निरन्तर ख़ौफ़नाक परिस्थितियों से जूझते हुए जैसे-जैसे
विसंगत अनुभव मैंने जुटाए, उनमें भाग्य और ईश्वर जैसी अमूर्त शक्तियों का जिक्र
बार-बार आया, जिन पर कभी भरोसा न हुआ। पर सोचता हूँ कि 22 मई 1991, बुधवार की सुबह का वह मुहूर्त मेरे जीवन में अचानक से
कैसे आया?...लेनिनग्राद से भारत वापस आ रहे अपने अग्रज मित्र डॉ. नरेन्द्र
प्रसाद सिंह की अगुवाई में डालटनगंज से दिल्ली आया था। मई 21, 1991 की गहन रात्रि की
विचित्र घड़ी में मैं जे.एन.यू. कैम्पस पहुँचा था। यहाँ पहुँचने से पूर्व मुझे
इस बात का इल्म न था कि उस दिन प्रात:काल आततायियों ने तमिलनाडु के श्रीपैराम्बदूर के चुनाव-प्रचार में बम-विस्फोट कर भारत के प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की जान ले ली थी। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन
से जे.एन.यू. तक की सड़कों पर ख़ौफ़नाक सन्नाटा पसरा हुआ था।... जे.एन.यू. में हिन्दी
में पी-एच.डी. कर रहे रमेश कुमार (नरेन्द्रजी के रिश्तेदार, बाद में मेरे घनिष्ठ
मित्र, अभी श्रीवार्ष्णेय कॉलेज, अलीगढ़ में हिन्दी के विभागाध्यक्ष) के
कमरे में रुका। सुबह-सुबह (22 मई 1991) रमेशजी से निवेदन किया—नामवरजी यहीं रहते हैं, उनसे मिल पाना सम्भव है क्या?...तब
तक अपनी पहली पी-एच.डी. के शोध-निर्देशक डॉ. शिवशंकर झा 'कान्त' की प्रेरणा से
नामवरजी द्वारा सम्पादित पत्रिका आलोचना के कुछ अंक और उनकी विशिष्ट
कृतियाँ--आधुनिक साहित्य
की प्रवृत्तियाँ (1954), छायावाद (1955), कविता के नए
प्रतिमान (1968), दूसरी परम्परा की खोज (1982) पढ़ चुका था। उनके मोहक गद्य से मैं सम्मोहित था।
उनके जैसा गद्य लिखने की विफल कोशिश भी करता रहता था।...उस वक्त जे.एन.यू.
कैम्पस की हवाओं में मुझे उनके विचार और गद्य-शैली की अनुगूँज-सी सुनाई पड़ रही
थी।...
जे.एन.यू. के कावेरी छात्रावास में
जलपान करने के बाद रमेशजी मुझे टहलाते-टहलाते 109, उत्तराखण्ड (नामवरजी का तत्कालीन
आवास) के दरवाजे तक पहुँचा गए। एक छोटे-से नामपट्ट पर लिखा था—नामवर सिंह। इतने
बड़े नामवर का इतना छोटा नामपट्ट देखकर चकित नहीं हुआ। गाँव में किर्तनियाँ
समुदाय को गाते हुए सुना था—राम से बड़ा राम का नाम। मुझे उस कीर्तन का कोई अर्थ न तब
लगा था, न अब लगा है। अब तक न तो राम जैसी किसी शक्ति को देखा, न ही उनकी कोई महिमा
जानी। किन्तु नामवर नामधारी महिमामय व्यक्ति से तो अभी-अभी मेरी भेंट
होनेवाली थी, जिनके लघुकाय नामपट्ट की लघुता में उनकी ख्याति का वैराट्य समाया
हुआ महसूस कर रहा था।
मैंने रमेशजी से कहा—आप अब चलिए, मैं
मिलने के बाद आपके हॉस्टल आ जाऊँगा। रमेशजी ने कहा—घण्टी बजाइए।
परिचय करा देता हूँ! मैंने उनका प्रस्ताव ठुकराते हुए कहा—जी नहीं! कल को
नामवरजी से मेरे रिश्ते कैसे हों, इसका श्रेय मैं किसी और को नहीं देना
चाहता।...रमेशजी वापस आ गए। मैंने घण्टी बजाई। भव्य व्यक्तित्व, लम्बे कद-काठी
के नामवर जी प्रकट हुए—जी! बताइए!
डॉक्टर साहब! मैं देवशंकर नवीन, मैथिली
और हिन्दी में भी लिखता हूँ। आपसे मिलने की अभिलाषा लिए बिहार से आया
हूँ।...नामवरजी ने दरवाजे से मेरे प्रवेश का रास्ता देते हुए अपनी फैली तलहत्थी को
अन्दर की ओर लहराया (गोया बीच की हवाओं को मेरे लिए रास्ता देने का आदेश दे रहे
हों) और कहा—'आइए!'...अह्! उस मद्धम-सी ध्वनि के 'आइए' में क्या आकर्षण था...गजब!
नामवरजी ने दरवाजे की सिटकनी लगाई और
हमलोग भीतर आकर बैठ गए। उन्होंने कहा—आप ज्योतिरीश्वर, विद्यापति, नागार्जुन, सुभद्र झा की
भव्य परम्परा से आए हैं। बताइए! कैसे आना हुआ? ...मैंने कहा—डॉक्टर साहब, मिलने
के अलावा कोई भी अभिकलित उद्देश्य नहीं है। पर आपके सामने हूँ, तो एक साहस कर
लेता हूँ!
-जी, बताइए!
-ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय,
दरभंगा से मैंने 'राजकमल चौधरी : जीवन एवं साहित्य' विषय पर मैथिली में
पी-एच.डी. की है। बीते दिनों राजकमल चौधरी पर हिन्दी में कई लेख लिखे। एक
प्रकाशक उसे छापना चाहता है। आप उस पर चार वाक्य लिख देते तो मेरे लिए आशीर्वाद
हो जाता, किताब के लिए संस्तुति हो जाती।
उनके गम्भीर आलोचकीय दर्प के बीच से
रत्ती भर की एक मुस्कान उभरी, जो खिलने से पहले एक वाक्य बन गई—क्यों बच्चों
की तरह उँगली पकड़कर चलना चाहते हैं?...वे अपनी वाग्विदग्धता में शायद मेरे
दुस्साहस पर मुस्कराना चाहते थे, और मुझे मना भी कर रहे थे। तब मुझे मालूम न था
कि मैं दन्तकथा के उस गोरैया जैसा दुस्साहस कर रहा हूँ, जो डैनों में धूल लिपटाकर
राम द्वारा बनाए जा रहे रामेश्वरम् सेतु के अगले सोपान में धो आता था और खुद को
उस पुनीत कार्य का सक्षम हिस्सेदार मानता था। अब समझ में आता है कि मैंने कितना
बड़ा दुस्साहस किया था। तब मुझे यह भी नहीं मालूम था कि नामवरजी राजकमल चौधरी
को पसन्द नहीं करते। इसका यह मतलब नहीं कि वे राजकमल चौधरी के लेखन को नकारते
थे। वे सदैव अपने विरोधियों के कथन में भी कुछ सार्थक देखकर स्वीकारते रहे। उनकी
स्पष्ट राय थी कि अपनी मान्यता पर डटे रहने के बावजूद प्रतिपक्ष से सहमति की
सम्भावना बने रहने देना चाहिए। लोगों को नामवर सिंह द्वारा राजकमल चौधरी की
प्रशंसा में लिखा कोई लेख बेशक न दिखा हो, पर तथ्य है कि उन्होंने कहीं
राजकमल चौधरी की भर्त्स्ना में भी कोई लेख नहीं लिखा। प्रसंगानुकूल उल्लेख
सुसंगत होगा कि सन् 1967 के
आसपास का समय भारतीय लोकतन्त्र के लिए दुर्वह था। लम्बे समय के कांग्रेसी शासन
में देश की आन्तरिक दशा बेढब थी। सन् 1964-1966 तक में देश ने चार प्रधानमन्त्रियों को देखा था। लाल बहादुर शास्त्री
के कार्यकाल में हिन्दी को राजभाषा बनाए जाने से देश में
अफरातफ़री मची हुई थी। क्षेत्रीय
ताक़तें मुखर हो रहीं थीं। हरित क्रान्ति की शुरुआत के बावजूद अनाज की तंगी जारी थी। सन् 1962
और 1965 के सीमा-संघर्ष एवं अन्य कारणों से देश की अर्थव्यवस्था
चरमराई हुई थी। सन् 1967 में
इन्दिरा गाँधी की सरपरस्ती में हुए पहले आम चुनाव के परिणाम में कांग्रेस पार्टी
की स्थिति से ऐसा स्पष्ट भी हुआ था। सरकार बनाने में कांग्रेस पार्टी लगातार चौथी बार
सफल तो हुई, पर
राज्यों पर उसकी पकड़ ढीली दिखी। पण्डित जवाहरलाल नेहरू की अनुपस्थिति में हुआ वह पहला चुनाव था। भारतीय राजनीति के लिहाज से वह चुनाव
महत्त्वपूर्ण था। वह देश की पहली महिला
प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी के युग की शुरुआत थी। राज्य विधानसभा चुनावों
में भी कांग्रेस को तगड़ा झटका लगा था। कई राज्यों की सत्ता उससे
छिन गई और कुछ राज्यों में कांग्रेस विरोधी दलों के
गठजोड़ से संविद सरकारों की नींव रखी गई। चीन और पाकिस्तान के साथ हुए संघर्षों में
अमेरिका और रूस के रवैये से अन्तरराष्ट्रीय राजनीति-विश्लेषक तरह-तरह के कयास
लगाने लगे थे।
उसी दौरान हिन्दी की विशिष्ट पत्रिका आलोचना के
सम्पादन का दायित्व नामवरजी ने सँभाला। उनके सम्पादन में आलोचना (अप्रैल-जून 1967) नए तेवर के साथ प्रकाशित होनी शुरू हुई। इस अंक से हिन्दी पत्रिका आलोचना के
नए युग का आरम्भ माना गया। इसे नवांक-1 की संज्ञा दी गई। इसी अंक में नामवरजी ने उस दौर के सर्वाधिक ज्वलन्त
विषय 'चुनाव के बाद का भारत' विषय पर पूरे देश के चौदह (सम्भवत:) विशिष्ट
चिन्तकों की परिचर्चा आयोजित कर उनकी टिप्पणियाँ प्रकाशित कीं। उस चौदह चिन्तकों
के तारकपुंज में, जिनमें उनके गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी भी थे, राजकमल
चौधरी भी थे, जो आयु में नामवरजी से तीन वर्ष छोटे थे। जिज्ञासा सहज होगी कि नामवरजी राजकमल चौधरी से नफरत करते तो ऐसा क्यों करते? अपने
सम्पादन में अपने गुरु के समकक्ष महत्त्व कैसे देते। बहरहाल...
मैंने कहा--डॉक्टर साहब, अपने पाँव की
शक्ति थाहने से पहले तक तो बच्चे बड़ों की उँगली पकड़े ही रहते हैं।
तनिक-सी एक मुस्कान के साथ ध्वनि
फूटी—बड़े वाक्पटु दिखते हैं!
मैंने छूटते ही कहा—सर, बिहार से लोग
जब दिल्ली की ओर रवाना होते हैं, तो बड़े-बुजुर्ग और दिल्ली आ जाने पर टूरिस्ट
गाइड कहते ही रहते हैं—दिल्ली में कुछ देखो चाहे न देखो, कुतुबमीनार जरूर देख
लेना! मैं भारतीय समाज, विश्व-साहित्य, मानव-सभ्यता, और जनसंस्कृति के
कुतुबमीनार के सामने बैठकर क्या वाक्पटुता दिखाऊँगा?
इस बार नामवरजी की मुस्कान हल्की-सी
हँसी तक पहुँची। उस वक्त तो मुझे लग रहा था कि मैंने ऐसा वाक्य कहकर बहुत बड़ा
तीर मारा है! नामवरजी की हँसी ने और भी मुगालते में डाल दिया। पर अब सोचता हूँ कि
बड़े विद्वान कई बार दूसरों की मूर्खताओं का भी आनन्द लेते हैं। अपने लिए तो आज
भी दुखी रहता हूँ कि नामवरजी, केदारजी जैसे गम्भीर विद्वानों की सोहबत में मैं
ऐसा क्यों नहीं सीख पाया? वैसी मूर्खता करते हुए लोगों को देखकर उनकी तरह नजरअन्दाज
क्यों नहीं कर पाता हूँ? गुरुवर, सुन रहे हों तो ऐसा कर पाने का आशीष दें! इस कला
के बिना बहुत तकलीफ होती है।
आगे कुछ बातें मैथिली साहित्य की
रचनाओं को लेकर हुई। जी.एल.ए. कॉलेज, डालटनगंज (राँची विश्वविद्यालय) में तदर्थ
व्याख्याता पद पर मेरी स्थिति को लेकर हुई। इसी बीच मैंने एक और अभिलाषा
जताई, कहा--सर, मैथिली में मैं पी-एच.डी. तो कर चुका, राँची विश्वविद्यालय से भौतिक
विज्ञान में एम.एस-सी. भी हूँ, वहीं से इस बार हिन्दी में एम.ए. की परीक्षा दी
है। ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा में डी.लिट्. के लिए अनुबन्धित
हो गया हूँ, पर आप अपने साथ कुछ दिनों काम करने का अवसर दें तो पिछला सब कुछ
छोड़कर यहाँ आ जाऊँगा।
-नौकरी का क्या करेंगे?
-नौकरी तो एडहॉक है सर! आपके साथ काम करने
के सुख से बड़ा सुख कोई नौकरी तो दे नहीं सकती!
-भावुकता की बात मत कीजिए। तर्कपूर्ण
रहा कीजिए!
