छायावादोत्तर काल के
सुविख्यात कवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का जन्म 05 फरवरी 1916 को मैगरा गाँव (गया, बिहार) में और निधन 07 अप्रैल, 2011 को मुजफ्फरपुर (बिहार) में हुआ। उनके सक्रिय साहित्यिक
जीवन का कर्म-क्षेत्र मुजफ्फरपुर ही है। हिन्दी में रचित उनकी कुल तिरपन कृतियों
(बीस काव्य-संग्रह, पाँच आलोचना-संग्रह, तीन संगीतिका, चार नाटक, पाँच उपन्यास,
पाँच कहानी संग्रह, एक ग़ज़ल संग्रह, एक महाकाव्य, सात संस्मरणात्मक कृतियाँ, दो
ललित निबन्ध-संग्रह) के अलावा संस्कृत में भी कई रचनाएँ उपलब्ध हैं। प्रारम्भ
में वे संस्कृत में ही कविताएँ लिखते थे। महाकवि
निराला की प्रेरणा से वे हिन्दी में आए। निर्लिप्त
साहित्य-सेवा हेतु उन्हें भारत-भारती, राजेन्द्र शिखर सम्मान, शिवपूजन सहाय सम्मान से सम्मानित किया गया। आत्म-गौरव
के प्रति वे इतने दृढ़ रहते थे कि दो बार (सन् 1994 और सन् 2010 में) उन्होंने भारत सरकार का पद्मश्री सम्मान लेने से मना कर दिया।
वे संस्कृत, हिन्दी, बांग्ला,
अंग्रेज़ी... अनेक भाषाओं में पारंगत थे। अल्पायु में ही वे अपने बहुभाषिक
ज्ञान, विषद अध्ययन और आलोचनात्मक विवेक से परिपूर्ण रचना-दृष्टि के लिए
ख्यात हो गए थे। उनकी आलोचनात्मक कृतियाँ यद्यपि पाँच ही हैं, पर अनुवर्ती
पीढ़ियों की शोध-दृष्टि विकसित करने हेतु वे पर्याप्त हैं। वे अपने सम्पूर्ण
लेखन में वस्तुनिष्ठता, प्रमाणिकता, नैतिकता के प्रति आग्रहशील दिखते हैं। जनहित
एवं राष्ट्रहित में रचनाओं की उपादेयता पर उनकी सावधानी एवं पाठ के प्रति सहृदयता
सदैव बनी रहती है। बहुभाषिक ज्ञान की बदौलत उन्हें मूल-पाठ के अवगाहन की सुविधा
थी। भाषा-ज्ञान की इस सुविधा के परिपाक से निश्चय ही उनका तुलनात्मक अध्ययन
सम्पुष्ट हुआ होगा, किन्तु तुलनात्मक-अध्ययन के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं
होता। बेहतर तुलनात्मक-अध्ययन के लिए विवेकशील आलोचना-दृष्टि की बड़ी भूमिका
होती है।
उल्लेखनीय है कि बहुभाषा-ज्ञान एवं विलक्षण आलोचना-दृष्टि के साथ-साथ
सबद्ध साहित्य-धाराओं की सूक्ष्मता से भी जानकीवल्लभ का गहन परिचय था। आलोचना-दृष्टि
में हासिल महारत के कारण उन्होंने कभी किसी रूढ़ हो गई विचारधारा की लीक नहीं
पीटी। साहित्य-सृजन हेतु उनकी अपनी जीवन-दृष्टि थी, जिसका किसी राजनीतिक
धारणा से कोई करार न था। उनका जीवन-दर्शन अनुभूत-सत्य और नागरिक-जीवन की
तर्कपूर्ण व्यवस्था से निर्धारित था। रचनात्मक सन्धान हेतु वे सतत लय, रस,
आनन्द और ज्ञान-दर्शन को प्रश्रय देते थे। सम्भवत: यही कारण हो कि उनकी रचनाएँ
भावकों को कोलाहल से दूर ले जाकर शान्ति और थिरता देती हैं। जीवनानन्द के बाधक
तत्त्वों पर सहजतम किन्तु घातक व्यंग्य उनके यहाँ ठौर-ठौर दिखता है। आनन्द
उनके यहाँ पाने की वस्तु है, छीनने की नहीं। किन्तु जानकीवल्लभ शास्त्री की आलोचना-दृष्टि पर विचार करने से पूर्व एक नजर हिन्दी की
आरम्भिक आलोचना के विकास-क्रम पर डालते हैं।
तथ्यत: आरम्भिक हिन्दी
