कवि
केदारनाथ सिंह (7
जुलाई 1934 से 19 मार्च 2018) की गणना भारत के उन महान कवियों
में होती है, जिनकी
काव्य-छवियाँ दो शताब्दियों के छह दशकों के काव्यादर्श पर छाई हुई हैं। वैसे ये ‘महान कवि’ और ‘महाकवि’ जैसे पद काव्य-चिन्तन करते हुए
बार-बार परेशानी में डालते हैं। शास्त्रीय विधानों के रटे हुए सूत्रों से पीछा
छुड़ाकर विवेकसम्मत निर्णय लेने में ये पद बाधा पहुँचाते हैं। शास्त्रों के अनुसार
महाकव्य के रचयिता को महाकवि कहे जाने की परम्परा है; किन्तु ऐसा किए बिना भी लोग-बाग
विद्यापति, सूरदास
और नागार्जुन को महाकवि कहते हैं। शास्त्रकारों ने प्राचीन काल से ही महाकाव्य के
कुछ मानदण्ड निर्धारित कर रखे हैं। धीरोदात्त नायक की गाथा होना, किसी महाकाव्य की पहली शर्त है; अर्थात् महाकाव्य किसी देवी-देवता, राजा-रानी, या इतिहास-ख्यात व्यक्ति का
चरित-वर्णन होता आया है। इन शास्त्रीय प्रतिमानों का अनुपालन तो विद्यापति, और नागार्जुन कतई नहीं करते! फिर
इन्हें महाकवि क्यों कहा जाता है?...क्योंकि
इनके चिन्तन ने समय और समाज का सहचर बनकर निरन्तर जनजीवन को जागरूक किया है; इनकी कृतियों ने समकालीन नागरिक
व्यवहार को सँवारा, अनुशासित
किया, और अनुगामी
पीढ़ियों के लिए लोकहितकारी विधान बनाया।...
तथ्यतः
आज के चेतना-सम्पन्न लोकतान्त्रिक समाज-व्यवस्था के नागरिक अपने जीवन-यापन की सारी
अनिवार्यताएँ स्वयं पूरी करते हैं। अपने लिए अन्न-वस्त्र-सुरक्षा-सम्मान की
व्यवस्था खुद करते हैं। चैन छीननेवाले शत्रुओं से लड़ते हुए वे खुद हताहत होते/करते
हैं। जीवन के किसी भी दुख-दुविधा,
भूख, अकाल, दुराचार से उबारते, या कम से कम समर्थन देते किसी
देवी-देवता, राजा-रानी, या इतिहास-ख्यात व्यक्ति को वे
नहीं देखते; महसूस
भी नहीं करते। लिहाजा, वे
अपने भाग्य-विधाता खुद होते हैं,
अपना
देवता खुद होते हैं, अपने
समय के काव्य-नायक वे खुद होते हैं। जिन कवियों की रचना के नायक ‘जन’ और ‘जनजीवन’ होते हैं; जिनके काव्य में जन-जन की इच्छा, अभिलाषा, भाव-भंगिमा-भाषा सम्मान पाती है, वही कवि जनता के महाकवि होते हैं, वही काव्य जनता का महाकाव्य होता
है। किस्सों-कहानियों में प्रचारित जिन ईश्वरों और राजाओं से आज के नागरिकों की
कभी भेंट ही नहीं हुई; वे
उनकी चरित-गाथा को अपना महाकाव्य कैसे मानें?
व्यावहारिक
तौर पर ऐसा करने से उन्हें कोई रोक भी नहीं सकता। क्योंकि, तमाम वैज्ञानिक दृष्टि से परिचित
होने के बावजूद जिस समुदाय में पत्थर को भगवान कहते हुए कोई किसी को नहीं बरजता; मन्दिरों, धर्मशालाओं, और शिक्षालयों के मुख्य द्वार पर
लुच्चों-लफंगों का नाम उकेड़ने से और भीतर दुष्कर्म करने से कोई किसी को नहीं रोकता; अपने आतंक के बूते किसी को समय का
देवता बन जाने का तमगा लेने से कोई किसी को नहीं रोकता; फिर अपने पथदर्शक, हितचिन्तक और मानवता का शाश्वत
इतिहास रचनेवाले कवि को ‘महान’ या ‘महा’ के उपसर्गात्मक विशेषण से स्मरण
करते हुए कोई किसी को कैसे रोकेगा?
धर्माचार
के ठेकेदार (?), प्राचीन
लक्षण-ग्रन्थों के पैरोकार और राजनीतिक व्यवस्था के उपदेशिक जिन देवताओं को नायक
मानते आए हैं, उनके
करतब किस्सों-कहानियों तक सीमित हैं, प्रत्यक्ष कुछ नहीं; जीवन-यापन के दुख-दुविधा, जय-पराजय से चतुर्दिक घिरा समुदाय इनके चमत्कारिक पौरुष में
अपने लिए कोई सुखमय सम्भावना नहीं देख पाता। उन्हें अपने जैसे लोगों के संघर्षों
की गाथा सम्मोहित करती है; जो
उन्हें इन ‘महाकवियों’ के काव्य-नायकों के जीवन-चरित में
दिखती हैं; इन
विवरणों में उन्हें अपने संघर्षों के सम्बल मिलते हैं, अतीत में भी ये विवरण भारतीय समाज
को चेतना देते आए हैं, आज भी
दे रहे हैं। प्रथमतः, और
अन्ततः किसी कवि-नागरिक या नागरिक-कवि का सामान्य से विशिष्ट होने का कारण गाँव, समाज, भाषा, संस्कृति से उनका रचनात्मक सरोकार
ही होता है। अपने रचनात्मक मूल्य से ही कोई कवि, महाकवि माना जाता है। हिन्दी के पाठकों ने किसी दिन यदि
केदारनाथ सिंह को महाकवि विशेषण से स्मरण करना शुरू किया तो इसका तर्क यही होगा।
सुविख्यात
कवि केदारनाथ सिंह का जन्म बलिया जिले के चकिया गाँव में हुआ। उनकी प्रारम्भिक
शिक्षा अपने गाँव के प्राथमिक विद्यालय में हुई। आठवीं पास करने के बाद वे बनारस आ
गए। यहाँ उन्होंने उदय प्रताप कालेज से स्नातक और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से
सन् 1956 में हिन्दी
में स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी की और सन् 1964 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आचार्य हजारीप्रसाद द्ववेदी
के निर्देशन में पी-एच.डी. की उपाधि अर्जित की। कुछ समय तक वे सेण्ट एड्रयूज कालेज
गोरखपुर में हिन्दी के प्राध्यापक रहे। उनकी पहली नौकरी सन् 1969 में पडरौना डिग्री कॉलेज से शुरू
हुई। कई वर्षों तक वहाँ के प्राचार्य का पद सँभालने के बाद सन् 1976 में जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय दिल्ली आ गए। वहाँ वे भारतीय भाषा केन्द्र में प्रोफसर एवं अध्यक्ष
भी रहे। सेवा-निवृति के बाद भी वे वहाँ प्रोफेसर इमेरिटस बने रहे। उनका जीवन काफी
उतार-चढ़ाव से भरा रहा। पडरौना की नौकरी के दौरान उनकी पत्नी घनघोर रूप से अस्वस्थ हुईं, कुछ ही दिनों बाद उनका निधन हो
गया। पत्नी-शोक की उस दारुण घटना ने उनके जीवन को गहरी चोट पहुँचाई। कवि केदारनाथ
सिंह की गहन रागात्मक रचनाशीलता में पत्नी की स्मृतियाँ जब-तब उजागर होती रहीं।
सन् 1989 में ‘अकाल में सारस’ के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार एवं सन् 2013 में ज्ञानपीठ पुरस्कार के अलावा
उन्हें दयावती मोदी पुरस्कार, व्यास
सम्मान, मैथिलीशरण
गुप्त सम्मान, भारत-भारती
सम्मान, दिनकर सम्मान, कुमार आशान सम्मान से सम्मानित
किया गया। ज्ञानपीठ पुरस्कार पानेवाले वे हिन्दी के दसवें रचनाकार थे। यह उनचासवाँ
ज्ञानपीठ पुरस्कार था। वे अज्ञेय द्वारा सम्पादित तीसरा सप्तक में संकलित कवि थे।
उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं--‘अभी
बिल्कुल अभी’ (1960), ‘जमीन पक रही
है’ (1980), ‘यहाँ से देखो’ (1983), ‘बाघ’ (1996), ‘अकाल में सारस’ (1988), ‘उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ’ (1995), ‘तालस्ताय और साइकिल’ (2005), ‘सृष्टि पर पहरा’ (2014), ‘मतदान केन्द्र पर झपकी’ (2019) (कविता संग्रह) ‘कल्पना और छायावाद’, ‘आधुनिक हिन्दी कविता में बिम्बविधान’, ‘मेरे समय के
शब्द’, ‘मेरे
साक्षात्कार’ (आलोचना)। उनके द्वारा
सम्पादित तीन पुस्तकें-- ‘समकालीन रूसी कविताएँ’, ‘कविता दशक’ एवं ‘ताना-बाना’ (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन) श्रेष्ठ महत्त्व की हैं। इनके
अलावा उनके द्वारा सम्पादित दो महत्त्वपूर्ण अनियतकालिक पत्रिकाएँ भी हैं--साखी
एवं शब्द।
सही-सही
निर्णय करना दुविधामय है कि केदारनाथ सिंह कवि बड़े थे या मनुष्य, या फिर अध्यापक। वैसे विवेकसम्मत
निर्णय तो यही है कि बेहतर मनुष्य हुए बिना कोई, कवि/अध्यापक तो क्या, कुछ भी बेहतर नहीं हो सकता। ऐसा कहने की जरूरत यहाँ उनकी
कविताओं के आचरण के कारण हो गई। प्रेक्षकों ने गौर किया होगा कि उनके व्यक्तित्व
की पूरी की पूरी आभा एकदम से काव्यमय थी। उपस्थिति में कविता की तरह मुलायम और
ऊष्मादायी, किन्तु
बोलने-बतियाने का प्रभाव पूरी संवेदना को झकझोर देनेवाला। काव्य-पाठ एवं अध्यापन
का उनके जैसा विलक्षण कौशल हिन्दी-पट्टी में कम लोगों को मिला है। भावकों पर उनकी
ध्वनि किसी सिद्ध-मन्त्रा की तरह प्रभाव छोड़ती थी। उनकी हर कविता उनकी भौतिक
उपस्थिति की तरह शुरू होती है, बड़े
आराम से, बड़ी सहजता से, माघ के दोपहर की धूप की ऊष्मा की
तरह; किन्तु समाप्त
होते-होते मानवीय चेतना के तार-तार हिलाकर चल देती है। बगैर किसी हो-हंगामे, बम-बारूद, जुलूस-नारे, चीख-चिल्लाहट के उनकी कविताएँ
पाठकों को सन्न कर देती हैं।
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उत्तर
कबीर और अन्य कविताएँ (1995) में संकलित उनकी एक विशिष्ट कविता है ‘नमक’। इसका
काव्य नायक ‘नमक’ है, जो अपना परिचय ढूँढता हुआ यहाँ-वहाँ भटकता हुआ, एक शाम शहर से गुजरते हुए चुपके
से एक सुन्दर घर में घुस गया और किसी चम्मच के सहारे धीरे से दाल में/सब्जी में
घुल गया। पूरे परिवार के स्वाद-लिप्सा की पूर्ति में खुद को घुलाकर आश्वस्त हुआ वह
नमक तृप्त-परितृप्त था। उस घर की स्त्री में खुद को रखकर सबकी सन्तुष्टि का
इन्तजार कर रहा था। किन्तु खाने की मेज पर घर के पुरुष का पौरुष धीरे से बोला--‘दाल फीकी है’। फिर
आगे उस पुरुष का अहंकार चीखते हुए बोला--‘मैं कहता हूँ फीकी है।’ पुरुष और पूरे परिवार का स्वाद सहलाने में खुद को घुला/गला
देनेवाला नमक और स्त्री हैरान-सी चुप रही, बच्चे और किनारे बैठा कुत्ता एकटक एक-दूसरे को ताकता रहा।
पुरुष मेज से उठ गया, बारी-बारी
मेज से सब उठ गए। नमक वहीं बैठा रहा, दाल के एक छिलके के नीचे से आँख उठाकर उसने बच्चों की ओर देखा, बच्चे कुत्ते की ओर, कुत्ता जाती हुई स्त्री की ओर देख
रहा था; और अन्त में
नमक इस निष्पत्ति पर पहुँचा कि--
न सही
दाल
कुछ-न-कुछ
फीका जरूर है
...
