Wednesday, August 17, 2016

मार्क्‍सवाद की नि‍न्‍दा का कारण मार्क्‍सवादियों का आचरण


बड़े-बड़े वि‍चारक आलोचना को रचना का शेषांश मानते आए हैं। इस शेषांश का अभि‍प्राय रचना के उन मूल्‍यों से है, जो सामान्‍य पाठकों को दृष्‍टि‍गोचर नहीं होता। प्रत्‍यक्ष रूप से बहुत सरल और सहज दि‍खनेवाली रचनाएँ वस्‍तुत: उतनी सहज होतीं नहीं। रचनाओं की श्रेष्‍ठता के कारण‍ चूँकि‍ उसके ऊपरी तल की अर्थ-व्‍यंजना मोहक होती हैं, इसलि‍ए पाठक सन्‍तुष्‍ट हो जाते हैं, पर उसकी गहन मूल्‍यवत्ता से अन्‍तत: वे वंचि‍त ही रहते हैं। हर रचना अपनी समकालीनता और शाश्‍वतता के मूल्‍य से परि‍पूर्ण होती है। उसका समग्र अर्थबोध कई-कई परतों में खुलता है। महत् रचनात्‍मक उद्देश्‍य के कारण जनजीवन के आर्थि‍क, सामाजि‍क, पारम्‍परि‍क परि‍वेश‍ से हर कृति‍ का गहन सरोकार होता है। इसलि‍ए लोक की जीवन-व्‍यवस्‍था एवं उपस्‍थि‍त परि‍स्‍थि‍ति‍यों से उत्‍पन्‍न जनवृत्ति‍यों का सघन चि‍त्र वहाँ उपस्‍थि‍त रहता है। रचना में अंकि‍त चि‍त्र कि‍सी भी परि‍स्‍थि‍ति‍ में लोकजीवन से छि‍न्‍नमूल नहीं होता। उदाहरण के लि‍ए 'प्रेत का बयान' (नागार्जुन), या कि‍ 'हँसो हँसो जल्दी हँसो' (रघुवीर सहाय) कवि‍ता को लि‍या जा सकता है। इन दोनो कवि‍ताओं के प्राथमि‍क अर्थ मात्र से तृप्‍त हो जाना पर्याप्‍त नहीं है। इन रचनाओं की समग्र व्‍यंजना से परि‍चि‍त होने के लि‍ए रचनाकार के सामाजि‍क सरोकार, समकालीन समाज की जीवन-व्‍यवस्‍था, और वर्चस्‍वप्रि‍य आखेटकों की शृगालवृत्ति‍ को गम्‍भीरता से जानना अनि‍वार्य होगा। आलोचना का उद्देश्‍य कि‍सी रचना का सरलार्थ बताना नहीं होता, वह रचनाओं में व्‍याप्‍त सूत्रबद्धता की गहन गाँठें खोलकर उसकी तमाम मूल्‍यवत्ता को उजागर करती है।
हर महत्त्‍वपूर्ण रचना असंख्‍य दायि‍त्‍वबोध से लदी रहती है। समकालीन समाज की जि‍न चि‍त्तवृत्ति‍यों का वह वहन करती है, वे वृत्ति‍याँ कि‍सी भी तरह जनपदीय जीवन-व्‍यवस्‍था एवं नागरि‍क-जीवन के राग-वि‍राग, अनुरक्‍ति‍-वि‍रक्‍ति‍, ज्ञान-अज्ञान, परम्‍परा-संस्‍कृति‍, नि‍स्‍सारता-उपादेयता, चूक-उपलब्‍धि‍, सुसंगति‍-वि‍संगति‍, भूत-भवि‍ष्‍य-वर्तमान, प्रेरणा, उत्‍साह, जय-पराजय, आत्‍मबोधसे नि‍रपेक्ष नहीं होती। इन तमाम वृत्ति‍यों और व्‍यवस्‍थाओं का गहन सम्‍बन्‍ध लोक से होता है। लि‍हाजा रचनाओं का मूल्यांकन कई धरातल पर होता है, उसकी अर्थ-ध्वनियाँ कई परतों में खुलती हैं। सामान्‍य पाठकों की अवगाहन-क्षमता सामान्‍य स्‍थि‍ति‍यों में ऐसी नहीं होती कि‍ वे रचनाओं के इस बहुपरतीय अर्थभेद की गाँठों में दबी अर्थ-ध्वनियों को समग्रता से पा लें। कृति‍-परीक्षण में उनसे कई जरूरी अर्थ-ध्‍वनि‍ छूट जाती है। कि‍सी बड़े आलोचक के वि‍वेकपूर्ण वि‍श्‍लेषण के साथ आलोचना जब पाठकों के लि‍ए रचनाओं के इस बहुपरतीय अर्थभेद की गाँठें खोलती है, और समग्र अर्थबोध का मार्ग प्रशस्‍त करती है, तो वह न केवल पाठकों के लिए उपयोगी होती, बल्‍कि‍ उससे रचना का उद्देश्‍य भी फलीभूत होता है। इसी अर्थ में आलोचना को रचनाओं का शेषांश माना जाता है। जाहि‍र है कि‍ आलोचना का नैति‍क और नैष्‍ठि‍क जुड़ाव इस दायि‍त्‍वबोध से होगा। स्‍पष्‍टत: अपने सामाजि‍क और रचनात्‍मक सरोकार की नि‍ष्‍ठा, तटस्‍थता, वि‍वेक और कौशल टटोलकर ही कोई आलोचक इस क्षेत्र में पदार्पण करता होगा। वि‍श्‍व, राष्‍ट्र, राज्‍य, समाज और लोक के इति‍हास, परम्‍परा, संस्‍कृति‍, ज्ञान, ध्‍वंस-नि‍र्माण एवं अन्‍य वृत्ति‍यों का गहन ज्ञान हासि‍ल कि‍ए बि‍ना कोई व्‍यक्‍ति‍ साहि‍त्‍यालोचन के वि‍राट दायि‍त्‍व का नि‍र्वहन नहीं कर सकता।
भारतीय वांग्‍मय में प्रो. मैनेजर पाण्‍डेय का शुमार उन गि‍ने-चुने समालोचकों में होता है, जो उक्‍त सारे वैशि‍ष्‍ट्य के साथ वि‍गत पाँच दशकों से हि‍न्‍दी आलोचना को पुष्‍ट करते आए हैं। मार्क्‍सवादी हि‍न्‍दी आलोचना को खास तरह से संयमित करने, और आगे बढ़ाने में, साहि‍त्‍यालोचन की समाजशास्‍त्रीय पद्धति‍ को व्‍यवस्‍थि‍त रूप देने में, वि‍श्‍व-साहि‍त्‍य की चि‍न्‍तन-दृष्‍टि‍ के समतुल्‍य वैज्ञानि‍क मानकों से हि‍न्‍दी आलोचना को समृद्ध करने में उन्होंने अग्रणी भूमि‍का नि‍भाई है। वैश्‍वि‍क परि‍प्रेक्ष्‍य के अधुनातन वि‍धानों से परीक्षि‍त अपने आलोचनात्‍मक उपस्‍कर (टूल्‍स) द्वारा उन्‍होंने हि‍न्‍दी आलोचना में जैसी पद्धति‍ अपनाई, वह आज कई प्रौढ़ एवं युवा आलोचकों के लि‍ए प्रेरणास्‍पद है। उनका आलोचनात्‍मक-संघर्ष भारतीय भाषाओं के परवर्ती आलोचकों के लि‍ए पाथेय और अनुकरणीय है। रचना, रचनाकार, समय और समाज के प्रति‍ उनका संवेदनशील नि‍जी सरोकार कहीं उनके आलोचनात्‍मक वि‍वेक को चूक की गुंजाईश नहीं देता। सत्ता और संस्कृति के संघर्ष पर उनके वि‍श्‍लेषणपरक वि‍चार सर्वदा हि‍न्‍दी आलोचना में नई ध्‍वनि‍ वि‍कसि‍त करते रहे हैं। उनकी कृति‍यों--'शब्द और कर्म', 'साहित्य और इतिहास-दृष्टि', 'साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका', 'भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य' के जरि‍ए भारतीय भाषाओं के पाठकों को उनके आलोचनात्‍मक-संघर्ष का परि‍चय मि‍लता रहा है। सन् 2013 में उनके फुटकल आलोचनात्‍मक नि‍बन्‍धों एवं साक्षात्‍कारों का संग्रह पाँच खण्‍डों में 'भारतीय समाज में प्रति‍रोध की परम्‍परा', 'उपन्‍यास का लोकतन्‍त्र', 'हि‍न्‍दी कवि‍ता का अतीत और वर्तमान', 'आलोचना में सहमति-असहमति' एवं 'संवाद-परिसंवाद' शीर्षक से वाणी प्रकाशन से प्रकाशि‍त हुआ। इनके कई अंश बीते वर्षों में पत्रि‍काओं-संग्रहों में प्रकाशि‍त-प्रशंसि‍त होते रहे हैं। कि‍न्‍तु इन संग्रहों में उनके व्‍यवस्‍थि‍त और वर्गीकृत प्रकाशन से मैनेजर पाण्‍डेय की वि‍लक्षण आलोचना-दृष्‍टि‍ एक बार फि‍र से पुनरावलोकन हेतु प्रस्‍तुत हुई है।
उल्‍लेखनीय है कि‍ मैनेजर पाण्‍डेय अपनी तरासी हुई आलोचना-दृष्‍टि‍ के लि‍ए छात्र-जीवन में ही प्रशंसि‍त हो गए थे। प्रारम्‍भि‍क समय में ही उन्‍होंने अपनी आलोचना-वृत्ति का दायि‍त्‍व-फलक वि‍राट कर लि‍या था। उनके आलोचना-कर्म से अल्‍प परि‍चि‍त पाठक भी इस बात से परि‍चि‍त होंगे कि‍ मैनेजर पाण्‍डेय ने सैद्धान्‍ति‍क आलोचना भी लि‍खी, व्‍यावहारि‍क भी। मध्‍यकाल से लेकर आधुनि‍कतम पीढ़ी तक की रचनाओं एवं रचनाकारों पर उनकी पैनी आलोचनात्‍मक दृष्‍टि‍ नि‍रन्‍तर बनी रही। अश्‍वघोष से लेकर सूरदास, दाराशुकोह तक; मुक्‍ति‍बोध, नागार्जुन, आलोकधन्‍वा, कुमार वि‍कल से लेकर नवीनतम पीढ़ी के रचनाकारों तक पर उनकी नजर बनी रही है। गत शताब्‍दी के सातवें दशक के प्रारम्‍भ से भारत समेत दुनि‍या भर के देशों में 'अनुवाद अध्‍ययन' ज्ञान की एक नई शाखा के रूप में चर्चि‍त होने लगी थी। अनुवाद का स्रोत तो दुनि‍या भर में मानव-सभ्‍यता के शुरुआती दौर से क्रमबद्ध बना रहा, पर ज्ञान की शाखा के रूप में अनुवाद पर चर्चा उन दि‍नों नई बात थी। प्रो. मैनेजर पाण्‍डेय की गणना हि‍न्‍दी के उस प्राथमि‍क समूह के आलोचकों में होती है, जि‍न्‍होंने समय की इस जरूरत को सूक्ष्‍मता से समझा और इस पर नि‍रन्‍तर बोलते रहे। यद्यपि‍ अब तक उन्‍होंने अनुवाद अध्‍ययन पर कुछ लि‍खा नहीं है, पर दाराशुकोह, महावीर प्रसाद द्वि‍वेदी, रामचन्‍द्र शुक्‍ल के अनुवाद-कर्म को जि‍स सूक्ष्‍मता से वे नि‍रन्‍तर अपने भाषणों में व्‍यख्‍यायि‍त करते आए हैं, उससे आज के आलोचनात्‍मक परि‍दृश्‍य में भारतीय अनुवाद चि‍न्‍तन की गम्‍भीरता और प्राचीनता को रेखांकि‍त करने में परवर्ती आलोचकों एवं शोधार्थि‍यों को सुभीता मि‍ली है। इस वर्ष हि‍न्‍दी के वि‍शि‍ष्‍ट और बहुफलकीय आलोचक प्रो.मैनेजर पाण्डेय (जन्म 23 सितम्बर, 1941 को, बिहार के लोहटी, गोपालगंज में) पचहत्तर वर्ष के हो रहे हैं। इस अवसर पर प्रस्‍तुत है देवशंकर नवीन (सहयोग उज्‍ज्‍वल आलोक और सद्रे आलम) के साथ उनकी अवि‍कल बातचीत--
  • डॉ. साहब हिन्दी के अध्येताओं के लिए आपका नाम एक रोचक रहस्य है। बालपन के दौर में समान्यतया माता-पिता अपने बच्चों का नाम ईश्वर या राजा इत्यादि के नाम पर रखते थे। आपका नाम मैनेजर कैसे पड़ा?
