Tuesday, December 11, 2018

बोलि‍यों की ताकत Strength of The Dialects



पूरे देश में इन दि‍नों बड़ी बारीकी से भाषा का खेल खेला जा रहा है। देखते-देखते दुनि‍या भर की हजारो बोलि‍याँ लुप्‍त हो गईं, कि‍न्तु आन्‍दोलनधर्मि‍यों को लग रहा है कि‍ बोलि‍यों को परे ठेलकर वे कोई महान सेवा कर रहे हैं। उन्‍हें भली-भाँति‍ मालूम है, नहीं है तो होना चाहि‍ए कि‍ बोलियों से ही हर भाषा का विकास होता है। जब बोलियों का व्याकरणसम्‍मत मानकीकरण हो जाता है, उसके प्रयोक्‍ता सहजता से उसका अनुकरण करने लगते हैं, और उसमें लिखित साहित्य का रूप धारण करने की क्षमता आ जाती है, उसे भाषा का दर्जा प्राप्त हो जाता है। शिक्षा, साहित्य और सामाजिक व्यवहार में कि‍सी बोली का योगदान जि‍तना सघन होगा, वह बोली उतनी महत्त्‍वपूर्ण होगी। कोई भी भाषा कई बोलियों के समेकि‍त समर्थन से ही समृद्ध होती है। भाषा शब्द की व्‍युत्‍पत्ति‍ जि‍स भाष् धातु से हुई है, उसका अर्थ 'बोलना' या 'कहना' होता है। इस 'बोलने' या 'कहने' का सम्‍बन्‍ध 'ध्‍वनि‍' से है। मनुष्‍य के मन-मस्‍ति‍ष्‍क में उमरा हुआ कोई वि‍चार ध्‍वन्‍यात्‍मक अभि‍व्‍यक्‍ति‍ के बाद ही प्रकाशमान होता है; बोली के बि‍ना हर वि‍चार अन्धकार में दबा रह जाता है।
अपनी मातृभाषा पर बात करते हुए जब कवि‍ केदारनाथ सिंह की पंक्‍ति‍ ''लोकतन्‍त्र के जन्‍म से बहुत पहले का/एक जि‍न्‍दा ध्‍वनि‍-लोकतन्‍त्र है यह/जि‍सके एक छोटे-से 'हम' में/तुम सुन सकते हो करोड़ो/'मैं' की धड़कनें'' सामने आती है; तो बोलि‍यों के लोकतन्‍त्र का पूरा क्षि‍ति‍ज स्‍पष्‍ट हो जाता है। आज के आन्‍दोलनधर्मि‍यों को नामालूम कारणों से ऐसा भ्रम हो गया है कि‍ बोलि‍यों को मि‍टाकर ही कि‍सी भाषा का साम्राज्‍य स्‍थापि‍त कि‍या जा सकता है। वे अनदेखी कर रहे हैं कि‍ भाषा का अपनी बोलि‍यों से वही सरोकार है जो लोकतन्‍त्र का आम नागरि‍क से है। आम नागरि‍क के संवर्धन के बि‍ना कोई लोकतन्‍त्र प्रशंसि‍त नहीं हो सकता। ठीक उसी तरह बोलि‍यों की समृद्धि‍ के बि‍ना कोई भाषा आगे नहीं बढ़ सकती। जि‍स भाषा की बोलि‍याँ जि‍तनी उर्वर होंगी, उस भाषा का साहि‍त्‍य उतना ही ताकतवर होगा। अपने समस्‍त प्राचीन साहि‍त्‍य पर नजर दौड़ाएँ तो स्‍पष्‍ट हो जाएगा कि‍ बोलि‍यों ने ही हमारे पूर्वज रचनाकारों की रचनात्‍मकता को सम्‍न्‍न कि‍या है। अमीर खुसरो, वि‍द्यापति‍, कबीर, सूर, जायसी, तुलसी से लेकर प्रेमचन्‍द, रेणु, नागार्जुन, त्रि‍लोचन, केदारनाथ सिंह प्रभृत्ति‍ की रचनाएँ इस बात का जीवन्‍त उदाहरण हैं।
चूँकि‍ साहि‍त्‍य जनचि‍तवृत्ति‍ का संचि‍त प्रति‍बि‍म्‍ब होता है, इसलि‍ए हर भाषा के साहि‍त्‍य में उस भाषि‍क-क्षेत्र की पूरी जीवन-धारा प्रवाहि‍त रहती है; वहाँ के नागरि‍क जीवन की सम्‍पूर्ण पद्धति‍ अपने ऐति‍हासि‍क एवं भौगोलि‍क सन्‍दर्भों के साथ उसमें अनुरक्षि‍त रहती है। और, यह अनुरक्षण बोलि‍यों से ही सम्‍भव होता है। 'मोरा रे अँगनवाँ चनन केरि गछिया, ताहि चढ़ि कुररय काग रे; सोने चोंच बाँधि देब तोयँ वायस, जओं पिया आवत आज रे' (वि‍द्यापति‍) या 'ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्‍डित होय' (कबीर) या फि‍र 'समरथ को  नहीं दोष गुसाईं' (तुलसीदास) जैसी पंक्‍तियाँ महज एक वक्‍तव्‍य नहीं हैं; समकालीन जनजीवन की चि‍तवृत्ति‍ का समग्र अनुरक्षण है।
असल में भाषा जि‍न बोलि‍यों की ताकत से समृद्ध होती है, उन बोलि‍यों के स्‍वनि‍म, रूपि‍म और प्रयुक्‍ति‍यों का उद्भव कामगारों के बीच होता है। वे काम करते हुए, नई-नई गति‍वि‍धि‍यों और क्रि‍याओं को नई-नई संज्ञाएँ देते हैं। बीते कुछ दशकों में, जब से उदारीकरण और वैश्‍वि‍क बाजार की प्रथा का चलन हुआ है, नागरि‍क जीवन की समग्र क्रि‍याशीलता करेन्‍सी जुटाने में एकाग्र हो गई है। मुहावरे, लोकोक्‍ति‍याँ, प्रयुक्‍ति‍याँ आदि‍ जो आम जनजीवन के काम-काज के दौरान पैदा होती थीं, उसके अवसर समाप्‍त हो गए हैं। अब तो रोटि‍याँ बेलने, झाड़ू लगाने, खेतों में बीज बोने, मवेशि‍यों की पगहि‍या बटने, चटाई बि‍नने, दीया जलाने हेतु बाती गढ़ने, यहाँ तक कि‍ पूजा के लि‍ए मि‍ट्टी के महादेव गढ़ने जरूरत नागरि‍क जीवन से समाप्‍त हो गई। बाजार में सब कुछ तैयार मि‍ल जाता है, मनुष्‍य को केवल उपभोग करना है, उपभोग के इन संसाधनों पर स्‍वामि‍त्‍व पाने के लि‍ए करेन्‍सी जुटाने की चि‍न्‍ता करनी है; और इस चि‍न्‍ता के सारे रास्‍ते मनुष्‍य को अमानवीय एवं अनैति‍क होने के लि‍ए मजबूर करते हैं। ऐसे में सर्वाधि‍क जरूरी अनैति‍क के सूत्र ढूँढने की हो गई है।
इस एकाग्र चि‍न्‍ता ने जनजीवन को बोलि‍यों से इस कदर वि‍च्‍छि‍न्‍न कि‍या कि‍ अब बोलि‍यों की कई प्रयुक्‍ति‍याँ उन्‍हें गैरजरूरी लगने के साथ-साथ दुर्बोध भी लगती हैं। ग्राम्‍य-बोध में जि‍स ‘कौवे के कुचरने’ से प्रि‍यतम जन के आगमन की कल्‍पना की जाती थी, चि‍ट्ठि‍यों में अभि‍व्‍यक्‍त जि‍न भावनाओं से मन वि‍ह्वल हुआ करता था, मोबाइल सेवा ने उन अवसरों को समाप्‍त कर दि‍या। अब प्रतीक्षा करने का सुख, या कि‍ प्रतीक्षामग्‍न होने के दुख का सुख मनुष्‍य के जीवन में रह नहीं गया है। वैज्ञानि‍क वि‍कास से उपलब्‍ध संसाधन का उपभोग तो ठीक माना जा सकता है, कि‍न्‍तु सबसे घातक बात जो हुई है, वह यह कि‍ लोग इन प्रसंगों को अब समझ भी नहीं पा रहे हैं।
