सांस्कृतिक राजनीति और अनुवाद
(भक्ति आन्दोलन के विशेष सन्दर्भ में)
Cultural Politics and Translation
(with special reference to the Bhakti Movement)
अनुवाद ज्ञान-प्रसार का माध्यम है। इसे समाज को सभ्य और कर्तव्यनिष्ठ बनाने का साधन बनना था। सांस्कृातिक समन्वय का संयोजक बनना था। जीवन-व्यवहार से भाषिक-द्रोह मिटाना था। वर्गीय भेद-भाव दूर करने का नेतृत्व करना था। समाज को राजनीतिक आखेटकों के ओछेपन से सावधान करते हुए संवाद स्थापित करना था। ...पर ऐसा हो न सका!...अनुवाद पूरी तरह धन्धा बन गया।
इस तरह अनुवाद के धन्धा बन जाने के दोषी अनुवादक नहीं हैं। अनुवाद-कर्म का संस्थानीकरण है। बीते दशकों में परवान चढ़ी बहुराष्ट्रीय वणिक-वृत्ति की आभा से भारतीय जन-चित्तवृत्ति में ऐसा सम्मोहन पैदा हुआ कि यहाँ जीव-संचालन की अनेक क्रियाएँ वाणिज्यिक हो गईं। शिक्षा, संस्कार, उपचार, पूजा, प्रचार...सब कुछ की ठीकेदारी होने लगी। अनुवाद इससे बचा नहीं सका। इस पुनीत कर्म को उद्योग बना देनेवाली संस्थाओं ने इसकी शुचिता को कलंकित कर दिया! मोल-भाव कर न्यूनतम अनुवाद-शुल्क पर अधिकतम अनुवाद करवाने की इनकी लालची वृत्ति ने भ्रष्ट अनुवाद को प्रश्रय दिया और अनुवाद का बाजारीकरण हो गया!...बाजार कोई निष्द्धि क्षेत्र नहीं है, निषिद्ध है उसकी नीतियाँ! अधिक मुनाफे के लालच में वह उपभोक्ता विरोधी हो गया है; अपनी वस्तुनिष्ठता से वह ग्राहकों को आकर्षित नहीं करता, लोक -लुभावन जुमलों से, विज्ञापनों से, किफायती मूल्य से...फुसलाता है, ठगता है। अनुवाद में यह ठगी ज्ञान-द्रोह के साथ-साथ जनद्रोह भी है। ऐसे दुष्कर्मियों के लिए आधिकारिक तौर पर जघन्य अपराधी जैसे दण्ड का प्रावधान होना चाहिए। गुणवत्ता और वस्तुनिष्ठता से समझौता करना जिस बाजार का स्वभाव हो चुका है, उस बाजार के प्रबन्धक तो यकीनन किसी सस्ते अनुवादक की ही तलाश करेंगे!...इन दिनों बाजार के संचालन में बेशक अनुवाद का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। अनुवाद के एकनिष्ठ सहयोग के बिना बाजार का प्रसार असम्भव है। पर यह बाजार की नीतियों के प्रसार में अनुवाद की भूमिका की बात है। अनुवाद की यह भूमिका तभी बेहतर होगी, जब अनुवाद बेहतर होगा। किन्तु होड़ लगाने में बाजार अपनी नैतिकता खो चुका है, बाजार की नीतियाँ अमरूद बेचने और अनुवाद बेचने में फर्क नहीं करतीं! क्योंकि उसके संचालकों को इन दोनों की वस्तुनिष्ठता सही समझ नहीं है; उन्हें अत्यधिक उपार्जन की समझ है। अनुवादकों को उपार्जन के फेरे में अपने अनुवाद-कर्म से समझौता नहीं करनी चाहिए! पर यह सैद्धान्तिक बात है। व्यावहारिक तौर पर होता है प्रतिकूल। क्योंकि अनुवाद के पवित्र आँगन में असंख्य धन्धेबाज उतर आए हैं! इस कारण अनुवाद अभिकरणों (एजेंसियों) की भरमार हो गई है। इन अति क्रियाशील अभिकरणों की पीठ पोछनेवाली सत्ता और सत्ता के चाटुकार बौद्धिक वर्ग की दुर्वृत्तियों के कारण इस आँगन की शुचिता नष्ट हुई है। वस्तुतः ये अनुवाद-द्रोही हैं, अनुवाद की महत्ता से बेखबर हैं...। इन्हीं सबके बीच कहीं वे स्वघोषित अनुवाद-चिन्तक भी हैं, जो ऊल-जुलूल वक्तव्यों से अनुवादकों पर अपना बौद्धिक आतंक पसारते रहते हैं। बात-बात पर एक सिद्धान्त गढ़ कर फेक देते हैं!
