हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल साहित्य-सृजन के साथ-साथ सांस्कृतिक
चेतना, सामाजिक सक्रियता, और कलात्मक अभिव्यक्ति की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। इस
दौरा पूरे देश के युगनिर्माता कवियों की रचनात्मक भाव-धारा आन्दोलित हो उठी थी।
ग्रियर्सन ने माना कि इस युग में धर्म, ज्ञान का ही नहीं, भावावेश
का विषय हो गया (साहित्यकोश, भाग-2/पृ. 442)। कुछ लोगों ने इसे प्रारम्भिक
काल में ही पश्चिमी समुद्र पर आ बसे अरब नागरिकों के कारण फैले इस्लामी प्रभाव की
देन माना; या फिर मुसलिम आक्रमणकारियों के
अत्याचारों से उत्पन्न सामाजिक दुर्व्यवस्था से आंतकित भारतीय नागरिक के मन में
उमड़ी हीनताबोधक भावनाओं की प्रतिच्छवि। प्रो. सतीशचन्द्र के अनुसार ‘देश में ईसा-पूर्व छठी और ईसा के बाद दूसरी सदियों के मध्य
बौद्ध-धर्म के उदय और विकास के बाद, मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन
भारत का सर्वाधिक व्यापक, बड़ा, और बहुआयामी आन्दोलन था। भक्ति-आन्दोलन ने समय-समय पर लगभग
पूरे देश को प्रभावित किया और उसका धार्मिक सिद्धान्तों, धार्मिक अनुष्ठानों, नैतिक मूल्यों और लोकप्रिय
विश्वासों पर ही नहीं, बल्कि कलाओं और संस्कृति पर
भी निर्णायक प्रभाव पड़ा (मध्यकालीन भारत में इतिहासलेखन, धर्म और राज्य का स्वरूप/पृ. 83)।’ इसके बावजूद उन्होंने इस आन्दोलन को मुक्त कण्ठ से
जन-आन्दोलन स्वीकार नहीं किया।
जिन दिनों ब्राह्मण ग्रन्थों के हिंसाप्रधान यज्ञों की
प्रतिक्रिया में बौद्ध-जैन सुधार आन्दोलन चल रहे थे, उससे
भी पहले ईसा-पूर्व 600 के आसपास एक उपासना प्रधान
सम्प्रदाय विकसित हो रहा था। प्रारम्भ में यह उपासना वृष्णि-वंशीय क्षत्रियों की
खास जाति तक सीमित थी, जो शूरसेन, अर्थात आधुनिक ब्रज में बसने वाले सात्त्वत जाति के थे।
सात्त्वतों के भ्रमण और स्थानान्तरण के परिणामस्वरूप यह धारा पश्चिम की ओर भी
फैली। इस सम्प्रदाय ने वैदिक परम्परा का विरोध नहीं किया, बल्कि अपने अहिंसात्मक धार्मिक रवैये को वेदसम्मत बताया।
जाहिर है कि इनकी प्रवृत्ति बौद्धों और जैनों के सुधार-आन्दोलन की तरह खण्डनात्मक
और प्रचारात्मक नहीं थी, इसकी कोई वैसी धूम भी नहीं
मचाई जा रही थी। ईसा-पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ में वासुदेवोपासक के होने के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं।
ईसा-पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से लेकर पहली शताब्दी तक प्राचीन साहित्य और