  •   इस सवाल का जवाब मैं विभिन्न प्रसंगों में कई बार दे चुका हूँ। एक बार और उसी को दोहराऊँगा। पहली बात यह, कि बिहार में और पंजाब में ऐसे नाम रखने की प्रवृत्ति बहुत पुरानी है। आपको याद होगा कि बिहार के एक मुख्य मन्‍त्री थे, उनका नाम दरोगा प्रसाद राय था। वहीं बिहार में एक जाने-माने कवि थे, उनका नाम कलक्टर केसरी था। तो जब बिहार में दरोगा प्रसाद राय और कलक्टर सिंह केसरी हो सकते हैं, तो उसी क्रम में मैनेजर पाण्डेय भी हो सकते हैं। नाम रखने की जो यह प्रवृत्ति है उसका सम्बन्ध एक और बात से है। मेरे घर में कोई बहुत पढ़ा-लिखा आदमी नहीं था, उन लोगों को जो नाम सूझा और अच्छा लगा, वह रख दिया। बाद के दिनों में हाई स्कूल का फॉर्म भरते समय मेरे कुछ अध्यापकों ने कहा कि तुम अपना नाम बदल लो। मैंने कहा मुझे पहले अपने घर से पूछ लेने दीजिए। घर पूछने गया तो मेरे पिताजी ने कहा कि तुम्हारे नाम पर बहुत सारी जमीनें खरीदी गई हैं। तो उस प्रसंग में बदला हुआ नाम संकट का कारण बन जाएगा। इसलिए नाम मत बदलो। इसी मजबूरी में मैं इस नाम को ढो रहा हूँ।
  •  सम्‍पूर्ण रूप से कृषक और अशिक्षित परिवार और गाँव में जन्‍म लेने के बावजूद उच्च शिक्षा और साहित्य की ओर अग्रसर होने की आपकी प्रेरणा क्या थी?
  • एक तो संयोगवश, अध्यापकों के अनुसार स्कूली जीवन से ही मैं अच्छा छात्र था, पढ़ने-लिखने वाला। बार-बार उन्हीं लोगों ने प्रेरि‍त कि‍या कि आगे पढ़ना, यहीं तक मत रह जाना। मिड्ल स्कूल में जब आया तो हमारे एक अध्यापक थे--शेख वाजि‍द, वे स्वयं हिन्दी, भोजपुरी में कविता लिखते थे। उन्होंने ही मेरी दिलचस्पी साहित्य में जगाई। हाई स्कूल में मैं आया तो हमारे यहाँ एक अध्यापक थे लक्ष्मण पाठक प्रदीप, वे हिन्दी साहित्य और भाषा पढ़ाते थे, वे स्वयं हिन्‍दी और भोजपुरी के अपने क्षेत्र के जाने-माने कवि थे। उन्होंने भी साहित्य में मेरी रुचि और गति पैदा करने की कोशिश की। इसलिए साहित्य से मेरे जुड़ाव का आधार स्कूल से ही था। जब इण्टरमीडिएट और बी.ए. करने डी.ए.वी. डिग्री कॉलेज बनारस आया, तो वहाँ मेरे अध्यापक थे शितिकण्‍ठ मिश्र। वे साहित्य के अध्यापक तो थे, आलोचक भी थे। दुर्भाग्यवश उनकी आलोचना न संकलित हुई, न प्रकाशित हुई। पर उस समय की पत्रिकाओं में उनकी आलोचना खूब छपती थी। उन्‍हें मैंने पढ़ता था। उन्होंने मुझे साहित्य की ओर प्ररि‍त कि‍या। उन्‍हीं दि‍नों हमारे डी.ए.वी. डिग्री कॉलेज के प्रिंसिपल थे कृष्णानन्द। वे बड़े सज्जन व्‍यक्‍ति‍ थे, उन्होंने रामचन्‍द्र शुक्ल की आलोचनाओं की किताब त्रि‍वेणी का सम्‍पादन किया। जयशंकर प्रसाद वगैरह से उनका व्यक्तिगत सम्बन्ध था। वे बहुत अच्छा पढ़ाते थे। बल्कि साहित्य में दिलचस्पी जगाने का काम उनके अच्छे अध्‍यापन ने भी कि‍या। पढ़ाई में दिलचस्पी का एक और कारण बिहार के मेरे एक मित्र भी थे, हीरा सिंह, वे अब नहीं रहे। पॉलिटिक्स में उनकी बहुत गति थी। बाद में पॉलिटिकल साइन्‍स में ही उन्होंने एम.ए. किया, पी.एचडी. भी की। वे बी.ए. में थे तो अंग्रेजी की ऐसी-ऐसी किताबें हाथ में लेकर घूमते थे, जो एम.ए. के लोग पढ़ते थेप्लेटो का रिपब्लिक, वे मुझसे कहते थे कि इसको पढ़िए। तो अंग्रेजी के माध्यम से राजनीति आदि की कुछ गम्भीर चीजें पढ़ने का सि‍लसि‍ला हीरा सिंह के कारण ही बना। एक और बात हुई, हमलोगों ने छात्र के रूप में डी.ए.वी. कॉलेज में वर्षों से बन्‍द छात्र आन्‍दोलन संगठन का काम किया था, नतीजा हुआ कि‍ इण्टरमीडिएट में टॉपर होने के बावजूद, हमारे कॉलेज के प्रिंसिपल ने तुरन्‍त कह दिया कि बी.ए. में इसका एडमिशन यहाँ नहीं होगा। एडमिशन तो जैसे-तैसे हो गया, पर मैंने जो वि‍कल्‍प दे रखा था--हिन्‍दी साहित्य, राजनीति शास्त्र और अंग्रेजी साहित्यउनमें से कोई भी वि‍षय देने से उन्होंने इनकार कर दि‍या। अब तो समस्या हो गई। बाद के दिनों में कुछ अध्यापकों ने उनको समझाया कि वह बहुत मेधावी छात्र है। आप क्यों उसे तालीम से जबर्दस्ती भगाना चाहते हैं। वहीं पर राजनीति शास्‍त्र के हमारे एक प्रोफेसर थे विश्वनाथ राय। थोड़े नेता भी थे, उनसे प्रिंसिपल की बनती नहीं थी। वे हमारे हॉस्टल के वार्डन भी थे। प्रि‍न्‍सि‍पल को लगता था कि राय साहब अपने छात्रों का उपयोग कॉलेज में आन्‍दोलन चलाने में करते हैं। उन्होंने दूसरे अध्यापकों से कहा कि‍ उनसे कहिए कि कि‍सी और विषय में उसका मन रमता है या केवल राजनीति शास्त्र में? तो शितिकण्‍ठ जी ने आकर मुझसे कहा तुम राजनीति-शास्त्र पढ़ने की जिद छोड़ दो और उसके बदले दर्शन-शास्त्र पढ़ो, जो राजनीति-शास्त्र में पढ़ोगे वह सब दर्शन में शामिल है। तो दर्शन में दिलचस्पी इस मजबूरी में पैदा हुई। फि‍र तो आगे जो हो सकता था वही किया।
  • आपकी पहली रचना प्रकाशित कब हुई?
  • बनारस हिन्दू वि‍श्‍ववि‍द्यालय की एक पत्रिका निकलती थी प्रज्ञा। अभी भी निकलती है कभी-कभार। उसी में पहला लेख छपा था, शायद परम्परा पर, वही मेरी पी-एच.डी का विषय था--सूर-साहित्य : परम्‍परा और प्रतिभा। तो परम्‍परा पर जो कुछ सोचा-वोचा लिखा था, वह पहला लेख प्रज्ञा में छपा।
  • इसका मतलब यह हुआ कि आपके लेखन की शुरुआत ही हुई है आलोचना से।
  • हाँ, एकदम। शुरू के दिनों में मैं जब हाई स्कूल में था। थोड़ी बहुत कविताएँ भी लिखता था। भोजपुरी में भी और हिन्दी में भी। स्थानीय स्तर पर कवि सम्मेलनों में भी जाता था। हमारे गाँव के बूढ़े-पुराने लोग जो जीवित हैं, आज भी मुझे कवि जी कहा करते हैं। अब मेरा उन कविताओं से कोई सम्‍बन्‍ध नहीं है। क्योंकि बाद में जब कुछ बड़े कवियों की कवि‍ताएँ पढ़ने लगा तो मुझे लगा कि यह सब चलेगा नहीं। संयोगवश उनमें से अब कुछ भी मेरे पास नहीं है।
  •   तो कविता से शुरू हुई रचना-धर्मिता फिर आलोचना की ओर मुड़ी, इसकी कोई खास वजह?
  • मैंने बताया कि हिन्दी में उस समय, सन् 1960-70 के बीच जैसी कविताएँ चल रही थीं, उन कविताओं को देखते हुए, इण्टरमीडिएट और बी.ए. में आते-आते मुझे लगने लगा कि मेरी कविताई चलेगी नहीं, इसलिए उसे छोड़ दिया। अब मैं बनारस शहर में था और वह रामचन्‍द्र शुक्ल का शहर था। इसलिए हमारे अनेक अध्यापकों ने कहा कि तुम रामचन्‍द्र शुक्ल की आलोचना पढ़ो। तुम्हें सोचने-सीखने को मिलेगा। मैंने बी.ए. में आचार्य शुक्ल की दो-तीन किताबें बारी-बारी से पढ़नी शुरू की--भ्रमरगीतसार पढ़ा। उस सम्‍पादि‍त कृति‍ की भूमिका के रूप में जो उन्‍होंने सूरदास की आलोचना है, वह मुझे बहुत अच्छी लगी। आलोचक के रूप में शुक्ल जी का दायरा बहुत बड़ा होता था। कभी-कभी बीच-बीच में ऐसी बात कह देते थे जो उन्हीं के सोच विचार के विरुद्ध चला जाता था। पर बात महत्त्वपूर्ण होती थी। तो आलोचना में दिलचस्पी और आलोचना का आकर्षण मेरे मन में तभी पैदा हुआ। एक तो रामचन्‍द्र शुक्ल के आलोचनात्‍मक लेख, दूसरे हमारे प्रिंसिपल कृष्णानन्द द्वारा सम्‍पादि‍त शुक्ल जी के आलोचनात्‍मक निबन्धों का संग्रह त्रिवेणी। फिर हमारे अध्यापकों में, जैसा मैंने आपसे कहा कि शितिकण्‍ठ जी बड़े अच्छे अध्यापक थे, साथ-साथ सुलझे हुए आलोचक भी थे। उन्हीं लोगों की प्रेरणा से आलोचना की ओर बढ़ा। शुरुआती प्रेरणा तो ये ही हैं।
  • बरेली, जोधपुर होते हुए जे.एन.यू. तक के छत्तीस वर्षों का समय (सन् 1969-2005) आपका अध्यापन में और उससे पहले के दस वर्ष शिक्षार्जन में बीएचयू में बीता। इन छि‍यालि‍स वर्षों में आपने शिष्य और गुरु की भी भूमिका निभाई। इस दौरान भारतीय शिक्षा पद्धति और ज्ञान के प्रति भारतीय युवाओं की व्याकुलता में आए परिवर्तन का संज्ञान आप किस तरह लेते हैं?
