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Friday, October 8, 2021
Thursday, October 7, 2021
Thursday, September 30, 2021
अन्तर्राष्ट्रीय अनुवाद दिवस International Translation Day
अन्तर्राष्ट्रीय अनुवाद दिवस
Tuesday, June 29, 2021
कला-शिक्षण का आकर ग्रन्थ : जिसका मन रंगरेज A Significant Book on Art Pedagogy : Jiska Man Rangrez
आधुनिकता के चकाचौंध में दिग्भ्रान्त समकालीन सामुदायिक जीवन और अपनी समृद्ध परम्परा का तात्त्विक बोध रखनेवाले युवा कला-समीक्षक देव प्रकाश चौधरी आजीविका के रेले में पेशे से तो पत्रकार हो गए, पर स्वभाव से एक जिम्मेदार चित्रकार हैं। रंग और रेखाओं की उनकी समझ की पहचान बीते दशकों में प्रकाशित-चर्चित अनेक चित्रात्मक पुस्तकों में देखी जा सकती है। चित्रकला सम्बन्धी उनकी समीक्षाओं एवं समीक्षात्मक पुस्तकों में भी उनकी यह समझ उजागर हुई है। रंग-रेखाओं की समग्र व्यंजना न्यूनतम शब्दों से प्रकट करना उनकी कला-समीक्षा की विशिष्ट शैली है। एक मितभाषी कला-समीक्षक के रूप में उनकी पहचान अनुशीलनपरक लेखन के आरम्भिक दिनों में ही हो गई थी। विश्वविख्यात चित्रकार एम एफ हुसैन और बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में वैश्विक ख्याति अर्जित करनेवाली चित्रकार अर्पणा कौर की सर्जनाओं पर उन्हें विशेषज्ञता हासिल है। अर्पणा कौर की चित्रकारी पर केन्द्रित 'जिसका मन रंगरेज' उनकी ताजा पुस्तक है। इस पुस्तक का अवगाहन एक साथ गहन जीवन-दृष्टि के चार-चार अनुभवों का सुख देता है। भावकों का प्रज्ञालोक इसमें कई दृष्टियों से परिपुष्ट होता है--एक ओर सुप्रसिद्ध पंजाबी लेखिका अजीत कौर का जीवन-संघर्ष, दूसरी ओर सहचरी जैसी माँ के साथ विकसित अर्पणा कौर के कलाकार मन की निर्माण-पद्धति, तीसरी ओर अजीत-अर्पणा-संवाद में दिल्ली की बनती-बिगड़ती छवियाँ, और चौथी ओर इन सबके सुदक्ष संयोजन द्वारा पुस्तक को समग्रता देनेवाले देव प्रकाश चौधरी का कौशल...वस्तुत: यह पुस्तक चित्रकारी की समझ के लिए सुनियोजित चतुर्स्तम्भ पर तैयार एक मनोरम मण्डप है।
उल्लेख सुसंगत होगा कि अर्पणा कौर का जीवन उनके अकेले का जीवन नहीं है, उनके जीवन के एक-एक पल में अजीत कौर के एकाकी जीवन के दुर्दमनीय संघर्ष के समग्र अनुभव समाहित हैं। गरज यह नहीं कि अर्पणा का जीवन दोहरा है, अपनी सम्प्रेषणीयता में 'दोहरा' शब्द इधर विचित्र नकारात्मकता से भर गया है। गरज यह कि अजीत-अर्पणा ने साथ मिलकर एक समेकित जीवन जीया है। अर्पणा साथ न होतीं, तो अजीत कौर सम्भवत: संघर्ष के किसी मार्चे पर टूट जातीं; या फिर अर्पणा का लालन-पालन अजीत कौर के संघर्षों के बीच न हुआ होता, तो सम्भवत: वे वह नहीं होतीं, जो हैं। अजीत कौर की धारणा में पहले वे अर्पणा की माँ थीं, अब अर्पणा उनकी माँ हैं। अर्पणा कौर रचित चित्रों और माँ-बेटी के सुशृंखल संवाद के सूक्ष्म समायोजन से इस दार्शनिक पहलू को लेखक ने सूक्ष्मता से भासित किया है।
अपने जीवन एवं परिवेश की अनुभूतियों से कलाकार जो जीवन-दृष्टि अर्जित करता है, उनका पूरा सृजन-सन्दर्भ उसी से संचालित होता है। अर्पणा कौर की जीवन-दृष्टि में आत्मानुभूति के साथ-साथ घनघोर जीवन-संघर्ष से जूझती उनकी वीरांगना जननी अजीत कौर के एकाकी संघर्ष का भी योग है। देश-देशान्तर की कई पद्धतियों, परम्पराओं, आधुनिकताओं से परिचित होकर भी वे सदैव अपनी रचनात्मकता में भारतीय मूल्यों के अनुशीलन के लिए व्यग्र दिखती हैं, तो इसका परम-चरम श्रेय उनके जीवन-दर्शन की इसी पृष्ठभूमि को जाता है। उनकी चित्रकारी के प्रति देव प्रकाश चौधरी की अनुरक्ति का कारण भी सम्भवत: यही हो; क्योंकि उनके चिन्तन-मनन का सम्बल भी भारतीय मूल्यवत्ता के प्रति एकनिष्ठ अनुराग ही है।
विदित है कि भाषा स्वयं में, विचारों एवं भावों की अभिव्यक्ति की एक प्रतीक-व्यवस्था है। साहित्यिक रचनाओं में यह व्यवस्था वर्णों, शब्दों, पदों, वाक्यों के कौशलपूर्ण संयोजन से निर्मित होती है, जबकि चित्रकारी में चित्रकार के चिन्तक-मन की क्रियाशीलता रंगों-रेखाओं के सन्तुलित समन्वयन से दर्ज होती है। स्पष्टत: रंगों और रेखाओं की भी अपनी भाषा होती है; पर इसके अर्थ-लोक में जनसामान्य का प्रवेश सहज नहीं होता। भाषिक प्रचलन के कारण साहित्यिक रचनाओं का तादात्म्य तो जनसाधारण का भी हो जाता है; रंगों और रेखाओं की प्रतीकात्मकता की गाँठें सहजता से ढीली न हो पाने के कारण चित्रकारी से उनका जुड़ाव कठिन होता है। चित्रकार के सूक्ष्म जीवन-दर्शन की समझ तो दूर, अधिकांश लोग चित्रों के सामान्य संकेतों को भी नहीं पकड़ पाते। यह विस्मयकर है। इस बात से कम लोग अवगत हैं कि लिखित साहित्य की उनकी समझ सुने-पढ़े शब्दों-वाक्यों के कारण नहीं, उनके ज्ञान-लोक में बने बिम्ब के कारण होती है। सुने-पढ़े सारे शब्द उनके ज्ञान-लोक में एकत्र होकर बिम्ब रचता है, यह बिम्ब वाक्य के पूरा होते ही प्रकट हो जाता है, समझ उसी बिम्ब से स्पष्ट होती है। चित्रकारी में यह बिम्ब बनी-बनाई रहती है। फिर भी चित्रों तक जनसामान्य की पहुँच कम हो पाती है। वस्तुत: रंगों और रेखाओं की निजी प्रतीकात्मकता के कारण वहाँ सहजता से बिम्ब की गाँठें ढीली नहीं होतीं, फलस्वरूप सम्प्रेषण जटिल हो जाता है। देव प्रकाश चौधरी की पुस्तक 'जिसका मन रंगरेज' से इन जटिलताओं की सरहदें टूट-बिखर गईं। साधारण कला-प्रेमियों के लिए भी अब चित्रों के रंगों-रेखाओं में ध्वनित रूपकों को समझना, अर्पणा कौर के चिन्तन का मर्म जानना आसान हो गया। रंगों की भाषा समझने की मेरी दक्षता निस्सन्देह सन्देहास्पद है, किन्तु इस पुस्तक से मिले संकेतों ने उनकी चित्रकारी के विराट क्षितिज को देख पाने की दृष्टि साफ कर दी है। रंगों की उज्ज्वलता और रेखाओं के संचरण की व्यंजना समझना सचमुच सुलभ हो गया है। 'आकारों से पूरे एक संसार में' अर्पणा कौर की जीवन-दृष्टि समझ आने लगी है। उनके मानवीय सरोकार और दायित्वबोध में सामाजिक चिन्ता के स्वरूप स्पष्ट होने लगे हैं। अर्पणा की चित्रकारी में लोगों को 'स्वान्त:सुखाय' ही नहीं; बुद्ध-कबीर-नानक-सोहनी के समुज्ज्वल प्रेम और गतिमान ऊर्जा के रूपक दिखने लगे हैं, पतनशील मानवीयता को सँवारने की प्रेरणा मिलने लगी है।
'जिसका मन रंगरेज' पुस्तक एक बार फिर से प्रमाणित करती है कि विराट मानवीय उद्देश्यों से बने चित्रों को समझने के लिए विवेकशील कला-समीक्षा की बड़ी जरूरत होती है। सुविख्यात भारतीय चित्रकार अर्पणा कौर (सन् 1954) इस कृति के केन्द्रीय चरित्र हैं। उनके चित्रों की प्रदर्शनी सन् 1974 से ही दुनिया भर की चित्रशालाओं (आर्ट गैलरीज) में लगती रही हैं, समीक्षाएँ भी होती रही हैं। पर उनके चित्रानुराग की परिपुष्टि-प्रक्रिया और सृजन-चिन्तन पर इस तरह एकाग्र सम्भवत: यह पहली पुस्तक है, जिसमें उनकी सृजन-युक्तियों के कई अनछुए पहलू उजागर हुए हैं। ऐतिहासिक-पारम्परिक धरोहरों के रूपक से उनके चित्रों की व्यंजना विराट और बहुआयामी हो जाती है। आधुनिक-प्रगतिशील-समकालीन कही जानेवाली जन-क्रियाओं की विसंगतियों को वे इन रूपकों द्वारा इस तरह रेखांकित करती हैं कि प्रमाता उद्बुद्ध हो जाते हैं, सर्जक की जनसंवेदी प्रतिबद्धता निखर उठती है। इन प्रतीकों से वे कोई कलात्मक वर्चस्व फैलाने, या प्राचीन गाथाओं का पुर्सृजन करने की चेष्टा नहीं करतीं; बल्कि उन रूपकों की मुखरता से आधुनिक दिग्भ्रान्ति मिटाने का उद्यम करती हैं। कला-मर्मज्ञ यशवन्त व्यास की राय युक्तिसंगत है कि उनके चित्रों के अभिमन्त्रित रंग कुछ इस तरह अपनी परम्परा का पुनराविष्कार करते हैं, जिसमें परम्परा की आवाज सुन पाने में सक्षम व्यक्ति ही उनसे संवाद कर सकते हैं। गौरतलब है कि अपनी परम्परा से मूलोच्छिन्न मनुष्य तत्त्वत: उखड़े हुए पेड़ होते हैं, जिनका धराशायी होना सुनिश्चित है। अर्पणा जनसामान्य को इन आशंकाओं से सचेत करती हैं।
भारतीय चित्रकारों में अर्पणा कौर की प्रसिद्धि वस्तुत: वैसे एकनिष्ठ चिन्तक की है, जो अपने पारम्परिक और देशीय रूपकों से समकालीन सन्दर्भों का परिष्कार करती हैं। सचाई है कि चिन्तक हुए बिना किसी व्यक्ति का कलाकार होना असम्भव है। हर रचना अन्ततः कलाकार के गहन चिन्तन की प्रस्तुति होती है। वक्तव्य द्वारा अपने चिन्तन के जिन सद्पक्षों से कलाकार औरों को सहमत नहीं कर पाता, उनकी वेदनाएँ रचना में मुखर होती हैं। रंगों-रेखाओं में अभिव्यक्त चिन्तन का सम्प्रेषण कई बार भावकों के दुर्बल-बोध के कारण बाधित भी होता है, पर सम्प्रेषण की ऐसी बाधा लिखित साहित्य में भी आती रही है; आजादी के बाद से ही। गत शताब्दी के छठे दशक में हिन्दी के विशिष्ट कवि धूमिल ने अपनी कविताओं में इसका संकेत प्रखरता से दिया था; भूख और भाषा के बीच की दूरी तय नहीं होने से मनुष्य और पशु का भेद मिट जाने का संकेत किया था। तथ्य है कि प्रश्न और प्राश्निक सत्तारूढ़ व्यवस्था की दृष्टि में अवांछित प्रसंग होते हैं; उन्हें चाटुकार या आदेशपालक पसन्द आते हैं; सलाहकार नहीं। इसलिए सर्वप्रथम भूख उगाकर प्रश्नाकुल जनजीवन का साहस छीना गया, फिर भाषा को निष्प्रभ बनाकर प्रश्न करने का माध्यम। कालक्रम में भाषा की ऐसी दुर्गति हुई कि शब्द-बिम्ब-प्रतीक...सब निष्प्रयोजक होने लगे। मगर चित्र तो स्वयं बिम्ब है, उसके रंगों और रेखाओं की रूपकता निरन्तर प्रभावी रही। इसके भावकों की संख्या निश्चय ही कम है, किन्तु शुरुआती दौर में जल-तल पर और बाद में आइने में बिम्ब देखने के अनुरागी जनसमूह चित्रों से परांग्मुख रहें, ऐसा हो नहीं सकता।
इस पुस्तक में चित्रकला की सूक्ष्म व्याख्या के साथ-साथ वर्तमान भारतीय समाज की बदरंग छवियों-नीतियों के सूक्ष्मतर संकेत हैं। प्राथमिक पृष्ठ पर अर्पणा कौर की छह पंक्तियों का पद--जह मात-पिता सुत मीत ना भाई/मन उहाँ नाम तेरे संग सहाई/जह महा भयान दूत जम दले/तो केवल नाम संग तेरे चले/जह मुस्कल होवे अत भारी/हर का नाम खिन मायें उधारी--ऊपरी तौर पर वाहेगुरु का महिमा-गान बेशक लगे, पर इसमें उनकी जीवन-दृष्टि और समाज-दृष्टि भी रेखांकित है, जिसके रूपक देव-पितर-साधु-सन्त के अलावा उनकी कला-साधना को भी द्योतित करते हैं। ये शब्द कई सन्दर्भों के साथ कला में उनकी तल्लीनता और मानवीय पक्षधरता को भी उजागर करते हैं।