बहुत जिद करने पर उन्होंने कहा—देखिए,
यहाँ डी.लिट्. नहीं होता। प्रवेश परीक्षा पास करने पर एम.फिल्. में दाखिला होता
है। हमारे सेण्टर में डायरेक्ट पी-एच.डी. में दाखिला के लिए आवेदन माँगा गया
है। जाकर देख लीजिए, मन करे तो आवेदन कर दीजिए। इण्टरव्यू से चयन होगा।
मैं प्रसन्न-चित्त बाहर आया। नामालूम
कारणों से स्वयं को ताकतवर महसूस करने लगा था। अभाव समेत अनेक परेशानियों ने जिस
तरह मेरे जीवन को विफलता और हताशा का सम्मेलन-कक्ष बना दिया था, उसमें अचानक से
आशा की किरण दिखने लगी। कुछ दिनों पहले कहीं एक प्रसंग पढ़ा था—शहंशाह अकबर ने
अपने दूसरे बेटे को किसी सूबे की देखभाल के लिए भेजा था। बेटे ने पिता को पत्र
लिखा कि यहाँ एक बड़े प्रतापी फकीर हैं, फकीरों पर आपकी बड़ी आस्था है; मेरा मन
करता है कि उनसे मिलूँ, आप इजाजत दें तो मिल आऊँ! अकबर ने जवाब दिया—जरूर मिलो,
मगर मिलने पर भय लगे, तो दुबारा न मिलना। क्योंकि ज्ञान उजाला फैलाता है,
भयमुक्त करता है, भयभीत नहीं। अपने फन में जो माहिर होते हैं, उन पर खुदा का विशेष
करम होता है। उनसे मिलना, खुदा से मिलने के बराबर होता है।...कहते हैं कि अपने
दरबार में नवरत्न की बहाली अकबर ने इसी मंशे से की थी। नामवरजी से मिलकर बाहर निकलने
के बाद देर तक मुग्ध होता रहा--इतने महान व्यक्ति से मिल आया, इतनी देर उनके
साथ बैठा रहा, कभी कोई भय अथवा संकोच नहीं हुआ। पूरे समय किसी अनजान सम्मोहन से
भरा रहा।...जानता था कि मूर्खों को कोई भय-संकोच नहीं होता। क्योंकि भय और
संकोच का सीधा रिश्ता उचितानुचित के चिन्तन-विवेक से होता है, यह कार्य स्वस्थ
मस्तिष्क की अपेक्षा रखता है, दुर्योग से मूर्खों के पास यह उपकरण होता नहीं।
मैं सुबुद्ध बेशक न रहा होऊँ, पर मूर्ख तो कतई नहीं था। अपने जीवन के उस क्षण की
मूल्यवत्ता का पूरा अभिज्ञान मुझे था। बाहर निकलते हुए नामवरजी दरवाजे तक
छोड़ने आए। बाहर आकर वापस उनकी तरफ मुड़कर हाथ जोड़कर अभिवादन करते हुए मुझे अपने
उस सौभाग्य पर सचमुच इतराने का मन करने लगा।
काबेरी छात्रावास के 220 नम्बर कमरे में रमेश रहते थे, वापस आकर उन्हें अविकल
कहानी बताई, उन्होंने डायरेक्ट पी-एच.डी. में दाखिला के लिए आवेदन करने की
पूरी व्यवस्था कर दी। आवेदन जमाकर वापस मैं डालटनगंज आ गया। इण्टरव्यू के लिए
बुलावा आया। सम्भवत: जुलाई 1991 में कभी। अब एक बार फिर जे.एन.यू. में था। इण्टरव्यू से
एक दिन पूर्व मैं फिर बैताल की तरह नामवरजी के सिर आ धमका—सर, आपके कहे अनुसार
मैंने आवेदन किया। बुलावा भी आया। अब मैं आपके सामने हूँ।
उन्होंने कहा—देखिए, डायरेक्ट
पी-एच.डी. में दाखिला के लिए उन आवेदकों को भी बुलाया जाता है जिनके पास एम.फिल्.
की डिग्री बेशक न हो, पर उनका लिखा छपा इतना हो कि उसे एम.फिल्. डिग्री के
समतुल्य माना जाए। इस बार संयोग से भीड़ ज्यादा है। कई अभ्यर्थी बुलाए गए हैं।
प्रतिस्पर्द्धा अधिक है। इण्टरव्यू में पूरे विभाग के सभी अध्यापक रहेंगे।
सभी आपसे सवाल करेंगे, आपको अपनी श्रेष्ठता साबित करनी होगी।...अगले दिन इण्टरव्यू
था। प्रस्तावित शोध के लिए किसी एक नूतन विषय पर प्रारूप लेकर इण्टरव्यू में
उपस्थित होना था। नैतिक समर्थन में रमेशजी मेरे साथ थे। भारतीय भाषा केन्द्र
के कमरा संख्या-24 (नामवरजी का चैम्बर) में इण्टरव्यू होना था। मेरे अलावा अन्य ग्यारह
अभ्यर्थी वहाँ पहले से उपस्थित थे। एक अभ्यर्थी के हाथ में मैंने कवि केदारनाथ
सिंह की कविता पर लिखा लघु शोध-प्रबन्ध देखा। वे बनारस से आए हुए थे, खुद को काशीनाथजी
के निकटर्ती बता रहे थे। मेरी नाउम्मीदी में तनिक और इजाफा हुआ। क्योंकि भीतर
इण्टरव्यू में स्वयं केदारनाथ सिंह बैठे हुए थे, अध्यक्षता कर रहे नामवरजी
काशीनाथजी के बड़े भाई थे, पिछली शाम नामवरजी की भाषा भी तनिक बदले हुए सुर की
लगी थी—'आपको अपनी श्रेष्ठता साबित करनी होगी।'...करीब-करीब सोच लिया कि जब
नहीं होना है, तो सिर क्या धुनना!
इण्टरव्यू देकर वापस आए एक अभ्यर्थी
से पूछ बैठा—क्या पूछा गया आपसे? उन्होंने बिन्दास अन्दाज में कहा—कुछ खास
नहीं, संस्कृत का कोई श्लोक सुनाने को कहा गया। मैंने सुना दिया। फिर सिनॉप्सिस
माँगा। उन्होंने एकाध और सवाल बताए।...मैंने उनसे पूछा—आपने श्लोक कौन-सा सुनाया?
उन्होंने कहा—त्वमेव माता च पिता त्वमेव...। मुझे अचानक से अपनी खोती हुई शक्ति
वापस आती दिखने लगी। लगा कि इनकी तुलना में मेरी समझ बेहतर है। पी-एच.डी. में
दाखिला का इण्टरव्यू देते हुए नामवर सिंह के सवाल पर कोई अभ्यर्थी यह श्लोक
सुनाए, तो क्या कहा जाए?...
