हिस्से
से अधिक पाने की ललक सभ्यता के शुरुआती दिनों से ही मनुष्य पर सवार रही है। इस
सहज-वृत्ति की परिपूर्ति में किसिम-किसिम के हथकण्डे लोग सदैव अपनाते आए हैं।
साहित्यिक बिरादरी में इसकी गुंजाइश साहित्येतिहास-लेखन के प्रारम्भिक दौर
में ही बन गई थी। मान्यतादाता महाजनों की कृपा-दृष्टि जिन पर हुई, वे इतिहास
में दर्ज हो गए, जो रह गए, वे रह गए। 'समय का देवता' होने की ललक में कुछ साहित्यिकों
ने प्रगतिशील आन्दोलन के बाद से ही खेमेबाजी शुरू कर दी। प्रयोगवाद से नई कविता
तक अथवा नई कहानी से समान्तर कहानी, सचेतन कहानी तक की घोषणा में इस वृत्ति की
तलाश की सकती है। इधर आकर तो कुछ हद ही हो गई। सारी नीति-निष्ठा ताख पर रखकर
लोग महान बनने की होड़ में जुट गए। कद बढ़ाने के चरम लक्ष्य में दूसरों के कन्धे
बैठना, ऊँचा दिखने के लिए दूसरों को लँगड़ी मारकर मुँह के बल गिराना, अपनी
महत्ता के प्रचार एवं औरों के दुष्प्रचार में लिप्त रहना, दिवंगत रचनाकारों का
कल्पित संस्मरण लिखकर खुद को महिमामण्डित करना वे अपने जीवन का महत्तम उद्देश्य
समझने लगे हैं। उन्हें न तो अपने कृतिकर्मों पर आस्था है, न इतिहास की न्यायप्रियता
का बोध। उन्हें नहीं मालूम कि कृतिकार स्वयं अपने लिए कीर्ति-स्तम्भ नहीं
बनाते। दानवीय क्षमता से ध्वज-स्तम्भ गाड़नेवाले अंग्रेजों की दशा देखकर भी उन्हें
होश नहीं होता, तो फिर उनकी इस छुद्र लिप्सा पर हतप्रभ होना भी जायज नहीं है। विगत
सौ-सवा सौ बरसों में लोगों ने हिस्से से अधिक पाने हेतु एक से एक तरकीबें अपनाई
हैं। इन तरकीबों में नए-नए प्रयोग हुए हैं। आत्म-स्थापन और आत्म-प्रचार की
धारणा से आक्रान्त इधर के बौद्धिक-जन जैसे-जैसे अमानुषिक आचरणों में लिप्त हुए,
वैसा कभी साम्राज्य-विस्तार के किसी आखेटकों ने भी बीते वर्षों में न किया होगा।
उनके आचरण से उनके लक्ष्य की उपादेयता सन्देहास्पद होने लगी है। बहरहाल, यहाँ
राष्ट्रभाषा हिन्दी में मैथिल रचनाकारों के अवदान की बात होनी है।
हम
भली-भाँति अवगत हैं कि सन् 1941-1959 तक के दौर के रूढ़ि-समर्थकों और आधुनिकतावादियों
के किंचित आक्षेप-प्रत्याक्षेप के अलावा ज्योतिरीश्वर-काल से राजकमल-काल तक के
मैथिली रचनाकारों की धारणा में कहीं कुछ कलुष जैसा नहीं दिखता, सारा कुछ पवित्र
ही दिखता है। सभी रचनाधर्मी मातृभाषा के उत्थान-उत्कर्ष में लिप्त-तृप्त दिखते
हैं। उनकी रचना-धारा में नैष्ठिक भाषा-प्रेम की धारणा प्रवहमान दिखती है। हर
पीढ़ी के रचनाकारों में अपने साहित्य को समकालीन और शाश्वत बनाने की भरपूर रचनात्मक
लिप्सा दिखती है। मैथिली साहित्य को समकालीन और उर्ध्वमुखी बनाने, विश्व-फलक
पर अपनी ऊर्जस्वित रचना-दृष्टि एवं राष्ट्रवादी धारणाओं का परिचय देने में सीताराम
झा, कांचीनाथ झा किरण, रामकृष्ण झा किसुन, वैद्यनाथ मिश्र यात्री, ललित,
राजकमल, मायानन्द, सोमदेव, हंसराज, प्रभास कुमार चौधरी, गंगेश गुंजन, मन्त्रेश्वर
झा, जीवकान्त, महाप्रकाश, सुकान्त सोम इत्यादि की एकनिष्ठ भावनाओं का संज्ञान
लिया जा सकता है। किन्तु बाद की समागत पीढ़ी में 'समय का देवता' बनने की हिन्दी
साहित्य वाली रणनीति इस तरह समाई कि वे अपने रचनात्मक सरोकार भूलकर खेमेबाजी
में लीन हो गए। पूर्ववर्ती पीढ़ियों की रूढ़िप्रियता और स्वार्थ-नीति की निन्दा
करते-करते स्वार्थ के कुएँ में खुद इस तरह डूबे कि आत्मवर्चस्व और निजगिरोह
की प्रशंसा के अलावा उन्हें और कुछ दिखता ही नहीं। अगली पीढ़ियाँ भी अपने इन पूर्ववर्तियों
के आचरण की नकल करती हुई उत्साहपूर्वक उद्दण्डता की ओर बढ़ चली। उनकी समग्र
ऊर्जा पूर्ववतियों की भर्त्स्ना में खपने लगी। इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत
में मैथिली को संविधान में स्वीकृति तो मिली, किन्तु नवागत पीढ़ी को बीसवीं
शताब्दी के अन्तिम चरण से ऐसी दिग्भ्रान्त प्रेरणा मिली कि उनका मूल
उद्देश्य बेहतर साहित्य पढ़ना और बेहतर लिखना नहीं रह गया; निजभाषा एवं साहित्य
की मूल-वृत्ति को उत्कर्ष की ओर ले जाने का कोई उत्साह उन्हें नहीं है। अध्यवसायविहीन
इन पीढ़यों के लोगों की आकांक्षा है कि वे जो कुछ कर रहे हैं, उसे महान कृत्य
माना जाए, उस पर कोई सवाल न हो। अब वे साहित्य के लिए नहीं; मान्यता, वर्चस्व,
प्रचार और पुरस्कार के लिए लिखते हैं। मैथिली में पुरस्कारों का वैसे भी नितान्त
अभाव है, लिहाजा छविभंग करने की हिंस्र वृत्ति अपनाना उनकी मजबूरी है। किन्तु
बात होनी है हिन्दी-लेखन में मैथिल रचनाकारों के अवदान की।
उल्लेख
हो चुका है कि श्रेय-हरण, सुनियोजित उपेक्षा और दूसरे के हिस्सों में दखल की
