हर भाषा के विकास एवं प्रचार-प्रसार में ‘लोक’ की
भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से विचार करते हुए प्रमाणित हो
चुका है कि भाषा, लोकजीवन के
विविध प्रसंगों में प्रवहमान रहकर, समृद्धि
पाती है, भिन्न-भिन्न
प्रयुक्तियों से सम्पन्न होती है; बुद्धिजीवियों, वैयाकरणों
और भाषाशास्त्रियों के सहयोग से लिखित रूप में आकर स्थिरता पाती है; और राजसत्ता द्वारा मान्य होकर सर्वस्वीकृत हो
जाती है। इन तीन चरणों से जो भाषा बार-बार गुजरती है, उसका विकास सर्वाधिक होता है। हमारी राष्ट्रभाषा
हिन्दी का यह सौभाग्य है कि इसे ये तीनों अवसर निरन्तर प्राप्त होते रहे। पर
हिन्दी का दुर्भाग्य साथ-साथ चलता आ रहा है कि लोकजीवन के प्रयोगशील क्षणों को
छोड़कर, शेष दो क्षणों में यह पल-पल
छद्म का शिकार होती गई।
भारतीय स्वाधीनता के सात दशक गुजर चुके। सन् 1955 में प्रथम राजभाषा आयोग
का गठन हुआ। सन् 1956 में इस आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट पर संसद के दोनों सदनों
ने विचार किया और राष्ट्रपति के पास वह रिपोर्ट भेजी गई। राष्ट्रपति द्वारा,
27 अप्रैल 1960 को जारी आदेश में कहा
गया कि वैज्ञानिक, प्रशासनिक एवं
कानूनी साहित्य सम्बन्धी हिन्दी शब्दावली तैयार करने के लिए और अंग्रेजी कृतियों
के हिन्दी अनुवाद के लिए एक आयोग का गठन किया जाए। प्रथम राजभाषा आयोग की रिपोर्ट
के अनुसार अनुच्छेद 343 के अधीन संसद ने राजभाषा अधिनियम, 1963 बनाया। अनुच्छेद 351 के अधीन संघ का यह कर्तव्य
बताया गया कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार और उसका विकास करे ताकि वह भारत की
मिली-जुली संस्कृति के सभी तत्त्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके। यह भी बताया
गया कि उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी के, और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की
अन्य भाषाओं के प्रयुक्त रूप, शैली
और पदों को आत्मसात करे, जहाँ
आवश्यक या वांछनीय हो, वहाँ उसके
शब्द-भण्डार के लिए मुख्यतया संस्कृत से और गौणतया अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते
हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे। भाषा सम्बन्धी उपबन्धों, अनुच्छेद-343, 344 तथा 351 का अन्तिम लक्ष्य हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना और शासकीय
प्रयोजन तथा सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी को प्रतिस्थापित करना माना गया।
समस्त संवैधानिक सूचनाएँ भी मोटे तौर पर यही जानकारी देती हैं कि हिन्दी
भाषा के विकास एवं प्रचार-प्रसार की अनन्त सम्भावनाएँ, लोकजीवन की शब्दावलियों में, हिन्दी क्षेत्र की विभिन्न उपभाषाओं के शब्दों में,
तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शब्द-भण्डार
में दिखती है। विद्यापति-पदावली, रामचरितमानस अथवा ऐसे अन्य किसी भी
सर्वप्रचलित कृति के शब्द-भण्डार का अवलोकन किया जाए, तो यह तथ्य और स्पष्ट हो उठता है।
परन्तु परांगमुखी हम भारतीयों की गुलाम मानसिकता को कौन समझाए कि सब कुछ