मुझे लगा कि यह श्लोक सुनकर नामवरजी
ने निश्चय ही सिर पीटा होगा! अपने बारे में तो जानकारी नहीं थी, उनका चयन न
होने का परिणाम मैं उसी वक्त रमेशजी के कान में कह डाला। एकाध अभ्यर्थी के बाद
मेरी बारी आई। संयोग ऐसा कि श्लोक सुनाने को मुझे भी कहा गया।...मुझे हठात्
राजशेखराचार्य का एक श्लोक याद आया। कविराज राजशेखर (सन् 880-920) ने
काव्यशास्त्र सम्बन्धी अपने मानक ग्रन्थ काव्यमीमांसा के नवें अध्याय में पाठप्रतिष्ठा, काव्यार्थ और
अर्थव्याप्ति जैसे विषयों पर विचार किया है; जिसमें उन्होंने शब्दानुशासन के प्रवचनकर्ता
और शाकटायन व्याकरण के रचयिता पाल्यकीर्ति (सन् 814-867) के श्लोक का
उद्धरण दिया है। इससे विशिष्ट विद्वानों
का तारकपुंज मुझे और कहाँ मिलता! मैंने पूरा श्लोक
सुना दिया--येषाम् वल्लभया समम् क्षणमिव क्षिप्रम् क्षपाक्षीयते, तेषाम्
शीतकरो शशि विरहिणाम् उल्कैव सन्तापकृत्। अस्माकं न तु वल्लभा न विरहस्तेनोभयाभावत:
चन्द्रौराजति दर्पणाकृति नोष्णो न वा शीतल:।...हालाँकि इसका एक पाठ--येषां वल्लभया समं क्षणमिव स्फारा क्षपा क्षीयते, तेषां शीततर: शशि विरहिणामुल्कैव सन्तापकृत्। अस्माकं न तु वल्लभा न विरहस्तेनोभयभ्रंशिनाम् इन्दुराजति दर्पणाकृतिरयं नोष्णो न वा शीतल:...भी है।
सारे लोग चुप थे, शायद सब के सब नामवरजी
के अगले सवाल की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने कुछ प्रसन्नचित्त होकर अगला
सवाल किया—इसका अर्थ कर सकते हैं? मैंने अन्वय करते हुए अर्थ बताया। फिर उन्होंने
प्रस्तावित शोध का प्रारूप माँगा। मैंने उनके समक्ष प्रारूप रख दिया—राजकमल चौधरी
की कहानियों का सामाजिक सरोकार। उस वक्त तक भी मुझे जानकारी नहीं थी कि
नामवरजी राजकमल चौधरी को पसन्द नहीं करते। हालाँकि अच्छा ही था कि मुझे जानकारी
न थी; होती, तो निश्चय ही मैं किसी और विषय पर सिनॉप्सिस ले जाता, और हो न
हो मेरा चयन नहीं होता।
सिनॉप्सिस देखकर उन्होंने पूछा—आपको
ऐसा लगता है कि राजकमल चौधरी ने इतना कुछ लिखा, जिन पर पी-एच.डी. हो जाए?
मुझे तनिक अचरज हुआ। इस बात की तो कल्पना
असम्भव थी कि राजकमल चौधरी के लिखे-छपे साहित्य से नामवरजी अनभिज्ञ रहे हों!
मैंने उनके इस प्रश्न को इस रूप में लिया कि वे सम्भवत: मुझे उग्र करना चाह
रहे हैं; या फिर मेरे धैर्य, शालीनता और अध्ययन की सीमा जानना चाहते हैं। मैंने
कहा—सर, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने मात्र तीन कहानियाँ लिखीं, उनमें भी विचार
सदैव एक ही कहानी पर होता है। उन पर लगातार शोध हो रहे हैं। राजकमल चौधरी की लगभग
साढ़े आठ सौ कविताएँ, दस उपन्यास, पाँच दर्जन से अधिक वैचारिक लेख, आधे दर्जन
के करीब एकांकी, कई स्तम्भ-लेखन, चार सौ पृष्ठों के करीब वैचारिक पत्र-डायरी
को छोड दिया जाए, तो भी उनकी लिखी दोनों भाषाओं की केवल कहानियाँ ही डेढ़ सौ के
करीब हैं। और, जितना मैं देख पाया हूँ, अब तक एक भी कहानी द्वितीयक श्रेणी की
नहीं है। फिर भी उन पर पी-एच.डी. न हो, तो फिर हो किन पर?...सब के सब स्तब्ध
रह गए। स्वयं नामवरजी कुछ चौंके हुए से दिखे। उन्हें सम्भवत: विश्वास नहीं
हो पाया। उन्होंने फिर पूछा—आपने ये सब रचनाएँ देखी हैं? मैंने कहा—सारी नहीं देखी
हैं, अनुसन्धान में लगा हूँ सर, सूची मेरे पास है।...नामवरजी ने स्वयं सूची
देखी, फिर औरों की तरफ बढ़ाया। फिर मेरी प्रकाशित रचनाओं की कतरनें देखी जाने
लगीं। और, होते-होते उस साक्षात्कार में बातचीत के चरित्र घुस आए। कुछ बातचीत के
बाद मैं बाहर आ गया।...
अगली सुबह फिर उनके घर पहुँच गया। उन्होंने
दरवाजे पर ही कहा—बधाई हो, आपका चयन हो गया है। पहले नम्बर पर आपका ही नाम है। कुछ पैसे-वैसे
हैं साथ में? न हों, तो इन्तजाम कर लीजिए। कल तक नोटिफिकेशन हो जाएगा। नामांकन
कराकर ही वापस जाइए। मैं खुशी-खुशी वापस हुआ। रमेशजी के कमरे में जश्न मनाया गया।
अगले दिन सचमुच नोटिफिकेशन हो गया। नामांकन के समय भी कई लिपिकीय बाधाएँ उपस्थित
हुईं, जिन्हें फोन पर निर्देश दे-देकर फिर नामवरजी ने ही दूर किया।
उनके लिए जातिवादी, सम्बन्धवादी,
परिवारवादी, मान्यतावादी विशेषण का झुनझुना बजानेवालों को तनिक रुककर विचार
करना चाहिए कि मैं तो उस दिन बाढ़ में बहकर आए तिनके की तरह था! अपने लिए तो
हर कोई महत्त्वपूर्ण होता है, पर नामवरजी के सामने मेरी औकात तो तिनके की ही थी,
सिनॉप्सिस भी उनकी पसन्द के प्रतिकूल विषय पर था, फिर भी उन्होंने मेरा
चयन किया, यह उनकी तटस्थता नहीं थी? वे मान्यतावादी होते तो ऐसा करते?
बहरहाल...
जे.एन.यू. के हॉस्टल में रहकर पढ़-लिख
पाने की व्यवस्था में लिप्त हो गया। दिन कटता गया। एक दिन रामदुलारेजी (भारतीय
भाषा केन्द्र में कार्यरत नामवरजी के प्रिय कर्मचारी) ने सूचना दी कि डॉक्टर
साहेब ने बुलाया है। मैं तो वैसे भी आचार्यवर से मिल आने के बहाने ढूँढता रहता
था। पहुँच गया घर। नमस्ते किया। मेरा अभिवादन स्वीकार करते हुए उन्होंने पूछा—ये बताइए, आपने
कहा था कि पारिवारिक भरण-पोषण का दायित्व आप पर ही है, आप तो नौकरी छोड़कर
यहाँ आ गए हैं, ऐसे में कैसे काम चल रहा है?
मैंने कहा—सर, और तो कोई
शऊर है नहीं! थोड़ा-बहुत पढ़ना-पढ़ाना भर आता है। आर.के.पुरम में विज्ञान का एक
ट्यूशन पढ़ाता हूँ और अखबार-पत्रिकाओं के दफ्तरों में जा-जाकर कुछ लिखने का काम
ले आता हूँ। किसी तरह काम चल रहा है।
नामवरजी दो पल के लिए चुप रहे। सन्नाटा-सा
छाया रहा। फिर उन्होंने एक लम्बी साँस खींची और कहा—चलिए, कुछ तो राहत
मिली!
