कृष्ण भक्ति काव्य की परम्परा पर विचार करते हुए भारतीय धर्म और दर्शन में
कृष्ण के उल्लेख का स्रोत ढूँढना उतना आवश्यक नहीं है, पर संक्षेप में एक नजर डाल लेना कोई गैरमुनासिब भी
नहीं होगा। बड़ी स्पष्टता से कहा जा सकता है कि ऋग्वेद में इनका प्राचीनतम उल्लेख
मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद, महाभारत
के शान्तिपर्व में तो वासुदेव कृष्ण की चर्चा ईश के रूप में है ही; ‘घत’ और ‘महाउमग्ग’ जातकों में भी कण्ह वासुदेव की कथा है। हरिवंश,
विष्णु, महाभारत, ब्रह्मवैवर्त आदि अनेक पुराणों में भी कृष्ण कथा का पर्याप्त उल्लेख है।
सूचनानुसार मौखिक कथाओं में कृष्ण की कथा लोक-प्रचलन में खूब थी। पुराणों में
कृष्ण का उल्लेख धीरे-धीरे धार्मिक रूपक की तरह होने लगा, जो क्रमशः कवियों की कल्पना में जीवन्त हो उठा।
रचनात्मक कल्पना के लिए कृष्ण कथा पर्याप्त ऊर्वर क्षेत्र साबित हुआ।
कृष्णाख्यान पर आधारित कथाओं पर सरसरी तौर पर विचार करने से कृष्ण के तीन
रूप हमारे समक्ष मौखिक और लिखित रूप में पेश होते हैं--पहला रूप है, योगी और धर्मात्मा का, जिसकी चरम परिणति गीता के कृष्ण के रूप में है। दूसरा
रूप है ललित गोपाल का, जो
संस्कृत में रचित ग्रन्थ महाभारत और पुराणों में, विविध प्रसंगों में वर्णित कथाओं में स्पष्ट है। तीसरा
रूप वीर राजनयिक का है, जिसकी
गौरवशाली प्रस्तुति महाभारत युद्ध के विविध प्रसंगों में, और पुराणों में हुई है। ज्ञान, राग, और
कर्म जैसी मानसिक वृत्तियों के प्रतीक, ये तीनों रूप अत्यन्त प्राचीन हैं, और भिन्नता के बावजूद इन तीनों रूपों की एकसूत्रता
कृष्ण के व्यक्तित्व में देखी जा सकती है। निस्संगता और तटस्थता यहाँ मुख्य वृत्ति
के रूप स्पष्ट है। ये तीनों रूप कृष्ण के उस देव रूप का संकेत देते हैं, जिन्हें प्राचीन काल से इष्टदेव के रूप में
लोकप्रियता मिली हुई है।
ईसा पूर्व 600 के आसपास,
जब ब्राह्मण ग्रन्थों के हिंसा प्रधान
यज्ञादि की प्रतिक्रिया में बौद्ध जैन सुधार आन्दोलन का बोलवाला था, उससे भी पहले एक उपासना प्रधान सम्प्रदाय
विकसित हो रहा था, जो प्रारम्भ
में वृष्णि वंशीय सात्त्वत जाति तक सीमित था। सौन्दर्य और माधुर्य उनके इष्ट देव
रूप की मुख्य विशेषता थी और इसी रूप में वे सात्त्वत जाति के इष्ट थे। विकास के
दौरान जब शूरसेन प्रदेश (आधुनिक ब्रज) में बसने वाली इस सात्त्वत जाति का
स्थानान्तरण हुआ, तो दूसरी-तीसरी
शताब्दी ईसापूर्व में यह उपासना मार्ग पश्चिम की ओर भी गया। इस उपासना मार्ग में
कृष्ण की आराधना होती थी। जैनों के सलाक पुरुषों में कृष्ण, बलदेव की गिनती है। इस देव रूप के कारण पूजाभाव से
उन्हें परमब्रह्म के रूप में स्वीकार किया गया। पर ललित और मधुर गोपाल के रूप में
काव्य, मूर्तिकला, और शिलालेखों में इनकी कथाएँ प्रतीत होती
रहीं। ध्यातव्य है कि पुराणों में इन कथाओं का उल्लेख उस रूप में नहीं हुआ।
प्राचीन पुराणों में केवल भागवत पुराण ऐसा है जहाँ गोपाल कृष्ण की कथा का वर्णन है,
पर उसमें भी राधा की चर्चा कहीं नहीं
है। पर् िंपुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में राधा-कृष्ण के प्रेम की कथा की चर्चा
विस्तार से है। मध्यकाल में देसिल बयना में रचे गए काव्य में इस प्रसंग का उल्लेख
देखकर यह अनुमान करना सहज है कि लोक-जीवन में कहानियों और गीतों के रूप में इसकी
पर्याप्त लोकप्रियता रही होगी।
राधा-कृष्ण विषयक प्रथम काव्य रचना जयदेव रचित ‘गीतगोविन्द’(बारहवीं शताब्दी) है; जिसमें
भक्ति और शंृगार का अद्भुत समावेश है। अनुमान किया जाता है कि लोक प्रचलित
आख्यानों और गीतों में वर्णित प्रसंगों से कवि को इस गीतिकाव्य की प्रेरणा मिली
होगी। लोक परम्परा की इसी पद्धति के अगले चरण में चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी में
महाकवि विद्यापति ने राधा-कृष्ण विषयक पद मैथिली में रचे। उनकी इस पदावली को
हिन्दी कृष्ण काव्य की पहली रचना के रूप में स्वीकार किया गया। इस बात पर मतैक्य
का अभाव है कि विद्यापति के पद लौकिक अवधारणाओं पर आधारित हैं, अथवा भक्ति के माधुर्य भरे भाव पर। वैसे ऐसी
मत-भिन्नता राधा-कृष्ण विषयक समस्त रचनाओं के बारे में हो सकती है। खासकर
विद्यापति की पदावली के सम्बन्ध में राधा-कृष्ण विषयक प्रेम को शृंगार और भक्ति की
दृष्टि से अलग-अलग करने हेतु अलग से विवेचना करनी पडे़गी। लोग लाख कह लें कि
राज्याश्रय में रहकर आश्रयदाता की प्रसन्नता के लिए उन्होंने शुद्ध शृंगारिक रचना
की, पर सचाई कुछ अधिक व्यख्येय
है। इस तथ्य से लोग भली-भाँति परिचित हैं कि चैतन्य महाप्रभु जैसे कृष्ण-भक्त को
विद्यापति के पदों ने किस तरह भाव-प्रवण कर रखा था।
विद्यापति के बाद कृष्ण काव्य के सबसे बड़े उद्गाता सूरदास हैं, जिनके यहाँ कृष्ण के कई-कई रूपों का चित्रण
दिखता है। सूरसागर में कृष्ण के गोकुल, मथुरा, वृन्दावन की
सम्पूर्ण आख्यायिका को गीति-प्रबन्ध के रूप में देखा जा सकता है। निश्चय ही उस
आख्यान की मौलिक रूपरेखा भागवत की है, पर उन प्रसंगों के विवरण में जिस कौशल का जादू भरा उपयोग है, वह मनोहारी है। सूरसागर के सम्बन्ध में यह
सामान्य मान्यता है कि मुक्तक पदों का संकलन होने के बावजूद यहाँ एक
प्रबन्धात्मकता है। वस्तुतः यहाँ कृष्ण कथा के विभिन्न प्रसंगों के गीतिमय चित्रण
किए गए हैं। कृष्ण के जन्म, शैशव,
ग्वालों के साथ विनोद, गोचारण, बाल-लीला, गोपियों के साथ केलि-क्रीड़ा, छद्मवेष धारणकर असुरों का वध आदि प्रसंगों की मुक्तक रचनाएँ उन लीलाओं को
यहाँ जीवन्त करती प्रतीत होती हैं। तथ्य है कि पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक
वल्लभाचार्य ने इनकी प्रतिभा का उपयोग अपने मत के प्रचार में किया। मान्यता है कि
नन्ददास को छोड़कर अष्टछाप के अन्य सारे कवि सूरदास के स्पष्ट अनुकरण में देखे जा
सकते हैं। भक्तिकाल और कृष्ण काव्य परम्परा में महाकवि सूरदास के अवदान को अंकित
करना प्रसंगवश उद्यम से कदापि सम्भव नहीं हो सकता। इस पर विस्तार से आगे विचार
किया जा सकेगा।
सूरदास के बाद कृष्ण काव्य परम्परा के सार्थक-सामान्य-निरर्थक कवियों की
लम्बी सूची है, जिनके अवदान का
जिक्र किया जा सकता है। पर पुष्टिमार्ग और अष्टछाप की चर्चा इस दिशा में सर्वाधिक
उल्लेखनीय है।
अष्टछाप की चर्चा शुरू करते ही पुष्टिमार्ग का विवेचन सामने आता है।
पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक वल्लभाचार्य हैं। वल्लभाचार्य ने अपने शुद्धाद्वैतवाद के
आधार पर जिस भक्ति सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया, वही पुष्टिमार्ग है। दरअसल वल्लभाचार्य के कई शताब्दी
पूर्व से अद्वैतवाद का चलन था। इस अद्वैतवाद का मुख्य प्रवर्तन शंकराचार्य (सन् 788-820)
ने किया(हालाँकि मण्डन मिश्र की
सर्वप्रसिद्ध और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ब्रह्मसिद्धि के सम्पादक
कुप्पूस्वामी ने मण्डन मिश्र का काल सन् 615-695 और शंकराचार्य का काल सन् 632-664 सुनिश्चित किया है)। वे अपने कुछेक पूर्ववर्तियों
को भी अद्वैवादी मानते हैं। उनके परमगुरु गौड़पाद के माण्डूक्यकारिका में अद्वैतवाद
का न्यायसंगत वर्णन मिलता है। गौड़पाद, बौद्धों के अद्वैत विचारधारा से प्रभावित थे। बौद्ध ग्रन्थों में दर्ज
मायावाद या वितर्तवाद की व्याख्या से लाभ लेकर उन्होंने अद्वैतवेदान्त को अकाट्य
तर्कों पर आधारित किया। अद्वैतवाद में यह तर्क दिया गया कि अद्वैत सत् में ही
समस्त भूतों की सत्ता विद्यमान है। यह तर्कतः मायावाद और विवर्तवाद से सम्बद्ध है।
सामान्यतया आत्माद्वैतवाद को ही अद्वैतवाद कहा जाता रहा है। यहाँ इस बात का भी
उल्लेख अनुचित न होगा कि शंकराचार्य के समय के ही प्रकाण्ड विद्वान मण्डन मिश्र
इसी अद्वैत वेदान्त के प्रवर्तक थे। पर दोनों ही अद्वैत वेदान्तियों का मार्ग अलग
था। शंकराचार्य का अद्वैत वेदान्त निवृत्ति मार्ग पर आधारित था, जबकि मण्डन मिश्र का अद्वैत वेदान्त प्रवृत्ति
मार्ग का पोषक था। इस प्रकार ब्रह्मसिद्धि के ये दो मार्ग एक ही समय में भारत में
प्रचलित थे। शंकराचार्य के ग्रन्थ ‘ब्रह्मसूत्र’
और मण्डन मिश्र के ग्रन्थ ‘ब्रह्मसिद्धि’ को लेकर ‘प्रवृत्ति’ और ‘निवृत्ति’ पर पर्याप्त विचार विमर्श हो रहे थे। मण्डन मिश्र की
विचार-परम्परा के प्रकाण्ड विद्वान वाचस्पति मिश्र ने शंकराचार्य के ‘ब्रह्मसूत्र’ का भाष्य किया और मण्डन मिश्र की ‘ब्रह्मसिद्धि’ में व्यक्त विचारों के सहारे उसकी व्याख्या करते हुए ‘निवृत्ति’ मार्ग का खण्डन किया और ‘प्रवृत्ति’ मार्ग का समर्थन किया। भामती (वाचस्पति मिश्र की धर्मपत्नी) टीका के नाम