आलोचना का विकास साहित्यिक वाद-विवाद से हुआ है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के ‘नाटक’ शीर्षक निबन्ध, लालाश्रीनिवास दास रचित नाटक ‘संयोगिता स्वयंवर’, ‘पृथ्वीराज रासो’ की मौलिकता, भारतेन्दु युग में गद्य-पद्य की भाषा, भारतेन्दु
रचित ‘पूर्ण प्रकाश और चन्द्रप्रभा’ के मौलिक या अनूदित होने के तर्क-वितर्क, सन् 1850-1900 तक के
समय को भारतेन्दु युग (जबकि उनका जीवन काल सन् 1850-1885 ही है) की संज्ञा, तिलिस्मी
घटनाओं से भरे उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ की संरचना एवं घटनाक्रम के ‘सम्भव-असम्भव’ होने के तर्क, प्रेमचन्द रचित
‘प्रेमाश्रम’ पर रघुपति सहाय फिराक की प्रशंसात्मक
और हेमचन्द्र जोशी की धज्जियाँ उड़ाती टिप्पणी, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के
समय में ‘भाषा की अनस्थिरता’ पर बहस, देव-बिहारी विवाद, ‘हिन्दी
नवरत्न’ विवाद, रीतिवाद बनाम स्वच्छन्दतावाद,
छायावाद काल में कविता के स्वरूप, भाषा और छन्द सम्बन्धी विवाद...बेशुमार
विवाद हैं, जिनके व्यवस्थित तर्कों और कई कुतर्कों से टकराकर हिन्दी आलोचना
पुष्ट हुई है, और साहित्य की विभिन्न विधाओं में सम्भावनाओं के नए-नए
अँखुवे फूटे हैं। इन बहसों की शुरुआत सन् 1885 से हुई, और बहस बढ़ती गई। हिन्दी-आलोचना
और साहित्येतिहास-लेखन का रूप निखरता गया।
बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक का अन्त
आते-आते हिन्दी में कई तरह के विस्मयकर बदलाव परिलक्षित हुए। उस काल तक आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल की प्रखर आलोचना-दृष्टि से लोग परिचित हो गए थे। नन्ददुलारे
वाजपेयी, हजारीप्रसाद द्विवेदी एवं रामविलास शर्मा जैसे समालोचकों की आलोचना-दृष्टि
आकार लेने लगी थी। अल्प-वय जानकीवल्लभ शास्त्री की प्रखर आलोचनात्मक-दृष्टि की
पहचान उन्हीं दिनों हुई। उसी बहुज्ञ पर्यवस्थिति में उनके आलोचनात्मक लेख
पत्रिकाओं में सम्मान पाने लगे। सन् 1936-1941 के बीच लिखे उनके निबन्धों का
बहुचर्चित संकलन साहित्य-दर्शन का पहला संस्करण (सन् 1943) आया।
बीस-पचीस वर्ष की आयु में लिखे गए इन आलेखों को सुधी पाठकों का पर्याप्त सम्मान
मिला। हिन्दी के सुविख्यात आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के उत्कर्ष-काल में
जानकीवल्लभ शास्त्री की आलोचना-दृष्टि को मिली वह जनस्वीकृति दिलचस्प थी।
उन दिनों आचार्य शुक्ल के आलोचनात्मक लेखन की तूती बजती थी। किन्तु जानकीवल्लभ
शास्त्री ने उनके आलोचना-स्रोत की उस तीव्र धारा को चुनौती देते हुए अपने लेख आलोचना
का आदर्श में कहा कि ''रामचन्द्र शुक्ल की आलोचनाएँ चरम-सत्य का फैसला
नहीं देतीं। ऐसा करना उनकी शक्ति-सामर्थ्य के बाहर की बात है।''[1]
कोई बेहतर आलोचकीय दृष्टि का नमूना प्रस्तुत किए बगैर ऐसी उद्घोषणा असम्भव
थी। अपने समय के स्थापित समालोचक की आलोचना-दृष्टि के शक्ति-सामर्थ्य को इस
तरह चुनौती देना बहुत आसान नहीं था। इस वक्तव्य में छवि-भंग की अहंकारपूर्ण
मंशा अथवा आत्ममुग्धता नहीं, बल्कि एक सतर्क आत्मविश्वास है। जाहिर है कि
उस आत्मविश्वास का सूत्र आचार्य शास्त्री की आलोचकीय-क्षमता में तलाशना होगा। उनका