मैंने महसूस किया कि आचार्यवर मेरी
आर्थिक बदहाली पर घोर चिन्तित हैं। इनके वश में कुछ होता, तो आज ही मुझे कोई
रोजगार दिला देते।...एक तरफ मैं दुखी हो रहा था कि इन्हें मेरी जिम्मेदारियों
के बोझ ने परेशान कर रखा है। दूसरी ओर उत्साह से प्रफुल्ल था कि ऐसी महान शख्सीयत
जिसके लिए इतने रहमदिल हों, उनके जीवन में दु:ख अधिक देर टिक नहीं सकता।
गुरुवर ने आगे कहा—पर इस समय किसी और बात के लिए आपको बुलवाया है!
-जी!
-विभाग में आपके शोध-निर्देशक तय होने
हैं। किसी को चुनकर बात कर लीजिए!
-सर, शोध-निर्देशक चुनने की औकात तो
मेरी है नहीं, प्रयोजन भी नहीं है, क्योंकि मैंने तो आवेदन ही किया था आपके निर्देशन
में काम करने के लिए।
-पर ऐसा सम्भव नहीं होगा। मैं थोड़े ही
दिनों बाद, कैम्पस से बाहर चला जाऊँगा। फिर आपको गाइड बदलना पड़ेगा। आप मुश्किल में पड़
जाएँगे। इसलिए अभी ही ऐसा गाइड तय कर लीजिए, जिनके साथ आगे तक आप बने रहें।
उन्होंने कुछ नाम भी बताए और कहा कि ये लोग मेहनती हैं। आपको अच्छे से काम
कराएँगे।
मैंने कहा—सर, मुझे नहीं चाहिए मेहनती
गाइड। शोध तो मुझे करना है न! मेहनती गाइड का
मुझे क्या करना? आप जब तक यहाँ हैं, आपके साथ रहूँगा, जाते समय आप जिनके साथ
कहेंगे, चला जाऊँगा!
इस बार वे तनिक जोर देकर बोले—बच्चों की तरह जिद
मत कीजिए! आप परेशानी में न पड़ें, इसलिए यह सलाह दे रहा हूँ। तय आपको करना है,
मन करे तो केदारजी से बात करके देखिए! तैयार हो जाएँ तो बेहतर!
अबकी मैंने सोचा—महान लोग, पता
नहीं किस महदुद्देश्य से कोई सलाह दे दें। मैंने उनकी बात मान ली। केदारजी से
बात कर उन्हें राजी कर लिया। थोड़ी कठिनाई वहाँ भी आई, पर बात बन गई, केदारजी
ने अन्तत: मान लिया।
जे.एन.यू. में पंजीकृत हुए साल लगने
को आए थे। इस बीच दिल्ली से प्रकाशित सभी दैनिक पत्रों के साप्ताहिक परिशिष्टों
में मैं छपने लगा था। राष्ट्रीय सहारा में उपसम्पादक (ट्रेनी) पद की रिक्ति आई
थी। मैंने आवेदन किया और जून 17, 1992 को उनके घर जाकर सूचना दी। दो पल चुप रहकर नामवरजी
ने लेटर-पैड निकाला और चिट्ठी लिखने लगे—
प्रिय श्री विभांशु दिव्याल जी, आपसे यह पत्र लेकर डॉ. देवशंकर झा मिलेंगे। ये आपके अखबार में उप-सम्पादक (ट्रेनी) के उम्मीदवारों में हैं। आपके सिवा वहाँ और कोई ऐसा नहीं है जिससे मैं इस तरह के काम के लिए सिफारिश कर सकूँ। देवशंकर जी हमारे केन्द्र में पी-एच.डी. के शोध छात्र हैं। यहाँ आने से पहले ये बिहार के एक कालेज में अध्यापन करते थे और पत्र-पत्रिकओं में लिखते रहे हैं। मुझे यकीन है कि यदि इन्हें आपके यहाँ काम करने और सीखने का अवसर मिला तो ये आपलोगों की अपेक्षाओं के बहुत कुछ अनुरूप प्रमाणित होंगे। कृपया जहाँ तक हो सके इनकी सहायता करें। सस्नेह आपका...नामवर सिंह।
प्रिय श्री विभांशु दिव्याल जी, आपसे यह पत्र लेकर डॉ. देवशंकर झा मिलेंगे। ये आपके अखबार में उप-सम्पादक (ट्रेनी) के उम्मीदवारों में हैं। आपके सिवा वहाँ और कोई ऐसा नहीं है जिससे मैं इस तरह के काम के लिए सिफारिश कर सकूँ। देवशंकर जी हमारे केन्द्र में पी-एच.डी. के शोध छात्र हैं। यहाँ आने से पहले ये बिहार के एक कालेज में अध्यापन करते थे और पत्र-पत्रिकओं में लिखते रहे हैं। मुझे यकीन है कि यदि इन्हें आपके यहाँ काम करने और सीखने का अवसर मिला तो ये आपलोगों की अपेक्षाओं के बहुत कुछ अनुरूप प्रमाणित होंगे। कृपया जहाँ तक हो सके इनकी सहायता करें। सस्नेह आपका...नामवर सिंह।
ऐसी चिट्ठी, जिसमें पत्रवाहक के
मान-सम्मान और कर्मठता को ऊँचे शिखर से प्रस्तुत किया जाए, नामवरजी ही लिख
सकते थे। इस पत्र में वे कहीं मेरे लिए गिड़गिड़ाते नहीं दिख रहे हैं। हर जगह
मेरा ही सिर ऊँचा करने में दिख रहे हैं।...सचमुच महान व्यक्ति की संगति
मनुष्य को बहुत गौरव दिलाती है।
राष्ट्रीय सहारा के 'हस्तक्षेप' स्तम्भ
में लिखने का काम तो मुझे विभांशु दिव्याल ने ही दिया था। उन दिनों मुझ जैसे
स्ट्रगलर्स को इस तरह के फ्रिलान्स काम मिल जाया करते थे। उनसे परिचय जैसा
कुछ तो था मेरा, किन्तु नामवरजी का यह पत्र तो नौकरी के लिए था!...पत्र के साथ
विभांशु जी से जाकर मिला। उन्होंने इण्टरव्यू में मदद करने का आश्वासन भी दिया।
पर दुर्योग ऐसा कि इण्टरव्यू के समय मैं दिल्ली में नहीं था, लिहाजा यह अवसर
मेरे हाथ से जाता रहा।
कुछ दिनों बाद नेशनल बुक ट्रस्ट के
सम्पादकीय विभाग में एक रिक्ति आई। मैंने आवेदन कर दिया और फिर डालटनगंज
चला गया। इसी बीच काबेरी छात्रावास के पते पर नेशनल बुक ट्रस्ट से लिखित
परीक्षा में शामिल होने की सूचना आई। रमेशजी ने किसी तरह फोन-फान से मुझे सूचना
पहुँचाई। उन दिनों आज जैसा त्वरित-सूचना-सम्पन्न जीवन नहीं था। मैं दिल्ली
के लिए रवाना होने को ही था कि 6 दिसम्बर, 1992 मेरे भावी जीवन के सामने आ
खड़ा हुआ। अयोध्या का आसमान चीरते हुए 'जय श्रीराम' के उद्घोष और 'एक धक्का और दो, बाबरी तोड़ दो' के नारे ने मेरे जीवन
की गति का ब्रैकेट बन्द कर दिया। प्रतिक्रिया में अगली सुबह पाकिस्तान से मन्दिर तोड़े जाने की घटनाएँ प्रसारित
होने लगीं। वैश्विक राजनीति की सरगर्मी बढ़ गई। पूरा भारत सन्नाटे में डूबा था।
आमजन किसी अगली अनहोनी की प्रतीक्षा में थे। जगह-जगह कर्फ़्यू लग गए। रेल-यात्रा या तो स्थगित