आज के संवेदनशील मौसम में अति प्रतिभाशाली लोग कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हो गए हैं। बात-बात में आहत हो जाते हैं! चोर को चोर कहना बेहतर है या पुलिस? धूर्त को धूर्त कहना बेहतर है या नैष्ठिक? गुण्डों को गुण्डा कहना बेहतर है या सभ्य? इसकी सुनिश्चिति वाचक नहीं कर सकते, वे ही बताएँगे कि उन्हें कब क्या कहा जाए? उनके अनुसार उनको सम्बोधन देने का आचरण वाचक में न हो, तो सावधान! वे कभी भी किसी भी जोखिम में पड़ सकते हैं। कई बार तो उन्हें मनुष्य कहना भी निरापद नहीं है। क्या पता वे खुद को मनुष्य कहलवाना पसन्द न करते हों, या मनुष्य कहे जाने पर उनके आका नाराज हो जाते हों, या उनकी उपलब्धिायों के सूत्र कमजोर पड़ जाएँ!
वाचक ने उन्हें उनके अनुसार सम्बोधन नहीं दिया, तो वे आहत हो जाएँगे। फिर बदला लेने के लिए वे वाचक के विचार की तह में नहीं जाएँगे। वाचक की जाति, धर्म, वंश, सम्प्रदाय, नैतिकता...पर शोध करेंगे, और फिर उनका जीवन दुर्वह कर देंगे। इस जगह धूमिल की कविता ‘भाषा की रात’ की पंक्ति हरदम याद रखनी चाहिए -- भाषा ठीक करने से पहले आदमी को ठीक कर
धूमिल को इस बात की बेहतरीन समझ थी कि आदमी का ठीक होना बेहद जरूरी है, क्योंकि ठीक आदमी ही ठीक भाषा का उपयोग की सकता है। यकीनन ठीक आदमी ही ठीक अनुवाद कर सकता है; जबकि अनुवाद की दुनिया से ठीक आदमी को विस्थापित कर गलत आदमी ने अपना घर सा लिया है!
धूमिल ने कह तो दिया कि --कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है।
पर यहाँ कविता का अर्थ सिर्फ कविता ही नहीं है, कविता के साथ-साथ सभी साहित्यिकक विधाएँ भी हैं; क्योंकि साहित्य स्वयं में अपने जनपदीय जीवन का अनुवाद है। इसलिए यहाँ कविता का अर्थ अनुवाद भी लिया जाना चाहिए। अनुवाद वस्तुतः मनुष्य को जीवन की तमीज सिखाता रहा है। इसलिए, अनुवाद मनुष्य को मनुष्य होने और मनुष्य बने रहने की प्रेरणा देता है। पर अनुवाद को तो हमने धन्धा बना दिया।
जिस अनुवाद के जरिए इतिहास-काल में तरह-तरह के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक आन्दोरलन हुए; उसे हमने धन्धा बना दिया, और इस अनैतिकता के लिए तर्क गढ़ने लगे कि सही सच यही है।
नए मौसम में हममें सत्य से जूझने की क्षमता नहीं रह गई है, सत्य को ताख पर रखकर हमने नया सत्य गढ़ा, और उसे सत्य कहलवाने की जुगत में लग गए। इसे ही लोग इन दिनों सत्योत्तर (पोस्ट-ट्रुथ) कहते हैं। अंग्रेजीदाँ को लगता है कि उन्होंने कोई नया काम कर लिया है। वे मानने को तैयार नहीं कि भारत में ये सदैव से था, उदाहरण असंख्य हैं।
यही वैचारिक दुराग्रह है, वर्चस्ववादी धारणा है। यह कौन-सा दुराग्रह है जो मनुष्य आत्म से बाहर नहीं आने देता? औरों की कामना, आहार-वयवहार, वेश-भूषा, मान-मर्यादा, रीति-नीति, रहन-सहन को अपने आधिपत्य के बोझ तले मार देना चाहता है? मैं जब प्राथमिक विद्यालय में पढ़ता था, मेरे साथ एक महादलित परिवार का बालक खट्टर राम पढ़ता था। विदित है कि एक पूरे गाँव की भाषा कभी भी समान नहीं होती। जातीय परिवेश की ध्वनियाँ उसकी भाषा में अनुगुम्फित रहती है। विद्यालय में सवर्ण समुदाय के बच्चों ने उसकी ध्वनियों पर ऐसा ठहाका लगाया कि वह दुबारा स्कूल नहीं आया; आज वह मेरे गाँव में किसी के खेत में हलवाही करता है।...यह कौन-सी सभ्यता है, जिसमें कोई वर्ण विशेष केवल अपने ही उच्चारण को भव्य मानता रहे?