से यह भाष्य विद्वानों के बीच समादृत हुआ। सन् 1550 आते-आते भारत में एक अपूर्व प्रतिभाशाली विद्वान
हुए--अप्पय दीक्षित। इस समय तक इस प्रसंग में पर्याप्त तर्क-विचार, खण्डन-मण्डन हो चुके थे। अप्पय दीक्षित ने उन
समस्त मत-मतान्तरों का संग्रह ‘सिद्धान्तलेशसंग्रह’
नाम से किया।
उल्लेखनीय है कि इस विकासक्रम में अद्वैत वेदान्त के समर्थकों का बौद्धों
के साथ सघन विचार-संघर्ष हुआ। दोनों का सम्बल तर्कशास्त्रा की सूक्ष्म विवेचना और
ज्ञान मार्ग का अनुसरण ही था। बारहवीं सदी के आते-आते बौद्ध धर्म और दर्शन का
करीब-करीब भारत से निष्कासन हो गया था, जिसका किंचित श्रेय अद्वैत वेदान्त को भी जाता है। इस तरह बौद्ध धर्म और
दर्शन के चीन और तिब्बत चले जाने के बाद अद्वैत वेदान्त में ज्ञान-मार्ग की जगह
भक्ति-मार्ग महत्त्वपूर्ण होने लगे। अर्थात् परवर्ती अद्वैतवादी शुष्क-ज्ञान की
अपेक्षा भक्ति के आनन्द-रस में भीगने लगे। गौरतलब है कि हिन्दी साहित्य के अधिकांश
सन्त कवि अद्वैतवादी ही हैं, कबीर
इसके सर्वसुलभ उदाहरण हैं। वैसे कबीर से पूर्व के समय पर नजर डालें, तो सरहपाद (8वीं सदी), तिल्लोपाद (10वीं सदी)
जैसे सिद्धांे की रचनाएँ; गोरखनाथ
(ग्यारहवीं सदी) की बानियाँ आदि अद्वैतवादी हैं। यह मानने में तनिक भी संकोच नहीं
होना चाहिए कि आम नागरिक की बोली-बानी में सिद्धों और नाथ-पन्थी योगियों ने कबीर
से पहले ही अद्वैतवाद का प्रचार-प्रसार कर दिया था। कबीर के बाद भी अद्वैतवाद की
लम्बी शृंखला कायम रही। कबीर और रैदास के सभी अनुयायी तो अद्वैतवादी थे ही;
दादू (सन् 1544-1603) और दादू-पन्थ के तमाम सन्त गरीबदास, बखना, रज्जब, सुन्दरदास आदि
अद्वैतवादी थे। मलूकदास, भीखा,
जगजीवनदास, बूला, यारी,
गुलाल, पल्टू आदि सन्तों की बानियाँ अद्वैतवाद के ही उदाहरण
हैं। आधुनिक समय में भी आकर उस मत की एकसूत्रता का आकलन किया जा सकता है; स्वामी रामतीर्थ ने अद्वैतवाद का ही प्रचार
किया, उसी काल में रामकृष्ण
परमहंस के यहाँ अद्वैत की धारा दिखी, फिर उनके प्रबल समर्थक विवेकानन्द के यहाँ भी इसका संकेत दिखाई पड़ा (हिन्दी
साहित्य कोश, भाग-1/पृ.16-17)।
मायावाद और विवर्तवाद से सम्बन्ध रखने वाले इसी अद्वैत के विरोध में
महाप्रभु वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैत का प्रवर्तन किया और कहा कि ब्रह्म
माया-सम्बन्ध से रहित है, इसलिए
शुद्ध है। यहाँ विवर्तवाद के कारण-कार्य रूप की कोई अलग व्याख्या सम्भव नहीं।
ब्रह्म दोनों ही रूपों में, कारण
रूप में भी, और कार्यरूप में भी
शुद्ध है, मायिक नहीं है।
मायारहित ब्रह्म ही अद्वैत तत्त्व है। सम्पूर्ण जगत् प्रपंच उसी की लीला का विकास
है। ‘सर्व खलु इदं ब्रह्म’
(सारा कुछ ब्रह्म ही है) के सिद्वान्त
को उन्होंने अक्षरशः सत्य माना।
‘पर्पिंुराण’ में उल्लेख
है कि विष्णु स्वामी, रुद्र
सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। ‘भक्तमाल’
में नाभादास ने उल्लेख किया है कि
ज्ञानदेव (सन् 1275-1296), नामदेव,
त्रिलोचन आदि सन्त विष्णु गोस्वामी के
सम्प्रदाय के ही थे। और, वल्लभाचार्य
ने इसी मार्ग का अनुसरण करते हुए शुद्धाद्वैतवाद का प्रवर्तन किया, और इस धारा का भक्ति-सम्प्रदाय पुष्टिमार्ग
चलाया। इसे वल्लभ मत के नाम से भी जाना जाता है। वल्लभाचार्य तैलंग ब्राह्मण थे।
इनके जीवन की घटनाएँ काशी, अरैल
(इलाहाबाद जिला), वृन्दावन आदि
जगहों से सम्बन्धित हैं। इनके लिखे कई ग्रन्थ हैं।
वल्लभाचार्य ने ‘ब्रह्मविद्या’
के लिए श्रुति-स्मृति को ही एक मात्र
प्रमाण माना। वेद, उपनिषद,
गीता, भागवत-पुराण को ज्ञान का उत्स माना। ब्रह्म निरूपण के
लिए युक्ति का सहारा लेने वाले शंकराचार्य को उन्होंने वेदविरोधी और प्रच्छन्न
बौद्ध भी कह दिया। उनका मार्ग शुद्ध धार्मिक था। शब्द-प्रमाण को सर्वस्व मानने के
कारण उनका शुद्धाद्वैतवाद स्पष्ट रूप से धर्मशास्त्रीयवाद साबित हुआ, दार्शनिक सिद्धान्त नहीं। यद्यपि शंकराचार्य
के अनुयायियों ने इनके शुद्धाद्वैतवाद को शुद्ध द्वैतवाद कहा। बहरहाल...
इधर श्रुति और स्मृति से सिद्ध है कि सारा कुछ ब्रह्म ही है। उपनिषदों ने
उसे ब्रह्म कहा, गीता ने
पुरुषोत्तम, और भागवत ने
परमात्मा। वे सगुण भी हैं, निर्गुण
भी; अणु भी हैं, महान भी; चल भी हैं, अचल भी; गम्य भी हैं,
अगम्य भी। उनके स्वरूप से समस्त जगत आविर्भूत
होता है, इस मत को
स्वरूप-परिणामवाद कहा जाता है। यह जगत्, कार्यरूप से ब्रह्म ही है। इसकी उत्पत्ति या इसका विनाश नहीं होता;
आविर्भाव और तिरोभाव होता है। अनुभव
योग्य होने पर जगत का आविर्भाव होता है, अनुभव योग्य न होने पर तिरोभाव। यहाँ संसार और जगत् में विलक्षण भेद किया
गया है, पर उस विस्तार में जाने
के बजाय यह देखते हुए आगे बढ़ें कि जगत् ही ब्रह्मरूप है, नित्य है, अविनाशी है, अक्षर है।
इसी अक्षर ब्रह्म की कल्पना वल्लभ मत की मूल विशेषता है। इस मत का साधन मार्ग
पुष्टिमार्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वस्तुतः ‘भागवत पुराण’ के द्वितीय स्कन्ध के दसवें अध्याय के चौथे श्लोक में ‘पोषण’ का अर्थ भगवान का अनुग्रह बताया गया है। वल्लभाचार्य ने ‘पुष्टि’ शब्द यहीं से लेकर अपने मत को ‘पुष्टिमार्ग’ का नाम दिया। उनकी राय यह थी कि इस युग में ज्ञानमार्ग और कर्म मार्ग कठिन
है। भक्तिमार्ग ही सर्वसुलभ है। इसलिए उन्होंने इस मार्ग की शिक्षा दी।
वल्लभ ने जीवों की तीन कोटियाँ बताते हुए कहा कि जो जीव निरुद्देश्य जीवन
बिताते, कभी ईश्वर का चिन्तन
नहीं करते, वे ‘प्रवाहजीव’ हैं; ऐसे
जीव सदैव जन्म-मरण के चक्र में पड़े रहते हैं। जो वेदों का अध्ययन करते, सत् को समझते, वेद विहित मार्ग से चलते, वे ‘मर्यादाजीव’
हैं। उन्हें कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग से
मुक्ति मिलती है। अर्थात् उन पर ईश्वर का अनुग्रह है। वे भक्तिमार्ग का अवलम्बन कर
नवधा भक्ति करते हंै--श्रवण, कीर्तन,
स्मरण, पादसेवा, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन करते हैं। पर जिन जीवों पर ईश्वर
की कृपा होती है, जिन्हें वे
अपनी शरण में ले लेते हैं, ईश्वर
से जो अनन्य प्रेम करते हैं, वे ‘पुष्टिजीव’ हैं। श्रुतियों और स्मृतियों में कहा भी गया है कि
ब्रह्म की कृपा के बिना ब्रह्म की प्राप्ति दुर्लभ है। ‘कठोपनिषद्’ में भी कहा गया है कि आत्मा का ज्ञान, स्वाध्याय और प्रवचन से नहीं होता, जिस पर ब्रह्म की कृपा होती है, उसे होता है। गीता में भी इस तथ्य की ओर संकेत
किया गया है। श्रुति और स्मृति द्वारा प्रतिपादित कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग, और भक्तिमार्ग में ब्रह्मकृकृपा की इस दुविधा को
वल्लभाचार्य ने मर्यादाभक्ति और पुष्टिभक्ति के विवेक से दूर कर दिया। इनके मत के
अनुसार मर्यादाभक्ति में जीव, कर्म-ज्ञान-उपासना
मार्ग द्वारा अपने कर्मों के प्रतिफल से मुक्ति चाहता है; जबकि पुष्टिभक्ति में दीन, हीन, असहाय,
साधनहीन जीव ईश्वर के अनुग्रह से मुक्त
होता है। अभिप्राय यह, कि
मर्यादाभक्ति ईश्वर पे्रम में नवधाभाक्ति का फल मिलता है, जबकि पुष्टिभक्ति में समस्त आध्यात्मिक क्रिया-कलापों
का कारण और शुरुआत, ईश्वर प्रेम
ही होता है। पुष्टि भक्ति को भी उन्होंने चार कोटि में विभक्त किया है--इस संसार
में गृहस्थ जीवन बिताते हुए जो लोग भगवान की भक्ति करते हैं, उनकी भक्ति प्रवाहपुष्टिभक्ति कहलाती है।
भोग-विलास से विमुख और विरत होकर ईश्वर का चिन्तन, कीर्तन करने वालों की भक्ति मर्यादापुष्टिभक्ति कहलाती
है। ईश कृपा पाकर भक्त बने लोग जब दुबारा ईश कृपा पाते हैं और ज्ञान के अधिकारी
बनते हैं और फिर ब्रह्म के विषय की ज्ञातव्य बातें अपने प्रयत्न से समझते हैं,
उनकी भक्ति पुष्टिपुष्टिभक्ति कहलाती
है। पर जो ईश्वर के प्रति अमित प्रेम के अलावा और कुछ नहीं करते, ऐसी भक्ति शुद्धपुष्टिभक्ति कहलाती है। इस
भक्ति के तीन सोपान माने गए हैं--पे्रम, आसक्ति, व्यसन। गोपियों
की भक्ति को शुद्धपुष्टिभक्ति में गिना गया है। इस भक्ति में भगवान की लीला में
भाग लेना ही परम मुक्ति है। पुष्टिमार्ग का मुख्य लक्ष्य इसी भक्ति में है। ‘भागवत’ के दशम स्कन्ध में वर्णित इन्हीं लीलाओं को आधार मानकर
महाकवि सूरदास ने सूरसागर की रचना की। बाललीला, यशोदा का वात्सल्य, गोकुलवर्णन, रासलीला, भक्ति और ज्ञान
केन्द्रित गोपी-उद्धव सम्वाद पर आधारित भ्रमरगीत के वर्णन में ब्रजभाषा के अधिकांश
कवियों ने अपने को पुष्टिमार्ग का कवि सिद्ध किया। सूक्ष्मता से देखें तो मीरा और
रसखान भी पुष्टिमार्ग के ही कवि प्रतीत होंगे। पुष्टिभक्ति के अनुशरण हेतु किसी
प्रकार की सामाजिक वर्जना नहीं थी (हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1/पृ.