पुरातत्त्व सूचना के आधार पर इसके उल्लेख मिलते हैं। वासुदेव और बलदेव तो जैनों के
शलाका-पुरुष माने गए हैं, प्राचीन जैन-बौद्ध साहित्यों
में भी इनका उल्लेख है। प्राचीन तमिल साहित्य में वासुदेव के अनेक सन्दर्भ मिलते
हैं। ‘एतरेय ब्राह्मण’ में उल्लेख है कि दक्षिण के
सात्त्वतों ने इन्द्र का अभिषेक किया। स्पष्ट है कि सात्त्वतों का दक्षिण में आगमन
उससे पूर्व ही हो चुका था और वे अपनी धार्मिक परम्पराओं के साथ ही वहाँ पहुँचे
होंगे; इस तथ्य को सहजता से स्वीकार करने
में तो कतई कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए।
भागवत धर्म को ही वैष्णव धर्म अथवा वैष्णव सम्प्रदाय
कहते हैं। जिसके उपास्य-देव वासुदेव हैं। ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य, ऐश्वर्य और तेज--इन छह गुणों से सम्पन्न होने के कारण उन्हें
भगवान, या भगवत् कहा गया और भगवत के उपासक
भागवत हुए। इस भागवत धर्म का प्रारम्भ भी क्षत्रियों द्वारा ही हुआ। एक अब्राह्मण
उपासना मार्ग के रूप में शुरू हुआ यह सम्प्रदाय, अवैदिक
मतों की नई धूम को देखकर ब्राह्मणों द्वारा अपना लिया गया, फलस्वरूप वैष्णव और नारायणीय धर्म के रूप में उसका विधिवत
संघटन हुआ। महाभारत के शान्तिपर्व के नारायणीय उपाख्यान में इस नवीन धर्म का
उल्लेख वैष्णव यज्ञ के रूप में हुआ और इसे यज्ञ प्रधान वैदिक कर्मकाण्ड के
प्रवृत्ति मार्ग के विपरीत निवृत्ति मार्ग का बताया गया। इस वैष्णव यज्ञ में
स्पष्टतः पशुवध का निषेध तथा तप, सत्य, अहिंसा और इन्द्रियनिग्रह का विधान किया गया। महाभारत में
वासुदेव को वैदिक देवता विष्णु से अभिन्न और कृष्ण को द्वितीय वासुदेव के रूप में
उनका अवतार माना गया। हरिवंश तथा अनेक पुराणों में भी कृष्ण को द्वितीय वासुदेव के
रूप में स्वीकारा गया है। इस तरह स्पष्ट संकेत है कि सात्त्वतों के कुलधर्म को
महाभारत और पुराणों में व्यापक लोकधर्म की स्वीकृति मिल गई थी। चौथी पाँचवीं
शताब्दी में गुप्तवंश के राज्यकाल में वैष्णव धर्म को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला।
पर गुप्तवंश की उदार धार्मिक नीति के कारण शैव और बौद्धधर्म को भी उन्नत होने का
पर्याप्त अवसर मिला। इस तरह ईसा-पूर्व 600 से लेकर सन् 500 तक के अन्तराल में भागवत धर्म का पर्याप्त साहित्य तैयार
हुआ।
छठी से चौदहवीं शताब्दी की लगभग समाप्ति तक उत्तर भारत
में भागवत धर्म का उस तरह विकास नहीं हो सका। लोक रुचि के मद्देनजर कहा जा सकता है
कि वैदिक धर्म और बौद्ध-धर्म में एक प्रतिस्पर्द्धा-सी थी। इसी प्रतिस्पर्द्धा में