गौरतलब है कि‍ अपनी तमाम सहजता के बावजूद बोलि‍यों की प्रयुक्‍ति‍याँ भाषा में अर्थध्‍वनि‍यों का वि‍स्‍तार भरती हैं। भाषा और बोली के इस अन्‍योन्‍याश्रय सम्‍बन्‍ध को कवि‍ केदारनाथ सिंह की कवि‍ता ‘देश और घर’ की इन पंक्‍ति‍यों में स्‍पष्‍टता से समझा जा सकता है--हिन्दी मेरा देश है/भोजपुरी मेरा घर/घर से नि‍कलता हूँ/तो चला जाता हूँ देश में/देश से छुट्टी मि‍लती है/तो लौट आता हूँ घर/इस आवाजाही में/कई बार घर में चला आता है देश/देश में कई बार/छूट जाता है घर/मैं दोनों को प्यार करता हूँ/और देखिए न मेरी मुश्किल/पिछले साठ बरसों से/दोनों में दोनों को/खोज रहा हूँ। भाषा और बोली के सरोकार की ऐसी वि‍लक्षण परि‍भाषा शायद ही कि‍सी भाषावैज्ञानि‍क सूत्र में हो।
जॉन स्टुअर्ट मिल ने यदि‍ भाषा को मस्तिष्क का प्रकाश कहा, तो तय मानें कि‍ उसका ध्‍वन्‍यार्थ कहीं बोलि‍यों के उस प्रभाव में ही है, जि‍सकी जीवनी ताकत से भाषा यह प्रकाश पाती है। इस दृष्‍टि‍ से हमें भाषा की समृद्धि‍ के लि‍ए बोलियों की समृद्धि‍ पर बल देना मुनासि‍ब लगता है; हर घर समृद्ध रहे तो देश की समृद्धि‍ पर कोई प्रश्‍नचि‍ह्न नहीं लगा सकता। हमारे पूर्वकालि‍क साहि‍त्‍य के अवलोकन से स्‍पष्‍ट है कि‍ बोलि‍यों के अनुरक्षण में लोक-कण्‍ठ की व्‍याप्‍ति‍ के साथ-साथ साहि‍त्‍य में उपस्‍थि‍त उनकी छवि‍यों का भी बड़ा योगदान है। और, प्रमाणि‍क सत्‍य ता यह है कि‍ बोलि‍यों का रि‍श्‍ता‍ ध्‍वनि‍यों से है, लोक-कण्‍ठ और साहि‍त्‍य मात्र ही इसके अनुरक्षण के अन्‍यतम उपाय हैं। एक ही मुहावरे का उच्‍चारण मि‍थि‍ला, भोजपुर, अवध, ब्रज, बंग, उत्‍कल, द्रवि‍ड़ में एक समान नहीं होगा। व्‍यक्‍ति‍ और वाचि‍क-क्षेत्र के परि‍वर्तन से ध्‍वनि‍ वि‍शेष के उच्‍चारण की वि‍धि‍याँ बदलती रहती हैं; लि‍हजा ये लोक-कण्‍ठ और साहि‍त्‍यि‍क प्रस्‍तुति‍ के सातत्‍य में ही सुरक्षि‍त रह सकती हैं। जनजीवन से बोलि‍यों के महत्त्‍व के ऐसे वि‍स्‍थापन का कारण बाजार है; जि‍स हैरतअंगेज तथ्‍य से हमारे नागरि‍क-समाज को रहस्‍यमय ढंग से पृथक रखा गया है। लि‍हाजा उनका परम्‍पराबोध, भाषाबोध, संस्‍कृति‍बोध, अर्थात् वस्‍तुबोध और आत्‍मबोध घटा है। अब वे अभि‍धा के अलावा अन्‍य कुछ समझने में अपनी क्षमता को लगाना नि‍रर्थक समझते हैं। इधर रचनाकारों की मुश्‍कि‍लें इस तरह बढ़ी हैं कि‍ वे जि‍न जीवन-सत्‍यों को उकेरना चाहते हैं, कोशीय शब्‍दों के सहारे उनके चि‍त्र प्रभावी नहीं हो पाते, वे कमजोर लगते है; और बोलि‍यों का सहारा लेने पर पाठक कहीं छूटने-से लगते हैं।
हम सब जानते हैं कि‍ भाषा का जन्म पहले बोली के ही रूप में हुआ, और उसे सार्वभौमिकता देने के लिए लिपि का आविष्कार सम्भव हुआ। बोली या भाषा की वास्‍तवि‍क अभिव्यक्ति की कसौटी ही कि‍सी लिपि की सार्थकता है। सन् 1927 में जब भारत में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने ‘ए लिंग्‍वि‍स्‍टि‍क सर्वे ऑफ इण्‍डि‍या’ शीर्षक अपनी पुस्‍तक में सर्वप्रथम उपभाषाओं एवं बोलियों में हिन्दी का वर्गीकरण किया, उससे पूर्व एक भाषाई एटलस बनाने के लि‍ए जर्मनी में जोहान एण्‍ड्रियास श्मेलर ने उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अन्‍ति‍म चरण में बोलि‍यों का पहला तुलनात्मक अध्ययन कराया था। इन वि‍शेष अध्‍ययनों ने ही भाषा और बोली का ऐसा संघर्ष पैदा कि‍या हो और देखते-देखते संसार की बेशुमार बोलि‍याँ नष्‍ट हो गई हों, बची-खुची बोलि‍यों पर आधुनि‍कता के वक्‍तव्‍यवीर और क्रान्‍ति‍ शि‍रोमणि‍ फरसा चला रहे हों—ऐसा शतस: नहीं कहा जा सकता; कि‍न्‍तु ओछे स्‍वार्थ की तृप्‍ति‍ हेतु दि‍ग्‍भ्रान्‍त आखेटकों ने इन वर्गीकरणों का सहारा नहीं लि‍या, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। ‘कि‍तनी लाख चीखों/कि‍तने करोड़ वि‍लापों-चीत्‍कारों के बाद/कि‍सी आँख से टपकी/ एक बूँद को नाम मि‍ला--/आँसू/कौन बताएगा/बूँद से आँसू/ कि‍तना भारी है।’ केदारनाथ सिंह की कवि‍ता ‘आँसू का वजन’ की ये पंक्‍ति‍याँ एक साथ भाषा में बोलि‍यों की रचनात्‍मक भूमि‍का का महत्त्‍व भी स्‍थापि‍त करती है और रचनात्‍मकता से क्रमश: गायब होती बोलि‍यों की प्रयुक्‍ति‍यों पर नि‍कले आँसू का वजन मापने को मजबूर भी करती हैं। हमें याद रखने की जरूरत है कि‍ बोलि‍यों की प्रयुक्‍ति‍याँ खोते हुए हम अपने पाँव तले की जमीन खो रहे हैं। 

धूर्तसमागम का पुनर्पाठ Revisiting The Dhoorthasamagam



सन् 2017 में दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय सम्मुखप्रेक्षागृह में 4-5 जून और फिर मिथिला रंग महोत्सवमें 4 दिसम्बर को मैलोरंग के तत्त्वावधान में लगभग सात सौ वर्ष पुरानी धरोहर, कविशेखराचार्य ज्योतिरश्वर ठाकुर (सन् 1290-1350) विरचित धूर्तसमागम का मंचन हुआ। अधुनातन मैथिली में इस प्राचीन कृति का नाट्यालेख युवा रंग निर्देशक प्रकाश चन्द्र झा ने तैयार किया, जिसका भव्य मंचन मैलोरंग (रंगमण्डल) द्वारा उन्हीं के निर्देशन में हुआ। यह उद्यम राष्ट्रहित में एक पुनीत कार्य है। अब इसका आत्मसातीकृत पाठ, मूल पाठ एवं प्रस्तुति पर प्राप्त प्रतिक्रिया के साथ पुस्तकाकार छप रहा है; यह अतीव प्रसन्नता की बात है। ध्यातव्य है कि अनुवाद अध्ययन के क्षेत्र में किसी पाठ का मंचन, अन्तर्भाषिक रूपान्तरण और मूल पाठ की व्याख्या (वार्तिक), यहाँ तक कि किसी साहित्यिक रचना पर नृत्य-प्रस्तुति...अनुवाद का ही अनुषंग है।
