हमारे समय की कविता और भारतीय समाज
अत्यन्त गौरवान्वित भाव से नई धारा रचना सम्मान स्वीकारते हुए इस समय मैं अपने परिवार, गाँव, समाज, राज्य, राष्ट्र के उन सभी वरिष्ठ, समवयस्क, कनिष्ठ, गुरु, मित्र, शत्रु, कुटुम्ब के प्रति उऋण-सा महसूस कर रहा हूँ; जिनके सत्प्रयासों ने मुझे इस योग्य बनाया। यह सम्मान वस्तुत: उन्हीं का सम्मान है। इस अवसर पर मैं नई धारा परिवार एवं निर्णायक समिति के सभी सदस्यों के प्रति आभार प्रकट करता हूँ कि उन सबने मेरे कार्य का संज्ञान लिया। यह सम्मान पाते ही मेरा जुड़ाव भारतीय साहित्य के तारकपुंज राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, आचार्य शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, उदयराज सिंह जैसे मनीषियों से होता है, जिनके कृतिकर्मों की प्रेरणा से नई धारा सम्पोषित हुई है; मेरे लिए वस्तुत: यह गौरव का क्षण है। प्रो. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जैसे विशिष्ट कवि-चिन्तक की अध्यक्षता में श्री नरेश सक्सेना, प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन एवं श्री राजकमल के साथ सम्मानित होने का भी अपना सुख है।
मानव
सभ्यता के पूरे दौर में कविता सामुदायिक जीवन-व्यवस्था का दिग्दर्शक बनी रही
है; उसकी दिग्दर्शक-भूमिका आज भी कायम है। शासकीय प्रबन्ध से टकराव और आम-जन
की मसीहाई सदैव से इसका मूल स्वभाव रहता आया है। आरम्भिक काल से यह सुभद्र
शासकों को उपदेशित और जन-विरोधी शासकों से मुठभेड़ करती रही है। जनशक्ति को विवेक,
नैतिकता एवं चेतना जाग्रत रखने की सलाह यह निरन्तर देती आई है; उसे भरपूर दुहाई
देती रही है। यह आश्वस्त करती रही है कि जाग्रत चेतना के विवेकशील प्राणी को
कोई पराभूत नहीं कर सकता, उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। सामुदायिक-जीवन के हित
में यह काम कवि-चिन्तक सुनियोजित पद्धति से करते आए हैं। हमें उन पद्धतियों
को जानने की तरकीब अपनानी होगी। सुधीजनों को स्मरण होगा कि ई.पू. सातवीं शताब्दी
की रचना श्रीमद्वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड के एक सौ उन्नीसवें
सर्ग के चौदहवें-पन्द्रहवें श्लोक में राम-रावण युद्ध की समाप्ति के बाद जब
सीता की अग्निपरीक्षा का समय आया तो कवि ने अपने धीरोदात्त नायक राम को भी नहीं
बख्शा; सीता से उन्हें फटकार लगवाई--त्वया तु नरशार्दूल क्रोधमेवानुवर्तता/लघुनेव
मनुष्येण स्त्रीत्वमेव पुरस्कृतम...। अर्थात्, हे नृपशार्दूल!