इधर बौद्ध-धर्म ने वैष्णव धर्म की अनेक बातें अपना लीं, उधर लोक-विश्वासों और लोक-प्रथाओं को अपनाते हुए उसकी मौलिकता
शेष होने लगीं। पौराणिक धर्म और शंकराचार्य के उद्यमों से भी बौद्ध-धर्म आहत होता
गया। इसी दौरान दक्षिण भारत में भागवत-धर्म का उत्कर्ष होता रहा। नौवीं शताब्दी तक
दक्षिण में जिस आलवार भक्तों की धारा अविच्छिन्न रही, उसमें अण्डाल नाम की एक प्रसिद्ध भक्तिन हुईं। इन्हीं भक्तों
ने विष्णु के अवतार राम और कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम का भाव दिखाया और दास्य, वात्सल्य और माधुर्य भक्ति का स्वरूप स्पष्ट किया।
इस वैष्णव सम्प्रदाय में रामानुजाचार्य(सन् 1016-1137) को सर्वाधिक प्रसिद्ध माना जाता है। बल्कि उनके द्वारा
प्रवर्तित भक्ति धर्म को श्रीवैष्णव कहा जाता है। उनके उपास्य लक्ष्मी-नारायण हैं
और ऐसा विश्वास किया जाता है कि वस्तुतः इसका प्रवर्तन स्वयं लक्ष्मी जी ने किया।
रामानुजाचार्य ने ब्रह्मसूत्र का श्रीभाष्य भी लिखा। रामानुज की मृत्यु के सौ
वर्षों के भीतर ही दक्षिण में एक आचार्य हुए मध्व। माध्व मत उन्हीं के नाम से
प्रसिद्ध हुआ। मध्वाचार्य ने भक्ति के प्रचारार्थ ब्रह्म सम्प्रदाय की स्थापना की।
मायावाद, अद्वैतवाद का खण्डन करते हुए
उन्होंने भक्ति का जो मार्ग प्रशस्त किया, उससे दक्षिण में, खासकर कर्नाटक और दक्षिण महाराष्ट्र में कृष्ण भक्ति का
व्यापक प्रचार हुआ। बंगाल का गौड़ीय सम्प्रदाय भी माध्व मत की एक शाखा माना जाता
है। उसी काल के आसपास दक्षिण के एक और आचार्य निम्बार्क हैं। बहरहाल...दसवीं से
तेरहवीं शताब्दी तक की यह वेगवती भक्ति-धारा एक शास्त्रीय रूप धारण कर उत्तर की
ओर आई और महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, मध्य प्रदेश, मगध, उत्कल, असम और बंगाल के विस्तृत भूभाग में फैलकर लोकधर्म की व्यापकता
हासिल कर ली।
उत्तर भारत में इसके नवल रूप के प्रथम और सर्वाधिक
प्रभावशाली भक्त स्वामी रामानन्द माने जाते हैं। उनकी मान्यता दाक्षिणात्य
वैष्णवों की तरह कठोर नहीं थी। उन्होंने लक्ष्मी-नारायण की जगह सीता-राम को अपना
उपास्य माना। उनकी दो शिष्य परम्पराएँ थीं--एक में निम्न जाति के लोग थे तो दूसरी
में सवर्ण लोग (साहित्य कोश भाग-2/पृष्ठ 451-52)।
भारत के सांस्कृतिक सन्दर्भों में इस बात के पर्याप्त
प्रमाण दिखते हैं कि यहाँ किसी खास विचारधारा को सुसंस्थापित करने के लिए देश के
विभिन्न भूभागों की यात्रा करते हुए शास्त्रार्थ किया जाता था। दक्षिण उत्तर के
सम्बन्धों की निकटता का यह एक साक्ष्य भी माना जा सकता है। इस सन्दर्भ में प्रो.