लेकिन
वह क्या है?
...
उस
समूचे घर में एक कुत्ते के अलावा
इसे कोई नहीं जानता।
यह
कविता सन् 1990 की
लिखी है। हिन्दी साहित्यालोचन में अस्मितामूलक विमर्श का यह प्रारम्भिक दौर था।
सन् 1990 में ही
फ्रेंच लेखिका सिमोन द बुआ (सिमोन लूसी अर्नेस्टाइन मैरी बट्रैण्ड द बुआ/Simone Lucie Ernestine
Marie Bertrand de Beauvoir/सन् 1908-1986) की पुस्तक ‘ले
ड्यूजियम सेक्स’(Le Deuxième Sexe) का
प्रभा खेतान (सन् 1942-2008) द्वारा
अनूदित हिन्दी संस्करण ‘स्त्री
उपेक्षिता’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। भारतीय साहित्यालोचन
में स्त्री-विमर्श के प्रवेश का श्रेय कुछ लोग पश्चिम से आए वैचारिक-संचार को देते
हैं; भारत में इस
तरह की चिन्तन-पद्धति का घोषणापरक नामकरण बेशक न हुआ हो, पर तथ्यतः भारतीय साहित्य में ऐसे
विचार सुदीर्घ समय से हो रहे थे। अकेले महादेवी वर्मा के तद्विषयक आलेख इसके
प्रमाण के लिए पर्याप्त हैं। लगभग चौदह महिनों के शोध-श्रम से लिखी और सन् 1949 में प्रकाशित सिमोन द बुआ की
पुस्तक ‘ले
ड्यूजियम सेक्स’ के प्रकाशन ने निश्चय ही फ्रांस
की स्त्री सम्बन्धी अस्तित्ववादी धारणाओं पर गहन प्रभाव छोड़ा। फ्रांस में उससे पूर्व
नारी अस्तित्ववाद पर कोई विचार नहीं हुआ था; स्त्रियों को भी समाज-व्यवस्था से कोई शिकायत नहीं थी। सन् 1953 में ‘द सेकण्ड
सेक्स’ शीर्षक
से अमेरिकी प्राणीविज्ञानी हॉवर्ड मैडिसन पार्शले (एच.एम.पार्शले, सन् 1884-1953) द्वारा अनूदित
इसका अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित हुआ, तो इस विचार को यथेष्ट विस्तार मिला। यद्यपि इस पर दार्शनिक
पदों के भ्रान्तिपूर्ण अनुवाद और वाक्यों में विशिष्ट ध्वनियों के कुतरे हुए रूप
ले आने का आरोप लगा, बावजूद
इसके इस अनुवाद के कारण इस विचार को देश-देशान्तर में व्यापक प्रसार अवश्य मिला।
किन्तु
विचारकों को इस तथ्य में आश्वस्ति जगानी पड़ेगी कि दुनिया के अन्य भूखण्डों की तरह
अस्मितामूलक चिन्तन की दिशा में भारत कभी छिन्नमूल नहीं था। बीसवीं शताब्दी के चौथे
दशक की शुरुआत में ही युगान्तकारी भारतीय चिन्तक महादेवी वर्मा के स्त्री-विमर्श
विषयक कई चेतनोन्मुख लेख उनके द्वारा सम्पादित एवं अन्य पत्र-पत्रिकाओं में
प्रकाशित हो चुके थे। उस दौर के सुधी पाठकों द्वारा यथेष्ट रूप से सराहे भी गए थे।
सन् 1942 में उनके ऐसे
लेखों का संग्रह ‘शृंखला
की कड़ियाँ’ शीर्षक
से प्रकाशित भी हुआ।--युद्ध और नारी, नारीत्व का अभिशाप, आधुनिक नारी, स्त्री के अर्थ स्वातन्त्र्य का प्रश्न, नए दशक में
महिलाओं का स्थान जैसे उनके विशिष्ट आलेखों ने उस दौर के बौद्धिक-समाज में हलचल
पैदा कर दिए थे। महादेवी वर्मा ने अपने आलेखों में युद्ध-वृत्ति को स्त्रियों के
विकास का बाधक माना। उन्होंने रेखांकित किया कि ‘युद्ध’, ‘कर्म’ और ‘संघर्ष’ पुरुष की मूल वृति है, उसके गर्व का कारण भी। गृह और
गार्हस्थ जीवन की संरचना में स्त्रियों की अहम् भूमिका के हवाले से उन्होंने
स्पष्ट कहा कि स्त्री-साहचर्य के बिना पुरुषों का जीवन रुक्ष और दुर्वह होगा; क्योंकि पवित्र गृहों की नींव
स्त्री की बुद्धि पर रखी जाती है,
पुरुष
की शक्ति पर नहीं। किन्तु ऐसे उज्ज्वल विचार उन दिनों हिन्दी-पट्टी में ठीक से खिल
नहीं पाए। इसका कारण स्वाधीनता-संग्राम में झोंकी गई बौद्धिक-व्यस्तता और
स्वातन्त्रयोत्तरकालीन भारतीय जनप्रतिनिधियों की स्वार्थ-संलिप्ति से संघर्षरत
जन-व्यस्तता के अलावा भारतीय बौद्धिकों की परांग्मुखता भी है। उन्हें हर नए विचार
के सूत्र पश्चिम में ही मिलते हैं। महिलाओं के जिस सम्मान की बात दुनिया के
विभिन्न देशों में प्रथम विश्व युद्ध (सन् 1914) के पूर्व से ही की जाने लगी थी; भारत उससे पीछे नहीं था। बस यहाँ की भव्य विरासत के दरवाजे पर
जमे हलचल के गर्दोगुबार के कारण मुखरित स्त्री-चेतना के स्वर परोक्ष-से हो गए।
हिन्दी-समाज
के बौद्धिक-मानस में विचित्र विडम्बनाओं का साम्राज्य है। उन्हें अपनी भव्य विरासत
पर गर्व करने में संकोच होता है। उन्हें पश्चिम का रोना-खाँसना-छींकना भी मोहक
लगता है; अपना हँसना भी
भदेस। वे आश्वस्त हैं कि पश्चिम का आभारी हुए बिना प्रगतिशील और अद्यतन नहीं माने
जाएँगे। जबकि भारतीय साहित्य में स्त्री सम्बन्धी अस्मितामूलक विचार की अभिव्यक्ति
तथ्यतः सदियों से होती आई है। देखना चाहें तो लोग पन्द्रहवीं शताब्दी में सूरदास
के यहाँ, उनसे पहले चौदहवीं
शताब्दी में विद्यापति के यहाँ, और
उनसे बहुत पीछे जाएँ तो आदिकवि वाल्मीकि के यहाँ रामायण के युद्धकाण्ड के अधोभाग
में सीता-राम संवाद में देख सकते हैं। पर वे नहीं देखेंगे। खिड़की खोलकर अपनी
उन्नत-उज्ज्ज्वल विरासत में झाँके बिना वे आयातित विचार को सर्वोपरि मान लेते
हैं। दूसरों के उज्ज्ज्वल विचारों का स्वागत होना चाहिए, किन्तु इस कारण अपने को हीन मानना
उचित नहीं है, क्योंकि
हमारा साहित्यालोचन कभी मूलोच्छिन्न नहीं रहा। स्त्री अस्मितामूलक हमारा विमर्श
प्राचीन समय से उन्नत है। महादेवी वर्मा के यहाँ आकर यह और अधिक मुखर हुआ। अनाहूत
कारणों से इसकी आभा यथेष्ट रूप से फैल नहीं पाई। भला हो ‘ले ड्यूजियम
सेक्स’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘द सेकण्ड
सेक्स’ और फिर हिन्दी अनुवाद ‘स्त्री
उपेक्षिता’ का कि
फ्रांस के अस्मितामूलक विमर्श की देखादेखी, अथवा समय की जरूरत के मद्देनजर इधर भी ऐसे चिन्तन मुखर हुए और
हिन्दी समालोचकों की दृष्टि महादेवी वर्मा की ‘शृंखला की कड़ियाँ’ पर भी
गई।
उल्लेख
सुसंगत होगा कि कवि केदारनाथ सिंह की कविता ‘नमक’ का भी
हिन्दी में वही हस्र हुआ, जो शृंखला
की कड़ियाँ का हुआ। यह कविता भी समालोचकों की दृष्टि से ओझल रह गई। केदारनाथ सिंह
का स्त्री सम्बन्धी अस्मितामूलक चिन्तन पहले की, और बाद की भी कई कविताओं में मुखरता से स्पष्ट हुआ है, पर ‘नमक’ कविता उन सबसे भिन्न है। यह
सामान्य कविता नहीं है, महान
कविता है। इस कविता पर विशेष रूप से विचार होना चाहिए था, जबकि यह सामान्य टिप्पणियों के
साथ पीछे चली गई।
‘नमक’ कविता का रचनाकाल हिन्दी रचनाधर्मिता का वह दौर है, जिसमें स्त्री अस्मितामूलक धारणा
अपने प्रारम्भिक चरण में थी। क्रान्ति-मशाल की तरह चर्चित होनेवाली कुल बासठ
पंक्तियों में सिमटी दो सौ सैंतीस शब्दों की यह कविता विराट व्यंजना की कविता है
और विचारकों से गहन विवेचना की माँग करती है। विदित है कि बिम्ब-रचना में कवि
केदारनाथ सिंह को महारत हासिल थी। भाषिक चमत्कार उत्पन्न करने की दिशा में उन्हें
सम्प्रेषणीयता और प्रभाव का जादूगर कहना अत्युक्ति न होगा। विषम, विरोधी, व्यतिरेकी प्रसंगों के कल्पनातीत
समावेश से तराशा हुआ उनका रूपक व्यंजनाओं का विराट क्षितिज सामने लाता है। उनकी
कविताओं में जटिल से जटिल विषय भी सहज लगने लगता है।
एक
लघु नाटिका की तरह सम्पन्न इस ‘नमक’ शीर्षक कविता की सम्पूर्ण
नाटकीयता के पाँचो पात्र--नमक, पुरुष, स्त्री, बच्चे और कुत्ता--अलग-अलग हैसियत
के साथ बारी-बारी से अपनी-अपनी भूमिका में प्रविष्ट हुए हैं और सुनिश्चित स्थिति
में कुछ स्थिर-से हो गए हैं। एकदम-से तल्लीन। बिल्कुल एक्शन फिल्म की तरह। संवाद
नहीं के बराबर है। मानसिक चिन्तन अथवा शारीरिक चेष्टा द्वारा ही पात्रों ने अपनी
भूमिका पूरी की है। नमक की कुछ देर की वैचारिक यात्रा के बाद परिवार के पुरुष की
ओर से धीरे से एक सूचनात्मक वक्तव्य आया--‘दाल फीकी है।’ इसके
बाद स्त्री की ओर से अचरज भरा एक सवाल हुआ--‘फीकी है?’ फिर पुरुष की ओर से रोष भरी घोषणा
हुई--‘हाँ
फीकी है--मैं कहता हूँ फीकी है।’ इतने लघुत्तम संवाद के अलावा सारा कुछ चिन्तन अथवा करतब से
निष्पादित हुआ है। मगर इस पूरे नाटकीय दृश्य का महान चिन्तक ‘नमक’ पहली से आखिरी पंक्ति तक लगातार
चिन्तनशील है। ‘नमक’ जैसे उपेक्षित पदार्थ का ऐसा
मावीकरण मोहक है। नमक के महत्त्व से इस सृष्टि का हर सचेत प्राणी परिचित है; जीभ एवं जीवन के हर स्वाद एवं
सेहत में इसकी उपादेयता जानता है;
पर
तथ्यतः इसके बारे में सोचता कभी नहीं। जैसे कि भारतीय परिवार में स्त्रियों के लिए
होता है। नमक की अनुपस्थिति से मानव-जीवन में उपजी निस्सारता पर शायद ही कभी किसी
ने गम्भीरता से सोचा हो। जीवन को स्वस्थ, सन्तुलित और स्वादिष्ट बनाए रखनेवाले नमक की उत्पत्ति, उपस्थिति, उपादेयता के अपने निरपेक्ष रवैये
से भी ज्यादातर लोग अनभिज्ञ ही रहते हैं। जानते सब हैं, पर संज्ञान नहीं लेते कि कायिक