तुमने भी क्रोधवश ओछे मनुष्यों की तरह मुझे स्त्री शरीर मात्र समझा। मेरा समस्त
वृत्तान्त जानते हुए भी तुमने तनिक विचार नहीं किया कि मैं जनक की बेटी हूँ; तुमने
न तो पृथ्वी से मेरी उत्पत्ति की ओर ध्यान दिया,
न ही मेरे लोकोत्तर चरित्र का विचार
किया।
इस
उद्धरण से कवि राम की भर्त्स्ना नहीं कर रहे हैं; असल में वे अपने समकालीन
समुदाय को संकेत दे रहे हैं कि राम जैसे धीरोदात्त नायक भी अपना विवेक भूल जाएँ,
तो वे फटकार के भागी होते हैं। इसलिए हे मेरे समय के नायको! अपनी
नैतिकता और विवेक पर कायम रहा करो। लोग रामायण की रचना का कारण क्रौंच-वध
से उपजी करुणा मानते हैं; पर मनन करना उपयुक्त होगा कि क्रौंच-वध के कारुणिक
दृश्य में रामकथा का कोई संकेत नहीं था। आखिकार क्यों कवि वाल्मीकि को हजारो
वर्ष पूर्व की युद्ध-कथा की याद आई? वस्तुत: वह युद्ध अनैतिकता पर नैतिकता की
विजय के लिए हुआ था। निश्चय ही वाल्मीकि के समय की समाज-व्यवस्था में
अनैतिकता सिर चढ़कर बोलने लगी होगी। इसलिए उन्होंने रावण जैसे एक महान
पराक्रमी और शास्त्रज्ञ का रूपक लिया, जिसका सर्वनाश उसके अहंकार, अनीति और विवेकहीनता
के कारण हुआ। सारे सद्गुणों के बावजूद विवेकहीनता ने रावण को अपने समय के दुष्टाचार
का प्रतीक बना दिया। आज सारे शासक, उपदेशक प्रायोजित रावण-दहन के लिए आम नागरिक
को प्रेरित करते हैं, पर अपने अन्दर पल रहे रावण को पुष्ट किए जाते हैं।
हर
रचनाकार अपने नायक का पक्षधर होते हैं, पर उनका काव्य-विवेक अपने नायक को भी
अनीति में लिप्त होने की छूट नहीं देता। जैसे वाल्मीकि ने राम को छूट नहीं
दी। रावण जैसे अहंकारी राजा का सर्वनाश उनके हाथों बेशक कराया, पर विवेक की सतह पर
पाँव डगमगाते ही उन्हें आइना दिखा दिया। आज हम जिस सामुदायिक शक्ति में विश्वास
करते हैं, इसका संकेत भी उन्होंने राम-रावण युद्ध में दे दिया। नायक कितने भी
शक्तिशाली हों, किसी बड़े नैतिक मूल्य की लड़ाई के लिए सामुदायिक समर्थन
की अनिवार्यता इस काव्य में स्पष्ट दिखती है। काव्य का यह भव्य-दिव्य
आचरण सदैव से हमारे समाज का दिग्दर्शन करता आया है, सार्थक जीवन जीने के लिए
प्रेरित करता आया है। यह हर समय के मनुष्य को जीवन-मूल्य, वस्तु-मूल्य, नीति-मूल्य,
सम्बन्ध-मूल्य का अर्थ बताता रहा है। इन मूल्यों से परांग्मुख लोग सदैव
सार्थक-जीवन का पथ छोड़कर सफल-जीवन की ओर बढ़ जाते हैं। मूल्य-बोध से परिचित हर
व्यक्ति का हर आचरण समुदाय की चिन्ता करता है, जबकि सफल-जीवन की तरकीब
ढूँढनेवाले हर मनुष्य पग-पग पर आत्मकेन्द्रित होते हैं। आत्मकेन्द्रित
मनुष्य के कन्धे पर विवेकहीनता बैताल की तरह डटी रहती है। सृजनात्मकता के आरम्भिक
दिनों से ही हमारे कवि-चिन्तक हमें इन बातों से सावधान करते रहे हैं। चौदहवीं
शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जब राजा, सामन्त, न्यायविद्, संन्यासी, गृहस्थ...सब
के सब भोग-विलास और धूर्तता में लिप्त हो गए थे, तो कविशेखराचार्य ज्योतिरीश्वर
ठाकुर ने धूर्तसमागम लिखकर समाज को ऐसी ही चेतावनी दी थी।
आधुनिक
काल में आकर कवि-चिन्तकों के समक्ष सामुदायिक जीवन की विसंगतियाँ एवं
असुरक्षा इतनी बढ़ गई कि उन्हें बड़े-बड़े यत्न करने पड़े। परिस्थियों को
