साहित्य के उद्देश्य पर पुराने आचार्यों ने बहुत कुछ लिखा। पर साहित्य का कालजयी
उद्देश्य है कि वह समकालीन समाज की चितवृत्ति का वाहक होता है। लिहाजा वह एक किस्म
का इतिहास होता है। कई बार तो समकालीन साहित्य, इतिहास लेखन का साधन भी बनता है। हर समय के साहित्य के
लिए यही सच है। गोस्वामी तुलसीदास की ‘हम चाकर रघुवीर को पट्टो लिखो लिलार, तुलसी अब का होइहौं नर के मनसबदार’ जैसी पंक्ति से हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचने
में कोई हिचक नहीं होती कि अकबर, तुलसीदास
को अपने दरबार का मनसबदार बनाना चाहते थे, जिसे तुलसीदास ने स्वीकार नहीं किया। अर्थात उस जमाने के सात्यिकारों में
इतना आत्मबल था कि वे शहंशाह का प्रस्ताव बड़े आराम से ठुकरा सकते थे।
साहित्य को पवित्र कर्म माननेवाले लोग आज भी सृजन के जरिए समाज और
सामाजिक जीवन-यापन को परिष्कृत करने में तत्पर हैं। पर सचाई है कि इस वृत्ति को
आत्म-प्रचार और आत्म-स्थापन का औजार बनानेवाले घुसपैठियों की आज भरमार है। लेखन
का धन्धा करनेवाले ऐसे लोगों का प्रवेश गत शताब्दी के छठे दशक से शुरू हो गया था,
जो खुद को समय का देवता साबित करने हेतु
लेखन कर्म के नुस्खे गढ़ने लगे थे। पर साहित्य धन्धा नहीं है। सच्चे साहित्य का
ध्येय सदा से समाज को मानवीय और मानव को सामाजिक बनाना रहा है। कलम उठाने से
पूर्व हर रचनाकार को अपनी नैतिक जिम्मेदारी और सामाजिक सरोकार का बोध होना चाहिए।
साहित्य और समाज
का समुचित बोध और दायित्व निर्वहन की निष्ठा जिन्हें न हो, उन्हें अपने
ही विवेक से इसे वर्जित क्षेत्र मान लेना चाहिए, यहाँ आकर इस क्षेत्र को दूषित
करने का दुष्कर्म नहीं करना चाहिए । क्योंकि आम पाठक मुद्रित पाठ के जरिए
बेशक किसी लेखक को जानना शुरू करे, अन्तत:
वह लेखक के वैयक्तिक जीवन तक अवश्य पहुँच जाता है। कहना आसान है कि लेखक के
लेखन और जीवन-प्रक्रिया को अलग-अलग देखा जाना चाहिए। पर, आम पाठक ‘आम’ ही होता है, महात्मा नहीं होता। वह कानून के दलालों से न्यायिक उपदेश,
और कच्ची लकड़ी के तस्करों से पर्यावरण
सुरक्षा का गीत नहीं सुन सकता। आम नागरिक अपने उपदेशक के केवल वक्तव्य में ही नहीं,
उनके चरित्र में भी प्रेरणा और आदर्श का
तत्त्व ढूँढता है। आज हमारे यहाँ जीवनियाँ पढ़ी जाती हैं, लोग विद्यापति, सूर, कबीर,
तुलसी, मीरा की जीवनी पढ़ते हैं। आज जो लोग लेखन का धन्धा कर
रहे हैं, सौ-पचास वर्ष बाद,
या आज ही, उनकी जीवनियाँ लिखी जाएँ, तो वे अगली पीढ़ी को चरित्र और जीवन-यापन की कैसी प्रेरणा
दे पाएँगी?
आदिकाल से लेकर स्वाधीनता प्राप्ति के समय तक हमारे जो भी आचार्य, लेखक, चिन्तक हुए हैं; वे आज
के रचनाकारों के नायक हुए हैं। मगर आज के आत्मसुखलीन और शासन व्यवस्था में अपने
लिए ऐशो-आराम की गुंजाइश ढूँढनेवाले रचनाकारों की सन्तति भविष्य में इनके किन
सद्गुणों और सद्विचारों के लिए इन्हें याद करेंगे?