संरचना के पंचतत्त्व (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर) के प्राथमिक दो तत्त्व नमक
के उद्भव-स्रोत हैं। पूरी दुनिया में यह जमीन में दबे चट्टान और समुद्रों, झीलों, तालाबों के खारे जल से प्राप्त
किया जाता है। स्वादिष्ट भोजन के साथ-साथ यह मनुष्य की जैविक-संरचना का भी
अनिवार्य तत्त्व है। चिकित्सा-शास्त्रियों के अनुसार शरीर में लवण-तत्त्व का
असन्तुलन होते ही मनुष्य का मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। स्वाद, सेहत और सौन्दर्य के पारखी लोग
जीवन में लवण के सन्तुलन की अनिवार्यता जनाते रहे हैं। शायद यही कारण हो कि
दिव्य-सुन्दरी को लावण्यमयी कहा जाता है। नमक अथवा लवण से बने लावण्य शब्द का
सौन्दर्य से कोई व्याकरणिक सरोकार नहीं है। फिर भी सौन्दर्य को लावण्य कहा जाता है, क्योंकि सारे उपादानों का सन्तुलन, अर्थात् सन्तृप्तावस्था को
लावण्यमय सौन्दर्य माना जाता है। नमक की कमी लावण्यहीनता और नमक की अधिकता
लवणाधिक्य कहलाती है। नमक सन्तृप्त रहे तो जीवन में स्वाद, सेहत और सौन्दर्य की पुष्टि होती
है; अन्यथा
बेस्वाद, बीमार और
कुरूप। ‘नमक अदा करने’ या ‘नमक खाने’ जैसे मुहावरे जीवन-व्यवहार में
यूँ ही नहीं आए होंगे।... ऐसे उपादेय पदार्थ का रूपक, ‘नमक’ कविता में विराट व्यंजना उत्पन्न
करता है। इस व्यंजना पर गम्भीरता से सोचने की जरूरत है, क्योंकि परिवार की पारिवारिकता
में स्त्री के महत्त्व को रेखांकित करने के लिए यहाँ कवि ने ‘नमक’ के रूपक का बेहतरीन उपयोग किया
है।
पारिवारिक
जीवन में जमे अहं एवं अनुराग का संघर्ष यहाँ विचित्र त्रासदी पैदा करता है। दो
विपरीतमुखी मनोवेग; जिसकी
पृष्ठभूमि बताने के लिए सुदीर्घ समय की जरूरत थी, पौरुष और स्त्रीत्व के पूरे इतिहास को खँगालने की दरकार थी, परिवार सँवारने की बुनियादी
धारणाओं के कर्तव्यबोध पर विचार करने का प्रयोजन था, उसकी समस्त छवियों को पूरे प्रभाव के साथ कवि केदारनाथ सिंह ने
अत्यन्त लघु-काल में बड़े कौशल से चित्रित कर दिया है। नपे-तुले शब्दों एवं
गिनी-गुथी भंगिमाओं में रेखांकित हुआ यह दृश्य विस्मयकर है। रूपक-भाव, प्रतीक-योजना और बिम्ब-निरूपण के
सुदक्ष प्रयोग से कवि-कहन यहाँ इतना आवेगमय बन गया है कि निर्जीव काठ भी उद्वेग और
पीड़ा से तड़प उठे। बिम्ब-प्रतीक के सहारे कविता के मूर्त्त, दीप्त और संक्षिप्त होने का उनका
कथन एक बार फिर से यहाँ पुष्ट हुआ है। इस कविता की दीप्ति में इस काव्य-धर्म की अहम्
भूमिका है। उनकी सृजन-प्रक्रिया पर गम्भीरता से चिन्तन करनेवालों को स्पष्ट दिखा
होगा कि आक्रामक प्रभाव उत्पन्न करनेवाली केदारनाथ सिंह की कविताएँ अपने
भाषा-व्यवहार में कभी आक्रामक नहीं होती, किन्तु प्रहार बड़ा घातक करती हैं। सम्प्रेषण की निष्पत्ति से
भावकों का मन उद्वेग से भर उठता है। विसंगतियों के परिष्कार की दिशा में वे तत्पर
हो उठते हैं। उनकी कविताओं के पाठ-विश्लेषण से स्पष्ट होगा कि वस्तु-चयन, शिल्प-संरचना, शब्द-संयोग, बिम्ब-नियोजन, प्रतीक-योजना...सारे उपादानों में
वे एक महायोद्धा की तरह सावधान और उद्देश्योन्मुख रहते थे। असावधानी की कोई तिनका
भर फाँक भी कहीं नहीं दिखती। अपने पूरे रचाव में वे प्रभाव का ऐसा व्यूह रच देते
कि प्रभावान्विति के किसी विचलन की कोई गुंजाइश बची नहीं रह जाती। पर भाषा का
स्वरूप हर पल कोमलता से भरा रहता। भाषा-व्यवहार में कोई उग्रता कभी नहीं दिखती।
सम्मोहन से भरी उनकी काव्य-भाषा के समक्ष भावकों को एकाग्र होने के सिवा कोई
रास्ता नहीं रहता। इसका एक उदाहरण यह ‘नमक’ कविता
भी है। एक तो इसका विषय इतना सहज,
पारिवारिक
और सर्वसुलभ है कि लोग अनायास इधर आकर्षित हो जाते हैं। फिर उन्हें भाषा का सम्मोहन
पकड़ लेता है। उसके बाद फिर प्रसंगों की क्रमिकता उसे अपनी ही चौहद्दी में घेरे
रहती है। सुस्पष्ट प्रतीक-योजना के कारण यहाँ भावकों को ‘नमक’ और ‘स्त्री’, बड़ी सहजता से समतुल्य धरातल पर
दिखने लगती है। पारिवारिक व्यवहार का यह दारुण सत्य उसे मथने-सा लगता है। विवरण की
सादगी उसे उद्वेग से भर देती है। अपने समग्र पूर्वाग्रह त्यागकर वे विस्तीर्ण
चिन्तन की ओर अग्रसर हो जाते हैं। ‘दाल
में पड़े-पड़े/एक छिलके के नीचे से आँख उठाकर’ जो नमक, अहं
और अनुराग के उस वेदनामय संघर्ष एवं पारिवारिक वातावरण की करुणा को देखता रहता है, वह सदैव उस परिवार का हिस्सा नहीं
था, कहीं बाहर से
गुजरते हुए घर में प्रविष्ट हो गया था। शहर से गुजरते हुए वह अपने होने का कारण
ढूँढ रहा था। जैसे एक स्त्री अपने होने का कारण ढूँढती है। उस नमक को जब तक कुछ
सूझे, वह एक घर में
घुस गया; या यूँ कहें
कि उसे कुछ नहीं सूझा, तो वह
चुपके से एक घर में घुस गया और उसे अपना घर स्वीकार कर लिया। जैसे एक भारतीय
स्त्री समझ आने से पहले तक का निर्बन्ध जीवन पिता के घर बिताकर एक नए घर में
प्रविष्ट होती है और मनसा वाचा कर्मणा उस घर को अपना घर मान लेती है। जैसे नमक खुद
को घुलाकर भोक्ता के स्वाद को सहलाने में अपना जीवन धन्य समझता है; स्त्री, उस अपनाए हुए घर के सभी रिश्तों
में घुसकर, घुलकर
अपने परिचय को आकार देती है। नमक की दृष्टि में अचानक से मिला वह
घर
सुन्दर था
जैसा
कि आम तौर पर होता है
अक्टूबर
के शुरू में।
गौरतलब
है कि ‘अक्टूबर’ मास का समावेश यहाँ कवि ने केवल
एक शब्द डालने के लिए नहीं किया है। केदारनाथ सिंह की कविता में कोई खाली जगह भी
निरर्थक नहीं होती, बड़े
अर्थ-व्यंजक होती है। एक विशेष सन्दर्भ का अर्थगाम्भीर्य भरने के लिए यहाँ घर के
सुखमय वातावरण की तुलना अक्टूबर मास के मौसम से की गई है। मौसम का यह रूपक यहाँ
विशिष्ट व्यंजना उत्पन्न करता है...।
‘अक्टूबर’ मास समशीतोष्ण होता है। न तपाने
वाली गर्मी, न
ठिठुरानेवाली ठण्ड, न
आवाजाही में बाधा उत्पन्न करनेवाली बारिश। सुखमय वातावरण रचने की सकारात्मक कामना
से भरे किसी व्यक्ति को हर ठौर ऐसे अनुरागमय वातावरण दिखने लगते हैं। ऐसी धारणा के
लोग अपने लिए अनुकूल घर की कोई परीक्षा नहीं करता, जैसे इस कविता में नमक ने अपने अनुकूल घर होने की कोई परीक्षा
नहीं की। जिस घर में घुसा, वह घर
उसे सुन्दर लगने लगा। जैसे भारत की स्त्रियाँ कभी घर की परीक्षा नहीं करतीं, जो घर मिल जाता उसी घर को ‘सुन्दर’ समझ लेतीं।
संयोग
से मिल गए ऐसे घर में
एक
चम्मच में गिरते हुए
नमक
ने सोचा
चलो, अब सब ठीक हो
जाएग
फिर
जरा दम लेने के बाद
वह
उठा
चूल्हे
के पास तक गया
और
धीरे से घुल गया दाल में
सब्जी में।
जिस
तरह उस घर के हर सदस्य के स्वाद का अहं सहलाने में स्वयं को घुला देनेवाला नमक
सन्तुष्टि की साँस लेता है; भारतीय
स्त्रियाँ भी उस स्वीकृत परिवार की कौटुम्बिक परिभाषा स्वीकारकर आफियत महसूस करती
है। ध्यान रहे कि इस कविता में ‘नमक’, वस्तुतः ‘नमक’ नहीं, वह स्त्री ही है, जो अपने हर समर्पण और अनुराग से ‘घर’ को ‘घर’ की तरह रचती है। ‘नमक’ उस पारिवारिक स्त्री की प्रतिकृति
बनकर उसके मौन की पीड़ा कहता रहता है। पीड़ा का अनुवाद मौन में करने के लिए जैसी
दारुण वेदना सहनी पड़ती है, उस
वेदना की तीक्ष्णता कोई भुक्तभोगी या मनोचिकित्सक ही बता सकता है। कवि ने अकारण ही
यहाँ ‘नमक’ का उपयोग नहीं किया है। दाल में
और सब्जी में, या कि
पूरे परिवार के सुख में खुद को घुला देनेवाली स्त्री ने तनिक चैन की साँस ली कि अब
सब ठीक हो जाएगा।
और
ठीक समय पर
जब सज
गई मेज
और
शुरू हुआ खाना
तो
सबसे अधिक खुश था नमक ही
जैसे
उसकी जीभ अपनी ही बोटी के
स्वाद
का इन्तजार कर रही हो।
ऐन
उसी वक्त उस घर की स्त्री भी परम सन्तुष्ट थी और भोक्ता की प्रतिक्रिया का इन्तजार
कर रही थी। भोक्ता की सुखानुभूति में अपना ‘स्वत्व’ घुला
देनेवाली स्त्री के एकान्त कानों में हठात् सुनाई पड़ा कि ‘दाल फीकी है’। क्योंकि
पुरुष
जो कि सबसे अधिक चुप था
धीरे
से बोला--
दाल
फीकी है।
वह
चकित हुई, दाल में घुला
हुआ नमक यह सब देखता रहा। स्त्री इसलिए चकित नहीं हुई कि वह प्रशंसा सुनने की
कामना से भरी हुई थी, और
उसे ‘फीकेपन’ की शिकायत से दुख हुआ; बल्कि वह इसलिए चकित हुई कि खुद
को घुलाकर भी वह उस घर के पुरुष का स्वाद सहला नहीं पाई। वह अपनी त्रुटियों पर
व्यथित थी; क्योंकि
दाल के फीके होने का तथ्य उजागर उस घर के पुरुष ने किया था। जो घर का मुखिया था।
कदाचित् नमक या कि स्त्री को ऐसा भी महसूस हुआ हो कि इतने घुले, तो तनिक और घुल जाते!