प्रभावी ढंग से उकेड़ने की भिन्न-भिन्न शैलियाँ अपनानी पड़ी। हिन्दी साहित्य
के आधुनिक काल की शुरुआत में तो भारतीय समुदाय गुलामी का जीवन जी रहा था; पराभव
तो तय था, परन्तु भारतीय नागरिक के जीवन से वह पराभव आजादी मिलने बाद भी मिटा
नहीं। लोकतन्त्र के स्वदेशी नियन्ता कहीं विदेशी शासकों से भी अधिक क्रूर हो
गए। नागार्जुन, मुक्तिबोध, राजकमल चौधरी, धूमिल जैसे कवियों ने स्वदेशी शासक
की जनविरोधी नीतियों को उजागर किया; कुँवरनारायण, केदारनाथ सिंह, चन्द्रकान्त
देवताले, वीरेन डंगवाल, विष्णु खरे, ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे कवियों ने इनके
पतनशील आचरण की बखिया उधेड़ी। राजेश जोशी, विनोद
कुमार शुक्ल, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, नरेश सक्सेना, मदन
कश्यप, देवी प्रसाद मिश्र जैसे कविगण इनकी खबर लेते रहे हैं; पर ये सुधरने का
नाम नहीं ले रहे।
मुक्तिबोध
ने तो अन्धेरे में 'उन्हें देख लिया नंगा' और सोचने लगे कि 'इसकी मुझे
और सजा मिलेगी'। उन्होंने इन्हें अतिशय धारदार नाखूनवाले शिकारी बिल्ली
के रूप में भी देखा--बिल्लियों के नाखून/और भी ज्यादा धारदार हो गए.../अजीब तरह
से हुआ खून/मूर्च्छित कर वश में किया गया/तुम भागो तिरवांकुर या डिब्रूगढ़ या
देहरादून/कहीं भी
जाओ... अर्थात् उनका शिकार होना तय था। संस्कृतिकर्मियों
के नारे चतुर्दिक गूँजते रहे; स्त्रियों
और श्रमजीवियों की स्थिति सुधारने का आश्वासन राजनीतिक पार्टियाँ देती रहीं; विधेयक
पास होते रहे; किन्तु
इनसान वहीं के
वहीं खड़े मिले। प्रतिबद्धताओं का नाटक चलता
रहा, सारे पाखण्ड देखकर आम जनता भौंचक होती रही। मजदूरों की भूखमरी से व्यथित
नागार्जुन 'पकी सुनहली फसलों से भरे खलिहानों में अपने रग-रग के शोणित की
बूँदें' तलाशते रहे... स्वाधीनता के लगभग अठारह बरस बाद राजकमल चौधरी ने आदमी
को इस लोकतन्त्री संसार से अलग हो जाने की सलाह दी, क्योंकि उन्हें 'मसानों
में/अधजली लाशें नोचकर/खाते रहना श्रेयस्कर' लगा जीवित पड़ोसियों को खा जाने
से...। अज्ञेय मिट्टी गोड़ते रहने, कोदई खाते रहने, गेहूँ खिलाते रहनेवाले दुर्जेय
मानव की कथा बनाते/बुनते रहे। केदारनाथ सिंह छोटी-सी किरन बनकर उसके झरोखे
से गिरने; और झोंके की तरह कँपा जाने की धमकी देते रहे। फिर भी जनता ने अरुण
कमल की आँखों से देखा कि--'सामने सड़क पर एक औरत की इज्जत जा रही है/और लोग
अपने अपने ओटों पर खड़े हैं चुपचाप.../बगल में एक आदमी का खून हो रहा है/और लोग
अपने अपने दरवाजे बन्द कर सुन रहे हैं चुपचाप.../पेड़ को पत्थर बनने में लगा है
हजार वर्ष/आदमी देखते-देखते पत्थर बन रहा है/ऐसा क्यों,
आखिर क्यों हो रहा है?'
ऐसा
इसलिए हो रहा है कि स्वाधीन भारत के बहत्तर वर्षों की अवधि में हमने भी कोई कम
परांग्मुखता नहीं दिखाई। भाग्य-विधाता बन बैठे स्वदेशी शासक हमारी अस्मिता
और राष्ट्रीय पहचान के साथ खेल करते गए, लोकतन्त्र के सम्मोहक मंच से करतब दिखाते
गए, हम मुग्ध होते गए, उनके हथकण्डे सफल होते रहे।
समकालीन कवियों ने हमें सचेत किया, पर हमने मुस्तैदी नहीं दिखाई। धूमिल
ने साफ चेतावनी दी कि--वे वकील हैं, वैज्ञानिक हैं/अध्यापक हैं,
नेता हैं, दार्शनिक हैं/लेखक हैं, कवि हैं, कलाकार हैं/यानी कि/कानून की भाषा