नीति हिन्दी साहित्येतिहास-लेखन में प्रारम्भिक दौर से लागू थी। छोटे
पैमाने पर उस नीति का शिकार मैथिली बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से ही होने लगी। महाकवि
विद्यापति के रास्ते मैथिली पर कब्जा करने का हिन्दी के साहित्येतिहासकारों
का वह प्रारम्भिक प्रयास था। उनसे दो-तीन दशक पूर्व महान राष्ट्रवादी मैथिल
रचनाकार कवीश्वर चन्दा झा सन् 1881 में ही विद्यापति रचित 'पुरुष परीक्षा'
के अपने मैथिली अनुवाद की भूमिका हिन्दी में लिखकर अपनी उदारता का परिचय दे
चुके थे।[1] उन्होंने
हिन्दी में मूल-लेखन भी पर्याप्त किया। हिन्दी के अनुसन्धानवेत्ता उस ओर
दृष्टि फिराएँ तो निश्चय ही चकित होंगे। सन् 1857 के गदर में भारतीय सेनानियों
की पराजय और सन् 1947 में मिली आजादी के नब्बे वर्षों के भारतीय साहित्यकारों
के रचनात्मक सन्धान पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है। भाषाई
वर्गीयता तो बाद के सत्तानुरागियों की सियासी चतुराई है! 'निजभाषा उन्नति
अहै सब उन्नति कौ मूल' का नारा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने यूँ ही नहीं
दे दिया था। उसके पीछे सोची-समझी नीति थी। प्रथम स्वाधीनता संग्राम (सन् 1857)
में भारतीय सेनानियों की पराजय से भारतीय बौद्धिकों ने दिव्य-ज्ञान हासिल किया
था। उन्हें अलग-अलग कारणों से उपजे विरोध-भाव में सांगठनिक दुर्बलता स्पष्ट
दिख गई थी। गौर करें कि 'निजभाषा' का अभिप्राय हिन्दी नहीं, मातृभाषा
है। हिन्दी किसी क्षेत्र की मातृभाषा नहीं है। मातृभाषा केवल अभिव्यक्ति का
माध्यम नहीं, जनपदीय संस्कृति का अनुरक्षण केन्द्र भी है। उसमें राष्ट्र की
क्षेत्रीय अस्मिता सुरक्षित होती है। सम्पूर्ण ध्वन्यार्थ समझकर ही हिन्दी
नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने वह नारा दिया होगा। इस दिशा
में अन्य भारतीय भाषाओं के रचनाकारों के योगदान पर भी शोध-दृष्टि डाली जा सकती
है, किन्तु परम राष्ट्रवादी मैथिल रचनाकार कवीश्वर चन्दा झा का अवदान स्पष्ट
है कि सन् 1881 में उन्होंने महाकवि विद्यापति की प्रसिद्ध कृति 'पुरुष
परीक्षा' का अनुवाद तो किया मैथिली में, किन्तु उसकी भूमिका लिखी हिन्दी
में। स्वाधीनता-संग्राम के दिनों में उस अनुवाद की महत्ता तो अलग से विवेच्य
है, पर मैथिली अनुवाद की पुस्तक की हिन्दी में लिखित वह भूमिका विशेष रूप
से उल्लेखनीय थी। फिर भी हिन्दी के साहित्येतिहासकारों ने मैथिल रचनाकार
की इन राष्ट्रीय भावनाओं की सुधि नहीं ली। स्वातन्त्र्योत्तरकालीन भारत में भी
मैथिली को अवहेलना का गहरा अवसाद झेलना पड़ा। स्वाधीनता-आन्दोलन के दौरान पूरे
देश का बौद्धिक समुदाय अपनी सारी वृत्तियाँ किनारे रखकर राष्ट्रीय भावना से गदर
में कूद पड़े थे। मिथिलांचल के बौद्धिकों ने भी उसमें बढ़-चढ़कर योगदान दिया। अपनी
समस्त क्षेत्रीय कामनाओं का परित्याग कर राष्ट्रभक्ति की भावनाओं से भरे
मैथिल बुद्धिजीवियों ने स्वाधीनता-संग्राम में अपना सुर मिलाया। कवीश्वर चन्दा
झा, छेदी झा द्विजवर, यदुनाथ झा यदुवर, सुरेन्द्र झा सुमन, आरसी प्रसाद सिंह,
वैद्यनाथ मिश्र यात्री, राजकमल चौधरी आदि के नाम इस दिशा में श्रद्धा से लिए
जाएँगे। यात्री और राजकमल के हिन्दी-लेखन का संज्ञान तो हिन्दीवालों को मजबूरीवश देर-सबेर लेना पड़ा; क्योंकि
इनके बिना उनकी आधुनिकता खतरे में पड़ जाती। समुचित नहीं, कम ही सही, पर आरसी
प्रसाद सिंह को भी कुछ-कुछ जानने की रस्मअदायगी लोगों ने की। पर, कवीश्वर चन्दा
झा, छेदी झा द्विजवर, यदुनाथ झा यदुवर, सुरेन्द्र झा सुमन, सुधांशु शेखर चौधरी, रामकृष्ण झा किसुन
जैसे रचनाकारों का बिपुल हिन्दी-लेखन आज तक आम-पाठकों, शोधवेत्ताओं और नामवर
आलोचकों की दृष्टि से ओझल ही है।
फणीश्वरनाथ
रेणु, वैद्यनाथ मिश्र यात्री (नागार्जुन), राजकमल चौधरी को भी उन्होंने मजबूरी
में ही स्वीकार किया। नहीं स्वीकारते तो बड़ी उपलब्धि की धारा में शामिल
होने से रह जाते। आरसी प्रसाद सिंह और मायानन्द मिश्र को तो सही ढंग से स्वीकारा
भी नहीं। सन् 1942 के आन्दोलन से लेकर आपातकाल, इन्दिरा गाँधी की हत्या, मन्दिर-मस्जिद
विवाद और राजीव गाँधी की हत्या तक की स्थितियों पर आरसी प्रसाद सिंह की राष्ट्रवादी
एवं मनवतावादी रचनाएँ उस पूरे दौर की अनूठी और दुर्लभ उपलब्धियाँ हैं। परम राष्ट्रवादी कवि, कथाकार और एकांकीकार
आरसी प्रसाद सिंह (सन् 1911-1996) को जीवन,
यौवन, रूप, रस और प्रेम के कवि के रूप में स्मरण
किया जाता है। चर्चित मैथिली कृति सूर्यमुखी के लिए उन्हें साहित्य अकादेमी सम्मान से सम्मानित किया