इस  पुस्तक में विभिन्न आयुवर्ग के रंगकर्मियों और रंगप्रेमियों के लगभग डेढ़ दर्जन छोटे-बड़े आलेख संकलित हैं। दो-तीन के अलावा सारे आलेखों में ज्योतिरीश्वर प्रणीत, प्रकाश चन्द्र झा द्वारा मैथिली में आत्मसातीकृत (एप्रोप्रिएटेड) और मैलोरंग द्वारा अभिनीत धूर्तसमागम की प्रस्तुति पर प्रेक्षकों की अन्तरंग प्रतिक्रिया व्यक्त हुई है। अलग से कहने का प्रयोजन नहीं कि प्रेक्षकों की प्रतिक्रिया रंगकर्म के समग्र प्रभाव के कारण होता है। रंगकर्म का समग्र प्रभाव कई घटकों के समन्वित प्रयास से बनता है--उपादेय विषय-वस्तु, श्रेष्ठ नाट्यालेख, विलक्षण नाट्य-शैली, रचनात्मक निर्देशन, जीवन्त अभिनय...सब मिलकर किसी प्रस्तुति को प्रभावकारी और स्मरणीय बनाता है। इस क्रिया में सारे ही घटक समान रूप से महत्त्वपूर्ण होते हैं, किन्तु निर्देशन और अभिनय तनिक विशेष अर्थ रखता है। कारण, विलक्षण से विलक्षण नाट्यालेख, इन दोनो पक्षों की दुर्बलता से प्रेक्षागृह में निष्प्रभ रह जाता है। इसलिए कहना अनुपयुक्त न होगा कि प्रेक्षकों की अधिकांश प्रतिक्रियाएँ मूलतः धूर्तसमागम की प्रस्तुति पर है, नाट्यालेख पर गौणतः। पुस्तक के समाहर्ता प्रकाश चन्द्र झा ने आरम्भ में ही अपने वक्तव्य में धूर्तसमागम के मैथिली नाट्यालेख तैयार करने और उसके मंचन की सारी प्रक्रिया पर्याप्त निष्ठा से समाविष्ट कर दी है।
यहाँ मैलोरंग द्वारा धूर्तसमागमकी अधुनातन प्रस्तुति पर विचार करते हुए मैलोरंग की रंगयुक्ति के साथ धूर्तसमागमकी समकालीन उपादेयता पर भी विचार करने की जरूरत है। किन्तु उससे पूर्व यह विचार करना आवश्यक है कि किसी कालखण्ड के कलाकार अपने प्राचीन पाठ की पुनर्प्रस्तुति अथवा अनुवाद अथवा आत्मसातीकरण क्यों करते हैं? ऐसी क्या मजबूरी थी कि कवीश्वर चन्दा झा ने सन् 1889 में महाकवि विद्यापति रचित पुरुष परीक्षा का मैथिली अनुवाद किया (मायानन्द मिश्र ने यद्यपि इस अनुवाद का समय सन् 1881 माना है) और क्यों कर सन् 1886 में मिथिला भाषा रामायणलिखा? भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने सुविख्यात संस्कृत नाटककार विशाखदत्त रचित मुद्राराक्षस (सन् 1878 में) और अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार विलियम शेक्सपियर रचित मर्चेण्ट ऑफ वेनिस’ (‘दुर्लभ बन्धुशीर्षक से सन् 1880 में) का हिन्दी अनुवाद; महावीर प्रसाद द्विवेदी ने प्रसिद्ध अंग्रेज दार्शनिक फ्रान्सिस बेकन के निबन्ध (बेकन-विचार-रत्नावलीशीर्षक से सन् 1901 में); हर्बर्ट स्पेन्सर रचित एजुकेशन’ (‘शिक्षाशीर्षक से सन् 1906 में); जॉन स्टुअर्ट मिल रचित ऑन लिबर्टी’ (‘स्वाधीनताशीर्षक से सन् 1907 में) और कालिदास रचित रघुवंशमहाकाव्य (रघुवंशशीर्षक से सन् 1912 में) का हिन्दी अनुवाद तथा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रसिद्ध जर्मन प्राणिशास्त्री और भौतिकवादी दार्शनिक अन्स्र्ट हेक्कल रचित रिड्ल ऑफ द युनिवर्स’ (‘विश्वप्रपंचशीर्षक से) का हिन्दी अनुवाद क्यों किया? इस जिज्ञासा में यह प्रश्न भी समाहित है कि आधुनिक मैथिली में लगभग सात सौ वर्ष पुराने इस पाठ का नाट्यालेख प्रकाश चन्द्र झा ने क्यों तैयार किया और मैलोरंग ने इसका मंचन क्यों किया?
पहलेे अनुवाद, अनुकूलन अथवा आत्मसातीकरण की प्रक्रिया पर बात करें। अपनी कालजयी गुणवत्ता के कारण प्रत्येक विशिष्ट पाठ सार्वत्रिक और सर्वकालिक महत्त्व का होता है। संगत भाषा और भूगोल के हर अनुवाद-उद्यमी अपने समय, क्षेत्र और समाज के लिए उसकी उपादेयता देखकर अनुवाद, अनुकूलन अथवा आत्मसातीकरण की प्रक्रिया तय करते हैं। गौर करने पर स्पष्ट होगा कि उक्त अनुवाद-कर्म से कवीश्वर चन्दा झा, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भारतीय स्वाधीनता संग्राम की पृष्ठभूमि बनाने में अपना सारस्वत योगदान कर रहे थे। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सिपाहियों को इन अनुवादों के कारण निजत्वका बोध हो रहा था। अंग्रेज की दुर्नीति के कारण भारतीय नागरिक में जिस कोटि का हीनताबोध और दुराशा भरी जा रही थी, उसका प्रतिपक्षीय विमर्श रखती हुई ये सारी पुस्तकें भारतीय नागरिक के मनोबल को ऊँचा करने में और अपने कर्तव्यबोध को समझने में सहज योगदान दे रही थी। उल्लेखनीय है कि ई.पू. प्रथम शताब्दी की (महाकवि कालिदास का अनुमानित समय) विशिष्ट रचना अभिज्ञानशाकुन्तलम्का अनुवाद विदेशी भाषाओं में अठारहवीं शताब्दी में ही शुरू हो गया था! किन्तु उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में आकर भारतीय भाषाओं में इसके अनुवाद की शृंखला चल पड़ी। इतने अनुवाद या कि पुनर्कथन अकारण ही नहीं हुए! यह उन अनुवादकों का समाजसेवा भाव था। इस अनुवाद-शृंखला से वे समकालीन जनचेतना और नागरिक-दायित्व को उद्बुद्ध करना चाहते थे, और जनसामान्य को स्मरण दिलाना चाहते थे, कि कदाचित आप लोग दुष्यन्त की अँगूठी की तरह अपना दायित्व भूल गए हैं, परम्परा-रक्षण के सूत्र से बेफिक्र हो गए हैं। इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के अधोभाग में आकर मैलोरंग की ओर से धूर्तसमागमकी यह प्रस्तुति कदाचित ऐसे ही दायित्व का निर्वहन है।