  • यहाँ मैं अपने अध्यापन की आखिरी संस्था जे.एन.यू. से भी शुरू कर सकता हूँ या बीएचयू से भी। उस समय ज्ञानार्जन में छात्र-छात्राओं की गम्‍भीर दिलचस्पी होती थी। अनेक छात्र-छात्राएँ अपने जीवन का लक्ष्य ज्ञान अर्जित करना मानते थे। वे उन छात्रों से चिढ़ते थे जो अधिकारी बनने के लिए पढ़ते थे। जे.एन.यू.आया, तो यहाँ भी छात्र-छात्राओं में गम्भीर अध्ययन-चिन्तन की प्रवृत्ति‍ देखी। उनमें से बहुत सारे हमलोगों से तरह-तरह के सवाल क्लास और क्लास से बाहर पूछते थे। लाइब्रेरी में छात्र-छात्राएँ पढ़ते दिखते थे। नई-नई किताबों, पत्रिकाओं, पढ़ने लायक कि‍सी लेख आदि के बारे में हमलोगों से पूछते थे। बाद के दिनों में ये सारी प्रवृत्तियाँ धीरे-धीरे गायब होती गईं। अब छात्र-छात्राएँ केवल सफल जीवन जीने के लिए पढ़ाई करते हैं। आपको ध्‍यान होगा कि जे.एन.यू. की लाइबे्ररी में एक बहुत बड़ा रीडिंग हॉल है। उसका नाम छात्र-छात्राओं ने धौलपुर हाऊस रखा दि‍या है। मुझे तो इसलिए पता चला कि मैं एक लड़के को लाइब्रेरी के अगल-बगल खोज रहा था। पूछा तो लड़कों ने बताया कि सर देखा तो नहीं है पर धौलपुर हाऊस में होगा। तो मैंने कहा कि धौलपुर हाऊस तो यूपीएससी का ऑफिस है, शाहजहाँ रोड पर, यहाँ कहाँ से आ गया। वह बोला कि‍ आपको नहीं मालूम, ये जो रीडिंग हॉल है, उसको धौलपुर हाऊस इसीलिए कहते हैं कि वह आई.ए.एस, पी.सी.एस. की तैयारी करने वाले छात्र-छात्राओं से भरा रहता है। यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे बढ़ी और जीवन से गहन ज्ञान का लक्ष्य गायब हो गया। गायब केवल छात्र-छात्राओं के जीवन से ही नहीं हुआ, अध्यापकों के जीवन से भी हुआ। अध्यापकों में भी बहुत कम हैं जो किताबें-पत्रिकाएं खरीदते हैं और पढ़ते हैं। मिल जाएँ तो पढ़ लेते हैं। इसलिए सबसे बड़ा परिवर्तन तो यही हुआ। पुराने जमाने के छात्र सार्थक जीवन जीने को ज्यादा महत्त्व देते थे, अब के छात्र सफल जीवन जीने की ज्यादा कोशिश करते हैं। सार्थकता और सफलता में बुनियादी फर्क है, सार्थकता हमेशा सामाजिक होती है, क्योंकि समाज के लिए आप किसी तरह अर्थवान हैं तो सार्थक हैं; सफलता हमेशा व्यक्तिगत होती है। दृष्टिकोण का अन्‍तर बहुत बड़ा होता है। सफल जीवन जब छात्र-छात्राओं को चाहि‍ए, तो अध्यापकों को भी चाहि‍ए।
  • लगभग आधी सदी से आप साहित्यालोचन में लगे हुए हैं। इस समय हिन्दी आलोचना के कई सक्रिय युवा और प्रौढ़ आलोचक आपको अपना प्रेरणा-स्रोत मानते हैं, आपके लेखन में अपनी आलोचना-दृष्टि ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं। ऐसे में आपकी लेखन-प्रक्रिया और आलोचना-दृष्टि को जानकर जिज्ञासुओं को थोड़ा और लाभ होगा।
  • देखिए, मेरी आलोचना-दृष्टि और उसका लक्ष्य यह है कि‍ साहित्य पैदा होता है समाज से; और अन्‍ततः उसकी मौत भी समाज में ही होती है। इस बात को कोई अस्वीकार कर नहीं कर सकता। समाज उस उस साहि‍त्‍य को स्वीकार करे तो उसका जीवन है, अस्वीकार कर दे मौत। इसलिए समाज और साहित्य का सम्बन्‍ध बहुत आत्मीय और अवि‍भाज्य है। मैं अपनी आलोचना में उसी की खोजबीन करने की कोशिश करता हूँ। रचना को कोई भी हो, उपन्यास हो, कविता हो; मैंने कहानियों की आलोचना कम ही की है। ज्यादा मैंने कविता और उपन्यास की आलोचना की है। लेकिन जो भी लिखा उसमें यह खोजने की कोशिश की है कि समाज से उस रचना का कितना और कैसा सम्बन्ध है। अब यह भी ध्यान में रखने की बात है कि साहित्य का समाज से सम्‍बन्‍ध वैसा ही नहीं होता, जैसा अखबार का समाज से सम्‍बन्‍ध होता है। साहि‍त्‍य में रचनाकार की अपनी बुद्धि, प्रतिभा, समाज दृष्टि, कल्पना.. सबका बहुत बड़ा योगदान होता है। और, उसी से उस रचनाकार का महत्त्व भी बनता है। आलोचना में इसकी भी छानबीन जरूरी है। मैं आलोचना में यही कुछ काम करता हूँ, चाहे सूरदास की आलोचना हो या बाबा नागार्जुन, या फि‍र और किसी की।
  • समाज से साहित्य के सम्‍बन्‍ध का पहला पक्ष तो यही है कि साहित्य भाषा के बिना सम्‍भव नहीं है। और भाषा के जन्‍म और विकास की सारी प्रक्रिया समाज में होती है। यही नहीं, स्वयं भाषा समाज की बहुत सारी प्रवृत्तियों, आदतों और विचारधाराओं को भी व्यक्त करती है। अब समाज में जो भाषा बनती है, रचनाकार उसमें परिवर्तन भी करता है। जो परिवर्तन वह करता है, वह समाज की ओर और अधिक ले जाने वाला है, या पाठक को समाज से विमुख करने वालाइसकी छानबीन भी जरूरी है। बाबा नागार्जुन के गीत की दो पंक्तियाँ हैं--जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊँ; जनकवि हूँ मैं, साफ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ! अब नागार्जुन जानते हैं कि वे जनता के लिए कविता लिख रहे हैं। तो कविता में नागार्जुन जिसको हकलाहट कहते हैं, उसको बहुत सारे कवि कविता की कला कहते हैं। मैं ऐसा कहूँ, जो आपकी समझ में न आए, जटिल हो, बाबा उसको हकलाहट कहते हैं...। इस भाव से अलग-अलग प्रवृत्ति के कवि होते हैं, अलग-अलग प्रवृत्ति के उपन्यासकार होते हैं। लेकिन सबके बावजूद समाज से उनका रंग-ढंग होगा ही, मेल का नहीं तो बेमेल का। आलोचना का काम तो सबकी खोज करना है।
  • साहित्य लेखन की प्रक्रिया पर आप लम्बे समय से विचार करते आए हैं। गत शताब्दी के अन्‍तिम चरण में राष्ट्रीय-अन्‍तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों के कारण भारतीय साहित्य चिन्‍तन में कई सवाल खड़े हुए। उसमें ऐसा देखा गया कि कुछ सवालों के साथ सामने आए कई चिन्‍तकों में मूर्ति भंजन की क्रूरता भरी हुई है। नई इमारत खड़ी करने के बजाय पुरानी इमारत को ध्वस्त करने की बेताबी ज्यादा दिख रही है। आप इन चिन्‍तकों को, जिनमें न तो परम्‍पराबोध की कृतज्ञता है, न ही नवनिर्माण की जीवन-दृष्टि अर्जित करने की कोई लालसा; कैसे देखते हैं?
  • अव्‍वल तो यह कि‍ छवि‍-भंजन सार्थक आलोचना नहीं होती। इसे एक तरह से दूसरों को धकिया कर आलोचना में जगह पाने की कोशिश है। जो कोई करे, पर केवल मूर्ति-भंजन से काम नहीं चलता। मूर्ति में दोष देखना एक बात है, और उसको तोड़ कर गिरा देना एकदम भिन्न बात है। ये प्रवृत्तियाँ इस बीच बढ़ी हैं, लेकिन समकालीन आलोचना में केवल यही नहीं है। इसलिए मैं उससे ज्यादा आंतकित नहीं हूँ। मैं भी स्वयं उस मूर्ति-भंजन का शिकार हुआ हूँ। फिर भी मैं उससे ज्यादा चिन्‍तित नहीं रहता। एक-दो लोग मूर्ति-भंजन का काम करते हैं, तो सौ-दो सौ, चार सौ, एक हजार, पाँच हजार लोग उसी को पसन्‍द भी करते हैं। जो कुछ लिखा है हमारे बड़े पूर्वज लेखकों ने, या थोड़ा-बहुत हमलोगों ने भी, पाठक समुदाय चिट्ठी से या सामने आकर मौखिक रूप से उसकी तारीफ कर दें, तो संतोष होता है; और फि‍र मूर्ति-भंजन वाली बातें किनारे रह जाती हैं। इसलिए मूर्ति भंजन की ज्यादा चिन्‍ता करने की जरूरत नहीं है। जो मूर्ति भंजक हैं, स्वयं धीरे-धीरे आलोचना की दुनिया से बाहर हो जाते हैं।
  • सन् 1990 के दशक के बाद जब से दुनिया में एकध्रुवी की प्रवृत्ति आई है, पूरी दुनिया में मार्क्‍सवाद सवालों के घेरे में आ गया है। बावजूद इसके आप लगातार तीसरी दुनिया के देशों में मार्क्‍सवाद की आवश्यकता पर बल देते रहे हैं। बदले हुए परिदृश्य में आप मार्क्‍सवाद का क्या भविष्य देख रहे हैं?
  • मुझे सार्त्र की एक पुरानी बात याद आ रही हैं। बहुत पहले सार्त्र ने कहीं लिखा था कि जब तक पूँजीवाद रहेगा, तब तक मार्क्‍सवाद की जरूरत रहेगी, क्योंकि पूँजीवाद बुनियादी तौर पर शोषण की व्यवस्था है। लाभ और लोभ की, झूठ और लूट की व्यवस्था है। इसको खोलने के लिए वास्तविकताओं और सचाइयों को सामने लाने का काम मार्क्‍सवाद करता है। और वह समाजवाद का विकल्प सामने लाता है। जो सवाल मार्क्‍सवाद पर पैदा होता है, वह मार्क्‍सवाद के कारण उतने नहीं हैं, जितने मार्क्‍सवादियों के गैरमार्क्‍सवादी व्यवहार से पैदा हुए हैं। भारत में भी मार्क्‍सवाद रहा है और है भी, और मार्क्‍सवादियों का व्यवहार भी आपने देखा है। इस प्रसंग में जर्मन के एक बड़े कवि आइजेनबर्गर की कार्ल मार्क्‍स पर लिखी एक कविता की आखिरी चार पंक्तियों का हिन्‍दी अनुवाद सुनता हूँ--तुम्हारे शिष्यों ने तुम्हें धोखा दिया है! आइजेनबर्गर उस कविता में मार्क्‍स से कह रहे हैं कि‍ तुम्हारे शिष्यों ने तुम्हें धोखा दिया है और तुम्हारे दुश्मन जैसे पहले थे वैसे आज भी हैं। दुश्मन वही है जो पूँजीवाद के समर्थक, संरक्षक हैं। मार्क्‍स थे तो उन पर तरह-तरह के आक्रमण हो रहे थे। अब मार्क्‍स नहीं हैं, मार्क्‍सवाद है, उस पर भी आक्रमण होता है। एक विचित्र स्थिति आप देख रहे हैं। यह सदी जो अभी शुरू हुई है, शुरू होने के साथ ही अमेरिका की एक पत्रिका, सम्‍भवतः न्यूयॉर्कर पत्रिका ने इक्‍कीसवीं सदी के बुद्धि‍जीवियों पर एक सर्वे करवाया था। कई तरह के लोगों ने उसमें लिखा। उनमें से कई लागों ने पूँजीवाद को ठीक से समझने के लिए मार्क्‍स की रचनाओं को पढ़ना जरूरी समझा। यही नहीं उसमें से अनेक ने कहा था कि इक्‍कीसवीं सदी पूँजीवाद की सदी है, उसमें मार्क्‍स की प्रासंगिकता है। चूँकि पूँजीवाद को समझना जरूरी होता है, इसलिए मार्क्‍स प्रासंगिक हैं। इसलिए, सवाल उठ रहे हैं, तो वे मार्क्‍सवादी व्यक्तियों और संस्थाओं के आचरण से सवाल उठ रहे हैं। भारत में अभी ऐसे बुद्धि‍जीवी हैं, जो मानते हैं कि‍ सोवियत संघ में जो सरकार थी वह मार्क्‍स के अनुसार समाजवादी नहीं थी। एक उदाहरण दूँ कि‍ सोवियत संघ का हाल यह था कि अमेरिका की सत्ता भी उससे डरती थी। वह सत्ता एक कविता से डरती थी। एक उपन्यास से डरती थी। मार्क्‍स ने जिन कवियों, कविताओं, उपन्यासकारों, नाटककारों की तारीफ की है, उनमें से कोई मार्क्‍सवादी नहीं थे। लेकिन साहित्यकार का जो धर्म और कर्तव्य है वह सब उनमें व्यक्त हुआ है। चाहे वे शेक्सपीयर हों, गोएथे हों, होमर हों...सबकी रचनाएँ मार्क्‍स को बहुत पसन्‍द थीं। उनमें सरकारों की आलोचना थी। पर सोवियत संघ के जमाने में कोई सोवियत लेखक अगर सत्ता के विरुद्ध कुछ लिख दे तो उसका लेखन बन्‍द हो जाता था। उसका जीवन भी बन्‍द हो जाता था। इसलिए मार्क्‍सवाद की नि‍न्‍दा का कारण मार्क्‍सवादियों का आचरण है, पूँजीवाद का उतना बड़ा हमला नहीं। क्योंकि हमला उस पर उसके उद्भवकाल से ही हो रहा है। जब तक रहेगा तब तक होता रहेगा।
  • वाद विवाद से शुरू हुई हिन्दी की प्रारम्भिक आलोचना अपने शुरुआती दौर में भाषा साहित्य और समाज के मूल्य पर विचार करती थी। पर बीते तीन दशकों का साहित्यिक वाद-विवाद वैयक्तिक द्वेष कीचड़-उछाल, चरित्र-हनन की ओर उत्साहपूर्वक उन्मुख हुई है। आपकी राय में हिन्दी आलोचना अब कहाँ जा रही है?