यह आत्मविश्वास गहन अध्यवसाय, तथ्यात्मक इतिहास-बोध, मानवीय समाज-बोध एवं विवेकशील
तर्क-दृष्टि से परिपूर्ण था; जिसके प्रतिमान उनके आलोचना-कर्म में तैनात हैं।
हर
सृजनशील मनुष्य उपलब्ध परिस्थितियों में अपनी प्रतिभा, सुविधा, अनुभव और
सपनों के आश्रय से अपनी रचना-प्रक्रिया के लिए जैसा दृष्टिकोण अर्जित करता है
वही उसकी जीवन-दृष्टि होती है। उसका सम्पूर्ण जीवन-क्रम उसी दृष्टिकोण से
संचालित होता है। जन, राष्ट्र एवं मानवीयता के पक्ष में उठी हुई उसकी हर चिन्ता
और रचनात्मक-विवेक उसी जीवन-दृष्टि से निर्देशित रहता है। जीवन-दृष्टि निर्धारित
किए बगैर जो कोई कलम उठाता है, वह लेखक नहीं, अपराधी है। आचार्य जानकीवल्लभ
शास्त्री के पूरे रचनात्मक उद्यम में उनकी सुचिन्तित जीवन-दृष्टि स्पष्ट दिखती
है। वे बेहद जनसरोकारी, दायित्वबोध-सम्पन्न, राष्ट्र-हित भावना से परिपूर्ण
लेखक थे। उनका शिक्षार्जन बेशक संस्कृत पद्धति से हुआ, किन्तु वे विराट अध्ययन-फलक
और उदार वैचारिक दृष्टि के लोग थे। पाश्चात्य साहित्य से भी उनकी अन्तरंगता
थी। सन्तुलित विवेक-दृष्टि और कर्मनिष्ठ सृजनात्मकता के सारे प्रतिमान उनके
यहाँ तैनात मिलते हैं। जन एवं राष्ट्र के सर्वतोन्मुखी विकास की चिन्ता उनकी
रचनात्मकता का मूल उद्देश्य था। वे पल-पल इस दिशा में चिन्तित दिखते हैं।
इस चिन्ता से इतर साहित्य के अस्तित्व की कोई कल्पना उनके पूरे रचना-कर्म में
कहीं नहीं दिखती। उनका गहन इतिहासबोध, बहुविध अध्यवसाय, जन एवं राष्ट्र-हित-चिन्ता
सदैव उनके कहन की स्पष्टता और निर्भीकता को पुष्ट करती है।
अपनी विशिष्ट
कृति साहित्य-दर्शन के चौथे संस्करण के प्रकाशन के समय सन् 1967 में 'वेदना'
व्यक्त करते हुए उन्होंने उस दौर के अन्य समालोचकों की लेखकीय प्रतिबद्धता पर
भी इशारे में बात की। उन्होंने लिखा कि ''जब यह (ग्रन्थ) पहली बार प्रकाशित
हुआ था, तब आज के 'अशोक के फूल'[2]
नहीं खिले थे, 'कल्पलता' का भी पता नहीं था, होता तो कम-से-कम मैं यह
अवश्य समझ लेता कि 'साहित्य कोई गढ़कुण्डेश्वर के पुदीने का बगीचा नहीं है
कि विन्ध्याटवी में भ्रमण करनेवाला प्रत्येक अराजकतावादी जन्तु उसमें नाक
घुसेड़े। उसमें एक शृंखला है; एक विधान है, एक उद्देश्य है, एक साधना है।'[3]
इतना ही नहीं, तब 'हिन्दी साहित्य : बीसवीं शताब्दी'[4]
या 'आधुनिक साहित्य'[5]
के समान महान् आलोचनात्मक ग्रन्थ भी नहीं छपे थे, जो मेरे समकालीन विशृंखल विचारधारा
को कूल-किनारा बताते। साहित्य-दर्शन के निबन्ध (!) प्राय: बीस-बाइस की
उम्र तक के हैं और मैंने अठारह-उन्नीस की उम्र से तो हिन्दी में लिखना शुरू ही
किया था।''[6] उल्लेखनीय है कि नन्ददुलारे वाजपेयी ने साहित्य-दर्शन
शीर्षक पुस्तक के पहले संस्करण भूमिका लिखी है, और राष्ट्रकवि रामधारी
सिंह दिनकर ने उस पहले संस्करण की समीक्षा की है।
अपनी आलोचना-दृष्टि
स्पष्ट करते हुए उन्होंने आलोचना का आदर्श शीर्षक लेख में साफ-साफ कहा कि
''आदर्श आलोचना में यही देखा जाएगा कि आलोच्य विषय के साथ स्वयं तन्मय होकर
वह कहाँ तक पाठक के संशय-सन्देह, जिज्ञासा-कुतूहल को शान्त कर सकती है; उसे परितृप्त