‘सर्वेभवन्तु सुखिनः’ या ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का मन्त्र-जाप पर्याप्त है क्या? समाज के जीवन-व्यवहार में भारत में ऐसे भाव कहीं दिखते हैं? स्वातन्त्र्योत्तरकालीन भारत में तो कदापि नहीं दिखता!
राष्ट्रीय भावनाओं से अभिभूत सिपाहियों में बेशक समता के भाव परिलक्षित होते हैं। प्रथम स्वावधीनता संग्राम से लेकर स्वाधीनता तक के राष्ट्रवादियों में ऐसे भाव देखकर आश्वस्त हो जाना पर्याप्त नहीं है। क्योंकि बाद के भारतीय समाज के व्यववहार में समता के सारे भाव सिरे से गायब हो गए। तब से अब तक वर्चस्ववादी नीति ही मूल नीति की तरह प्रभुत्व में है। इसमें भाषिक-द्रोह की बड़ी भूमिका है। भारतीय अनुवाद इस प्रभाव से मुक्त कैसे रह पाता?
उन्नीसवीं सदी के ढलते चरण में भारत में इस भाषाई द्रोह के प्रवर्तक अंग्रेज थे। अनुवाद-कर्म के उद्देश्य को तो वे पहले से प्रदूषित कर चुके थे; अब भारतीयों के बीच द्रोह फैलाने के लिए उन्होंने भाषा को हथियार बनाया और हिन्दी-उर्दू विवाद को हवा दी।
पर अब तो अंग्रेज नहीं हैं! फिर भी हम ऐसा क्यों करते हैं? हम क्यों नहीं मानना चाहते कि ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ या ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का भाव भारतीय आचरण का मूल मन्त्र है? जाति-वंश के सहारे हम मनुष्य और मनुष्य में विभेद क्यों पैदा कर रहे हैं? सत्ता के आखेटकों की क्षुद्रता का शिकार हम क्यों हो रहे हैं? ... इसलिए, कि हमारे बीच संवादहीनता आ गई है; अपनी भाषाई समृद्धि त्यागकर, आखेटकों द्वारा परोसे गए चन्द नारे हमारे जीवन के व्यवहार हो गए हैं। लिहाजा हमारी संवादधर्मिता अवरुद्ध हो गई है।
अनुवाद इस अवरोध का उन्मू्लक है। अनुवाद कोई ‘कर्म’ नहीं, ‘धर्म’ है; क्रिया नहीं, विचार है; आचरण नहीं, चेतना है। क्योंकि ज्ञान-प्रसार और पारस्परिक समझ विकसित करने के क्रम में अनुवाद ऐसी ऊष्मा देता है, जिससे अपरिचय और संवादहीनता की दीवारें ढहती हैं। ऊँच-नीच का भेद-भाव मिटता है। मनुष्य के मस्तिष्क में जमी वर्चस्व की काई खण्डित होती है। अहंकार का परित्याग कर मनुष्य सामान्य होने की चेष्टा करता है। मानवीय भाव से वंचित समूह की ओर हाथ बढ़ाता है। भारत का भक्ति-आन्दोलन इस बात की पुष्टि करता है।
भारत के भक्ति आन्दोतलन के सन्दर्भ में हमें तनिक सूक्ष्मता और उदारता से सोचना होगा। यह कोई भक्ति-भाव से खुद को ईश-चरणों में समर्पित कर देना नहीं था या पूजा-पाठ, यज्ञ-विधानादि का पाठ नहीं सिखा रहा था! यह मनुष्य को मनुष्य होने की तमीज बता रहा था। बता रहा था कि रहन-सहन, आहार-व्यवहार, पर्व-त्योहार, वेश-भूषा तो भौगोलिक परिस्थिति और आर्थिक सुविधा से संचालित होता है; ब्रह्म जब सारे ही जीवों में हैं, तो भक्ति के लिए भेद-भाव क्यों? स्नेहपूर्ण व्यववहार और मानवीय आचरण के लिए जाति-वंश का भेद क्यों? संवाद जारी रख, धारणा पवित्र रख, स्नेह आप से आप हो जाएगा। वस्तु्तः इस आन्दोलन में भारतीय भूगोल की सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था का सन्दर्भ था। यह एक सांस्कृतिक आन्दोलन था, जिसमें सभी मनुष्य को ईश्वर की सन्तान, अर्थात् एक ही जाति के जीव माने जाने का आग्रह था। भारत के भिन्न-भिन्न भूखण्ड की परिस्थितियों और ‘सांस्कृतिक राजनीति’ के सुसंगत वातावरण में छठी से तेरहवीं शताब्दी के बीच यह आन्दोलन एक सांस्कृतिक आन्दोलन बन गया।