सतीश चन्द्र का संशय वाजिब है कि भक्ति-आन्दोलन
के दक्षिण से उत्तर तक आने में लगभग पाँच सौ वर्ष क्यों लगा। वस्तुत: छठी से
दसवीं शताब्दी तक के अन्तराल में उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन की लोकप्रियता की
असफलता का सूत्र उस क्षेत्र की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों में
ढूँढा जाना चाहिए न कि आन्दोलन की कमतर लोकप्रियता में। प्रो. आर.एस. शर्मा (इंडियन
फ्यूडलिज्म, 300-1200, कलकत्ता, 1965 पृ. 263-273) के हवाले से उल्लेख मिलता है कि उत्तर भारत में, राज्य कमजोरी, स्थानीय जमीन्दारों की उग्रता, नगरों के पतन, लम्बी दूरी के व्यापार में
गतिरोधादि सातवीं से बारहवीं सदियों के बीच की प्रमुख वृत्तियाँ रहीं। यही समय
राजपूतों के उदय का भी है। यह वर्ग क्रमश: सबल होता गया, भूमि और क्षेत्रीय स्तर पर राजनीतिक सत्ता पर नियन्त्रण पाता
गया। फलस्वरूप सत्ता के भागीदार होने में विफल हुए लोग, इस वर्ग-श्रेणी में बिल्कुल नीचे आ गए। डॉ. ताराचन्द के
अनुसार ‘भारत के सामाजिक जीवन में ब्राह्मणों
का उत्थान गुप्तकाल में आरम्भ हुआ और उस समय पूर्ण हुआ जब विदेशी आप्रावासियों को
हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में शामिल कर लिया गया...राजपूतों को बर्बरता से सभ्यता
में अपने उत्थान की कीमत, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के
दावों को स्वीकार करके और उसकी पुष्टि करके चुकानी पड़ी...(इन्फ्लूएन्स ऑफ
इस्लाम ऑन इण्डियन कल्चर, इलाहाबाद, 1946, पृ.131)।’ स्पष्टत: वह ऐसा समय था जब
भूमि और राजनीतिक सत्ता पर अधिकार होने के बावजूद, ब्राह्मणों के समर्थन के बिना सामाजिक
दृष्टि से उच्चतर हैसियत सम्भव नहीं था। अर्थात् उत्तर भारत में राजपूतों का उदय उस
मौन गठजोर का प्रतिफल था, जिसमें राजनीतिक शक्ति के हर
आचरण को ब्राह्मण-वर्ग न्यायसंगत ठहराते हुए मान्यता देते थे। ब्राह्मण उन शासकों
को क्षत्रिय की मान्यता देते थे और वे ब्राह्मणों को भरण-पोषण, मन्दिर-निर्माणादि के लिए अनुदान देते थे। इस अर्थ में देखें
तो इस अन्तराल के वैभवशाली मन्दिरों के निर्माण के पीछे इस गठजोर की कई कई बारीकियाँ
छिपी हुई हैं। ब्राह्मण ही राजपुरोहित के प्रतिष्ठित पद पर सुशोभित होते थे। वर्णवादी
वर्चस्व की यह परम्परा मुगल काल तक जारी रही। वैसे यह बहुत नई भी नहीं थी, पूर्व के समय में भी ब्राह्मणों की सुरक्षा, धर्मशास्त्रों का अनुपालन,
और वर्ण
व्यवस्था का समर्थन, हिन्दू शासकों का कर्त्तव्य माना
जाता था।
धर्म, धार्मिक मान्यताओं का संघर्ष, और शक्ति तथा मान्यतादात्री अभिकरणों के इस चक्रव्यूह का
तिलिस्म रोमांचक था। वर्ण-श्रेणी से फिसले हुए आहत लोग सामाजिक व्यवस्था के उस
तिलिस्म के शिकार थे। वर्ण व्यवस्था, कर्मकाण्ड, और ब्राह्मण समुदाय से उनकी असन्तुष्टि सहज थी। पर इस