का स्वामी होने के बावजूद, अपनी
राष्ट्रभाषा से दूर रहने का तमगा उनके सिर मढ़ा हुआ है। हिन्दी नवजागरण का बिगुल
फूँकते हुए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल’ यूँ ही नहीं कहा था...। लोक-प्रचलित तथ्य है कि क्षेत्रीय बोलियों से, संस्कृत
अथवा पड़ोसी राज्य की मातृभाषाओं से लिए गए शब्दों से हिन्दी भाषा की सहजता और
प्रवाहमयता बढ़ेगी; संवैधानिक निर्देश भी इस बात की पुष्टि करते हैं, पर हम भारतीय हैं कि लगातार अंग्रेजी शब्दों
के प्रयोग से अपनी भाषा को दूषित करते जा रहे हैं।
किसी भी भाषा के प्रचार-प्रसार में संचार माध्यमों की अहम् भूमिका होती
है। जब से मुद्रण और ध्वन्यांकन के जरिए आम जन तक सूचनाएँ पहुँचाने की बात आई,
यह बात और मुखर हो उठी। असल में साधारण
जनता के भाषा-संस्कार का विकास या ह्रास इस बात पर निर्भर करता है कि वह क्या
सुनता है, क्या पढ़ता है, क्या देखता है। पुराने लक्षण ग्रन्थों में भी
यह प्रमाण दिया जा चुका है कि रंगमंच के माध्यम से किसी भाव अथवा घटना विशेष का
प्रभाव लोकमानस पर गहरा पड़ता है। यह प्रभाव केवल घटना और मुद्रा-भंगिमा का ही
नहीं; भाषा का भी होता है। दृष्टि उदार करने पर आज रेडियो, दूरदर्शन, सिनेमा, अखबार, पत्रिका, पुस्तक, सी.डी., कैसेट, वी.डी.ओ. कैसेट,
इण्टरनेट...सब के सब संचार-माध्यम के अन्तर्गत ही आते हैं।
मुद्रित सामग्री के रूप में आज हमारे सामने दो दृश्य हैं—सस्ती लोकप्रियता की धारणा एवं गलीज मानसिकता
से लिखी-छपाई गई घटिया पुस्तक-पुस्तिका-पत्रिकाएँ तथा पीत-पत्रकारिता की सामग्री और श्रेष्ठ साहित्य। पहली कोटि की मुद्रित
सामग्री हमारे समाज के भाषा-संस्कार और चिन्तन-प्रणाली को किस तरह दूषित कर रही है,
पूरी की पूरी किशोर पीढ़ी हमारे यहाँ
कैसे बर्बाद हो रही है, यह बात
किसी से छिपी नहीं है। ऐसी सामग्री छाप-बेच कर धन कमाने वाले भी देशद्रोही ही हैं,
पर हमारी शासन-व्यवस्था और सामाज-व्यवस्था
इस दिशा में कुछ नहीं कर पा रही है। इण्टरनेट पर ये सब काम पहले तो हिन्दी में
नहीं होते थे, किन्तु अब हिन्दी की दुनिया भी इस दिशा में किसी से पीछे नहीं है।
श्रव्य-दृश्य कैसेट/सी.डी./डी.वी.डी., दूरदर्शन, सिनेमा में तो यह प्रक्रिया अब बड़े पैमाने पर चल रही
है। रेडियो अभी तक इन विसंगतियों से बचा हुआ है। इसका कारण सम्भवत: यह हो कि रेडियो में निजी
चैनलों की भरमार नहीं है। पर इन सभी माध्यमों के जिस खण्ड में अश्लीलता और सस्तापन
नहीं है, वहाँ भी स्थिति बहुत
अच्छी नहीं दिखती।
हम सब जानते हैं कि संचार-माध्यमों का काम केवल सूचना पहुँचाना नहीं होता।
हर समय का संचार-माध्यम एक सभ्य सामाजिक व्यवस्था का सृजन करता है। संचार-माध्यम
अपने समय की लोकसत्ता और राजसत्ता--दोनों
के जिज्ञासु मन का गुरु और उद्दण्ड मन का नियन्त्रक होता है। सभ्य नागरिक और
ज्ञानी शासक के बिना कहीं भी एक अच्छी सामाजिक व्यवस्था की कल्पना नहीं की जा सकती
और कोई भी नागरिक श्रेष्ठ भाषा-संस्कार के बिना सभ्य और ज्ञानी नहीं हो सकता।
मात्र तीन दशक पहले के संचार-माध्यमों को याद करें, तो उक्त बातें साफ दिखने लगती हैं। समय, उच्चारण और व्याकरण के लिए हमारे यहाँ रेडियो