829-31)। बाद में ‘सेवा’ जैसी कुछ विधियाँ पुष्टिभक्ति में जुड़ गईं। वैसे तो भक्ति से बड़ी सेवा और
क्या होगी, पर पुष्टिमार्गीय
मन्दिरों में ‘सेवा’ के रूप में कई विधि-विधान जुड़ गए थे। तथ्य है
कि वल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु
के समकालीन थे। चैतन्य के साथ दो बार उनकी मुलाकात भी हुई। उन्होंने गौड़ीय
वैष्णवों को श्रीनाथ की सेवा में नियुक्त किया था। इसमें ‘सेवा’ के
समय श्रीनाथजी का शृंगार किया जाता था, वेष-विन्यास होता था, मन्दिर
सजाया जाता था, आरती की जाती थी,
तरह-तरह के मनोरंजनों का आयोजन होता था।
पुष्टिमार्ग में भगवान के परमानन्द रूप ही उपास्य माने गए हैं। उन्हें आनन्द और
इसका आगार माना गया है। ‘सेवा’
के विकासक्रम में इन विधानों के जरिए
अनेक कलाएँ विकसित हुईं। मन्दिरों में भगवान के भोग हेतु तैयार होने वाले पाक के
कारण पाककला की श्रेष्ठ पद्धति विकसित हुई। वेष-विन्यास, गृह-प्रसाधन, संगीत, काव्य आदि का
अभूतपूर्व सम्वर्धन पुष्टिमार्गीय संरक्षण में हुआ। अवसर विशेष की आरती के लिए
वीणा, सितार आदि वाद्ययन्त्रों
के साथ भैरव, विभास, रामकली राग; शृंगार के समय के लिए बिलावल, मध्याह्न; राजभोग के समय के लिए सारंग; अपराह्न उत्थापन के लिए सोरठ; फिर भोग के लिए गौड़ी, पूर्वी,
यमन, विहाग आदि रागों का विकास पुष्टिमार्गी सम्प्रदाय के
अनुपम उदाहरण हैं। निश्चय ही अष्टछाप के कवियों को इन रागों में नई-नई रचनाएँ रच
कर गाने की प्रेरणा मिलती होगी।
पुष्टिमार्ग का प्रवर्तन वस्तुतः समसामयिक समाज की माँग के रूप में हुआ।
वल्लभाचार्य को उस समय इसकी साामजिक आवश्यकता प्रतीत हुई थी। अपने प्रकरण-ग्रन्थ ‘कृष्णाश्रय’ में उन्होंने उस समय की चर्चा विस्तार से की है। उस
दौरान पूरे देश में विचित्र-सी स्थिति बन गई थी। वेद-ज्ञान का लोप हो गया था।
यज्ञादि सम्भव नहीं था, केवल
भक्ति-मार्ग ही एक रास्ता था, जिसके
सहारे कुछ किया जाना सम्भव था। वल्लभाचार्य ने इसी मार्ग को राजमार्ग की तरह
प्रशस्त किया और इस पर हर किसी को चलने का आमन्त्रण दिया। यह आमन्त्रण उन्हें भी
था, जो प्रचलित मान्यता के
अनुसार धर्म के अधिकारी नहीं थे; जाति-भेद,
धर्म-भेद, सम्प्रदाय-भेद, लिंग-भेद...किसी भी तरह का कोई अड़चन यहाँ नहीं था। यही
कारण है कि हिन्दू-मुसलमान, ब्राह्मण-शूद्र,
स्त्री-पुरुष सारे ही लोग इस
पुष्टिमार्गीय भक्ति की सहज और निष्काम धारणा की ओर आकर्षित हुए। पे्रम-भक्ति पर
केन्दित इस मत में किसी प्रकार की प्रार्थना का विहित-विधान तय नहीं किया गया;
यहाँ कर्मकाण्ड की प्रयत्नपूर्वक
उपेक्षा की जाती थी, कर्मकाण्ड
की उपेक्षा प्रेम-भक्ति का मूल संकेत है। इसमें न कोई साधु होते थे, न संन्यासी। इस मार्ग के धार्मिक आचार्य भी
पूर्ण गृहस्थ होते थे। इस मार्ग में त्याग की नहीं, समर्पण की प्रधानता थी। समर्पण से ही मानसिक वैराग्य
दृढ़ होता है। स्पष्ट है कि पुष्टिमार्ग ‘प्रवृत्ति मार्ग’ है,
जिसमें मानसिक निवृत्ति पर बल दिया गया
है (हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1/पृ.-385-87)।
सूचना है कि सन् 1492
में गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथजी प्रकट हुए। उसी समय वल्लभाचार्य पहली बार ब्रज आए।
उन्होंने श्रीनाथजी को गोवर्धन पर एक छोटे से मन्दिर में प्रतिष्ठित किया। वहाँ
गोवर्धन के निकट के जमुनावतो गाँव के निवासी कुम्भनदास उनकी शरण में आए। वे गोरवा
क्षत्रिय थे। वल्लभाचार्य ने उन्हें दीक्षित किया और श्रीनाथजी की सेवा-पूजा हेतु
नियुक्त किया।
कुम्भनदास, पुष्टिमार्ग
में दीक्षित अष्टछाप के पहले कवि हैं। अनुमानतः उनका जन्म सन् 1468 तथा निधन सन् 1502 में हुआ। वे बडे़ कर्मनिष्ठ व्यक्ति थे। अत्यन्त
निर्धन थे, पर कभी दान इत्यादि
स्वीकार नहीं करते थे। राजा मान सिंह ने एक बार उन्हें सोने की आरसी तथा एक हजार
मोहरों की थैली भेंट की, जिसे
उन्होंने अस्वीकार कर दिया। कहा जाता है कि एक बार शहंशाह अकबर ने उन्हें अपने
दरबार में फतेहपुर बुलाया। वे वहाँ राजा द्वारा भेजी गई सवारी से न जाकर पैदल गए।
वहाँ उन्होंने जो गीत गाया, वह
था--
भक्तन को कहा सीकरो सौं काम
आबत जात पनहिया टूटी, बिसरि गयो हरिनाम
जाको मुख देखे दुख लागे ताको करन करी परनाम
कुम्भनदास लाल गिरधर बिन यह सब झूठो धाम...
कुम्भनदास अपने इष्टदेव के अलावा अन्य किसी का यशोगान नहीं कर सकते थे।
कुम्भनदास के सात पुत्र थे। पर एक बार गोस्वामी बिट्ठलनाथ के पूछने पर उन्होंने
कहा कि उनके सिर्फ डेढ़ पुत्र हैं--एक चतुर्भुजदास जो भक्त हैं; और आधे कृष्णदास जो श्रीनाथजी की गायों की
सेवा करते हैं। बाकी पाँच तो लोकासक्त हैं।
भक्ति के प्रति यह कुम्भनदास की अटूट आस्था का ही संकेत है कि लोकासक्त
पुत्रों को वे पुत्र का दर्जा नहीं देना चाहते थे। कृष्णदास को गाएँ चराते हुए जब
शेर ने मार दिया, तो वे मूर्छित
हो गए थे। कहते हैं कि उनकी मूर्छा का कारण पुत्रशोक नहीं था, बल्कि इस बात की पीड़ा थी कि वे सूतक के दिनों
में श्रीनाथजी का दर्शन नहीं कर पाएँगे। उन्हें मधुर-भाव की लीला-भक्ति अधिक प्रिय
थी। ‘राग कल्पद्रुम’, ‘राग-रत्नाकर’ तथा सम्प्रदाय के कीर्तन संग्रहों में उनके लगभग पाँच
सौ गीत संकलित हैं। ‘कुम्भनदास’
शीर्षक से उनके पदों का एक संग्रह
प्रकाशित है। गोचारण, राजभोग,
जन्माष्टमी, पालना, गोवर्द्धनपूजा,
प्रभुरूप वर्णन आदि पदों के लालित्य,
और भाव-प्रवणता अत्यन्त मनोहारी हैं
(हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1/पृ. 92-93)।
वल्लभाचार्य जब दूसरी बार ब्रज आए, तो अम्बाला के एक सेठ पूरनमल के दान के बल पर सन् 1499 में श्रीनाथजी के बड़े मन्दिर की नींव पड़ी।
उनकी तीसरी ब्रज-यात्र में आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर संन्यासी के वेश में
रहने वाले भक्त सूरदास से उनकी भेंट हुई। वल्लभाचार्य उन्हें अपने सम्प्रदाय में
जोड़कर श्रीनाथजी के मन्दिर ले आए और उन्हें कीर्तन-पूजा में लगा दिया। डॉ. दीनदयाल
गुप्त ने अनेक प्रमाण देते हुए सूरदास के जन्म से सम्बन्धित कई असहमतियों का खण्डन
किया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि सन् 1478 में उनका जन्म हुआ और वे वल्लभाचार्य से केवल दस दिन
छोटे थे। सूरदास के सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारियाँ ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ से मिलती है। इसी ‘वार्ता’ से जानकारी मिलती है कि प्रसिद्ध मुगल सम्राट अकबर ने सूरदास से भेंट की
थी। पर हैरत की बात है कि किसी फारसी इतिहासकार ने ‘सूरसागर’ जैसे महान ग्रन्थ के रचयिता भक्त कवि सूरदास की चर्चा तक नहीं की। यहाँ तक
कि उसी दौर के महान भक्त कवि तुलसीदास का उल्लेख भी किसी मुगलकालीन इतिहासकार ने
नहीं किया। अकबर के समय के प्रसिद्ध किसी भी इतिहास (आईनेअकबरी, मुंशिआते अबलफज्ल, मुन्तखबुत्तवारीख) में सूरदास नाम के दो व्यक्तियों का
उल्लेख अवश्य है, पर वे ये
सूरदास नहीं हैं। गोस्वामी हरिराय द्वारा लिखी गई ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ की टीका ‘भावप्रकाश’ में दी गई
सूचनाओं के अनुसार दिल्ली के निकट अवस्थित सीही गाँव के एक अति निर्धन सारस्वत
ब्राह्मण परिवार में सूरदास का जन्म हुआ। उनसे बड़े तीन भाई और थे। सूरदास जन्म से
ही अन्धे थे। उन्होंने अपनी छह वर्ष की ही आयु में सगुन बताना शुरू कर दिया था।
उनकी इस विलक्षणता पर उनके माता-पिता चकित हो गए थे। इसके बाद वे घर छोड़कर चार कोस
दूर एक गाँव में तालाब किनारे रहने लगे थे। उनकी सगुन-विद्या के कारण शीघ्र ही
उनकी ख्याति हो गई। गान-कला में भी वे बड़े दक्ष थे। शीघ्र ही वे ‘स्वामी’ के रूप में पूजे जाने लगे। अठारह वर्ष की उम्र में
उन्हांेंने यह स्थान छोड़ दिया, और
मथुरा के विश्राम घाट पर रहने लगे। पर वहाँ भी उन्हें शीघ्र ही प्रतीत हुआ कि
मथुरा के चौबे लोगों को उनके बढ़ते हुए महात्म्य से हानि पहुँचेगी, इसलिए वे वहाँ से भी चल पड़े और आगरा तथा मथुरा
के बीच यमुना किनारे गऊघाट पर रहने लगे।
‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में
सूरदास का जीवन, वल्लभाचार्य के
साथ गऊघाट पर हुई उनकी भेंट से शुरू होता है। गऊघाट पर वे अनेक सेवकों के साथ रहते
थे। ‘स्वामी’ के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी
थी। अरैल से जाते समय सूरदास के साथ वल्लभाचार्य की भेंट वहीं हुई। उल्लेख है कि
उस समय तक सूरदास, कृष्ण की
आनन्दमय ब्रजलीला से परिचित नहीं थे। दैन्य और दास्य भाव से भरी भक्ति ही उनकी
पद्धति थी, वल्लभाचार्य ने
उन्हें इस दैन्य से बाहर निकालकर भगवद्-लीला से परिचय कराया।
कहा जाता है कि सूरदास की काव्य-शक्ति और गान-विद्या की ख्याति सुनकर
शहंशाह अकबर उनसे मिलने को उत्सुक हुए थे। गोस्वामी हरिराय द्वारा दी गई सूचना के
अनुसार अकबर के दरबार के रत्न-संगीतकार तानसेन के माध्यम से मथुरा में अकबर और
सूरदास की भेंट हुई। उनकी पद-रचना सुनकर अकबर प्रसन्न हुए और सूरदास से अपने
यशोगान में पद-रचना करने को कहा। सूरदास ने ‘नाहिंन रहयो मन में ठौर’ पद गाकर उन्हें यह स्पष्ट कर दिया कि वे कृष्ण के
अलावा किसी के यश का गान नहीं कर सकते। अकबर ने सूरदास को द्रव्य-दान के लालच भी
दिए, पर सूरदास ने उनसे याचना की
कि फिर कभी मिलने का प्रयत्न न करना (हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1/पृ.