इस कृति के लेखक देव प्रकाश चौधरी का मितभाषीपन प्रमुखता से लक्षित है। कला-समीक्षा में न्यूनतम शब्दों से अपनी बात कहकर पीछे हो लेना उनका स्वभाव है। शब्दों से कहीं अधिक विमर्श उन्होंने चित्रों के समायोजन और उनके मूल्य-बोधित (वैल्यू लोडेड), सारगर्भित कविताई एवं टिप्पणियों से तथा चित्रों के अनुशीर्षकों (कैप्शन्स) से प्रकट किए हैं। यह कौशल भावकों की चेतना को उद्बुद्ध करता है, चित्रकारी की दार्शनिकता और सूक्ष्म पृष्ठभूमि निखर उठती है। यहाँ लेखक की मंशा अपने बड़बोलेपन को उजागर करने के बजाय कला को प्रमुखता देने की होती है। चित्रों के संयोजन और प्रस्तुति में भी उन्होंने बड़े कौशल से अपना मन्तव्य समाहित किया है। शब्दों से अधिक बातें उन्होंने अपने कौशल में डाल दी है। उन्होंने अर्पणा कौर के चित्रों का ऐसा क्रमवार संयोजन किया है कि चित्रकार के बहुआयामी जीवन-दर्शन सम्पूर्ण संवेग से खिल उठे हैं। नेपथ्य में रहकर तात्त्वकि कार्य करना उनका शाश्वत आचरण है। अत्यन्त संकोची स्वभाव के लेखक देव प्रकाश के पास संक्षिप्ति में ही अपनी धारणाएँ दीप्त और मुखर करने के कई कौशल हैं। वे कहना जानते हैं, बोलना नहीं। इस पुस्तक में उन्होंने अपने उसी विलक्षण कौशल का उपयोग किया है। अपनी उपस्थिति का कोलाहल फैलाने के बजाय हर जगह उन्होंने आलोच्य चित्रकार, उनकी रचना-दृष्टि और उनकी रचनाओं को आगे रखा है। उन्हें मालूम है कि क्या कहना चाहिए और कितना कहना चाहिए। प्रयोजन से अधिक कुछ भी कहने की इच्छा उन्हें नहीं होती। अल्प-कथन की सूत्रात्मकता उनकी कला-समीक्षा की परख भी है, पहचान भी। साहित्य के विशेषज्ञ मानते आए हैं कि आलोचना रचना का शेषांश होती है, देव प्रकाश की कला-समीक्षा कई बार ऐसी प्रतीति देती है कि रचना में ही आलोचना का सर्वांश मिल जाता है। अनुशीर्षक (कैप्शन्स) मात्र से वे कई बार कृति की पूरी व्यंजना प्रकट कर देते हैं।
अर्पणा कौर से हुए संवाद में पूछे गए संगठित प्रश्न भी अपने आयत में एक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं, चित्रकार के अनुभव-संसार को बड़ी स्पष्टता से सामने लाते हैं। लक्ष्योन्मुख प्रश्न से उत्तरदाता की गहन अनुभूतियों का मर्म उजागर करना बड़े कौशल की बात होती है। अर्पणा के चित्रों में दर्ज वृन्दावन की विधवाओं एवं महानगर की त्रासदी के दर्द, हरियाली की चाह और स्त्रियों की आजादी के विषय-वैविध्य के हवाले से जब देव प्रकाश चौधरी ने उन्हें 'फेमिनिस्ट' की संज्ञा दी, तो तत्काल वे खण्डन की मुद्रा में आ गईं। अपनी चित्रकारी की समग्र यात्रा का सार प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि मेरी कला के विषयों का दायरा व्यापक है--उन्नीस सौ सत्तर के दशक में मेरे काम का मुख्य विषय 'काल' (टाइम) था। 'काल' किसी महिला के सोचने के तरीके को बाँध नहीं सकता; पर सचाई है कि 'काल' से सामना हर किसी का होता है। उन्नीस सौ अस्सी के दशक की 'वुमन एण्ड इण्टीरियर्स' शृंखला के चित्र महिलाओं और उनके अन्तर्जीवन से जुड़े थे। बाद के दशक की 'द राइट' शृंखला के केन्द्र में पुरुष थे, जो उस दौर के साम्प्रदायिक हिंसा के जिम्मेदार थे, वहाँ महिलाएँ नदारद थीं। युद्ध, हिंसा, आगजनी...महिलाओं की प्रकृति नहीं होती। उन्होंने साफ-साफ कहा कि भारत में दो समय--भूत एवं वर्तमान साथ-साथ रहते हैं। यहाँ उनका आशय भारतीय नागरिक के अतीत-मोह के साथ आधुनिक संसाधनों की जुगलबन्दियों से है; जिसका संकेत उन्होंने एक बैलगाड़ी पर ले जा रहे कार के ऊपरी हिस्से के दृश्य में दिया। उन्होंने स्पष्ट किया के ऐसे दृश्य दुनिया में अन्यत्र नहीं दिख सकते। उनकी राय में ऐसे दृश्य रोचक होने के साथ-साथ रचनात्मक तनाव भी पैदा करते हैं। बुद्ध, नानक, कबीर, पर्यावरण सम्बन्धी अपने चित्रों के सन्दर्भ से उन्होंने स्पष्ट किया कि ये मेरे प्रिय विषय हैं, जिन्हें स्त्रीवादी खाते में नहीं रखा जा सकता। उन्होंने स्पष्ट कहा कि मैं एक महिला हूँ और यह मुझे पसन्द है। एक महिला एक ही समय में अपने घर के बारे में, लोगों के बारे में, घर में काम करने वालों के बारे में सोचती है। मेरे अधिकतर विषय स्त्रियों से सम्बन्धित नहीं हैं, मुझे फेमिनिस्ट कहना सही नहीं है।
स्त्रीवादी होने के आरोपण पर अर्पणा का यह प्रतिरोध स्त्रीवादी धारणा की कोई निन्दा नहीं है; वस्तुत: वे स्पष्ट करना चाहती हैं कि उन्हें बेमतलब किसी साँचे में सीमित न किया जाए। बुद्ध, नानक, कबीर की वैचारिकता पर विश्वास रखनेवाली, सोहनी के जीवन-संघर्ष और प्रेम में दिखाई साहसिकता से अनुराग रखनेवाली, पर्यावरण की दुर्दशा और वृन्दावन की विधवाओं की वेदना से व्यथित होनेवाली और स्त्री-अस्मिता की सूक्ष्मता की पहचान करनेवाली चित्रकार अर्पणा कौर अपने विचारों को किसी लिंगवादी दृष्टि के कोष्ठक में नहीं रखना चाहतीं। उनकी चित्रकारी की सबसे बड़ी कसौटी मनुष्यता है।
इस पुस्तक में देव प्रकाश चौधरी ने अर्पणा के रंगों की मुखरता-विवर्णता, उग्रता-शालीनता, सघनता-विरलता, रेखाओं के भंजन-संयोजन...सारी स्थितियों की समझ के रास्ते सहज बना दिए हैं। सचमुच यह पुस्तक चित्रों के समझ की पिटारी खोलने की एक कामयाब कुंजी है। लेखक ने सही कहा कि अर्पणा के चित्रों में रंगों के हर संस्करण एक नई सृष्टि करते हैं। रंग उनके यहाँ पुकारते-से प्रतीत होते हैं, इस पुकार की अनदेखी असम्भव है। सामुदायिक जीवन में जनहितैषी वातावरण और मानवीय सद्भाव स्थापित करनेवाली उनकी चित्रकारी की ओर भावकों की अनुरक्ति इस पुस्तक के कारण सुनिश्चित है।
पुस्तक के प्रथम आन्तरिक पृष्ठ पर सन् 2014 के चित्र 'चरखा' का अनुशीर्षक देव प्रकाश ने दिया--'काला रंग भी साँस लेता है/बनाता है एक रिश्ता तारीखों से...चुप्पी का दरवाजा टूटता है।' यह अनुशीर्षक चित्र के रूपकों की विराट व्यंजना में झाँकने का मार्ग प्रशस्त करता है। सुधीजन स्मरण करें कि सन् 2014 का समय सामाजिक-राजनीतिक घालमेल का वैसा समय था, जब सारे दल महात्मा गाँधी के विचारों-सिद्धान्तों की स्वेच्छया व्याख्या कर अपने हितसाधन में तल्लीन थे। इस चित्र में अर्पणा कौर ने रेखांकन तो किया चरखे का; जिसका सीधा रिश्ता या तो महात्मा गाँधी से बनता है या उनके पूर्वज कबीर से। इनके अलावा चरखा भारतीय कुटीर उद्योग और भारतीय जीवन-कला में गहरे समाया हुआ है। यह चरखा सूत कातने का एक माध्यम है, इस सूत के ताने-बाने से बने वस्त्र से मनुष्य का तन ढकता है, इज्जत-आबरू की सुरक्षा होती है, इसी वस्त्र से मनुष्य स्वयं को सभ्य समाज का नागरिक मानता है। मगर इस चरखे का चित्र गहन रक्ताभ पृष्ठभूमि पर खचित है; चरखे के चारो ओर ढेर सारे घातक औजार बिखरे पड़े हैं – तलवार, कृपाण, कटार, दराँती, त्रिशूल, फरसा, धनुष, ठेलागाड़ी... आदि। जीवन में काम आनेवाले और जीवन को तबाह करनेवाले ये सारे औजार भावकों की चिन्तन-पद्धति को कई दिशाओं में दौड़ाते हैं। चित्र के बगल में काले रंग की एक पट्टी है, जिस पर लाल रंग की दो बून्दें ऊपर से टपक रही हैं। वस्तुत: यह चित्र अपने समय के समाज की जीवन-प्रक्रिया का महाकाव्यात्मक रूपक खड़ा करता है, काले रंग से आच्छादित जीवन-दशा में साँस लेने और चुप्पी का दरवाजा तोड़ने की प्रक्रिया इसी दुर्वह स्थिति से शुरू होती है। गहन निराशा और घोर भयावह स्थितियों में भी अर्पणा कौर की कला विवेकशील आत्महित में तनकर खड़े होने की प्रेरणा देती है। वे आश्वस्त हैं कि बचे हुए रंगों और बने हुए सपनों में कोई न कोई रोशनी अवश्य होती है। यह रोशनी उनकी कल्पनाओं की फैण्टेसी नहीं, जनविवेक की शक्ति का यथार्थ है।
पुस्तक की शुरुआत में ही लेखक कहते हैं कि 'लकीर जिन्दगी का एक तजुर्बा है। किसी न किसी लकीर से घिरे हैं हम। कई बार एक लकीर पर चलते-चलते ही बीत जाती है जिन्दगी। लेकिन मन अगर रंगरेज हो तो फिर लकीर टूटती भी है। टूटी हुई लकीर खिलती भी हैं। आकार यहीं से बनते हैं...।' लकीरों के टूटने की इसी प्रक्रिया में किसी रचनाकार की रचना-दृष्टि स्पष्ट होती है, रचनाकार अपने समय को रेखांकित करता है। अपने समय और समाज के आचरणों की समीक्षा करती अर्पणा कौर की चित्रकारी को लेखक ने इसी सूक्ष्मता से उजागर किया है। उनका दावा युक्तिसंगत है कि इस पुस्तक के भावक निश्चय ही अर्पणा कौर की चित्रकारी की ओर उन्मुख होंगे। उनके चित्रों में रंग सचमुच पहले खुद को रंगता दिखता है।
अर्पणा कौर के चित्रों में स्त्री-जीवन और स्त्री-देह के कई रूप दिखते हैं। सन् 2012 (पृष्ठ संख्या-12) के एक चित्र--'ऑल इज फेयर इन लव एण्ड वार' (इश्क और जंग में सब कुछ जायज है) में हरे रंग की पृष्ठभूमि में एक पैर पर खड़ी एक निर्वस्त्र स्त्री, ढेर सारे घातक औजारों--धनुष, गदा, कृपाण, कटार, छूरा, तलवार, फरसा, भाला, बरछा, ढाल, त्रिशूल, तोप, बन्दूक, चक्र...आदि से घिरी है। स्त्री की एँड़ी से सटा एक कच्चा घट है, मुड़े घुटने के नीचे जीवन-रक्षा के लिए भागता एक पशु और उसे खदेड़कर दबोचता हुआ एक तेन्दुआ है। 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता' जैसी सूक्तियों का पाठ करनेवाले देश में सन् 2012 में जैसा जघन्य आचरण एक युवती के साथ दिल्ली में हुआ था, उसे भावक इस चित्र से मिलाकर देखेंगे तो अर्पणा कौर का सामाजिक सरोकार और मानवीय दृष्टि स्पष्ट रूप से सामने आ जाएगी। इस चित्र में स्पष्ट है कि ज्यों ही एक स्त्री अपने बारे में सोचने लगती है, उसके सामने समाज-व्यवस्था के इतने सारे व्यवधान तैनात हो जाते हैं। बचाव के लिए वह कितना भी तेज भागे, कितनी भी चतुराई और साहसिकता से सोचे, इन आयुधों, हिंस्र आक्रमणों से कैसे बचेगी? मिट्टी के कच्चे घट इस पानी में कितनी देर अपने आकार में रहेंगे? स्त्री-जीवन की सकारात्मक परिभाषा सुस्थिर करने की व्यग्रता के साथ-साथ इस चिन्तक चित्रकार अर्पणा कौर के समक्ष पूरी दुनिया की बदसूरती भी बिलखती खड़ी है। सन् 1997 में बने चित्र 'टियर्स फॉर हिरोशिमा' में उनकी वैश्विक और मानवीय चिन्ता बेचैन कर देती है, जिसमें हिरोशिमा के त्रासद आँसू को तराजू में रत्नादि से तौला जा रहा है। सन् 2004 में बने चित्र 'हार्वेस्ट' (उपज) में हरे रंग की सघनता से एक स्त्री दोनों हाथों से धागा पकड़े बैठी है, धागे के दोनों शिराओं से सस्य-श्यामला धरती के सारे उपजीव्य जुड़े हैं, किन्तु उनके पीछे आसन जमाए पुरुष के हाथ की कैंची उस धागे को काट रही है। कैंची अर्पणा के चित्रों में मुख स्थान घेरती है। उद्यमियों के आयास को कैंची द्वारा तत्परता से कुतरने की चेष्टा में तल्लीन इस समाज को सभ्य कहलाने का कितना अधिकार है?