इतिहास गवाह है कि भारत में भक्ति आन्दोलन के सन्तों का उद्देश्य कभी समाज पर अपने ज्ञान का वर्चस्व थोपना नहीं रहा। उन्होंने सदैव अतीत की बौद्धिक सम्पदा के निचोड़ से समकालीन समाज को मानवीयता का सन्देश दिया। स्थिति-बोध कराया। भारत का भक्ति आन्दोलन इसी सन्देश का नमूना है। पूरे का पूरा भक्ति साहित्य, पारम्परिक सम्पदा का अनूदित संस्करण है। प्राचीन ज्ञान परम्परा के चैतन्य का आत्मकसातीकरण है। समकालीनों के चेतना-विस्तार का उपकरण है। भारत में सन्त-कवियों ने अपनी रचनाओं द्वारा न केवल धर्म के प्रवर्तन में अपनी भूमिका निभाई, बल्कि भिन्न-भिन्न भूखण्ड की लोक-वृत्तियों का उपयोग करते हुए, समकालीन जनजीवन को ज्ञान के अमूल्य दर्शन-सूत्र से परिचित कराया।
महात्मा बुद्ध हों, बौद्ध धर्म के परवर्ती अनुयायी हों, अद्वैत वेदान्ती मण्डन मिश्र हों, शंकराचार्य हों, आलवार सन्त हों, लिंगायत सम्प्रदाय हों, सूफी परम्परा हों, विद्यापति-चैतन्य-शंकरदेव की परम्परा हो...सबके यहाँ लोकमंगल की छवि को भक्ति का विकास सम्पुष्ट करता है और मनुष्य द्वारा सृजित भेदभाव या मनुष्य पर मनुष्य के वर्चस्व की आलोचना करता है, ज्ञान-दर्शन के सर्वोच्च स्वरूप को रेखांकित करता है। इस लोकमंगल की कामना को आज सही परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयोजन है।
ये सारे परिप्रेक्ष्य इन प्रवर्तक सन्तों की निजी कल्पना या किसी तन्द्रा में गठित कपोल-कल्पना नहीं हैं, प्राचीन ज्ञान एवं दर्शन ग्रन्थों के आत्मासातीकरण हैं। इन सभी रचनाओं के स्रोत हमारी प्राचीन बौद्धिक सम्पदा हैं, जिनके अनुवाद की शैली आत्मसातीकरण की है। उन्होंने अपने समय के लोकजीवन की स्थिति और ग्राह्यता के आलोक में अपनी ओर से कुछ नया कहने की जगह पुरानी बातों को समकालीन शैली और उपादेयता के अनुसार कहा। समाज में उन्हें जैसा जटिल भेदभाव दिख रह था, उसके प्रति सामुदायिक चेतना विकसित करने, वर्चस्ववादी नीति के सम्पोषकों को चुनौती देने और वंचित समुदाय के लोगों को चैतन्य बनाने के लिए जैसी रचना करनी चाहिए थी, इनलोगों ने किया। यकीनन यह काल भारतीय साहित्य के लिए, अनुवाद-चेतना के सदुपयोग के लिए, भाषिक समृद्धि के लिए उन्नयन-काल था।
तमिलनाडु के बारह आलवार-सन्तों ने तमिल भक्ति-आन्दोलन का प्रवर्तन किया। वे सब विष्णु के उपासक थे। बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे, पर अनुभव सम्पन्न थे। इन सन्तों ने पूरे तमिल प्रदेश में पदयात्रा कर भक्ति का प्रचार किया और घोषणा की कि ईश-भक्ति का समान अधिकार सबको है (आलवार का अर्थ होता है ‘ईश-भक्ति में लीन’)। वे सब जाति-वंश के भेद-भाव से परे थे। उनकी राय में, ईश-भक्ति नहीं करनेवालों के अलावा कोई नीच नहीं होता था। भिन्न-भिन्न जातियों के होने पर भी वे सन्त रूप में समादृत थे। इनका समय छठी-नौवीं शताब्दी माना जाता है। इस भक्ति-सिद्धान्तों के तर्कशील व्याख्याकार रामानुजाचार्य माने गए। रामानन्द उन्हीं की परम्परा में हुए। जिन्होंने भक्ति-क्षेत्र से ऊँच-नीच, जाति-वंश का भेद मिटा दिया। उस दौर का सूत्र था--