हमलोग इन दिनों जिस दुर्वह समय में जीवन-यापन कर रहे हैं, वह किसी यातना-शिविर से कम भयावह नहीं है। चारो ओर राष्ट्र-भक्ति की रंगशाला चल रही है; अभिनीत राष्ट्रप्रेम के चकाचैंध से अर्थात् राष्ट्रप्रेम के स्वांग से समस्त नैष्ठिक राष्ट्रवादी दिग्भ्रान्त हो रहे हैं; कभी-कभी उन्हें अपनी ही राष्ट्रीय-चेतना की मौलिकता पर संशय होने लगा है। ऐसे नाटकीय राष्ट्रवाद के उपवन में नवोद्भूत नवगछुली किस राष्ट्रवाद के अनुगमन से अपने राष्ट्र-बोध को बेदाग रखे, यह तय करना असम्भव है। सामान्यतः नवागन्तुक पीढ़ी का मानसिक गठन अग्रज पीढ़ी के अनुकरण और आसन्न पूर्वज पीढ़ी के कृतिकर्म की प्रेरणा से होता है। कवि, चिन्तक, शिक्षक, उपदेशक, नेता, अभिनेता, पत्रकार...ये लोग पहले नई पीढ़ी के लिए सहज ही प्रेरणा-स्रोत बन जाते थे। कारण, उनके कृतिकर्मों के आदर्श रूप उस पीढ़ी को सम्मोहित करते थे। आज की पीढ़ी को इन पदधारियों में कोई आदर्श नहीं दिखता। यह नई पीढ़ी समस्त सामाजिक कार्यकर्ताओं (?) के ढोंग, पाखण्ड, दायित्वहीनता, धूर्तता, दुष्टता, अनैतिकता, नृशंसता को अपनी आँखों देख रही है; क्षुब्ध और हतप्रभ हो रही है। दूसरी ओर यह नई पीढ़ी पारिवारिक बुजुर्गों और सामाजिक मान्यताओं के दवाब से व्याकुल है। माँ-बाप अब अपनी सन्तानों को मनुष्य नहीं, पैसे बरसानेवाली मशीन बनाना चाहते हैं। नई पीढ़ी यह भी देख रही है कि सामाजिक मान-मर्यादा पैसेवालों को दी जा रही है, जीवनादर्श के पुरोधाओं को नहीं। ऐसे में नई पीढ़ी का सम्मोहन प्रबन्धकों की ओर बढ़ना स्वाभाविक है। चूँकि आज का प्रबन्धन परिवार में नहीं, प्रतिष्ठान में सीखा जाता है, इसलिए इसमें धूर्तता का भरपूर समावेश हो गया है। संचार माध्यम के किसी संसाधन पर नजर डालें, तो बात साफ हो जाएगी। दूरदर्शन, अखबार, पत्रिका, वेबसाइट, ब्लाॅग अथवा अन्य सोशल मीडिया पर क्रियाशील प्रेक्षक देख सकते हैं कि मौजूदा भोर से अगले भोर तक के कार्यक्रमों में माला की मानिन्द गूँथे विज्ञापन क्या कहते हैं। देश भर के नायक-नायिकाएँ जनसाधारण से मान्यता और सम्मान पाकर आज सिर पर बैठे हैं, उनकी कृतघ्नता देखिए कि प्राणपन से जन-जन को धोखा देने में लिप्त हैं। पूँजीपतियों के सामान्य उत्पाद को श्रेष्ठ घोषित करते हुए जनसाधारण के साथ धूर्तता करने में उन्हें तनिक भी लाज नहीं आती। मालूम नहीं उन्हें औरों की धूर्तता में साथ देकर धन कमने में क्या सुख मिलता है! सुधीजन चाहें तो तेल, मलहम, क्रीम, चाॅकलेट, बिस्कुट, मसाला, अन्तर्वस्त्र, दवाई, दन्तमंजन, कण्डोम आदि बेचते अपने हीरो-हीरोइन को देखें, कि उनके मुखमण्डल पर ऐसी धूर्तता करते हुए तनिक भी ग्लानि नहीं रहती। जीवन-यापन के अन्य अनुशासनों में भी इस धूर्तता के संकेत ढूँढे जा सकते हैं। ऐसे दुष्काल में धूर्तसमागमकी पुनर्प्रस्तुति एक राष्ट्रीय उद्बोधन है, जिसके द्वारा कविशेखराचार्य ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने जन-जन को सन्देश दिया था, आज हमारे सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक परिवेश को ऐसे ही प्रेरक नाट्यालेख और रंगयुक्ति का प्रयोजन था। प्रकाश चन्द्र झा द्वारा आत्मसातीकृत धूर्तसमागम के नाट्यालेख की मैलोरंग द्वारा अभिनीत प्रस्तुति आधुनिक समाज की विकृति/विसंगति की सूचना देनेवाली ऐसी ही घटना है।
विदित है कि ज्योतिरश्वर ठाकुर मैथिली साहित्य के आदिकालीन रचनाकार हैं। विद्वानों ने उनकी कृति धूर्तसमागम को मिथिला ही नहीं, सम्पूर्ण उत्तर भारत में रचित पहला नाट्यलेख माना है और इसी तरह विश्वकोश की कोटि में परिगणित उनकी विशिष्ट कृति वर्णरत्नाकर को सम्पूर्ण उत्तर भारत में रचित प्राचीनतम गद्य-ग्रन्थ कहा है। धूर्तसमागमके प्रस्तावना-वाक्य रामेश्वरस्य पौत्रोण तत्रभवतः पवित्रकीर्तेर्धीरेश्वरस्यात्मजेन महाशासनश्रेणिशिखरभ्रामत्पली जन्मभूमिना कविशेखराचार्य-ज्योतिरीश्वरेण निजकुतूहल विरचित धूर्तसमागमनाम प्रहसनमभिनेतुमादिष्टोऽस्मि...के अनुसार ज्योतिरश्वर ठाकुर के पिता का नाम रामेश्वर ठाकुर और पितामह का नाम धीरेश्वर ठाकुर तय होता है। वे मिथिला के कर्णाटवंशीय राजा हरिसिंहदेव (सन् 1300-1324) के राजकवि थे। पूर्ववर्ती श्रेष्ठ भारतीय चिन्तक भरतमुनि, भामह और वात्स्यायन की रचनाधारा का तीव्र विकास उनके तीनो प्रसिद्ध ग्रन्थ में देखा जा सकता है--नाट्यशास्त्र के प्रभाव में धूर्तसमागम’, कामसूत्र के प्रभाव में पंचशायक, और काव्यालंकार के प्रभाव में वर्णरत्नाकर। यद्यपि धूर्तसमागमके नाट्यालेख, कविशेखराचार्य ज्योतिरीश्वर ठाकुर के समय और उनके रचनादि के विषय में गहन चिन्तन-मनन करते हुए रमानाथ झा, शशिनाथ झा विद्यावाचस्पति’, शैलेन्द्र मोहन झा, जयकान्त मिश्र, गोविन्द झा...आदि विद्वानों ने यथेष्ट चर्चा कीे है। इसी क्रम में हरिसिंह’, ‘नरसिंह’, ‘हरसिंहनाम पर पाठ-विश्लेषण करते हुए यथेष्ट मतामत और तर्क प्रस्तुत हुए हैं; इन तीनो के संग अथवा किसी एक के संग ज्योतिरीश्वर ठाकुर का सरोकार तय करते हुए कर्णाटवंशी राजा हरिसिंह देव पर पर्याप्त चर्चा हुई है। किन्तु तथ्य है  कि मिथिला में कर्णाटवंशी राजा के शासनकाल में संस्कृत के अलावा मैथिली को भी पर्याप्त राजकीय प्रोत्साहन मिलता था और मिथिला गेय काव्य का केन्द्र था।
उल्लेख होता है कि ई.पू. छठी शताब्दी में भारत में कर्मकाण्ड के विरुद्ध जिस बौद्ध-धर्म का नवोदय हुआ था; वह समकालीन राजनीति और अर्थनीति तक को प्रभावित करने लगा था। किन्तु कालान्तर में इसका पराभव शुरू हो गया। बौद्ध के प्रतिपक्ष में कुछ सनातन धर्मावलम्बी सुनियोजित रूप से क्रियाशील हुए। इस बार उन लोगों ने प्राचीन कर्मकाण्ड के बदले ज्ञान और भक्ति का प्रचार अपनाया था। कुमारिल भट्ट, मण्डन मिश्र, शंकराचार्य, उदयनाचार्य जैसे प्रकाण्ड विद्वानों की मीमांसा और वेदान्त दर्शन के प्रतिपादन से बौद्ध-धर्म का तत्त्वज्ञान परोक्ष होने लगा। इस प्रक्रिया में परवर्ती वैष्णव सन्तों को भी भक्ति के प्रसार में प्रभूत बल मिला। अनेक हिन्दू राजा इन धर्म-प्रचारकों के समर्थन में आगे आए। तेरहवी शताब्दी आते-आते नाट्यकला को राजशाही प्रोत्साहन मिलने लगा। चैदहवी शताब्दी में मिथिला में कर्णाटवंशी शासक हरिसिंह देव ने नाट्यकला और नाटककारों को पर्याप्त प्रश्रय दिया। ज्योतिरीश्वर ठाकुर विरचित धूर्तसमागमउन्हीं के दरबार में रचित नाटक है ।
