍कार मानव सभ्‍यता के साथ ही शुरू हुआ और भारत में ईस्‍ट इण्‍डि‍या कम्‍पनी के डैने फैलने से पहले तक इसकी नैष्‍ठि‍क पवि‍त्रता बरकरार रही। इस दीर्घ यात्रा में यह धर्म-प्रचार, ज्ञान-विस्‍तार और शासन-संचालन का भी अभि‍न्‍न अंग बना रहा। आगे चलकर भारतीय ग्रन्‍थों के अनुवाद में अपनाई गई फि‍रंगी कुटि‍लता के कारण अनुवाद-कर्म की धारणा पहली बार शक के दायरे में आई। साम्राज्‍य-वि‍स्‍तार की धारणा से अनुवाद करवाने की उनकी कलुषि‍त नीति‍ को भारत के राष्‍ट्रवादी बौद्धि‍कों ने उन्‍हीं दि‍नों उजागर कर दि‍या। अनुवाद की वि‍श्‍वसनीयता जैसे वि‍चार सर्वप्रथम उन्‍हीं दि‍नों अस्‍ति‍त्‍व में आए। मगर यह बहुत पुरानी बात है।...
नई बात यह है कि भूमण्‍डलीकरण के इस उदार वातावरण में ‍अनुवाद का बाजार गर्म है। इससे भी अधि‍क नई बात यह है कि‍ अनुवाद के बाजार के इस वर्द्धि‍ष्‍णु ग्राफ को देखकर हमारे स्‍वदेशी बन्‍धु बड़े उल्‍लसि‍त हैं। इस बाजार में वे अपने लि‍ए बड़ी सम्‍भावनाओं की जगह ढूँढने में लि‍प्‍त हैं। क्‍योंकि‍ हमारे देश का शि‍क्षि‍त समाज अनुवाद को लेकर बहुत बड़े भ्रम में है। उन्‍हें लगता है कि दो भाषाओं का समान्‍य ज्ञान रखनेवाला हर व्‍यक्‍ति‍ अनुवाद कर सकता है। भ्रम यह भी है कि‍ स्रोत-भाषा एवं लक्ष्‍य-भाषा का ज्ञान कम भी हो, तो क्‍या फर्क पड़ता है? डि‍क्‍शनरी तो है न! और उससे भी बड़ा सहायक, गूगल ट्रान्‍सलेट वेबसाइट तो है ही!...भाषा और अनुवाद के बारे में ऐसी अवहेलनापूर्ण धारणा शायद ही दुनि‍या के कि‍सी कोने में हो! देश भर के कई सेक्‍टरों में अबूझ अनूदि‍त पाठ की अराजकता अकारण ही नहीं है। अनुवाद के आँगन में कूद पड़े ऐसे वि‍द्वानों को कैसे समझाया जाए कि‍ दो भाषाओं में वार्तालाप की शक्‍ति‍ भर जुटा लेने से अनुवाद की क्षमता नहीं आ जाती? उन्‍हें यह समझना चाहि‍ए कि‍ अनुवाद हेतु न केवल दोनों भाषाओं की संस्‍कृति‍, प्रकृति‍, प्रयुक्‍ति‍, पद्धति‍...का ज्ञान आवश्‍यक है; बल्‍कि‍ पाठ के वि‍षय, लक्षि‍त पाठक समूह के भाषा-बोध और उनके जीवन में अनूदि‍त पाठ की प्रयोजनीयता भी उतने ही महत्त्‍वपूर्ण हैं। धनार्जन की लि‍प्‍सा से अलग हटकर तनि‍क अपने पूर्वजों की नि‍ष्‍ठा को याद करते तो उन्‍हें सब स्‍पष्‍ट हो जाता। अवुवाद के आवि‍ष्‍कार-काल से लेकर बीसवीं शताब्‍दी के अन्‍ति‍म चरण तक के भारतीय अनुवाद चि‍न्‍तकों एवं उद्यमि‍यों के सारे प्रयास मानवीय, राष्‍ट्रीय, एवं ज्ञान के प्रचार-प्रसार की धारणा से प्रेरि‍त होते थे। अनुवाद तब तक कमाई का साधन नहीं बना था। ज्ञानाकुल समाज के हि‍त में लोग राष्‍ट्रवादी भावना से अनुवाद करते थे; मान्‍यता, पुरस्‍कार मि‍ल गया तो वाह-वाह, वर्ना सामाजि‍क प्रति‍ष्‍ठा को कौन रोक लेगा! कि‍न्‍तु व्‍यापारि‍कता के प्रवेश ने इनकी लुटि‍या डुबो दी।