यहाँ
आकर भावकों के मन में भी एक रोष भरा सवाल आता है कि जितने घुले, उसकी कोई कद्र नहीं? स्त्री के अनुराग की उपेक्षा क्या
पुरुषों का परम कर्तव्य है? पुरुष
की ओर से उस धीमी ध्वनि में दाल फीकी होने की सूचना पाकर स्त्री आगे पंक्तियों में
सिर्फ आश्चर्य से पूछती है--‘फीकी
है?’ वस्तुतः इस
वक्तव्य में स्त्री कोई प्रतिवाद नहीं करती, प्रतिप्रश्न नहीं करती, खुद को परिपूर्ण साबित करने का कोई आग्रह नहीं करती, केवल अपनी आनुषंगिक पीड़ा व्यक्त
करती है कि घर के पुरुष प्रसन्न नहीं हुए। इस अन्योक्ति में उस स्त्री की पीड़ा
गुथी हुई है, जिसका
कोई संज्ञान लिए बिना पुरुष ने लगभग चीखते हुए कहा--
हाँ
फीकी है--
मैं
कहता हूँ फीकी है।
इस ‘मैं कहता हूँ फीकी है’ पंक्ति में पुरुष का अहंकार एकाएक
शिखर चढ़ बैठा है। यहाँ अहं का कहीं कोई टकराव नहीं होता। टकराव तो तब हो, जब प्रतिपक्षी का प्रतिवाद हो!
यहाँ तो प्रतिपक्ष में चुप्पी है! अब चुप्पी से अहं का क्या टक्कर हो! ‘फीकी है?’ जैसे दो शब्दों के सहज आश्चर्य
में एक स्त्री के दयनीय अनुराग का निवेदन है और ‘मैं कहता हूँ फीकी है’ की घोषणा में परिवार के मुखिया के अहंकार की उग्रता। यहाँ
महादेवी वर्मा की धारणा फिर से पुष्ट होती है कि पवित्र गृहों की नींव स्त्री की
बुद्धि पर रखी जाती है, पुरुष
की शक्ति पर नहीं। स्त्री के धैर्य के बिना गृह और गार्हस्थ जीवन का संचालन
वस्तुतः असम्भव है। गार्हस्थ-जीवन की संरचना सचमुच स्त्रियों के धैर्य और विवेक से
सम्पूरित होती आई है। केदारनाथ सिंह की कविता ‘नमक’ स्त्री-जीवन
की उस कारुणिक पीड़ा एवं विडम्बना तथा मदान्ध पुरुष के निरर्थक अहंकार को रेखांकित
करती है, जो इक्कीसवीं
शताब्दी के अन्तिम चरण के भारतीय परिवार का सामान्य आचरण था।
‘नमक’ कविता रचे जाने से कई दशक पूर्व
महादेवी वर्मा ने स्पष्ट कहा था कि स्त्री-साहचर्य के बिना पुरुषों का जीवन रुक्ष
और दुर्वह होगा। पर बीसवीं शताब्दी के भारतीय समाज की परुष-वृत्ति को यह बात सन् 1990 तक भी समझ नहीं आई। भारतीय
साहित्य और समाज में गत तीन दशकों से अस्मितामूलक विमर्शों की घनघोर चर्चा हो रही
है; यहाँ तक कि
राजनीतिक पहलवान भी अपनी नाकामयाबी छुपाने के लिए इन विमर्शों का समर्थन करते हुए
यथेष्ट सहयोग ले रहे हैं। सामाजिक स्थितियों में यत्किंचित बदलाव भी आया है; भिन्न-भिन्न भारतीय भाषाओं की
विभिन्न विधाओं में इस धारा की रचनाएँ भी खूब हुई हैं। फिर भी केदारनाथ सिंह की एक
कविता ‘नमक’ कई-कई संकलनों पर भारी पड़ती दिखती
है; क्योंकि इसकी
काव्य-भूमि विशुद्ध भारतीय समाज का गार्हस्थ-जीवन है, कविता के सारे प्रसंग घर-परिवार
के जीवन-क्रम, जीवन
के रागात्मक आचरण, दैनिक
व्यवहार की सहजता और मौलिकता है। यहाँ कोई शोर-शराबा, नारेबाजी, या कि घोषणाएँ नहीं हैं, सिर्फ स्थितियों का रेखांकन है।
पर वह रेखांकन ऐसा असरकारी है कि जीवन के सारे रंग अपनी तमाम विसंगतियों के साथ
अंकित हो जाते हैं।
‘मैं कहता हूँ फीकी है’ वाक्य के साथ पुरुष के परुष-क्रोध
को स्त्री ने अपनी एकान्त चुप्पी से जीतना चाहा--
...स्त्री चुप
कुत्ता
हैरान
बच्चे
एकटक
एक-दूसरे
को ताकते हुए।
विडम्बना
ही है कि जिन असंगत आचरणों से घर के पालतू कुत्ते और अपरिपक्व बच्चे तक हैरान, परेशान, किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए, घर के अहंकारी पुरुष को वह
संवेदना छू तक नहीं पाई। चुप्पी,
हैरानी
और एक-दूसरे की ओर देखा-देखी के वातावरण में पुरुष का अहंकार और आगे बढ़ा; खाने की मेज से--
फिर
सबसे पहले पुरुष उठा
फिर
बारी-बारी से मेज से उठ गए सब
एक
नमक को छोड़कर
...दाल में
पड़े-पड़े
एक
छिलके के नीचे से आँख उठाकर
नमक
ने देखा बच्चों की ओर
बच्चे
कुत्ते की ओर देख रहे थे
कुत्ता
देख रहा था
जाती
हुई स्त्री की ओर
...न सही दाल
कुछ-न-कुछ
फीका जरूर है
सब
सोच रहे थे
लेकिन
वह क्या है?
...नमक को लगा
उस
समूचे घर में एक कुत्ते के अलावा
इसे
कोई नहीं जानता।
स्त्री
की चुप्पी, पालतू
कुत्ते की हैरानी और अपरिपक्व बच्चों की टकटकी भी यहाँ बड़े अर्थ-व्यंजक हैं।
पारिवारिकता बचाने की नीति से स्त्री अपनी चुप्पी के सहारे पुरुष के अहंकार पर
विजय पाना चाहती हैं। कुत्ते की हैरानी और बच्चों की टकटकी में तो
किंकर्तव्यविमूढ़ता है; क्योंकि
अपने पदक्रम और हैसियत के कारण उनके लिए अपना पक्ष और कर्तव्य तय करना असम्भव है।
वे अपनी प्रतिक्रिया किसकी ओर से दें! उपस्थित परिस्थिति में उन्हें अपने ही विवेक
पर संशय हो उठा है। अपनी तर्क-शक्ति पर वे स्वयं आश्वस्त नहीं होते; क्योंकि विवेक-सम्मत निर्णय का
पलड़ा स्त्री की ओर झुकता है, जबकि
पुरुष का रौद्र रूप उन्हें भयभीत करता है।
प्रभाव
की सघनता उत्पन्न करने के लिए इस कविता के अन्तिम अंश में कवि ने बाल-मनोविज्ञान
और स्वान-सद्गुण का बेहतरीन दोहन किया है। नमक को आखिरकार ऐसा लगता क्यों है कि इस
परिवार में जो कुछ फीका है, वह उस
समूचे घर में उस कुत्ते के अलावा कोई नहीं जानता?...क्योंकि उस परिवार के किसी सदस्य से उस कुत्ते का जैविक
सम्बन्ध नहीं है, केवल
अनुराग का सम्बन्ध है, और
अनुराग में अधिकार से अधिक कर्तव्य की चिन्ता रखी जाती है। वह कुत्ता उस परिवार के
सदस्यों के साथ किसी वैधानिक विवशता से नहीं, अनुराग से जुड़ा हुआ है। पूरे परिवार के हर सदस्य से उसका
अनुराग लगातार बना रहता है। अनुराग उलीचने के लिए वह कोई वैकल्पिक मार्ग नहीं
चुनता। अर्थात् पूरे परिवार के सौहार्द में ही वह अपनी प्रसन्नता ढूँढता है। चूँकि
वह बेजुबान है, वफादार
है, और पूरे
परिवार के हर सदस्य की भूमिका वह मूक दृष्टि से देख रहा है; इसलिए कदाचित नमक को, या कि कवि को लगता है कि इस ‘फीकेपन’ का वास्तविक कारण सम्भवतः वही
ढूँढ पाया होगा।
तथ्यतः
केदारनाथ सिंह की कविता में प्रविष्ट होते ही भावक उद्वेग से बेचैन हो जाते हैं।
आदि से अन्त तक के शब्दों की क्रमागत व्यंजना उनके मनोवेग को मथती रहती है, अपने आवेग के कारण वे चिन्तन की
एक समानान्तर दुनिया रच लेते हैं। काव्य उपादानों की सशक्त कवि-प्रयुक्तियाँ
पाठकों के समक्ष विचलन की सम्भवनाएँ मिटा देती हैं। इस कविता का अन्तिम अंश एक बार
फिर से इस तथ्य को पुष्ट करता है। एक मामूली-से परिवार के भोजन-काल का चित्र
उकेरते हुए कवि ने यहाँ चिन्तन-दर्शन की कई दिशाएँ खोल दी हैं। दर्शन यह कि अहं
त्यागे बिना, समर्पित
के अनुराग को पहचाने बिना, इस
सृष्टि के किसी मनुष्य का जीवन लावण्यमय नहीं रह सकता। न सही दाल, कुछ-न-कुछ फीका जरूर रह जाएगा
उसके जीवन में, जिसका
दर्द परिवार के एक-एक तिनके को सहना पड़ेगा। जैसे इस परिवार का पालतू कुत्ता, बच्चे, स्त्री, यहाँ तक कि दाल के एक छिलके के
नीचे से आँख उठाकर देखते नमक को सहना पड़ रहा है। विराट व्यंजना की यह छोटी-सी
कविता सामान्य जीवन के बड़े दर्शन की ओर गम्भीरता से इशारा करती है। वस्तुतः
सामान्य को विशिष्ट बनाने का ऐसा रचना-कौशल कवि केदारनाथ सिंह के जीवन-दर्शन में
छिपा है। गाँव और गाँव की स्मृतियाँ उनकी रचनात्मकता के रेशे-रेशे में मौजूद रहता
है। सही मायने में वे जनपदीय भावनाओं एवं मानवीय आचरणों के कवि हैं। उनके जनकवि होने
की एक जिज्ञासा पर उन्होंने कहा कि ‘‘जनकवि तो बहुत बड़ा शब्द है और जनता तक कितना मैं पहुँच पाया
हूँ यह नहीं जानता। जनकवि कहलाने लायक हिन्दी में कई कवि हो चुके हैं। कई सम्मानित
हुए, कई नहीं हुए।
लेकिन जो कुछ मैं लिखता पढ़ता रहा हूँ उसमें गाँव की स्मृतियों का ही सहारा लिया है, क्योंकि मैं गाँव से आया हुआ हूँ
और ग्रामीण परिवेश की स्मृतियों को संजोए हुए मैं दिल्ली जैसे महानगर में रह रहा
हूँ। मेरी जड़ें ही मेरी ताकत है। मेरी जनता, मेरी भूमि, मेरा
परिवेश और उससे संचित स्मृतियाँ ही मेरी पूँजी है। मैं अपने साहित्य में इन्हीं का
प्रयोग करता रहा हूँ और बचे खुचे जीवन में भी जो कुछ कर पाऊँगा उन्हीं के बिना पर
कर पाऊँगा।’’
उनकी
यह उक्ति शिष्टोक्ति है, केदारनाथ
सिंह जैसे अति भद्र, अति
शिष्ट कवि अपने मुँह से कैसे स्वीकार करते कि वे जनकवि हैं! पर वे जनकवि हैं।
जनकवि सम्बोधन से हिचकने के पीछे हो न हो उनके मन में जनकवि नागार्जुन के लिए बसा
आदर-भाव हो कि जो विशिष्ट सम्बोधन नागार्जुन को दिया गया है, मैं कैसे लूँ! पर तथ्यतः वे जनकवि
हैं।...जनकवि कौन हो सकते हैं? जिनके
काव्य-विषय, भाषा-व्यवहार, शिल्प-संरचना, जीवन-दर्शन...में जन-जन के
राग-विराग, सुख-सुविधा, दुख-दुविधा, उमंग-उल्लास, जय-पराजय, आशा-निराशा की चिन्ता मौजूद हो, वही तो जनकवि कहलाएँगे! संयोगवश
कवि केदारनाथ सिंह के यहाँ ये सभी मौजूद हैं। चित्रांकन की शैली बेशक नागार्जुन से
भिन्न है, पर है वही सब।
जनपदीय जीवन, ग्रामीण
संवेदना, लोक-चेतना, लोक-व्यहार के चुस्त मुहावरे, विशिष्ट बिम्ब, स्पष्ट प्रतीक को उन्होंने आधुनिक
रचना संसार में विशिष्ट महत्त्व दिया, बल्कि ऐसा कहना बेहतर होगा कि इनके सहारे उन्होंने अपने कहन को
ताकतवर बनाया। अब जनजीवन के उपादानों से अपनी रचनात्मकता का संसार रचनेवाले, जनजीवन के सामान्य व्यवहार को
अपनी रचना में लाकर विशिष्ट बना देनेवाले कवि को जनहित का कवि कहने में कोई दुविधा
क्यों हो? कवि केदारनाथ