642-45)।
सूरदास को श्रीनाथजी की सेवा में दीक्षित करने के उपलक्ष्य में सन् 1509 में श्रीनाथजी की मूर्ति नए मन्दिर में
स्थापित की गई। गुजरात के कुनबी परिवार के एक शूद्र कृष्णदास भी इसी वर्ष महाप्रभु
की शरण में आए। नए मन्दिर में श्रीनाथजी की मूर्ति स्थापित करने के बाद भी सबसे
पहले वहाँ की कीर्तन-पूजा-सेवा का कार्य कुम्भनदास को ही सौंपा गया। जगन्नाथपुरी
की यात्र के दौरान उन्होंने चैतन्य महाप्रभु से भेंट की। वहाँ के बाद अनुमानतः सन्
1519 में वे अपने स्थायी निवास
अरैल पहुँचे। वहाँ से उन्होंने कन्नौज के प्रसिद्ध कृष्ण-भक्त कवि परमानन्द स्वामी
को स्वप्न देकर अपनी ओर आकृष्ट किया। वे कानकुब्ज ब्राह्मण थे।
कृष्णदास, अष्टछाप के
प्रथम चार कवियों में अन्तिम अधिकारी हैं। उनका जन्म सन् 1495 में हुआ था। उनका देहावसान सन् 1575 से सन् 1581 के बीच हुआ। कहा जाता है कि बारह-तेरह वर्ष की उम्र में
ही उन्होंने अपने पिता की एक चोरी पकड़कर उन्हें मुखिया पद से वंचित करवा दिया था।
इस अपराध में उन्हें घर से निकाल दिया गया। वे जगह-जगह भ्रमण करते हुए ब्रज पहुँच
गए। श्रीनाथजी की मूर्ति का नवस्थापन नए मन्दिर में उन्हीं दिनों होना था।
श्रीनाथजी का दर्शन पाकर वे अत्यन्त प्रभावित
हुए और वहीं पर वल्लभाचार्य से उन्होंने दीक्षा ली। उनकी बुद्धिमत्ता,
व्यवहार-कुशलता, और संघटन-क्षमता प्रशंसनीय थी। पहले-पहल महाप्रभु
वल्लभाचार्य ने उन्हें मन्दिर के लिए भेंट
उगाहने वाले के रूप में नियुक्त किया, बाद में उन्हें अधिकारी बनाया। मन्दिर में रहते हुए उनके जीवन की कई
अप्रिय घटनाओं की सूचनाएँ ग्रन्थों में दर्ज हैं। पर, सचाई है कि जीवन में कई दुर्बलताओं के बावजूद उन्हें
सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का प्रखर ज्ञान था। भक्तगण उनके उपदेश सुनने के लिए आतुर
रहते थे। उन्होंने कृष्ण-लीला के अनेक पदों की रचना की। उनके कुल पदों की संख्या 250 से अधिक नहीं होंगी। स्वभाव की उग्रता ऐसी थी
कि सूरदास तक से वे स्पद्र्धा करने लगे थे। सचाई है कि उनकी काव्य रचना उच्च कोटि
की नहीं हुई; ‘राग-कल्पद्रुम’,
‘राग-रत्नाकर’ तथा सम्प्रदाय के कीर्तन-संग्रहों में संकलित उनके
पदों का विषय वही है, जो कुम्भनदास
का है। पर यह उल्लेखनीय है कि उनका प्रबन्ध-कौशल जबर्दस्त था। उन्होंने अपने समय
में ऐसी परिस्थितियाँ तैयार कीं, जिस
कारण सूरदास, परमानन्ददास,
नन्ददास आदि महान कवियों को अपनी
प्रतिभा का विकास करने का अवसर मिला (हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1/पृ.
103)।
परमानन्द दास को, सूरदास
के बाद अष्टछाप के सर्वाधिक प्रतिभाशाली महाकवि के रूप में गिना जाता है। उनका
जन्म सन् 1493 में तथा निधन सन् 1583 के आस-पास हुआ। गरीबी के कारण उनके माता पिता,
उनका विवाह तक नहीं करा पाए। पिता की
इच्छा थी कि बेटा धन कमाकर सद्गृहस्थ बने, पर पुत्र पर बचपन से ही वैराग्य का गहन संस्कार था। भगवद्-भक्ति में उनका
जीवन बीतने लगा। शीघ्र ही उनकी पद-रचना और कीर्तन-गायन की धूम मचने लगी।
वल्लाभाचार्य तक उनकी ख्याति पहुँच चुकी थी। उन्होंने स्वप्न में उन्हें अरैल
पहुँचने की प्रेरणा दी। अगले ही दिन वे अरैल पहुँच गए और वल्लभाचार्य से दीक्षा
ग्रहण की। सूरदास के बाद परमानन्द दास अष्टछाप के ऐसे अकेले कवि हैं, जिनके यहाँ सम्पूर्ण लीला के वर्णन का प्रयत्न
है। परमानन्दसागर नाम से प्रसिद्ध उनके पदों की हस्तलिखित प्रतिलिपि में 1101 पद संगृहीत हैं (हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1/पृ. 325-26)।
परमानन्द स्वामी को दीक्षित करने के थोड़े ही वर्षों बाद महाप्रभु
वल्लाभाचार्य का निधन(सन् 1530) हो
गया। उनके पश्चात उनके ज्येष्ठ पुत्र गोपीनाथ, पुष्टिमार्ग के आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित हुए,
पर वे भी आठ वर्ष बाद सन् 1538 में दिवंगत हो गए। उनके बाद उनके छोटे भाई
बिट्ठलनाथ ने यह आचार्यत्व सँभाला और अपनी अपूर्व योग्यता का परिचय दिया। सन् 1566 में उन्होंने अरैल छोड़ दिया, और स्थायी रूप से ब्रज में रहने लगे। उसी वर्ष
शहंशाह अकबर ने उन्हें एक फरमान जारी कर कुछ सुविधाएँ दीं, जिसमें शहंशाह की ओर से गउएँ चराने, निर्भीकता से बसने, तथा पशु-पक्षियों की हत्या के निषेध सम्बन्धी कई फरमान
थे। आचार्य बिट्ठलनाथ ने श्रीनाथजी के मन्दिर में सेवा-कीर्तन की एक दृढ़ परम्परा
कायम की। दैनिक आठ सेवाओं तथा व्रतोत्सवों की व्यवस्था कर उन्होंने सम्प्रदाय के
प्रचार-प्रसार और साहित्य-संगीत-कला इत्यादि की उन्नति में महत्त्वपूर्ण योगदान
दिया। अपने पिता तथा स्वयं अपने सैकड़ों शिष्यों में से परम प्रतिभा सम्पन्न आठ
भक्तों को छाँटकर उन्हें अष्टछाप नाम से प्रतिष्ठित किया। उन आठ में से चार उनके
पिता, महाप्रभु वल्लभाचार्य के
शिष्य--कुम्भनदास(सन्1468-1582), सूरदास(सन्1478-1580-85),
कृष्णदास(सन्1495-1575-81) तथा परमानन्ददास (सन्1491-1583) प्रमुख हैं। अन्य चार भक्त कवि वे हैं,
जो उनके अपने शिष्य सम्प्रदाय के
हैं--गोविन्ददास(1505-1585), छीतस्वामी(सन्1510-1585),
नन्ददास(सन्1533-1586) और चतुर्भुजदास(सन्1530-1585)।
गोविन्ददास ने सन् 1935
में गोस्वामी बिट्ठलानाथ से दीक्षा ली। अनुमान है कि उनका जन्म भरतपुर राज्य के एक
गाँव में हुआ। जाति से उन्हें सनाढ्य बताया गया है। गान-विद्या में उनकी ख्याति
पुष्टिपार्ग में दीक्षित होने से पूर्व ही हो चुकी थी। वैष्णव लोग उनके गायन और
पद-रचना से प्रभावित होकर गोसाईं बिट्ठलनाथ के समक्ष उनकी प्रशंसा करने लगे थे,
इस बात से गोसाईं उनके प्रति आकृष्ट
होने लगे थे, गोविन्दस्वामी भी
गोसाईं बिट्ठलनाथ के बारे में सुन-जानकर उनके प्रति श्रद्धालु होने लगे थे। एक दिन
गोकुल में यमुनाघाट पर गोविन्द स्वामी ने बिट्ठलनाथ जी को सन्ध्या-वन्दन करते हुए
देखा। वे चकित हो उठे। उन्होंने सोचा कि भक्ति-मार्ग का इस कर्म-काण्ड से क्या
सम्बन्ध है? बिट्ठलनाथ के समक्ष
उन्होंने शंका प्रकट की। गोसाईंजी ने उन्हें कर्म एवं भक्ति का सामंजस्य समझाया। फिर
तो उन्होंने बिट्ठलनाथ जी से शरण में ले लेने की प्रार्थना की, और बिट्ठलनाथ ने उन्हें पुष्टिमार्ग में
दीक्षित किया। गोविन्ददास, काव्य-रचना
के साथ-साथ गान-विद्या में भी दक्ष थे। ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’, से प्राप्त सूचना के आधार पर तथ्य है कि महान गायक तानसेन उनसे संगीत
सीखने आते थे। उनके द्वारा रचे गए पदों की संख्या हजार से अधिक बताई जाती है,
पर उनके दो सौ बावन पद अति महत्त्वपूर्ण
हैं। उनके पदों का विषय वही है, जो
कुम्भनदास के पदों का है। ‘गोविन्ददास’
शीर्षक से उनके पदों का एक संग्रह
प्रकाशित भी है (हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1/पृ. 159-60)।
छीतस्वामी मथुरा के निवासी थे। वे चौबे थे। उन्होंने गार्हस्थ जीवन बिताते
हुए श्रीनाथजी की सेवा, कीर्तन
की। इस सम्प्रदाय में उनका प्रवेश सन् 1935 में हुआ। उनका प्रारम्भिक जीवन अत्यधिक उच्छृंखल और उद्दण्डता पूर्ण था। ‘वार्ता’ से मिली सूचना के अनुसार वे बडे़ मसखरे और लम्पट
स्वभाव के थे। कहते हैं कि एक बार वे अपने कुछ चौबे मित्रों के साथ गोसाईं
बिट्ठलनाथ की परीक्षा लेने पहुँच गए। पर उनको देखते ही छीतस्वामी पर ऐसा प्रभाव
पड़ा कि वे हाथ जोड़कर क्षमायाचना करने लगे और शरण में ले लेने की प्रार्थना कीे।
छीतस्वामी, कविता और
संगीत--दोनों में निपुण थे। कहा जाता है कि शहंशाह अकबर वेष बदलकर उनके पद सुनने
आते थे। उनके पदों की संख्या 64
बताई जाती है। ‘छीतस्वामी’
शीर्षक से उनके पदों का संकलन प्रकाशित
है (हिन्दी साहित्य कोश, भाग-1/पृ. 195-96)।
नन्ददास के जीवन के सम्बन्ध में विश्वसनीय सामग्री बहुत कम प्राप्त है।
कहते हैं कि ब्रज से पूरब रामपुर नामक किसी गाँव में उनका जन्म हुआ था। सन् 1559 में वे पुष्टिमार्ग में दीक्षित हुए। सूरदास
के बाद अष्टछाप के कवियों में नन्ददास की प्रसिद्धि सर्वाधिक हुई। ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ में दी गई सूचना के अनुसार वे गोस्वामी
तुलसीदास के भाई थे। पुष्टिमार्ग में दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व वे काशी में रहते
थे। उन्हें राम-भक्त बनाने के तुलसीदास के सारे प्रयास असफल हो गए। काशी से
द्वारिका की यात्र करते समय कुरुक्षेत्र के आगे सीहनन्द गाँव के खत्री साहूकार की
रूपवती स्त्री पर वे मोहित हो गए। यह मोहितावस्था ऐसी थी कि द्वारिका जाना छोड़कर
नित्य-प्रति उनके यहाँ भिक्षा माँगने जाने लगे। साहूकार को जब इस तथ्य की सूचना
मिली तो वे ग्लानि से भर उठे। लोकापवाद के भय से वे अपनी पत्नी को साथ लेकर गोकुल
की ओर चल पड़े। नन्ददास उनके पीछे लग गए। आगे चलते हुए वे यमुना नदी के तट तक
पहुँचे, नाविक ने नन्ददास को पार
नहीं उतारा। वे यमुना तट पर ही बैठकर यमुना स्तुति के पद रचकर गाने लगे। साहूकार
अपनी पत्नी के साथ पार उतरे और आगे बढ़ गए। पत्नी समेत साहूकार जब गोसाईं बिट्ठलनाथ
के दर्शन हेतु गए तो उन्होंने साहूकार से पूछा कि उस ब्राह्मण को यमुना के उस पार
क्यों छोड़ आए हो। साहूकार, गोसाईं
के इस चमत्कार से चकित हो उठे। गोसाईं बिट्ठलनाथ ने तत्काल ही नन्ददास को बुलवाया
और उन्हें पुष्टिमार्ग की दीक्षा दी। दीक्षित होने के तत्काल बाद नन्ददास का
काया-कल्प हो गया। उस खत्रनी के प्रति जो उनकी रूपाशक्ति थी, वह परिष्कृत होकर श्रीकृष्ण के माधुर्य में
केन्द्रीभूत हो गई। कहा गया है कि नन्ददास की कोई स्त्री मित्र थीं, जिनके लिए उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की।
अष्टछाप के कवियों के बीच नन्ददास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कवित्त्व और भक्ति
भावना के अलावा सिद्धान्त और शास्त्रीयता में भी वे सर्वाधिक मुखर थे। वैसे तो
अष्टछाप के सभी कवियों ने कृष्णलीला से सम्बद्ध विषयों पर रचनाएँ कीं, पर उन विषयों पर स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रस्तुत