कला संग्रहालय और कुलीन प्रदर्शनियों में जनसामान्य की पहुँच न हो पाने के अन्देशे में अर्पणा कौर ने कई सारे 'म्यूरल' भी रचे। चित्रांकन की तकनीक में इस स्पेनिश विशेषण का आम उपयोग 'भित्ति-चित्र' की संज्ञा से उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण से प्रचलन में आया। दीवारों, छतों जैसे स्थायी सतहों पर सीधे बनाए गए चित्र को 'म्यूरल' (भित्ति-चित्र) कहा जाता है। बंगलोर अन्तर्राष्ट्रीय कला महोत्सव एवं रॉरिक शताब्दी समारोह (सन् 2004) में हेब्बार-रॉरिक संग्रहालय की बाहरी दीवार पर बनाए गए अपने 'बुद्ध म्यूरल' में उन्होंने ध्यानस्थ महात्मा बुद्ध के हृदय और आसन में कुछेक कमल खिलाए, जिन्हें वैज्ञानिक विकास के प्रतीक तेजतर वाहनों की कतार ने चारो ओर से घेर रखा है और चित्रकार दोनों बाहें फैलाए मुस्कुराहट के साथ बगल में खड़ी हो गई हैं। गोया दुनिया को इस ओर आने का निमन्त्रण दे रही हों। यह निमन्त्रण किस ओर आने का है? अर्पणा इस निर्णय का दायित्व भावकों के विवेक पर छोड़ती हैं। वे अपने भावकों को बाध्य नहीं करतीं, उद्बुद्ध करती हैं, निर्णय लेने की आजादी देती हैं। उन्हें अपनी आजादी के साथ, औरों की आजादी भी पसन्द है। इस आजाद-ख्याल जीवन की प्रेरणा उन्हें अपनी माँ से मिली है। जुझारू जीवन-संघर्ष की स्रोत उनकी माँ ने उन्हें बचपन से ही इतनी आजादी दी कि पन्द्रह वर्ष की आयु में इनका नामकरण तक इन्हीं की इच्छा से किया गया। उक्त भित्ति-चित्र में एक साथ दो विपरीतमुखी चिन्ताएँ जुटाकर अर्पणा ने कई सारे दार्शनिक चिन्तन के मार्ग प्रशस्त कर दिए हैं। एक ओर ध्यानस्थ महात्मा बुद्ध के भीतर खिले कमल में शान्ति और मानवता का सम्पोषण, दूसरी ओर तेजतर वाहनों की शृंखला द्वारा मानव-जीवन को अन्ततः दुर्वह बनानेवाली आधुनिकता की बेतरतीब चिन्ताएँ। मानवता के हित में इस प्रेरणास्पद भित्ति-चित्र की कितनी भी व्याख्या की जाए, कम होगी। सन् 2008 में बने चित्र 'धरती' में गहन अन्धकार से भरी पृष्ठभूमि को भेदकर, गहरे हरे रंग की एक स्त्री छवि महात्मा बुद्ध की विश्राम मुद्रा में प्रकट हुई है; वक्षों के बीच नृत्य-मुद्रा में एक स्त्री, उदर-भाग में ध्यान-मुद्रा में महात्मा बुद्ध, नाभि-योनि-प्रदेश के नीचे एक सन्त एवं कई सांघातिक औजार, जाँघों-घुटनों-टखनों के नीचे बिखरे पड़े आयुध और नर-कंकाल के टुकड़े, नीचे की काली सतह पर भिन्न-भिन्न दुरवस्थाओं में लुढ़के हुए ढेरो स्त्री-पुरुष, पार्श्व की काली पृष्ठभूमि में ज्योति और हरीतिमा उगाती उस स्त्री की बाँह और मुट्ठी...। इतनी भयावह स्थितियों के बावजूद इस चित्र में पौधों के वर्द्धिष्णु ज्योति की आभा घनघोर दुराशाओं में भी आशान्वित चेतना का बोध कराती है। जिसे सूक्ष्मता से देखने की जरूरत है। इन्हीं संकेतों के कारण देव प्रकाश चौधरी उनके चित्रों के खालीपन में भी कोई बड़ी व्यंजना ढूँढते हैं और कहते हैं कि रंग, जब चाहे वसन्त होने का दावा कर सकता है।
सन् 1993 के उनके चित्र 'बॉडी इज जस्ट ए गार्मेण्ट' (शरीर एक वस्त्र मात्र है) में उन्होंने जीवन के अनेक दार्शनिक पहलुओं को उजागर किया है। एक भूरे रंग के कैनवास पर काले रंग का एक कुर्ता लटक रहा है; कुर्ते की परिसीमा में स्त्री-पुरुष आकृतियों के समायोजन से मनुष्य का आकार गढ़ने का उद्यम, उस आकार की बाँह, कमर, हाथ, गर्दन, जाँघादि में वस्त्राभूषणों की तरह लटके मनुष्य की विभिन्न मुद्राएँ...। उसके ठीक नीचे भूरे रंग की पृष्ठभूमि पर खुली एक किताब, किताब के आगे आग की लपटें, चारो ओर फैले मनुष्य के कटे हुए हाथ-पैर। ये दोनों चित्र जीवन की नश्वरता, चरम दार्शनिकता और शाश्वतता की पहचान से दूर भागते मनुष्य की नृशंसता का अनुशीलन करते हैं। बीते दशकों में सदा-सदा के लिए धरती से मनुष्यता गायब कर देने की जैसी क्रियाएँ होने लगी हैं, उस पर चित्रकार की चिन्ता व्यग्र करती है। उनकी ऐसी चिन्ताएँ 'धरती' शृंखला के चित्र में मर्माहत करती है। सन् 2010 में बने इस शृंखला के चित्र में धरती के प्रतीक एक स्त्री शरीर के अंग-भंग से जनसामान्य की दायित्वहीनता एवं स्वार्थपरता के सम्मोहन में नैतिकता के परित्याग, चेतनशून्यता और लापरवाही को प्रहारक ढंग से उजागर किया गया है। सफेद पृष्ठभूमि में मात्र रेखाओं द्वारा धरती पर खड़े किए गए दो भवन-बुर्जों के कारण रक्तिम पंख और रंग से खण्डित स्त्री शरीर के वक्ष से ऊपर के अंग एक बुर्ज में, कमर से नीचे के अंग दूसरे बुर्ज में समाए हुए हैं। इस चित्र में रंगों की मितव्ययिता और रेखाओं का आधिक्य है। देव प्रकाश का कथन यहाँ भी परिपुष्ट होता है कि अर्पणा के चित्रों में रिक्तता भी आवाज देती है। कंक्रीट के जंगल बनाते समय हमारे समाज के लोग धरती को जिस निर्दयता से आहत कर रहे हैं, उसके अनेक प्रसंग अर्पणा कौर की चित्रकारी में दिखाई देते हैं, जिसकी दिव्य व्याख्या होनी चाहिए।
उल्लेखनीय है कि स्वातन्त्र्योत्तरकालीन स्वदेशी शासन-व्यवस्था द्वारा प्रचारित भाषिक-द्रोह के कारण भाषिक व्यंजना निष्प्रभ होने लगी थी। नियोजित पद्धति से भाषिक क्षमता को कमजोर कर आम नागरिक को निर्वाक् बनाया बनाया जा रहा था, उनकी जुबान काटी जा रही थी। अनाज-पानी और व्यवस्था के स्वघोषित देवतागण अंग्रेजों की निष्प्रयोजक क्रूर-कथा सुना-सुनाकर जनता के चिन्तन और चेतना पर काबू पाने में तल्लीन थे। उन क्रूर कथाओं ने राष्ट्रप्रेमी भारतीय नागरिक को ऐसा उलझाया कि उन्हें राष्ट्र और अपनी वास्तविक स्थिति का कभी भान ही नहीं हुआ। ऐसे प्रवंचित समुदाय के नागरिकों के लिए रंगों की भाषा समझना तनिक कठिन अवश्य है; किन्तु तय है कि सघन मानवीय सरोकार से समृद्ध किसी चित्रकार के रंग इतने भी अबूझ नहीं होते कि उसकी समझ बने ही नहीं! वातावरण में फैली हवा के गति की भाषा, पादपों की फुनगी के झूमने की भाषा, पशुओं के रँभाने की भाषा, पक्षियों के चहचहाने की भाषा समझने का दावा करनेवाला समाज, एकनिष्ठ अनुराग से किसी चित्र के समक्ष आए, और उन्हें रंग-रेखाओं की भाषा समझ न आए, ऐसा कैसे होगा! अर्पणा कौर के चित्र और उनकी चित्रकारी पर देव प्रकाश चौधरी द्वारा लिखी गई अनुशीलनपरक पुस्तक 'जिसका मन रंगरेज' आम नागरिक से इसी अनुराग की माँग करती है; अपने लिए नहीं, भावकों के निजी आत्म और मानवीयता के लिए।
हर कलाकार की तरह अर्पणा के यहाँ भी रंग जगह घेरते हैं, पर इनके यहाँ रंगों का होना एक घटना है, जो हमारी परम्परा की नम्यता और ग्रहणशीलता को उजागर करती है। एक ही साथ वे बुद्ध, कबीर, नानक, सोहनी एवं लोक-परम्पराओं की दुनिया में भी होती हैं और इक्कीसवीं सदी की आधुनिक दुनिया में भी। मनत: इतने समयों में होते हुए वे चिन्तनानुभव की सघन पीड़ा अपने चित्रों के रंगों-रेखाओं में दर्ज करती हैं। अपने चिन्तन की व्याख्या कोई रचनाकार नहीं करना चाहता, क्योंकि समग्र व्याख्या उनकी कृतियों में समाहित होती है। सन् 2015 के एक चित्र 'वैनीशिंग ट्री' में उन्होंने पर्यावरण सम्बन्धी सजगता और आनेवाले दिनों के सारे खतरों को जीवन्त कर दिया है। यह एक चित्र अपने आयत में एक सम्पूर्ण ग्रन्थ बन गया है। इस चित्र के शीर्षक से भाषा में केवल दो ही अर्थ सामने आते हैं--'लुप्त होते पेड़' अथवा 'पेड़ों को लुप्त करते हुए'। पर पेड़ तो स्वयं लुप्त होते नहीं, लुप्त किए जाते हैं! इन्हें कौन, किस उद्देश्य से लुप्त कर रहा है? इसकी निर्णायक परिणति क्या होगी? इस आत्मघाती, जीव-विरोधी आचरण का परिणाम क्या हो रहा है, आनेवाले दिनों में क्या होगा?... प्रश्न असंख्य हैं, उत्तर निर्वाक्। ये सारे प्रश्न जनजीवन को लिए-दिए एक गहन दार्शनिक बिन्दु पर खड़ा कर देते हैं। जमीन-आसमान के बीच खड़े पेड़ों की हत्या परिन्दों के जीवन को जिस तरह दुर्वह बनाती है, उसमें मनुष्य के जीवन की भयावहता भी समाहित है। इस चित्र में नर-कंकाल के विभिन्न आकार की हड्डियों से एक पेड़ की आकृति रची गई है। एक मोटी हड्डी के तने कुछ शिराओं से जमीन पकड़ने की चेष्टा में हैं। कुछ छोटी-छोटी हड्डियों से पेड़ की डालियाँ बनी हैं। पत्ते गायब हैं। पृष्ठभूमि में हरीतिमा की अभिलाषा दिख रही है। पेड़ के चारो ओर तरह-तरह के परिन्दे आश्रय की कामना में फड़फड़ा रहे हैं। एक परिन्दा पेड़ के तने में चोंच मारकर अपने लिए कुछ आशा तलाश रहा है। एक परिन्दा किसी जुगत से हड्डी की एक शाख पर बैठने की चेष्टा कर रहा है। इस चित्र-रचना से पूर्व अर्पणा कौर निश्चय ही कंक्रीट के जंगल बुनते नव-धनाढ्यों की संलिप्ति, धरती की खूबसूरती के प्रधान घटक पेड़ एवं हरियाली को जड़ से मिटा देने के मानवीय आचरण से व्यथित हुई होंगीं। इस चित्र की व्याख्या शब्दों से सम्भव नहीं, यह व्याख्या अनुभव से की जा सकती है। समय और सन्दर्भों को जीने की सद्भावपूर्ण पद्धति से की जा सकती है।
'जिसका मन रंगरेज' शीर्षक देव प्रकाश चौधरी की यह पुस्तक अर्पणा कौर के चित्र-चिन्तन को गम्भीरता से समझने और कला-समीक्षा में उद्यत होने के वे सारे सन्दर्भ देती है, जिसे कला-शिक्षा के क्षेत्र में एक आकर ग्रन्थ माना जाना चाहिए। लेखक ने इसमें अपने वक्तव्यों में जितना कहा है, उससे कहीं अधिक चित्रों के समायोजन और अनुशीर्षकों से कहा है। इस समायोजन से सामान्य चित्र-प्रेमियों की भी अनुशीलक चेतना जग उठती है।
Thursday, June 10, 2021
कथेतर साहित्य के अनुवाद की सावधानियाँ Prudences While Translating Non-fiction
इधर भारत के मुक्तिकामी स्वाधीनता सेनानियों ने अंग्रेजी हुकूमत की नाक में दम कर रखा था। अंग्रेजों को समझ आने लगा था कि भारतीयों को सत्ता में यत्किंचित भी भागीदारी दिए बिना अब भारत पर राज करना सहज नहीं होगा। इसलिए सन् 1930-1932 के बीच भारत में संवैधानिक सुधारों पर चर्चा करने के लिए ब्रिटिश सरकार और भारतीय राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा शान्ति सम्मेलन शृंखला (तीन गोलमेज सम्मेलन) आयोजित हुई। यहाँ फिर से अनुवाद-कर्म की भूमिका उन्नत हो उठी।
फिर मानवता के सिर पर द्वितीय विश्वयुद्ध (सन् 1939-1945) का ताण्डव हुआ। युद्ध का परिणाम तो सदैव त्रसद ही होता है! इसलिए राष्ट्र संघ की प्रभावहीनता को देखते हुए, विजयी देशों ने मिलकर अन्तरराष्ट्रीय संघर्ष में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से ‘संयुक्त राष्ट्र’ का गठन किया, जिसका मूल उद्देश्य मानव अधिकार, विश्व शान्ति, आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति, अन्तरराष्ट्रीय सुरक्षा को बढ़ावा देना और अन्तरराष्ट्रीय कानून को सुविधाजनक बनाना माना गया। पचास देशों ने 24 अक्टूबर, 1945 को गठित इस संयुक्त राष्ट्र के अधिकार-पत्र पर हस्ताक्षर किए; ताकि द्वितीय विश्वयुद्ध जैसे युद्ध की स्थिति दुबारा न उभरे। संयुक्त राष्ट्र का कार्य संचालन तो अंग्रेजी और फ्रांसीसी में ही होता था, किन्तु इसमें चीनी और रूसी को भी स्वीकृति थी। बाद के दिनों में कुछ और भाषाओं का समावेश हुआ। अनुवाद-कर्म की अनिवार्यता यहाँ भी महत्त्वपूर्ण मानी गई।