असन्तोष और ब्राह्मण-विरोध के कारण उन्हें राजनीतिक शक्तियों के दमनकारी आचरण
झेलने पड़ते थे।
इरफान हबीब के अनुसार ‘ईसा
के जन्म से पहले पाँच सौ वर्षों...में जाति-व्यवस्था की बुनियादी रूप-रेखाओं का
निर्धारण हुआ होगा। किसान वर्ग अनन्त सगोत्रीय समुदायों में विभक्त होता गया तथा
वह कारीगरों और टहलुआ श्रमिकों से पूरी कठोरता के साथ अलग होता गया। यह सामाजिक
संरचना अपने आप नहीं बनी होगी। इसके निर्माण के लिए नए ढंग के विचारों और आस्थाओं
के समग्र तन्त्र की दिशा और पुश्तपनाही की आवश्यकता थी (भारतीय इतिहास में
मध्यकाल/पृ.81)।’ जाहिर है कि इस सामाजिक
प्रक्रिया का सीधा सम्बन्ध ब्राह्मणों द्वारा किए जाने वाले यज्ञादि में पशुबलि के
प्रबल विरोध में खड़े बौद्ध-धर्म की मान्यताओं से था। समकालीन जनजीवन की धार्मिक
मान्यताएँ इस नई सामाजिक स्थितियों से पूरी तरह प्रभावित हुईं। स्थानीय
रीति-रिवाजों और प्रचलित अन्धविश्वासों के साथ समकालीन समाज की संरचना में जनजीवन
की सहजता के मद्देनजर अनेक रद्दोबदल हुई। जनजातीय आधार ध्वस्त हो गया और किसान
वर्ग नए-नए समाज के रूप में मान्यता पा गया। अब इस वर्ग को अपने लिए जिस तरह की
धार्मिक व्यवस्था की आवश्यकता हुई, वैसी व्यवस्था के लिए
ब्राह्मणों के पवित्र कर्मकाण्ड और बौद्धों के अभिजात संघ में कोई जगह नहीं दिखती
थी। कालान्तर में बौद्ध मतावलम्बियों के बीच ही बोधिसत्व की धारणा विकसित हुई, उसमें इतनी उदारता अवश्य थी कि कोई भी व्यक्ति, जाति-वर्ण-कर्म-हैसियत की संरचना से परे कोई भी व्यक्ति सहज
पूजा-वन्दना की प्रक्रिया के साथ इसमें शामिल हो सकता था। गौरतलब है कि महायान और
पीछे से चली आ रही वैष्णव-परम्परा के मुखर होने का अन्तराल भी यही था।
ऐतिहासिक तथ्य है कि इसवी सन् के प्राथमिक एक हजार
वर्षों के भीतर कृषि-कर्म में तरह-तरह के प्रयोग और मानवीय उद्यम का जोर लगाया
गया। मनुष्य-बल की जगह पशु-बल के प्रयोग से कृषि-कार्य में परिवर्तन आता गया। इस
प्रक्रिया में सामाजिक रूप से कुछ खास वर्गवादी स्थितियाँ स्पष्ट हुईं। किसान वर्ग
और खेतिहर मजदूर वर्ग का स्पष्ट विभाजन दिखने लगा। इस क्रम में किसान तथा उनसे
उच्च वर्ग-स्तर के लोगों की नजर में, भोजन संग्रह में तल्लीन और
जंगलीय संसाधनों पर जीवन-बसर करने वाले लोग उपस्कर की तरह दिखने लगे। इससे
ग्रामीण-समाज में दलित सर्वहारा वर्ग कायम हुआ। इस वर्ग के लोगों को कृषि-जीवन की
प्रचलित पद्धति में खुद को शामिल करने में आसानी दिखी होगी। कदाचित उनलोगों ने
सोचा हो कि सहज विकास की प्रक्रिया में हम कभी न कभी खुद को खेतिहर मजदूर से किसान
वर्ग में तब्दील कर पाएँ। पर इतिहास सूचित करता है कि सन् 200 से 600 तक और फिर सन् 600 से सन् 1200 तक के दो चरणों में उस काल