भाषा से तो मनुष्य के सोच का सम्बन्ध है, जब तक मनुष्य सोचता रहेगा, किसी न किसी रूप में भाषा रहेगी। सोचनेवाले की मानसिक
बनावट या उसकी शब्द-क्षमता के आधार पर भाषा का संकोच और विस्तार होता रहेगा। मगर
साहित्य का विकास और विस्तार लेखन-प्रकाशन, पाठ और प्रचार से होता है; मूल्यांकन से होता है। अब तो लोकसाहित्य भी लोगों को
लिखित मिलने लगा; पुस्तकों और संग्रहालयों में कैद होने लगा, फेलोशिप और संस्कृति रक्षा(?) के दौर में बचे-खुचे भी कैद हो जाएँगे। लोककला
मन्त्रालयों के फेलोशिप की अर्हता हो गई। दादी-नानी के मुँह से अब किस्से नहीं होते, लोरियाँ नहीं गाईं जातीं, बधावा नहीं गाया जाता--सबके सब हैरी पॉटर, और सी.डी, कैसेट जैसे उपादानों में कैद हैं।
बड़ी मुश्किल है भाई, आधुनिकता
ने हमें कितना कुछ दिया! भादो महीने के शुक्ल पक्ष के चौथे दिन, हाथ में फल लेकर चन्द्रमा को प्रणाम करनेवालों
की सन्ततियाँ चन्द्रमा पर से सैर कर आईं। किताबों की पूजा करनेवाले लोगों के पाँव
धोखा से किताबों में लग जाने पर उसे सिर चढ़ाने वाले लोगों की सन्ततियाँ किताब
छापने लगे, बेचने लगे, बाल-बच्चों का पैखाना किताबें फाड़कर पोछने
लगे। गरज कि लोग आधुनिक और अत्याधुनिक हो गए। पहले के विचारकों, चिन्तकों को आम नागरिक तक अपनी बात पहुँचाने
की सुविधा आज की तरह नहीं थी, फिर
भी वे जन-जन के प्यारे थे। आज सारी सुविधाएँ हैं, फिर भी वे पाठकों के प्यारे नहीं
हो पा रहे हैं।
असल बात है कि आज के लेखक अपने निजत्व, अपनी लिप्सा, अपनी आकांक्षा, अपनी
वासना से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। और, यही
कारण है कि जनता उन्हें जनसरोकार के करीब नहीं देख रही है। मान्यता, पुरस्कार और आत्मसुख के अन्य उपादानों को लूट लेने में
लिप्त रचनाकार कभी कालजयी रचना रच पाएँगे--इसमें किसी की सहमति नहीं हो सकती।
आज हमारी भाषाओं में पत्रिकाओं और प्रकाशन संस्थानों की इतनी सुविधा है,
किसी को अभिव्यक्ति का कोई संकट नहीं है--फिर भी आज के रचनाकार आज की जनता से दूर हैं।
भारतीय नागरिक का जीवन-संघर्ष और अस्तित्व का संकट आज के लेखकों को उतना ही दिख
रहा है, जितना स्कैन करने के बाद
वे अपने लिए हितकर समझते हैं। कुछ तो नॉस्टेल्जिया के आधार पर ही जीवन खेप लेते
हैं। कुछ लेखक दूसरों से सुनकर जनजीवन का अनुभव अरजते हैं। किसी जनपद के एक
व्यक्ति से कहीं भेंट मुलाकात हो जाए--उनसे
चार बातें हो जाए--तो वे खुद को
उस जनपद का विशेषज्ञ मान बैठते हैं। किसी स्त्री अथवा दलित अथवा भोक्ता की
वास्तविक स्थिति आज की वणिक्-बुद्धि तक आकर कितनी तीक्ष्ण और त्रासद हो जाती है--इसका उदाहरण एक खोजें, हजार मिलेंगें।
वस्तुतः आज हम एक बाजार में जी रहे हैं। यहाँ वस्तु-स्थिति को खबर और खबर