इस तरह प्रारम्भिक समय से जो अनुवाद विचार एवं वस्तु के विनिमय का काम कर रहा था; ज्ञान का प्रसार कर रहा था; एक क्षेत्र के संस्कृति, साहित्य, भाषिक प्रयुक्तियों को दूसरे क्षेत्र में पहुँचा कर महत्त्वपूर्ण काम कर रहा था; द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जब अन्तरराष्ट्रीय कूटनीतिक सम्बन्धों की शुरुआत हुई; तो इसकी महती भूमिका शुरू हो गई। स्वातन्त्रयोत्तर काल तक आते-आते अनुवाद-कर्म देश-दुनिया के लोगों के लिए पग-पग पर उपादेय हो गया। ज्ञान की विभिन्न शाखाओं का क्रमिक विकास हुआ। इसकी भूमिका राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में महत्त्वपूर्ण होने लगी। फिर तो साहित्यिक, दार्शनिक-धार्मिक ग्रन्थों के अनुवाद तक प्रारम्भिक समय में सीमित अनुवाद के चिन्तकों का ध्यान कथेतर साहित्य की अनुवाद-पद्धति की ओर केन्द्रित हुआ। समकालीन ज्ञान की विभिन्न शाखाओं से सम्बद्ध स्वार्थ-संलिप्त लोगों के लिए अनुवाद निश्चय ही आज उपार्जन का उद्यम बन गया है; किन्तु अटल सत्य है कि अपने प्रारम्भिक स्वरूप में अनुवाद सिर्फ नागरिक हित में किया जाता था। इसी कारण इसे स्वैच्छिक एवं सृजनात्मक प्रक्रिया के रूप में अपनाया गया।
कथेतर साहित्य: परिचय एवं क्षेत्र
कथेतर गद्य के ऐसे विधात्मक विस्तार से रचनात्मक कौशल सम्पुष्ट हुआ। इसमें ऐसी गम्भीरता आई, प्रयुक्तियों के ऐसे प्रतिमान दिखे कि इस धारा की रचनाएँ साहित्यिक सीमाबद्धता पार कर सामाजिक जीवन में भी वैचारिक हलचल पैदा करने लगीं। विषय, प्रसंग, स्थान, काल, पात्र के मद्देनजर रचनाओं की आलोचना करते हुए नई सूझ-बूझ का प्रवेश हुआ। सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष के नए-नए सूत्र विकसित हुए। तर्क एवं व्याख्या की नई-नई अपेक्षाएँ सामने आने लगीं। साहित्य-सृजन एवं उनकी व्याख्या के पारम्परिक-विधान आलोचना के लिए अपर्याप्त दिखने लगे। कथेतर गद्य की विभिन्न विधाओं के प्रादुर्भाव से विधाओं के बीच चिन्तन-प्रक्रिया की यथेष्ट रूप से पारस्परिक आवाजाही भी होने लगी। सुधीजनों ने इसे ‘विधात्मक तोड़फोड़’ के रूप में रेखांकित करते हुए स्वीकार किया कि संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ट, डायरी जैसी विधाएँ एक-दूसरे से जितनी अलग हैं, उससे कहीं अधिक सन्नद्ध भी। नई सूझ-बूझ में तो बहुधा कथा-साहित्य में भी कथेतर विधाओं के सूत्र देखे जाने लगे।
अब, जब नई व्यवस्था के नागरिक-जीवन में कथेतर गद्य इतना महत्त्वपूर्ण साबित हुआ, तो जाहिर है कि इसके अनुवाद की दिशा में भी गम्भीरता से चिन्तन होने लगा। सामुदायिक जीवन में कथेतर साहित्य की धमक ‘रक्त’ और ‘संस्कार’ की तरह रच-बस गई। धर्म, दर्शन, कला, साहित्य, संस्कृति, इतिहास, भूगोल, समाज विज्ञान, चिकित्सा, प्रौद्योगिकी, प्रशासन, व्यापार, न्याय, पठन-पाठन...सारे क्षेत्रों के पाठ कथेतर साहित्य के अंग हैं, जिसका सीधा सम्बन्ध जनसामान्य की दिनचर्या, जीवन-यापन, आहार-व्यवहार, तीज-त्योहार, ज्ञान-परिष्कार, व्यवसाय-व्यापार से है। इसलिए इन सभी प्रसंगों से सम्बद्ध पाठों का अनुवाद नागरिक जीवन के लिए उपादेय माना गया; और इसीलिए कथेतर साहित्य के अनुवाद पर गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करने की चिन्ता शुरू हुई। सुविधानुसार विचार करने की दृष्टि से यहाँ कथेतर साहित्य को प्रमुख सात कोटियों में बाँटकर देखा जा सकता है -- मानविकी, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, सामाजिक विज्ञान, प्रशासनिक, संसदीय कार्यवाही, विधि, और वाणिज्यिक-बैंकिंगःपर्यटन। इन सभी क्षेत्रों के पाठ के ग्राही-समाज की क्षमता, दक्षता एवं प्रयोजन भिन्न-भिन्न होते हैं। पाठ का अनुवाद करते समय इनके प्रयोजन एवं अपेक्षा का ध्यान रखना अनिवार्य होता है।
इस कोटि-विभाजन के सूत्र वस्तुतः शैक्षिक जगत में ‘अनुवाद अध्ययन’ जैसी ज्ञान-शाखा के विकास से जुड़ते हैं; जिसका उद्गम वैज्ञानिक युग के प्रादुर्भाव से विकसित मनुष्य की चेतना, चिन्तन-पद्धति एवं ज्ञान-विस्तार है। पश्चिमी देशों के शैक्षिक संस्थानों के भाषा-अध्ययन केन्द्रों में तत्सम्बन्धी गम्भीर चिन्तन एवं अध्ययन-अध्यापन बीसवीं शताब्दी के छठे दशक के आसपास शुरू हो गया था। भारतीय बौद्धिकता में क्रिया-कलाप के रूप में इसका सुचिन्तित विस्तार तो निरन्तर होता रहा, पर अंशकालिक पाठ्यक्रमों की पढ़ाई के रूप में डाॅ. नगेन्द्र के सत्प्रयास से यहाँ की शैक्षणिक व्यवस्था में भी इसका प्रवेश दिल्ली विश्वविद्यालय में उसी दौरान हुआ। शैक्षिक जगत में अनुवाद अध्ययन सम्बन्धी ऐसी अन्तरराष्ट्रीय सजगता प्रशंसनीय है। शैक्षिक क्षेत्र में अनुवाद-चिन्तन की इसी सजगता के कारण साहित्य के अलावा समाचार-पत्र, दूरदर्शन, विज्ञापन, आकाशवाणी, फिल्म उद्योग जैसे जनसंचार के विभिन्न क्षेत्र, पर्यटन, तकनीक, प्रकाशन-व्यवसाय आदि में इसकी महत्ता गम्भीरता से स्वीकार्य होने लगा। प्रयोजनमूलक भाषिक युक्तियों में भी अनुवाद के विविध प्रकार एवं प्रविधि का समावेश हुआ। अनुवाद की अनिवार्यता सभी क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण ढंग से स्पष्ट हुई। जाहिर है कि ज्यो-ज्यों मानवीय चेतना विकसित होगी, अनुवाद-क्षेत्र का कोटि-विस्तार होता जाएगा।
मानविकी विषयक पाठ का अनुवाद
साहित्यिक पाठ के अनुवाद के समय सामाजिक, सांस्कृतिक प्रयुक्तियों और मान्यताओं की समस्याएँ अक्सर सामने आती हैं। भारतीय भाषाओं में संस्कृतिपरक और सामाजिक लोकाचारपरक प्रयुक्ति होती रहती है। ये प्रयुक्तियाँ स्थानीय लोक-जीवन से इतने गहरे जुड़ी रहती हैं कि दूसरे भाषा-क्षेत्र में जाकर उसके ध्वन्यार्थ बदल जाते हैं। इस कारण अनुवाद करते समय बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है। उदाहरण के लिए, भारत में गणेश को बुद्धि का देवता, सरस्वती को विद्या की देवी, कामदेव को काम का देवता, यमराज को मृत्यु का देवता, भागीरथ को कठिन प्रयास करने का प्रतीक माना जाता है। ऐसी प्रयुक्तियाँ भारतीयेतर भाषाओं के पाठ का अनुवाद करते समय अक्सर बाधा उपस्थित करती हैं। जिस रूपक की प्रसंग-व्यवस्था लक्षित भाषिक क्षेत्र में हो ही नहीं, उसके लिए समानार्थी रूपक गढ़ना असम्भव हो जाता है। इसलिए अनुवादक को अनुवाद के समय लक्षित पाठक और लक्षित भाषा-प्रदेश की प्रयुक्तियों को ध्यान में रखकर इन प्रसंगों को सामने लाना होता है।
कथेतर साहित्य के पाठ सर्वथा तथ्यात्मक, सूचनात्मक, संकल्पनात्मक, विचार-प्रधान और चिन्तन-प्रधान होते हैं। इन विषयों के पाठ का अनुवाद करते समय शब्द-प्रयुक्ति, वाक्य संरचना, अनुशासनात्मक विधानादि पर सावधान रहना पड़ता है। उल्लेखनीय है कि हर लेखक-अनुवादक सम्प्रेषण के साधन के रूप में अपनी भाषा में भिन्न-भिन्न प्रयोगों, संकेतकों का उपयोग करते हैं। लक्षित विषय, प्रसंग, पदार्थ, संकल्पना के गुण-क्रियादि का संकेत करते हुए ही कोई संकेतक उसे प्रकाश में लाता है। इसी कारण कोई वाचक जब किसी शब्द का उच्चारण करता है, तो भावक उन सुने हुए शब्दों और पदों का अर्थ अपने ज्ञान-विवेक के अनुसार लगाता है। कोई भी संकेतक स्वयं में स्वतन्त्र नहीं होता, उसका अर्थान्वेष उसकी प्रयुक्ति-प्रक्रिया में छिपा रहता है। उदाहरण के लिए किसी से कहा जाए कि ‘टेबल पर कलम रखी होगी ले आइए!’ यहाँ भावक अपने ज्ञान-विवेक के अनुसार, इस टेबल का संकेतक तय करेगा, क्योंकि घर में डाइनिंग टेबल भी होता है, सेण्ट्रल टेबल भी होता है, ड्रेसिंग टेबल भी होता है, स्टडी टेबल भी होता है। वह भावक कलम लाने के लिए निश्चय ही डाइनिंग टेबल, सेण्ट्रल टेबल की ओर न जाकर स्टडी टेबल की ओर जाएगा और वहाँ से कलम लेकर आएगा; क्योंकि कलम का कोई सम्बन्ध डाइनिंग टेबल और सेण्ट्रल टेबल से नहीं बनता। इसी तरह नीर, जल और पानी एक दूसरे का पर्याय है, किन्तु अनुवाद के समय इसके अर्थबोध को ध्यान में रखना होगा कि पानी पीने, पानी चढ़ने, पानी उतारने, नीर पीने, जल चढ़ाने, पानी-पानी होने जैसी प्रयुक्तियों में पानी, नीर और जल का भिन्न-भिन्न अर्थ सम्प्रेषित होता है। अनुवाद करते समय ऐसे अनेक प्रसंगों से जूझना होता है और इन सारी दुविधाओं से निपटने के लिए कौशल से काम लेना पड़ता है।
उल्लेख सुसंगत होगा कि इन पाठों के अनुवाद के लक्षित ग्राही न केवल भिन्न संस्कृति के होते हैं, बल्कि उनकी ग्रहण-क्षमता भी भिन्न-भिन्न होती है। इन क्षमताओं का आकलन पाठ के विषय से किया जा सकता है। पाठ इतिहासपरक है या धर्म-संस्कृति-दर्शनपरक; सामान्य ज्ञान से सम्बद्ध है या साहित्य-कला-संस्कृति से; राजनीतिक है या प्रशासनिक, व्यापारिक, सूचनात्मक...इन सभी प्रसंगों को ध्यान में रखते हुए अनुवादक को लक्षित ग्राही समाज के ज्ञान-बोध का अन्दाजा लगाना होता है और तदनुसार अनूदित पाठ की शब्दावली एवं वाक्य-संरचना तय करनी पड़ती है। इन सावधानियों का ध्यान रखे बिना किए गए अनुवाद निश्चय ही यान्त्रिाक और निष्प्रयोजक होंगे।
साहित्यिक पाठ में कई विधाओं की गणना होती है, किन्तु चूँकि यहाँ कथेतर साहित्य पर चर्चा होनी है, इसलिए कथेतर साहित्य की ग्यारह प्रमुख शैलियाँ--निबन्ध, समालोचना-समीक्षा, संस्मरण, यात्रा-वृत्तान्त, रेखाचित्र, जीवनी, आत्मकथा, रिपोर्ताज, पत्र लेखन, डायरी, साक्षात्कार -- पर विचार करना ही युक्तिसंगत होगा।
निबन्ध
अनन्त सम्भावनाओं से भरे इस रचनात्मक विधा के पाठ का अनुवाद वैश्विक स्तर पर जितने उपादेय हैं, इसके अनुवाद-कार्य की कठिनाइयाँ उतनी ही विकराल। निर्बन्ध स्वभाव के कारण इसके विषय-प्रसंग अन्तरानुशासनिक प्रकृति के होते हैं। इतिहास-बोध, भौगोलिक विस्तार, वैज्ञानिक आविष्कार, औद्योगिक विकास, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक चर्या, जीवन-व्यवहार, मानवीय चेतना, नदी, पर्वत, प्रकृति, वातावरण, पशु-पक्षी...निबन्धकार किसी भी विषय के सहारे अपनी बात शुरू कर देते हैं। इसकी शैली भिन्न-भिन्न स्वरूप की होती है। इस विषय-वैविध्य और शिल्प-शैली के समग्र ज्ञान के बिना कोई अनुवादक इस पाठ के अनुवाद में सफल नहीं हो सकता।
गद्य के लालित्य के बावजूद इसमें भाव और विचार की शृंखला इतने मूल्य-बोधक (वैल्यू लोडेड) होती है कि अर्थ-द्योतन अत्यन्त सूक्ष्मता से करना पड़ता है। जरा-सी चूक से इसके महत्त्वपूर्ण अर्थ-सन्दर्भ परोक्ष हो जा सकते हैं। शब्द, भाव, विचार, व्यंजना...सारे सन्दर्भों को सुरक्षित रखना अत्यन्त कठिन होता है। स्थानीयता के कारण कई बार अननुवाद्यता की स्थिति भी प्रकट होती है। इसलिए निबन्ध-साहित्य का अनुवाद बहुत जटिल कार्य होता है, पर उद्यमी और नैष्ठिक अनुवादक सारी जटिलताओं का निराकरण अपने विवेक से कर लेते हैं। इस कार्य में अकेले कोई भी कोशीय सन्दर्भ उनकी सारी जटिलताएँ दूर नहीं कर पाता; लहिाजा आत्मज्ञान, नैष्ठिक श्रम और स्वविवेक ही अनुवादकों का प्रबल सहयोगी होता है।
समालोचना, समीक्षा
समाज को जीवनी शक्ति और शाश्वत मूल्य की प्रेरणा देनेवाली साहित्यिक रचना स्वयं में बहुफलकीय होती है। जन-रुचि-परिष्करण और अराजकता-नियन्त्रण का मार्ग हर समय के सत्साहित्य में प्रशस्त होता आया है। स्पष्टतः ऐसी रचना की विवेकशील आलोचना में वे परिप्रेक्ष्य रेखांकित होंगे। रचना के रसास्वाद की विवेकशील प्रक्रिया के साथ उसकी प्रकृति के पारम्परिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शाश्वत सन्दर्भों को स्पष्ट करने और उसके गुणावगुण पर बौद्धिक निर्णय देने की क्रिया में आलोचक निश्चय ही अपने ज्ञान, चिन्तन और विवेक के कई सूत्र अपनाएँगे। इसलिए इसकी भाषा अन्तरानुशासनिक पद्धति की होती है।
इस तरह पाठकों को रचना की उपादेयता या निरर्थकता उजागर करनेवाली समालोचना या आलोचना या समीक्षा की भाषा गहन तत्त्व-बोध से लदी होगी और उसमें कई अनुशासनों के परिप्रेक्ष्य-सम्मत ज्ञानकोश समाविष्ट होंगे। इसलिए इस विधा के पाठ के अनुवादकों का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। स्रोत-लक्ष्य-भाषा के गहन ज्ञान के अलावा उन्हें साहित्य की सभी विधाओं की मूल्यगत समझ रखनी होती है। अनूद्य पाठ में व्यक्त धारणाओं, परिप्रेक्ष्यों, पारम्परिकताओं, ऐतिहासिकताओं, सामाजिकताओं, सांस्कृतिकताओं... को समझकर लक्ष्य-भाषा में संगत अर्थ-ध्वनि सम्प्रेषित करना होता है। साहित्यिक पाठ का रस-बोध तो उनकी प्राथमिक और अनिवार्य अर्हता है ही।