थी या असुरक्षित। राजनीतिक परिवेश की भिन्नता के कारण बिहार की स्थिति यद्यपि
उत्तर प्रदेश से भिन्न थी, किन्तु यात्रा तो असम्भव थी। साधनविहीन शहर
डालटनगंज की सीमा में मैं व्याकुल हुआ-सा कैद था।...स्थिति शान्त हुई तो दिल्ली
पहुँचा, परीक्षा की तिथि निकल चुकी थी, किन्तु अगले ही दिन नेशनल बुक ट्रस्ट से चिट्ठी आई। प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण परीक्षा
के स्थगित होने और नई तिथि को परीक्षा होने की सूचना आई थी। मैं प्रसन्न हुआ।
परीक्षा दी। दो सप्ताह के भीतर ही इण्टरव्यू के लिए बुलावा आया। न जाने क्यों,
मुझे नामवरजी से तत्काल मिलने की प्रेरणा नहीं हुई। मेरे हॉस्टल के सामने ही
मेरे शोध-निर्देशक कविश्रेष्ठ केदारनाथ सिंह रहते थे। उन्हीं की शिफारिश से सन्
1992 के विश्व पुस्तक मेले में मैंने सौ रुपए प्रति दिन के हिसाब से
मेला-गाइड का काम किया था, और एक हजार रुपए कमाए थे। उन दिनों एक हजार रुपए बहुत
होते थे, लगभग साढ़े तीन महीनों का मेस बिल!...मेरे मन में बसा था कि गुरुजी की शिफारिश को नेशनल बुक ट्रस्ट के निदेशक टाल तो सकेंगे नहीं!
किन्तु
गुरुजी (केदारनाथ सिंहजी) ने छूटते ही मना कर दिया। स्पष्ट कहा कि मैं तुम्हारे
लिए पैरवी नहीं कर सकता, आज ही इस पद के लिए मैं किसी और की पैरवी कर चुका हूँ।
पर चिन्ता मत करो। चयन तुम्हारा ही होगा! इसे मेरा आशीर्वाद समझो। उस महान शख्सीयत
की स्पष्टवादिता को दण्डवत्, किन्तु उनकी पहेली समझ नहीं आई--मैं किसी और की
पैरवी कर चुका हूँ। पर...चयन तुम्हारा ही होगा!...आशंकित मन से इण्टरव्यू दे
आया। दो सप्ताह के भीतर ही नियुक्ति-पत्र मिला। केदारजी के भविष्यवाणी की
पहेली मुझे अभी समझ नहीं आई थी। पर उन्हें जाकर सूचना दी। उन्होंने तब भी पहेली
नहीं सुलझाई। पहेली सुलझी नामवरजी से मिलने के बाद। वे अब जे.एन.यू. कैम्पस
छोड़कर अपने निजी आवास 32 ए, शिवालिक अपार्टमेण्ट, कालकाजी, नई दिल्ली में
रहने लगे थे। मैं मिठाई लेकर गुरुवर से मिलने गया। उन्हें सूचना दी। प्रफुल्ल
मुस्कान के साथ उन्होंने कहा—मुझे
आपके इण्टरव्यू के दिन ही सूचना मिल गई थी। अरविन्द (नेशनल
बुक ट्रस्ट के तत्कालीन निदेशक) का फोन आया था। वे बता रहे थे कि किसी लिखित परीक्षा
में जे.एन.यू. का इस नाम का लड़का अव्वल आया है, इसकी बहाली नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए कैसी रहेगी?...कोई लिखित परीक्षा हुई थी
क्या? मैंने हामी भरी। उन्होंने डब्बे से एक मिठाई उठाकर मेरे मुँह में डालते
हुए कहा--मैंने आपकी तारीफ की है। उस तारीफ की
लाज रखिएगा। अब तनिक राहत मिली। धैर्य रखिए, आगे कुछ बेहतर ही होगा...! तनिक
ठहरकर फिर बोले—इसका
अर्थ यह नहीं हुआ कि यह नौकरी आपको पैरवी से मिली है। अपने हिसाब से अरविन्द
ने चयन कर रखा था, मुझसे उन्होंने केवल आपके आचरण के बारे में पूछा।...यहाँ आकर बात साफ हुई
कि केदारजी को या तो नामवरजी ने सूचना दी होगी, या जब उन्होंने किसी की पैरवी
के लिए अरविन्दजी को फोन किया होगा उन्हें संकेत मिल गया होगा।
पर नौकरी ज्वाइन करने से पहले ही
गुरुवर की 'तारीफ की लाज' वाली पंक्ति ने मुझे कड़े अनुशासन में बाँध दिया। आगे
के चार वर्षों के श्री अरविन्द कुमार के कार्यकाल में मैं नौकरी के शिष्टाचार
से कहीं अधिक, गुरुवर की आज्ञा से बँधा रहा।
जरूरत के कारण नेशनल बुक ट्रस्ट की नौकरी किए जा रहा था। यद्यपि अपने किसी दायित्व में अन्यमनस्क
नहीं रहा, किसी जिम्मेदारी से मुँह नहीं चुराया, किन्तु
वहाँ का बेढब परिवेश रास नहीं आता
था। सदैव शिक्षण पेशे में भागने को बेताब रहता था। सन् 1996 में बिहार में व्याख्याता
पद के लिए इण्टरव्यू देने गया। नामवरजी उसमें विशेषज्ञ थे। मैं आशावान भी था, क्योंकि उनकी अनुशंसा
को पारकर कोई चयन समिति निर्णय ले ले, यह तो असम्भव था। उनके व्यक्तित्व
की ऐसी आभा थी कि वे जहाँ होते थे, वे ही
होते थे। उनके समक्ष उनकी अनुशंसा को
नकारने की हिम्मत उनके विरोधियों की भी नहीं होती थी। किन्तु इण्टरव्यू
में उन्होंने मुझे अत्यन्त हतोत्साहित किया। पूरी समिति को उन्होंने खुद स्पष्ट किया कि वे मुझे अच्छी तरह जानते
हैं। बाद में दिल्ली आने पर मिलने गया तो उन्होंने बड़ी फजीहत की। कहा कि
प्रतीक्षा-सूची में आपका नाम ऐसी जगह है कि दस लोग ज्वाइन न भी करें, तो भी आपकी
बारी न आए।...अब तक उनसे मेरे
रिश्ते ऐसे हो चुके थे कि उनकी ऐसी पंक्ति भी चौंकाती नहीं थी, तर्क की ओर
धकेलती थी। मैंने पूछा—कारण
सर? उन्होंने कहा—हो
जाता, तो जिस तरह बिना कुछ सोचे-विचारे इण्टरव्यू देने चले गए, ज्वाइन भी कर
लेते! बिहार के विश्वविद्यालयों में जाकर शहीद होने को तैयार हैं, तो नेशनल
बुक ट्रस्ट क्या बुरा है? कुछ पता है वहाँ के बारे में? किसी कार्यरत अध्यापक
से पता किया है? आधी-पौनी घिसी-घिसाई तनख्वाह पाकर लोग वहाँ अध्यापकी किए जा
रहे हैं, आप क्या करेंगे? यहाँ तनख्वाह तो हर महीने मिलती
है? भाषा, साहित्य और संस्कृति के हित में अपने मन का सोचा चार काम कर तो
लेते हैं? काम करने की गुंजाईश तलाशते चारेक लोग आपके सहयोग से एन.बी.टी. में कुछ
अवसर तो पा जाते हैं? बिहार की अध्यापकी में घिसी-पिटी लकीर के अलावा नया क्या
करेंगे?...