सिंह जन-जन की सूक्ष्म संवेदनाओं के मर्म को पहचाननेवाले अनूठे कवि हैं और उनकी
समस्त कविताओं के साथ-साथ ‘नमक’ अति विशिष्ट कविता है।
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मात्र
तिरपन शब्दों में सिमटी केदारनाथ सिंह की एक छोटी-सी कविता ‘दाने’, पाठकों को अपनी व्यंजना से यकायक भौंचक कर देती है। छोटे आकार
की यह बड़ी कविता सन् 1984 में
लिखी गई। सन् 1980 के
दशक के सियासी खेल और जनजीवन से परांग्मुख सत्तालोलुप राजनीतिज्ञों की दुर्नीति से
दुनिया का हर सचेत प्राणी अवगत है। हर कोई जानता है कि राजनीतिक विसंगतियों के
कारण उस दौर के भारतीय समाज की जीवन-दशा दुर्वह बन गई थी। पारम्परिक पद्धति की
किसानी से प्राप्त कमजोर पैदावार कृषकों को हतोत्साह कर चुकी थी। सूखा, बाढ़ और दुर्भिक्ष जैसे प्राकृतिक
प्रकोप से नागरिक-जीवन तबाह था, सहज-जीवन
के पुनरागमन की आशा मिटती जा रही थी। फिर भी नागरिक-पीड़ा से परांग्मुख हो चुके
राजनेताओं की मूल चिन्ता में नागरिक-जीवन का यह पराभव शामिल नहीं था। वे तो सियासी
खेल में संलिप्त थे। इस कविता का विषय यकीनन ये परिस्थितियाँ नहीं हैं, किन्तु इसके लिखे जाने की
पृष्ठभूमि इन्हीं की परिणतियों से तैयार हुई। इस क्रम में स्मरण सुसंगत होगा कि
सन् 1965 के भारत पाक
युद्ध के दौरान भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री द्वारा दिए गए
‘जय जवान जय
किसान’ के नारे ने
भारत के जवानों एवं किसानों को शिखरस्थ महत्त्व दिया था। इसे भारत का राष्ट्रीय
नारा भी कहा जाता है। इसमें जवान एवं किसान के श्रम के प्रति सम्मान भाव दिखता है।
बाद में किसानों के मसीहा चौधरी चरण सिंह ने भी इस दिशा में सराहणीय काम किए।
उन्हीं के प्रयासों से सन् 1952 में ‘जमीन्दारी उन्मूलन विधेयक’ पारित हो सका, जिसने सदियों से शोषित मजदूरों
एवं किसानों के जीवन में तनिक राहत दी। वे मानते थे कि किसानों के बूते ही किसी
देश में खाद्यान्नों की खुशहाली सम्भव है। अपनी उपज के समुचित मूल्य की प्राप्ति
को वे किसानों का हक समझते थे। अपने वित्तमन्त्रित्व काल में बजट बनाते समय वे
किसानों का विशेष ध्यान रखते थे। सन् 1979 में उन्होंने राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक
(नाबार्ड) की भी स्थापना की। बाद में उन्होंने अपने प्रधानमन्त्रित्व काल (28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी, 1980) में किसानों
की दशा सुधारने के लिए कई नीतियाँ बनाईं। किसानों के हित में कई विशिष्ट कार्य
किए। किसानों की उपज के भण्डारण एवं विक्रय के लिए वित्त-पोषित स्वयात्तशासी समिति
निर्मित की गई, जिसमें
माना गया कि भारतीय किसान बिचौलियों के शोषण से मुक्त रहेंगे। किसानों के प्रति
उनकी इन्हीं संवेदनाओं को देखते हुए अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली सरकार ने
सन् 2001 में उनके
जन्म-दिवस (23
दिसम्बर) को किसान दिवस घोषित किया। सैद्धान्तिक रूप से इन तमाम प्रसंगों में जैसा
भी सब्ज़बाग़ दिख रहा हो, परन्तु
धरातल पर सारा कुछ उसके विपरीत हो रहा था। सन् 1984 आते-आते खलिहान से मण्डी जाते हुए दानों की क्रिया में
किसानों के साथ छलावा होने लगा था। उस छलावे को सामान्य लोग पहचान नहीं पाते थे; पर गहरी जीवन-दृष्टि और जन-जन से
निजी सरोकार रखनेवाले महान कवि केदारनाथ सिंह ने इसे पहचान लिया था। उन्हें
किसानों की दुर्वह दशा बहुत सालती थी। उन्हें किसानों के लिए दानों के प्रतिदानों
का वह अनुराग दिख गया, जिसमें
दाने अपने उत्पादकों के पास रहना चाहते थे। मण्डी जाकर, फिर रूप बदलकर अजनबी वेष में वापस
नहीं होना चाहते थे। किसानों को बाजार और अर्थ-तन्त्र का शिकार होते देखकर कवि
तिलमिला उठे। लिहाजा उन्होंने दाने को ही अपनी कविता का वक्ता बनाया। भारतीय
किसानों की उस घनघोर दुरवस्था को कवि ने यहाँ विशिष्ट सन्देश के साथ उकेरा है। ‘दाने’ कविता में कवि को खलिहान से विदा
होते दानों का विद्रोह दिखा, जो
मण्डी नहीं जाना चाहते थे। वे दाने किसानों को भविष्य के खतरों से सावधान कर रहे
थे—
नहीं
हम
मण्डी नहीं जाएँगे
...जाएँगे
तो फिर लौटकर नहीं आएँगे
जाते-जाते/कहते
जाते हैं दाने
अगर
लौट कर आए भी
तो
तुम हमें पहचान नहीं पाओगे
अपनी
अन्तिम चिट्ठी में
लिख
भेजते हैं दाने...
सन् 1984 में लिखी गई यह छोटे आकार की बड़ी
कविता उस विकट परिस्थिति की ओर इशारा करती है, जो बाद में भी सुधर नहीं पाई। आगे के दिनों में ‘जय जवान जय किसान’ के नारे में ‘जय विज्ञान’ जुड़ गया, फिर ‘जय अनुसन्धान’ भी जुड़ा; पर किसान और दाने लगातार अपनी
बदहाली की ओर जाने को विवश हैं।
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कवि
केदारनाथ सिंह को आधुनिकता एवं विज्ञान से कोई वैर नहीं था, जनहितकारी वैज्ञानिक आविष्कार का
उन्होंने सदैव स्वागत किया। किन्तु जीवन की सहजता के संघाती विज्ञान और आधुनिकता
उन्हें कतई पसन्द नहीं थी। वे जब ट्रेन पर चढ़ते थे, वायुयान से उतरते थे तो विज्ञान और वैज्ञानिकों को ढेरो
धन्यवाद देते थे; थोड़ा-सा
धन्यवाद ईश्वर को भी देते थे। विज्ञान और वैज्ञानिकों को धन्यवाद शायद इसलिए कि
उन्होंने ट्रेन और वायुयान बनाया;
जिसने
दूरस्थ मनुष्यों की दूरी घटाई, मानव-मूल्यों
के मेल-मिलाप की सम्भावना बढ़ी; ईश्वर
को भी थोड़ा-सा धन्यवाद सम्भवतः इसलिए कि उन्होंने उस खास वैज्ञानिक को ट्रेन और
वायुयान जैसे सकारात्मक संयन्त्रा बनाने की प्रेरणा, बुद्धि और अवसर दिया तथा इस संयन्त्रा की सुविधा का लाभ लेते
हुए कवि सकुशल रह गए। यहाँ ईश्वर की उपस्थिति के कारण, कवि-चिन्तन अथवा उनकी वैचारिकता
में सन्देह के अँखुवे कोई न तलाशें,
क्योंकि
ईश्वर यहाँ इत्यादि की तरह हैं, भाषिक
कौशल से ‘थोड़ा-सा
धन्यवाद’ देते हुए कवि
ने अपनी निरपेक्षता स्पष्ट भी कर दी है। पर मुख्य बात है--‘विज्ञान की रोशनी’, ‘विज्ञान का अन्धकार’ और ‘कवि की नीन्द’। ‘विज्ञान और नीन्द’ कविता की पंक्तियों के एक-एक शब्द में उन्होंने इतनी
अर्थ-छवियाँ भरी हैं कि उनकी व्याख्या मानव-सभ्यता की पूरी पद्धति पर भारी लगती
है--
और
रोशनी में नहीं आती नीन्द
तो बत्ती
बुझाता हूँ
और सो
जाता हूँ
विज्ञान
के अन्धेरे में
अच्छी
नीन्द आती है।
सभ्यता
विकास के आरम्भिक दौर में जब मनुष्य ने ‘हाथ’ और ‘माथ’ का उपयोग सीखा, तो सबसे पहले आत्म-रक्षा एवं
जीवन-संचालन हेतु पत्थर के औजार बनाए। शिकारी से गृहस्थ, जंगली से सभ्य हुआ मनुष्य क्रमशः
ज्ञानी हो गया, विज्ञानी
हो गया, आविष्कार करने
लगा, पलक झपकते
प्रलय-विध्वंस करने की ताकत पा ली। हिंसक पशुओं से अपनी रक्षा की गुहार लगानेवाला
मनुष्य पूरी मनुष्यता की तबाही का कारण बन गया। आत्म-रक्षा की चिन्ता में पत्थरों
के औजार बनानेवाला मनुष्य स्वयं विनाशकारी औजार हो गया। दुनिया भर के मनुष्यों की
पारस्परिक दूरी मिटाने के लिए यान बनाने वाला वैज्ञानिक धरती से मानव-मूल्य मिटाने
का विध्वंसक बनाने लगा। विकास के किसी दौर में अज्ञान को अन्धकार और ज्ञान को
प्रकाश कहा गया। विज्ञान ने मनुष्य को ऐसा ज्ञानी बनाया कि वे बारूद-बम के साथ-साथ
मानव-बम भी बनाने लगे। कारण अकारण मनुष्य विध्वंसकारी, आत्मघाती और आतंक के पुतले हो गए।
धर्म, सम्प्रदाय और
राजनीतिक लिप्सा ने मनुष्यता को दानवीय चेष्टा में लिप्त कर दिया। सदियों की
अर्जित सभ्यता त्यागकर मनुष्य खूँखार राक्षस हो गया। विज्ञान के इस उदग्र विकास ने
मनुष्य की जीवन-व्यवस्था को ऐसा निस्सहाय और मानवता को ऐसा बदहाल बनाया कि कवि
केदारनाथ सिंह की नीन्द उड़ गई। सुसभ्य हुए विज्ञान-सम्मत मानव-समुदाय की
जीवन-व्यवस्था पल-पल शंकाकुल रहने लगी। विकास की गति बढ़ाने और मनुष्यों के बीच की
दूरी मिटानेवाले विज्ञान ने ऐसी रोशनी फैलाई कि कवि को विज्ञान की रोशनी में नीन्द
नहीं आती; उन्हें
विज्ञान के अन्धेरे में अच्छी नीन्द आती है, क्योंकि सचेतन मनुष्य को किसी निर्भीक वातावरण में ही नीन्द आ
सकती है, सन्देहास्पद
वातावरण रहस्यमय ढंग से नीन्द उड़ा ले जाता है। विज्ञान एवं आधुनिकता के जिस अवदान
में वे मानवीय अनुराग, नैतिक
आचार, लौकिक व्यवहार
और विवेकी दृष्टि के अनुरक्षण का उद्गार नहीं देखते थे, उन्हें बड़ी असहजता होती थी, चिन्ता होती थी। इन मानवोचित
मूल्यों का क्षरण उन्हें किसी भी मूल्य पर स्वीकार्य नहीं था। अपनी ग्राम्य पद्धति
भी उन्हें इसी अर्थ में प्रिय थी। अपनी व्याकुल संवेदनाओं को रेखांकित करने के लिए
वे अक्सर व्यतिरेकी प्रसंगों का सहारा लेते थे। वैज्ञानिक संसाधनों के दुरुपयोग
में तो उनका यह कौशल और विलक्षण हो जाता था। बबूल के नीचे सो रहे एक बच्चे; जिसकी मजदूरी करती माँ सोहनी में
व्यस्त है; बबूल
के काँटों की छाया उसे थपकियाँ दे रही है; नीचे से माटी उसे झुलना झुला रही है; एक बासी रोटी, एक टिन का डब्बा, एक खाली टोकड़ी उस बच्चे के बगल
में सो रही है। ऐसे करुण समय में,
जब
ममता और मजदूरी का जटिल संघर्ष चल रहा हो, और देश के नियन्तागण आयुध और अन्तरिक्षयान प्रक्षेपित करने में
व्यस्त हों, कवि
केदारनाथ सिंह दुनियावालों को आगाह करते हैं--
दिल्ली
से कह दो
हरिकोटा
से कह दो
दुनिया
के सारे राडारों से कह दो
एक
अभी-अभी बना
अन्तरिक्षयान
सो रहा है
बबूल
के नीचे
...