जाति-पाति पूछे नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि के होई॥
हिन्दी का भक्ति काल सन् 1318-1643 माना जाता है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस काल को लोक-जागरण कहा। यह काल वस्तुतः लोक-जागृति का काल था। इस साधना-क्षेत्र में क्रमशः नाथ सम्प्रदाय और सूफीवाद का चलन हुआ। सूफी मत की धारणा विशिष्टाद्वैतवाद जैसी है। भक्ति के अद्वैत में यदि जीव और ब्रह्म का अद्वैत है। तो अनुवाद में भी मूल और अनूदित का अद्वैत देखने का प्रयोजन है (कृपया शब्द का अर्थान्वेष परिप्रेक्ष्यगत किया जाए)। भक्ति में साधक खुद को साध्य में विसर्जित करता है, अनुवाद में भी मूल का विसर्जन अनूदित में होता है। भक्तों ने भक्ति की दोनों शाखाओं--ज्ञानाश्रयी (तर्क) और प्रेमाश्रयी (सख्य) में दो भिन्न पद्धतियाँ अपनाईं। अनुवाद के लिए भी सन्तों ने प्राचीन ग्रन्थों के ज्ञान-प्रसार के लिए दो राह अपनाए--जहाँ सख्य भाव दिखा, वहाँ अर्थान्वेष द्वारा; और जहाँ दर्शन जैसे गूढ़ तत्त्व दिखे, वहाँ आत्मसातीकरण द्वारा जनसामान्य के लिए रचना की। इस उद्यम के स्पष्टत उदाहरण--ज्ञानेश्वरी टीका और सूरसागर समेत अनेक ग्रन्थों में दिख सकते हैं।
विदित है कि तेरहवीं शताब्दी आते-आते भारत में धर्म का क्षेत्र विचित्र हो गया था। अन्धविश्वास परवान चढ़ रहा था। रूढ़ियों, आडम्बरों का वर्चस्व हो गया था। मायावाद के घटाटोप से समाज शिथिल हो रहा था। इसी दुष्काल में भक्ति के देशव्यापी सांस्कृतिक आन्दोलन ने प्रबलता से सामाजिक और वैयक्तिक मूल्यों की प्रतिष्ठा की। जिसमें अनुवाद की बड़ी भूमिका है। विसंगतियाँ भी आईं, पर उनमें उन मनीषियों की कोई भूमिका नहीं थी। परवर्ती काल के उनके समर्थकों ने प्रचार में अपने मनोविकारों का इतना विष-वमन किया कि वही चर्चा प्रमुख होने लगी...! जड़मति से बहस कौन करे? शाश्वत सत्य है कि जो विचार विरोधियों के विरोध से नहीं मरते, समर्थकों के कीर्तन से मर जाते हैं। बुद्ध, शंकराचार्य, विद्यापति, कबीर, रैदास, मार्क्स... इसके उदाहरण हैं।
निर्गुण भक्ति की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि कबीर और प्रेमाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि जायसी; सगुण भक्ति की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि तुलसी और कृष्ण भक्ति के प्रतिनिधि सूरदास की रचनाओं पर इसी परिप्रेक्ष्य में गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है। भक्ति की इन भिन्न-भिन्न प्रणालियों की विशेषताएँ बेशक भिन्न-भिन्न हों, पर प्रेम की सामान्य भूमिका सबने स्वीकारी है। इन सबके धर्म-सुधारक, समाज-सुधारक रूप प्रखर हैं। इनके यहाँ आचरण की शुद्धता का विशेष महत्त्व है। बाह्याडम्बर, रूढ़ि, अन्धविश्वास का निषेध है। मनुष्य की क्षमता का उद्घोष है, वंचित समुदाय में आत्मगौरव का भाव जगाने की प्रेरणा है।
ज्ञानमार्गी सन्तों की वाणी जहाँ मुक्तक रूप में है, वहीं प्रेममार्गी की प्रेमभावना लोकप्रचलित आख्यानों के प्रबन्धात्मक रूप में है। ये रचनाएँ प्रेमसमर्पित कथाकाव्य की श्रेष्ठ कृतियाँ हैं; उदाहरण के लिए मलिक मुहम्मद जायसी की कृति ‘पद्मावत’ देखी जा सकती है।