  • मैं फिर कह रहा हूँ कि‍ हिन्दी आलोचना में केवल यही नहीं है। आज हमलोग भी तो आलोचना करते हैं। मेरी जो प्रवृत्ति है, जो रचना मुझे पसन्‍द नहीं आती, मैं उसके बारे में कुछ नहीं कहता। रचनाकार अपना कर रहे हैं, करें, वे स्वतन्‍त्र हैं। उनकी इस प्रवृत्ति से आलोचना का भविष्य तय नहीं होगा। अपनी ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने हेतु कुछ लोग स्थापित लेखकों पर राग-द्वेष से कीचड़ उछालने का काम करते हैं; पर उसे गम्‍भीरता लेने की जरूरत नहीं है।
  • इस वृत्ति‍ में कहीं पुरस्कार पाने का लोभ तो नहीं? हि‍न्‍दी आलोचना के लि‍ए पुरस्‍कार भी गि‍नती के ही हैं! हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद साहित्य अकादेमी ने भी आज तक कि‍सी आलोचक को पुरस्‍कृत नहीं कि‍या है!
  • मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने से कि‍सी आलोचक को पुरस्कार मिलता होगा। और याद कीजि‍ए कि‍ हजारीप्रसाद द्विवेदी को आलोचना के लिए कोई पुरस्कार नहीं मिला। आलोचना के लिए केवल दो लोगों को पुरस्कार मिला हैसन् 1965 में डॉ. नगेन्द्र को रस सिद्धान्‍त के लिए और सन् 1971 में नामवर सिंह को कवि‍ता के नए प्रति‍मान के लि‍ए। रामविलास शर्मा को भी जीवनी के लि‍ए पुरस्कार मिला था।
  • साहित्य और इतिहास दर्शन पर चिन्‍तन करते समय आपको साहित्य की साहित्यिकता बचाने के चक्कर में साहित्य की सामाजिकता खतरे में नजर आई। क्या ऐसा कोई सन्‍तुलन नहीं बनाया जा सकता, जिसमें साहित्यिकता भी बची रहे और सामाजिकता का भी निर्वाह हो?
  •  मैं तो यह समझता हूँ कि साहित्य की साहित्यिकता सामाजिकता से जुड़ी हुई है। जो साहित्य अधिक लोग पढ़े, अधिक लोग पसन्‍द करे, वही साहित्यिक रचना मानी जाएगी। पर वे तब ही पढ़ेंगे, जब उनको अपने समय, समाज, जीवन के बारे में वहाँ कुछ हासि‍ल हो। बहुत पहले आलोचक जेरेमी हाथर्न ने एक किताब लिखी--आइडेण्‍टिटी एण्ड रिलेशनशिप। उनका मूल विचार है कि रचना अपनी परम्‍परा से कितनी मिली-जुली है, अपने समय और समाज से कैसे जुड़ी हुई है, रचना में नया क्या है? रचना के ये सारे सम्‍बन्‍ध उसकी अस्मिता या पहचान तय करते हैं। साहित्यकता और सामाजिकता में कोई अन्‍तर्विरोध नहीं है। फर्क एक ही है कि‍ कुछ लोग साहित्यिकता पर, अर्थात् भाषा, शिल्प, बिम्ब, प्रतीक आदि पर ज्यादा जोर देते हैं और कुछ लोग श्रोता और पाठक समाज की चिन्‍ता करते हैं। हिन्‍दी के दो प्रगतिशील कवि हैंनागार्जुन और मुक्तिबोध। दोनों बड़े कवि हैं। नागार्जुन, मुक्तिबोध की तरह जटिल रचना के लेखक नहीं हैं। यह हो सकता है कि 'जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ' में उनको जनता की यही जिम्मेवारी महसूस होती हो कि जनता हमसे उम्मीद करती है कि हमारे जीवन के बारे में कुछ बताइए। जिसकी सोच ऐसी होगी वह मानकर चलेगा कि‍ ऐसा लिखना है जो लोग समझे। अब ऐसे लोग भी होते हैं जो मानते हैं कि‍ लोग समझें चाहे न समझें, हमारा काम है लिखना। जितनी कलाबाजी चाहें, करें। जाहिर है कि रचना जितनी कम सामाजिक होगी, साहित्यिक भी उतनी ही कम होगी। मैं तो ऐसा नहीं मानता कि जो रचना सामाजिक नहीं होगी, वह कि‍सी सूरत में साहित्यिक होगी। हाँ, साहित्य का मतलब जो लोग हर हाल में नवीनता लाना समझते हैं, चाहे भाषा के रचाव में हो, शब्दों के चुनाव में हो, बिम्बों में हो, प्रयोग में हो, नवीनता लाना ही रचना में सब कुछ लाना हैख्‍ उनके लिए समस्या जरूर हो सकती है। बाकि लोगों को सामाजिकता और साहित्यिकता में कोई द्वैध नहीं दि‍खता। अब आप भक्तिकाल के पुराने कवियों को ही याद कीजिए--कबीर, सूर, तुलसी, मीराबाई...इन सबकी पीड़ा ही सामाजिक है, और इसलिए साहित्यिक है। इस साहित्यि‍कता और सामाजिकता का मसला हाल के दिनों में, अर्थत् या आधुनिक काल में पैदा हुआ है, पुराना नहीं है।
  • 'साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका' पुस्तक द्वारा आपने हिन्दी आलोचना की नई पद्धति को व्यवस्थित रूप दिया। पाठक जानना चाहते हैं कि इसकी क्या जरूरत थी, और इसके पल्लवन का आगे क्या हुआ?
  • जरूरत का मसला तो यह है कि साहित्य की दुनिया अब पुराने जमाने की तरह सरल, और सीधी नहीं रह गई। बहुत सारे कवि, उपन्यासकार तो ऐसे हैं जि‍नके लिखे के छपने की व्यवस्था ही नहीं हो पाई, उनके मरने के बाद पाण्डुलिपि पाई गई, या पाई जाएगी। अब किताब नहीं है, तो जीवनकाल में वह लेखक ही नहीं बन पाएगा। मतलब हुआ कि आधुनिक काल में साहित्यिक होने की स्‍थि‍ति‍ को बहुत दूर तक प्रकाशन भी तय करता था। प्रकाशकों को छापने, न छापने की सलाह देने वाले आलोचक भी बहुत दूर तक तय करते हैं। उस सलाकार की चि‍ढ़ और प्रसन्‍नता के अपने नि‍जी कारण होते हैं। यदि‍ आप कि‍सी विश्वविद्यालय से जुड़े हैं, तो कौन-सी रचना कोर्स में लगाई जाए, कौन नहीं; यह अध्यापक तय करते हैं। और, उस तय करने से रचना का महत्त्व घटता और बढ़ता है। लेखक की आय भी घटती-बढ़ती है। ये समस्याएँ पुराने साहित्यकारों के सामने नहीं थीं। इसीलिए आधुनिक साहित्य की सामाजिक-राजनीतिक जटिलता को समझने के लिए साहित्य के समाजशास्त्र की जरूरत है। इसलिए पश्चिम में इसका विकास बहुत समय पहले हुआ। पश्चिम में इसके विकास का इति‍हास दो सौ वर्षों का है। उसमें अनेक धाराएँ थीं, अनेक सिद्धान्‍त हैं और प्रवृत्तियाँ हैं, जिनका क्रमि‍क विकास हुआ। हिन्‍दी में संयोग से ऐसी किताब मैंने लिख दी, मुझे मालूम है कि‍ विश्वविद्यालयों में यह किताब बहुत लोकप्रिय है। पंजाब से लेकर नेपाल तक। एक बार मैं पटियाला विश्वविद्यालय गया था, वहां के पंजाबी के वि‍भागाध्‍यक्ष ने मुझसे कहा कि आपकी किताब के आधार पर हम पंजाबी में कोर्स भी चलाते हैं और रिसर्च भी कराते हैं। नेपाल गया तो वहाँ भी नेपाली के वि‍भागाध्‍यक्ष ने ऐसा ही कहा। लेकिन हि‍न्‍दी में इस प्रवृत्ति की ठीक से जाँच-परख नहीं हुई। ऐसी अपेक्षा नहीं है कि‍ सब लोग इसकी जय-जयकार करें, पर कमियाँ भी तो बताएँ कोई। एक कवि‍ को बि‍ना सोचे-समझे निन्‍दा करने की इच्‍छा हुई, तो केवल विधेयवादी साहित्य में समाजशास्त्र को याद करने लगे। अब उन लोगों को अनपढ़ भी कैसे कहूँ, काफी पढ़े-लिखे लोग हैं, वे यह नहीं जानते कि विधेयवाद के बाद से साहित्य के समाजशास्त्र का बहुत विकास हो चुका है। गोल्डमान, लि‍यो लावेन्‍थल, रेमण्ड विलियम्स, पीएरे बोर्दि‍ए तक बहुत विकास हुआ है। उस विकास पर ध्यान देने के बजाए उनकी रुचि‍ निंदा करने में है। अन्‍तर्वस्तु की चर्चा के साथ विधेयवाद की चिन्‍ता में लि‍प्‍त रहते हैं, बहुत सारे समाजशास्‍त्रि‍यों ने साहि‍त्‍य की कला की चर्चा की है, आप उसकी भी चर्चा कीजिए, पर वे नहीं करेंगे। इसलिए, इतनी लोकप्रियता के बावजूद सचाई है कि‍ मेरी इस किताब की कोई समीक्षा नहीं छपी। जब किताब आई थी, तो मुझे याद है कि‍ नामवर जी ने मुझसे कहा था कि आप ऐसी किताब क्यों लिखते हैं, जिसकी कोई समीक्षा करने को तैयार नहीं है, जिससे कहता हूँ, आलोचना में समीक्षा लिखने के लिए, वही कहता है कि मैं इस वि‍षय को ही नहीं जानता, समीक्षा कैसे करूँगा। तो मैंने कहा कि यह गलती तो मुझसे हो गई! अब इसके पल्लवन की दिशा में काम हो रहा है, जिसकी सूचना मैं देना चाहता हूँ। मैंने सोचा है कि जिन स्रोतों से साहित्य के समाजशास्त्र का विकास हुआ है, क्यों न उन स्रोतों की मूल सामग्री को भी अनुवाद के द्वारा हिन्‍दी में लाया जाए, उस दि‍शा में काम हो रहा है। तीन खण्‍डों में मैंने किताब तैयार करवाई है। पहला है संस्कृति का समाजशास्त्र, दूसरा है कला का समाजशास्त्र और तीसरा साहित्य का समाजशास्त्र। तीनों का अनुवाद हो रहा है। उम्मीद है कि इस वर्ष के अन्‍त तक हो जाएगा। इसके बाद उसकी भूमिका लिखकर प्रकाशन में देना होगा। फि‍र शायद कुछ लोग इस पर सोच-विचार करें।
  • मेरी जानकारी के अनुसार सम्‍भवतः आप अकेले ऐसे बड़े आलोचक हैं जिन्होंने साहित्य की लगभग सभी महत्त्वपूर्ण विधाओं पर सैद्धान्‍तिक और व्यवहारिक आलोचना भी की है। मध्यकाल से लेकर आधुनिकतम काल तक के साहित्य पर गम्भीरता से विचार किया है। अश्वघोष से लेकर सूरदास, दाराशुकोह तक, मुक्तिबोध, नागार्जुन से लेकर आलोक धन्वा, कुमार विकल तक पर विस्तार से विचार किया है। यहाँ तक कि नवीनतम पीढ़ी के रचनकारों और रचनाओं पर भी लगातार आपकी नजर बनी रहती है। अध्येताओं को जिज्ञासा है कि मैनेजर पाण्डेय के आलोचना-कर्म की केन्‍द्रीय विधा क्या है? केन्‍द्रीय रचनाकार कौन है? वे कहाँ रमते हैं?