समालोचना को भावयित्री प्रतिभा का प्रतिफल माना जाता है। इसलिए एक नैष्ठिक समालोचक से अनेक शास्त्रों, कलाओं, लोक-व्यवहारों, भाषा-साहित्यों, तुलनात्मक अध्ययन सहित ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों के सम्यक ज्ञान की अपेक्षा की जाती है। शब्द-ज्ञान और वास्तविक अर्थ-ग्रहण के लिए स्पष्टतः ये सारी अपेक्षाएँ इस क्षेत्र के अनुवादकों से भी होती है। सम्भवतः यही कारण हो कि समालोचना-साहित्य के अनुवाद-क्षेत्र में क्रियाशील नैष्ठिक अनुवादक कम दिखते हैं।
संस्मरण
स्मृति आधारित होने पर भी संस्मरण, आत्मचरित से भिन्न है, क्योंकि आत्मचरित का केन्द्रीय चरित्र लेखक स्वयं होता है, जिसका उद्देश्य आत्मजीवनवृत्त का वर्णन होता है, जबकि संस्मरण में किसी भी व्यक्ति-घटना-प्रसंगादि के यथातथ्य चित्रण की प्रधानता होती है। अतीत की स्मृति के आधार पर लिखे जाने के कारण संस्मरण में ऐतिहासिक तत्त्वों का समावेश होता है, पर वहाँ इतिहास की तरह तथ्य-विवरण भर नहीं होता; प्रसंग-विशेष की पृष्ठभूमि, परिणति और प्रभाव का भी चित्रण होता है। हिन्दी के आरम्भिक संस्मरणकारों के रूप में पद्म सिंह शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी, गुलाबराय, राजा राधिकारमण सिंह, रामवृक्ष बेनीपुरी, रामकुमार वर्मा, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर...जैसे मूर्द्धन्य रचनाकारों के नाम में श्रद्धा से लिए जाते हैं।
इतिहास न होकर भी संस्मरणात्मक साहित्य चूँकि ऐतिहासिक सन्दर्भों का स्रोत बनता है; कई साहित्यिक विधाओं की ओर संकेत करता है; स्थान-काल-पात्र के पूर्वापेक्षाओं से सम्बद्ध रहता है; प्रत्यक्ष घटनाओं की पृष्ठभूमि एवं परिणति को रेखांकित करता है; लोक-व्यवहार एवं सांस्कृतिक सन्दर्भों पर नजर रखता है; इसलिए ऐसे पाठ के अनुवादकों को इन सभी क्षेत्रों के विषय-बोध के साथ मनोविज्ञान, सामाजिक विज्ञान, राजनीतिशास्त्र, तुलनात्मक-साहित्य...जैसे कई क्षेत्रों का भी सम्यक् ज्ञान रखना होगा। ज्ञान-साहित्य के इन अनुशासनों की तात्त्विक समझ के बिना अनुवादकों को मूल पाठ के मर्म का बोध ही नहीं होगा। बोधन के बिना तो विश्लेषण, अन्वय, संक्रमण, पुनर्गठन -- सब निरर्थक हो जाएगा।
यात्रा-वृत्तान्त
यात्रा-वृत्तान्त का लेखक देखे गए सभी दृश्यों-परिस्थितियों की सहज-शुभग-आह्लादक छवियों से उल्लसित होता है, जबकि प्रेम-अनुराग-सौन्दर्य-करुणादि जैसे भावों के प्रतिकूल दृश्यों की विकृत छवि से आहत होता है। ये भाव उनकी चेतना में बसी मानवीयता से निदेशित होते हैं। यह अनुभूति नितान्त वैयक्तिक होती है, पर बहुफलकीय दृष्टिचेतना के कारण लेखक के उल्लास-अवसाद की भावनाओं से भरे ये विवरण क्षेत्र-विशेष की पारम्परिकता, ऐतिहासिकता, भौगोलिकता, सामाजिकता, आर्थिकता एवं सांस्कृतिकतादि की भंगिमाओं से पूरित होते हैं। इसलिए इसकी अभिव्यक्ति की भाषा में मनोभावों के कई स्मृति-खण्ड समाविष्ट होते हैं। परिणामस्वरूप स्रोत-लक्ष्य-भाषा-ज्ञान के अलावा ऐसे पाठ के अनुवादकों का प्राथमिक दायित्व उस परिवेश की समग्र चेतना का बोध जुटाना होता है। ऐसे पाठों में दर्ज विवरणों के स्थानीय मूल्यों से परिचित हुए बिना पाठ का सम्पूर्ण अनुवाद असम्भव है। कोशीय ज्ञान मात्र से ऐसे पाठों का अनुवाद नहीं हो सकता। सन्दर्भ-सम्मत ज्ञान हासिल किए बिना ऐसे पाठ के अनुवाद-कार्य में पदार्पण अनुचित है।
रेखाचित्र
रेखाचित्र साहित्य की ऐसी आधुनिक गद्य विधा है, जिसमें कहानी, निबन्ध और चित्रकला के मिले-जुले भाव निहित होते हैं। इसे शब्द-चित्र भी कहा जाता है। इसके स्वरूप भाव-प्रधान होते हैं; विवरण निबन्धात्मक; शैली चित्रत्मक, किन्तु सम्प्रेषण-कौशल कथात्मक। स्मृतियों के चित्र-खण्ड होने पर भी यह संस्मरण नहीं होता; क्योंकि संस्मरण की तरह यह न तो अतीत मात्र पर आश्रित होता, न इसमें विवरण-विस्तार की गुंजाईश होती। विषयानुकूल प्रयोजन के आधार पर इसमें अन्य विधाओं के वैशिष्ट्य का उपयोग होता हैं। विलक्षण शब्दों के उपयोग से बिम्ब उजागर करने का प्रयास इसमें ठीक उसी तरह होता है, जैसे रंग-रेखा के उपयोग से चित्रों को प्रभावी और सम्प्रेषणीय बनाया जाता है। विषय एवं भाव के प्रयोजन के अनुसार इसकी विधि वर्णनात्मक भी होती है, संस्मरणात्मक, व्यंग्यात्मक, मनोवैज्ञानिक या चरित्र-प्रधान भी। पद्म सिंह शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी, माखनलाल चतुर्वेदी, शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, महादेवी वर्मा, उपेन्द्रनाथ अश्क, फणीश्वरनाथ रेणु, विष्णु प्रभाकर, जगदीशचन्द्र माथुर, नगेन्द्र, रामविलास शर्मा, कृष्ण सोबती, भीमसेन त्यागी...जैसे महान रचनाकारों की रचनात्मकता से इस विधा का कोश पर्याप्त समृद्ध हुआ है।इसमें न्यूनतम शब्दों की मर्मस्पर्शी प्रयुक्ति से किसी व्यक्ति, विषय, वस्तु, घटना, भाव के मूत्र्त चित्र प्रस्तुत होते हैं। इसकी चित्रमयता को जीवन्त बनाने में कल्याणकारी कल्पना की बड़ी भूमिका होती है। अपने इसी गुण के कारण यह पाठकों की कल्पनाशीलता को उद्बुद्ध करती है; किन्तु स्वानुभूत प्रसंगों की योजनाओं में विश्वसनीयता को खण्डित करनेवाली कल्पना वर्जित होती है। अपनी कल्पनाशीलता से रंग भरने का भी अवसर इसमें पाठकों को भी होता है। अनुभूत प्रसंगों को मर्मस्पर्शी बनाने के लिए, पाठकों को प्रतीति दिलाने के लिए ही इसमें कल्पना को प्रवेश मिलता है, तथ्य को आहत करने के लिए नहीं। एकाग्रता, संवेदनशीलता, संक्षिप्तता, विश्वसनीयता, प्रतीकात्मकता इसकी मूल विशेषता होती है। यहाँ विस्तार की सम्भावना नहीं होती।
स्पष्टतः ऐसे पाठ के अनुवादकों को भाषिक-प्रयुक्ति की संवेदनशीलता पर अत्यन्त सावधान रहना पड़ता है। प्रतीक-योजनाओं और बहुविधात्मक वैशिष्ट्य के प्रभावों के आलोक में मूल पाठ की अर्थध्वनियों के सही सम्प्रेषण की चिन्ता रखनी पड़ती है, ताकि पाठकों का भाव-बोध रत्ती भर भी विचलित न हो। विषय-प्रसंग के भावों के प्रति उसकी विश्वसनीयता बनी रहे। बहुविधात्मक वैशिष्ट्य की विधिवत् चेतना तो अनिवार्य है ही।
रेखाचित्र के अनुवादकों को इस भावगत चित्रण और शैलीगत वैविध्य की समझ नहीं होगी; शब्दों के सहारे लक्ष्य-भाषा में चित्र बनाने का कौशल मालूम नहीं होगा, तो अनुवाद निरर्थक हो जाएगा। रेखाचित्र की पहचान उसके किसी एक अवयव से नहीं, विषय, स्वरूप, भाव, भाषा, विवरण, शैली, सम्प्रेषण -- सबसे होती है। अनूदित पाठ में भी वह रेखाचित्र ही बना रहे, तभी सही अनुवाद कहलाएगा।
जीवनी
अपने नायक के प्रेरणा-सम्भूत जीवन का लेखक द्वारा समग्र, क्रमागत और अनाहत विवरण जीवनी या जीवनचरित कहलाता है। इतिहास, साहित्य और व्यक्ति-चित्र के मिश्रण से संगठित इस नवीन साहित्यिक विधा में घटनाओं का संकलन ही नहीं, उसका सन्दर्भगत अनुशीलन भी रहता है। इसमें विवरण तो नायक के पूरे जीवन का होता है, किन्तु उनके सारे क्रिया-प्रसंगों का वर्णन अनिवार्य नहीं होता। व्यक्तित्व सम्बन्धी गुण-दोष--दोनों का यथा-तथ्य, यथा-सन्दर्भ विवेचन अवश्य होता है, पर लेखक अपने विवेक से कई अनुपयुक्त, अनुपादेय प्रसंगों की उपेक्षा भी करता है।इस साहित्यिक विधा में रचनाकार का उद्देश्य अपने पाठकों को एक महान या प्रेरणास्पद व्यक्तित्व की गाथा बताकर व्यवस्थित जीवन की प्रेरणा देना होता है। इतिहासकार की तरह घटना-क्रमों का विवरण प्रस्तुत करते हुए भी लेखक इसके तथ्य-निरूपण में सृजनात्मक प्रतिभा का रागात्मक उपयोग करता है, लिहाजा कृति किसी सीमा तक उपन्यास के करीब आ जाती है। जीवनी संस्मरणपरक भी हो सकती है, शोधपरक भी। इसलिए लेखकीय तटस्थता और ईमानदारी यहाँ अनिवार्य होती है। चरितनायक के आभामण्डल से सम्मोहित लेखक विवेकशील जीवनी नहीं लिख सकता। इसमें नायक के देशीय, धार्मिक,पौराणिक स्थितियों का समावेश भी सम्भव है, जिनमें चरित-नायक के मनोभावों की पुनर्रचना होती है।
प्राचीन काल के कई सम्राटों के जीवनचरित आज सहजता से उपलब्ध हैं। हिन्दी में नाभा दास रचित ‘भक्तमाल’ सबसे पुराना जीवनचरित माना जाता है। इनके अलावा गोसाईं गोकुलनाथ, बालमुकुन्द गुप्त, बाबू श्याम सुन्दर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, राजेन्द्र प्रसाद, बनारसी दास चतुर्वेदी, शिवरानी देवी, रामवृक्ष बेनीपुरी, राहुल सांकृत्यायन, जैनेन्द्र कुमार, राम विलास शर्मा, शिव प्रसाद सिंह, विष्णु प्रभाकर, कमला सांकृत्यायन, बिन्दु अग्रवाल...जैसे विशिष्ट रचनाकारों के योगदान से हिन्दी का जीवनी-साहित्य प्रभूत समृद्ध हुआ है।
जाहिर है कि जीवनी-साहित्य के अनुवादक को स्रोत-लक्ष्य-भाषा-ज्ञान और साहित्य-बोध के अलावा चरितनायक के ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक सन्दर्भों एवं उनकी दैनन्दिन गतिविधियों की भरपूर जानकारी रखनी होगी। अन्यथा पाठ में विवेचित अनेक सन्दर्भों की सही समझ वे नहीं बना पाएँगे। एक अनुवादक के लिए इतनी ज्ञान-शाखाओं का विशेषज्ञ होना कठिन अवश्य है, पर असम्भव नहीं। चूँकि उद्देश्य-साधक ज्ञानार्जन अलावा कोई अन्य विकल्प है ही नहीं, इसलिए रुचिशील अनुवादक ऐसे उद्यमों की साधना कर भी लेते हैं।
आत्मकथा
अपने जीवन की अन्तर्बाह्य चर्याओं की लेखक द्वारा यथार्थ, ईमानदार एवं क्रमवार प्रस्तुति आत्मकथा कहलाती है। आत्मानुभूति-प्रधान यह आधुनिक विधा सत्य-केन्द्रित होती है। यहाँ लेखक को जाने-अनजाने किसी महत्त्वपूर्ण तथ्य को छिपाने या मिथ्या-वर्णन करने की छूट नहीं होती। कठिन होता है, किन्तु लेखक इसमें अपने अवगुणों और मन के विकारों को भी उतनी ही निर्ममता से उजागर करता है, जैसे अपनी सद्वृत्तियों को। समृतिपरक होते हुए भी यह संस्मरण-साहित्य से इस अर्थ में भिन्न है कि इसका केन्द्रीय चरित्र लेखक स्वयं होता है। आसपास के समाज, परिस्थिति एवं अन्य घटनाएँ आती भी हैं, पर प्रमुखता से नहीं, मूल के समर्थन में। स्पष्टतः आत्मकथा लेखक के निज-व्यक्तित्व का सम्पूर्ण उद्घाटन है।व्यतीत जीवन की स्मृतियों को पुनर्जीवित करते हुए इसमें लेखक आत्मनिरीक्षण भी करता है; अपने देश, काल, परिवेश के घात-प्रतिघात से संघर्षशील अपने जीवन के साहस, भीरुता, चतुराई, धूर्तता को रेखांकित करता है और इस तरह पाठकों के लिए प्रेरणा-ग्रहण के कई आयाम प्रशस्त करता है। इस जनहितैषी महदुद्देश्य, तटस्थता एवं प्रमाणिक ऐतिहासिकता के कारण ही साहित्य और समाज में इस विधा का विशेष सम्मान है। विदित है कि आत्मकथा एवं जीवनी-साहित्य कई बार इतिहास-लेखन के स्रोत के रूप में मान्य होता है।
आत्मकथा लेखक का कार्य-क्षेत्र साहित्य ही हो, यह आवश्यक नहीं; जीवन-चर्या प्रेरणास्पद हो, तो धर्म, शास्त्र, विज्ञान, राजनीति, कला, शिक्षण, खेल, वाणिज्य -- किसी भी क्षेत्र के मनीषी का आत्मवृत्त समाज के लिए उपादेय हो सकता है।