गया। मैथिली में प्रकाशित उनकी
अन्य कृतियाँ-- माटिक दीप, पूजाक फूल, मेघदूत आदि हैं। मातृभाषा मैथिली
के साथ-साथ उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी के साहित्य का
कोश प्रचुरता से सम्पन्न
किया। 'युवक' (सम्पा. रामवृक्ष बेनीपुरी) में प्रकाशित उनकी रचनाएँ उनकी राजनीतिक जागरूकता एवं निर्भीकता के प्रमाण हैं। उन रचनाओं में प्रयुक्त क्रान्तिकारी शब्दों के कारण
ब्रिटिश हुकूमत ने उनके विरुद्ध गिरफ्तारी का वारण्ट भी जारी किया था। हिन्दी में
प्रकाशित उनकी कविताओं, कहानियों, कथाकाव्यों, गीतों, बाल-कविताओं की लगभग तीन दर्जन प्रकाशित
पुस्तकों के अतिरिक्त
मैथिली, हिन्दी मिलाकर डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकों की पाण्डुलिपि अभी भी
अप्रकाशित हैं। राष्ट्रभक्ति और मानवीयता उनकी रचनाधर्मिता का मूल स्वर था।
जीवन और यौवन के प्रति उनके उल्लासमय स्वर इसी राष्ट्रभक्ति और मानवीयता को
सम्पुष्ट करते थे। आकाशवाणी से प्रसारित उनके राष्ट्रभक्ति-गीत दशकों तक भारत के किशोरों एवं
युवाओं को सम्मोहित करते रहे हैं।
लोकजीवन
की जीवन्तता प्रस्तुत करता मायानन्द मिश्र (1934-2013) रचित उपन्यास माटी
के लोग सोने की नैया जब सन् 1967 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ तो पूरे
देश के सामान्य पाठकों ने उन्हें सिर-आँखों पर बिठाया। उपन्यास के विषय-प्रबन्ध,
शिल्प-संरचना एवं भाषा-व्यवहार में लोगों को फणीश्वरनाथ रेणु की लोकोन्मुख
रचनाशीलता के सूत्र दिखने लगे थे। भारतीय स्वाधीनता के दो दशक बाद भी बिहार की
शोकनदी के ताण्डव और मैथिल जनजीवन की विडम्बनाओं के चित्र जिस चमत्कार से
उस उपन्यास में व्यक्त हुए, उसकी बराबरी उस दौर के प्रखर उपन्यासकार फणीश्वरनाथ
रेणु के सिवा अन्य किसी से नहीं हो सकती थी। गौरतलब है कि उस दौर के दो महान
हिन्दीसेवी राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर और फणीश्वरनाथ रेणु स्वयं मैथिल
रचनाकार थे। यद्यपि रेणु की रचनाएँ मैथिली में गिनती के ही हैं। दिनकर की तो
वह भी नहीं है। वे दोनों सदैव हिन्दी-सेवा में ही तल्लीन रहे। पर मायानन्द की
केन्द्रीय रचनाशीलता एवं क्रियाशीलता मैथिली के लिए प्रतिबद्ध थी। माटी के
लोग सोने की नैया के प्रकाशन के बाद पाठकों को उनकी अगली रचना की आतुर
प्रतीक्षा होने लगी थी। किन्तु वे तो मूलत: मैथिली के सिपाही थे, मैथिली-लेखन
एवं मैथिली-आन्दोलन में ही सदैव तल्लीन रहे। गम्भीरतापूर्वक मैथिली में लिखते
रहे। अचानक से उनकी क्रियाशीलता बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में फिर जाग्रत
हुई। और, एक के बाद एक उनके चार ऐतिहासिक उपन्यास-- प्रथमं शैलपुत्री च
(1990), मन्त्रपुत्र (1990), पुरोहित (1999) और स्त्रीधन (2007)
प्रकाशित हुए। यद्यपि इनका लेखन करीब-करीब साथ-साथ ही सम्पन्न हुआ था। ये कृतियाँ
हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यास साहित्य को अभूतपूर्व देन हैं। साहित्य और
इतिहास का भेद समाप्त करती ये चारो कृतियाँ आज तक के ऐतिहासिक उपन्यास-लेखन
के लिए मानदण्ड उपस्थित करती हैं। तथ्यात्मकता के प्रति उपन्यासकार के
आग्रह और रचनात्मक कौशल की विलक्षणता के कारण बड़ी स्पष्टता से कहा जाता है कि
इतना हृद्य और इतना प्रामाणिक शायद ही कोई ऐतिहासिक उपन्यास हो। गौरतलब है कि
मन्त्रपुत्र के मैथिली संस्करण का प्रकाशन सन् 1986 में हुआ, जिसे बाद
में साहित्य अकादेमी सम्मान भी मिला। किन्तु मायानन्द मिश्र या आरसी
प्रसाद सिंह पर किसी हिन्दी समालोचक की दृष्टि नहीं गई।
भारतीय
समाज-व्यवस्था, मानव-जीवन की दार्शनिकता तथा व्यंग्य की प्रहारक-क्षमता को
एकमेक करते हुए हरिमोहन झा (सन् 1908-1984) ने 'खट्टर काका' के माध्यम से जिस तरह व्यंग्य की
शैली को नवजीवन दिया वह समकालीन व्यंग्य-चिन्तन का प्रशिक्षण-शिविर है।
वैसी समृद्ध व्यंग्य-दृष्टि अन्यत्र दुर्लभ है। हरिमोहन झा मैथिली के ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने
दर्शन जैसे गूढ़ विषय को वार्तालाप शैली में ढालकर उसे सहज बना दिया। मिथिला
की दार्शनिक परम्परा के महान चिन्तक, संस्कृत एवं अंग्रेजी के विशिष्ट विद्वान
होने के बावजूद उन्होंने अपनी रचनात्मकता का केन्द्रीय क्षेत्र मैथिली को
बनाया। मैथिली भाषा एवं साहित्य में उनका अवदान तो जगजाहिर है
ही; हिन्दी व्यंग्य और
कथाधारा में भी उनका अमूल्य अवदान है। उनका व्यंग्य-विधान गहन शोध का विषय है। नई कहानी आन्दोलन के दौर
की हिन्दी पत्रिकाओं से उनकी रचनाओं को संकलित कर अध्ययन किए जाने की बड़ी