  • देखिए, दो विधाओं को मैं ज्यादा पसन्‍द करता हूँ। एक तो कविता और दूसरा है उपन्यास। उसी पर अधिक लिखा है। उसी में मेरा मन भी रमता है। काव्‍यालोचन की परम्परा में हिन्दी में बहुत लोग हैं। कविता के आलोचक हजारीप्रसाद  द्विवेदी भी हैं, राम विलास जी भी हैं, नामवर सिंह भी हैं। उपन्यास की आलोचना का हिन्दी में ठीक से विकास नहीं हुआ है। मेरी समझ से जितना उपन्यास का विकास हुआ है, उतना उपन्यास की आलोचना का विकास नहीं हुआ है। कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण लेख लिखे गए हैं। तो इसलिए मैंने उपन्यास की आलोचना में सिद्धान्‍त और व्यवहार दोनों पर काम किया है। मुझे प्रसन्नता है कि हिन्दी ही नहीं, हिन्दी के बाहर के लोगों ने भी उसके महत्त्व को स्वीकार किया है। एक उदाहरण है--मेरा एक लेख है--उपन्यास और लोकतन्‍त्र। इसी शीर्षक से बाद में किताब भी आई। जब यह लेख पहल में छपा, तो मराठी के महत्त्वपूर्ण लेखक रंगनाथ पठारे ने ज्ञानरंजन से इच्छा जाहिर की कि इस लेख का मैं मराठी में अनुवाद करना चाहता हूँ। मुझे अनुमति दि‍ला दीजिए। ज्ञानरंजन ने मुझे फोन किया तो मैंने कहा कि यह सुनकर मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है, इसमें अनुमति की क्या जरूरत है, वे अनुवाद करें। उसके बाद पठारे जी का पत्र आया, कि लेखक की लिखित अनुमति के बाद ही ‍हमारे यहाँ अनुवाद करने की परम्परा है, इसलिए आप कृपाकर एक पोस्टकार्ड पर ही सही, लिखि‍त अनुमति दे दीजिए, मैंने दे दि‍या। उन्होंने अनुवाद किया, और मराठी की पत्रिका शब्दालय में वह लेख छपा। उसके बाद फि‍र बम्बई के एक मराठी प्रकाशक लोकसत्ताने उसकी बेहतरीन पुस्‍ति‍का प्रकाशि‍त की। तो इन्‍हीं दो विधाओंकविता और उपन्यास पर मैंने ज्यादा काम किया है। इन्‍हीं पर केन्‍द्रि‍त लेख हिन्दी के बाहर भीमराठी, ओड़िया, बांग्ला, तमिल, अंग्रेज़ी आदि‍ में अनूदि‍त हुए हैं। थोड़े दि‍नों पहले भारतीय भाषा केन्‍द्र, जे.एन.यू. में तमिल के प्रोफेसर थे, नाचीमुत्ती, उन्‍होंने विभाग के एक समारोह में मुझसे सुब्रमण्‍यम भारती पर एक भाषण देने का आग्रह कि‍या। मैंने भाषण दिया, उनको इतना पसन्‍द आया कि उन्होंने कहा कि पूरा भाषण लिखकर दे दीजिए। लिख कर दे दिया, उन्होंने उसका तमिल में अनुवाद किया। तमिल में पर्याप्‍त विकसित आलोचना है, पर सुब्रमण्‍यम भारतीय को इस तरह किसी ने देखा हो, हमें याद नहीं है। लोगों ने उसे बहुत पसन्‍द कि‍या। 
  • जहाँ तक प्रि‍य रचनाकार का सवाल है, मुक्तिबोध और बाबा नागार्जुन पर काम करना था। देर सबेर अगर मौका मिला तो करूँगा। मेरी बहुत पुरानी योजना थी। एक-दो घटना के कारण वह वैसे ही रह गया। बाबा पर मैंने एक किताब शुरू की थी। सौ पेज तक करीब लिखा था। तभी मेरे पिताजी के साथ एक दुर्घटना हो गई, वे नहर में डूबकर मर गए और ऐसे समय में मुझे तार द्वारा उनकी मृत्‍यु की खबर मिली, जिस दिन इन्‍दिरा गाँधी की हत्या हुई थी। उसके बाद सिक्ख विरोधी दंगे शुरू हो गए। तो तीन-चार दिनों तक मैं घर में आग पर बैठे हुए की तरह दिल्ली में बेरसराय के घर में बैठा रहा। किसी ओर से जाने का रास्ता नहीं था। उसके बाद से तीन बार मैंने बाबा पर काम आगे बढ़ाने की कोशिश की। ज्यों ही शुरू करूँ कि‍ वे सारी घटनाएँ सामने आ जाए, फि‍र मुझे लगा कि अब यह नहीं होगा। बाद में लिखा जाएगा, तो उसे छोड़ दिया। अब मेरी योजना है कि पहला काम मुझे दाराशुकोह पर करना है, फिर इसके बाद बाबा पर। इसलिए कवियों में मेरे सबसे प्रिय कवि बाबा हैं और उपन्यासकारों में सबसे प्रिय उपन्यासकार प्रेमचन्‍द।.
  • मार्क्‍सवादी हिन्दी आलोचना को आगे बढ़ाने वाले अग्रगण्य आलोचकों में आपके नाम का शुमार होता है। विश्व साहित्य की चिन्‍तन-दृष्टि के सभी मानक, और वैज्ञानिक सोच के  समतुल्‍य हिन्दी आलोचना को समृद्ध करने का जो आपका प्रयास है, वह आपको एक बड़े आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित करता है। अब तक मार्क्‍सवादी हिन्दी आलोचना का साहित्य शास्त्र निर्मित हो सका क्या?
  •   देखि‍ए, साहित्य-शास्‍त्र निर्मित होने के लिए साहित्य सिद्धान्‍त में दिलचस्पी और प्रवृत्ति जरूरी है। हिन्दी की मार्क्‍सवादी आलोचना में यह प्रवृत्ति ही नहीं है। सैद्धान्‍तिक आलोचना रामविलास जी ने भी ज्यादा नहीं लिखी। नामवर सिंह तो सैद्धान्‍तिक आलोचना को आलोचना मानते ही नहीं, तो वे कैसे लिखेंगे? जब पश्चिम में एक-से-एक बड़े सिद्धान्‍त निर्मित करने वाले लोग हैं--जॉर्ज लुकाच, वाल्टर बैंजामिन, रैमण्ड विलियम्स...इन सब ने  सिद्धान्‍त में भी काम किया है, व्यवहार में भी। हिन्‍दी में कोई मार्क्‍सवादी साहित्य-शास्त्र इसलिए विकसित नहीं हुआ कि लोगों ने कोशिश नहीं की। मार्क्‍सवादियों में थोड़ी बहुत कोशिश मुक्तिबोध ने की है। उनके बाद थोड़ा-थोड़ा मैंने भी कुछ किया है। पर मार्क्‍सवादी साहित्य-शास्त्र के निर्माण हेतु यह पर्याप्‍त नहीं है। वैसे हिन्दी में साहित्य शास्त्र की दिशा में काम करने वाले सबसे बडे़ आलोचक रामचन्‍द्र शुक्ल थे। जो लोग उनका गुणगान करते हैं वे भी साहित्य शास्त्र वाली चर्चा कम ही करते हैं। लेकिन सिद्धान्‍त और व्यवहार की एकता का जैसा उत्तम और उदात्त उदाहरण रामचन्‍द्र शुक्ल के यहाँ है वैसा किसी के पास आज तक मैंने हिन्‍दी में नहीं देखा है। फिर भी आज तक हिन्‍दी आलोचना चल रही है। तुलना करने के बावजूद चलती रहेगी। हम यही मानते हैं। कौन जाने आगे कोई ऐसा आदमी आए, जो इस दिशा में थोड़ी कोशिश करे।
  • समकालीन साहित्य चिन्‍तन पर विचार करने के लिए इस समय अनुवाद अध्ययन पर विचार करना अनिवार्य उपक्रम है। आपके समकालीन एवं पूर्वज बहुत सारे लेखक हुए, जिन्होंने पर्याप्‍त अनुराग से अनुवाद कार्य किया है। जाहिर है अनुवाद के प्रति उन्‍हें वि‍शेष रुचि‍ रही होगी। पर साहित्य-चिन्‍तन के रूप में भारतीय अनुवाद परम्‍परा लोगों की नज़र नहीं के बराबर गई। तथ्‍य है कि 1960-62 के आस-पास डॉ. नगेन्द्र के प्रयास से दिल्ली वि‍श्‍ववि‍द्यालय में शुरू किया गया अनुवाद सम्‍बन्‍धी अंशकालीन पाठ्यक्रम भारतीय अनुवाद अध्ययन की परम्‍परा को पश्चिम के वि‍श्‍ववि‍द्यालयों में शुरू हुए अनुवाद अध्ययन  के समकक्ष लाता है। आप उन गिने-चुने चिन्‍तकों में से हैं जिन्होंने भारत की राष्ट्रीयता को ध्यान में रखकर इस दिशा में गम्‍भीरतापूर्वक विचार किया। कि‍न्‍तु आपके ये सारे चि‍न्‍तन भाषणों तक ही सीमि‍त, जो शायद ही कहीं सुरक्षि‍त हो। इस दि‍शा में उन्‍मुख हाने की प्रेरणा आपको कि‍स तरह मि‍ली? और यदि‍ समकालीन साहित्य चिन्‍तन के लिए आपको भारतीय अनुवाद परम्‍परा इतना अनिवार्य लगता रहा, तो अब तक आपने इस पर कुछ लिखा क्यों नहीं?
  • जहाँ तक अनुवाद के बारे में ध्यान देने, सोचने की बात है, मैं मानता हूँ कि हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल बहुत हद तक अनुवाद से जुड़ा हुआ है। स्वयं भारतेन्दु हरिश्चन्‍द्र एक बड़े अनुवादक थे। उन्होंने अंग्रेजी से मर्चेण्‍ट ऑफ वेनिस का अनुवाद दुर्लभ बन्धु शीर्षक से कि‍या। बांग्ला और संस्कृत से भी काफी अनुवद कि‍या। इसके आगे आपको याद होगा कि‍ साहित्य चिन्‍तन के प्रसंग में बहुत पहले वात्स्यायन जी ने टी. एस. ईलियट के ट्रेडिशन एण्‍ड इण्‍डीवीजुअल टैलेण्‍ट का अनुवाद किया। परम्परा और रूढ़ि‍ या रूढ़ि‍ और मौलिकता कुछ ऐसा ही शीर्षक है, जो ईलियट के उसी निबन्‍ध का अनुवाद है, बीच-बीच में उन्होंने अपनी ओर से कुछ जोड़ा भी है। यह कुछ वैसा ही है जैसा आचार्य शुक्‍ल ने कार्डि‍नल न्यूमैन के नि‍बन्‍ध का अनुवाद किया और उदाहरण हिन्दी एवं संस्कृत से लेते गए। इस तरह आलोचना, नाटक, कविता आदि‍ में अनुवाद बहुत काम आया। उन सब के पूरे परिप्रेक्ष्य में कभी गम्‍भीरता से हिन्‍दी में विचार हुआ नहीं। आपका कहना सही है। मैंने अनुवाद का थोड़ा काम भी किया है। कोई कविता पसन्‍द आती है तो अनुवाद करता हूँ। मैंने पोलैण्ड की कुछ कविताओं का अनुवाद किया है। द्वारिका प्रसाद चारुमित्र की पत्रिका अनभै साँचा के दो अंकों में सारे अनुवाद छपे थे। अमेरिकी कवयि‍त्री मार्गी पि‍यरसी की कविता, एक अफगान कवयि‍त्री की कविता का अनुवाद किया। अभी नाइजीरिया के एक कवि, जिनको वहाँ की सरकार ने फाँसी दे दी, उनकी कविता का अनुवाद किया है। अनुवाद तो मैंने किया है, पर आपने कहा ठीक ही कहा कि मेरे अनुवाद-सम्‍बन्‍धी वि‍चार भाषण तक ही रह गए, अब अपनी कमी और कमजोरी यही कह सकता हूँ कि वह लिखा नहीं गया। कोई लि‍खनेवाला तैयार हो जाए, तो देर-सबेर अपने नोट्स ढूँढ़कर लिखवा सकता हूँ।
  • आचार्य रामचन्‍द्र शुक्ल, भारतेन्‍दु आदि‍ को पढ़ते हुए आपको अनुवाद-चिन्‍तन की प्रेरणा मि‍ली। उस दौर में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भी प्रभूत अनुवाद कार्य कि‍या। स्वाधीनता आन्‍दोलन के दौरान उन हिन्‍दी अनुवादों ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई। इस प्रसंग में आपके विचार लोग जानना चाहेंगे।
  • देखिए, स्वाधीनता आन्‍दोलन में अनुवाद ने कई काम किए। पहला काम तो यह था कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जॉन स्‍टुअर्ट मि‍ल की किताब का अनुवाद स्वाधीनता शीर्षक से किया। फलस्‍वरूप लोगों ने भारतीय स्वाधीनता के परिप्रेक्ष्य में स्वतन्‍त्रता का सैद्धान्‍तिक महत्त्व समझा। दूसरा काम यह हुआ कि बांग्ला के लेखक सखाराम गणेश देउस्‍कर ने बांग्ला में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण किताब लिखी, सन् 1904 में देशेर कथा। माधव प्रसाद मिश्र ने सन् 1908 में देश की बात शीर्षक उसका हिन्‍दी अनुवाद करवाया।  उस जमाने में एक परम्‍परा थी कि कुछ पत्रिका जिन किताबों को महत्त्वपूर्ण समझती थी, पाठकों को पत्रिका के साथ-साथ वह किताब भी मुफ्त में भेजती थी। बम्बई की एक पत्रिका ने यह किताब देश की बात बहुत लोगों को मुफ्त में भेजी। सत्यभक्‍त नामक एक देशभक्‍त ने उस किताब के बारे में एक इंटरव्यू दिया है कि‍ मैं यह किताब पढ़कर ही देशभक्त बना हूँ। अर्थात् देउस्कर की इस किताब के हिन्‍दी अनुवाद से दो काम एक साथ हुए। एक तो स्वाधीनता आन्‍दोलन की चेतना अखिल भारतीय बनी। बांग्ला और हिन्‍दी दोनों एक साथ जुट गए। किताब मूलतः बांग्ला की है, यह बात सब जानते थे, पर सब पढ़ रहे थे हिन्‍दी में। इससे एक अखिल भारतीय चेतना पैदा हुई। दूसरे अनुवाद के ही माध्यम से अंग्रेजी राज के शोषण की कहानी लोगों को मालूम हुई। व्यक्तिगत अनुभव तो बहुतों को था। पर व्यक्तिगत अनुभव से ज्ञान अधिक प्रभावकारी होता है, जो इस किताब के अनुवाद के माध्‍यम से हुआ। उसी की प्रेरणा से हिन्दी के लेखक देवनारायण द्विवेदी ने देश की बात शीर्षक से एक किताब लिखी और उस विचार परम्‍परा को आगे बढ़ाया। इसके अलावा अनुवाद के जरि‍ए एक और काम हुआ। थोड़ी देर पहले हमलोग साहित्य के प्रसंग में बात कर रहे थे। हिन्‍दी में उपन्यास का विकास अनुवाद के माध्यम से ही हुआ। बांग्ला के उपन्यासों का हिन्‍दी में बड़े पैमाने पर अनुवाद हुआ। और तो और, हिन्‍दी के एक बड़े लेखक प्रतापनारायण मिश्र ने बंकिम के अधिकांश उपन्यासों का अनुवाद किया। उन दिनों वे खड्गविलास प्रेस के मालिक के साथ पटना में रहते थे और वहीं अनुवाद करते थे, और वह छपता था। इसलिए अनुवाद के जरिए विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य में नई प्रवृत्तियों, रचना की विधाओं आदि का आवागमन हुआ। अखिल भारतीय चेतना का निर्माण और विकास भी हुआ। उसमें आचार्य रामचन्‍द्र शुक्ल द्वारा अर्न्स्ट हैकल की किताब दी रीडल्स ऑफ यूनिवर्स का विश्व प्रपंच शीर्षक से हि‍न्‍दी अनुवाद एक महत्त्‍वपूर्ण उपक्रम है। यह विज्ञान की किताब है। ज्ञान की दिशा में विस्तार और विकास का यह बड़ा प्रयास था।
  • मुगल शासन के दौरान भारत में विभिन्न तरह की कृति‍यो का अनुवाद बड़े पैमाने पर हुआ, भारतीय समाज और शासन व्यवस्था पर उसका असर किस तरह पड़ा?