इसी तरह कन्नड़ भक्ति साहित्य में ‘लिंगायत परम्परा’ के प्रवर्तक सन्त--बसवन्ना, अक्का महादेवी, अल्लामा एवं अन्य अनुयायियों द्वारा रचित कन्नड़ वचन साहित्य शिवार्चन केन्द्रित प्रार्थना है। ये रचनाएँ सामाजिक मुद्दों और व्यक्तिगत अभिव्यक्ति को सम्बोधित हैं। ये अनुष्ठानों का समर्थन और जातिगत भेदभाव की आलोचना करते हैं। इनमें शिव को एक सार्वभौमिक भगवान के रूप में देखा गया है।
अब सवाल उठता है कि यहाँ ‘भारत में भक्ति आन्दोलन के सन्दर्भ में सांस्कृतिक राजनीति और अनुवाद’ का रिश्ता क्या है?... रिश्ता है! दरअसल पूरे का पूरा भक्ति साहित्य भारत के प्राचीन बौद्धिक धरोहर और लौकिक व्यवहार का अनुवाद ही है। लोगों को बेशक पसन्द न आए, पर सचाई है कि भारतीय समाज में संस्कृति भी एक संघर्ष का क्षेत्र है। यहाँ के सामाजिक ढाँचे को लाख समावेशी बताया जाए, पर वर्चस्ववादी धारणा यहाँ तथ्यतः जड़ीभूत है, शायद रहेगी भी। वैसे, मैं न तो समाजशास्त्री हूँ, न राजनीतिक विश्लेषक, न धार्मिक उद्घोषक, न कोई भविष्यवक्ता या दार्शनिक...इसलिए दृढ़ता से न सही, प्रतीति से अवश्य कह सकता हूँ कि यहाँ वर्चस्ववादी धारणा बनी ही रहेगी।
‘सांस्कृतिक राजनीति’ इसी प्रतीति की कोख से पैदा होती है। क्योंकि भारतीय समाज में संस्कृति, यकीनन एक संघर्ष का क्षेत्र है। यह ‘सांस्कृतिक राजनीति’ एक विश्लेषणात्मक ढाँचा है। इसकी अर्थवत्ता ही संस्कृतियों के संघर्ष को रेखांकित करती है; यहाँ समाज के विभिन्न सामुदायिक समूह अपनी पहचान, सम्बद्धता, समावेश और बहिष्कार के प्रश्नों पर विचार करते हैं। इस ‘सांस्कृतिक राजनीति’ का गहन जुड़ाव ‘राजनीतिक अर्थनीति’ से है। इसे वैधानिक पद की मान्यता मिली हुई है। दोनों की अन्ततरानुशासनात्मककता और ऐतिहासिकता व्यापक है। इस कारण प्रयोजनवश ये दोनों (‘सांस्कृतिक राजनीति’ और ‘राजनीतिक अर्थनीति’) सांस्कृतिक भूगोल की सीमा भी लाँघ देते हैं। और, फिर इनमें सांस्कृतिक अध्ययन, नृविज्ञान, सभ्यता विकास आदि समा जाते हैं।
भूगोलवेत्ता आमतौर पर, ‘सांस्कृतिक राजनीति’ को ‘स्थानिक राजनीति’ के रूप में देखते हैं; सही ही देखते हैं; क्योंकि इसके सारे गुणसूत्र स्थानीय सुविधाओं-दुविधाओं से ही स्पष्ट होते हैं। अर्थात् ‘पहचान’ सम्बन्धी संघर्ष कैसे होता है? ऐसे क्षेत्र का निर्माण किस होता प्रकार है? सब जानते हैं कि गाँवों में, नगरों-महानगरों में किस प्रकार जाति-बोधक, सम्प्रदाय-बोधक, व्यवसाय-बोधक मुहल्ले बनते हैं। ये संघर्ष और क्षेत्र-निर्माण की ये हदबन्दी एक सुनिश्चित अभिकरणों (एजेंसियों) के तन्त्रजाल (नेटवर्क) द्वारा संचालित होती हैं। इसकी पद्धति जिन स्थापित प्रथाओं के अधीन निर्धारित होती है, उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका राजनीतिक दाँव-पेंच रचने में होती है।
इसे सन् 2010 में लिखी मदन कश्यप की एक कविता से स्पष्ट समझा जा सकता है--
उद्धारक
हम तुम्हारा उद्धार करेंगे
जिन्दा रखा तो जूठन खिला कर
पाँव धुलवा कर तुम्हारा उद्धार करेंगे
मार दिया तो बैकुण्ठ भिजवा कर
तुम्हारे वंशजों को अपना भक्त बना कर तुम्हारा उद्धार करेंगे
और किसी आफत बिपत, बेला-कुबेला, ठौर-कुठौर में
तुम्हारे जूठे बेर खाकर भी तुम्हारा उद्धार करेंगे!