धूर्तसमागमके रचनाकाल को लेकर विद्वानों के बीच मतभिन्नता है। कुछ लोग सन् 1320 और कुछ सन् 1325 मानते हैं। किन्तु धूर्तसमागम का रचनाकाल सन् 1320 तर्कसम्मत लगता है, कारण, उनके जिन तीन उल्लेखनीय ग्रन्थों की सर्वाधिक चर्चा होती है, वे हैं --धूर्तसमागम, पंचशायक, वर्णरत्नाकर। उपलब्ध सूचना और इन तीनो ग्रन्थों के पाठ-विश्लेषण के अनुसार वर्णरत्नाकर का रचनाकाल (सन् 1324 के आसपास) प्रथम दोनो के बाद समीचीन लगता है। वर्णरत्नाकर की परिपक्व रचना-शैली से यह अनुमान सहज होगा कि मिथिला के रचनात्मक क्षेत्र में ऐसे सावधान गद्य-ग्रन्थों की परम्परा पूर्व में भी रही होगी। यह कृति मध्ययुगीन भारतीय समाज के जीवन और संस्कृति को विशिष्टता से रेखांकित करता है। इसकी एक पाण्डुलिपि एशियाटिक सोसाइटी, कोलकाता में (पाण्डुलिपि संख्या-4834) संरक्षित है।
ज्योतिरश्वर ठाकुर की किसी स्वतन्त्रा काव्य-कृति की सूचना यद्यपि नहीं देखी गई है, किन्तु कविशेखराचार्यउपाधि से अनुमान करना सहज है कि वे श्रेष्ठ कवि भी थे। मातृभाषा मैथिली के आरम्भिक उद्गाता के साथ-साथ वे संस्कृत के प्रकाण्ड ज्ञाता भी थे।
मैथिली-गीतों के यथेष्ट समावेश के बावजूद धूर्तसमागम (सन् 1320) को प्रो. रमानाथ झा ने मैथिली कृति कदापि नहीं माना, जबकि डॉ. जयकान्त मिश्र ने इसे मैथिली की रचना स्वीकारते हुए कीर्तनियाँ नाटक का आदिरूप कहा। इसमें समाविष्ट मैथिली गीत कवित्व की दृष्टि से अत्यन्त सामान्य है; किन्तु समग्रता में इसका सम्पूर्ण पाठ तीक्ष्णतर व्यंग्य का उद्घोष करता है। असल में विचारकों के मुँह से प्रहसन शब्द सुनते-सुनते भावकों के कान और चेतना अब इतनी अधिक अभ्यस्त हो गई है कि अन्य कोई व्याख्या करने पर भी इनके कान और चेतना तक प्रहसन ही पहुँचता है; जैसे आप मैथिलों के कान में जबरन उड़ेल दीजिए कि मण्डन मिश्र कभी किसी शंकराचार्य से पराजित नहीं हुए और उनके बचाव में कभी उनकी पत्नी को सामने नहीं आना पड़ा’, किन्तु वे सँभलकर उठेंगे, कान उलटा कर, आपका सन्देश वापस फेकेंगे,और फिर वही गीत गाने लगेंगे--जहाँ भारती से हार गए शंकर।
वस्तुतः हमलोगों को साहित्य पढ़ने-गुनने की पद्धति का भी अभ्यास करना चाहिए। धूर्तसमागम को हास्यरस से ओतप्रोत माना जाता है। हास्य रस का स्थायी भाव है हास’, और हास उत्पन्न होता है, विकृति से। किसी को फिसलकर गिरते देखकर या कि किसी अनुपयुक्त स्थिति में देखकर, आपको हँसी आ जाती है। किन्तु यह हँसी कितनी दारुण होती है, यह स्वयं को उलटे स्थान पर रखकर देखने से स्पष्ट होगा। फिसलकर गिरनेवालों के स्थान पर स्वयं रह कर सोचेंगे, तो समझ आ जाएगा कि गिरने पर लोगों को अपने ऊपर हँसते देखकर गिरनेवालों के मन पर क्या असर होता है। विकृति को देखने की दृष्टि विवेकशील रहे तो हास के स्थान पर करुणा भी उत्पन्न हो सकती है। मैथिल परिवेश में भाव-ग्रहण की जल्दबाजी और व्याख्या-पद्धति की उल्टी हवा चलाने के कारण ढेरो श्रेष्ठ कृतियों की उल्टी और उथली व्याख्या होती रही है। हरिमोहन झा जीवन भर रूढ़ि और पाखण्ड पर व्यंग्य करते रह गए, किन्तु सब दिन वे हास्य-सम्राट कहाते रहे। अब समय आ गया है कि मैथिली के भावक-विवेचक अपने प्राचीन ग्रन्थों की तत्त्वदर्शी व्याख्या करें, और ऐसा धूर्तसमागम के लिए बहुत ही प्रयोजनीय है।
नागारिक समुदाय से मेरा निवेदन है कि इस कृति के अवगाहन के समय दो बातों से खास परहेज करें--पहला कि इस कृति को प्रहसन मात्र न मानें; और दूसरा कि इसमें अश्लीलता ढूँढने में अपना मूल्यवान समय न गमाएँ। कारण, यह कृति प्रहसन मात्र नहीं है। तत्कालीन समाज-व्यवस्था के विकृत स्वरूप को रेखांकित करने के लिए कविशेखराचार्य ज्योतिरश्वर ठाकुर ने हास का उपयोग मात्र किया है।
विदित है कि चैदहवी शताब्दी (कविशेखराचार्य ज्योतिरीश्वर का समय) के भारतीय समाज की सांस्कृतिक धार्मिक स्थिति अनेक खींच-तान से जकड़ी हुई थी। इस समय के आते-आते भारतीय समाज में ईश्वरीय लीला की नाटकीय और लौकिक प्रस्तुति पसर चुकी थी। वाद्य-यन्त्रों के सहारे वैष्णव सन्त नृत्य-संगीत में लीन होते रहते थे। यह लीला और नृत्य-संगीत क्रमशः धार्मिक उन्नयन का साधन बन गया था। उस कालखण्ड में कविशेखराचार्य ज्योतिरीश्वर को प्रायः जयदेव विरचित गीतगोविन्द की सांगीतिक प्रस्तुति की लोकप्रियता देखकर लोकनाट्य का महत्त्व समझ में आया होगा। इसी के साथ यह भी विचारणीय है कि हर समय के श्रेष्ठ रचनाकार अपने समय की विसंगति को रेखांकित करने में जितनी सावधानी विषय-वस्तु के निर्धारण की रखते हैं, उतनी ही सावधानी रचना-शिल्प की भी रखते हैं। विषय उपस्थापन के लिए शिल्प ही ऐसा अमोघ अस्त्र है जो रचनाकार के उद्देश्य को सही-सही सुनिश्चित जगह पर पहुँचाता है। ज्योतिरीश्वर ने धूर्तसमागम में मैथिली गीतों का ऐसा समायोजन अकारण ही नहीं किया है। लोकरुचि और जनभाषा की शक्ति से वे भली-भाँति अवगत थे। धूर्तसमागम में जनपदीय भाषा के गीत और हासमय शिल्प का उपयोग उनकी सामाजिक चिन्ता और नागरिक अन्तर्मन की शिनाख्त का परिचायक है। हासमय प्रसंग द्वारा सामाजिक विकृति पर ऐसा गम्भीर आघात करने का उद्यम उस काल के साहित्य में पहली ही बार देखा गया, इसकी पुनरावृत्ति फिर कई शताब्दी तक नहीं देखी गई। भावकों को उपयुक्त लगे तो वे इस शिल्प का उपयोग फिर हरिमोहन झा और बाबा वैद्यनाथ मिश्र यात्री के यहाँ ढूँढ सकते हैं।