अभी
उड़ने में देर है
माँ
अभी व्यस्त है सोहनी में
दूध
अभी गरम हो रहा है
पसीने
की आँच पर
बनिहारी
अभी मिलेगी
छह
घण्टे बाद...।
यहाँ
दिल्ली, हरिकोटा, राडार, अन्तरिक्षयान, बबूल की छाँव, उड़ान की तैयारी, सोहनी में माँ व्यस्तता... सारे
के सारे रूपक अर्थान्वेष के किसी न किसी विराट फलक को छू रहे हैं। भारतीयता के मूल
मर्म की कीमत पर वे किसी विज्ञान या किसी आधुनिकता को महत्त्व नहीं देते थे।
प्रसंगानुकूल गत शताब्दी के प्राथमिक चरण में आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री द्वारा
लिखित आलेख का उल्लेख उचित होगा। उक्त आलेख में उन्होंने विशाखदत्त के संस्कृत
नाटक ‘मुद्राराक्षस’ और शेक्सपीयर के अंग्रेजी नाटक ‘जूलियर सीजर’ का तुलनात्मक अध्ययन किया है।
दोनों नाटक ऐतिहासिक हैं, राजनीतिक
भी। दोनों के योद्धाओं के एक-एक गुरु हैं--चाणक्य और केशियस। अपने-अपने शिष्य को
विजयी घोषित कराना दोनों ही गुरुओं की परम चिन्ता है, लेकिन केशियस अपने शिष्य को पीठ
में छुरा घोंपना सिखाता है; ऐसी
अनैतिक प्रेरणा चाणक्य कभी नहीं दे सकते थे। जानकी वल्लभ शास्त्री अन्त में प्रश्न
करते हैं कि दुनिया में यदि बौद्धिक वर्ग से किसी नेता का चयन किया जाना हो तो ऐसा
अशिष्ट काम करवाने वाले गुरु को कोई बौद्धिक नेतृत्व कैसे दे? उनकी समझ से यदि बौद्धिक
नेतृत्त्व दिया जाना हो तो वह चाणक्य को दिया जाना चाहिए, जो भारत में पैदा हुए। केदारनाथ
सिंह को आधुनिकता और वैज्ञानिकता के सारे अवदान अपनी भारतीयता के इसी मूल्यबोध के
साथ पसन्द थे।
उनका
रचनात्मक उद्यम जीवन भर इसी पीड़ा से बेचैन रहा। उनकी कविता में यह बेचैनी विराट
व्यंजना से व्यक्त होती आई है। यह व्यंजना उनके रचना-कौशल के उत्कर्ष को रेखांकित
करती है। उनकी भाषिक संरचना, शब्द-संयोजन
और कहन-पद्धति ऐसी विशिष्ट है कि उससे प्रेरणा तो ली जा सकती है; नकल नहीं किया जा सकता। ऐसी सहज
भाषा कि उसमें डूबकर खेलने का मन करे और प्रहारक ऐसी कि भावक-मन हिल उठे। नैतिक-बल
और जीवनी-ऊष्मा से पूरी समाज-व्यवस्था को भर देनेवाली केदारनाथ सिंह की कविता
वस्तुतः सभ्यता-समीक्षा का प्रतिवेदन है, जिसमें वे किसी के लिए धिक्कार-फटकार की बात नहीं करते, किसी के करतब पर कोई भद्राभद्र
टिप्पणी नहीं करते, सर्वत्र
अपनी अनुभूति व्यक्त करते हुए सुबुद्ध भावकों के लिए इशारा कर देते हैं। जैसे
सचमुच वे विश्वास दिला रहे हों कि वे वस्तुतः कोई ‘कविता नहीं कर’
रहे
हैं, ‘सिर्फ आग की
ओर इशारा’ कर रहे हैं।
केदारनाथ सिंह की कविता में यह ‘आग’ अपनी बहुआयामी छवियों के साथ
उपस्थित है। सभ्यता के प्रारम्भिक समय से यह ‘आग’ मानव-जीवन
में ऊष्मा और प्रकाश देती आई है। बुराइयों को जलाकर राख करने में सहायक होती आई
है। किन्तु उपयोग की पद्धति सही न हो तो उपयोक्ता को जलाकर राख करने में भी उसे
देर नहीं लगती। शब्दों की ऐसी अभिव्यंजक प्रयुक्ति केदारनाथ सिंह के रचनात्मक कौशल
का मूल स्वभाव है। उल्लेखनीय है कि उनके यहाँ इस प्रयुक्ति-कौशल की परिणति ही देखी
जा सकती है; उसके
लिए कोई सूत्र गढ़ना असम्भव है। ‘जैसे छीमियों में धीरे-धीरे/आता है रस’, इस रस को आते हुए देखना असम्भव है। मनुष्यता के पक्ष में जीवन
की हर लड़ाई लड़नेवाले केदारनाथ सिंह जैसे महान कवि ने ऐसी विलक्षण दृष्टि पाई कि
उन्हें सदैव इस रस का आना भी दिखता रहा और मानव-मूल्य को धरती से लुप्त करनेवाली
शक्तियों के कारण इस रस का सूखना भी।
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अपनी
कविताओं में केदारनाथ सिंह ने फूल,
गन्ध, बादल, डगर, लहर, व्यथा, माटी...हर किसी के हक की वकालत की
है। मानवीयता के पक्ष में मानव-समुदाय से किसी का हक न छीनने का उन्होंने निवेदन
किया है क्योंकि इनमें से हर किसी का प्रकृत-आचरण अपनी आयु समाप्त कर एक नएपन के
लिए आग्रहशील होना होता है; जो
अन्ततः नए मनुष्य के लिए शुभद और उचित होता है---
फूल
को हक दो, वह
हवा को प्यार करे...
पंखुडी-पंखुडी
सारी आयु नाप कर दे दे...
किसी
एक अनदेखे-अनजाने क्षण को
नए
फूलों के लिए
गन्ध
को हक दो वह उड़े, बहे, घिरे, झरे, मिट जाए
नई
गन्ध के लिए
बादल
को हक दो...वह हर नन्हे पौधे को छाँह दे, दुलारे
...डगर को हक
दो--वह, कहीं
भी, कहीं
भी, किसी
वन, पर्वत, खेत, गली-गाँव-चौहटे
जाकर
सौंप
दे थकन अपनी...
लहर
को हक दो...
इस तट
पर भी आए...उस तट पर भी जाए...
व्यथा
को हक दो...
आने
वाले पावन भोर की किरन पहली
झेल
कर बिखर जाए...
माटी
को हक दो--वह भीजे, सरसे, फूटे, अँखुआए...
और
कभी न हारे...
नए
मानव के लिए!