कुछ बरस पीछे चलकर सरकारी प्रयासों का जायजा लें तो दि‍खेगा कि भारतीय भाषाओं में अनूदित सामग्री जुटाने हेतु ‍भूतपूर्व प्रधानमन्‍त्री पी.वी. नरसिंह राव के कार्य-काल में 'विशेष कोष' की स्थापना हुई थी। परवर्ती काल में इस दि‍शा में और भी महत्त्‍वपूर्ण काम हुआ। जून 13, 2005 को एक उच्च-स्तरीय सलाहकार संस्था 'राष्ट्रीय ज्ञान आयोग' का गठन हुआ। भारत के प्रधानमन्त्री को ज्ञान-व्यवस्था-संरक्षण के क्षेत्र में सलाह देने हेतु इसकी सि‍फारि‍शों की मुख्य चिन्ता क विषय था कि‍ इक्‍कीसवीं सदी की आधुनिकता के वैश्‍वि‍क दौड़ का मुकाबला ज्ञान-सम्‍पन्‍नता से ही सम्‍भव है; क्‍योंकि‍ अब आर्थिक गतिविधियों क प्रमुख संसाधन ज्ञान है। स्‍पष्‍टत: भारत को अपने समृद्ध वि‍रासत, राष्‍ट्रीय नि‍जता और वि‍लक्षण ज्ञान-परम्‍परा की ओर अनुरागपूर्वक सावधान होना था। संघ लोक सेवा आयोग के सन् 2007–08 की वार्षिक रिपोर्ट का नतीजा नि‍कला कि‍ मानविकी एवं सामाजि‍क वि‍ज्ञान विषयों की विश्वविद्यालय स्तर की पढ़ाई में 80-85 प्रतिशत शि‍क्षार्थी भारतीय भाषाओं में ही सहज रहते हैं, उसमें भी प्रमुखता हिन्दी की रहती है स्‍पष्‍टत: भारतीय ज्ञान एवं शोध को प्रोन्‍नत करना अनि‍वार्य था और इस हेतु आनेवाले समय में अनुवाद की भूमि‍का सुनि‍श्‍चि‍त थी। मातृभाषा के माध्‍यम से प्रारम्‍भि‍क शि‍क्षा को बढ़ावा देने हेतु पाठ्यक्रम की पुस्‍तकों का सभी मातृभाषाओं में अनुवाद करवाने की दि‍शा में पहल हुई; वि‍भि‍न्‍न वि‍षयों की कई दर्जन पुस्‍तकों का अनुवाद हेतु चयन हुआ; राष्ट्रीय अनुवाद मिशन का गठन हुआ; और भारतीय भाषा संस्‍थान, मैसूर को इसकी जि‍म्‍मेदारी दी गई। ऐसी बात की सूचना फैलते ही अनुवादकों की सूची में शामि‍ल होने के लि‍ए आखेटक लोग छान-पगहा तोड़ने लगे। वि‍चार हो कि वहाँ के प्रभारी‍ अनुवाद हेतु आवण्‍टि‍त बजट पर आक्रामक नजर गड़ाए इन उद्यमि‍यों से अनुवाद की इज्‍जत कैसे बचाएँ? जोर-जबर्दश्‍ती से कतार में आ गए अनुवादकों से पाठ्यक्रम की बोधगम्‍यता, अनुवाद एवं भाषा की सहजता की रक्षा कैसे करें?
तनि‍क भारतीय पुस्तक बाजार की ओर रुख करें तो साफ दि‍खेगा कि‍ इस समय भारत में लगभग उन्‍नीस हजार पुस्‍तक प्रकाशक हैं; जि‍नमें आई.एस.बी.एन. का इस्तेमाल करीब साढ़े बारह हजार प्रकाशक करते हैं। संशोधित संस्करणों के अलावा यहाँ प्रति‍ वर्ष अनुमानत: नब्‍बे हजार के करीब पुस्‍तकें छपती हैं, इनमें आधे से अधि‍क हि‍न्‍दी और अंग्रेजी की होती हैं; शेष अन्य भारतीय भाषाओं की। इस संख्‍या का एक बड़ा हि‍स्‍सा अनूदि‍त पुस्‍तकों का होता है। ये पुस्‍तकें भारतीय भाषाओं के पारस्‍परि‍क अनुवाद से लेकर वि‍देशी भाषाओं से भारतीय भाषाओं में अनुवाद तक की होती हैं। ज्ञानाकुल पाठक समुदाय के कारण इन अनूदि‍त पुस्‍तकों का व्‍यापार भी अच्‍छा-खासा होता है। अंग्रेजी भाषा की किताबों के प्रकाशन के क्षेत्र में भारत की गि‍नती दुनि‍या में तीसरे स्‍थान पर होती है। पहले दो देश हैं--अमेरि‍का और इंग्‍लैण्‍डकि‍न्‍तु वि‍डम्‍बना है कि‍ भारत में पनपी 'अनुवाद एजेन्‍सी' और 'हम भी अनुवाद कर कमा सकते हैं' की संस्‍कृति‍ ने इस कर्म की धज्‍जि‍याँ उड़ा दी है। न जाने ऐसा करते हुए भारतीय शि‍क्षि‍तों का वि‍वेक कहाँ गायब हो जाता है!