को प्रमाण माना जाता था, पर आज
उच्चारण और व्याकरण की बात तो दूर, जिस
खिचड़ी भाषा का प्रयोग रेडियो-दूरदर्शन में हो रहा है, उसे सुनकर भाषा-शिल्प के मामले में सचर व्यक्ति अपनी
सन्तानों और अपने शिष्यों को सावधान करने में लगे हुए हैं कि वे अपना भाषा-संस्कार
रेडियो-दूरदर्शन के वजन पर न बनाएँ।
दूरदर्शन और रेडियो में भाषा-संस्कार का राजपाट सँभालने वाले
अधिकारियों-कर्मचारियों का कथन है कि भाषा का मूल उद्देश्य है सम्प्रेषण। इसलिए संचार-माध्यमों में
सम्प्रेषण का ध्यान रखना जरूरी होता है। इन अधिकारियों की इस तरह की उक्ति में
कितनी बड़ी विडम्बना है कि वे अपनी एक पंक्ति के उद्धरण से अपने समस्त पूर्वजों के
किए-कराए पर पानी फेर देते हैं। सम्प्रेषण मात्र, न तो संचार-माध्यमों का लक्ष्य होता, न भाषा का उद्देश्य। हजारों-हजार वर्षों की
लम्बी विकास-प्रक्रिया में मानव-सभ्यता जहाँ आ पहुँची है, वहाँ भाषा और सम्प्रेषण का सौष्ठव साथ-साथ न दिखे,
तो न तो किसी संचार-माध्यम की कोई
आवश्यकता है और न ही किसी भाषा परिवार की।
विगत दिनों दूरदर्शन पर युद्ध के जैसे दृश्य दिखाए गए थे, उनमें कोई भाषा,
कोई चित्र न भी दिखाए जाते, तो
तोपों और बमों के विस्फोट से बात सम्प्रेषित हो जाती कि विनाश की लीला शुरू है;
लेकिन वह न तो समाचार होता, न सूचनाओं का सम्प्रेषण। ठीक इसी तरह रेल के
गार्ड द्वारा दिखाई गई झण्डी, सम्प्रेषण
तो है, पर भाषा नहीं है; सड़क किनारे बैठकर भीख माँगते अपाहिजों के
दयनीय इशारे में मन्तव्य का सम्प्रेषण तो है, पर वह भाषा नहीं है;...और ये सारी हरकतें किसी भी मूल्य पर किसी सभ्य नागरिक
और श्रेष्ठ सामाजिक व्यवस्था का सृजन नहीं कर सकती।
व्यावसायिक उन्नति को ध्यान में रखकर परिवेश के तमाम व्यापार इन दिनों
राष्ट्र-भाषा हिन्दी की दुर्दशा करने में लिप्त हैं; नागरिक परिवेश से लेकर प्रशासनिक मण्डल तक इस कृत्य
में जी-जान से जुटे हुए हैं। वे सोचने को राजी नहीं हैं कि यह भाषा उनकी निजी
पहचान है, क्योंकि अपनी भाषिक-साहित्यिक गरिमा से ही किसी राष्ट्र की
सांस्कृतिकता ऊँची होती है। भाषिक धरोहर के प्रति समकालीन नागरिकों की ऐसी
विरक्ति निश्चय ही आत्मघाती है; सभ्यता
एवं संस्कृति के विनाश का सूचक है।
जिस भारत के प्राचीन धरोहरों की ओर पश्चिमी विचारक
खिंचे चले आते हैं, वहाँ के नागरिक अपनी परम्पराओं को भदेस और पिछड़ा मानकर त्यागने
में लगे हुए हैं। अपनी भाषा के प्रति ऐसा विराग-भाव तो शायद ही दुनिया के किसी
खण्ड में हो। हिन्दी लिखने-बोलने वालों को वर्तमान भारतीय परिवेश में अबौद्धिक
और भदेस समझनेवाला हमारा समाज अवनति के जिस मार्ग पर चल पड़ा है, उसे कौन
सद्बुद्धि दे, यह दिख तो नहीं रहा। कार्यालयों में काम करने वाले लोग अशुद्ध और
हास्यास्पद अंग्रेजी बोलकर अपना गौरव बढ़ाते हैं, पर शुद्ध हिन्दी
बोलना-लिखना तौहीन समझते हैं। याद रहे कि मौलिकता का त्याग, अपनी पहचान का त्याग
है; पहचानविहीन मनुष्य राह पर लुढ़का पत्थर होता है, जिसे कोई भी ठोकर मार
सकता है।