तथा तन्मय कर सकती है; अपने में घुला-मिला ले सकती है। उसे परमार्थ सत्य प्रदान
करने का दम्भ तो करना ही नहीं चाहिए। उसका काम पाठक के किसी भावविशेष, सौन्दर्यविशेष
की अनुभूति के अयोग्य, अलस-निमीलित हृदय, स्वप्निल-तन्द्रिल सहृदयता तथा
सहानुभूति को आवश्यकतानुसार उन्मिषित, विकसित कर देना ही है। कृतिकार के
कलातत्त्व को उसने जैसा समझा उसे पाठक के हृदय में स्वच्छतया अंकित कर देना,
कलाकार ने जो कल्पना की पाठक को उसकी अनुभूति करा देना, यही आदर्श आलोचना है।...आलोचक
की सबसे बड़ी सफलता यही है कि वह भ्रम से भी पाठक को यह सोचने का अवसर न दे कि
वे विचार निश्चित रूप से मूल कृतिकार के नहीं, अपितु उसी आलोचक के हैं। और
ऐसा तभी हो सकता है, जब वह आलोच्य विषय के अन्तरंग में प्रविष्ट होकर, उसका मर्म
मालूम करने के लिए अहर्निश साधना करता है, उससे एकतान होकर उसका अनाहत नाद सुन
लेता है।''[7]
विडम्बना ही है कि जिस हिन्दी में बीस
वर्ष के एक युवक की आलोचना-दृष्टि आठ दशक पूर्व ही इतनी परिपक्व हो गई थी, उस हिन्दी
आलोचना का अधिकांश हिस्सा आज आलोचकीय दायित्व से विमुख है। आज के आलोचक आलोच्य
विषय के साथ तन्मय नहीं होते; पाठकों के संशय-सन्देह, जिज्ञासा-कुतूहल को शान्त
नहीं करते; पाठक को कृतिकार के कलातत्त्व एवं कल्पना की अनुभूति नहीं कराते; वे
आलोच्य विषय के अन्तरंग में प्रविष्ट नहीं होते, पाठ के मर्म तक पहुँचने हेतु
साधना नहीं करते; रचना की अनाहत नाद सुनने की चेष्टा नहीं करते; वे मान्यता और
पुरस्कार का प्रसाद बाँटते हैं। कृतियों और कृतिकारों पर अवान्तर धारणाओं से फतवा
जारी करते हैं। जानकीवल्लभ शास्त्री की आलोचना-दृष्टि आलोचकों को ऐसा करने से
बरजती है और गहरी अन्तर्दृष्टि की ओर उन्मुख करती है।
कारयित्री और भावयित्री
प्रतिभा की बहस से बाहर आकर सोचने पर सृजनशील साहित्य भी अन्तत: जनजीवन की
आलोचना होती है। जानकीवल्लभ शास्त्री की गहन आलोचना-दृष्टि के मद्देनजर उनका सम्पूर्ण
रचनात्मक उद्यम मुझे समकालीन नागरिक-जीवन और आचार-संहिता की ईमादार आलोचना ही लगती
है। आलोचना को तो रचना का शेषांश माना जाता है। पर साहित्यिक चर्चा में रचना है
क्या? वह समकालीन भावयित्री प्रतिभा की सर्वेक्षण-परिणति ही तो है! नागरिक-परिदृश्य
में मनुष्य की आत्ममुग्धता, निरर्थक बेचैनी और उद्देश्यविहीन जीवन-यापन
देखकर आचार्य शास्त्री को स्पष्ट दिखा कि--
सब अपनी-अपनी कहते हैं!
कोई न किसी की सुनता है,
नाहक कोई सिर धुनता है,
...
सब ऊपर ही ऊपर हँसते,
भीतर दुर्भर दुख सहते हैं!
ध्रुव लक्ष्य किसी को है न मिला,
सबके पथ में है शिला, शिला,
-मौज
बादलों की धृष्टता देखकर उन्हें
गुस्सा आया, उसे उन्होंने फटकार लगाई, बादलों को उनकी अशक्यता याद दिलाई--
उतर रेत में, आक जवास भरे खेत में
पागल बादल,
शून्य गगन में व्यर्थ मगन मँड़राता
है!
इतराता इतना सूखे गर्जन-तर्जन
पर,
झूम झूम कर निर्जन में क्या
गाता है?
...
रोमल, श्यामल मेष-शशक-सा विचर-विचर कर,
चरता है; परिणत गज-सा वह खेल दिखाता,
नटखट बादल,
जो भूखे-प्यासे को नहीं
सुहाता है!
उतर रेत में, आक जवास भरे खेत में
चंचल बादल,
शून्य गगन में व्यर्थ मगन मँड़राता
है!!