अर्थात्, ‘सांस्कृतिक राजनीति’ का गलियारा वाकई घनघोर संघर्ष का क्षेत्र है। इसे झेलते हुए ज्यादातर मजबूर लोग पस्त होकर या तो अंगीकार कर लेते हैं; या थक कर किनारे हो जाते हैं! जिन्हें वर्चस्वशाली लोग अपनी विजय मानते हैं। वे सोचने की चेष्टा तक नहीं करते कि--अपने तिकड़मों में उन्होंने जन-द्रोह, और इसलिए, राष्ट्र-द्रोह किया है।
संघर्षशील समुदाय, सांस्कृतिक संघर्ष के इस पूरे खेल में इस वर्चस्वावादी धारणा को सहजता से स्वीकार नहीं करते; वे इन्हें ‘उच्च’ या अन्य को ‘हीन’ संस्कृति भी नहीं मानते। उनकी राय में वही संस्कृति मूल है, जिसमें सामुदायिक जीवन-सन्धान को अर्थवत्ता प्रदान करनेवाली सामाजिकता हो, जो उनके भौतिक अनुभवों से प्रसूत हो और जो उनके अस्तित्व को अर्थ दे।
दुनिया भर के विशिष्ट इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों ने समाज के सभी वर्गों (अभिजात, अधीनस्त, श्रमिक, सवर्णेतर) की संस्कृति के जीवन्त आयाम और जीवन की अर्थवत्ता तराशने की सक्रिय प्रक्रिया का अध्ययन किया है। रेमण्ड विलियम्स ने तो ‘जीवन जीने की सम्पूार्ण पद्धति’ को ही ‘संस्कृति की धारणा’ माना। अर्थात्, भिन्न-भिन्न वर्गों के लोग जिस तरह सोचते हैं, समझते हैं, अनुभव करते हैं, क्रियाशील रहते हैं, जीवन-यापन करते हैं, उत्सव-उल्लास में हिस्सा लेते हैं...क्योंकि भिन्न-भिन्न सामाजिक सम्बन्धों के कारण, विचारों में निर्णायक भेद उपस्थित होते हैं। इसी भेद की स्थिति देखकर रेमण्ड विलियम्स की राय में वर्ग आधारित अध्ययन महत्त्वपूर्ण बना रहा।
उल्लेखनीय है कि इस वर्ग-संघर्ष की कोई एक श्रेणी नहीं होती। इसके अनेक आधार होते हैं--लिंग, वंश, जातीयता, कामुकता (सेक्सुअलिटी), आयु...। ‘सांस्कृतिक राजनीति’ की अवधारणा का मूल वस्तुतः ‘वर्चस्व’ या ‘आधिपत्य’ की ही धारणा है। अर्थात्, ठीक है कि सारे मनुष्य हैं, पर हम उन सबसे श्रेष्ठ हैं! श्रेष्ठ हैं ज्ञान में, समृद्धि में, क्षमता में, प्रभुत्व में...किसी न किसी तरह हम औरों से श्रेष्ठ हैं! सबके सब मेरे सामने छोटे हैं, इसलिए इन्हें मेरे सामने अदब से पेश होना चाहिए। नहीं होंगे तो इन्हें भौतिक रूप से दण्डित किया जाना चाहिए। ‘आधिपत्य की धारणा’ (नोशन आॅफ हेजेमनी, इटली के प्रसिद्ध मार्क्सवादी दार्शनिक एण्टोनियो ग्राम्शी’, सन् 1891-1937) इसी समझ पर आधारित है। ध्यातव्य है कि ‘आधिपत्य’ केवल उत्पीड़न और दमन से ही नहीं, उत्पीड़ितों की मौन सहभागिता या समायोजन से भी छा जाता है।
उत्पीड़ितों की यह मौन सहभागिता या समायोजन उनकी मूढ़ता भी नहीं है। असल में वर्चस्वशाली विचारों के आधिपत्य की जटिल संस्कृति इन उत्पीड़ित समूहों के समक्ष, इस आडम्बर के साथ खड़ी ही होती है, कि वे इन्हें सहजता से बड़े पैमाने पर स्वीकार कर लेते हैं, अपना लेते हैं।
इस बात से सहमति ग्राम्शी की भी है कि प्रतिपक्षी ताकत कभी भी, आधिपत्य के वर्चस्वशाली विचारों की मूल संरचना को चुनौती देने के लिए संघर्ष कर सकता है। इसलिए ‘वर्चस्व’ या ‘आधिपत्य’ के लिए निरन्तर संघर्ष करना ही पड़ता है, फिर भी यह, पूरी तरह कभी प्राप्त नहीं होता।