  • मुगलकाल में सबसे व्यवस्थित अनुवाद का काम शुरू करवाया अकबर ने। फारसी में रामायण-महाभारत का अनुवाद करवाया। कई ग्रन्‍थों के अनुवाद हुए, यह काम बड़े पैमाने पर आगे भी चलता रहा। अकबर ने तो अनुवाद का विभाग खोल रखा था। वे स्वयं उसकी देख-रेख करते थे। उसमें एक अनुवादक थे अब्दुल कादिर बदायूनी। रामायण का अनुवाद उनको सौंपा गया था, वे संस्कृत एवं फारसी के बहुत बड़े जानकार थे। उन्‍होंने अनुवाद शुरू भी किया। बादशाह हुक्म  था, नहीं करने का सवाल नहीं था। पर मन से अनुवाद नहीं कर रहे थे। यह बात अकबर को रहीम ने बताई। रहीम स्‍वयं कई भाषाएँ जानते थे। फि‍र अकबर ने उन्हें बुलाकर खूब डाँटा। बल्कि सभ्य भाषा में धमकी और गाली-वाली भी दी। राहुल जी ने अकबर पर जो किताब लिखी, उसमें लिखा है कि उन्‍होंने कहा कि‍ हरामखोर हो तुम। पैसे लेते हो, काम तो ठीक से करो। तुम अपने ज्ञान का उपयोग करो। अगली पीढ़ियाँ याद रखेंगी। तुम इस फेर में क्‍यों पड़े हो कि ये इस्लाम के पक्ष में है कि विरोध में। व्यक्तिगत स्‍तर पर मुगलकाल के सबसे बड़े अनुवादक हैं-- दाराशुकोह। उन्‍होंने अनुवाद के दो काम किए। एक तो स्वयं उन्‍होंने फारसी की किताब लिखी थीमज्‍म-उल-बहरैन। उनकी राय यह थी कि इस्लाम-हिन्दू दोनों दो समुद्र की तरह हैं। दो महासागर का मिलन होना चाहिए। साल डेढ़ साल बाद ही उन्‍होंने अपनी किताब का समुद्र संगम शीर्षक से संस्कृत में अनुवाद किया। आगे चलकर उन्‍होंने जो सबसे बड़ा उसका काम कि‍या, वह है बाबन उपनिषदों का फारसी में अनुवाद। उसका नाम रखा सि‍र्रे अकबर। सि‍र्रे अकबर शब्द का मतलब होता है द ग्रेट सेक्रेटअर्थात् महान रहस्‍य। उस अनुवाद का असर पूरे यूरोप पर पड़ा। क्योंकि अठारहवी सदी के आसपास एक फ्रांसीसी ने सि‍र्रे अकबर की पाण्‍डुलिपि देखी। वह बड़ा भारी अनुवादक था। उसके पहले उसने ईरान के महान ग्रन्‍थ अवेस्‍ता का अनुवाद किया था। सि‍र्रे अकबर का अनुवाद उन्होंने दो भाषाओं में किया--लैटिन और फ्रेंच में। सि‍र्रे अकबर का लैटिन अनुवाद यूरोप में सन् 1801 में छपा। उसे पढ़कर पूरे यूरोप के महान दार्शनिकों ने और अमेरिका के भी सोपेन हावर, इमरसन आदि‍ को उपनिषदों के दर्शन का ज्ञान हुआ। मैं तो व्यक्तिगतरूप से मानता हूँ कि दाराशुकोह भारतीय धर्म, संस्कृति‍ और दर्शन को यूरोप तक ले जाने वाले राजदूत की तरह थे। इस तरह मुगलकाल में बहुत अनुवाद हुए। औरंगजेब के जमाने तक भी होता रहा।
  • अपने जीवन का लगभग पाँच दशक हि‍न्‍दी आलोचना को देने के बाद इस समय अपने अनुवर्ती आलोचकों के लि‍ए आप क्‍या कहना चाहेंगे?
  • आजकल कोई भी लेखक या आलोचक दूसरों की राय न सुनना चाहता है, न मानना चाहता है, इसलि‍ए नई पीढ़ी के आलोचकों को मैं कोई उपदेश या सन्‍देश देना ठीक नहीं समझता। नई पीढ़ी के आलोचकों को मेरे आलोचनात्‍मक लेखन से कोई संकेत, सुझाव या मार्ग मि‍लता है, तो मैं उसका स्‍वागत करूँगा।

Sunday, July 17, 2016

महाकवि‍ वि‍द्यापति‍ एवं सूरदास का तुलनात्‍मक अध्‍ययन Comparative Study of Mahakavi Vidyapati and Surdas



इति‍हास के हर दौर में जनभाषा के प्रति अनुराग मनुष्‍य के मानवीय और सांस्‍कृति‍क सरोकार का सूचक होता आया है। भारतीय साहि‍त्‍य के दो महाकवि--विद्यापति एवं सूरदास--के जनभाषा-प्रेम को इस दृष्‍टि‍ से देखने का वि‍शेष प्रयोजन है। इन दोनो महाकवि‍यों ने अपने रचना-सन्‍धान से 'देसि‍ल वयना सब जन मि‍ट्ठा' का सन्‍देश पूर्ण कर दि‍खाया। दोनो में से कि‍सी ने कोई महाकाव्य नहीं लिखा, पर जन-जन के होठों पर ये 'महाकवि' सम्‍बोधन से समादृत होते रहे। दोनो ऐसे कालदर्शी रचनाकार हैं जि‍नकी लोकप्रि‍यता का आधार जनभाषा में रचि‍त उनके वे पद हैं, जो खेतों-खलि‍हानों से वि‍श्‍ववि‍द्यालयों एवं शोध-संस्‍थानों तक समान रूप से समादृत हैं। भाषा, वस्‍तु एवं शैली की सहजता के कारण ही उनकी रचनाओं का प्रभाव कई-कई महाकाव्यों पर भारी पड़ता रहा है, अपने रचनात्‍मक सरोकारों से वे जन-जन के महाकवि बने रहे हैं। यहाँ दोनों के रचनात्मक अवदान पर एक साथ विचार करना अभीष्ट है।    
पर्याप्त तर्क-वितर्क के बाद सुनिश्चित हुआ है कि महाकवि विद्यापति का जन्म मिथिला के बिस्फीगाँव में हुआ। सन् 1350-1360 के बीच उनका जन्म और सन् 1438-1448 के बीच निधन माना जाता है। उनके पिता का नाम गणपति ठाकुर तथा माँ का नाम गंगा देवी था। इसी तरह अनुमान किया जाता है कि महाकवि सूरदास का जन्म सन् 1478 तथा निधन सन् 1563 के आस-पास हुआ। यूँ भक्तमाल और चौरासी वैष्णवन की वार्ता, आईने अकबरी एवं मुंशियात अब्बुल फजल आदि के सहारे और जनुश्रुतियों के आधार पर सूरदास से सम्बद्ध जानकारी बटोरने में बेशुमार दिमागी कसरत करनी पड़ती है।
जाहिर है कि उम्र और रचना काल के आधार पर दोनों महाकवियों का कोई आमना-सामना नहीं हुआ। पर आज दोनों की साथ-साथ चर्चा का आधार उनकी रचनाओं का वि‍षय एवं शि‍ल्‍प-संस्‍कार ही है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जिन बारह पुस्तकों को आधार मानकर हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल को वीरगाथा कालकहा, उनमें सर्वाधि‍क प्रमाणिक और शुक्ल जी के तर्क को पुष्ट करने वाली पुस्तकें वि‍द्यापति‍ रचि‍त कीर्तिलता और कीर्तिपताका ही थीं, पर वि‍द्यापति‍ के लि‍ए वे एक अवतरण की जगह भी सुवि‍धा से नहीं बना पाए। तथ्‍य है कि‍ केवल पदावली के बूते अकेले विद्यापति हिन्दी के आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल के पूरे सन्‍दर्भ पर भारी पड़ते हैं; विचार के स्तर पर कुछ समय तक आधुनिक काल तक पर। वीर-काव्य, गाथा काव्य, शृंगार काव्य, भक्ति काव्य (शक्ति वन्दना, शिव वन्दना, गंगा स्तुति, विष्णु वन्दना आदि) सबकी उपस्थिति विद्यापति के रचना-संसार में मौजूद है। बावजूद इसके, इतिहासकारों के यहाँ विद्यापति फुटकल खाते में नजर आते हैं। बहरहाल...  
विश्वनाथ त्रिपाठी की राय में जयदेव का गीत गोविन्द, विद्यापति की पदावली और सूरदास का सूरसागर एक ही कोटि की रचनाएँ हैं, जिनमें भक्ति का आधार शृंगार है।सचाई भी है कि‍ ब्रजभाषा में लिखे जाने के बावजूद, विद्यापति पदावली के सौ-सवा सौ वर्ष बाद सूर के पद, उस परम्परा के विकसित और परिवर्द्धित रूप हैं। कुछ स्थानों पर तो परम्परा में कुछ नई कोपलें भी जुड़ी हैं। प्रेम और भक्ति--ये दो तत्त्‍व इन दोनों महाकवियों की इन रचनाओं के प्राण-तत्त्‍व हैं।
सूरदास ब्रजभाषा के पहले प्रतिष्ठित कवि हैं। विद्यापति पदावली की भाँति उनके पद भी गेय हैं और वे मुक्तक हैं। पर उनमें प्रबन्धात्मकता का रस इतना प्रबल है कि उसे लीलापद भी कहा जाता है। विश्वनाथ त्रिपाठी का कहना है, ‘‘उनकी भाषा में साहित्यिकता के साथ चलतापन एवं प्रवाह भी है। कहीं-कहीं वे गीत गोविन्द के वर्णनानुप्रास की शैली भी अपना लेते हैं। उनकी कविता में लोक-साहित्य की सरलता ही नहीं, काव्य की परम्परा से सुपरिचित रूढ़ियों का उपयोग भी है। सूर की एक अन्य विशेषता नवीन प्रसंगों की उद्भावना है। उन्होंने कृष्ण-कथा, विशेषतः बाल-लीला और प्रेम-लीला के अंशों को नवीन मनोरंजन वृत्तों से भर दिया है, जैसे दानलीला, मान लीला, चीरहरण आदि (हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास/पृ. 42)’’ विद्यापति पदावली के गीतों की गेयधर्मिता, उसके मुक्तक होने के बावजूद उसमें मौजूद प्रबन्धात्मकता, गीतों में सुपरिचित और रूढ़ उपमानों के उपयोग, लोक-साहित्य की सरलता और सहजता, विरह वर्णन में दैनन्दिन जीवन-प्रसंगों के चित्रण, मार्मिकता के आधार तत्त्‍व, विरहावस्था में हृदय की नानावृत्तियों के चित्रण...जिस तरह घनीभूत हैं, सूर के यहाँ ये सारे तत्त्‍व इसी रूप में मौजूद दिखते हैं। दोनों के यहाँ विरह-वर्णन की जीवन्तता देखते ही बनती है। गोपियों की व्याकुलता, निरीहता, विवशता, धीरज के बावजूद बेचैनी, मिलन की उत्कण्ठा...अपनी प्रखर छवियों में व्यक्त हुई है।
विद्यापति की राधा अपने प्रिय के सुमिरन में अपना ही स्वभाव भूल जाती है--
अनुखन माधव माधव सुमिरइत सुन्दरि भेलि मधाई
ओ निज भाव सुभावहि बिसरल अपने गुन लुबधाई।
...