-कुपथ रथ दौड़ाता जो
गौर करने पर स्पष्ट होता
है कि मनुष्य, मानवीय आचरण, समाज-व्यवस्था, प्रकृति...हर कुछ को देखने, और उन
पर अपनी राय कायम करने की बड़ी तटस्थ दृष्टि उन्होंने प्रारम्भिक आयु में ही
विकसित कर ली थी। जिस बादल को रसिक जन, प्रेमाकुल प्रेमी, कृषक समुदाय आदि शुभागम
मानते हैं; अपने सृजन-कौशल के सहारे जानकीवल्लभ शास्त्री ने उसी बादल को पागल,
नटखट, बौड़म साबित कर दिया। उसके सूखे गर्जन-तर्जन और निर्जन में झूम-झूम कर नर्तन-गायन
करने को व्यर्थ करार दिया। उसकी क्षमता को ललकारा कि पागल बादल, व्यर्थ ही शून्य गगन में क्या मँड़राता है! हिम्मत है तो आ, रेत में उतर, आक जवास से भरे खेत में उतर, जो बात भूखे-प्यासे को नहीं
सुहाती, वह क्यों करता है! प्राकृतिक उपादानों से तैयार ये प्रतीकार्थ इस कविता
में अर्थ की कई परतें खोलते हैं।
कहते हैं कि बाल्यावस्था
की असह पीड़ा मनुष्य के जीवन-बोध को तीक्ष्णतर और उज्ज्वल बनाती है। उनकी
नैसर्गिक प्रतिभा से परांग्मुख नहीं हुआ जा सकता, पर यह भी सम्भव है कि अल्पायु
में हुए मातृशोक से उनकी चिन्तन-पद्धति की दिशा बदली हो। पर्यवस्थिति को
देखने का उनका अन्दाज कुछ भिन्न हो गया था। उल्लेखनीय है कि जिस दिन उन्होंने
बनारस जाने की अपनी जिद अपनी माँ को सुनाई, उसके अगले ही दिन उनकी माँ ने शरीर
त्याग दिया। बालक जानकीवल्लभ ने उस पीड़ा को ताउम्र अपने प्राणों पर झेला। किन्तु
मातृसुख से वंचित होने के दुख का उन्होंने जीवन भर सकारात्मक उपयोग किया। जीवन
भर वंचितों, साधनविहीनों, पशु-पक्षियों को प्रेम लुटाया, उनकी वकालत की।
बेजुबानों के जुबान बननेवाले जानकीवल्लभ तभी तो बारिश को उसकी औकात बताते हैं,
उसके अवांछित और अभद्र आचरण का अहसास कराते हैं--
क्या खाकर बौराए बादल?
झुग्गी-झोंपड़ियाँ उजाड़ दीं
कंचन-महल नहाए बादल!
दूने सूने हुए घर
लाल लुटे दृग में मोती भर
निर्मलता नीलाम हो गई
घेर अंधेर मचाए बादल!
-बौराए बादल
उनकी कविताओं में दर्ज ऐसे
समस्त दृश्य एक अर्थ में सांसारिक विधानों की आलोचना ही है। एक भावयित्री
प्रतिभा द्वारा जुटाई हुई सर्वेक्षण-सूची।
समीक्षकों ने उन्हें
तरह-तरह के विशेषण दिए। किसी ने महाप्राण निराला का अन्यतम उत्तराधिकारी
माना; किसी ने छायावाद का पंचम स्तम्भ, तो किसी ने छायावदोत्तरकाल के मुखरतम
वातावरण का सर्वथा भिन्न स्वर। यह उनकी विलक्षण प्रतिभा और रचनात्मक निष्ठा
ही है कि इनमें से कोई एक विशेषण पूरे जानकीवल्लभ को नहीं समेट पाता। बहरहाल, उनमें
एक विशेषण और जोड़े जाने चाहिए। हिन्दी में तुलनात्मक साहित्य के सम्भवत:
वे पहले आचार्य हैं, जिनकी तुलन-दृष्टि का समुचित लाभ आज तक के अध्येता नहीं
ले पाए। तुलनात्मक-साहित्य के विरले ही किसी भारतीय चिन्तक ने लक्ष्य
किया हो कि साहित्य-दर्शन संकलन के तेइस में से चौदह निबन्ध भारतीय
तुलनात्मक अध्ययन के स्वरूप निर्धारित करते हैं। तुलनात्मक-साहित्य (कम्पैरेटिव
लिटरेचर) ज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण शाखा है। स्वतन्त्र अनुशासन के रूप में इसका
विकास उन्नीसवी शताब्दी के अन्तिम चरण में हुआ और विभिन्न विश्वविद्यालयों में इसके अध्ययन-अध्यापन को महत्त्व दिया जाने लगा। सन् 1848 में अंग्रेजी के कवि मैथ्यू आर्नल्ड ने सबसे पहले ‘कम्पैरेटिव लिटरेचर’ पद का प्रयोग किया। भारत में सन् 1907 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विश्व-साहित्य का उल्लेख करते हुए साहित्य के अध्ययन में
तुलनात्मक-दृष्टि की आवश्यकता पर बल दिया। दो पाठों के भाव-संवेदनाएँ-विचार-कला-सन्दर्भ
के साम्य-वैषम्य का अनुशीलन तुलनात्मक-साहित्य का लक्ष्य होता है।