‘सांस्कृतिक राजनीति’ का मूल लक्ष्य अधिपतियों द्वारा दुर्बलों को अधीनस्त बनाना होता है। ग्राम्शी ने इसी धारणा का उपयोग उन सामाजिक समूहों की पहचान करने में किया जिन्हें अधिपतियों के समूह से बाहर रखे जाते हैं। इस बहिस्कृति के कारण उस वंचित समाज में खुद को अभिव्यक्त करने के साधनों की कमी होती है। यही ‘सांस्कृतिक राजनीति’ है और यही ‘राजनीतिक अर्थनीति’ है। इन प्रसंगों पर विचार करते समय अस्मिता और क्षमता का प्रश्न महत्त्वपूर्ण होता है। छठी से तेरहवीं शताब्दी के बीच रचे गए भारतीय भाषाओं के भक्ति साहित्य में इसका विलक्षण सदुपयोग हुआ है। इन रचनाओं ने भक्ति आन्दोलन के सहारे देशव्यापी सांकृतिक आन्दोलन का वातावरण बनाया। उस दौर के वर्चस्ववादी आचरण का प्रतिपक्ष रचा। वर्चस्वशाली समुदाय के नीतिगत पाखण्ड को उजागर किया। उनके द्वारा प्रचारित अद्वैत-सिद्धान्त के खोखलेपन को स्पष्ट किया। इस उद्यम की सफलता का सर्वाधिक प्रशस्त मार्ग उन्हें प्राचीन ग्रन्थों में दर्ज भारतीय समाज की थाती का आत्मसातीकरण ही लगा। अनुवाद ही लगा। जिसने अनुवाद के उपयोग से भारत के वंचित समुदाय की क्षमता और चेतना की सच्ची छवि निरूपित की। ‘भारत में भक्ति आन्दोलन के सन्दर्भ में सांस्कृतिक राजनीति’ को इसी सन्दर्भ में देखे जाने की जरूरत है। इसलिए अनुवाद इस सांस्कृतिक आन्दोलन का विशिष्ट पक्ष है।
पाठ में दर्ज अस्मिता (जाति, धर्म, वंश, लिंग, वर्ग, प्रतिभा, पौरुष, विकलतादि) का अनुवाद करते समय ज्ञान-शाखाओं के विविध रूपों का उपयोग महत्त्वपूर्ण होता है इसमें मानव विज्ञान, दर्शन, इतिहास, मनोविज्ञान, साहित्यिक सिद्धान्त एवं आलोचना...सबका उपयोग होता है। इस प्रक्रिया पर समाज की सत्ता-संरचना का प्रभाव अवश्य ही पड़ता है।
पाठ में जनपदीय प्रयुक्तियों के बूते भाषा की ताकत बढती है, सम्प्रेषण में निखार आता है, स्थानीय अस्मिता का प्रभावशाली निरूपण होता है; इसलिए अस्मितामूलक संस्कृतियों का समावेश बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। अनुवाद करते समय ये प्रयुक्तियाँ अनुवादकों के समक्ष बड़ी चुनौती खड़ी करती है। अनूदित पाठ में इन प्रयुक्तियों का सही निरूपण न हो तो, अनूदित पाठ घटनाओं का संकेत भर रह जाएगा। फिर ऐसे अनुवाद का क्या प्रयोजन होगा?
प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक विल्हेम वॉन हम्बोल्ट (फ्रेडरिक विल्हेम क्रिश्चियन कार्ल फर्डिनान्द वॉन हम्बोल्ट, सन् 1767-1835) अनुवाद को असम्भव जैसा कार्य मानते थे। वे माने, मानने से किसको कौन रोकेगा। मैं नहीं मानता। मैं मानता हूँ कि अनुवाद सम्भव है, इसे असम्भव माननेवाले लोग, मेहनत से बचने के अपने आलस्य को इस कर्म के सिर थोपना चाहते हैं। उन्होंने ए. डब्ल्यू. श्लेगल (अगस्त विल्हेम श्लेगल) को जुलाई 23, 1796 को एक पत्र में लिखा कि अनुवादक दो में से किसी एक बाधा का शिकार अवश्य होगा--
- या तो वह अपने देश की भाषा की कीमत पर मूल के करीब रहेगा,
- या मूल की कीमत पर अपने वैशिष्ट्यों से जुड़ा रहेगा। ...
दो में से कुछ भी हो तो बुरा क्या है? अनुवाद तो हो!
क्योंकि अनुवाद होगा तो संवाद होगा! ज्ञान का आदान-प्रदान होगा! अनुभवों के बीच, संस्कृतियों के बीच, सभ्यताओं के बीच संवाद तो होगा! संवाद के लिए अनुवाद होना जरूरी है।