जरूरत है। इसी तरह नई कहानी आन्दोलन की ढलान-वेला में हिन्दी
पत्रिकाओं में राजमोहन झा, प्रभास कुमार चौधरी और गंगेश गुंजन की जितनी धारदार
कहानियाँ छपीं, वे निश्चय ही उस दौर के हिन्दी कहानीकारों के लिए प्रतिस्पर्द्धा
के प्रसंग थे। किन्तु दुर्योगवश किसी आलोचक ने उन रचनाओं का संज्ञान नहीं लिया।
कीर्तिनारायण मिश्र एवं शेफालिका वर्मा की कविताएँ और मार्कण्डेय प्रवासी, शान्ति सुमन
एवं बुद्धिनाथ मिश्र के नवगीतों से हिन्दी नवगीत विधा का कोश निरन्तर पुष्ट-परिपुष्ट
हुआ है। हिन्दी के अप्रतिम नाटककार रामेश्वर प्रेम एवं विशिष्ट उपन्यासकार/रिपोर्ताज
लेखक शालिग्राम ने यद्यपि मैथिली में कुछ नहीं लिखा, किन्तु उनकी मातृभाषा
मैथिली है। परंच कीर्तिनारायण, गंगेश गुंजन, शेफालिका, शान्ति सुमन, बुद्धिनाथ, ज्योतिवर्द्धन, उषाकिरण खान, नरेन्द्र,
अग्निपुष्प, हरेकृष्ण झा, विभा रानी, देवशंकर नवीन, कृष्णमोहन झा, तारानन्द वियोगी, शिवेन्द्र
दास, ओमप्रकाश भारती, किशोर केशव, अविनाश, संजय कुन्दन, अरविन्द ठाकुर,
श्रीधरम, अजित
आजाद,
रमण कुमार सिंह, अरुणाभ सौरभ, मनीष अरविन्द, गौरीनाथ आदि की पहचान प्रथमत: मैथिली
के रचनाकारों के रूप में ही है, और वे निरन्तर निर्विकार भाव से हिन्दी में भी
लिख रहे हैं। भाषिक-सांस्कृतिक जागृति, साहित्यिक समालोचना एवं अनुवाद-पद्धति
से सम्बद्ध प्रसंगों पर महान चिन्तक, समालोचक म. म. उमेश मिश्र, रमानाथ झा, जयकान्त मिश्र; प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक सुभद्र झा;
मैथिली के विशिष्ट कवि-नाटककार एवं भाषाविद् उदयनारायण सिंह नचिकेता का विपुल
लेखन मातृभाषा के अलावा हिन्दी एवं अंग्रेजी में भी उपलब्ध है। किन्तु वे सब
के सब नेपथ्य में पड़े हैं। दिल्ली के नौजवान मैथिल रंगकर्मियों द्वारा
संचालित 'मैलोरंग' ऐसी पहली और अकेली मैथिली नाट्य-संस्था है, जिसे भारत सरकार
की रेपटरी का दर्जा प्राप्त है। यह संस्था मैथिली रंगकर्म को एकनिष्ठता से
समर्पित है। किन्तु मौका पाकर यह अपने ही किए मैथिली नाटकों का हिन्दी
रूपान्तरण अथवा कुछ खास-खास हिन्दी नाटकों का मंचन करती रहती है। हिन्दी,
अंग्रेजी की पत्रकारिता में मैथिलीभाषियों के अवदान की ओर जाने पर बात बहुत आगे
निकल जाएगी, वह प्रसंग कभी और। अभी इतना संकेत पर्याप्त होगा कि राष्ट्र-हित
में मैथिली रचनाकारों के इन रचनात्मक अवदानों एवं उदारताओं का सम्मान करने के बजाय
मैथिली को हिन्दी की बोली प्रमाणित करनेवालों की तादाद लगातार बढ़ती गई और वे अन्तत:
लट्ठ लिए खड़े हो गए।
इन
सबकी पृष्ठभूमि जानने और तिकड़म की गुत्थियाँ सुलझाने हेतु फिर वापस शुरुआती
प्रसंग पर चलना होगा। उल्लेख हो चुका है कि स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान मैथिली
रचनाकार अपना समस्त क्षेत्रीय अनुराग त्यागकर हिन्दी के समर्थन में उतर आए थे।
सर्वसुलभ उदाहरण तो चन्दा झा ही हैं। उनकी भाषिक उदारता देखकर हिन्दी आलोचकों
के मन:क्षेत्र में दखल (इन्क्रोचमेण्ट) का फितूर बीसवीं शताब्दी के शुरुआती
दौर से ही सवार हो गया। हिन्दी के भग्यविधाताओं ने साहित्येतिहास-लेखन में सर्वप्रथम
विद्यापति पर कब्जा किया; गाहे-बगाहे ज्योतिरीश्वर को भी अपने खाते में
दर्ज करते गए। और, क्रमश: मैथिली को हिन्दी की बोली साबित करने लगे। विद्यापति
पर कब्जा करना तो उनकी मजबूरी थी, क्योंकि उत्तर भारतीय जनभाषाओं की रचनाशीलता
में प्रामाणिक वीरगाथा और कृष्ण-काव्य परम्परा की प्राचीनता साबित करने हेतु उन्हें
महाकवि विद्यापति से बड़ा उदाहरण अन्य कोई नहीं मिलता। किन्तु कब्जा कर लेने
के बाद विद्यापति उन्हें सँभाले न सँभलें। वे असमंजस में थे कि इन्हें सम्मान
दिया भी जाए या नहीं; तनिक दे भी दिया जाए तो वीरगाथा लिखने के कारण वे उन्हें
आदिकाल में रखें या गीतिकाव्य, भक्ति-काव्य (शैव्य, शाक्त, वैष्णव, स्मार्त्त),
शृंगारिक-काव्य के लिए कोई नई व्यवस्था करें। नितान्त प्रेमाश्रित काव्य कीर्तिपताका
को भी उन्होंने वीरगाथा में शामिल कर लिया। जिन बारह कृतियों की प्रवृत्ति
देखकर आदिकाल का नामकरण वीरगाथा-काल किया, उस सूची की सबसे विवादास्पद और
अप्रमाणिक कृति पर ग्रन्थ के ग्रन्थ लिख मारे, किन्तु उस सूची की सर्वाधिक
प्रमाणिक कृति कीर्तिलता और कीर्तिपताका के रचनाकार महाकवि विद्यापति
को दो अवतरणों में निपटा लिया। विदित है कि महाकवि विद्यापति (सन् 1350-1439) की साहित्य-साधना
और सामाजिक सरोकार के उत्कर्ष से आज पूरा भारत गौरवान्वित है। वे
महान जनवादी और मानवीय सोच के रचनाकार थे। वर्चस्व-लोलुप शासकों की