यहाँ आकर सामाजिक जीवन-व्यवस्था में साहित्य और कला की उपादेयता को समझना उचित होगा। हमलोगों के मानस में नाटक खेलनापदबन्ध संस्कार की तरह बसा हुआ है। अर्थात् नाटक खेलने की वस्तु है। इस नाटक खेलनेकी चलन और नाट्यालेख की सामाजिक उपादेयता पर गौर करें तो स्पष्ट होगा कि मानव सभ्यता के विकासक्रम में किसी भी कला का विज्ञापन कभी, मात्र स्वान्तः सुखाय या कि मात्र मनोरंजन के लिए नहीं होता होगा। कला और साहित्य अपने उद्भव-काल से ही मनुष्य को सामाजिक और समाज को मानवीय बनाता आ रहा है। सभ्यता-संचरण के किसी खण्ड में इसके द्वारा मनोरंजन भी होता हो, ऐसा सम्भव है, किन्तु तथ्यतः यह सदैव समकालीन समाज-व्यवस्था का संशोधन-परिस्कार करता रहा है। व्यवस्था की विकृति-विसंगति पर प्रश्न करते हुए उसके स्वेच्छाचार और अनैतिकता पर अंकुश लगात रहा है। नाटक खेलनेकी क्रिया निश्चय ही इस उद्देश्य से पृथक नहीं रहा होगा। चूँकि नाट्यालेख का मंचन होता था, इस कला-विधा के बूते खेल-खेल में नागरिक जीवन की विसंगति जन-जन तक पहुँचाई जा सकती थी, प्रायः इसीलिए नाटक खेलनेजैसा पदबन्ध अस्तित्व में आया होगा। यहाँ धूर्तसमागम की आधुनिक प्रस्तुति की उपादेयता, आज के समाज और ज्योतिरीश्वरकालीन समाज का अनुशीलन करते हुए तनिक इतिहास  में भी झाँक लेना उचित होगा।
साहित्यिक सन्दर्भ में दारुण स्थिति के चित्रण के लिए आत्यन्तिक प्रतिकूलता, अर्थात् एकदम से विरुद्ध पद्धति, सदैव प्रभावी होती रही है; जैसे कि अट्टहासी हास्य में तीव्र करुणा का उदय। धूर्तसमागम का सम्पूर्ण पाठ अपने विषय-वस्तु और शिल्प-- दोनो स्तरों पर यही काम करता है, जो हरिमोहन झा और बाबा यात्री के यहाँ भी ठीक वैसा ही दिखता है। इसलिए हमलोगों को इस पाठ के तत्त्वदर्शी अनुशीलन में अपना दृष्टि-विधान बदलना पड़ेगा और मानना पड़ेगा कि हासमय तत्त्व के समावेश के बावजूद यह कृति प्रहसन नहीं है, किसी महान समाज-शास्त्र और राजनीति-शास्त्र का श्रेष्ठ स्रोत है। उस काल के धार्मिक पाखण्ड, साधु-संन्यासियों की लम्पटइ, सामन्ती और न्यायिक प्रक्रिया के चरम अधःपतन का चित्रण है।
जहाँ तक अश्लीलता का प्रश्न है, यह तो किसी निरर्थक शुचितावाद, मुखविलास और सौविध्य-योजना का द्योतक है। भारतीय समाज में श्लील-अश्लील प्रकरण पर अभी तक कोई तर्कपूर्ण विचार हुआ नहीं है। जो हुआ है वह कोई विचार नहीं, वर्गीय सम्प्रदाय की सुविधा-परस्त व्यवस्था है। जिस समाज में अभी तक मानव-मूल्य पर विचार नहीं हुआ है, नागरिकों को योग्यतानुसार रोजगार और जीवन-यापन की बुनियादी सुविधा उपलब्ध कराने की योजना पर विचार नहीं हुआ है, अफवाह के कारण मनुष्य की हत्या कर देने की घटना पर विचार नहीं हुआ है, तकनीकी सुविधा के सदुपयोग से मानवीय भव्यता बढ़ाने के बदले समाज में दुर्भावना फैलाने की अनैतिकता पर विचार नहीं हुआ है, दुर्बल और अक्षम को न्याय-च्युत रखने की दानवीयता पर विचार नहीं हुआ है, उस समाज के लोग किसी रचना में स्त्री-प्रसंग के उल्लेख को अश्लील कहें, तो इससे बड़ा अश्लील और क्या हो सकता है?
क्षुब्धकारी है कि भारत देश के नागरिक सुबह से शाम तक दूरदर्शन पर अश्लीलता ही देखते रहते हैं, किन्तु उन्हें वे सब अश्लील नहीं लगती, आधुनिकता लगती है। चाय-बिस्कुट, दवा-दारू, कपड़े-लत्ते, कम्मल-चादर, तेल-मलहम, साबुन-सोडा, नैपकिन-कण्डोम, अन्तर्वस्त्र, प्रसाधन सामग्री, इण्टीरियर डेकोरेशन खरीदने के उपदेश देने लिए नायक-नायिकाएँ परदे पर आते हैं; चीख-चीखकर कहते हैं; कि आप यही खरीदिए। इस स्वार्थी आग्रह में वे जिस कोटि के झूठ बोलते हैं, उससे भी बड़ा अश्लील क्या हो सकता है? अपना और धन्नासेठों का खजाना भरने के लिए जनसाधारण को ठगते हैं। ऐसा झूठ बोलते हुए उन्हें तिनका भर भी लाज आती है? खास कम्पनी की गंजी पहनकर अकेला एक हीरो दो दर्जन पहलवानों को लुढ़का मारता है; यदि यह सत्य होता, तो क्या ऐसी गंजी सीमा पर युद्ध करते सिपाहियों के लिए उपादेय न होती, कि गंजी पहनकर वे विपक्षी सैन्य को भूलुण्ठित कर देते!... खास कम्पनी का इत्र लगा कर, खास कम्पनी के उस्तुरे से दाढ़ी बनाकर एक से एक सुन्दरी को सम्मोहित करने की बात आज के सन्दर्भ में स्त्री अस्मिता के लिए कितना अपमानजनक है?...अश्लील इसे कहते हैं। अश्लीलता है कि हमारे ही समाज के मनुष्य, हमीं से मान्यता पाकर, हमें ही ठगता है, और पूँजीपतियों की गाँठ भरता है, फिर भी हम उन्हें ठग या कि ठगनी नहीं मानते हैं।