बोलता हुआ/अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है... उनका
स्पष्ट संकेत था कि--इस दुनिया में/भूखे आदमी का सबसे बड़ा
तर्क/रोटी है/मगर तुम्हारी भूख और भाषा में
/यदि सही दूरी नहीं है/तो तुम अपने-आप
को आदमी मत कहो/ क्योंकि पशुता/सिर्फ पूँछ होने की मजबूरी नहीं है...।
पर हम सावधान नहीं हुए। अब आते-आते हम ऐसे जनतान्त्रिक
वातावरण में आ गए कि लेनिन का कथन सार्थक लगता है कि 'जनतन्त्र एक राजसत्ता है जो
बहुमत के आगे अल्पमत की मातहती को मानती है यानी वह एक ऐसा संगठन है जो एक वर्ग
द्वारा दूसरे वर्ग के खिलाफ, आबादी के एक भाग द्वारा दूसरे भाग के खिलाफ व्यवस्थित
रूप से हिंसा का इस्तेमाल करता है (राजसत्ता और क्रान्ति,
पृ. 101)।'
धूमिल
के भूख और भाषा के इशारे को हम आज भी गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं। भाषा का अर्थ
केवल अभिव्यक्ति का साधन नहीं होता, अपने मूल स्वभाव में यह मनुष्य के चिन्तन
का आधार है, सोच-विचार की व्यवस्था है, जीवन-संग्राम का औजार है। मगर भूख, भाषा
को खा जाती है। सामुदायिक जीवन में भूख की खर-पतवार उगाकर, भाषा की फसल नष्ट किए
जाने की बहत्तर वर्षों की शासकीय पद्धति अब लगभग तन्दुरुस्त दिख रही है। भाषा
छिन जाने का अर्थ मनुष्य की जीभ कट जाना होता है। कटी जीभ का नागरिक सवाल नहीं
कर सकता, फरियाद भी नहीं। शासक को न तो प्राश्निक चाहिए, न फरियादी। उन्हें आदेशपाल
चाहिए। इसलिए हमारे देश की नई पीढ़ी को कुछ इस तरह प्रशिक्षित किया जा रहा है
कि वे भाषिक प्रयुक्तियों से दूर रहें। रूपक-प्रतीक, लक्षणा-व्यंजना उसे समझ न
आए। अलबत्ता आ भी नहीं रही है। लगभग साढ़े छह दशक पूर्व मुक्तिबोध ने पक्षी
और दीमक शीर्षक से एक कहानी लिखी थी। यह व्यवस्था हमारी युवा पीढ़ी को उस
कहानी का 'पक्षी' बनाने में लगी है। बारह-चौदह से लेकर सत्तर बरस तक की उम्र की
अधिकांश आबादी डेढ़ जी.बी. मुफ्त डाटा इन्ज्वाइ करने में तल्लीन है। ये सोशल
मीडिया पर किसी को आहत करते में तल्लीन हैं, किसी गुदगुदी वाले भ्रष्ट समाचार
को प्रसारित करने में, या फिर दरवाजे की सिटकिनी ठोककर किसी चिपकाऊ चलचित्र
में डूबे हैं। इस लीन-तल्लीन जाति के नागरिक वर्तमान राष्ट्र के लिए जोखिम
भरे विषय हैं। इसलिए नहीं कि वे ऐसे काम करते हैं, बल्कि इसलिए कि उनके
ऊर्जस्वित मस्तिष्क को किसी बेहतर काम के बारे में सोचने की फुरसत नहीं दी
जाती। उनकी राय में वे आनन्द ले रहे हैं, पर उन्हें इस वृत्ति में झोंकनेवाले आश्वस्त
हैं कि इनके सोच पर कब्जा हो गया। अब वक्त आने पर इन्हें जो कहा जाएगा, ये वही
करेंगे। इसलिए, समाज में सौम्य, सुभद्र एवं मानवीय व्यवस्था बहाल करने के लिए
इस लीन-तल्लीन नागरिक की वहाँ से वापसी अनिवार्य है। दाना-पानी-पवन-प्रकाश के
देवता बने शासक अब तक भूख-बेकारी-अन्धकार उपजाते थे, और युवा पीढ़ी को नतसिर
करवाते थे; अब वे इनके मस्तिष्क पर कब्जा करने में लग गए हैं। देश एक बार फिर
से गुलामी की राह चल पड़ा है। हमारे समय के कवि-समाज के समक्ष ऐसे तिकड़मी
शासकों द्वारा शासित जनता के समझौतों में सेंध लगाना चुनौतीपूर्ण है। पर तय है कि
कवि करेंगे। मानव-मूल्य के रक्षार्थ 'दबी
दूब' का प्रतीक बनी कविता सदैव पूरी शक्ति
से डटी रही है, इसलिए
आगे भी डटी रहेगी।