अन्तर्राष्ट्रीय
स्तर पर तुलनात्मक अध्ययन के तीन स्कूल-- फ्रेंच स्कूल, अमेरिकी स्कूल,
जर्मन स्कूल-- माने जाते हैं। इस ज्ञानशाखा के स्वरूप एवं मानदण्ड निर्धारित करने
में पीटर स्जो़ण्डी (सन् 1929-1971), जाक देरीदा (सन् 1930-2004), पियरे बौरदिए
(सन् 1930-2002), लूसिए गोल्डमान (सन् 1930-1982), पॉल
डी मान (सन् 1919-1983), जरशॉम शॉलम (सन् 1897-1982), थियोडोर अडोर्नो (सन् 1903-1969) जैसे विद्वानों की बड़ी भूमिका
है। प्रारम्भ में तुलनात्मक-साहित्य को सहित्येतिहास की एक शाखा माननेवाले
फ्रांसीसी चिन्तकों को बाद में प्रतीत हुआ कि इससे तुलनात्मक-साहित्य का सम्मानित
स्वरूप आहत और साहित्य का सौन्दर्यमूलक पक्ष बेमानी हो जाएगा। फलस्वरूप
व्यावहारिक और ठोस आलोचनात्मक दृष्टि की सहायता से उनलोगों ने साम्य-वैषम्य की
तुलना और प्रभाव के सूत्रों के साथ अनुशीलन की संश्लेषणात्मक दृष्टि विकसित की।
जबकि अमेरिकी सम्प्रदाय की नजर में साहित्येतिहास की सामान्य संरचना के अन्तर्गत
तुलनात्मक-साहित्य को ज्ञान की अन्य शाखाओं के साथ प्रदत्त पाठ के सम्बन्ध-बन्ध का
अनुशीलन माना गया और साहित्यालोचन को तुलनात्मक-साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण अंग के
रूप में स्वीकारा गया।
भारत में रवीन्द्रनाथ टैगोर (सन् 1861-1941) से पहले बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय (सन् 1838-1894) शकुन्तला, मिराण्डा एवं डेस्डिमोना शीर्षक निबन्ध में भारतीय
तुलनात्मक दृष्टि का परिचय दे चुके थे। उल्लेखनीय
है कि जिन दिनों यूरोप में जाक देरीदा, पियरे बौरदिए, लूसिए गोल्डमान, पॉल डी मान, जरशॉम शॉलम, थियोडोर अडोर्नो जैसे विद्वानों का व्याख्यान आयोजित करवाकर
पीटर स्जो़ण्डी (सन् 1929-1971) जर्मन तुलनात्मक साहित्य का स्वरूप एवं मानदण्ड
निर्धारित करने में लगे थे, उससे कई वर्ष पूर्व आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री 'मुद्राराक्षस
और जूलियस सीजर' का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर चुके थे। दो पाठों के भाव,
संवेदनाएँ, विचार, कला, सन्दर्भ के साम्य-वैषम्य का अनुशीलन प्रस्तुत कर चुके
थे। उनके तुलनात्मक अध्ययन का कौशल रोमांचक और प्रेरणास्पद है। मीरा-महादेवी, मुद्राराक्षस-जूलियस
सीजर, दिंग्नाग-कालिदास, कालिदास-तुलसीदास, जयदेव-विद्यापति, गीता-गीतांजलि,
भक्ति-शृंगार, साहित्य-राजनीति, साहित्य-दर्शन... जैसे विषयों पर प्रस्तुत
उनके विलक्षण तुलनात्मक-दृष्टि की तात्त्विक समीक्षा अभी तक नहीं की जा सकी
है। उनके द्वारा हिन्दी में संस्थापित तुलनात्मक-साहित्य की नींव का
संज्ञान अभी तक किसी भारतीय विद्वानों ने नहीं लिया है। जबकि भारतीय-साहित्य,
अनुवाद-अध्ययन, और तुलनात्मक-साहित्य में जुटे हर अध्येता के लिए शोध एवं
आलोचना की दृष्टि से आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री कृत साहित्य-दर्शन
एक अनिवार्य पुस्तक है। तुलनात्मक -साहित्य से सम्बद्ध इस संकलन के चौदहो आलेख
तो 'हिन्दी तुलनात्मक-साहित्य' के आरम्भिक शास्त्र के रूप में देखा
जाना चाहिए। आचार्य शास्त्री ने इनमें जिन तुलनात्मक-विधानों का उपयोग किया
है, वे चकित करते हैं। जिन दिनों (सन् 1936-1941 के बीच) ये आलेख लिखे गए,
भारतीय साहित्य-धारा में इस पदबन्ध के नाम लेनेवाले भी गिनती के ही थे।
तुलनात्मक-अध्ययन का कोई स्पष्ट विधि-विधान निर्धारित नहीं हुआ था। दुनिया
के अन्य देशों के विद्वान भी इसका स्वरूप तय ही कर रहे थे।
विशाखदत्त-शेक्सपियर
और कालिदास-तुलसीदास की तुलना करते हुए उन्होंने जिस तरह अपने इतिहास-बोध,