को बिकाऊ बनाया जाता है। साहित्य और खबर को बिकाऊ बनाने के लिए, उनसे ऊँची कीमत दूहने के लिए किए जाने वाले
उपक्रमों में लीन व्यापारियों को कभी यह चिन्ता नहीं होती कि इस लाभ की कीमत पर हम जनता के बीच
अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं। सौंवीं, सवा सौंवीं जयन्ती, पुण्यतिथि मनाने
का ढोंग भी वाणिज्य का हिस्सा है, टेबुल
ठोक-ठोक कर चीखेंगें। हमारी पीढियों ने अपने रचनाकारों का मूल्यांकन नहीं किया, उन्हीं में से कोई अपना महत्त्व बढ़ाने हेतु कोई
विवादास्पद पंक्ति घोषित कर खुद को चर्चित करने की गुंजाइश ढूँढ लेंगे--गजब है यारो! मसखरों की इस दुनिया में हँसी भी
अपने से मुकर जाती है।
आखिर क्या कारण है कि आज भी हमें तुलसी, सूर, कबीर प्रासंगिक दिखते हैं और
आज के कई रचनाकार...राजनीतिज्ञ दिखने लगे हैं? असल बात है कि आज के ऐसे रचनाकारों का मूल सरोकार
साहित्य अथवा समाज से नहीं है। वे पुरस्कार की राजनीति से, विदेश यात्रा से, विदेशी भाषाओं में अपनी रचनाओं के अनुवाद से, राज्य सभा के सदस्य की कुर्सी पाने के करिश्मे
से, संस्थाओं के अध्यक्ष,
सचिव, सलाहकार, न्यासी बनने से ज्यादा ताल्लुक रख रहे हैं। वे लेखन, को जितना जरूरी समझते हैं, उसके प्रकाशन, अनुवाद, समीक्षा, चर्चा को और
उससे अधिकतम उगाही को, उससे अधिक
जरूरी समझते हैं। उत्पादन, प्रचार
और व्यापार--सभी की जिम्मेदारी
उन्होंने स्वयं ले रखी हैं।...लिखी हुई रचना को अधिक से अधिक पढ़ा जाए--यह आज के लेखन/प्रकाशन का प्राथमिक उद्देश्य
नहीं है।
प्राथमिक उद्देश्य है कि उसकी बिक्री, अनुवाद, प्रचार, चर्चा। फिर अनुवाद और चर्चा की चर्चा... इस
तिकड़म में लगे लोग एक से एक तरीका निकालते जा रहे हैं। मन्त्री के हाथों लोकार्पण,
पत्रकारों/समीक्षकों के साथ
सुरापानोन्मुखी पुस्तक-चर्चा उनका उद्देश्य हो गया है। पुस्तकालयों की आलमारी में जाकर कैद होना पुस्तकों
की नियति हो गई है। देशी-विदेशी संस्थाओं से मान्यता और पुरस्कार प्राप्त करनेवाले
लेखकों, या लेखन को बड़े करीने से
साइड बिजनेस माननेवाले रचनाकर्मियों, भाषाजीवियों के लिए समाज की समझ और संवेदना
से कोई सरोकार नहीं है। सच्चे साहित्यसेवियों की मान-मर्यादा को रौंदकर अपना वर्चस्व कायम कर
लिए लोग अब पथ-प्रदर्शक हो गए, शुक्राचार्य हो गए, शुक्राचार्य जैसे विद्वान भी, एकाक्ष भी, और स्वार्थी भी...। बीते छह दशकों में इन्होंने अपने चारित्रिक वैशिष्ट्य
का काफी विस्तार किया है। मगर अब ऐसा भी नहीं है कि साहित्य की गरिमा समझने वाले लोगों की
संख्या और क्षमता कम है। सचाई और सच्चरित्रता की ताकत संख्या में नहीं गिनी जाती। उन्हें इन
शुक्राचार्य और उनके शिष्यों से सावधान रहना होगा।