करने का उद्यम केवल नन्ददास के यहाँ देखा जाता है। कृष्णलीला से सम्बद्ध विषयों के
अलावा कुछ लौकिक और साहित्यिक विषयों पर भी नन्ददास ने रचनाएँ कीं।
रासपंचाध्यायी और भँवरगीत, नन्ददास
की उत्कृष्ट रचनाएँ हैं। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के रास सम्बन्धी प्रसंगों की
कथा का वर्णन मनोहर छन्द और ललित पदावली में उन्होंने किया है। संस्कृत में
कोमलकान्त पदावली की रचना करने वाले महाकवि जयदेव के साथ उनकी तुलना इसी
रासपंचाध्यायी के रचना सौष्ठव के कारण की जाती है। भँवरगीत में उद्धव-गोपी सम्वाद
के चर्चित प्रसंगों की प्रस्तुति खण्ड-काव्य के रूप में है। रासपंचाध्यायी की तरह
उनकी आगली रचना सिद्धान्तपंचाध्यायी का विषय भी कृष्ण और गोपियों की रासलीला ही
है। पर इसमें रास के आध्यात्मिक पक्ष का उद्घाटन हुआ है। स्यामसगाई में राधा-कृष्ण
की सगाई को विषय बनाया गया है। उन्होंने पाँच मंजरियों की रचना की--रसमंजरी में
नायक-नायिका भेद की रचना है। अनेकार्थमंजरी दोहा छन्द में रची गई ऐसी रचना है जो
संस्कृत नहीं जाननेवालों के लिए एक कोश जैसा है। मानमंजरी नाममाला भी एक कोश ही है,
पर इसमें राधा के मान का वर्णन भी है।
विरहमंजरी ब्रजयुवती की विरह-दशा का वर्णन है। रूपमंजरी एक कथाकाव्य है, जिसकी नायिका रूपमंजरी है, और यह सुन्दर नायिका लौकिक प्रेम को त्यागकर
कृष्ण के प्रति आशक्त होती है। रुक्मिणीमंगल की कथा श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के
उत्तरार्ध की कथा पर आधारित है। इसके अलावा गोवर्धनलीला और सुदामाचरित की भी चर्चा
है, जो नन्ददास की रचनाएँ हैं।
विषय की विविधता, कौशल के
उत्कर्ष, भाव प्रवणता, मनोहारी छन्द और पदलालित्य के साथ-साथ रचनाओं
की प्रचुरता की दृष्टि से अष्टछाप के कवियों में नन्ददास का महत्व शीर्ष पर है।
छन्द-बन्ध और अलंकार नियोजन की दृष्टि से उन्हें उच्च स्थान प्राप्त है (हिन्दी
साहित्यकोश, भाग-1/पृ.278-80)।
शुरू शुरू में चतुर्भुजदास के नाम को लेकर पर्याप्त भ्रम फैला हुआ था,
क्योंकि इस नाम के एक भक्त कवि तो
अष्टछाप सम्प्रदाय में हैं (सन् 1530-1585), दूसरे चतुर्भुजदास (जन्म सन् 1528) राधावल्लभीय सम्प्रदाय में हैं। उल्लेखनीय है
कि राधावल्लभीय सम्प्रदाय के चतुर्भुजदास गोंडवाना प्रदेश, जबलपुर के समीप गढ़ा गाँव के निवासी थे। ध्यातव्य है कि
अष्टछाप के कवि चतुर्भुजदास, अष्टछाप
के सम्मानित भक्त कुम्भनदास की सातवीं सन्तान, गोवर्धन के समीप जमुनावतो गाँव के निवासी थे। सन् 1540 में उन्होंने दीक्षा लेकर पुष्टिमार्ग
अपनाया। बचपन से ही उन्हें पिता के रचना-संस्कार और भक्ति-भावना का लाभ मिलने लगा
था। चतुर्भुजदास ने कोई विषेश ग्रन्थ की रचना नहीं की। वे स्फुट पदों की रचना ही
करते रहे। ‘चतुर्भुज कीर्तन
संग्रह’, ‘कीर्तनावली’ और ‘दानलीला’ शीर्षक से उनके
पदों के तीन संग्रह प्रकाशित हैं। भक्ति-भावना और माधुर्य शृंगार इनके रचना-विधान
का प्राण-तत्त्व है (हिन्दी साहित्यकोश, भाग-1/पृ.182)।
अष्टछाप के कवि विभिन्न जातियों, वर्गों और पारिवारिक परिवेश के थे। पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने से पूर्व
के समय में इनमें से कुछेक कवियों का जीवन विचित्र किस्म का था। वे सांसारिक जीवन
में निद्र्वन्द्व भाव से जीते थे। पर इस सम्प्रदाय में दीक्षित होते ही, उनकी रसिकता, भक्ति की प्रबल धारा और उपास्य के प्रति पूर्ण समर्पण
में परिवर्तित हो गई। इस सम्प्रदाय के कवि, कवि होने के साथ-साथ भक्त और रससिद्ध गायक भी थे।
गान-विद्या पर इनको महारत हासिल थी। सूरदास और परमानन्ददास की गायन-कला पर तो
स्वयं महाप्रभु वल्लभाचार्य भी मुग्ध रहते थे। काव्य और संगीत के सम्मिलित प्रभाव
से इन कवियों ने पुष्टिमार्ग को प्रचुर प्रचार दिया और कृष्ण-भक्ति आन्दोलन को बल
दिया। भक्ति के समर्पण, काव्य के
सौन्दर्य और संगीत की रसिकता से इन कवियों ने भक्ति आन्दोलन में उत्साह और उमंग की
सरिता बहा दी।
ध्यातव्य है कि ये सारे कवि, भक्त थे, सिद्धान्तकार
नहीं। शुद्धाद्वैत दर्शन और पुष्टिमार्ग के सिद्धान्तों की विवेचना इनका
कार्यक्षेत्र नहीं था। पर उनकी रचनाओं में ऐसे प्रचुर उदाहरण मिलते हैं, जिसके आधार पर यह कहना बहुत सहज है कि उन
लोगों ने शुद्धाद्वैत-दर्शन, और
पुष्टिमार्ग के मूल सिद्धान्तों को हृदयंगम कर लिया था, उसकी गम्भीर समझ विकसित कर ली थी। नन्ददास के यहाँ तो
तर्क और सिद्धान्त के सहारे पण्डितों को विश्वास दिलाने का यह उद्यम स्पष्ट दिखता
है। ‘रासपंचाध्यायी’ और ‘भँवरगीत’ जैसी उनकी
रचनाएँ कृष्णलीला से सम्बन्धित हैं, फिर भी वहाँ दार्शनिक एवं तार्किक दृष्टिकोण के साथ-साथ पुष्टिमार्ग के
सिद्धान्तों का परिचय स्पष्ट रूप से मिलता है। उल्लेखनीय है कि इस पाण्डित्यपूर्ण
प्रस्तुति के बावजूद वे रचनाएँ बोझिल नहीं हुई हैं; तार्किकता और दार्शनिकता के बोझ या आवरण से काव्य की
रसात्मकता कहीं ओझल या कमतर नहीं हुई। रसपूर्ण प्रवाह और दार्शनिक उद्यम का यह
सन्तुलन मुग्ध करने लायक है (हिन्दी साहित्यकोश, भाग-1/पृ.
64-67)।
उल्लेखनीय है कि अष्टछाप के पहले से ही कृष्णकाव्य का एक महत्त्वपूर्ण और
उल्लेखनीय सम्प्रदाय चल रहा था, और
वह था निम्बार्क सम्प्रदाय। साहित्य कोश, भाग-1 में दी गई सूचनाओं
के अनुसार निम्बार्क, तैलंग
ब्राह्मण थे और उनका जन्म ग्यारहवीं शताब्दी में रामानुज के परवर्तीकाल में हुआ
(पृ. 296)। पर साहित्य अकादेमी
द्वारा प्रकाशित, विजयेन्द्र
स्नातक की पुस्तक ‘हिन्दी
साहित्य का इतिहास’ से सूचना
मिलती है कि ‘साम्प्रदायिक
आचार्यों के अनुसार ये (निम्बार्क) भक्ति-सूत्र-प्रणेता नारद मुनि के शिष्य थे और
इनका आरम्भ का नाम आरुणि था। ब्रह्मसूत्रों के व्याख्याता बादरायण व्यास, निम्बार्क के समकालीन थे, ऐसा भी कहा जाता है। डॉ. भण्डारकर उक्त मत को
स्वीकार नहीं करते। उन्होंने निम्बार्क का समय 1162 ई. के आसपास माना है। वर्तमान मैसूर प्रदेश के
वैल्लारी जिले के निम्बापुर नामक नगर में इनका जन्म हुआ था। इनका शैशवावस्था का
नाम नियमानन्द था। ऐसी दन्तकथा प्रसिद्ध है कि मथुरा के समीप ध्रुव क्षेत्र में जब
नियमानन्द रहते थे तब कोई जैन साधु इनके पास आध्यात्मिक चर्चा करने आए और दोनों
व्यक्ति शास्त्रा चर्चा में इतने लीन हो गए कि इन्हें सूर्यास्त होने का बोध नहीं
हुआ। रात्रि का अन्धकार फैलने लगा और अतिथि जैन साधु के भोजन की वेला नहीं रही।
नियमानन्दजी का मन पश्चाताप से भरने लगा, उन्हें यह देखकर बड़ी वेदना हुई कि अतिथि साधु को रात भर निराहार रहना
पड़ेगा। इस वेदना में म्लान मन होकर शान्त भाव से बैठे हुए नियमानन्दजी क्या देखते
हैं कि आश्रम के नीम के वृक्ष के ऊपर सूर्य अपनी किरणों का प्रकाश फेंक रहा है।
चमकते हुए सूर्य को देखकर तुरन्त नियमानन्द ने अपने अतिथि को भोजन कराया। भोजन
समाप्त होते ही फिर घना अन्धकार सर्वत्र व्याप्त हो गया। इस विचित्र चमत्कार के
कारण ही उसी दिन से नियमानन्दजी का नाम निम्बार्क (नीम पर सूर्य के दर्शन कराने
वाला) हो गया (पृ. 77-78)।’
तथ्य है कि निम्बार्क द्वैताद्वैत दार्शनिक सिद्धान्त के मुख्य प्रवर्तक
थे। उनके अनुसार यह संसार, ब्रह्म
से भिन्न भी है, अभिन्न भी।
कार्य-कारण सम्बन्ध का उदाहरण देते हुए उनकी राय है कि ब्रह्म से संसार की भिन्नता
और अभिन्नता--दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। द्वैताद्वैत में दो शब्द हैं--द्वैत और
अद्वैत। कार्य (घट), कारण
(मिट्टी) से भिन्न है, दोनों में
द्वैत है, क्योंकि दोनों के रूप,
आकार, प्रयोजन भिन्न-भिन्न हैं। दोनों अभिन्न हैं, दोनों में अद्वैत है, क्योंकि दोनों की सामग्री एक है। इसी तरह ब्रह्म
(कारण) और संसार (कार्य) भिन्न और अभिन्न दोनों है। अद्वैत ब्रह्म (कारण) ही द्वैत
संसार (कार्य) का वास्तविक रूप धारण करता है। इस मत को भेदाभेदवाद भी कहा जाता है।
वैसे इस मत का इतिहास प्राचीन है। ‘ब्रह्मसूत्र’
से ज्ञात होता है कि ब्रह्मसूत्रकार
बादरायण के पूर्व औडुलोमि और आश्मरथ्य भेदाभेदवादी थे। शंकराचार्य से पूर्व के एक
प्रसिद्ध उपनिषद-भाष्यकार भर्तृप्रपंच भेदाभेदवादी दार्शनिक थे। शंकर के बाद और
रामानुज से पहले के एक ब्रह्मसूत्र-भाष्यकार भास्कर भी भेदाभेदवादी दार्शनिक थे।
इस धारणा के साथ उल्लेखनीय है कि निम्बार्क सगुणवादी थे। उनकी मान्यता थी कि जो
कुछ भी दृष्टिगोचर और बोधगम्य है, उसके
भीतर और बाहर ईश्वर व्याप्त है। उसे ही परमब्रह्म, नारायण, भगवान, कृष्ण आदि नामों
से पुकारा जाता है। निम्बार्क ऐसे पहले वैष्णव हैं, जिन्होंने कृष्ण और राधा को सबसे पहले विषेश महत्त्व
दिया। हजारों सखियों से घिरी राधा और उनके वल्लभ कृष्ण, निम्बार्क के आराध्य देव हैं। दोनों की लीला ही सृष्टि
का रहस्य है। उन्होंने माधुर्य प्रधान भक्ति की शिक्षा दी। उनकी राय थी कि ऐश्वर्य
के कारण भागवान की ओर आकृष्ट होना धर्म-साधना का आरम्भ मात्र है। सच्ची साधना तो
उनके प्रेम तथा जीवन्त साहचर्य में बँधना है।
निम्बार्क जन्मना दक्षिण भारत के अवश्य थे, पर उनकी कर्मभूमि ब्रजमण्डल ही है। वृन्दावन, गोवर्धन, नीम गाँव आदि स्थानों पर घूम घूमकर वे अपने मत का
प्रचार करते थे। स्वयं तो वे वृन्दावन में बस गए, पर उनके मत का प्रचार बंगाल में भी खूब हुआ। निम्बार्क
के प्रमुख ग्रन्थ हैं--वेदान्त पारिजात(ब्रह्मसूत्र का भाष्य), दशश्लोकी और श्रीकृष्णस्तवराज। निम्बार्क के
शिष्य श्रीनिवासाचार्य ने वेदान्तपारिजात की टीका वेदान्तकौस्तुभ की रचना की।
निम्बार्क सम्प्रदाय में जीव को परमब्रह्म का अंश माना गया है। भक्ति द्वारा जीव
ब्रह्म को प्राप्त करता है। इस सम्प्रदाय में ईश्वर के सगुण अवतारी के रूप में राधा
का स्वकीया रूप स्वीकार किया गया है। उत्तर भारत में आज भी निम्बार्क सम्प्रदाय के
कई मन्दिर हैं।
नाभादास ने द्वैताद्वैतवादी भक्त निम्बार्क, केशव कश्मीरी, श्रीभट्ट, हरिव्यास आदि
की सराहना की है। निम्बार्क मत के भक्तों और आचार्यों ने ब्रजभाषा में ही रचनाएँ