समाज-बोध, साहित्य-बोध, मानवीयता और जीवन-दृष्टि का परिचय दिया है, वह विलक्षण
तो है ही, आज के आलोचकों के लिए अनुकरणीय भी है। आलोचना एवं तुलना के उनके हर
सूत्र जनजीवन की सहजता, मानवीयता, समाज और राष्ट्र की हित-चिन्ता से सम्बद्ध
होते हैं। विदित है कि विशाखदत्त रचित मुद्राराक्षस सुखान्त और शेक्सपियर
रचित जूलियस सीजर दुखान्त कृति है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ दोनो राजनीतिक
नाटक हैं, दोनो में कई समानताएँ हैं। इसके बावजूद दोनो के रसास्वादन में अन्तर
है, और इस अन्तर का कारण आचार्य शास्त्री उनका सुखान्त-दुखान्त होना नहीं
मानते। उन्होंने तीनो नाट्य-तत्त्व---वस्तु, नेता, रस---पर सूक्ष्मता से विचार
किया है। उन्हें राक्षस के आगे ब्रूटस और चाणक्य के आगे कैसियस फीके नजर आते
हैं। वे पात्रों के आचरण के आधार पर उसकी मानवीयता की भी परख करते हैं, उसका मूल्यांकन
वे नैतिकता के साँचे में करते हैं। उन्हें कैसियस कुटिल और अनैतिक लगता है, क्योंकि
वह मित्र के साथ प्रपंच करता है; कैसियस को आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री श्रेष्ठ
कोटि के राजनीतिज्ञ मानने को तैयार नहीं हैं। उन्हें उस नाटक की आत्मा खण्डित
दिखती है। राजनीति इस नाटक की आत्मा है, और उस राजनीति के आचार्य कैसियस अनैतिकता
के सम्पोषक, तो रचना की आत्मा खण्डित होना स्वाभाविक है। वे कहते
हैं--''जनता की मनोवृत्ति का, देश की गतिविधि का, विश्व की परिस्थिति का--संक्षेप
में देशकाल का भी जिसे सम्यक् ज्ञान नहीं; अच्छी पहचान नहीं; उसे उच्च कोटि
का राजनीतिज्ञ कैसे कहा जा सकता है?''[8]
इस आलोचकीय दृष्टि को शतस: नमन!
इसके प्रतिकूल उन्हें कूटनीति
में पारंगत होते हुए भी चाणक्य कहीं खूँखार नहीं दिखते; शत्रु तक के साथ अनैतिक
आचरण करते नहीं दिखते; चाणक्य की नैतिकता ही उन्हें उनकी सफलताओं की कुँजी लगती
है। वे कहते हैं--''वैराग्य, निर्लोभता, प्रशान्ति आदि भाव विशेषकर भारत के
ही हो सकते हैं, भारत का राजनीतिज्ञ भी इतना बड़ा तपस्वी होता है।''[9]
इसी तरह वे ब्रूटस और राक्षस की तुलना करते हैं। ब्रूटस के उज्ज्वल, उन्नत, पवित्र
जीवन के बावजूद अपने परम विश्वासी मित्र जूलियस की हत्या कर देने के कारण वे
उसका सर्वनाश तय मानते हैं। जबकि राक्षस को वे उससे उन्नत मानते हैं। उसके आत्मसमर्पण
को श्रेष्ठ मानते हैं। वे मानते हैं कि ''सर्वस्वत्यागी चाणक्य से प्राणत्यागी
कैसियस का या आत्मसमर्पणकारी राक्षस से आत्महत्याकारी ब्रूटस का ठीक-ठीक
मुकाबला नहीं हो सकता।''[10]
मार्च 1936 में जानकीवल्लभ
शास्त्री अपने लेख 'कालिदास और तुलसीदास का शृंगारवर्णन (प्रतिवाद)' में
लिखते हैं कि ''कविकुलगुरु कालिदास तथा भक्तशिरोमणि तुलसीदास के
शृंगार-वैचित्र्य के विषय में एक तुलनात्मक आलोचना 'माधुरी' के गत अंक
में प्रकाशित हो चुकी है।...अश्लीलता की दुहाई देनेवाले के लिए कालिदास से
तुलसीदास की तुलना करना गलत है। कारण, कालिदास ने शृंगारप्रधान काव्य लिखे हैं
और तुलसीदास ने भक्तिप्रधान।...मेघदूत का यक्ष और शकुन्तला का दुष्यन्त
मर्यादापुरुषोत्तम नहीं; वे सांसारिक हैं, अतएव सांसारिक चित्रण उनके चरित्र
की स्वाभाविकता के लिए उतना ही आवश्यक हैं जितना मर्यादापुरुषोत्तम की
मर्यादित भावनाओं की परिपुष्टि के लिए अलौकिक या असांसारिक चित्रण।...कालिदास
केवल आदर्शवादी न थे, फिर भी उनकी कला आदर्श से सूनी नहीं है।...तुलसीदास ने
शृंगार का वर्णन विस्तृत रूप में नहीं किया, यह कोई विशिष्ट आदर्श नहीं है।
वाल्मीकि की यथार्थवादिता तुलसीदास से उनकी न्यून प्रतिभा होने का परिचय
नहीं देती। सीता के स्तन में चोंच मारने की बात वाल्मीकि में भी बतलाई गई है।
