आलोचना लिखने का शौक
(कल्याणमल लोढ़ा का आलोचना संकलन ‘वाग्द्वार’)
भारतीय संस्कृति और परम्परा के नए गवाक्ष खोलने वाले
महत्त्वपूर्ण रचनाकारों की रचनाओं पर कल्याणमल लोढ़ा के ग्यारह आलोचनात्मक निबन्धों
के संकलन ‘वाग्द्वार’ में कबीरदास, सूरदास, जयशंकर
प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी
वर्मा और माखन लाल चतुर्वेदी पर एक-एक तथा तुलसीदास पर तीन, और मैथिली शरण गुप्त पर दो आलेख हैं।
आलोच्य रचनाकारों के चयन-दृष्टि का कोई आधार लेखक ने भूमिका में भी स्पष्ट नहीं
किया है।
भक्तिकाल पर पाँच और छायावाद एवं आसपास पर छह निबन्धों के इस
संयोजन में कोई क्रम बैठा पाना कठिन लग रहा है। निर्गुण-सगुण भक्ति का झंझट छोड़ भी
दिया जाए, तो कम से कम मीराबाई को और विद्यापति को
छोड़ना अजीब लगता है। फिर इसी तरह,
छायावाद की बात उठी, तो सुमित्रानन्दन पन्त भी यहाँ नहीं
हैं। बहरहाल, पुस्तक की संरचना में इस अनियन्त्रण के
बावजूद इसके पाठ पर विचार किया जाना चाहिए।
हिन्दी आलोचना आज जिस आलोचनात्मक नजरिए के साथ रचना और
रचनाकारों को देख रही है,
पुराने से पुराने
रचनात्मक स्वरों की जिस तरह की नई व्याख्या कर रही है और शास्त्रीयता से हटकर ‘लोक’ के
करीब जिस गति से आने लगी है,
उसमें भाषा और नजरिए
(टूल्स) का बहुत बड़ा योगदान है। साइबर युग में कबीर की प्रासंगिकता पर चर्चा करते
हुए पूरे देश में कबीर की छह सौवीं जयन्ती मनाई गई, पर
शास्त्रीय और पारम्परिक पद्धति में अनुशासनबद्ध आलोचना-दृष्टि और शोध-दृष्टि से
कल्याणमल लोढ़ा ने प्राच्य और पाश्चात्य देशों के प्राचीन काव्य-लक्षणों के आधार पर
उनका और अन्य कवियों का अनुशीलन करने की चेष्टा जारी रखी। उल्लेखनीय है कि आज के
प्रगतिकामी स्वर के लिए भी कबीर और निराला, उतने
ही प्रेरणास्पद हैं,
जितने अपने समकालीनों
के लिए थे, ऐसे में उन्हें देखने का उपक्रम जनपदीय
होना चाहिए था। कबीर और तुलसी,
भारतीय साहित्य के
ऐसे कवि हैं, जो विद्वानों से लेकर हलवाहों, मजदूरों के बीच भी समान रूप से पूजे
जाते हैं। बुद्धिवादी खेमे से इतर वर्ग के लोग भी उनके गीत, पद तन्मय होकर गाते हैं। ऐसे में उनकी
रचनाओं की व्याख्या ऐसी तो हो कि वह वर्गीय न हो, सामाजिक
हो?
अकादमिक शोधों से जुड़े लोगों के लिए यह पुस्तक सहायक होती, यदि
- इसे
पुस्तकाकार करने से पूर्व रीतिबद्ध शोध पद्धति से परहेज किया गया होता,
- आम
पाठकों तक इन व्याख्याओं को पहुँचाने की सतर्कता बरती गई होती,
- भाषा-शैली
और शब्द-संसार जनपदीय होते,
- वे
छूटे हुए रचनाकार भी यहाँ होते,
- कबीर
पर एक, तुलसी पर तीन, निराला पर एक, गुप्त पर दो निबन्ध देने का असन्तुलन
नहीं रहा होता।
प्रायः पूर्व के लिखे कुछ शोध-आलेखों को पुस्तकाकार कर लेने की
मंशा इस पुस्तक को निष्प्रभ कर गई। कई साहित्यिक सम्मानों से सम्मानित लेखक
कल्याणमल लोढ़ा वृत्ति से अध्यापक रहे हैं। निरन्तर शोधार्थियों और विद्वानों के
संसर्ग में जनपदीय भाषा और उनकी जरूरतों से कट जाना सम्भवतः अध्यापकों की नियति हो
जाती है। इतने महान रचनाकारों पर केन्द्रित होने के बावजूद यह पुस्तक जनोपयोगी
नहीं हो पाई। यूँ आचार्य लोढ़ा की अन्य कृतियों पर नजर डालें तो इन पर संस्कृत की
शास्त्रीय पद्धतियों का भरपूर प्रभाव दिखेगा। पर यह भी छोटी बात नहीं है कि देश की
परम्परा, संस्कृति, विरासत, थाती आदि मसलों के प्रति चिन्तित, ऊर्जावान रचनाकारों की व्याख्या के लिए
उन्होंने इतने मनोयोग से श्रम किया और आने वाले समय के शोधकर्ताओं के लिए पर्याप्त
सूत्र छोड़े। कोई भी आलोचक किसी रचनाकार की व्याख्या करते समय उनकी किन पंक्तियों
को व्याख्या या उदाहरण के लिए चुनता है, यह
भी आलोचक की प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है। निराला की कविता ‘कुकुरमुत्ता’, ‘सरोज स्मृति’ और ‘तोड़ती
पत्थर’ को ही व्याख्यायित करें तो जीवन के
राग-विराग पर मुकम्मल पुस्तक तैयार हो जाए। ठीक यही बात कबीर और तुलसी के सम्बन्ध
में कही जा सकती है। पर खैर...
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