कीं। इनमें सर्वप्रमुख हैं केशव कश्मीरी के शिष्य श्रीभट्ट। हरिव्यास यशामृत में
उल्लेख है कि श्रीभट्ट को गौड़ ब्राह्मण माना जाता है। इनके पूर्वज हिसार जिले के
थे, जो बाद में मथुरा आकर बस गए।
निम्बार्क सम्प्रदाय में इनका पूजनीय स्थान है। इनकी कृति जुगलसतक, आदिबानी के नाम से प्रसिद्ध है। इस सम्प्रदाय
के भक्तगण राधा और कृष्ण की युगल मूर्ति के उपासक हैं। श्रीभट्ट के समय को लेकर
भारी असहमतियाँ और विवाद हैं। भक्तमाल में नाभादास द्वारा दी गई सूचनानुसार
श्रीभट्ट के सुयोग्य शिष्य हरिव्यास हैं, उन्होंने आदिबानी पर एक विस्तृत भाष्य लिखा, जिसे महाबानी शीर्षक दिया गया। जुगलसतक के दोहों में
वर्णित संक्षिप्त प्रसंगों को महाबानी में विस्तृत व्याख्या के साथ प्रस्तुत किया
गया। हरिव्यासदेव का निम्बार्क सम्प्रदाय में वही स्थान है, जो वल्लभीय सम्प्रदाय में सूरदास का है। हिन्दी में
उनके बारह शिष्यों में सबसे प्रसिद्ध परशुरामाचार्य हैं। हरिव्यासदेव ने सम्प्रदाय
का संगठन नए सिरे से किया। उन्होंने इसकी अनेक विच्छिन्न परम्पराओं को पुनर्गठित
किया। अपने सम्प्रदाय में उन्होंने ‘रसिक-सम्प्रदाय’ का
प्रवर्तन किया। इस शाखा को हरिव्यासी भी कहा जाता है। वे मधुरभाव के उपासक थे।
कविता में वे अपना नाम ‘हरिप्रिया’
रखते थे। उनके शिष्यों ने अनेक अखाड़ों
की स्थापना की और सम्प्रदाय का गौरव बढ़ाया। सूचना है कि हरिव्यासदेव ने कई शाक्तों
को वैष्णव बनाया और उनमें भक्ति का संचार किया (हिन्दी साहित्यकोश, भाग-1/पृ. 296-97)।
परशुरामाचार्य के बारे मे कहा गया है कि जयपुर के नारनौल के निकट उनका
जन्म हुआ। वे बडे़ प्रतापी योगी थे। निम्बार्क सम्प्रदाय की गद्दी ब्रज से
सलेमाबाद ले जाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। राजस्थान में निम्बार्क सम्प्रदाय
के प्रचार-प्रसार का कार्य उन्होंने ही किया। कहते हैं कि मथुरा में उन्होंने थोड़े
समय तक ‘नारद-टीला’ पर रहकर साधना की। उन दिनों पुष्कर में कुछ
मुसलमान सिद्ध, हिन्दू यात्रियों
को कष्ट दिया करते थे। अपने गुरु हरिव्यासजी की आज्ञा से वहाँ जाकर उन्होंने अपने
योग-बल से उन्हें परास्त किया। ‘भक्तमाल’
में उनके और भी कई चमत्कारों का उल्लेख
है। परशुरामसागर उनकी प्रसिद्ध कृति है। उनकी भाषा राजस्थानी-तर्ज की सधुक्कड़ी
भाषा है।
निम्बार्क मत के भक्त किशोर कृष्ण और किशोरी राधा के उपासक हैं। हिन्दी के
महाकवि बिहारीलाल, केशवदास,
घनानन्द, रसिक गोविन्द, रसखान आदि निम्बार्क मत के ही अनुयायी हैं। उल्लेखनीय है कि
द्वैताद्वैतवाद ने निर्गुण और सगुण--दोनों ही भक्तों को प्रभावित किया(हिन्दी
साहित्यकोश, भाग-1/पृ. 296-97)।
कृष्ण भक्ति परम्परा में ‘सखी-सम्प्रदाय’
निम्बार्क मत की ही शाखा है। इस शाखा के
प्रवर्तक हरिदासजी हैं। हरिदासजी पहले निम्बार्क मत के अनुयायी थे, बाद में भगवत भक्ति में गोपीभाव को उन्नत और
उपयुक्त मानकर उन्होंने इस सम्प्रदाय की स्थापना की। सखी सम्प्रदाय में वेदान्त
सम्मत किसी विचारधारा का प्रतिपादन नहीं हुआ, बल्कि यह कहा गया कि उनकी साधना का एक मात्र लक्ष्य
सखी-भावना से सगुण कृष्ण की उपासना है। ‘भक्तमाल’ में परमभक्त
नाभादास भी इसी बात का उल्लेख करते हैं (हिन्दी साहित्यकोश, भाग-1/पृ.
872)।
राधावल्लभ सम्प्रदाय कृष्ण भक्ति परम्परा का अति प्रचलित और महत्त्वपूर्ण
भक्तिमार्ग है। इस मत में किसी द्वैत अथवा अद्वैत दर्शन के सिद्धान्तों का अनुशरण
आवश्यक नहीं है। इस भक्ति सम्प्रदाय का मूल आधार प्रेम है। इसमें मुक्तिकामना नहीं,
प्रेम मिलन की कामना है। इस सम्प्रदाय
के प्रवर्तक आचार्य हितहरिवंश, राधा
के अनन्य उपासक हैं। इनके पूर्वज उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के देववन्द नामक
कस्बे के निवासी थे। किम्बदन्ती के अनुसार इनके पिता व्यास मिश्र धन-धान्य से
सम्पन्न होने के बावजूद पुत्रकामना से हरदम खिन्न और उदास रहते थे। एक दिन उनके
अग्रज केशव मिश्र ने भविष्यवाणी की कि शीघ्र ही उन्हें पुत्र प्राप्ति का योग है।
सन् 1502 में वैशाख शुक्ल एकादशी
को सोमवार के दिन मथुरा के निकट बादगाँव में उनका जन्म हुआ। उनकी माता का नाम
तारारानी था। सोलह वर्ष की आयु में हरिवंश का विवाह रुक्मिणी देवी से हुआ।
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के बावजूद उनकी धार्मिक निष्ठा पर कोई प्रभाव नहीं
पड़ा। उनका दाम्पत्य जीवन भी सुखी, सम्पन्न
और आदर्शपूर्ण था। उन्होंने शीघ्र ही यह अनुभव कर लिया कि गृहस्थाश्रम में रहते
हुए भी ईश्वर की आराधना की जा सकती है। सोलह वर्षों तक गृहस्थाश्रम व्यतीत करने के
बाद उन्होंने सपत्नीक ब्रजयात्र करने की इच्छा की। इस बीच उन्हें एक पुत्री और तीन
पुत्र हुए। छोट-छोटे बच्चों के कारण पत्नी रुक्मिणी देवी ने इस यात्र में जाना
उचित नहीं समझा। फलस्वरूप हरिवंश अकेले उस यात्र पर चल पड़े। सन् 1533 में वे वृन्दावन पहुँचे। उनकी मधुरवाणी से
लोग वहाँ मुग्ध होने लगे। वे वहीं बस गए और वहाँ मानसरोवर, वंशीघाट, सेवाकुंज तथा रासमण्डल नामक चार सिद्ध स्थल बनाया। अपनी उपासना पद्धति के
संस्थापन और प्रचार हेतु उन्होंने ‘सेवाकुंज’
में अपने इष्टदेव राधावल्लभ का विग्रह
स्थापित किया। सन् 1534 में
प्रथम पाटोत्सव यहीं सम्पन्न हुआ। लगभग आधी सदी तक राधावल्लभ का विग्रह यहीं
प्रतिष्ठित रहा। सन् 1594 में
अब्दुर्रहीम खानखाना के साथी दीवान, या खजांची दिल्ली निवासी सुन्दरलाल भटनागर कायस्थ ने लाल पत्थर का मन्दिर
बनवाया। वह मन्दिर वहाँ आज भी है, पर
उसमें प्राचीन विग्रह प्रतिष्ठित नहीं है।
वृन्दावन में हितहरिवंश के आते ही स्वामी हरिदास, हरिराम व्यास, प्रबोधानन्द सरस्वती आदि महान भक्तों का यहाँ आगमन हुआ। इन सबकी समवेत
भक्ति और सरस पदावली से वहाँ माधुर्य भक्ति प्रचुर प्रसार हुआ। कृष्ण-भक्ति की इस
नई शाखा के लिए रासलीला के अनुकरण की आवश्यकता हुई। वहाँ एक रासमण्डल बनाया गया।
रासलीला के अनुकरण को पुनर्जीवन देने में हितहरिवंश का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
हरिवंश के मतानुसार ‘प्रेम’
या ‘हित’ तत्त्व
समस्त चराचर में व्याप्त है। यह ‘प्रेम’
या ‘हित’ जीव
को आराध्य के प्रति उन्मुख करता है। हितहरिवंश ने अपनी उपासना पद्धति को रासोपासना
कहा है। हरिवंश गोस्वामी द्वारा लिखित चार ग्रन्थ की सूचना है--दो संस्कृत
के--राधा सुधा निधि और यमुनाष्टक; और
दो हिन्दी के--हितचौरासी तथा स्फुटवाणी। हितचौरासी उनकी सर्वप्रसिद्ध ग्रन्थ है,
इसमें ब्रजभाषा में लिखे चौरासी पद हैं।
सन् 1552 में उनका निधन वृन्दावन
में ही हुआ (हिन्दी साहित्यकोश, भाग-2/पृ.681-82)।
सम्प्रदाय निरपेक्ष कृष्ण भक्त कवि
कृष्ण-काव्य परम्परा में कुछ ऐसे भक्त कवि भी हुए हैं, जिनकी ख्याति औरों से किसी अर्थ में कम नहीं
है, पर वे कभी किसी सम्प्रदाय
में विधिवत दीक्षित नहीं हुए। उनकी भक्ति और रचना के विश्लेषण से भले ही कोई
निष्पत्ति निकाल ली जाए, पर
तत्त्वतः वे कहीं दीक्षित नहीं हुए। ऐसे महान रचना-धर्मी के रूप में सर्वाधिक
प्रतिष्ठित और लोकप्रिय नाम, कवयित्री
मीराबाई का है। मीराबाई मध्ययुगीन भक्ति-आन्दोलन की आध्यात्मिक प्रेरणा की महान
उपलब्धि हैं। उनकी जन्मतिथि को लेकर विद्वानों में भारी असहमति है, पर इधर के अनुसन्धानों द्वारा यह सुनिश्चित
किया जा चुका है कि सन् 1504 में
उनका जन्म हुआ और सन् 1558 से
सन् 1563 के बीच उनका निधन हुआ।
मान्यता है कि मेड़ता के समीपवर्ती गाँव कुड़की में राठौर वंश की मेड़तिया शाखा के
प्रवर्तक राव दूदा थे। राव दूदा युद्ध कौशल में निपुण होने के साथ-साथ परम वैष्णव
भक्त भी थे। उन्हीं के पुत्र राव रत्नसिंह के घर मीरा का जन्म हुआ। मीराबाई जब दो
वर्ष की थीं, तभी उनकी माँ का
देहान्त हो गया। सदैव युद्धरत रहने के कारण पुत्री के लालन-पालन में राव रत्नसिंह
असमर्थ थे, फलस्वरूप राव दूदा
उन्हें अपने पास ले आए। पितामह की छत्रछाया में ही उन्हें गिरिधर गोपाल के प्रति
अनन्य आस्था हुई। बचपन से ही साथ रहने के कारण कुछ विद्वान मीराबाई को दूदा की ही
पुत्री मान बैठे। वैसे विवाद तो उनके नाम को लेकर भी है। कहा जाता है कि ‘मीरा’ का सम्बन्ध फारसी शब्द ‘मीर’
से है, जिसका अर्थ होता है ‘परम पुरुष’ और ‘बाई’ का अर्थ हुआ ‘पत्नी’।
विद्वान लोग मीराबाई का अर्थ ‘ईश्वर
की पत्नी’ लगाते हैं। पर गुजरात
में ‘बाई’ शब्द का प्रयोग स्त्रिायों के लिए होता है, इसलिए असम्भव नहीं कि ‘मीराबाई’ नाम मूलरूप से माता-पिता द्वारा भी दिया गया हो। चित्तौड़ के राणा सांगा के
ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ सन् 1516 में मीराबाई का विवाह हुआ। बताया जाता है कि विवाह के कुछ ही बरस बाद सन्
1523 में उनके पति की मृत्यु हो
गई; सन् 1527 में उनके पिता रतनसिंह, खानवा के युद्ध में मारे गए। इसी के आसपास
उनके श्वशुर राणासांगा का भी देहान्त हो गया। तत्कालीन प्रथा के अनुसार मीरा को
सती हो जाना था, जो वे नहीं
हुईं। क्योंकि वे स्वयं को अमर स्वामी गिरिधर गोपाल की चिर सुहागिनी मानती थीं। वे
लौकिक बन्धनों से मुक्त होकर साधु-संगति में भक्ति-भजन करने लगीं। यह बात उनके
ससुराल के उत्तराधिकारी विक्रमसिंह को असह्य लगी। उन्होंने मीराबाई को अनेक
यातनाएँ दीं, प्राण तक लेने की
चेष्टा की गई। सन् 1533 के आसपास
वे अपने चाचा वीरमदेव और चचेरे भाई जयमल के बुलावे पर मेड़ता आ गईं। वे दोनों
मीराबाई को बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे। पर सन् 1538 में जोधपुर नरेश मालदेव के आक्रमण के कारण वीरमदेव की
स्थिति बिगड़ गई। वैराग्य-भाव से भर उठने के लिए जीवन में इतनी विडम्बनाएँ बहुत
होती हैं। वे पुष्कर यात्र करती हुई वृन्दावन आ गईं। सन् 1543 के आसपास वे द्वारिका चली आईं और जीवन के
अन्तिम समय तक वहीं रहीं। सूचना है कि अकबर और तानसेन भी मीराबाई से मिले थे
(हिन्दी साहित्य का इतिहास/विजयेन्द्र स्नातक/पृ. 116-17; हिन्दी साहित्य कोश, भाग-2/पृ.