मैं दु:खी-सा वापस
आ गया। सम्भवत: वे खुद से
जुड़े हर व्यक्ति में अपने उस काव्य-नायक की तलाश करते थे, जिसके लिए उन्होंने
लिखा था--कोसेगा तुम को अतीत,
कोसेगा भावी/वर्तमान के मेधा !
बड़े भाग से तुम को/मानव-जय का अंतिम युद्ध मिला है चमको/ओ सहस्र जन-पद-निर्मित चिर-पथ के दावी! पर मुझ जैसे व्यक्ति में इतनी प्रमा कहाँ कि इतना ऊँचा
सोच पाऊँ!
बड़ा सोचना, बड़ा करना, कम बोलना,
सार्थक बोलना...उनके जीवन का विधान था। पाठ्यक्रम निर्माण की चिन्तन पद्धति, अध्यापन-विज्ञान
(पेडागोजी) विकसित करने की विलक्षण शैली, और शिक्षा के बुनियादी आयामों पर विचार
करने की उनकी जिद के बारे में प्रो. मैनेजर पाण्डेय से कई बार सुनता रहा हूँ।
पाण्डेयजी जे.एन.यू. में अपनी ही बहाली की कथा में नामवरजी की जिद की कथा मुक्त
कण्ठ से सुनाते रहते हैं। भारतीय भाषा केन्द्र, जे.एन.यू. के पाठ्यक्रम की जैसी
प्रतिष्ठा दुनिया भर के हिन्दी-शिक्षण में है, वह नामवरजी के नवोन्मेषी अध्यापन-विज्ञान
की ही परिणति है।
साहित्यालोचन एवं अध्यापन के क्षेत्र में नई दृष्टि का
उन्मोचन नामवरजी स्वातन्त्र्योत्तर भारत के प्रारम्भिक दौर से ही करते रहे
हैं। हिन्दी के विकास में
अपभ्रंश का योग (1952) और पृथ्वीराज रासो की भाषा (1956) जैसे उनके शोध ग्रन्थ तब लिखे गए, जब ऐसे विषयों की ओर
लोग झाँकते भी नहीं थे। उनके आलोचनात्मक
आयास से न केवल हिन्दी के, बल्कि तमाम भारतीय भाषाओं के आलोचकों को नवोन्मेषी
प्रेरणा मिली है। उनकी आलोचना-दृष्टि की आभा से भारतीय साहित्यालोचन गत
सात दशकों से आलोकित होता रहा है, जो आनेवाली पीढ़ियों के आलोचनात्मक विवेक
को निरन्तर पुष्ट करेंगी। आज नामवरजी
अपने पार्थिव शरीर से बेशक हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके आलोचनात्मक सूत्र हमारे
साथ हैं। वे हिन्दी आलोचना की
वाचिक परम्परा के आचार्य कहे जाते रहे हैं। विगत तीन दशकों से कुछ
लोग ऐसा व्यंग्य में भी कहते पाए गए हैं। इन
दशकों में उनकी स्थापनाओं की भ्रामक व्याख्या कर-करके भी लोग खुद को स्थापित
करने की असफल चेष्टा करते रहे हैं। शुरू-शुरू में स्वयं को उनका चरण-रज घोषित
कर अपना महत्त्व साबित करने में तल्लीन लोग, उनसे वांछित फल नहीं पाने पर उन्हें
रजकण कहते हुए भी पाए गए हैं। इतनी लम्बी साहित्य-सेवा और अध्यापकीय जीवन पार
करने में उनके कई ऐसे शिष्य भी दिखे हैं, जो भस्मासुर की उपाधि के काबिल हैं।
अरदास और गुहार लगाने के बावजूद अपनी अज्ञता के कारण खाली हाथ वापस होते हुए लोग
बेमतलब उनके निन्दक होते गए हैं। इस प्रसंग में एक दिन मैंने काशीनाथ सिंहजी से
कहा—गुरु के रूप में आप बड़े भाग्यशाली
हैं। आप जैसे भाग्यशाली नामवरजी नहीं हो पाए। उन्होंने तत्काल प्रतिकार किया—ऐसा आप नहीं कह सकते। भैया, भैया हैं, उनकी बराबरी मैं कहाँ
से करूँगा?...मैंने कहा—आपके दो ऐसे शिष्यों
से मेरी मित्रता है (होंगे तो और भी), जो तथ्यत: आपका नाखून बचाने के लिए अपनी
जान दे सकते हैं। पर नामवरजी के अधिकांश शिष्य अपना नाखून बचाने के लिए उनकी
इज्जत नीलाम कर सकते हैं। स्वार्थ सध जाने के बाद अक्सर उनके शिष्य उनकी छाती
पर मूँग दलते दिखे।...काशीजी ने मेरा समर्थन तो नहीं किया, पर विरोध भी नहीं किया।
विवेकसम्मत अर्थ लगाने को लोग स्वतन्त्र हैं।
नामवरजी की किशोरावस्था स्वाधीनता संग्राम के सिपाहियों के करतब
देखते-सुनते बीती। जवान होते ही उन्होंने देश की आजादी देखी, विभाजन देखा। आजाद
भारत की शासकीय व्यवस्था में मौजूद जनविरोधी वातावरण से क्षुब्ध होते हुए भी
वे समाज में शिक्षा एवं साहित्य की मर्यादा के प्रति चिन्तित रहते थे। साहित्य-चिन्तन
और अध्यापन के क्षेत्र में अपनी दीर्घ-सेवा देकर अब वे जैसी सामाज-व्यवस्था तक
आ गए थे, उसमें उनका वीतराग हो जाना ही श्रेयस्कर था।...विगत चार दशकों की भारतीय
राजनीति ने कुछ ऐसी सभ्यता विकसित कर दी, जहाँ निष्ठा की कोई जगह बची नहीं
रह गई। सारा कुछ मुनाफे की गणना से परिभाषित होने लगा। शिक्षा और साहित्य भी।
वस्तुत: छठी और सातवीं लोकसभा चुनाव (सन् 1977 और 1980) की परिणतियों और विचित्रताओं
ने भारतीय नागरिकों को तरह-बेतरह भरमाया था। तब से लेकर अब तक वैसे शिक्षित
नौजवानों की संख्या लगातार बढ़ी, जिनकी सारी नैतिकता उनकी क्षुद्र लिप्सा से परिभाषित
और अभिकलित होने लगी। जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर जिस सम्पूर्ण क्रान्ति