भक्त होने के कारण तुलसीदास उसे टाल गए तो इसके मानी यह नहीं कि वाल्मीकि या
कालिदास की दृष्टि शृंगारिक है। भक्ति और कविता भिन्न-भिन्न वस्तु
हैं। मुख का वर्णन करते समय भक्तकवि की दृष्टि चरणों पर ही कैसे रहेगी?''[11]
इन तर्कों के सहारे जानकीवल्लभ शास्त्री कहीं किसी रचनाकार के उखाड़-तिरस्कार
की बात नहीं की। उनकी साफ मान्यता है कि प्रसिद्धि के लिहाज से तुलसीदास कालिदास
से तनिक भी कम नहीं, बल्कि भक्त की दृष्टि से बढ़कर भी हैं; पर इसके मानी यह
नहीं कि कवित्व-कला के सूक्ष्म पर्यवेक्षणावसर पर वे कालिदास से बढ़कर हैं।[12]
उनका तर्क है कि किसी श्रेष्ठ कलाकार का चरम उद्देश्य केवल चरित्रगान करना
नहीं होता। शृंगारवर्णन मात्र से कोई रचना असंयत और आदर्श-चित्रण मात्र से कोई
रचना संयत नहीं हो जाती। ऐसी राय बनाना किसी चिन्तक के असंयम का द्योतक होगा।
तुलसीदास की दृष्टि निश्चय ही सदैव आदर्श-चित्रण की ओर रहती थी, पर इस कारण
कालिदास के आदर्श को कम स्वच्छ नहीं कहा जा सकता। तुलना करते समय विवेकशील
दृष्टि से पाठ की परख अत्यन्त प्रयोजनीय होती है। कालिदास के नायक दुष्यन्त
एक राजा हैं, पूर्ण वयस्क, अनेक रानियों के राजा, समस्त राजकीय भोग के अनुभवी;
जबकि तुलसीदास के नायक राम जनक की पुष्पवाटिका में एक किशोर हैं, ब्रह्मचर्य
व्रत का पालन करते हुए आए एक कुमार। इसलिए समस्त सांसारिक अनुभवों से अवगत दुष्यन्त
का शृंगारिक भाव ब्रह्मचर्यव्रतधारी राम के शृंगारिक भाव से निश्चय ही भिन्न
होगा।[13]
'माधुरी', जुलाई 1937 में आचार्य दिंग्नाग और कवि कालिदास शीर्षक उनके
तुलनात्मक लेख पर विद्यावयोवृद्ध सेठ कन्हैयालाल जी पोद्दार ने जब उनके ज्ञान
को चुनौती दी तो उस पर भी उन्होंने बड़ी ही शालीनता से किन्तु व्यंग्यात्मक
भाषा में जवाब दिया।[14]
खण्डन-मण्डन की ये प्रक्रियाएँ
तो जीवन-विधान के हर क्षेत्र में सदैव चलती रही हैं, खण्डन करनेवाले वे विद्वान
सम्भवत: उस दौर में यह अनुमान नहीं कर पाए होंगे कि आगामी कुछ दशकों में आचार्य जानकीवल्लभ
शास्त्री का यह तुलनात्मक-अध्ययन ज्ञान की एक नई शाखा का रूप लेगा, जो दुनिया
के उन्नत कहे जानेवाले राष्ट्रों के विद्वानों की तुलनात्मक-दृष्टि को भी चुनौती
देगा। तथ्यत: तुलनात्मक-साहित्य के क्षेत्र में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री द्वारा
शुरू किया गया प्रयास हिन्दी के लिए तो नींव का पत्थर है ही, इस ज्ञान-शाखा
के विशेषज्ञ चाहें तो उनके इन निबन्धों में छिपी विलक्षण तुलनात्मक-दृष्टि
के सूक्ष्म सूत्र भी तलाश सकते हैं। उनकी तुलनात्मक-दृष्टि स्थान-काल-पात्र,
इतिहास-परिवेश-समाज की सूक्ष्मताओं को देखते हुए ही आगे बढ़ती है। भारतीय तुलनात्मक-अध्ययन
को सम्पुष्ट करने हेतु उन सूक्ष्मताओं को गम्भीरता से पहचानने और उसे विस्तार
देने की बड़ी जरूरत है।
[1]. साहित्य-दर्शन/किताबघर/2012/पृ.
73
[3]. उल्लेखनीय
है कि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने अपनी कृति साहित्य-दर्शन (पृ. 9)
में व्यंग्यार्थ उत्पन्न करने हेतु यह उद्धरण आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी निबन्ध
'हम क्या करें?' के 'साहित्य-सेवा का अधिकार सभी को है!'
उपशीर्षक से लिया है। सन् 2007 में राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कृति कल्पलता
के चौदहवें संस्करण में पृ. 132 पर इसे देखा जा सकता है।
[4]. नन्ददुलारे वाजपेयी की कृति
[5]. नन्ददुलारे वाजपेयी की कृति
[8]
. मुद्राराक्षस
और जूलियस सीजर'/ साहित्य-दर्शन/किताबघर/सं.2012/पृ. 123-24
[11]. साहित्य-दर्शन/किताबघर/सं.2012/पृ.
130-32