दुहुँ दिसि दारुदहन जइसे दगधइ आकुल कीट परान
ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि कबि विद्यापति भान।
कृष्ण का स्मरण करते-करते राधा, कृष्ण रूप में हो जाती है और विरह में राधा-राधा रटने लगती है। फिर होश में आते ही कृष्ण-कृष्ण रटने लगती है। विरह की आग में झुलसती इस नायिका को कवि ने ऐसे अंकित किया है, जैसे लकड़ी के भीतर लगी हुई घुन का कीड़ा हो और लकड़ी की दोनों शिराओं में आग लगा दी गई हो।
सूरदास के श्याम की नायिका जब विरह व्यथा में होती है, तो वह भी ठीक इसी वजन पर विचलित होती हैं--  
जब राधे, तब ही मुख माधौ-माधौरटति रहै
जब माधौ ह्वै जाति सकल तनु राधा बिरह दहै।।
उभय अग्र दव दारुकीट ज्यों सीतलताहि चहै
सूरदास अति विकल बिरहनी कैसेहु सुखन लहै।।
शृंगारिक पदों के अलावा भी विद्यापति और सूर के यहाँ ऐसे साम्य हैं।...किम्बदन्ती है कि‍ सूरदास जन्मान्ध थे। ऐसा भी कहा जाता है कि उन्‍होंने कृष्णभक्ति‍ में तीव्र अन्‍तर्द्वन्‍द्व के किसी क्षण में...अपनी आँखें फोड़ ली थीं। स्वयं भी उन्होंने खुद को जन्म को आन्धरकहा। किन्तु शब्दार्थ से किसी बड़े कवि की व्यंजना स्पष्ट नहीं होती। जन्म को आन्धरकहने का अभिप्राय खुद को अज्ञानी रूप में प्रस्तुत करना है। उनके काव्य में चित्रि‍त जीवन और प्रकृति की छवि‍यों के विश्लेषण से कोई अल्पबुद्धि भी कहेगा कि वे जन्मान्ध नहीं रहे होंगे। वे भक्ति, वात्सल्य और शृंगार के कवि हैं। जो विद्यापति भी हैं। विषय विस्तार यद्यपि सूर के यहाँ विद्यापति की तरह फैला नहीं है। पर विद्यापति-साहित्य की कई बातें सूर के यहाँ स्पष्टतः दिखती हैं। दोनों महाकवियों के वैचारिक वैशिष्ट्य का केन्द्र लोकसत्तामें, ‘जन-जनमें समाहित है। दोनों की रचनाओं में लोकहितऔर लोक-मन रंजनकी भावना प्रबल हैं। विषय में कहीं-कुछ जो भिन्नता दिखती है, उसका कारण दोनों कवियों में सौ-सवा सौ वर्षों का अन्तराल, दोनों के ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक, पारिवारिक परिवेश; और दायित्वजन्य स्थितियों के अन्तर भी हो सकते हैं। पर समानता की स्थिति तलाशने पर स्पष्ट दिखता है कि दोनों कवि लोकके प्रति एक जैसे अनुरक्त थे। विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार सूरदास के पहले ब्रजभाषा में काव्य-रचना की परम्परा तो मिल जाती है, किन्तु भाषा की यह प्रौढ़ता, चलतापन और काव्य का यह उत्कर्ष नहीं मिलता। ऐसा लगता है कि सूर ब्रजाभाषा काव्य के प्रवर्तक न हों, किसी परम्परा के चरमोत्कर्ष हों। शुक्ल जी ने सूर को एक ओर जयदेव, चण्डीदास और विद्यापति की परम्परा से जोड़ा है, दूसरी ओर लोकगीतों की परम्परा से। विद्यापति और सूरदास में जो निरीहता, तन्मयता मिलती है, अनुभूतियों को जिस प्रकार बाह्य प्रकृति के ताने-बाने में बुना गया है, वह लोक गीतों की विशेषता है। लोकगीतों में अभिव्यक्ति इतनी निश्छल होती है कि वह शास्‍त्रीयता और सामाजिक विधि-निषेध की मर्यादा का निर्वाह नहीं कर सकती (हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास/पृ. 39)
दोनों के यहाँ ऐसी समानता लोकसत्ता में कवि की आस्था का परिचायक है। कबीर और तुलसी जैसे महान मध्यकालीन कवियों की सामाजिक चेतना अत्यन्त प्रखर थी। किन्तु उनके स्‍त्री सम्बन्धी विचारों पर, प्रतीक अर्थों में ही सही, पर उस युग की स्पष्ट छाप है। कबीर स्‍त्री को बुराइयों और अवगुणों की जड़ समझते हैं, उसे नरक का कुण्ड समझते हैं। तुलसी स्‍त्री की पराधीनता को असह्य मानते हुए भी उसकी स्वतन्‍त्रता पसन्द नहीं करते, उसे पुरुष सत्ता के अधीन रखना पसन्द करते हैं। जबकि उन दोनों प्रखर चेतना वाले कवियों से बहुत पहले विद्यापति के यहाँ स्‍त्री सम्बन्धी धारणाओं का खुलासा हुआ है। स्‍त्री जीवन की पीड़ा के चित्रण से स्‍पष्‍ट है कि विद्यापति स्‍त्री स्वातन्त्र्य के हिमायती थे। उल्लेखनीय है कि प्रेम सारे बन्धनों से परे होता है। प्रेम करने, और प्रेम का साहित्य रचने, दोनो ही स्‍थि‍ति‍यों में बन्धन स्वीकार्य नहीं होता, वहाँ प्राणी निर्बन्ध होता है, वर्जनाओं का विरोधी होता है, स्वतन्‍त्रता और उन्मुक्तता का हिमायती होता है। प्रेम ऐसा मनोव्यापार है जो स्वयं प्रेमी-प्रेमिका तक को मुक्त करता है। यह प्राणी को मुक्त और पूर्ण करता है। सूर और विद्यापति के सारे प्रेमपरक पद इसके प्रमाण हैं। जिसे कबीर ने कहा ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पण्डित होई’, उसे सूर और विद्यापति के पद के हवाले से कहा जा सकता है कि प्रेम जब हो जाता है, तो प्राणी, तर्क, बुद्धि, साहस, पराक्रमसारे उनक्रमों से अपने बन्धनों को उतार फेंकता है।  
काव्य-शास्त्र के हवाले से प्रो. मैनेजर पाण्डेय सूर-काव्य में दस विरह-दशाओं--अभिलाषा, चिन्ता, स्मरण, गुण कथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मूर्छाकी उपस्‍थि‍ति‍ का उल्लेख करते हैं। विद्यापति पदावली में भी इन सभी स्थितियों का अत्‍यन्‍त मार्मिक चित्र दिखता है। विद्यापति की गोपियों की आँखें पूरे जन्म तक रूप निहारती हुई भी तृप्त नहीं होतीं, गोपियाँ तरह-तरह के मिलन के सपने देखतीं, ऊधो को मध्यस्थ कर भावनाओं का आदान-प्रदान करतीं; उधर सूर की गोपियाँ भी ऐसे ही करती हैं। उनके यहाँ तो आँखों को पूरा का पूरा व्यक्तित्व भी मिल जाता है। गोपियों के नेत्र रसलम्पट हैं, कृष्ण के रूप रस पान से अतृप्त हैं, सौन्दर्य लोलुप हैं, लालची हैं और कृष्ण के अभाव में व्याकुल और दीन हैं। गोपियों के नेत्र कृष्ण के वियोग में दुखी, बेचैन और व्यथित हैं। गोपियों के मन की सारी विकलता, विह्वलता, उद्विग्नता, चिन्ता, आशा-निराशा इन नेत्रों के माध्यम से ही व्यक्त हुई है (भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य/पृ. 198)विद्यापति एवं सूर के यहाँ आँखों की अद्भुत छटा है। विद्यापति की नायिका की आँखें हैं--लोचन जुगल भृंग अकारे/मधुक मातल उड़ए न पारे। सूर के यहाँ भी आँखों की ऐसी छवियाँ कई जगह हैं। विद्यापति के यहाँ ये आँखें नायिका की हैं,पर  सूर के यहाँ नायक की
मनहुँ कंज ऊपर बैठे अलि/उड़ि न सकत मकरन्द लोभाने
या फिर
मनहुँ कमल सम्पुट नहँ बीधे/उड़ि न सकत चंचल अलिबारे
विद्यापति की नायिका की आँखें काफी चंचल हैं--चकित चकोर जोर विधि बाँधल/केवल काजर पासा
सूर कहते हैं--अंजन गुन अटके नातरु अबही उड़ जाते।
साथ-साथ चर्चा करने पर, विद्यापति और सूरदास में कई बार तो रस, शब्द, भाव, अलंकार के साथ-साथ पंक्ति तक समतुल्य लगने लगते हैं।
विद्यापति कहते हैं--
चंचल लोचन, बाँक निहारए, अंजन शोभा पाय
जनि इन्दीवर, पवने पेलल, अलि भरे उलटाय।
इसी बात को सूर कहते हैं:
चंचल लोचन, बंक निहारनि, खंजन शोभा ताय
जनु इन्दीवर, पवने ठेलल, अलि भरे उलटाय।
चि‍त्रण का ऐसा साम्‍य दोनों महाकवियों की सम्वेदनशीलता एवं जीवन-दृष्टि के ऐक्‍य के द्योतक हैं। दोनों के यहाँ चित्रांकन-कौशल समान और श्रेष्ठ हैं। सूरदास ने भी विद्यापति की भाँति स्वप्न-दर्शन में गोपियों के विरह की व्यंजना की है। विरहाकुल गोपियों के मन में बसी कृष्ण की प्रेममूर्ति है, स्वप्न में आ जाती है। नीन्द टूट जाने के कारण संयोग-कामना से पुलकित हो रही सूर की गोपियों के स्वप्न की वह प्रेममूर्ति खण्डित हो जाती है; फिर विरह-व्यथा और बढ़ जाती है। ऐसा विद्यापति के यहाँ भ्‍ज्ञी हुआ है--  
सुतलि छलहुँ हम घरबा रे, गरबा मोतिहार
राति जखन भिनसबा रे पिया आएल हमार
केहेन अभागलि बैरिनी रे भाँगलि मोहि नीन्द
भल कए देखि नहिं पाओल रे पिय मुख अरविन्द
विद्यापति और सूरदास के पदों के साम्य पर अनेक उदाहरणों से लम्बी बातचीत की जा सकती है। दोनों के पदों की गीतात्मकता, लयात्मकता भाव के लिए मनोहारी है। आत्मानुभूति, भाव-घनत्व, भाव-ऐक्य, वैयक्तिकता, अनुभूति और अभिव्यक्ति की संक्षिप्तता, संगीतात्मकता--शब्द, स्वर और भाव का संगीत, कलात्मकता, अकृत्रिमता और रूप वैविध्य--गीतिकाव्य के सुविचारित और तर्क-सम्‍पोषि‍त प्रमुख तत्त्‍व माने गए हैं। इन दोनों कवियों के पदों में ये सारे तत्त्‍व अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ मौजूद हैं। सूर की रचनाशीलता पर आलोचकों को विद्यापति का स्‍पष्‍ट प्रभाव दिखता है, वहीं प्रो. मैनेजर पाण्डेय के अनुसार ‘‘सूरसागर के लीला विषयक पद गीतकाव्य के एक नवीन स्वरूप का उद्घाटन करते हैं। लीला के पदों में कथा-तत्त्‍व भी विद्यमान हैं और सघन अनुभूति भी। वास्तव में सूरदास को लीलागान की जो परम्परा जयदेव और विद्यापति से उपलब्ध हुई थी, उसकी मुख्य विशेषताएँ हैं: तीव्र भावानुभूति, मनोरागों के अनुकूल संगीत की राग-रागिनियों का प्रयोग, कृष्ण की ललित-लीलाओं की रसात्मक व्यंजना, भक्ति और शृंगार का समन्वय और कोमलकान्त पदावली (पृ. 266)’’