आक्रमणकारी हरकतों से उनके समय का भारतीय नागरिक-जीवन ह्रस्त-त्रस्त था। साम्राज्य-विस्तार के आक्रामक अहंकार में फिरोजशाह
तुगलक अपने सैनिकों के साथ दिल्ली से बंगाल पर चढ़ाई करने मिथिला के रास्ते ही
जाते थे। युद्धोन्माद में जाते हुए और पराजय के अवसाद में लौटते हुए वे सैनिक जिस
तरह मैथिल-समाज को तबाह करते थे, उसकी कल्पना तक त्रासद थी। पूरा नागरिक परिदृश्य
जीवन से निराश हो गया था। शृंखलाबद्ध आक्रमणों से तहस-नहस हुई
उस भारतीय जीवन-व्यवस्था में,
जीवन से हताश उस दौर के जनसमूह में उन दिनों महाकवि विद्यापति ने ही अपनी
शृंगारिक रचनाओं द्वारा जीवन के प्रति आसक्ति जगाई, उनमें सकारात्मक ऊर्जा आई। नीति एवं आचारपरक
रचनाओं
से जन-मन में बोध और सदाचार
का भाव भरा। अकादेमिक दुनिया
में कीर्तिलता बेशक चर्चित कृति हो, पर तथ्यत: विद्यापति की लोकप्रियता
का मूल आधार उनकी कोमलकान्त पदावली ही है। भारतीय साहित्य की शृंगार
एवं भक्ति परम्परा
के वे प्रमुख स्तम्भ थे। ऐसे विद्यापति पर कब्जा जमाने की इच्छा तो हर किसी को
होगी।
आगे
चलकर हिन्दी-उर्दू के संघर्ष के दिनों में वाराणसी के संस्कृत विद्वानों ने एवं
मिथिलांचल के बौद्धिकों ने हिन्दी का समर्थन किया। राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता
के समर्थन में मैथिलों ने अपनी लिपि 'मिथिलाक्षर' त्यागकर देवनागरी में मैथिली
लिखना स्वीकार कर लिया।[2] उल्लेखनीय
है कि ब्राह्मी-लिपि से विकसित 'मिथिलाक्षर' लिपि को गुप्तकाल में 'तिरहुता'
कहा जाता था। ऐसा सम्भवत: उस दौर में विकसित तिरहुत प्रान्त के कारण हुआ। बौद्ध-ग्रन्थ
'ललित विस्तर' में इसे 'वैदेही' लिपि कहा गया।[3]
वही 'मिथिलाक्षर' मैथिली की अपनी लिपि है। राष्ट्र-हित में अपनी इस प्राचीन
लिपि को छोड़कर देवनागरी अपनाने की मैथिलों की इस उदारता ने हिन्दीवालों की दखल-नीति
को फिर से उत्साहित किया और वे तुमुल कोलाहल से मैथिली को हिन्दी की बोली
मानने लगे। राष्ट्रीय एकता के अनुरागी मैथिल विद्वानों की उदारता को इस तरह
कमजोरी मान लेना बौद्धिक समाज का दुखद आचरण था। समान लिपि में लिखे होने के
कारण ऐसा भ्रम उचित नहीं था। मैथिली, हिन्दी की बोली किसी हाल मे नहीं हो
सकती। दोनों का विकास भिन्न-भिन्न भाषा-स्रोत से हुआ है। सुनीति कुमार
चटर्जी जैसे निविष्ट भाषावैज्ञानिक ने अरसा पहले स्पष्ट कर दिया था कि
मैथिली का विकास मागधी प्राकृत-अपभ्रंश से हुआ है, जबकि हिन्दी का विकास
शौरसेनी प्राकृत से।[4] वे इस तथ्य की ओर जाना ही नहीं चाहते कि सन् 1801
में एच. टी. कोलब्रुक ने मिथिला भाषा के लिए 'मैथिली' शब्द का प्रयोग किया।
सुधी-जन लक्ष्य करेंगे कि तब तक खड़ीबोली हिन्दी के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
का अवतरण नहीं हुआ था। सन् 1881 में ग्रियर्सन ने मैथिली क्रिस्टोमेथी की रचना
की। सन् 1882 में उन्होंने मैथिली व्याकरण पर काम किया। सन् 1886 में कवीश्वर
चन्दा झा ने मिथिला भाषा रामायण की रचना पूरी की। सन् 1887 में फारसी की
जगह राजभाषा के रूप में भारतीय भाषाओं के उपयोग को मान्यता मिली[5],
जिससे भारतीय मानस में निजभाषा एवं संस्कृति के प्रति गौरव-बोध बढ़ा। सन्
1911 में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने (सन् 1851-1941) अपने 'लिंग्विस्टिक
सर्वे ऑफ इण्डिया' में मैथिलीभाषियों की संख्या डेढ़ करोड़ मानी[6],
जो आज चार करोड़ हो गई है। इन समस्त साक्ष्यों से नजरें फेरकर वे बलजोरी करते
जाएँ तो यह उनकी मर्जी है, वे करते रहें। उल्लेखनीय है कि ‘लिंग्विस्टिक
सर्वे ऑफ इण्डिया’ का महान कार्य ग्रियर्सन महोदय ने सन् 1898 में शुरू किया था, जो
सन् 1928 में पूरा हुआ, मैथिली के सन्दर्भ में सन् 1911 में ही वे नतीजे पर पहुँच चुके
थे।
असल
में हिन्दीवालों द्वारा मैथिली-हिन्दी विवाद का यह झमेला सन् 1914 में
कलकत्ता विश्वविद्यालय में विद्यापति चेयर और मैथिली विभाग की स्थापना के
साथ तीव्रतर हुआ था। उस विरोध की निरन्तरता का परिणाम हुआ कि सन् 1917 में बिहार
में स्थापित पटना विश्वविद्यालय में मैथिली के अध्ययन-अध्यापन की स्वीकृति
नहीं दी गई। सन् 1948 में आकर पटना विश्वविद्यालय में मैथिली को मान्यता मिली।[7]
किन्तु मैथिल-जन कभी अपनी उदारता से नहीं डिगे। राष्ट्रीय एकता के मसले पर
सारे द्वन्द्वों का त्याग उनका सहज स्वभाव था और है। इतिहास साक्षी है कि
द्रविड़ लिंगदेव और वैदिक रुद्र के समन्वयन के पश्चात् जब शिव-कल्पना अस्तित्व
में आई तो सर्वप्रथम शतरुद्रीय प्रकरण में उनका सम्बन्ध हिमालयराज की कन्या