का बिगूल फूँका गया, उसके परिणामस्वरूप कांग्रेस पार्टी की गद्दी तो छिनी, पर
क्रान्ति करने की भारतीय नौजवानों की हिम्मत टूट गई। वे सदैव पिछले दरवाजे की
तलाश में रहने लगे। राजनीतिक विसंगतियों से फैले इस वातावरण ने पीढ़ियों की
भाषिक समझ छीनकर उन्हें चतुराई सिखाई। दुर्योगवश नामवरजी के कथित शिष्यों ने उसका
भरपूर प्रयोग उन्हीं पर किया। गरज यह नहीं कि नामवरजी को मनुष्य की पहचान नहीं
थी, वे चतुर लोगों की कृतघ्न-वृत्ति से अवगत नहीं थे, वे सब जानते थे। पर उनकी
तो पद्धति ही थी--दे के
ख़त मुँह देख़ता है
नामाबर/कुछ तो
पैग़ाम-ए-ज़बानी और है।
उनकी स्मृति सभा में श्री अशोक वाजपेयी ने सही कहा कि नामवरजी ने अपनी वाचिक
वाग्मिता से आलोचना के क्षेत्र में वही किया जो कभी भक्त कवियों ने भक्तिधारा
के विकास के लिए किया। उनकी आलोचना-दृष्टि ने साठोत्तरी पीढ़ियों को साहस दिया
कि वे बड़े-बड़े नामवरों से सवाल करें, नया और मौलिक सोचें। अध्यापन को शिक्षादान
के बैरक से निकालकर तर्क और बहस की गरिमा उन्होंने ही दिलाई। उन्होंने सदैव
वैचारिक मतभिन्नता को वैयक्तिक सम्बन्ध से अलग रखा।
उनके सान्निध्य के लगभग तीन दशकों को एक संस्मरणात्मक आलेख में समेटना
असम्भव है। मेरे जैसे असंख्य लोग उनके सम्पर्क में आए, अपनी-अपनी तरह के अनुभव
जुटाए। कई लोग महान (?) और महत्तम (?) भी हुए। पर मई 22, 1991 को हुई उनसे पहली भेंट
ने मेरे जीवन को एक दिशा दी। इस पूरे दौर में कई बार उनसे दुखी भी हुआ और प्रफुल्ल
भी। उनके पिछले जन्म-दिवस (जुलाई 28, 2018) पर मैं और रामबक्षजी सपरिवार उनसे मिलने
गए थे। मैं उनके लिए मखाने की खीर ले गया था। मेरे परिवार में डॉ.योगेश और श्री
धर्मराज कुमार भी शामिल थे। खीर का डब्बा श्रीमती कल्पना (नामवर जी की सन्तानवत्
परिचारिका) को रेफ्रिजरेटर में रखने के लिए दिया गया। नामवरजी ने यह देख लिया।
उन्होंने इशारे से मुझे नजदीक बुलाया—क्या लाए हो इसमें?
उस दिन उन्होंने पहली बार मुझे 'तुम' सम्बोधन दिया था। नामवरजी के मुँह से
ऐसे पुकार के लिए तरस गया था मैं। मैंने कहा—इसमें
मखाने की खीर है!
-अच्छा! तालमखाना! बाबा नागार्जुन!
-जी!
डब्बा खोलकर, प्रतिमाजी उन्हें खीर खिलाने लगीं। उन्होंने मुझे दाईं तरफ
बैठ जाने का इशारा किया। प्रो. रामबक्ष वहीं थे। हम सभी योजना बनाकर उनका जन्मदिन
मनाने गए थे। रामबक्षजी को उन्होंने अपनी बाईं ओर बिठाया। खीर खाना रोककर उन्होंने
मुझसे पूछा—तुम्हें याद है, मुक्तिबोध ने
अपनी कविता में कहा है—अब तक क्या किया, जीवन
क्या जिया?...मैंने कहा—जी, आप तो अपने कई
भाषणों में इसका जिक्र करते रहे हैं।...उन्होंने आगे जोड़ा—मैंने अब तक यही किया, जीवन यही जिया! तुमलोगों का यही स्नेह
मेरे जीवन की कमाई है...इसी बीच सामने से योगेश को फोटो खींचते देखकर उन्होंने
रोका। फोटो खिंचवाते समय वे बड़े सजग रहते थे।...योगेश थम गए। गुरुवर दीवान पर
बैठे-बैठे दो इंच पीछे खिसके, फिर दायाँ हाथ मेरे कन्धे पर और बायाँ हाथ
रामबक्ष जी के कन्धे पर रखा, फिर योगेश को स्वस्ति दी—हाँ, अब खींचो!
फोटो खींचा गया। बानबे वर्ष की आयु पूरी कर रहे गुरुवर को उस दिन बच्चों की
तरह प्रसन्न देखकर बड़ा आनन्द आ रहा था। अचानक से आठ बरस पहले की उनकी एक जिज्ञासा
याद आई। दिसम्बर 25, 2011 को मेरे पिता का देहान्त हुआ था। इसकी खबर उन्हें
मिली, सान्त्वना देने के लिए उन्होंने फोन किया और पूछा—कितनी उमर थी?
मैंने कहा—पचासी वर्ष!
बोले—अच्छा, तब तो मेरी ही उमर के
थे!
मैंने कहा—जी! आपसे छह महीने बड़े थे।
मेरे जीवन के इतने वांछनीय दिग्दर्शक के न रहने की पहली सूचना जब फरवरी 19,
2019 की मध्य रात्रि में फोन पर मिली, तो मैं हिल गया। क्योंकि नवम्बर 2018
से ही उन्हें देखने जाने की मेरी योजना बेशुमार कारणों से टल रही थी, और मध्य
जनवरी 2019 में जब वे चोट खाकर अस्पताल में भर्ती हुए तब भी उन्हें देख नहीं
पाया। उनकी पुत्री डॉ. समीक्षा ने बताया कि उनकी यादाश्त जाँचने के लिए डॉक्टर
ने उनसे नाम पूछा तो बड़े टोप-टहंकार से बोले—नामवर
सिंह! अपने मुँह से अपने जीवनकाल में उन्होंने इसी शब्द का अन्तिम उच्चारण किया
था!
वस्तुत: उस मुँह से इसी नाम का अन्तिम उच्चारण होना भी चाहिए था, क्योंकि
विगत एक सदी में इससे बड़ा नाम हुआ भी कहाँ? अपने विचार-सिन्धु की भव्यता के
साथ शिष्यों के मन-मस्तिष्क में अनुगूँजित गुरु-स्मृति को कोटिश: नमन!!!