असल में भारत में अनुवाद-कर्म से जुड़े लोगों के साथ एक बड़ी वि‍डम्‍बना है; इनके लि‍ए समुचि‍त मानदेय की कोई मानक व्‍यवस्‍था नहीं है। मोल-भाव से सारी बातें तय होती है। यह सौदा पूरी तरह मुवक्‍कि‍ल की मजबूरी और अनुवादक के कौशल पर नि‍र्भर करता है। अनुवादक जि‍तना अधि‍क ऐंठ ले, या मुवक्‍कि‍ल जि‍‍तने कम में पटा ले। अधि‍कांश सरकारी संस्‍थाएँ आज भी पचास पैसे प्रति‍ शब्‍द से अधि‍क अनुवाद-शुल्‍क नहीं देतीं; प्राइवेट संस्‍थाएँ उन्‍हीं का अनुकरण करती हैं। इस दर पर एक श्रेष्‍ठ अनुवादक का दैनि‍क भत्ता चार सौ से अधि‍क नहीं बनता। और यह काम भी नि‍रन्‍तरता में नहीं मि‍लता; लि‍हाजा काम पाने के लि‍ए अनुवादक को कि‍सी न कि‍सी बिचौलिये की तलाश रहती है। ये बिचौलिये अनुवादकों का भरपूर शोषण करते हैं, पर बि‍चौलि‍ये से अनुवादक कटे तो उन्‍हें काम लाकर कौन दे? इस वि‍चि‍त्र परि‍स्‍थि‍ति‍ में भारतीय सांगठनि‍क क्षेत्र के नि‍यन्‍ता तनि‍क सोचें कि जि‍स अनुवादक को वे एक हमाल की मजदूरी भी नहीं मुहय्या कराते, उनसे कैसे अनुवाद की अपेक्षा करेंगे; भारतीय अनुवाद को कौन-सी दि‍शा दि‍खाएँगे और ऐसे अनुवादकर्मि‍यों के सहारे राष्‍ट्रीय ज्ञान-गौरव की वि‍रासत की रक्षा कैसे कर पाएँगे।‍
भूमण्‍डलीकृत बाजार के वि‍स्‍तार से अब मानवीय उद्यम का हर आयास 'इवेण्‍ट' हो गया है। जीवन-यापन में बदस्‍तूर 'इवेण्‍ट मैनेजमेण्‍ट' का नया दौर आ गया है। शादी करवानी है, श्राद्ध करवाना है, पार्टी करवानी है, बच्‍चे को ट्यूशन पढ़वाना है, अनुवाद करवाना है...हर काम के लि‍ए एजेन्‍सी है। कि‍न्‍तु अनुवाद के क्षेत्र में एजेन्‍सी चला रहे व्‍यक्‍ति‍यों को तनि‍क बुद्धि‍-वि‍वेक और नि‍ष्‍ठा से काम लेना चाहि‍ए। ध्‍यान रखना चाहि‍ए कि‍ अनुवाद-कर्म व्‍यापार नहीं, एक मि‍शन है। अनुवाद हेतु दी जानेवाली राशि‍ मेहनताना या मूल्‍य नहीं, मानदेय कहलाती है; ज्ञान के वि‍कास में नि‍ष्‍ठा से लगे कि‍सी उद्यमी के सम्‍मान में दी जानेवाली मानद राशि‍। संस्‍थाओं-संगठनों का भी दायि‍त्‍व बनता है कि‍ वे एजेन्‍सि‍यों को न्‍यूनतम भुगतान पर अनुवादक तलाशने के लि‍ए मजबूर न करे। फि‍र अनुवाद के अखाड़े में कूदने से पहले अनुवादकों को भी आत्‍म-मूल्‍यांकन करना चाहि‍ए; इस क्षेत्र में आने की इच्‍छा ही है, तो कौशल जुटाएँ। गूगल ट्रान्‍सलेट अथवा मशीनी अनुवाद का बेशक सहयोग लें, कि‍न्‍तु अनुवाद को 'मशीनी' न बनाएँ। श्रेष्‍ठ अनुवादक को वांछि‍त पारि‍तोषि‍क देने हेतु भूमण्‍डलीकृत बाजार तथा उनकी भाषा की सराहना करने हेतु वि‍शाल उपभोक्‍ता समाज तैयार बैठा है। सरकारी नौकरी के अलावा जनसंचार, पर्यटन, व्‍यापार, फि‍ल्‍म, प्रकाशन...