के अछूतों के वर्ग में नई-नई जातियाँ शामिल होने लगीं और उनकी संख्या लगातार बढ़ती
गई। अछूत वर्ण के लोगों की बसावट चूँकि गाँव के बाहरी छोर पर होती थी। उनके पास
भूमि होती नहीं थी, इसलिए वे किसान हो नहीं सकते थे, वे किसानों के खेतिहर मजदूर होते थे। जीविका चलाने के लिए
समृद्ध किसानों की मजदूरी करना, सेवा-टहल करना उसकी मजबूरी
होती थी। इस क्रम में उसका भरपूर दमन होता था। भारतीय समाज की यह विकट त्रासदी
दयनीय थी। किसानों के बीच आपस में भी कई स्तर थे। औरों की भूमि में कृषि कार्य
करते हुए गुजर-बसर करने वाले बटाईदारों की भी बड़ी तादाद थी।
उत्तर भारत की सामाजिक व्यवस्था में इस तरह के मानवीय
सम्बन्धों के बीच यह अनुमान करना सहज है कि ऐसे दलित, अछूत और सर्वहारा के लिए स्पष्टतः कुलीन ब्राह्मणों की धर्म
व्यवस्था में कोई स्पष्ट जगह नहीं थी। गौरतलब है कि भारत के पूर्वी भागों में
प्रचलित तन्त्र-पूजा और शक्ति-उपासना को अत्यधिक लोकप्रियता हासिल थी। इस क्षेत्र
में लम्बे समय तक बौद्ध-धर्म का वर्चस्व भी बना रहा। जाहिर है कि इस क्षेत्र में
ब्राह्मणवाद और जाति-व्यवस्था की मजबूत पकड़ नहीं थी। नेपाल और बिहार के तटवर्ती
पूर्वी उत्तर-प्रदेश में नाथपन्थ की उत्पत्ति हुई, जिसे
किसी तरह तन्त्रवाद की एक शाखा के रूप में भी गिना जाता रहा। धीरे-धीरे यह धारा
भारत के उत्तरी और पश्चिमी भागों में फैल गई। उल्लेखनीय है कि तन्त्रवाद और नाथपन्थ
के विचारों का प्रचार-प्रसार जिन उपदेशकों द्वारा किया जाता था, वे सामान्यतया इतर-ब्राह्मण समुदाय के लोग होते थे, उनका सीधा सम्बन्ध निम्न वर्ग से होता था। इस पन्थ में
प्रवेश पाने के लिए जाति, मत, लिंग की कोई वर्जना नहीं थी। इस व्यवस्था में दीक्षित होने के
लिए किसी भी व्यक्ति को लिंग अथवा जाति के आधार पर रोका नहीं गया। बल्कि अछूतों की
श्रेणी से ऐसी स्त्री का भी उल्लेख मिलता है,
जिन्हें गुरु
के रूप में स्वीकार किया गया। तन्त्रवाद की अत्यन्त गोपनीय पद्धति के कारण इसका
प्रभाव तो सीमित रहा और सामाजिक राजनीतिक दमन से बचा रहा, पर शीघ्र ही उनके आचरणों के कारण ब्राह्मणों ने तन्त्रवाद की
पूरी व्यवस्था को अनैतिक घोषित कर दिया, राजकीय व्यवस्था द्वारा भी
इसे शक की निगाह से देखा जाने लगा।
पर तमाम विरोध बाधाओं के बावजूद गोरखनाथ के नेतृत्त्व
में नाथपन्थ का विस्तार हुआ और भारत के उत्तर तथा पश्चिमी क्षेत्रों में विभिन्न
स्थानों पर एवं दक्षिण भारत के कुछ भागों में उन्होंने अपने केन्द्र स्थापित किए। तथ्यत:
सामाजिक संरचनाओं में रहन-सहन एवं आचार-विचार की जटिलता न होने की वजह से दक्षिण भारत
में पूर्ववर्ती धार्मिक नीतियों के कठोर रीति-रिवाज त्यागकर नई धार्मिक नीति तय
करने में कोई कठिनाई नहीं आई। नयनार और आलवार सन्तों की लोकप्रियता समाज में फैली।
उत्तर भारत की स्थिति ऐसी नहीं थी। ब्राह्मण-क्षत्रिय गठजोड़ से जाति-प्रथा और