धूर्तसमागम की प्रस्तावना और भरतवाक्य में कविशेखराचार्य ज्योतिरश्वर ठाकुर ने बेशक इस कृति को प्रहसन कहा, किन्तु यह उनकी विनम्रता(मोडेस्टी) है। असल में यह हास्य के टीले पर दहकते व्यंग्य की फुत्कार है, जिसमें विलासिता, आडम्बर, मिथ्याचार, भ्रष्टाचार, कपट, धूर्तता से आक्रान्त तत्कालीन समाज के विकृत स्वरूप को निर्ममता से उजागर किया गया है।...पूर्व में जैसा उल्लेख हुआ कि उस काल का सकल समाज क्रमशः अराजक हुआ जा रहा था। पतनोन्मुख नीति, विवेक, निष्ठा की ओर ध्यान देना निरर्थक था। आठवीं शताब्दी के आसपास निर्वाण से ऊबे हुए कुछ बौद्ध धर्मानुयायी सहज आनन्द की खोज करने लगे थे। महासुखवाद की धारणा के साथ वज्रयान का उदय उसी की परिणति था। वज्रयानियों के इस महासुखवाद में एक ओर उच्च धार्मिकता थी तो दूसरी ओर निम्नकोटि के अनैतिक आचरणों की चसक। अनैतिकता और पाखण्ड का भेद छिपाने के लिए इस पन्थ के उपदेश में सन्ध्या भाषाका उपयोग होता था, द्विअर्थी शब्द-प्रयोग की भाषा; जिससे लोगों को भरमाने की सुविधा हो। इसी महासुख के अत्यधिक विस्तार से वज्रयानी शाखा में घोर अनाचार फैला, जो उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। ज्योतिरश्वर ने वर्णरत्नाकर में बौद्धपक्ष अइसन आपात भीषणऔर उदयनक सिद्धान्त अइसन प्रसन्नजैसे पदबन्धों का उपयोग यूँ ही नहीं किया होगा। जनसमुदाय को सम्मोहित करने के लिए उस काल के सन्त सिद्धान्त बघारा करते थे, किन्तु व्यावहारिक तौर पर वे सांसरिकता में लीन-तल्लीन हुए जा रहे थे; परस्त्री-गमन की महिमा-गान में लिप्त होने लगे थे। महासुखवाद के दार्शनिक आवरण में उन्मुक्त पंचमकार के भोगवाद को प्रचुर प्रश्रय मिल रहा था। भोगमय जीवन के ऐसे स्वच्छन्द वातावरण की ओर नैतिक रूप से दुर्बल मनुष्यों की आसक्ति बढ़ना सहज था। इसलिए इस भोगमय प्रवृत्ति की ओर न केवल संन्यासी, बल्कि सामान्य गृहस्थ भी लुब्ध होने लगे थे। ऐसे लिप्सामय वातावरण की ओर आतुरता से बढ़ रहे मनुष्य को किसी भी गर्हित आचरण से परहेज क्यों हो? फिर इस वातावरण से आक्रान्त समाज की जीवन-व्यवस्था कैसी हो? रचनाकार ज्योतिरीश्वर के लिए यह विचारणीय विषय था। शारीरिक व्याधि से तुलना करें तो यह वातावरण कुठाँव के पके बलतोड़ जैसा था, जिसकी टहकती पीड़ा से समाज की मुक्ति आवश्यक थी। अवांछित स्थिति से मुक्ति का उद्वेग कोई विधान नहीं मानता, किसी तरह मुक्ति का मार्ग ढूँढता है। उस काल की समाज व्यवस्था जिस लिप्सामय वातावरण में तल्लीन थी, ज्योतिरीश्वर को तदनुकूल ही कोई मार्ग ढूँढना था, इसलिए विनोदमय शिल्प में तत्कालीन सामाजिक विकृति को प्रस्तुत करने का उद्यम ढूँढा गया। लिप्साग्रस्त आसक्तिमय विषय की हास्यमय प्रस्तुति मात्र से उस विकृति को उजागर किया जा सकता था। और ऐसा ज्योतिरीश्वर ने किया। इसलिए भावकों को इस कृति केे हास और कामुकता में उस समाज की विकृति और विडम्बना ढूँढनी चाहिए; न कि विनोद और अश्लीलता। सोचना चाहिए कि रचनाकार ने यहाँ उस विचित्र अश्लीलता को बेपर्द किया है, जिसमें उस काल का समाज (संन्यासी, सामन्त, व्यवस्थापक, गृहस्थ) न केवल संलिप्त था, बल्कि उसे सहने के लिए विवश भी था। इस कृति की विधा, विषय और शिल्प ज्योतिरीश्वर ने उद्योगपूर्वक तय किया है। समकालीन समाज के हर वर्ग तक इस सामाजिक विकृति को पहुँचाने के लिए लोकधर्मी नाट्य से अधिक प्रभावकारी अन्य कुछ भी नहीं हो सकता था। इस कृति में समाविष्ट मैथिली गीतों की प्रचुरता में भाषा-गीत की लोकधर्मी सम्प्रेषणीयता के प्रति रचनाकार की रचनात्मक आश्वस्ति दिखती है।
इस नाटक में तीन भाषाओं का उपयोग हुआ है। सारे गीत मैथिली में हैं। सूत्रधार, विश्वनगर, मृतांगार ठाकुर, असज्जाति मिश्र...मात्र चार ही पात्रों के संवाद संस्कृत में हैं। शेष समस्त पुरुष पात्र--स्नातक, विदूषक, मूलनाशक तथा समस्त स्त्री-पात्र नटी, सुरतप्रिया, अनंगसेना के संवाद प्राकृत में हैं। अधिकांश जगह प्राकृत संवाद के संस्कृत अनुवाद दिए गए हैं। कोई रचना किस भाषा की है, इसकी कसौटी क्या हो? दस में से मात्र चार ही पात्रों के गिने-चुने संवाद संस्कृत में हैं। इतने क्षीणकाय संस्कृत संवाद के कारण इस कृति को संस्कृत की रचना मान लेने का आग्रह जिन्हें हो, रखें; किन्तु तथ्यतः विषय, वातावरण, शिल्प, संवाद के चरित्र, और अन्ततः समग्र गीतों के प्रभावकारी स्वरूप से यह कृति विशुद्ध मैथिली की रचना है। मैथिली गीतों के कारण ही यह कृति इतनी दोलनशील (वाइब्रेण्ट) और उद्यमशील है।
धूर्तसमागमका हास एक गणिका-विलासी लम्पट संन्यासी विश्वनगर और तदनुकूल उनके शिष्य स्नातक के भिक्षाटन से शुरू हुआ। भिक्षाटन के इस सहज सन्धान में दोनो परम कृपण धनशाली मृतांगार ठाकुर के यहाँ पहुँच गए, जिनके लिए धन का मोल प्राण से अधिक था। कृपण-कलंक के कारण पड़ोसीगण उनका नाम नहीं लेते थे। मृतांगार ठाकुर से निरास हुए, किन्तु उन्हीं की अनुशंसा पर गुरु-शिष्य मासोपवासिनी सुरतप्रिया के घर पहुँच गए, फिर अतीव-सुन्दरी, स्वाधीन-यौवना वेश्या अनंगसेना से भेंट हुई, अनंगसेना के यौवन पर कामासक्त गुरु-शिष्य में प्रतिस्पद्र्धा होने लगी, अनंगसेना की सलाह पर वे पंचैती के लिए असज्जाति मिश्र के दरवाजे पहुँचे, असज्जाति मिश्र स्वयं परम स्त्री-प्रेमी थे और उनके द्यूतप्रेमी, परधनहारी मित्र बन्धुवंचक विदूषक उपस्थित थे। गुरु-शिष्य के गाँजा-भाँग की पोटली शुल्क के तौर पर जमा करबा कर पंचैती की प्रक्रिया शुरू ही हुई थी; असज्जाति मिश्र और बन्धुवंचक अपने-अपने दाँव-पेंच खेल ही रहे थे कि कहीं से मूलनाशक आ गए और अनंगसेना से पूर्व में किए गए मदन-मन्दिरक्षौरकर्म का वेतन माँगने लगे; नहीं देने पर नालिश करने की धमकी भी दे डाली। अनंगसेना ने असज्जाति मिश्र द्वारा वेतन चुकाने कह बात कही। दोनो संन्यासियों से हड़पी हुई गाँजा-भाँग की पोटली असज्जाति मिश्र ने मूलनाशक को दे दी। वेतन में वह पोटली पाकर मूलनाशक प्रसन्न हुए और असज्जाति मिश्र के हाथ-पैर ढँककर बाल काटने को उद्यत हुए।