मानव-मूल्य, नीति-मूल्य, वस्तु-मूल्य की सुरक्षा के इतने
बड़े गायक कम होंगे जिन्होंने अपने हर प्रेक्षण से समाज को मनुष्यता और नवता की
प्रेरणा दी। चराचर के किस प्रसंग से बात शुरू कर वे किस व्यंजना को मुखरित कर दें, अनुमान करना कठिन है। सन् 1984 में रचित उनकी कविता ‘नीम’ दतुअन तोड़ने शुरू हुई और स्वार्थ
एवं चेतना के नैतिक संघर्ष पर आकर इस तरह समाप्त हुई कि समाज-व्यवस्था की
स्वार्थपरता और तत्कालीन राजनीतिक गुत्थियों के काँटे बरबस दिखने लगे। सन् 1984 से पीछे का एक पूरा दशक भारतीय
राजीतिक व्यवस्था में चक्रवाती संघर्ष की तरह बीता था। निरंकुश हो गई
शासन-व्यवस्था की पराजय, नवारूढ़
शासकों की ओछी नीति, मध्यावधि
चुनाव, बेहिसाब
मँहगाई...सबने मिलकर नागरिक परिवेश की साँस-प्रक्रिया दुर्वह बना डाली थी। यह समय
स्वर्ण-मन्दिर में भारतीय सेना के हमले (6 जून 1984) या कि
अपने अंगरक्षकों के हाथों भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी की हत्या
(31 अक्टूबर 1984) या कि सिख विरोधी प्रतिक्रियावादी
दंगे से पहले का समय है; किन्तु
पूरे राष्ट्र की समाज-व्यवस्था और मानव जाति का सम्बन्ध-मूल्य अलगाववादी नीति के
गहरे दबाव में था। मानवीय चेतना गहन अन्तद्र्वन्द्व में फँसी थी। ऐसा भी नहीं था
कि नीति और स्वार्थ की धुँधली-सी फाँक को मनुष्य समझ नहीं पाता था; किन्तु तात्कालिक सुख की लिप्सा
से मानवीय विवेक समझौता अवश्य करने लगा था। नीति और स्वार्थ के इस संघर्ष में विजय
हमेशा स्वार्थ की नहीं होती थी; कभी-कभी
विवेक भी बाजी मार लेता था, किन्तु
स्वार्थ के उस पराजय का दुख मानवीय आचरण में समाया रहता था। ‘नीम’ कविता के काव्य-नायक का मन किया
कि चैत के खुशगवार मौसम में दतुअन के लिए खेत से नीम के दो-चार हरे-हरे छरके तोड़
लाए जाएँ। मानवीय मूढ़ताओं को रेखांकित करते समय अक्सर ध्रुवान्त व्यतिरेक का उपयोग
करने के कवि केदारनाथ सिंह के कौशल से सुधीजन सुपरिचित हैं। पाखण्ड-नीति के सृजेता
मनुष्य की छद्म चेतना को ध्वस्त करते समय वे नागार्जुन की तरह ऐसे विरोधी रूपक
गढ़ते हैं कि घोर निर्लज्ज भी लाज के सागर में डूब जाए। ‘दाने’, ‘नीम’, ‘नमक’ जैसी कविताओं में ‘जड़’ के समक्ष ‘चेतन’ को, प्राकृतिक उपादान के समक्ष मानवीय चेतना को शर्मसार होते देखा
जा सकता है। ‘नीम’ कविता का काव्य-नायक नीम की
अहमियत भूल चुका है, किन्तु
उनके दाँतों को वे भली-भाँति याद हैं। गौरतलब है कि दाँत का ऐसा उपयोग कवि ने
मनुष्य की स्वाद-लिप्सा के कारण और दाँतों के हिंसक स्वभाव के कारण किया है।
मनुष्य के जीवन में स्वाद की यह लिप्सा ऐसी अविवेकी स्थिति उत्पन्न करती है कि उसे
किसी भी गलीज आचरण में उतरते देर नहीं लगती। भावक चाहें तो इस स्वाद को जीभ, जाँघ, खजाना...किसी भी घटक में उपस्थित
कर सकते हैं। इस स्वाद के आकर्षण में काव्य-नायक सुपरिचित मेड़ों और पगडण्डियों को
लाँघते-फलाँगते बरसों पुराने घने नीम के पेड़ तक पहुँचा और रुककर कुछ देर उसे ध्यान
से देखकर एक डाल को झुकाकर छोटी-सी हरी छरहरी, काँपती हुई टहनी खींच ली; बस तोड़ने को ही थे कि अचानक नीम तले बैठे आँखें मूँदे मौन किसी
व्यक्ति पर दृष्टि पड़ी और सोच में पड़ गया कि वे दतुअन तोड़ें या न तोड़ें! और, अन्त में उस बैठे हुए आदमी की ओर
देखकर एक अजब-सी पीड़ा से उस टहनी को छोड़ दिया। लौटते समय रास्ते भर खुद से लड़ता
रहा, खुद को समझाता
कि--यदि कहीं तोड़ ही लेता/कुछ हरी कच्ची उमगती हुई शाखें/तो उसका क्या होता/जो
उन्हीं के नीचे बैठा था...।
सोचना
होगा कि इस कविता में नीम का बरसों पुराना यह घना पेड़, काँपती हुई हरी छरहरी टहनी, नीम तले आँखें मूँदे मौन बैठा
आदमी कौन है? काव्य-नायक
को इस मौन बैठे आदमी से इतना भय क्यों हुआ? उन्हें अपना सोचा हुआ काम क्यों छोड़ना पड़ा? लौटते समय उनके मन में
अन्तद्र्वन्द्व क्यों मचा?...कविता
के ऊपरी तल पर अर्थान्वेष करने से न तो इस ‘कौन’ और ‘क्यों’ का उत्तर मिलेगा, न ही काव्य-व्यंजना की गाँठें
खुलेंगीं। अभिधेयार्थ से कविता की अर्थ-ध्वनि खोल पाना मुश्किल होता है। जटिल समय
के गिरफ्त में फँसे समकालीन समाज के प्रयोजन का संज्ञान लेकर ही किसी कविता का सही
अर्थ निकाला जा सकता है। केदारनाथ सिंह की कविता पर तो यह बात खास तौर पर लागू
होती है। सामान्य स्तर पर ‘नीम’ कविता पर्यावरण-सुरक्षा पर आधारित
दिखेगी; किन्तु इसकी
वास्तविक ध्वनि विराट है।
स्वाधीनता
के शुरुआती समय से ही सुबुद्ध भारतीय नागरिक उत्तरोत्तर भयावह होते जा रहे लोकतन्त्र
का विकृत चेहरा देखता आ रहा था। सामाजिक-व्यवस्था चरमराई हुई थी। सन् 1984 आते-आते यह स्थिति गर्हित
दिनचर्या जैसी हो गई। नागरिक-जीवन द्वन्द्व-दुविधाओं से भरा हुआ था। आपातकाल, छठी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की
पराजय, सातवीं लोकसभा
चुनाव के रूप में मध्यावधि चुनाव...सबने मिलकर भारतीय मानस से स्वार्थ और विवेक की
विभाजक रेखा समाप्त कर दी थी। छठी-सातवीं लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया से भारत की नई
पीढ़ी अवसन्न थी। पहले से चली आ रही राजनीतिक अनैतिकता, शासकीय अकर्मण्यता, घूसखोरी, चाटुकारिता, मँहगाई, बेरोजगारी, भविष्य के प्रति युवाओं की
अनास्था निरन्तर बढ़ती जा रही थी। लोभ-लालच में लिप्त समाज दिग्भ्रान्त हुआ जा रहा
था। नैतिकता की नकेल को स्वार्थ ने कुछ इस तरह अपनी ओर खींच रखा था कि लोग-बाग
उधेरबुन में थे। स्वार्थ का प्रेत उनके सिर पर इतना ऊँचा बोलता था कि उन्हें बरती
हुई नैतिकता में भी बरवक्त त्रुटियाँ दिखती थीं। मनुष्य का विवेक एकदम से मर नहीं
गया था, जीवित था, क्रियाशील था, और पल-पल लोगों को सही राह भी
दिखाता था; किन्तु
जीवन-संग्राम में जुटा आम नागरिक सदैव हताशा और क्रोध से भरा रहता था। अपने विवेक
से उसका द्वन्द्व होता था, ठहरकर
सोचने का अवसर उसे कभी मिलता नहीं था। उसका मन सदैव किसी चक्रवाती तूफान में उलझा
रहता था। बुनियादी सुविधा की पूर्ति के लिए एक से एक समझौता करता था; ओछी लिप्सा में उलझ जाना उसकी
विवशता होती थी। ‘नीम’ के काव्य-नायक की मनोदशा ऐसे ही
वातावरण में निर्मित हुई है। पर्यावरण-सुरक्षा या कि नीति-मूल्य की रक्षा का
समर्थक वह अवश्य है; किन्तु
उसके दाँतों में बसा भोगा हुआ स्वाद उसकी नैतिकता पर भारी पड़ जाता है। वह नीम की
काँपती हुई हरी छरहरी टहनी तोड़ने लगता है। पर ऐसी ही परीक्षा की घड़ी में उसका विवेक
सामने प्रकट हो जाता है। नीम तले आँखें मूँदे मौन बैठा वह आदमी, कोई और नहीं, उसका विवेक ही है, जो उसे जगाता है, सावधान करता है; विवेक चूँकि अमूर्त्त होता है, इसलिए वह किसी से कुछ कहता नहीं, बस प्रकट भर हो जाता है। और, यहीं आकर कवि का काव्य-नायक विजयी
होता है। यही है काव्य-विवेक की नैतिक विजय। घटाटोप अन्धकार में भी रोशनी की कोई
किरण तलाश लेने की सकारात्मकता सदैव केदारनाथ सिंह के यहाँ व्याप्त रहती है। टहनी
छोड़कर आ जाने के बाद काव्य-नायक के मन में बेशक द्वन्द्व चलता है; किन्तु उस द्वन्द्व में भी विजय
उसकी नैतिकता की ही होती है।
तोड़
ही लेता
कुछ
हरी कच्ची उमगती हुई शाखें
तो
उसका क्या होता
जो
उन्हीं के नीचे बैठा था...
पंक्तियों
में कोई ऐसा न तलाशें कि वह पश्चाताप में है; बल्कि वह अपने स्वार्थ को फटकार-सा रहा है कि मैंने जो कुछ
किया, सही किया, इससे अलग कुछ करता, तो ‘उसका क्या होता?’ अर्थात् उसके विवेक का क्या होता, जो उस पेड़ के नीचे अमूर्त्त बैठा
था।
ऐसे
दुर्मुख वातावरण में जीवन-बसर करता नागरिक व्यावहारिक तौर पर पल-पल युद्धरत रहता
है। जीवन-यापन की बुनियादी शर्तें उसकी नैतिकता को कई स्तरों पर मजबूर करती हैं।
समझौता उसकी नियति बन जाती हैं। परिवेश के प्रभाव से निरपेक्ष रह पाना उसके वश में
नहीं होता; विवेक-रक्षा
की चिन्ता उसे सताए रहती है। पर केदारनाथ सिंह जैसे सकारात्मक कवि का काव्य-नायक
पराजित नहीं होता। अपने दौर के मानवीय आचरण से प्रभावित वह अवश्य होता है, पर उसका विवेक फिर भी जीवन्त रहता
है। दिनचर्या के मुश्किल दौर में भी अपनी नैतिकता को विजयी बना लेता है। लिप्सा और
नैतिकता उसके जीवन का अविभाज्य सत्य अवश्य है; पर नीम के उस बरसों पुराने घने पेड़ की काँपती हुई हरी छरहरी
टहनी को वह ज्यों ही तोड़ने के लिए झुकाता है; नीम तले आँखें मूँदे मौन बैठा आदमी उसके सामने प्रकट हो जाता
है। यह मौन बैठा अमूर्त्त आदमी उसका विवेक है, जो उसे जगाता है और वह अपना सोचा हुआ आवंछित काम छोड़ कर वापस
चला आता है। यह कविता उस दौर के सभी स्वार्थियों को विवेक-रक्षा की प्रेरणा देती
है।
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उनकी कविताओं
की यह खास विशेषता है कि उसकी सीमा में कभी एक बार आ गया भावक, चाहकर भी उनके रचना-संसार से पीछा
नहीं छुड़ा सकता। दैनिक जीवन का जैसा वैविध्य उनकी कविताओं में भरा हुआ है, उसमें कोई भावक कहीं भी खड़े हों, केदारनाथ सिंह की कविता चुपके-से
जाकर उनके बगल में खड़ी हो जाती है और बड़ी विनम्रता से उन्हें परिस्थितियों की तह
में ले जाकर उसकी भयावहता से परिचय कराने लगती है। उनकी कविता के जनपद में सृष्टि
के किसी प्राणी, पादप, वातावरण की उपस्थिति वर्जित नहीं
है। जाति, धर्म, लिंग, सम्प्रदाय, सजीव, निर्जीव, चर, अचर का कोई भेदभाव नहीं है। हर कोई अपने सम्पूर्ण अस्तित्व और
अस्मिता के साथ आते हैं। दतुअन से लेकर वायुयान तक, कपास के फूल से लेकर तौलिया तक, नूर मियाँ से लेकर माँ, पिता, दिवंगता
पत्नी और प्रेमिका तक में किसी के साथ केदारनाथ सिंह का कवि कोई पक्षपात नहीं करता, सबका समुचित दाय उन्हें अर्पित
करता है। उनका काव्य-चरित्र किसी भी बदलाव या परिवर्तन या आन्दोलन के लिए कोई
शोर-शराबा, नारेबाजी
नहीं करता, वह
दरियों में दबे हुए धागे और बुनकर का संवाद ही क्यों न हो, चुपके-से अपनी बात कहकर दुबक लेता
है, और भावक
उद्वेलित हो जाते हैं--
दरियों
में दबे हुए धागो उठो
उठो
कि कहीं कुछ गलत हो गया है
उठो
कि इस दुनिया का सारा कपड़ा
फिर
से बुनना होगा
उठो
मेरे टूटे हुए धागो
और
मेरे उलझे हुए धागो उठो।
तह
लगाए उनके सधे हुए शब्द बड़ी सादगी से बड़ी-बड़ी बात कह जाते हैं। उक्त पंक्तियाँ
अचानक से भावकों को लिए-दिए कबीर के पास पहुँचा देती है, जहाँ पूरी दुनिया की बुनावट में
कवि के बुनकर को गलती दिखने लगी है और इस पूरी दुनिया की गलती को कवि का बुनकर और
धागा खुद अपने बूते सुधारना चाहता है। सुधी जन चाहें तो कवि-दृष्टि की इन
पंक्तियों से आज के नागरिक जीवन का मूल्यांकन कर सकते हैं। धागों को दी जा रही यह
ललकार पूरी व्यवस्था के जर्रे-जर्रे में मौजूद बदहाली की ओर इशारा कर रहा है। भाषा
एवं साहित्य की अध्यापकी करते हुए हिन्दी उनके रोजगार और लेखन की भाषा अवश्य थी; किन्तु गाँव, ग्रामीण समाज, और भोजपुरी उनके अन्तरंग में बसी
हुई थी। छुट्टियों में गाँव जाना उनकी आदत-सी थी, गाँव का अनुभव सुनाते हुए अक्सर कहा करते थे कि गाँव में कहीं
धोखे से बात करते हुए इतर भोजपुरी कोई वाक्य आदतन निकल जाए तो लगता है कि मैं झूठ
बोल गया। भोजपुरी भाषियों से भोजपुरी के अलावा किसी अन्य भाषा में बोलना उन्हें
कभी नहीं सुहाया। कुछ विगत वर्षों से हमारे देश में भाषाओं की राजनीति मुखर हो उठी
है। नाखून कटाकर शहीदी जत्था में नाम लिखवाने की कला में माहिर कुछ साहित्यजीवियों
के आह्वान पर जो निश्छल लोग उनके पीछे जा रहे हैं, उनके लिए केदारनाथ सिंह की कविता ‘देश और घर’ निश्चय ही दिव्य-दृष्टि देगी--
हिन्दी
मेरा देश है
भोजपुरी
मेरा घर
घर से
निकलता हूँ
तो
चला जाता हूँ देश में,
देश
से छुट्टी मिलती है तो लौट आता हूँ घर
इस
आवाजाही में
कई
बार घर में चला आता है देश
देश
में कई बार
छूट
जाता है घर
...