प्रो. पाण्डेय तो भ्रमरगीत को नारी की आकुल अन्तरात्मा और तीव्र सम्वेदनशीलता की शाश्वत कहानी मानते हैं (पृ. 200)। इन दोनो के पदों से स्‍पष्‍ट लक्षि‍त होता है कि वस्तुतः हमारे समाज में सामन्ती संस्कार की जड़ें इतनी गहराई तक जमी हुई हैं कि यहाँ प्रेम में भी पुरुष-सामन्तवाद घुसा नजर आता है। प्रेम का अर्थ सामान्य स्थितियों में नारियों और पुरुषों के लिए भिन्न है। नारी के लिए प्रेम का अर्थ सम्पूर्ण समर्पण है तो पुरुष के लिए सम्पूर्ण ग्रहण। अर्थात् स्‍त्री की त्याग-वृत्ति प्रेम है और पुरुष की लोभ-वृत्ति। प्रो. पाण्डेय के शब्दों में पुरुष द्वारा निर्मित प्रेम की आचार-संहिता का प्रतिफलन पुरुष की रस-लोलुप मधुप-वृत्ति में हुई है। पुरुषों ने अपने लोभ को प्रेम का नाम दिया, अपनी स्वार्थी मनोवृत्ति के सहारे नारी की समर्पण भावना और भावुकता का शोषण किया है। नारी की सुकुमारता, सौन्दर्य और यौवन-रस का उपयोग कर अन्त में उसे निरस समझकर त्याग देना पुरुष के लिए आम बात है। नित्य नवीन रस के आस्वादन में प्रवृत्त रसिक पुरुष नई मुग्धाओं को अपने सामान्योन्मुख लोभ का साधन बनाता है। पुरुष द्वारा भुक्त, परित्‍यक्त, रसरिक्त नारी के सामने रुदन और शिकायत के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है (पृ. 200)’’
विद्यापति और सूर के पदों में पुरुष की यही भ्रमर और स्वार्थी वृत्ति का प्रतिफलन तथा स्‍त्री की इसी व्याकुलता का चित्र अंकित है। राधा-कृष्ण लीला विषयक पदों में विद्यापति के यहाँ कृष्ण के मथुरागमन, गोपी विरह, कुब्जा के प्रति कृष्ण की अनुरक्ति, गोपियों की व्याकुलता, पुरुष की भ्रमर-वृत्ति इत्यादि के जो चित्र अंकित हुए, ब्रजभाषा में वे पहली बार सूरदास के यहाँ संगठित और सुगठित रूप में हैं। सूर से पहले ब्रजभाषा में भ्रमरगीत काव्य की ऐसी सुगठित छवि नहीं दिखती। दौत्य वृत्ति का जो स्वरूप विद्यापति के प्रेम पदों में दिखता है, वह सूर के यहाँ भी है। मजे की बात यह है कि इस वृत्ति में जो उद्धव उनके यहाँ हैं, वही उद्धव इनके यहाँ भी है। गुण-गायन और व्यथा-सन्देश--प्रेम के दौत्य कर्म में ये ही प्रमुख हैं। और ये दोनों तत्त्‍व दौत्य वृत्ति वाले पदों में विद्यापति और सूर--दोनों के यहाँ बहुत प्रखर रूप में हैं। सामान्यतया आज भी होता है कि प्रेमी का सखा या प्रेमिका की सखी द्वारा इस पुण्य-कर्म का निर्वाह होता है। दोनों पक्षों के रहस्यों को मात्र इन दोनों तक ही सीमित रखने वाले सखा को ही देवर और साली का आदर्श माना जा सकता है, जो दोनों में मिलन की उत्कण्ठा बढ़ाए, दोनों के प्रेम को और घना करे तथा विरह-सन्देश देकर इस अन्तराल को नष्ट करे। सूर और विद्यापति के काव्य इसके प्रबल उदाहरण हैं।
राधा-कृष्ण प्रेम वि‍षयक विद्यापति के पदों में संयोगावस्था की स्मृति, विरहावस्था की व्याकुलता व्यक्त करते समय नायक-नायिका की कई-कई छवियाँ अंकित हुई हैं। उनकी राधा कभी अनुरागवती किशोरी हैं, कभी प्रेममय युवती, असाधारण सुन्दरी, स्वकीया, कामिनी, मानिनी, वियोगिनी, प्रौढ़ा, अभिसार के लिए जुगत बैठाती चतुर सयानी, लाज और पारिवारिक बन्धन को तोड़ने के लिए व्यग्र विलासिनी, विरह में विक्षिप्त-व्यथित और नायक को हर तरह से समर्पित पुष्पांजलि, नायक को उपालम्भ और उलहना तथा उसकी स्वार्थी एवं रसिक वृत्ति पर उन्हें धिक्कारती हुई मान-मुग्धा, प्रेमरस दीवानी, और क्या-क्या हैं...इसी तरह भावानुभूतियों और स्थितियों की भी कई-कई मनोदशाएँ व्यक्त हुई हैं। वियोग की वेदना और प्रिय-प्रवास के दुखादि के चित्रण यहाँ भरे पड़े हैं। ये सारे तत्त्‍व मिलकर विद्यापति के पदों में कथात्मकता, पद-लालित्य और रागात्मकता कूट-कूट कर भरते हैं, जिससे उन पदों में वे सारे दृश्य जीवन्त और मूर्तिमान हो उठते हैं। सूर के सारे लीला-पद इन दशाओं से युक्तियुक्त हैं। नायिका के विरह वर्णन, नख शिख वर्णन, मनोदशा विवरण...सबमें सूरदास ने इन स्थितियों को लोकानुरंजकता से इस कदर भरा है कि वे विद्यापति के पदों के वजन पर ही लोक मनोहारी हैं। नायिका के देह-वर्णन में जहाँ विद्यापति कहते हैं--
पल्लवराज चरणयुग शोभित/गति गजराजक भाने
कनक कदलि पर सिंह सँवारल/तापर मेरु समाने
इसे सूरदास कहते हैं--
अद्भुत एक अनुपम बाग
जुगल कमल पर गजवर क्रीड़त/तापर सिंह करत अनुराग
नारी-देह को बगीचे के रूप में देखने की और स्‍त्री-अंगों के लिए सौन्दर्य के जो प्रतिमान जंगल के पशु-पक्षियों, ग्रह-नक्षत्रों, पेड़-पौधों, चाँद तारों से लेने की जो परम्परा विद्यापति ने शुरू की, सूर के यहाँ वे सब मूर्तिमान लग रहे हैं।
विद्यापति की नायिका के नाभि विवर से निकली हुई नागिन(रोमावली) उसके सुवासित साँसों की प्यास में ऊपर चलती है। पर नायिका की नाक को देखने पर उसे गरुड़ की चोंच समझकर डर के मारे पर्वतों(स्तनों) के सन्धिस्थल में छुप जाती है--
नाभि-विवर सँय लोभ लतावली/भुजग निसास पियासा
नासा खगपति चंचु भरम भय/कुच गिरि सन्धि निवासा
सूरदास की नायिका की शारीरिक दशा भी लगभग यही है--
नाभि परस लौं रस रोमावली, कुच-जुग बीच चली
मनहुँ विवर तें उरग रिंग्यो, तकि गिर की सन्धि-थली
विद्यापति की सद्यःस्नाता अपने स्तनों को भुजपाश में बाँध लेती है ताकि वह उड़ न सके--
ते संका भुज पासे/बाँधि धएल उड़ि जाएत अकासे
और सूरदास की नायिका आँचल से ढककर, दबाकर रखती है--
राखति ओटकोटि जतनन करि झाँपति आँचल झारि/खंजन मनहुँ उड़न को आतुर सकत न पंख पसारि
विद्यापति की राधा के बालों को देखकर चामरि पर्वत-कन्दरा में समा गई, मुँह देखकर शर्म से चाँद, आकाश भाग गया, आँख देखकर हरिण, स्वर सुनकर कोयल, चाल देखकर हथिनी जंगल चली गई। इधर सूरदास के नायक के शरीर को देखकर
कोऊ जल कोऊ वन में रहे, दुरि कोऊ गगन समाने
मुख निरखत ससि गयो अम्बर को तड़ित दसन छवि हेरो
विद्यापति की नायिका का नीबीबन्ध कृष्ण खोलते हैं--
नीबीबन्ध हरि किए कर दूर
और सूर के नायक यह काम धीरे-धीरे करते हैं--
नीबी खोलत धीरे जुदराई
विद्यापति के कृष्ण भी विहार करते हैं--
बिहरए, बिहरए नवल किशोर
सूर की राधा और कृष्ण दोनों--
नवल गोपाल नवेली राधा, नए प्रेम रस पागे
नव तरुवर बिहारि दोउ क्रीड़त, आपु-आपु अनुरागे
कामदंश की वेदना से व्याकुल विद्यापति की नायिका का सन्देश दूती द्वारा कृष्ण को पहुँचाया जाता है--
मदन भुजंग डस बालहि तोरी
और सूरदास की नायिका की दूती कहती है--
जो कारण तुम यह वन सोयव, सौतिन मदन भुअंगम खाई।
यहाँ तक कि विद्यापति के वजन पर सूर ने दृष्टिकूट वाले पद भी लिखे हैं--
सारंग नयन वयन पुनि सारंग सारंग तसु समधाने
सारंग उपर उगल दस सारंग केलि करथि मधुपाने    --विद्यापति
और,
सारंग सारंग धरहि मिलावहु
सारंग विनय करत सारंग सों, सारंग दुख बिसरावहु
सारंग समय दहत अति सारंग सारंग तिनहि दिखावहु
सारंग पति सारंग घर जैहें, सारंग जाइ मनावहुँ
सारंग चरन सुभगकर सारंग, सारंग नाम बुलाबहु     --सूरदास
श्लेष, यमक, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास, उपमा आदि अलंकारों की समानता तो दोनों की रचनाओं में है ही। बहुअर्थी शब्दों के सद्दोहन में और इस शैली के उपयोग में दोनों महाकवि समान रूप से उद्यमशील दिखते हैं।
सूरदास की रचनाधर्मिता की चर्चा जिस तरह विद्यापति की चर्चा के बिना पूरी नहीं हो सकती, उसी तरह विद्यापति की चर्चा भी सूरदास के बिना पूरी नहीं हो सकती। सूरदास ऐसे अकेले परवर्ती रचनाकार हैं जहाँ विद्यापति का प्रभाव सबसे ज्यादा और पूरे विश्वास के साथ मौजूद है। कई बार तो केवल भाषा का अन्तर दिखता है। ठीक इसी तरह विद्यापति भी ऐसे लगभग अकेले पूर्ववर्ती रचनाकार हैं जहाँ सूरदास की रचनाधर्मिता के स्रोत अधिकतम दिखते हैं। विषय बोध, भावबोध, लयबोध, ताल बोध, अनुभूति, संगीतात्मकता, छन्द, अलंकार, रूप रस आदि से इतना अधिक साम्य किन्हीं अन्य रचनाकारों के यहाँ दिखना दुर्लभ है।
गीतिमयता, सहज बोधता, शब्द सरलता, कथात्मकता, पदलालित्य और लोकजीवन की तात्त्‍वि‍कता इन दोनों के यहाँ इतना घनीभूत है कि यह कहने की मजबूरी आ जाती है कि इन पदों की रचना लोकजीवन के मार्मिक तन्तुओं को ध्यान में रखकर की गई है।
मजे की बात है कि दोनों भक्त कवि हैं, पर उनके लीला-पदों की संरचना में राधा-कृष्ण का चरित्र सामान्यतया अलौकिक रूप में नहीं दिखाया गया है। शुद्ध रूप से दोनों के नायक और नायिका गृहस्थ लगते हैं, सामाजिक और आस-पास के लगते हैं, इनके प्रेम, इनके संयोग, वियोग, मान, अभिसार, रूपासक्ति, प्रथम मिलन, रति विलास...सबके सब परम सामाजिक और परम पारिवारिक लगते हैं। विद्यापति के नायक-नायिका को प्रेम दुहु मुख हेरइत दुहु भेल भोरसे हुआ तो सूर के नायक-नायिका को राजपथ पर यात्रा करते हुए चलल राजपथ दुहु उद्झाईं। दोनों के यहाँ नायिका की लाज, संकोच, लुका छिपी...सब इहलौकिक हैं। यही कारण है कि आज भाषा और क्षेत्र की सीमा तोड़कर विद्यापति और सूरदास अपने लीला-पदों के साथ जन-जन के मस्तिष्क पर बसे हुए हैं। बुद्धिजीवियों के शोधग्रन्थों से लेकर टोले-मुहल्ले के लोकाचारों और सांस्कृतिक-सामाजिक अनुष्ठानों में, शिक्षित से अनपढ़ महिलाओं के कण्ठ में इनके पद बसे हुए हैं--संस्कार गीत के रूप में, लोकगीत के रूप में, भजन कीर्तन के रूप में, लोकोक्ति-मुहावरों के रूप में और अन्ततः जीवन-प्रक्रिया के रूप में। कह सकते हैं कि विद्यापति और सूरदास के लीला-पदों में लोक-जीवन की एक-एक धड़कन मौजूद है।

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