448-49)।
मीराबाई के दीक्षा-गुरु के सम्बन्ध में भी मतैक्य नहीं है। कोई सन्त रैदास
को उनके गुरु मानते हैं, कोई
वल्लभ सम्प्रदाय के बिट्ठलनाथ को, कोई
तुलसीदास को। वियोगी हरि उन्हें जीव गोस्वामी की शिष्या मानते हैं। वैसे रैदास को
गुरु प्रमाणित करने वाले मीराबाई के पद अधिक हैं, पर दोनों के समय में मेल नहीं बैठता। रैदास का काल सन्
1388-1518 है, जबकि सन् 1504 में मीराबाई का जन्म और सन् 1558 से 1563 के बीच उनका देहान्त माना जाता है। स्पष्ट है कि
रैदास के देहान्त से दो वर्ष पूर्व से ही मीराबाई अपने ससुराल में रहने लगी थीं,
और उस समय उनकी आयु मात्र चौदह वर्ष की
थी। अन्य मान्यताएँ भी तर्क से खण्डित हो जाती हैं। कह सकते हैं वे किसी सम्प्रदाय
में नहीं थीं, मुक्त भाव से सभी
भक्ति-सम्प्रदायों का प्रभाव ग्रहण किया, किसी व्यक्ति-विशेष से उनका गुरु-शिष्या का सम्बन्ध नहीं था। उनकी भक्ति
दैन्य और माधुर्य भाव की है। उनके आराध्य कहीं निर्गुण निराकार ब्रह्म हैं,
तो कहीं सगुण साकार श्रीकृष्ण। उनका
काव्य उनकी गहन जीवनानुभूति की सहज अभिव्यक्ति है। भौतिक-सुख के सपने टूट जाने के
बाद उनकी भावनाएँ अध्यात्मोन्मुख हो गईं। वे गिरिधर गोपाल के एकनिष्ठ प्रेम से
अभिभूत हो उठीं। उनके पदों में राजस्थानी, ब्रजभाषा और गुजराती का मिश्रित रूप पाया जाता है। वैसे तो उनके कई
ग्रन्थों की सूचनाएँ अलग-अलग विद्वान देते हैं, पर सर्वाधिक प्रमाणित और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ उनकी
पदावली है, जिसके पदों का
अलग-अलग संकलन परवर्ती काल के विद्वानों और मीरा-साहित्य के अनुरागियों ने तैयार
किया (हिन्दी साहित्य कोश, भाग-2/पृ. 448-50)।
कृष्ण-भक्त परम्परा में सम्प्रदाय निरपेक्ष एक और महत्त्वपूर्ण कवि हैं
रसखान। कृष्ण-भक्त कवियों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा है। मिश्रबन्धु इनका काल(सन् 1548-1628)
मानते हैं। ये दिल्ली के पठान सरदार कहे
जाते थे। इनके जीवन के सम्बन्ध में अनेक किम्बदन्तियाँ हैं। दो सौ बावन वैष्णवन की
वार्ता में उल्लेख है कि शुरू-शुरू में ये एक बनिये के बेटे पर आसक्त थे। उनके
पीछे फिरा करते थे। एक बार उन्होंने किसी को चर्चा करते हुए सुना कि ईश्वर में
ध्यान उस तरह लगाना चाहिए, जैसे
साहूकार के बेटे से रसखान ने लगाया है।कृयह सुनकर रसखान चैंक उठे और इसके बाद ही
श्रीनाथजी के दर्शन हेतु गोकुल पहुँचे और वहाँ गोस्वामी बिट्ठलनाथ से दीक्षा ग्रहण
की। वहाँ रसखान की भक्ति का उत्कर्ष देखकर गोस्वामी बिट्ठलनाथ के 225 मुख्य शिष्यों में उनको स्थान दिया गया।...एक
दूसरी कथा इस तरह है कि इनकी एक प्रेमिका थी, जो बड़ी मानिनी थी और इनका तिरस्कार किया करती थी। एक
बार जब ये श्रीमद्भागवत का फारसी अनुवाद पढ़ रहे थे, उस कथा में श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों के प्रेम
प्रसंग को पढ़कर ये चकित उठे। इन्हें जैसे दिव्यदृष्टि मिल गई। इन्होंने तत्काल तय
किया कि क्यों न इस कृष्ण के प्रति आसक्ति बढ़ाई जाए, जिस पर इतनी गोपियाँ न्योछावर हो रही हैं; और वे तत्काल बाद वृन्दावन आ गए।
मिश्रबन्धु और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इन्हें बिट्ठलनाथ के शिष्य मानते
हैं। किन्तु चन्द्रबली पाण्डे अपनी असहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं कि ‘श्रीनाथजी के जिस बालरूप की वल्लभ सम्प्रदाय
में इतनी प्रतिष्ठा है, रसखान की
रचना में उसका सर्वथा अभाव है। स्वयं रसखान ने भी कहीं इसका उल्लेख नहीं किया।’
मेरी समझ से चन्द्रबली पाण्डे का तर्क
गौरतलब है।...अपनी प्रसिद्ध कृति प्रेमवाटिका में इन्होंने लिखा है:
देखि गदर हित साहिबि, दिल्ली नगर मसान
छिनहिं बादसा वंश की ठसक छोरि रसखान
प्रेम निकेतन श्री वनहिं, आइ गोवर्धन धाम
लह्यो सरन चित चाहि के, जुगल सरूप ललाम
तोरि मानिनि ते हियो, फोरि मानिनी मान
प्रेम देव की छविहिं लखि, भए मियाँ रसखान!