पार्वती से कराकर उत्तर-दक्षिण को भावनात्मक स्तर पर जोड़ने का प्रयास करने
वाले शुक्ल यजुर्वेद के प्रवक्ता याज्ञवल्क्य मैथिल ही थे।[8]
चिन्तनीय
किन्तु सच है कि इन षड्यन्त्रों से मैथिली की जान कभी छूटी नहीं। आगे चलकर जब
भाषावार राज्य के गठन की बात आई, तो 'मगध-मिथिला' नामकरण का प्रस्ताव निरस्तकर
'बिहार' नाम रखा गया[9],
ताकि भाषा का कोई व्यवधान न आए। स्पष्टत: मैथिली कहीं की भाषा नहीं मानी गई। फिर
मैथिलों की सक्रियता को अशक्य बनाने हेतु बिहार सरकार ने नीतिगत तरीके से 'अंगिका
भाषा और साहित्य' तथा 'बज्जिका भाषा और साहित्य' शीर्षक पुस्तक
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् से प्रकाशित करवाई। और, उस दौर के दो महत्त्वपूर्ण
विद्वान माहेश्वरी सिंह महेश को अंगिका के लिए तथा रामवृक्ष बेनीपुरी को बज्जिका
के लिए मोहरा बनाया।[10]
मैथिली के लिए बिहार सरकार का इस तरह तंगदिल होना हैरतअंगेज है। यह किसी विडम्बना
से कम नहीं कि जिन्हें 'छिकाछिकी' और 'पश्चिमी मैथिली' के नाम से ग्रियर्सन
जैसे विद्वान ने सन् 1911 में मैथिली की उपभाषा का दर्जा दिया; और प्रसिद्ध
भाषाविद् सुनीति कुमार चटर्जी ने भी उनका समर्थन किया; बिहार सरकार उन्हें
भाषा कहकर, किताब छपवाकर, मैथिली की कमर तोड़ने को उद्यत हो उठी। वैसे बिहार
सरकार का वह कोई इकलौता खेल नहीं था। ग्रियर्सन के 'लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ
इण्डिया' में जिन मैथिलीभाषियों की संख्या सन् 1911 में डेढ़ करोड़ थी[11],
बिहार की जनगणना रिपोर्ट में सन् 1951 में वह नब्बे हजार हो गई और सन् 1961 में
साठ लाख। इसके दोषी दो थे-- पहले तो रोजमर्रे के कामों में व्यस्त, छल-छद्मों से
बेफिक्र सामान्य नागरिक, जिन्होंने कभी गणना-कर्मचारी से पूछा नहीं कि उनकी मातृभाषा
क्या लिखी गई? दूसरे जनगणना-अधिकारी, जो मुर्गी, कबूतर, बकरी, भैंस की संख्या से
भी ज्यादा गैरजरूरी मातृभाषा पूछना समझते थे। इस एक आलस्य के कारण उन्हें गणना-प्रपत्र
भरने में तो सुविधा हो जाती थी, पर वे अन्दाज नहीं लगा पाते थे कि इस आलस्य से
वे भाषा और संस्कृति के खाते में कैसा जघन्य अपराध कर रहे हैं। इस हास्यास्पद स्थिति पर कोई कितना हँसे! बाद
के दिनों में फिर रामविलास शर्मा ने जयकान्त मिश्र लिखित 'ए हिस्ट्री
ऑफ मैथिली लिट्रेचर' में उद्धृत कुछ प्रसंगों का उदाहरण देकर लेख लिखा और कहा
कि ये सारे कथन तो सर्वजन बोधगम्य हैं, फिर मैथिली अलग भाषा कैसे हुई? उनके उस
जिज्ञासा का सर्वविधि समाधान बाबा यात्री ने आर्यावर्त में छपे अपने लेख
में कर दिया। पर हिन्दीवाले समय-समय पर उस घाव को खोद-खोदकर हरा करते रहे। निरन्तर
ढेकी कूटते रहे, रसनचौकी बजाते रहे। रामविलास जी का वह लेख बार-बार छपता गया, जिसका
कभी किसी ने कोई प्रतिकार नहीं किया। दीर्घ-काल से जारी उनका यह प्रयास आज भी
कायम है। उल्लेखनीय है कि अवांछित दखल की उनकी यह नीति साम्राज्य-विस्तार
तक सीमित है, उनके मन में मैथिली भाषा एवं साहित्य के लिए कोई सम्मान-भाव
नहीं है।
मैथिली
रचनाकारों की जिस उदारता का उल्लेख यहाँ हुआ है, वह कोई नई बात भी नहीं है। यह
मिथिला की प्राचीन परिपाटी है। ज्ञान-विज्ञान से मिथिला और मैथिल का पुराना नाता रहा है। मानवता के विकास हेतु बौद्धिकों
के बीच तर्क-वितर्क यहाँ दीर्घकाल से होता रहा है। कर्म, ज्ञान और भक्ति विषयक विचार-विमर्श यहाँ सर्वदा होता रहा है। राष्ट्रोत्थान
एवं मानवीयता की रक्षा हेतु वे समस्त संकीर्णताओं का परित्याग कर विचार-विमर्श
करते थे। अष्टावक्र गीता के
रचयिता महान
तत्त्ववेता अष्टावक्र राजा जनक के समकालीन थे। पुराण वर्णित कथानुसार उन्हें
मातृ-गर्भ में ही उन्हें सम्पूर्ण वेद-बोध हो गया था। मातृ-गर्भ से ही उन्होंने
एक दिन अशुद्ध वेद-पाठ करते हुए अपने पिता का खण्डन किया तो पिता क्रुद्ध हो उठे और आठ बार व्यवधान उत्पन्न
करने के अपराध में उन्हें आठ अंगों से वक्र होने का शाप दिया। कहा
जाता है कि वे जन्म से ही आठो अंग से वक्र थे, इसीलिए उनका नाम अष्टावक्र पड़ा। अपने ज्ञान-बल से उन्होंने राजा जनक के दरबार में आयोजित शास्त्रार्थ
में न केवल उपस्थित पण्डितों को चकित कर दिया बल्कि बालपन में जनक को भी उनकी यज्ञशाला में पहुँचकर अपनी तर्कबुद्धि और ज्ञान-कौशल से चमत्कृत कर दिया।
अन्तत: शास्त्रार्थ में सभी पण्डितों ने उनकी श्रेष्ठता स्वीकारी।
शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा के
द्रष्टा, नेति नेति के प्रवर्तक, मिथिला नरेश जनक के दरबार में हुए
शास्त्रार्थ के पूज्यास्पद दार्शनिक
याज्ञवल्क्य (ई.पू.