हर क्षेत्र में अनुवाद की तूती बजती है। सभी देशी-वि‍देशी फि‍ल्‍मकार भारतीय भाषाओं में अपनी फि‍ल्‍म की डबिंग करवाना चाहते हैं; वि‍भि‍न्‍न ज्ञान-शाखाओं में बड़े-बड़े वि‍चारकों की पुस्‍तकें प्रकाशक छापना चाह रहे हैं; सभी उद्योगपति‍ अपने उत्‍पाद्य का वि‍ज्ञापन सभी भाषाओं में करवाना चाह रहे हैं...इन सभी कार्यों की अपेक्षि‍त योग्‍यता के बि‍ना जो इस क्षेत्र में हाथ डालते हैं; वे सचमुच अपने देश के उपभोक्‍ता समाज के साथ गद्दारी करते हैं।
संसदीय कार्यवाही के र्नि‍वचन हेतु चयनि‍त इण्‍टरप्रेटर का तो चयन ही इतना ठोक-ठठाकर होता है कि‍ वहाँ के अनुवाद में कि‍सी दुवि‍धा की गुंजाईश सामान्‍यतया नहीं होती; कि‍न्‍तु प्रशासनि‍क महकमों के प्रपत्रों, वार्षि‍क रपटों के हि‍न्‍दी अनुवाद; या सामाजि‍क जागरूकता फैलानेवाले नारों के सर्वभाषि‍क अनुवाद का जैसा उदाहरण सामने आता है; मालूम ही नहीं चलता कि‍ अनुवाद हुआ कि‍स भाषा में है? इस समय सभी संस्‍थानों के वेबसाइट के हि‍न्‍दी अनुवाद पर जोर दि‍या जा रहा है। सारी संस्‍थाएँ मुस्‍तैदी से सरकारी फरमान के अनुपालन में यह काम एजेन्‍सी को सौंपकर नि‍श्‍चि‍न्‍त हो रहे हैं। धनलोलुप वि‍वेकहीन एजेन्‍सी को तो कमाना है, वे न्‍यूनतम कोटेशन के अनुवादक के आखेट में जुट जाते हैं। अब बेचारे अनुवादक क्‍या करें! उपलब्‍ध अवसर का लाभ वे क्‍यों न उठाएँ! गूगल देवता के चरण में पाठ को रखकर वे भी प्रसाद उठा लेते हैं और एजेन्‍सी को सौंप देते हैं। एजेन्‍सी उस पाठ का  मूल्‍यांकन जि‍स वि‍द्वान से करवाती है; उन्‍हें क्‍या पड़ी है कि‍ उसमें खोट नि‍कालें; एक बार खोट नि‍काल दें तो अगली बार उन्‍हें काम नहीं मि‍लेगा। वे उसे बेहतरीन अनुवाद का तमगा दे देते हैं। चारो घर इन्‍जोर (उजाला) हो गया। धज्‍जि‍याँ तो भाषा की उड़ी, जि‍सका कोई खेवनहार नहीं! ऐसी रामभरोसे धारणा से संचालि‍त अनुवाद-उद्योग के गर्म बाजार पर संवेदना प्रकट करने के अलावा अन्‍य कुछ कि‍या नहीं जा सकता।
व्‍यापारि‍क क्षेत्र में अनुवाद के पाँव जि‍स तरह पसरे हैं, उसमें मामला एक सीमा तक ठीक कहा जा सकता है, क्‍योंकि‍ वहाँ अनूदि‍त पाठ का सीधा सम्‍बन्‍ध भुगतान करने वालों के नि‍जी हि‍त से है। भाषा की बोधगम्‍यता का परीक्षण करके ही वे भुगतान करते हैं। कि‍न्‍तु जहाँ कहीं पाठ की सम्‍प्रेषणीयता का तत्‍काल परीक्षण नहीं होता, वहाँ अनुवाद की बड़ी दुर्गति‍ है।

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