मैं
दोनों को प्यार करता हूँ
और
देखिए न मेरी मुश्किल
पिछले
साठ वर्षों से
दोनों
में दोनो को खोज रहा हूँ।
राजभाषा
हिन्दी और मातृभाषा भोजपुरी में ऐसे महान कवि की यह आवाजाही उन्हें किसी तरह की
दुविधा नहीं देती, पर
हमारे राजनीतिज्ञ हैं कि पल-पल आशंकित ही रहते हैं। क्योंकि असल में उन्हें भाषा
के संरक्षण की चिन्ता नहीं है, असल
में चिन्ता उन्हें अपनी कुर्सी की है कि जनता के पास उसकी भाषा रह जाएगी, तो बोलेंगे; और बोलेंगे तो हमसे सवाल करेंगे; शासक सवाल पसन्द नहीं करते; वे अपने आदेश का अनुपालन पसन्द
करते हैं। ‘देश
और घर’ कविता
में केदारनाथ सिंह अपने समय के नागरिकों को अपनी धारणा बताकर सन्देश देना चाहते
हैं कि भाषाओं से वैर रखनेवाला हर व्यक्ति षड्यन्त्राकारी रानीतिज्ञों का शिकार हो
जाता है। चूँकि हर सावधान कवि अपने समय का स्वनियोजित सजग प्रहरी होता है; वह सदैव ही अपने समय के असावधानों
को सावधान करने का यत्न करता है। मानव-जीवन में भाषा का विशिष्ट स्थान है, भाषा के सारे उपयोक्ताओं को इस
बात की सही समझ नहीं होती। हर उपयोक्ता नहीं जानता कि भाषा वह नियामक है जो हर
सचेत मस्तिष्क को अपने हित में बहस करने की शक्ति देता है। इसलिए जब केदारनाथ सिंह
ने जनवृत्त में भाषा और बोली के नाम पर लोगों को खुसुरफुसुर करते देखा, तो अपनी धारणा स्पष्ट कर दी।
उपस्थित जटिल परिस्थिति में वे सीधे-सीधे किसी को मना तो कर नहीं सकते थे, यह उनकी शैली भी नहीं थी। वे किसी
को बरज नहीं सकते थे कि भाषा के नाम पर राजनीतिज्ञ आपको लड़ाने की तरकीब गढ़ रहे हैं, आपकी जबान छीनकर आपको गुलाम बना
रहे हैं, आपलोग मत
लड़िए! देश और घर जैसे रूपक के साथ अपने जीवन में हिन्दी और भोजपुरी का स्थान
निरूपित कर उन्होंने भाषा-द्रोहियों को नैतिक रूप से पवित्र करने की चेष्टा की है।
गौरतलब है कि जो व्यक्ति दूसरों की माँ और मातृभाषा का सम्मान नहीं करता, उसकी अपनी माँ और मातृभाषा का
सम्मान-भाव भी सन्देहास्पद है। दसअसल, अपने जनपद की भाषा और संस्कृति की तमीज की पहचान कवि-कर्म का
बड़ा दायित्व होता है। गाँव और समाज की जीवन-क्रियाओं में भाषा उन्हें इस तरह दिखती
थी कि (‘भोजपुरी’ कविता में) भोजपुरी की क्रियाएँ
उन्हें खेतों से, संज्ञाएँ
पगडण्डियों से, ध्वनियाँ
बिजली की कौंध और महुए की टपक से आई दिखीं। जी हाँ, दूसरों के बिगुल पर भाषा के लिए युद्ध में कूदनेवालों को गौर
करना चाहिए कि भाषा की प्राथमिक भूमि जनपदीय जीवन की क्रियाएँ ही हैं। तभी तो ‘भोजपुरी’ कविता में केदारनाथ सिंह ने कहा
कि
लोकतन्त्र
के जन्म से बहुत पहले का
एक
जिन्दा ध्वनि-लोकतन्त्र है यह
जिसके
एक छोटे से ‘हम’ में
तुम
सुन सकते हो करोड़ो
‘मैं’ की धड़कनें...।
उल्लेखनीय
है कि सन् 1960 के
बाद की कविताओं पर चर्चा करते हुए कुछ लोगों ने घोषणा की कि बिम्ब और प्रतीक के
घटाटोप में कविताएँ शक की चीज होने लगी है। यह और बात है कि ऐसे उद्घोषकों की अपनी
ही कविताओं में यह घटाटोप रहता था। इस मामले में केदारनाथ सिंह बड़े स्पष्ट थे; उन्होंने साफ-साफ कहा कि बिम्ब
कविता में विषय को मूर्त्त, दीप्त
और संक्षिप्त करता है। जाहिर है कि कविता में यह दीप्ति जनपदीय प्रयुक्तियों से
आती है। भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, मनुष्य की सोच समझ की पद्धति होती है। भाषा छिन जाने का अर्थ
केवल अभिव्यक्ति का माध्यम छिन जाना नहीं होता; सोच-समझ का आधार छिन जाना होता है। इस क्रिया के बाद मनुष्य
कुछ बोल नहीं सकता, न
विरोध कर सकता, न
समर्थन। केदारनाथ सिंह ने जब कहा कि भोजपुरी की क्रियाएँ खेतों से आई थीं, तो इसमें खेतों में होने वाली
समस्त क्रियाओं का वैराट्य उपस्थित हुआ है; यह वैराट्य इस कविता के एक-एक शब्द में समाया हुआ है।
गंगा-प्रवाह में अपनी माँ का अन्त्येष्टि कलश सिरा देने के तनिक देर बाद
जब वह
बहती हुई
चली
गई दूर तो ध्यान आया
हाय, ये मैंने क्या
किया
उसके
पास तो वीसा है न पासपोर्ट
जाने
कितना गहरा-अथाह जलमार्ग हो
जल के
कस्टम के जाने कितने पचड़े...।
गजब
की कल्पना है! ये जलमार्गी कस्टम के पचड़े, जल-तल की गहरी अँधेरी जाम-लगी सड़कें...जैसी कल्पनाओं में लोगों
को सतही तौर पर व्यथित हृदय का आर्त्त-भाव या क्षणिक उद्वेग लग सकता है, किन्तु अगली ही पंक्ति में जब
उन्होंने भागीरथी से कहा कि--
माँ,
माँ
का खयाल रखना
उसे
सिर्फ भोजपुरी आती है।
तो
अर्थ का विशाल क्षितिज खुल गया। चारो ओर की अर्थछवियाँ एकाएक जुटकर कविता को महान
बना गईं। कवि-कौशल की यह उज्ज्वलता प्रणम्य है कि उन्होंने ‘गंगा माँ’ से ‘माँ’ का खयाल रखने का निवेदन करते हुए
ऐसा नहीं कहा कि उन्हें भोजपुरी के अलावा कोई अन्य भाषा नहीं आती; उन्होंने कहा कि उन्हें सिर्फ
भोजपुरी आती है। सिर्फ एक भाषा के ज्ञानवाली अपनी माँ की भाषा को ऐसी भव्यता से
रेखांकित करना बड़ी विलक्षण दृष्टि का द्योतक है। देखने और समझने की ऐसी
जीवन-दृष्टि सहजता से नहीं आती। एक बेहतर समालोचक जब किसी सृजनात्मक कृति की
समीक्षा करता है, तो
अक्सर वह नागरिक वातावरण के जीवन-मूल्य और समाज-शास्त्रीय मानदण्ड को कृति के
मूल्यांकन की कसौटी बनाता है; किन्तु
हर सृजनात्मक कृति के रचनाकार अपने हर आयास में एक बेहतर समीक्षक होता है। वह पूरी
की पूरी मानव-सभ्यता का समीक्षक होता है। उसकी समीक्षा के दायरे में सामाजिक
जीवन-क्रम के साथ-साथ वे सारी कसौटियाँ भी आ जाती हैं, जिसके उपयोग से कोई समीक्षक किसी
रचना और रचनाकार का मूल्यांकन करता है। वह लोक और शास्त्र के उन विधानों की भी
परीक्षा करता है और उनकी विसंगतियों पर ऊँगली रखता है, जिससे जनजीवन संचालित होता है।
सन् 1997 में पिता के
दाह-संस्कार में मुखाग्नि देने के विधान ने उन्हें इस तरह मथ दिया कि ‘पिता के जाने पर’ शीर्षक से लिखी अपनी कविता में
उन्होंने कहा--
वही
मुख जिसने मुझे चूमा था बार-बार
जला
दिया मैंने उसे
शास्त्र
का आदेश था
और
मेरे भीतर का संशय...।
शास्त्र, संशय और संवेदना का ऐसा संघर्ष, जहाँ भावक को रोना पड़ जाए, फिर भी वह तय न कर पाए कि गलती
कहाँ है--देखने को कम मिलता है। वस्तुतः केदारनाथ सिंह सकल सृष्टि के जीवन-मूल्य
और सभ्यता-समीक्षा के कवि हैं, अपने
पूरे काव्य-संसार में उन्होंने चराचर के समस्त छवि-चित्रों को सूक्ष्मता से
रेखांकित किया है, और
अपने भावकों को ऐसी चुनौती दे गए हैं, जिसे अपना लिया जाए, तो सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, बौद्धिक, धार्मिक और वैज्ञानिक
परिस्थितियों को जनहितैषी होने में कोई कसर नहीं रह जाएगी। ऐसा हो पाया तो उन्हें
अब भी बहुत सुख मिलेगा, क्योंकि
वे कहीं गए नहीं हैं, जाते-जाते
कह गए हैं--
जाऊँगा
कहाँ
रहूँगा
यहीं
किसी
किवाड़ पर
हाथ
के निशान की तरह
पड़ा
रहूँगा
किसी
पुराने ताखे
या
सन्दूक की गन्ध में
छिपा
रहूँगा मैं...।
छिपने
जैसी उनकी छवि, आभा
या कि व्यक्तित्व था नहीं, पर
कहा है, तो होंगे कहीं
छिपे हुए, झूठ तो बोलते
नहीं थे...!