सातवीं सदी) मिथिला के ऐसे तत्त्वद्रष्टा हैं, जिनसे पूर्व शास्त्रार्थ और
दर्शन की
परम्परा में किसी ऋषि का नाम नहीं लिया जाता। वे अपने समय के सर्वोपरि
वैदिक ज्ञाता थे। शतपथ ब्राह्मण की रचना उन्होंने ही की। उपनिषद काल की परम विदुषी, वेदज्ञ और ब्रह्माज्ञानी महिला गर्गवंशोद्भव गार्गी, ऋषि याज्ञवल्क्य की
समकालीन थीं। मिथिला नरेश जनक के दरबार में आयोजित शास्त्रार्थ में उन्होंने ऋषि
याज्ञवल्क्य से प्रश्न किया था। उल्लेखनीय है कि गार्गी द्वारा शालीन और संयमित
पद्धति से पूछे गए ब्रह्मविषयक प्रश्नों के कारण ही बृहदारण्यक उपनिषद रचा गया। कहते हैं कि
परम तत्त्वज्ञानी याज्ञवल्क्य से प्रश्न करते हुए वे कभी पल भर के लिए भी उत्तेजित, विचलित
या भयभीत नहीं हुईं। वैदिक काल की परम विदुषी, ब्रह्मवादिनी स्त्री मैत्रेयी, मित्र ऋषि की पुत्री और
महर्षि याज्ञवल्क्य की दूसरी पत्नी थीं।
बृहदारण्यक उपनिषद में हुए उल्लेख के अनुसार महर्षि याज्ञवल्क्य उनसे अनेक आध्यात्मिक
विषयों पर गहन
चर्चा करते थे। सम्भवत: इस कारण उन्हें पति का स्नेह अपेक्षाकृत अधिक मिलता
था। फलस्वरूप बड़ी सौत कात्यायनी उनसे बड़ी ईर्ष्या करती थीं। चर्चा है कि
संन्यास लेने से पूर्व जब महर्षि याज्ञवल्क्य ने समस्त भौतिक सम्पदा दोनो पत्नियों
में बाँटने की बात की तो मैत्रेयी ने अपने हिस्से की सम्पति कात्यायनी को दे
देने का आग्रह किया और अपने लिए आत्मज्ञान का उत्कृष्ट अवदान
माँगा। विदित है कि छहो भारतीय दर्शन--सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त; के प्रणेता ऋषि क्रमश:
कपिल,
पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनि और बादरायण थे। इनमें से सांख्य,
न्याय, मीमांसा और वैशेषिक -- चार
धाराओं के विकास का गहन सम्बन्ध मिथिला से ही है।
सांख्य दर्शन के
प्रवर्तक, तत्त्व-ज्ञान के उपदेशक कपिल मुनि मिथिला के थे। वे निरीश्वरवादी थे।
उन्होंने कर्मकाण्ड के बजाय ज्ञानकाण्ड को महत्त्व दिया और ध्यान एवं तपस्या का
मार्ग प्रशस्त किया। तत्त्व समाससूत्र एवं सांख्य प्रवचनसूत्र
उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।
प्रमाण आधारित
अर्थ-परीक्षण को न्याय कहा जाता है। दर्शन की इस धारा के प्रवर्तक गौतम को वेद में
मन्त्र-द्रष्टा ऋषि माना गया है। उनके मिथिलावासी होने का संकेत स्कन्द पुराण
में भी है। महर्षि गौतम के न्यायसूत्रों पर महर्षि वात्स्यायन ने भाष्य लिखा, और उस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा। आगे 'न्यायवार्तिक तात्पर्य
टीका' शीर्षक
से उस वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने लिखी। फिर 'तात्पर्य-परिशुद्धि' शीर्षक से उस टीका की टीका उदयनाचार्य ने लिखी। ये सभी आचार्य मिथिला के
थे। वाचस्पति मिश्र (सन्
900-980) तो अन्हराठाढी (मधुबनी) के थे। तत्त्वबिन्दु शीर्षक मूल ग्रन्थ
की रचना के अलावा उनकी लिखी कई टीकाएँ हैं, जिनमें प्रमुख हैं— न्यायकणिका एवं तत्त्वसमीक्षा (मण्डन मिश्र रचित ग्रन्थ विधिविवेक
एवं ब्रह्मसिद्धि की टीका) तथा भामती (ब्रह्मसूत्र
की टीका)। नव्य-न्याय दर्शन पर उन्होंने ही आरम्भिक कार्य किया, जिसे मिथिला के गंगेश उपाध्याय (तेरहवी शताब्दी) ने
आगे बढ़ाया। वाचस्पति मिश्र द्वितीय (सन् 1410-1490) भी मिथिला (समौल, मधुबनी)
के ही माने जाते हैं। सम्भवत: वे राजा भैरव सिंह के समकालीन थे। उनके
लिखे कुल
इकतालिस ग्रन्थों की सूचना है; दस दर्शनपरक, इकत्तीस स्मृतिपरक।
न्याय-वैशेषिक दर्शन के मूर्द्धन्य आचार्य और
प्राचीन न्याय-परम्परा के अन्तिम प्रौढ़ नैयायिक उदयनाचार्य (दसवी शताब्दी का अधोकाल) मिथिला के करियौन गाँव
के थे। आस्तिकता के समर्थन में रचित उनकी पाण्डित्यपूर्ण कृति न्यायकुसुमांजलि एक विशिष्ट ग्रन्थ है।
मीमांसासूत्र जैसे विशिष्ट
ग्रन्थ के रचयिता कुमारिल भट्ट मिथिला के ही थे। वे महान दार्शनिक थे। प्रकाण्ड अद्वैत चिन्तक मण्डन मिश्र (सन्
615-695) ने उन्हीं के सान्निध्य में मीमांसा दर्शन का अध्ययन किया।
माधवाचार्य रचित कल्पित कृति शंकरदिग्विजय के सहारे एक भ्रम फैलाया
गया कि शंकराचार्य (सन् 632-664) ने शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र को पराजित कर
सुरेश्वराचार्य नाम से अपना शिष्य बनाया और शारदा-पीठ का मठाधीश बनाया, पर वह
कथा पूरी तरह कपोल कल्पना है।
तथ्य से इस कल्पित कथा का दूर-दूर का सम्बन्ध नहीं है। मण्डन मिश्र की छह
प्रसिद्ध कृतियाँ हैं-- ब्रह्मसिद्धि, भावना-विवेक, मीमांसानुक्रमणिका, विभ्रम-विवेक, विधि-विवेक, एवं स्फोट-सिद्धि।
उसी कल्पित कृति शंकरदिग्विजय के सहारे यह भी कहा जाता है कि मण्डन
मिश्र की पत्नी भारती भी प्रकाण्ड विदुषी थीं, पर प्रमाणिक साक्ष्य के अभाव
में इस बात पर विश्वास करना कठिन है, क्योंकि एक दूसरे शंकरदिग्विजय
में मण्डन मिश्र की पत्नी का नाम शारदा बताया गया है। मेरी संकुचित जानकारी