यहाँ सगौरवं गृहीत्वा सप्रमोदमाघ्राय किंचिद् विनियुज्य च मिश्रस्य करचरणयोर्बन्धनं कृत्वा व्यापारं नाट्यतिपंक्ति का अर्थ अधिकांश विद्वानों ने मूलनाशक हजाम वेतन स्वरूप गाँजा-भाँग की पोटली पाकर गौरवान्वित हुआ और असज्जाति मिश्र के हाथ-पैर बाँधकर बाल काटने का अभिनय करने लगे...किया है। यह दोषपूर्ण अनुवाद है। यहाँ अर्थ होना चाहिए हाथ-पैर ढँककर बाल काटने को उद्यत हुए।कारण, कृति में मूलनाशक हजाम का जैसा विवरण पूर्व में दिया गया है, और उस काल की जैसी समाज-व्यवस्था थी, उसमें कोई अंग-भंग हजाम द्वारा किसी व्यवस्थित(?) गृहस्थ का हाथ-पैर बाँधा जाना सम्भव नहीं था।... तदुपरान्त असज्जाति मिश्र की हृदय-पीड़ा और अस्थि-सन्धि में दर्द आदि गाँजा की पोटली सूँघने के कारण सवार हुए नशे की परिणति थी। इस समग्र दृश्य के सोद्देश्य समायोजन पर गम्भीरतापूर्वक विचार होना चाहिए। चलताऊ समीक्षा से इस कृति का अनुशीलन सम्भव नहीं है। भावकों को स्मरण रहे कि बहुत सहज दिखनेवाला पाठ अधिकांश समय में बहुत जटिल संवेदना से भरा रहता है। मैथिलों के लिए यह गौरव का विषय है कि इस शिल्प की पुनरावृत्ति फिर दो मैथिल महर्षियों ने ही किया--हरिमोहन झा और वैद्यनाथ मिश्र यात्री ने।
ऐसा ही एक दृश्य तब उपस्थित हुआ जब विदूषक ने अनंगसेना को किनारे ले जाकर पटाने का प्रयास किया और कहा कि असज्जाति मिश्र बूढ़े हैं, विश्वनगर निर्धन, स्नातक व्यभिचारी, इसलिए इनका समागम छोड़कर मेरे समागम से आपका यौवन सफल होगा। उस समय अनंगसेना मुस्काती हुई, अपनी ओर देखती हुई बोलीं--इस  धूर्तसमागम प्रहसन का सिरा आब स्पष्ट हुआ (एतत् धूर्तसमागमप्रहसनं संमवृत्तम्)! और इसी समय विश्वनगर ने वैराग्यपूर्वक गीत गाना शुरू किया--
अरे रे सनातक! तोरिहि कुमान्ति। अनंगसेना हरि लेल असजाति।।
कतए विचार कराओल आनि। जन्हिक चरित मूलनाशक जानि।।
हेरितहि हरि धन लय गेल चोर। हाथक रतन हरायल मोर।।
कके होएबह (खिन) हरि अनुरागे। जोंकक आँग जोंक न लागे।।
कविशेषर जोतिक एहु गाव। राए हरसिंह बुझए रस भाव।।
विदूषक, वेश्या और संन्यासी के बुद्धि, विवेक और वक्तव्य का यह समेकित प्रभाव इस दृश्य में घनघोर व्यंग्य उत्पन्न करता है। बौद्धिक दृष्टि अपनाने पर ही यहाँ किसी भावक को व्यंजना का प्रभाव दिखेगा। जहाँ पंच, गृहस्थ, सामन्त, शिष्य, संन्यासी...सब के सब अपनी-अपनी पद्धति से दुर्वृत्ति में लीन हैं; स्त्री-देह की मोहासक्ति में किसी का विवेक जग नहीं पाता है; सब अपनी पराजय का कलंक दूसरों पर थोप रहा है; वहाँ एक वेश्या (देह ही जिनके व्यापार की पूँजी है) के स्मित हास और एतत् धूर्तसमागमप्रहसनं संमवृत्तम्जैसे वक्तव्य से विराट व्यंजना उत्पन्न होती है। संयोगवश आज सात सौ बरस बाद ऐसे ही वातावरण में हमलोग जीवन-यापन कर रहे हैं।
सम्पूर्ण भारत के समस्त सांस्थानिक/सामाजिक/शासकीय उद्यम में एक से एक खूनी, आतंकी, फरेबी आचरण निरीह लोगों की गरदन दबाने में लीन है। जिस राष्ट्र में कदम-कदम पर मनुष्य असुरक्षित हो, प्रभुत्व-सम्पन्न लोग दुर्बलों का हिस्सा हरप लेने पर आमादा हो, अन्न-वस्त्र-आवास के लिए लोगों को स्वाभिमान बेचना पड़े, मानवाधिकार का कोई भी संकेत जहाँ बचा नहीं रह गया हो, लिंग-जाति-सम्प्रदाय के पदक्रम से जहाँ मनुष्य का बुनियादी पदक्रम तैयार होता हो, जहाँ सामुदायिक जीवन में संशय और आतंक का ताण्डव मचा हो...वहाँ कोई सामान्य मनुष्य अपने लिए किस राष्ट्र और किस राष्ट्रवाद की कल्पना करेगा! भारतीय परम्परा में ज्ञानाकुल लोग पहले दर्शन की ओर प्रवृत्त होते थे, अब अभिभावकगण अपनी सन्तानों को प्रबन्धन की ओर प्रवृत्त करते हैं। शिक्षा अब सार्थक जीवन के लिए नहीं, सफल जीवन के लिए होती है। नीति, निष्ठा, विवेक...ये तीनो सफल जीवन के सब से बड़े बाधक बन गए हैं। राष्ट्रीयता एक धर्म है, जिसे लोग धारण करते हैं, किन्तु राजनीतिक ऊधम से उद्वेलित सामाजिक व्यवस्था ने समस्त आचरणों की परिभाषा बदल दी है; पारिभाषिक शब्दावली बदल गई है। ऐसी परिस्थिति में धूर्तसमागमके पाठ को याद करना हर संवेदनशील और ज्ञानचेता मनुष्य का दायित्व होता है। संयोगवश अपने इसी दायित्व को प्रकाश चन्द्र झा और मैलोरंग ने समझा है, इस राष्ट्रीय उद्यम लिए रूपान्तरकार और प्रस्तोता संगठन सम्पूर्ण राष्ट्र की ओर से बधाई के पात्र हैं।
किन्तु आधुनिक मैथिली में धूर्तसमागमका नाट्यालेख प्रस्तुत करते हुए रूपान्ताकार प्रकाश चन्द्र झा द्वारा विश्वनगर, स्नातक, मृतांगार ठाकुर, असज्जाति मिश्र का नाम बदल देना और मूलनाशक को अनुपस्थित कर देना नाटक के प्रभाव को कुन्द करता है। ये सारे नाम सहज नहीं हैं, सारे नामों में कोई न कोई व्यंग्य भरा हुआ है। और, मूलनाशक की उपस्थिति तो अनिवार्य है। इस पात्र की अनुपस्थिति से धूर्तता की एक सम्पूर्ण शाखा वंचित रह जाएगी और धूर्त समाज का समावेशी रूप सामने नहीं आ पाएगा। इस कोटि के प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के अनुवाद, वार्तिक, भाष्य, पुनर्कथन, आत्मसातीकरण के द्वारा ही वर्तमान भारत के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांकृतिक पराभव की सायास विडम्बना को रेखांकित जा सकेगा; अर्थात् अनुवाद ही इस समाज की आँखों में अँगुली डालकर कहेगा कि उठो, तुम वह नहीं हो, जो तुम्हें बताया जा रहा है; तुम्हारे पूर्वजों ने बड़े-बड़ों के अकल ठिकाने लगाए हैं, तुम भी लगाओ...।

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