इस ‘तोरि मानिनी ते हियो’
से साहूकार के बेटे वाली कथा की संगति
नहीं बैठती है (हिन्दी साहित्य कोश, भाग-2/पृ. 476) अतः माना जा सकता है कि शायद दूसरी कथा सही
हो। विजयेन्द्र स्नातक ‘गदर’
और ‘दिल्ली नगर मसान’ के लिए तर्क करते हैं कि यह समय सन् 1555 का है, क्योंकि इसी वर्ष मुगल-बादशाह हुमायूँ ने दिल्ली के
सूरवंशीय पाठान शासकों से अपना खोया हुआ शासनाधिकार वापस लिया था। इस अवसर पर
भयानक नरसंहार हुआ था, जो किसी
कोमल हृदय कवि को विचलित कर देने के लिए पर्याप्त था।उन्होंने यह भी तर्क दिया है
कि रसखान ने जिस ‘बादसा वंश’
की ठसक का परित्याग किया, वह उसी पठान वंश की ठसक थी, जो शेरशाह सूरी के साथ सन् 1528 में शुरू हुआ और इब्राहिम खाँ तथा अहमद खाँ
के कलह के कारण सन् 1555 में
खत्म हुआ। इस आधार पर विजयेन्द्र स्नातक यह भी तर्क करते हैं कि यदि इस गदर के समय
रसखान की उम्र बीस-बाइस वर्ष की मान ली जाए, तो इनका जन्म सन् 1533 के आसपास माना जा सकता है (हिन्दी साहित्य का
इतिहास/पृ. 119)। परन्तु हिन्दी
साहित्य कोश (भाग-1, पृ. 476)
का तर्क इस पंक्ति पर अधिक अर्थ सम्मत
लगता है कि रसखान ने खुद को ‘बादसा
वंश’ का कहा है। राधाचरण
गोस्वामी ने भी नव भक्तमाल में इन्हें बादसा वंश विभाकर कहा है। हिन्दी साहित्य
कोश में इस बात का भी उल्लेख है कि प्रेमवाटिका का रचनाकाल मुगल बादशाह जहाँगीर के
समय में (सन् 1614) है। सम्भव है
कि रसखान मुगल बादशाह के वंशज ही हों। पर यह तर्क और अनुमान ग्राह्य नहीं लगता।
क्योंकि इस स्थिति में तो यह निष्पत्ति निकलेगी कि प्रेमवाटिका की रचना उन्होंने 66 वर्ष की आयु में की, जो उचित प्रतीत नहीं होती।
रसखान के दो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की चर्चा है--प्रेमवाटिका, और सुजान रसखान। उन्होंने दोहा, कवित्त और सवैया छन्दों का प्रयोग प्रचुरता से
किया। सवैया छन्द में लिखी उनकी पंक्तियाँ मानुष हों तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन और या लकुटी
अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं प्रत्येक हिन्दी प्रेमी की जीभ पर आज
भी नाचती रहती है। भाषा की सहजता और छन्द का प्रभाव तो इनके यहाँ अत्यन्त मनोहारी
हैं।
कृष्ण-काव्य परम्परा के इस लम्बे अन्तराल में भक्त कवियों द्वारा रचे-गाए
गए पदों को देखकर यह बात विशेष रूप से उल्लेख्य है कि अधिकांश कृष्ण भक्ति काव्य
गीति पदों में रचे गए। कृष्ण-भक्ति और लीलाओं के गायन को इस बात का श्रेय बहुलांश
में जाता है कि पूरा भक्तिकालीन वातारण भावविभोर रहा। संगीतात्मकता से ओत-प्रोत
कृष्ण-भक्ति काव्य परम्परा के लगभग सभी भक्त, संगीतज्ञ थे। अष्टछाप के तो अनेक कवियों की
संगीत-निपुणता की कथा प्रसिद्ध है। उन भक्त कवियों की पदरचना ही गीतिमय होती थी,
ऐसी उद्घोषणा शायद उचित होगी।
हम दृढ़तापूर्वक कह सकते हैं कि इस पूरे रचना फलक ने, कृष्ण काव्य परम्परा ने, उस काल की जीवन-पद्धति की जड़ता को तोड़ा। जीवन
की नीरसता मिटाकर उसे गतिशीलता प्रदान की। मानव जीवन की जिन दुर्बलताओं को दूर
करने हेतु धर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण की दमनात्मक नीति उन दिनों अपनाई जाती थी,
उससे उसे मुक्त कराकर धर्म और समाज की
दिशा में लोकतन्त्र की बहाली की। श्रीकृष्ण के विराट व्यक्तित्त्व में परब्रह्म,
अद्वैत, परमेश्वर आदि का रूप देखते हुए भक्तों-सन्तों ने
अपने-अपने भाव के अनुसार वात्सल्य, सख्य,
और माधुर्य का आश्रय लेकर, उसे लौकिक जीवन का अभिन्न अंग बनाया। निवृत्ति
मार्ग की उपेक्षा कर प्रवृत्ति मार्ग को प्रश्रय दिया और गार्हस्थ-जीवन की
क्रमबद्धता को कायम रखा। पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की उक्ति है कि ‘कृष्णभक्ति परम्परा में श्रीकृष्ण की प्रेममयी
मूर्ति को ही लेकर प्रेमतत्त्व की बड़े विस्तार के साथ व्यंजना हुई है, उनके लोक-पक्ष का समावेश उसमें नहीं है। इन
कृष्ण भक्तों के कृष्ण प्रेमोन्मत्त गोपिकाओं से घिरे हुए गोकुल के कृष्ण हैं,
बड़े-बड़े भूपालों के बीच लोकव्यवस्था की
रक्षा करते हुए द्वारका की तरंगों से परिपूर्ण, अनन्त सौन्दर्य का समुद्र है। उस सार्वभौम प्रेमालम्बन
के सम्मुख मनुष्य का हृदय निराले प्रेमलोक में फूला-फूला फिरता है। अतः इन कृष्ण
भक्त कवियों के सम्बन्ध में यह कह देना आवश्यक है कि वे रंग में मस्त रहने वाले
जीव थे, तुलसीदास के समान
लोकसंग्रह का भाव इनमें न था। समाज किधर जा रहा है, इस बात की परवा ये नहीं रखते थे, यहाँ तक कि अपने भगवत्प्रेम की पुष्टि के लिए
जिस शृंगारमयी लोकोत्तर छटा और आत्मोत्सर्ग की अभिव्यंजना से इन्होंने जनता को
रसोन्मत्त किया, उसका लौकिक
स्थूल दृष्टि रखने वाले विषयवासनापूर्ण जीवों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, इसकी ओर इन्होंने ध्यान न दिया। जिस राधा और
कृष्ण के प्रेम को इन भक्तों ने अपनी गूढ़ातिगूढ़ चरम भक्ति का व्यंजक बनाया,
उसको लेकर आगे के कवियों ने शृंगार की
उन्मादकारिणी उक्तियों से हिन्दी काव्य को भर दिया (हिन्दी साहित्य का
इतिहास/रामचन्द्र शुक्ल/पृ. 89)।’
बात सही है कि जयदेव और विद्यापति ने कृष्ण-काव्य में गीति की जैसी
प्रवाहमय धारा बहाई, उसका
तीव्रता से विस्तार हुआ और ब्रजभाषा में भक्ति काव्य लिखने वाले सन्त कवियों ने
उसे अपनाकर आगे बढ़ाया, कुछ और
आगे आने पर मुक्तक के रूप में लिखे गए
पदों में राधा-कृष्ण का प्रेम महत्त्वपूर्ण हो गया। कृष्ण काव्य पूरी तरह मुक्तक
का क्षेत्र बन गया। पर सच यह भी है कि वल्लभाचार्य के कहने पर सूरदास ने
श्रीमद्भागवत की कथा को पदों में गाया। सूरसागर में कृष्ण जन्म से लेकर कृष्ण के
मथुरा गमन तक की कथा का वर्णन विस्तार से है। नन्ददास की अनेक कृतियों में लघु
प्रबन्धात्मकता है। वल्लभसम्प्रदाय के नागरीदास, राधावल्लभीय सम्प्रदाय के धु्रवदास, हितवृन्दावनदास आदि कवियों ने छोटे-छोटे
प्रबन्धों में कृष्ण काव्य की रचना की।
सचाई यह भी है कि भक्ति कालीन कृष्ण काव्य परम्परा में प्रेम और समर्पण का
उत्कर्ष था, पर राधा-कृष्ण विषयक
पदों में भक्ति के लिए प्रेम के जिस शृंगारिक प्रसंग को अपनाया गया था, कालान्तर में भक्ति काल का वह आदर्श वातारण रह
न सका। भक्ति सम्प्रदाय रूढ़ियों और कर्मकाण्डी प्रवृत्तियों से जकड़ गया। कहाँ तो
सूरदास ने शहंशाह अकबर तक को कह दिया था कि दुबारा मिलने की कोशिश न करना, कुम्भनदास ने अकबर के बुलावे पर फतेहपुर सीकरी
जाने के बाद पश्चाताप किया; और
कहाँ बाद के सम्प्रदाय-प्रचारकों ने धन-वैभव की लिप्तता में अपना समस्त गौरव भूल
गए। वे सांसारिक हो गए। उन सभी मूल्यों को परोक्ष किया जाने लगा जो भक्तिकाल की
पहचान के रूप में विकसित हुए थे। भक्ति और धार्मिक परम्पराओं की गतिशीलता गायब
होने लगी और जड़ता अपनी जड़ें जमाने लगीं। कृष्ण काव्य का विषय करीब-करीब वही रहा,
पर उसकी आत्मा बदल गई। विषय की
प्रस्तुति में भावधारा संकुचित होने लगी। भक्त कवियों ने प्रेम की भावना को जो
उत्कर्ष दिया था, वह अपनी
सूक्ष्मता और सांकेतिकता खोकर, जड़ता
और विलास की ओर बढ़ने लगा। कुल मिलाकर पूरे भक्तिकाल का कृष्ण-काव्य, रीतिकाल में वैसे का वैसे रहने के बावजूद वह
नहीं रहा। यहाँ कृष्ण और राधा बहाना मात्र रह गए, समर्पण की उदात्त भावना की जगह यहाँ विलासिता का
वातावरण छा गया और आध्यात्मिक पिपासा के स्थान पर वासना की अतृप्ति छा गई।
अब प्रश्न यह उठता है कि आचार्य शुक्ल ने जिस तरह उक्त अनुच्छेद में यह
तथ्य रखा है, कि भक्तिकालीन पदों
में गोपिकाओं से घिरे प्रेमोन्मत्त कृष्ण तो हैं, पर उस कृष्ण का लोक-रक्षात्मक रूप नहीं है, और समाज किधर जा रहा है, इसकी परवाह वहाँ नहीं है। फलस्वरूप आगे की
कविताई पर उस रसोन्मत्त भाव का क्या असर पड़ेगा--इसकी चिन्ता वहाँ नहीं है। इसका एक
अर्थ यह भी निकलता है कि आगे की कविताई में रसोन्मत्तता के विषय-वासनाओं से भरा भाव
छा जाने का सारा दायित्त्व वे भक्तिकालीन सन्त कवियों पर देना चाहते हैं। क्या यह
उचित है कि समाज की बदली हुई परिस्थितियों में साहित्य के क्षेत्र की इस तब्दीली
के लिए भक्तिकालीन कवियों को उत्तरदायी ठहराया जाए? क्या रीतिकालीन कवियों का अपना कोई दायित्त्व नहीं था
कि यदि उनके पूर्ववर्ती उन्हें बिगड़े हुए रास्ते में ले जाकर बिगाड़ना चाहते थे,
तो खुद सुधर जाएँ? क्या यह हर हाल में सच होगा कि यदि भक्तिकालीन
कवियों ने ऐसा न किया होता, तो
अगली काव्य-रीति वैसी न होती, जैसी
हुई?...ये सारे सवाल उस व्याख्या
के मद्देनजर सामने खड़े होते हैं। वैसे आचार्य शुक्ल ने जो कहा है कि ‘उनके लोकपक्ष का समावेश उसमें नहीं है’--यह बात भी गले उतरने में थोड़ी मुश्किल होती
है। कम से कम विद्यापति और सूरदास के मामले में तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि
उनकी पूरी पदावली का विषय भले ही शास्त्रा-पुराण की कथाओं पर आधारित हो, पर इन दोनों महाकवियों की रचनाओं में लोकपक्ष
कहीं गहरे समाया हुआ है। यह अवश्य है कि उनके यहाँ भी ‘लोकव्यवस्था की रक्षा करते हुए द्वारका के श्रीकृष्ण
नहीं हैं।’ पर, हमें उस क्षेत्र में जाना ही क्यों, जो क्षेत्र वहाँ है ही नहीं; हमें उस क्षेत्र की बात करनी चाहिए, जो वहाँ है। और, इस बात पर विचार करना चाहिए कि हर समय की साहित्यिक
धारा अपनी संतृप्त अवस्था तक आते-आते स्थगन का रास्ता अपना लेती है, और उसके भीतर से ही कोई विरोधी शक्ति उत्पन्न
होती है, जो अपने पूर्व स्थापित
धारा से मुठभेड़ कर आगे बढ़ती है, और
अपने अबाध प्रवाह के लिए मार्ग प्रशस्त करती हुई, खुद को प्रतिष्ठित करती है। इस दिशा में समकालीन
आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक परस्थितियाँ भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
वैसे इस तथ्य को इस उक्ति से भी समझा जा सकता है कि ‘माधुर्य भक्ति और लौकिक शृंगार का अन्तर तर्क
और वाद-विवाद के द्वारा स्पष्ट नहीं किया जा सकता। तर्क के आधार पर बड़े-बड़े भक्त
कवि के माधुर्य भाव को मानसिक रुग्णता और दमित वासना का प्रकाशन कहकर निन्दित किया
जा सकता है। परन्तु कला में यदि उदात्तीकरण की स्थिति स्वीकार्य है, तो कृष्ण भक्ति काव्य उसका सर्वोत्तम उदाहरण
कहा जा सकता है। रीतिकालीन कवि भी सर्वदा लौकिक वासनात्मक प्रेरणा से ही काव्य
रचना में प्रवृत्त होते रहे हों, यह
भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। अनेक रीतिकालीन कवियों में प्रायः भक्ति-भावना
की प्रेरणा शक्ति झलक जाती है। और, उसकी
चित्तवृत्ति सांसरिकता से ऊपर उठती हुई जान पड़ने लगती है। और फिर रीतिकालीन काव्य
में कृष्ण-काव्य की धारा क्षीण भले ही पड़ गई हो, टूटी कदापि नहीं (हिन्दी साहित्यकोश, भाग-1/पृ.-208)।’
इस तरह कृष्ण काव्य की परम्परा, इतिहास का दीर्घ अन्तराल तय करती हुई, भक्तिकाल की विपुल धारा को बल देती हुई, रीतिकाल में अपना सूत्र कायम रखती हुई,
आधुनिक काल तक में बरकरार रही। रीतिकाल
के प्रसिद्ध आचार्य भिखारीदास ने तो यहाँ तक कहा कि ‘आगे के कवि यदि प्रसन्न होंगे, तो समझा जाएगा कि मैं भी कोई था, अन्यथा मुझे इसी में सन्तोष है कि मैंने
कविताई करने के बहाने राधा-कन्हाई का स्मरण तो कर लिया।’
सचमुच कृष्ण काव्य की लम्बी परम्परा आज भी गार्हस्थ जीवन को सहज, सरल, निश्छल, नैतिक, नैष्ठिक, और गरिमामय रखने में हमें सहयोग देती है। कर्मयोग का
तात्त्विक ज्ञान हमें इस काव्य की सम्पूर्ण धारा में मिल सकता है। ब्रह्मज्ञान,
आत्मा-परमात्मा मिलन, कार्य-कारण सिद्धान्त, लौकिक जीवन का रूप अपने विविध स्तरों से हमें जैसा
कृष्ण काव्य की परम्परा सिखलाती है, वैसा शायद ही कहीं और सम्भव हो। विचार तो इस पर लम्बा किया जा सकता है,
खासकर आज के जटिल परिवेश में भी उसकी
समझ विकसित करने और उसकी मूल्यवत्ता ढूँढने की कितनी आवश्यकता है, इस पर सोचने की आवश्यकता है? पर खैर...