में महाकवि कालिदास के मिथिला के होने का कोई प्रमाणिक साक्ष्य नहीं दिखता,
परन्तु मिथिला के लोग जब-तब दावा करते हैं। इस धारा में आगे केशव
मिश्र , अयाची मिश्र, शंकर मिश्र जैसे असंख्य नामों का उल्लेख ज्ञान-तत्त्व विमर्श
के क्षेत्र में सोदाहरण किया जा सकता है। इन उदाहरणों का उद्देश्य सिर्फ समकालीन नवचिन्तकों
को सूचना देना है कि उन्नीसवी-बीसवी-इक्कीसवी शताब्दी के मैथिलों ने किसी
असावधानी या अज्ञानता में अपनी भाषा की अवमानना को आमन्त्रण नहीं दिया। उन सब ने
तो अपने पूर्वजों द्वारा संस्थापित ज्ञान-परम्परा, मानवीयता एवं राष्ट्रीयता की
अवधारणा के विकास में अपना योगदान दिया। क्योंकि मानवता के विकास हेतु कर्म, ज्ञान और भक्ति विषयक
विचार-विमर्श हमारे पूर्वज दीर्घकाल से करते आ रहे हैं, उसके संवर्द्धन
में अपनी भूमिका निभाते आए हैं। अब इसका अन्यथा उपयोग कोई कर लें तो क्या किया
जा सकता है! विगत छह-सात दशकों से हमारा देश तो ऐसे नागरिकों का देश हो गया है,
जहाँ लोग दूसरों की त्रासदी को भी अपने पक्ष में भुनाने के अभ्यस्त हो गए हैं। पर
इतना तय है कि हमें अपनी इस भव्य विरासत पर आधुनिक पद्धति से शोध अवश्य करना
चाहिए।
अपने
पूर्वजों एवं समकालीनों के नैष्ठिक भाषा-प्रेम, राष्ट्र-प्रेम एवं भाषिक
उदारता के उल्लेख के साथ यहाँ मेरा उद्देश्य अपने सभ्य समाज को सूचित करना है
कि इतिहास के पृष्ठों में दबे इन तथ्यों पर विचार हो। दुनिया देखे कि इतनी
प्राचीन और समृद्ध रचना-धारा वाली मधुरतम भाषा मैथिली के साथ व्यवस्था, गुटबन्दी
एवं प्रशासनिक षड्यन्त्रों का कैसा-कैसा खेल खेला गया है, खेला जा रहा है। यह कोई
इतिहास-लेखन नहीं है, कोई गहन-गुह्य आविष्कार नहीं है। यहाँ-वहाँ बिखरे तथ्यों
का संकलन है। सम्भव है कि कई लोगों को इनकी जानकारी पहले से हो, किन्तु अब इस पर
सूक्ष्मतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। तात्त्विक चिन्तन के साथ इस दिशा
में किया गया शोध निश्चय ही मैथिल-अस्मिता और अन्तत: भारतीय-अस्मिता के
हित में होगा। भाषा, संस्कृति और विरासत के प्रति निरपेक्षता लगभग कृतघ्नता
और आत्महत्या के बराबर है। भारतीय संस्कृति में और दुनिया के सभी धर्मों में
ईशभक्ति में शीष झुकाने का मानवीय आचार इसीलिए है कि घर से बाहर पाँव रखने से
पहले हम विनम्र होना सीखें। विनम्रता कायरता नहीं है और उद्यमियों का सम्मान
चाटुकारिता नहीं है। अमानवीय आचरणों के तुमुल कोलाहल के बावजूद आज अकारण ही सम्मान
हेतु दी-ली गई राशि को आयकर मुक्त नहीं माना जाता। विचारणीय है कि जिस भूखण्ड
का नागरिक अपनों का सम्मान नहीं करता उसका सम्मान दुनिया में कहीं नहीं होता।
इसलिए हम अपने नायकों का सम्मान करना, अपनी विरासतीय भव्यता पर गौरवान्वित
होना सीखें। अन्तिम बात, कि जिन समकालीनों एवं दिवंगत विद्वानों का जिक्र
इस आलेख में नहीं हो पाया, उनके प्रति मेरा कोई वैर-भाव नहीं है। यह मेरी अज्ञता
है कि इस आलेख को पूरा करते समय मेरे स्मरण में उनका अवदान प्रकट नहीं हुआ। जिनकी
चर्चा यहाँ नहीं हुई, कहीं और, कोई और अवश्य करेंगे।
देवशंकर
नवीन का
जन्म 02 अगस्त, 1962
को मोहनपुर, सहर्षा
(बिहार) में हुआ। एम.ए., पी-एच.डी.(हिन्दी, मैथिली),
एम.एस-सी.(भौतिकी), पी.जी.डिप्लोमा(पुस्तक प्रकाशन, अनुवाद) की उपाधियाँ देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों से
प्राप्त कीं। जी.एल.ए. कालेज, डालटनगंज
में छह वर्षों तक अध्यापन, नेशनल
बुक ट्रस्ट के सम्पादकीय विभाग में सोलह वर्षों तक उल्लेखनीय योगदान, अनुवाद अध्ययन एवं प्रशिक्षण विद्यापीठ, इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में पाँच
वर्षों तक अध्यापन के बाद फिलहाल भारतीय भाषा केन्द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद पर कार्यरत
हैं। अनुवाद अध्ययन, तुलनात्मक
साहित्य, राजकमल चैधरी का साहित्य, मध्ययुगीन भ्क्ति साहित्य, एवं प्रकाशन तकनीक में उनकी विशेष रुचि है। मैथिली एवं
हिन्दी में प्रकाशित उनकी मूल, अनूदित
तथा सम्पादित लगभग चार दर्जन पुस्तकों में
से प्रमुख हैं: पहचान, हाथी
चलए बजार(कहानी), आधुनिक
मैथिली साहित्यक परिदृश्य,
मध्ययुगीन
भक्ति आन्दोलन एवं कृष्ण काव्य की परम्परा, राजकमल चौधरी: जीवन और सृजन, गीतिकाव्य के रूप में विद्यापति
पदावली, मैथिली
साहित्य: दशा, दिशा, सन्दर्भ
(आलोचना)। राजकमल चौधरी की रचनाओं के कई संकलन एवं आठ खण्डों की रचनावली के अलावा सम्पादित
कृतियाँ हैं--उत्तर आधुनिकता: कुछ विचार (आलोचना), अक्खर खम्भा आदि।
कई अनूदित पुस्तकें भी प्रकाशित। अंग्रेजी सहित कई अन्य भारतीय भाषाओं में रचनाएँ अनूदित।
जीवन एवं लेखन, भाषा
एवं व्यवहार, रचना
एवं कर्म में समानता रखना; विपरीत
आचरण करनेवालों का विरोध करना अपना धर्म समझते हैं।
सम्पर्क:
भारतीय भाषा केन्द्र, जवाहरलाल
नेहरू विश्वविद्यालय, नई
दिल्ली 110067
ई
मेल: deoshankar@hotmail.com