वर्ण-व्यवस्था परवान चढ़ी थी। एक तरफ कट्टरता,
दूसरी तरफ दयनीयता।
पर बारहवीं शताब्दी के अन्त में तुर्कों के आगमन से भारत में नई परिस्थिति उत्पन्न
हुई। तुर्को से राजपूतों के पछाड़ खाने के बाद आचानक वह वर्णाश्रम व्यवस्था निर्बल
हो गई। ब्राह्मण-क्षत्रिय गठजोड़ का सैकड़ों वर्षों का वर्चस्व पिघल गया। पराजित
क्षत्रिय और अपमानित ब्राह्मण का व्यवस्था-संचालन का तिलिस्म चकनाचूर हो गया। ब्राह्मण-वर्ग
नागरिक परिदृश्य में धर्माचरण का मायाजाल फैलाते थे। अपने पास संरक्षित मूत्तियों
को वे ईश्वर के प्रतीक की तरह नहीं, साक्षात ईश्वर की तरह
प्रस्तुत करते थे। वे कहा करते कि वे मूर्तियाँ उनके कथनानुसार निष्ठावानों को
फलीभूत, और उनके सामर्थ्य पर शंका करने
वालों को दण्डित करती हैं। तुर्को के आक्रमण के दौरान वे मूर्तियाँ पैरों तले रौंद दी गईं; लोगों ने स्पष्ट देखा कि उन मूर्तियों
रौंद डालने के बावजूद उन तुर्को का तो कुछ नहीं बिगड़ा। ब्राह्मण-क्षत्रिय गठजोड़ के
वर्चस्व को इस कदर धूल-धूसरित होते देखकर जनता की सन्ततियों की आँखें खुलीं, वर्ण-व्यवस्था
और कर्मकाण्ड के प्रति जनाक्रोश बढ़ा और भक्ति आन्दोलन की लोकप्रियता का मार्ग
प्रशस्त हुआ।
उक्त परिस्थितियों के मद्देनजर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
ने सन् 1318-1643 की अवधि
को हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल मानते हुए उस दौर के मुस्लिम आक्रमण से उत्पन्न
राजनीतिक पराभव और सांस्कृतिक विध्वंस को रेखांकित किया। समकालीन रचनात्मक उद्यम
को पौरुष से हताश जाति का करुणोद्रेक कहा (हिन्दी साहित्य का इतिहास/पृ. 34)। विडम्बना
है कि परवर्ती समय में भी यह धारणा बद्धमूल रही कि भक्ति-साहित्य अपने समय के
आक्रमणों से आक्रान्त समाज की हताश वृत्तियों का चित्रण है। पर बाद के समय में
हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे कुछ मनीषियों ने इस धारणा का खण्डन किया। सचाई है कि
उक्त आक्रमण से हुए राजनीतिक पराभव और सांस्कृतिक विध्वंस का असर समाज के मनोभाव
पर था, और
कदाचित भक्ति-आन्दोलन के लिए उन परिस्थितियों ने ही पृष्ठभूमि तैयार की। पर यह भी
सच है कि वे
परिस्थितियाँ ‘हारे
को हरिनाम’ वाली
नहीं थी, उसका
उत्स हताशा और नकार भाव की जमीन पर नहीं था; उसकी भावभूमि
प्रति-रक्षात्मक कदापि नहीं थी, वह पूरी तरह सकारात्मक, सृजनात्मक, और
धनात्मक भाव से शुरू हुई थीं। हताशा से उठी हुई प्रति-रक्षात्मक धारणाएँ इतनी
बलवती कभी नहीं हो सकती थी, इतना
सुसम्बद्ध, उत्साहपूर्ण
और सकारात्मक तो हो ही नहीं सकती थी। प्रति-रक्षा के प्रयाण में हर-हमेशा भयाकुल
भाव समाया रहता है; जबकि
भक्ति-आन्दोलन जीवनी-शक्ति के उल्लास और सुसम्बद्धता से भरा हुआ और सकारात्मक सोच
से परिपूर्ण दिखता है।