बनारसीदास जैन, दयानन्द सरस्वती, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महात्मा गाँधी, सुभाष चन्द्र बोस, गुलाबराय, राहुल सांकृत्यायन, राजेन्द्र प्रसाद, चतुरसेन शास्त्री, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, सुमित्रनन्दन पन्त, हरिवंश राय बच्चन, वृन्दावनलाल वर्मा, मोरारजी देसाई, बलराज साहनी, रामविलास शर्मा...जैसे अनेक भारतीय चिन्तकों की आत्मकथाएँ आज भारतीय समाज के लिए प्रेरणास्पद बनी हुई हैं। हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओ में देश-देशान्तर की अनेक आत्मकथाओं का अनुवाद हुआ है। महात्मा गाँधी और राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथाएँ भारतीय आत्मकथाओं के गौरवशाली ग्रन्थों में गिने जाते हैं।
स्रोत-लक्ष्य-भाषा-ज्ञान के अलावा आत्मकथाओं के अनुवादकों से स्वभावतः ऐसी अपेक्षाएँ होती हैं कि वे पाठ के सार्वत्रिक सन्दर्भों से भली-भाँति परिचित हों। साहित्य-बोध के साथ-साथ लेखक के कर्म-क्षेत्र, उद्देश्योन्मुखी आचरण, वैचारिक उन्मेष, दैनन्दिन गतिविधियों, ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक सन्दर्भों के प्रसंगानुकूल ज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति विवेचित सन्दर्भों को समझ नहीं पाएँगे, लिहाजा उसकी अनुगूँज अनूदित होने से रह जाएगी, और अनुवाद सही नहीं होगा।
रिपोर्ताज
हिन्दी में साहित्य-सृजन एवं पत्रकारिता के मेल से रिपोर्ताज विधा शुरू हुई। प्रभाकर माचवे, अमृतराय, रांगेय राघव, फणीश्वरनाथ रेणु जैसे कई विशिष्ट रचनाकारों के योगदान से इस अत्याधुनिक गद्य विधा को पहचान मिली है। इसका विषय सदैव तथ्य पर आधारित होता है, तथ्य-चित्रण में रोचकता लाने के लिए इसमें कल्पना को जगह अवश्य मिलती है, पर मूल विषय कभी कल्पित नहीं होता। घटनाओं के प्रत्यक्ष-दर्शन से तैयार रिपोर्ट में भाषिक लालित्य और सहज साहित्यिक कौशल भरकर जो कलात्मक और आकर्षक गद्य प्रस्तुत होता है, वही रिपोर्ताज कहलाता है। इसका मुख्य विषय घटना होती है। लेखक की आँखें घटनाओं को कैमरे की तरह देखती है, कोई भी सूक्ष्मता छूटे नहीं; पर घटनाओं के कोटि निर्धारण की कोई अनुशासित सीमा नहीं होती। वैसी हर घटना, जिसकी तथ्य-रक्षा करते हुए लेखक भाव-प्रवण, कलात्मक अभिव्यक्ति कर सके, रिपोर्ताज का विषय हो सकती है। इसकी शैली चित्रत्मक एवं विवरणात्मक होती है। इसमें घटनाओं के सूक्ष्म निरीक्षण से मनोवैज्ञानिक विश्लेषण-विवेचन होता है, किन्तु अभिव्यक्ति में घटना के बाहरी रूप पर ही बल रहता है, आन्तरिक रूप सामान्यतया गौण रहता है। एक रिपोर्ताज लेखक का दायित्व पत्रकार एवं कलाकार--दोनों का होता है।स्वभावतः इसके अनुवादक को एक कलाकार, भाषाविद्, तत्त्वान्वेषी, पत्रकार...सबकी दृष्टि अपनानी पड़ेगी। चित्रित प्रसंग का अनुवाद यदि किसी ऐसे परिवेश का है, जिसके स्थानीय सन्दर्भ से लक्ष्य-भाषा के पाठकों के अपरिचय की सम्भावना बने; या भाषिक संयोजन में कोई ऐसी तरकीब हो, जिसकी ध्वनियाँ शब्द-प्रतिशब्द या वाक्य-प्रतिवाक्य अनुवाद करने से स्पष्ट न हो, तो अनुवादक को ऐसी व्यवस्था अपने अनुवाद में बनानी होती है, जिससे मूल-मर्म सम्प्रेषित हो जाए।
पत्र लेखन
साहित्य-क्षेत्र में पत्र-लेखन एक नई विधा है। महान विचारक, साहित्यकार, कलाकार के पत्र-लेखन में उनके अनुभूत जीवन-सत्य के दार्शनिक आयाम प्रकट होते हैं। जनसामान्य के जीवन में वे तथ्य कई दृष्टियों से प्रेरक होते हैं। साहित्य-क्षेत्र में इसे पत्र-साहित्य कहते हैं। इन पत्रों में लेखक की प्रतिभा जनोपयोगी दृष्टि से उजागर होती है। नित्तान्त व्यक्तिगत धारणा होने के बावजूद, महत् लेखकीय जीवन-दृष्टि के कारण इन पत्रों में प्रकट सन्देश सामाजिक दृष्टि से उपादेय एवं अनुकरणीय होते हैं। इसीलिए समाज-हित में इनके संकलन, प्रकाशन एवं कालान्तर में विभिन्न भाषाओं में इसके अनुवाद होते हैं।एक महान जीवन-दृष्टि से लिखे जाने के कारण इनमें व्यक्त धारणाएँ सार्वत्रिक और शाश्वत मूल्य की अवश्य होती हैं, पर इनका लेखन चूँकि लेखक की भाषा एवं अनुभव-क्षेत्र में होता है, लिहाजा इनमें प्रयुक्त शब्दों, वाक्यों, मुहावरों के अर्थ-सन्दर्भ स्थानीय मूल्य से लदे होते हैं। अपने अनुभूत-सत्य के ज्ञापन में कई बार पत्र-लेखक अपनी सारी अच्छी-बुरी वृत्तियों--जय-पराजय, मान-स्वाभिमान, अभिमान-अहंकार, हताशा-निराशा, उपदेश-निदेश, क्रोध-घृणा...सब कुछ उजागर करते हैं। इस लेखकीय ईमानदारी और स्वीकारोक्तियों में अनुकरणीय और प्रेरणास्पद प्रसंगों का चयन-विवेक उसके भाषा-सन्दर्भ में अनुगुम्फित होते हैं। पाठक अपने ज्ञान-बोध से स्वयं तय करते हैं कि किन अच्छे प्रसंगों का अनुकरण करें और किन असहज वृत्तियों से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को सुधारें। इसलिए इनकी भाषिक संरचना अत्यन्त व्याख्येय होती है।
इनके अनुवाद के समय लक्ष्य-भाषा में स्रोत-भाषा का पर्याय-चयन करते हुए अनुवादक की ओर से तनिक भी चूक होगी, तो अकारण ही अर्थ-द्योतन का अराजक वातावरण छा जाएगा और फिर अनुवाद का उद्देश्य नष्ट हो जाएगा। इसलिए ऐसे पाठ के अनुवादकों को दोनों भाषाओं की स्थानीय प्रयुक्तियों का भी गहन ज्ञान होना चाहिए। ऐसे पाठ के अनुवाद में कोशीय सन्दर्भ कई बार निस्सहाय लगने लगते हैं, लौकिक सन्दर्भ और शाश्वत मूल्य के दार्शनिक पहलू के अनुवादकीय विवेक ही ऐसे समय में सबसे बड़े सहायक होते हैं।
डायरी
कथेतर गद्य की प्रमुख विधा डायरी-साहित्य आधुनिक युग की देन है। यह लेखक के निजी जीवन के क्षण-विशेष में कौंधनेवाले विचारों, स्मरणीय प्रसंगों-विमर्शों, अनुभवों, चिन्तनों का दस्तावेज होता है। आत्म-साक्षात्कार की दृष्टि से लिखी गई महान लोगों की डायरियों में आज के सुबुद्ध नागरिक अपने जीवन में विलक्षण व्यवस्था बनाने, उन धारणाओं में अपने लिए अनुकरणीय अथवा प्रेरणास्पद सन्दर्भ ढूँढकर जीवन सँवारने में लगे हुए हैं। यह परवर्ती-काल की कई पीढ़ियों के पाठकों के लिए सन्दर्भ-स्रोत होता है। इसमें क्रूर लेखकीय ईमानदारी की बड़ी अपेक्षा होती है। ‘रूस में पच्चीस मास’ (राहुल सांस्कृत्यायन), ‘पैरों में पंख बाँधकर’ (रामवृक्ष बेनीपुरी), ‘एक साहित्यकार की डायरी’ (गजानन माधव मुक्तिबोध)...हिन्दी के विशिष्ट डायरी-साहित्य हैं।अत्यन्त सरल और स्पष्ट भाषा में अभिव्यक्त लेखकीय अनुभव के संक्षिप्त विवरण डायरी में स्थान, तिथि एवं समय-संकेत वस्तुतः उन स्थितियों का विश्लेषणात्मक रेखांकन होता है, जिसका प्रभाव सामुदायिक जीवन पर पड़ता है। यह लेखकीय जीवन के अनुभूत यथार्थ का अतीत-दर्शन भर नहीं होता, भाषा में पुनर्जीवन पाकर परवर्ती पीढ़ी को पूरे युग का दर्शन कराता है। इसी कारण डायरी कई बार ऐतिहासिक सन्दर्भ का स्रोत भी बनता है। यही डायरी अवसर पाकर कभी आत्मकथा में परिणत हो जाती है, जिसमें लेखक के विचारों, अनुभवों, चिन्तन-प्रक्रियाओं, जीवन-चर्याओं की छवि अंकित होती है। जीवन के जिन गोपनीय प्रसंगों की अभिव्यक्ति मनुष्य किसी के समक्ष नहीं कर पाता, जिन चिन्तनों से जीवन भर किसी को सहमत नहीं कर पाता, उसे अत्यन्त सहजता से डायरी में दर्ज कर व्यक्त कर निश्चिन्त हो जाता है, जैसे किसी तनाव से मुक्ति पा लिया हो! इस अर्थ में डायरी वस्तुतः लेखक का अन्तरंग मित्र होता है।
जिन अनुवादकों की अभिज्ञाति पत्र-साहित्य की इन सूक्ष्मताओं सेे नहीं होगी, इन रचनात्मक सन्दर्भों का जिन्हें गहन बोध नहीं होगा, वे अनुवाद के समय अपेक्षित सावधानियाँ नहीं बरत पाएँगे।
साक्षात्कार
अत्याधुनिक गद्य विधा ‘साक्षात्कार’ का आधार अनुभव-सिद्ध महान व्यक्तियों के साथ प्रश्न-उत्तर शैली का संवाद है। इसके जरिए उत्तरदाता विशिष्ट व्यक्ति के जीवन-दर्शन, चिन्तन-दृष्टि, अभिरुचि, तथ्यमूलक जानकारी से प्रेरित होकर न्यूनतम समय में पाठक अपना दृष्टिकोण निर्मित करता है। प्रसंगानुकूल आए सन्दर्भों में उत्तरदाता के अध्यवसाय, अनुभव और समकालीन विलक्षण लोगों से सम्बद्ध विशिष्ट जानकारी प्राप्त करता है। प्रभाव के स्तर पर यह अत्यन्त उपादेय साहित्यिक विधा है। कारण जो हो, पर तथ्यतः अन्य भाषाओं एवं विधाओं की तुलना में हिन्दी की ‘साक्षात्कार’ विधा के सम्पन्न होने में अभी समय है।इसका उपादेयतामूलक सन्दर्भ सामान्य पाठकों से है, इसलिए इसके प्रश्न-उत्तर की शैली सहज सम्प्रेषणीय होती है। संवाद की भाषा की सहजता इसका प्राण-तत्त्व हैं। इसमें उत्तरदाता के जीवनानुभवों, रुचियों, चिन्तनों, प्रेरणाओं से सम्बद्ध प्रसंगों पर प्रश्नकर्ता प्रश्न करते हैं, उत्तरदाता उत्तर देते हैं। कल्पना के समावेश की इसमें कोई सम्भावना नहीं होती। इसी कारण इसका उपयोग इतिहास, साहित्येतिहास, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र...जैसे सन्दर्भपरक पाठ-लेखन के लिए स्रोत-सामग्री के रूप में होता है। अन्य विधाओं की तरह इसके आयाम किसी शिल्पगत सीमा में बँधे नहीं होते। समाज के विभिन्न वर्गों के लोग अनायास ही इससे जुड़ जाते हैं। हिन्दी में इस साहित्यिक विधा का पल्लवन सन् 1931 में रत्नाकर के साथ बनारसीदास चतुर्वेदी की बातचीत से माना जाता है। इसकी लोकप्रियता में पत्रकारिता की प्रशंसनीय भूमिका है। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के विस्तार से इसकी लोकप्रियता खूब बढ़ी है। विगत पाँचेक दशकों से इसमें विलक्षण निखार आया है। विख्यात लोगों के साक्षात्कारों के संकलन प्रकाशित होने लगे हैं।
इसमें प्रश्नकर्ता-उत्तरदाता--दोनों की परिपक्वता रेखांकित होती है। उत्तरदाता के कार्य-क्षेत्र के गम्भीर ज्ञान के बिना साक्षात्कार के लिए प्रस्तुत होना प्रश्नकर्ता की नादानी समझी जाती है। इसी तरह प्रश्नों के वास्तविक मर्म को जाने बिना बेताबी से चलताऊ उत्तर देना भी अनैतिक माना जाता है। आम नागरिक से पाठकीय सन्दर्भ के जुड़े होने के कारण इसमें प्रश्न-उत्तर की स्पष्टता अनिवार्य मानी जाती है। साक्षात्कार पूर्ण होने के बाद संवाद के लिखित पाठ पर उत्तरदाता की सहमति भी व्यावहारिक और नैतिक माना जाता है।
ऐसे पाठ के अनुवादकों को साक्षात्कार के विषय, उत्तरदाता के कार्य और अध्ययन-क्षेत्र की समझ के साथ-साथ संवाद के उद्देश्यों तथा वर्णित प्रसंगों की सूक्ष्मताओं से परिचित होना होगा। लक्ष्य-भाषा के पाठकों को मूल की वास्तविक ध्वनियाँ सम्प्रेषित करने की कोई कौशलपूर्ण व्यवस्था होगी।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विषयक पाठ का अनुवाद
विज्ञान सम्बन्धी पाठ के दो खण्ड होते हैं -- सामाजिक विज्ञान और प्राकृतिक विज्ञान। सामाजिक विज्ञान में मनुष्य के आहार-व्यवहार, आचार-विचार के आधार पर मानव-जीवन का अध्ययन होता है; जबकि प्राकृतिक विज्ञान में सजीव-निर्जीव पदार्थों के रंग-रूप, आकार, वैशिष्ट्य का अध्ययन किया जाता है। उसके विकास-क्षरण में प्राकृतिक वातावरण के प्रभाव की व्याख्या की जाती है। इसमें भौतिकी, रसायन विज्ञान, आयुर्विज्ञान, भू-विज्ञान, जीव विज्ञान, वनस्पति-विज्ञान, के अलावा अभियान्त्रिाकी, कम्प्यूटर-विज्ञान, सांख्यिकी, गणित, पर्यावरण-विज्ञान, जैव प्रौद्योगिकी, कृषि -- जैसे शुद्ध एवं अनुप्रयुक्त विज्ञान के विषय भी शामिल होते हैं। प्राकृतिक विज्ञान में प्रकृति की शक्तियों तथा घटनाओं के कार्य-कारण सम्बन्धों या तत्सम्बन्धी नियमों का विवेचन होता है। दोनों ही अध्ययन वस्तुपरक होते हैं। अध्ययन की विधियाँ केवल अलग-अलग होती हैं। विधियों की भिन्नता और उपस्थित सरलता-जटिलता के कारण इस अध्ययन में भाषिक स्पष्टता की बड़ी जरूरत पड़ती है। वस्तुनिष्ठता की अत्यधिक महत्ता के कारण इसमें अलंकारिक अभिव्यक्तियों से परहेज रखा जाता है।
प्राकृतिक विज्ञान के वैज्ञानिक अपने प्रयोग की पद्धतियों एवं परिणतियों का दृष्टा होता है। वह घटनाओं के कार्य-कारण सम्बन्ध और सैद्धान्तिक नियमों की वस्तु-परक खोज की इच्छा रखता है। घटनाओं को भावात्मक दृष्टि से देखने या अभिव्यक्त करने की चेष्टा नहीं करता। विज्ञान एवं अन्य शास्त्रों में सबसे बड़ा भेद यही है कि वैज्ञानिक-विधि में निष्कर्ष का सत्य परखा जाता है। सत्य की परख आध्यात्मिक ज्ञान में भी की जाती है, किन्तु उसकी परख अपने आत्म-चिन्तन और आन्तरिक अवलोकन से सम्भव होती है। यह परख तर्कों पर आधारित होती है। विज्ञान ऐसा नहीं मानता; इसकी राय में तर्क मात्र से कोई विचार सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं होगा, मात्र परिकल्पना रहेगा। विज्ञान की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि स्वीकृति पा लेने के बाद भी इसके सिद्धान्त वैज्ञानिक विधियों द्वारा असत्य सिद्ध किए जा सकते हैं।
इस वस्तुपरकता के कारण विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विषयक पाठ में भाषा का बड़ा महत्त्व होता है। सामुदायिक जीवन में अपने प्रभाव से यह नई-नई अवधारणाओं, शक्ति-स्रोतों, चेतना-मूल्यों एवं शब्दों का आविष्कार करता है। पाठकों के विचार को उद्बुद्ध करते हुए सत्य, निष्ठा, सहकार जैसे जीवन-मूल्यों की प्रेरणा भी देता है। यद्यपि विज्ञान के अनुप्रयोगों से परिपुष्ट प्रौद्योगिकी मनुष्य के भौतिक जीवन में उपभोक्ता-सुविधा के सम्मोहन से कुछेक खुशियाँ तो देती है, पर तार्किक सावधानी नहीं रखने से वे कभी खतरनाक भी हो जाती हैं। विज्ञान-प्रदत्त जीवन-मूल्य निस्सन्देह मानवीयता के लिए वरदान है; परन्तु प्रौद्योगिकी-प्रदत्त जीवन-मूल्य का अभिग्रहण सतर्कतापूर्वक करना चाहिए। इस गम्भीर स्थिति का स्पष्ट सन्देश भाषा द्वारा ही सम्भव है। भाषा जितनी सहज, स्पष्ट, एकार्थी और पम्प्रेषणीय होगी, सन्देश उतना स्पष्ट और लोकहितकारी होगा। इसलिए इसके मूल एवं अनूदित पाठ की भाषा पर अतिरिक्त सावधानी की जरूरत होती है।
विज्ञान वस्तुतः विकास का आलोकपुंज है, जिसके वैश्विक प्रचार-प्रसार एवं विकास की अपेक्षा दुनिया भर के लोगों को होती है। ज्ञान-प्रसार के इस क्षेत्र में वैज्ञानिक साहित्य की अहम् भूमिका होती है। वैज्ञानिकों के बीच ज्ञान के आदान-प्रदान से जागृति फैलाना, जिज्ञासुओं का ज्ञान-वर्द्धन करना, अनुसन्धित ज्ञान का दस्तावेज तैयार करना, जनसामान्य में वैज्ञानिक समझ बढ़ाना ही वैज्ञानिक साहित्य का प्रमुख उद्देश्य होता है। यह एक ओर मनुष्य को प्रश्नाकुल, जिज्ञासु, दक्ष, शक्ति-सम्पन्न और अन्धविश्वास से मुक्त बनाकर तर्कसंगत विचारों और अनुसन्धान एवं विकास की ओर उन्मुख होने की प्रेरणा देता है, तो दूसरी ओर उनमें ज्ञान और प्रेम का संस्कार भरता है। समाज-हित की सम्भावना से परांग्मुख लेखन किसी भी अर्थ में उपादेय नहीं होता, मनुष्य में ऐसी प्रेरणा विज्ञान से ही सम्भव होती है। अतएव वैज्ञानिक साहित्य मानव-समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
दुनिया भर के बौद्धिकों ने विकासशील सभ्यता के क्रम में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी साहित्य को खण्डों में बाँटकर देखने की व्यवस्था भी दी है। तकनीकी विज्ञान-लेखन, लोकप्रिय विज्ञान-लेखन, ललित विज्ञान-लेखन जैसे खण्ड इनमें प्रमुख हैं। प्रकाशन उद्योग की विकसित पद्धतियों के कारण आज समाज में ढेर सारे वैज्ञानिक-साहित्य उपलब्ध हैं। बीते दशकों में शुद्ध साहित्य के अन्तर्गत भी विज्ञान-कथा जैसी विधा विकसित हुई है। विधात्मक तोड़फोड़ की पद्धतियों के कारण ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में नई-नई विधाओं की शुरुआत हुई। जब कभी किसी वैज्ञानिक की जीवनी या उनकी कार्य-प्रणाली का दस्तावेजीकरण हुआ, उसमें लोकप्रिय विज्ञान-लेखन और ललित विज्ञान-लेखन की पद्धति भी देखी गई।
ज्ञान-शाखाओं के अधीन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बद्ध पाठ एक तरह का ज्ञानात्मक पाठ है। ज्ञान मनुष्य-जाति की विशिष्ट पहचान है, जिसकी प्राप्ति विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास के समुचित ज्ञान के बिना असम्भव है। हर राष्ट्र की भौतिक उन्नति, आर्थिक समृद्धि एवं सैन्य-शक्ति संवर्द्धन के लिए आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी अनिवार्य है। मूल एवं अनुवाद--दोनों ही रूपों का विज्ञान-लेखन आज हर राष्ट्र के विकास की कसौटी है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के ज्ञान के माध्यम से ही आज कोई राष्ट्र अपने सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। इसलिए, इस क्षेत्र में उपलब्ध ज्ञान को आत्मसात करना आज हर किसी के लिए अनिवार्य है। इस दिशा में अनुवाद आज सर्वाधिक सार्थक माध्यम है। अन्य राष्ट्रों की तुलना में भारत जैसे बहुभाषिक-बहुसांस्कृतिक देश में आज अनुवाद की आवश्यकता अधिक है। अन्य भाषाओं की ज्ञान-सम्पदा अनुवाद मात्र के माध्यम से ही आ सकती है। प्रौद्योगिकी हस्तान्तरण में अनुवाद की महती भूमिका तो सर्वविदित है ही। ‘विश्व-ग्राम’ अथवा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा को विज्ञान विषयक पाठ के अनुवाद से ही सही अर्थों में साकार करना सम्भव है। विभिन्न भाषा-भाषी क्षेत्रों में विज्ञान-प्रसार का कार्य अनुवाद के द्वारा ही सम्भव होता है। एक वैश्विक सहकारी कार्य के रूप में विज्ञान-लेखन का अनुवाद आज अनिवार्य हो गया है।
वैज्ञानिक दृष्टिमें कोई भी विचार या संकल्पना अन्तिम नहीं होती; हर प्रयोग की हर परिणति सदैव परीक्षणीय होती है। इसलिए हर वैज्ञानिक अपने पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तावित नियमों एवं सिद्धान्तों का परीक्षण करता रहता है। आविष्कार की सतत विकासशील शृंखला में किस आविष्कार के अगले चरण को किस भाषा के वैज्ञानिक साकार कर दें, कोई नहीं जानता। अपनी भाषाओं में विज्ञान-विकास के कार्य में तल्लीन सभी वैज्ञानिकों को सभी भाषाओं का ज्ञान तो होता नहीं! उनकी ज्ञान-सम्पन्नता का एकमात्र आधार अनुवाद ही होता है! इसलिए अनुवाद के बिना विज्ञान-क्षेत्र की वांछित प्रगति भी असम्भव है।
स्पष्टतः विज्ञान सम्बन्धी पाठ के अनुवाद की महत्ता स्वयंसिद्ध है; किन्तु ऐसे पाठ के अनुवाद के बड़े-बड़े जोखिम हैं। क्योंकि वैज्ञानिक साहित्य का सही अनुवाद दो भाषाओं की शब्दावली के ज्ञान मात्र से सम्भव नहीं है। शब्दकोशों में भी विशिष्ट शब्दों की सारी अर्थ-ध्वनियाँ उपलब्ध नहीं होतीं। उन्हें जानने के लिए सम्बद्ध भाषा की प्रवहमान और जीवन्त संस्कृति को जानना जरूरी होता है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी सम्बन्धी पाठ के अनुवाद में केवल भाषा ही नहीं, तथ्यपरकता का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। अनुवादक को सम्बद्ध विषय का पर्याप्त ज्ञान न होने पर, पाठ के मर्म की समझ अधूरी रहेगी, लिहाजा अनुवाद अविश्वसनीय होगा। विषय की अवधारणाओं, अभिव्यक्तियों की भरपूर समझ बनाने के लिए अनुवादक को प्रयोजनवश विषय-विशेषज्ञ की सहायता लेनी पड़ती है। अभिप्राय यह नहीं कि वैज्ञानिक पाठ का अनुवाद कोई वैज्ञानिक ही करें, बल्कि अभिप्राय यह है कि अनूद्य पाठ के विषय के मूल भाव की समझ अनुवादक को सही-सही हो। अनुवाद में भी मूल पाठ जैसी सुनिश्चित और एकार्थी अर्थ-ध्वनि उतरे। सूत्रों, संकेतों, अंकों, समीकरणों, प्रतीकों, संक्षिप्ताक्षरों के लिए किसी अनुवादक को लक्ष्य-भाषा के प्रति हठधर्मिता नहीं अपनानी चाहिए। इससे अनुवाद जटिल होता है। उसका प्रतिरूपण वैसे के वैसे कर दिया जाना चाहिए, ताकि भाषिक संरचना में अर्थ-सम्प्रेषण की कोई दुविधा न हो। परिमाण, लम्बाई, तापक्रम इत्यादि की माप इकाइयों में वैश्विक रूप से स्वीकृत और मानक शब्द अपनाना चाहिए।
वैज्ञानिक पाठ के अनुवाद में गणितीय एवं वैज्ञानिक संकेतों के यथावत् उपयोग की पूरी छूट अनुवादकों को होती है, पर घट-बढ़ (Loss & Gain) की कोई सुविधा नहीं होती, वे ऐसी कोई स्वतन्त्रता नहीं ले सकते; वे न तो मूल का कोई अंश छोड़ सकते, न ही कुछ अपनी ओर से जोड़ सकते। अर्थात्, विज्ञान-लेखन का अनुवाद पूरी तरह बौद्धिक होता है। प्रयोजनवश कभी भावनात्मक भी होता है, पर इसके लिए सृजनशीलता अनिवार्य है। प्रयुक्त शब्दों का अर्थ मात्र पर्याप्त नहीं होता, सांस्कृतिक, सामाजिक, विषयगत अर्थ-सन्दर्भों को स्पष्ट करनेवाली विशिष्ट प्रयुक्तियों को भी समझना होता है। ऐसी जटिलता से उबरने के लिए पारिभाषिक शब्दों की अवधारणाओं एवं सिद्धान्तों का सहयोग लेना सुकर होता है। विज्ञान-प्रौद्योगिकी या ज्ञान की अन्य शाखाओं के शब्दों के लिए स्वनिर्मित नए पर्याय रखने के बजाय सर्वमान्य तकनीकी शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। इससे शब्दों की एकरूपता स्थापित होगी, जो अनुवाद को प्रमाणिक और बोधगम्य बनाएगा।
इस पाठ के अनुवाद में मूल पाठ के भाषिक वैशिष्ट्य का ध्यान रखना विशेष रूप से आवश्यक होता है। भावनाओं एवं विचारों सम्प्रेषण के लिए भाषा निश्चय ही एक विशिष्ट ध्वन्यात्मक माध्यम है; पर भाषा के रूप एवं शैली का भी अपना महत्त्व होता है। पाठ के विषय-प्रसंग से भाषा का गहन सम्बन्ध होता है। इसलिए विषय-प्रसंग की भिन्नता से पाठ की भाषा के रूप एवं शैली में भिन्नता आएगी।
विज्ञान का उद्देश्य तथ्य-प्रस्तुति है; प्रौद्योगिकी का उद्देश्य उत्पाद बेचना। प्रौद्योगिक उत्पाद के साथ उपभोक्ताओं को उसकी उपयोग-विधि-पुस्तिका देना आज के वैश्विक बाजार की अनिवार्यता है। स्पष्ट और सम्प्रेषणीय भाषा में तथ्य की प्रस्तुति इस पुस्तिका में अनिवार्य होता है। यह सम्प्रेषणीयता भिन्न-भिन्न बोध और हैसियत के उपभोक्ताओं पर निर्भर करता है। इसका निदान अनुवादकों को अपने विवेक से करना होता है। तथ्यों के प्रतिरूप रचते हुए उन्हें सदैव ध्यान रखना होता है कि लेखन का माध्यम भाषा बेशक है, पर भाष विषय-प्रसंग के अनुकूल न होने पर ज्ञान-प्रसार असम्भव होगा।
गणित और विज्ञान की भी अपनी भाषा होती है। इसमें लेखक-अनुवादक के वैयक्तिक दृष्टिकोण का कोई स्थान नहीं होता, यहाँ लेखक का अभिप्राय नहीं, परीक्षण आधारित वस्तुपरक निष्कर्ष प्रस्तुत होता है। इसमें पारिभाषिक शब्दों का उपयोग ही सर्वोचित होता है। अनुवादकों को जिस शब्द का उचित पर्याय लक्ष्य-भाषा-कोश में न मिले, उसे या तो उसी रूप ले लें या फिर अपने सुबुद्ध विवेक से कोई तथ्यपरक विकल्प चुनें। विज्ञान-लेखन सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दावली पर पर्याप्त काम हुए हैं। विज्ञान के क्षेत्र में परमाणु, प्रकाश-संश्लेषण, नाभिकीय, विकिरण, वायुमण्डल, प्रदूषण, भूस्खलन, संवेग, ऊष्मा, जीवाणु, अन्तरिक्ष, गुरुत्वाकर्षण...जैसे अनेक तत्सम शब्द वैज्ञानिक सन्दर्भ के लिए पारिभाषिक हो गए हैं। इसी तरह कम्प्यूटर, मोनीटर, मेमोरी स्क्रीन, बूटिंग, बुफरिंग, माऊस...जैसे अनेक विदेशज शब्द पारिभाषिक अर्थ-सन्दर्भ में अभिगृहीत हो गए हैं। अनुवाद करते इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए।
वैज्ञानिक पाठ की रचना सरल-सहज अर्थ-ध्वनिवाले शब्दों-पदों से होती है। निश्चित एकार्थ की प्रस्तुति इस पाठ की अनिवार्यता होती है। इसलिए इसमें अभिधामूलक प्रयुक्ति के प्रति आग्रह और लक्षणा-व्यंजनामूलक प्रयुक्ति के प्रति वर्जना का भाव होता है। इस भाव का प्रयोजन स्पष्टतः अनुवाद में अनिवार्य होता है। अनुवाद के दौरान इनका विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।
सामाजिक विज्ञान विषयक पाठ का अनुवाद
ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के व्यापक क्षेत्र ‘सामाजिक विज्ञान’ का सम्बन्ध लोगों के व्यवहारों, तौर-तरीकों एवं परिवेश पर उनके प्रभाव सम्बन्धी सामाजिक अध्ययन से है। जीवन-व्यवहार के अनेक उपक्रमों के लिए मनुष्यों के बीच पारस्परिक व्यवहार के सामाजिक सम्बन्ध बनते हैं। जीवन की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति मनुष्य निजी स्तर पर करता है, पर अधिकांश आवश्यकताएँ समान प्रकृति की होती हैं, जिनकी पूर्ति समाज के सामूहिक प्रयास से की जाती है। ये प्रयास सामूहिक गतिविधि बन जाते हैं। सामाजिक विज्ञान में इन्हीं क्रियाओं का अध्ययन-विश्लेषण होता है। इसका क्षेत्र-विस्तार अब इतना जटिल हो गया है, कि कोई एक विषय इसे समग्रता से समेट नहीं सकता। पर इसकी सभी शाखाओं का सम्बन्ध नागरिक-व्यवहार से है। इस व्यवहार के भिन्न-भिन्न पक्षों का अध्ययन ज्यों-ज्यों विस्तार पाता है, इसकी शाखाएँ बनती जाती हैं।मुख्य रूप से इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, तर्क-शास्त्र, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र, व्यावसायिक अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, लोक प्रशासन, अन्तरराष्ट्रीय अध्ययन, पुरातत्त्व विज्ञान, नृविज्ञान, सांस्कृतिक अध्ययन, समाज कार्य विकास अध्ययन, सूचना विज्ञान, पुस्तकालय विज्ञान, कृषि-विज्ञान, भाषाविज्ञान, समालोचना, दर्शनशास्त्र, धर्म-अध्यात्म, पर्यटन, सूचना-प्रधान विषय के अन्तर्गत जनसंचार के विविध पक्ष...जैसे विषय-क्षेत्र इसके अन्तर्गत आते हैं। हर विषय समाज के विशेष पक्ष पर ध्यान देता है। इन ज्ञान-क्षेत्रों की शब्दावली, भाषिक प्रयुक्ति, पद-वाक्य-संरचना, अभिव्यक्ति-शैली...का अपना-अपना वैशिष्ट्य होता है। वैज्ञानिक पाठ की तरह इस ज्ञान-क्षेत्र की भाषा भी अभिधात्मक होती है। अलंकारिक या लक्षणा-व्यंजनामूलक प्रयुक्ति से इसमें परहेज रखा जाता है। कथन में अर्थ-बाधा और अस्पष्टता उत्पन्न करनेवाली प्रयुक्तियाँ यहाँ सर्वथा वर्जित होती हैं। इसका मूल लक्ष्य पाठकों को विषय-प्रसंग की समुचित जानकारी उपलब्ध कराना होता है। इसलिए यहाँ सरल-सहज और स्पष्ट भाषा अपेक्षित होती है। वस्तुनिष्ठता इसकी भाषा का अन्यतम गुण है। भाषिक सरलता-जटिलता की सुनिश्चिति निश्चय ही लक्षित पाठकों की आयु और ज्ञान-स्तर से होती है। हर ज्ञानात्मक साहित्य का स्वभाव यही होता है। उच्चतर शिक्षा के शोधार्थियों और प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षार्थियों के लिए समान भाषा उचित नहीं होगी। सरलता का स्तर दोनों के लिए भिन्न होगा। समाज-विज्ञानी के निजी आग्रह या दृष्टिकोण पर इसका भाषिक स्वरूप निर्भर नहीं करता। वे तथ्य-उद्घाटन के माध्यम होते हैं, सृजेता नहीं; इसलिए अभिव्यक्ति-शैली लक्षित पाठकों के ज्ञान-बोध के अनुकूल ही होनी चाहिए।
इस ज्ञान-क्षेत्र के पाठ का अनुवाद स्पष्टतः सामान्य अनुवाद से बहुत भिन्न नहीं होता; किन्तु अनुवाद करते हुए उक्त बातों की सावधानी अनिवार्य होती है। अन्य विषयों की तरह इसके अनुवादकों को स्रोत-लक्ष्य-भाषा का सम्यक ज्ञान होना चाहिए। विशिष्ट परिवेश में उद्भूत और विकासित होने के कारण हर भाषा का विशिष्ट संस्कार होता है, भाषिक आचरण होते हैं, मुहावरे होते हैं, विशेष ध्वन्यात्मकता होती है, शब्दों-पदों-वाक्यों की स्थानीय व्यवस्था एवं तज्जन्य संरचनाएँ होती हैं, शैली-भेद होते हैं। इन सारे सन्दर्भों से स्रोत-भाषा में व्यक्त भावों-विचारों-संवेदनाओं को भली-भाँति समझकर उसी तरह लक्ष्य-भाषा में पहुँचाना दोनों भाषाओं के सम्यक ज्ञान के बिना असम्भव होगा।
चूँकि सामाजिक विज्ञान विषयक पाठ अन्तरानुशासनिक प्रकृति का होता है; इसके स्रोत-सन्दर्भ निकटवर्ती कई विषयों से जुड़े होते हैं; इसलिए इसके अनुवादकों को तत्सम्बन्धी अनेक विषयों की सामान्य जानकारी के साथ उन अध्ययन क्षेत्रों एवं उपविषयों की पारिभाषिक शब्दावली का बोध रखना अनिवार्य होता है। किसी एक विषय के सीमित ज्ञान से इस क्षेत्र के अनुवाद-कार्य में प्रवृत्त होना उचित नहीं होता। विषयानुकूल सहज भाषा-प्रयोग, अध्ययन-क्षेत्र के अनुसार पारिभाषिक शब्दावली एवं पर्याय-चयन की तार्किकता अनुवाद में अनिवार्य होता है। ऐतिहासिक, सांस्कृतिक विवरणों में भी सन्दर्भों के प्रति विशेष सावधानी रखनी पड़ती है। ऐसे सन्दर्भ अक्सर मिथकों-प्रतीकों से जुड़े होते हैं, जो संगत समाज की संस्कृति के अभिन्न अंग होते हैं, स्वयं में विशिष्ट अर्थ लिए हुए होते हैं; फलस्वरूप एक भाषाभाषी समाज के मिथक-प्रतीक दूसरे भाषाभाषी समाज में उसी तरह स्वीकृत नहीं होते। सामाजिक विज्ञान साहित्य के अनुवादकों को इन जोखिमों से अक्सर जूझना पड़ता है।
प्रशासनिक पाठ का अनुवाद
प्रशासनिक गतिविधियों में प्रयुक्त होने वाली भाषा ‘प्रशासनिक भाषा’ कहलाती है। भाषा की स्वरूपगत विशेषताओं के आधार पर इसे सन्दर्भ विशेष में ‘कार्यालयीय भाषा’ या ‘राजभाषा’ या ‘प्रशासनिक पाठ’ भी कहते हैं। भारतीय संविधान में देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को ‘राजभाषा’ की संज्ञा दी गई है। राजभाषा अधिनियम 1963 में प्रशासनिक कार्यों में अंग्रेजी के प्रयोग की भी अनुमति दी गई, परिणामस्वरूप अंग्रेजी का वर्चस्व बनता गया और प्रशासनिक कार्यों में हिन्दी, अनुवाद की भाषा हो गई। प्रशासनिक क्षेत्र की ‘हिन्दी’ आज तथ्यतः ‘अनूदित हिन्दी’ है। इसके अनुवाद इतने जटिल होते हैं कि अर्थ-बोध कठिन होता है। बात विचित्र, किन्तु तथ्य है कि आज लगभग सरकारी कागजात मूलतः अंग्रेजी में लिखे जाते हैं, फिर इसका हिन्दी अनुवाद होता है। अनूदित पाठ में यह जटिलता अनुवाद के दौरान पर्याय-चयन और वाक्य-विन्यास की असावधानी के कारण आती है। प्रशासनिक कार्यों की भाषा चूँकि वस्तुपरक एवं सन्दर्भमूलक होती है, इसलिए अनूदित पाठ की भाषा में निर्णय सम्प्रेषित करने की क्षमता होनी चाहिए। निर्दिष्ट अनुवाद-कार्य के बेहतर संचालन का दायित्व भारत सरकार ने ‘राष्ट्रीय अनुवाद मिशन’, ‘विधि मन्त्रालय’ के ‘राजभाषा विधायक खण्ड’ तथा ‘केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो’ को सौंपा है। केन्द्र सरकार ने कर्मचारियों के अनुवाद प्रशिक्षण की व्यवस्था भी है।प्रशासनिक भाषा का स्वरूप चूँकि निहित सिद्धान्तों से नियन्त्रिात सरकार की विशिष्ट कार्य-प्रणाली पर आधारित होता है, इसलिए यह सामान्य भाषा से किंचित भिन्न होती है। सरकार तो तथ्यतः एक अमूर्त सत्ता है, जिसके अधिकारों का संचालन एक अधिकारी समूह द्वारा होता है। इस तन्त्र में लिया गया हर निर्णय उसी अदृश्य सरकार का निर्णय होता है, जिसके अनेक अधिकारों में से एक या कुछेक अधिकार, अधिकारी विशेष के पास होता है। उसी अमूर्त सरकार की ओर से वह अधिकारी भाषा का प्रयोग करता है। स्पष्टतः यह भाषा सरकारी कर्मचारियों एवं अधिकारियों के साथ-साथ जनसामान्य से भी सम्बन्धित होती है। अर्थात् उनका व्यवहार उन दोनों समूह से सम्बद्ध होता है जो व्यवस्था कर रहे हैं और जिनके लिए कर रहे हैं। इसी कारण प्रशासनिक भाषा की प्रकृति सामान्य से भिन्न होती है। एकार्थ प्रतिपादन और सम्प्रेषणीता इस भाषा की पहली शर्त होती है; इसीलिए इसमें अभिधामूलक भाषा का प्रयोग होता है। इससे भाषा की एकार्थता, कथ्य स्पष्टता बनी रहती है; अर्थबोध में कोई जटिलता नहीं आती। उदाहरण के लिए किसी कर्मचारी को उनके विधान-विरुद्ध आचरण के लिए चेतावनी देनी हो, तो घटना-प्रसंग और तिथि-बिन्दु के उल्लेख के साथ उन्हें स्पष्ट भाषा में सूचित किया जाना चाहिए, ताकि बात उन्हें पूरी तरह सम्प्रेषित हो जाए, अर्थबोध में कोई सन्देह न हो, एकार्थ-बाधा न आए।
लक्षणा-व्यंजना से अर्थबहुलता और सम्प्रेषण की दुविधा उत्पन्न होने के कारण प्रशासनिक भाषा में सदैव अभिधा-शक्ति से अर्थान्वेष किया जाता है। साहित्यिक पाठ में लक्षणा-व्यंजना का प्रयोग भले प्रशंसनीय हो, प्रशासनिक भाषा में इसकी प्रयुक्ति उचित नहीं मानी जाती।
कार्यालयीय प्रकरण के कई प्रपत्रों की घोषणाएँ वरिष्ठ अधिकारी से कनिष्ठ कर्मचारी तक के लिए एक समान होती हैं। इसलिए इसकी भाषा इतनी सरल और बोधगम्य होनी चाहिए कि पदक्रम, शिक्षा, सामाजिक वर्चस्व आदि की भिन्नता के बावजूद सम्प्रेषण समान हो, किसी को कोई अर्थ-भ्रम न हो। अर्थ-भ्रम का दुरुपयोग कर कोई अधिकारी-कर्मचारी कार्यालय को न्यायिक मामलों में फँसा सकता है। इसकी भाषा पूरी तरह औपचारिक होती है। व्यक्ति-निरपेक्ष कथन होने के कारण ही सरकारी प्रपत्रों की भाषा में कर्मवाच्य की प्रधानता रहती है। इसीलिए I am directed to ask you लिखा जाता है, जिसका अनुवाद होता है--मुझे निर्देश हुआ है कि मैं आपसे पूछूँ। Submitted for perusal लिखा जाता है, जिसका अनुवाद होता है--अवलोकनार्थ प्रस्तुत।
पदों की क्रमिक शृंखला में निबद्ध परिवेश के कारण प्रशासनिक तन्त्र की भाषा में शिष्टाचार एवं औपचारिकता भरी होती है। ‘सेवा में’, ‘महोदय’, ‘प्रिय महोदय’ जैसे औपचारिक एवं शिष्टाचारपूर्ण पदबन्धों शुरू हुए प्रशासनिक पत्र ‘सादर आपका’, ‘सधन्यवाद सादर’ जैसी भद्रता पर समाप्त होते हैं।
प्रशासनिक भाषा का एक सुनिश्चित ढाँचा होता है। इसमें टिप्पण या मसौदा लिखने की परिपाटी उसी निर्धारित ढाँचे के अनुसार चलती है। The undersigned is directed to acknowledge the receipt of your letter dated May 04, 2021. अर्थात् ‘अधोहस्ताक्षरी को आपके मई 04, 2021 के पत्र की पावती भेजने का निर्देश हुआ है।’ अनुवाद के समय इस सुनिश्चित ढाँचे पर गहन सावधानी बरतनी पड़ती है। प्रशासनिक पाठ में नियमों की बात होती है, प्रपत्रों में विधि-विधान, अधिनियम एवं प्रतिज्ञा की बात होती है; संविधानिक रूप भी सामने आते हैं; सामान्य सूचनाएँ भी होती हैं। फाइलों में लिखी जाने वाली टिप्पणियों में कभी उच्चाधिकारी की स्वीकृति की माँग की गई होती है, कभी नियम-कायदे का अनुपालन करते हुए अधीनस्थों की राय जानने की बात की जाती है। ज्ञापनों, प्रपत्रों, अधिसूचनाओं में नियमावली, वित्तीय क्षमता, अनुशासनिक कार्यवाही, कार्यालयीय कार्यविधि, आदेश-निदेश, आवेदन-प्रतिवेदन...की सटीक अभिव्यक्ति के लिए विशिष्ट शब्दावली की आवश्यकता होती है। प्रशासनिक कार्यवाहियों में प्रयुक्त होने के कारण इसे प्रशासनिक शब्दावली कही जाती है। ‘अधिकारी’, ‘कर्मचारी’, ‘आयोग’, ‘ग्रेच्युटी’, ‘तदर्थ‘, ‘पदस्थ’, ‘पेन्शन’, ‘निलम्बन’, ‘प्रपत्र’, ‘मंजूरी’, ‘सरकारी’...जैसे शब्द इसके उदाहरण हो सकते हैं। प्रशासनिक व्यवस्था में लिपिक से उच्चाधिकारी तक इसी निर्धारित भाषा-संरचना एवं शब्दावली का अनुसरण करते हैं। सम्भवतः इसी कारण यहाँ का भाषा-व्यवहार रूढ़ हो गया है। प्रशासनिक कार्यवाही में भिन्न-भिन्न सन्दर्भों की अभिव्यक्ति के लिए for the sympathetic consideration (सहानुभूति पूर्ण विचार के लिए), For necessary action (आवश्यक कार्रवाई के लिए), respectfully request (सादर निवेदन) जैसे कई रूढ़ हो गए सुनिश्चित वाक्यांश भी प्रयुक्त होते हैं। इसलिए प्रशासनिक पाठ के अनुवाद के समय प्रशासनिक शब्दावली का ही उपयोग होना चाहिए।
प्रशासनिक कार्यों में अनुवाद की आवश्यकता का सीधा सम्बन्ध वैज्ञानिक युग के प्रादुर्भाव से चलन में आई आधुनिकता एवं आज के राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध-विस्तार से है। आभा-मण्डल के इसी विस्तार की कामना ने अनुवाद-कार्य को आज की सभ्यता एवं संस्कृति का अनिवार्य अंग बना दिया। देश-दुनिया के विभिन्न प्रशासनिक महकमों में आज विभिन्न ज्ञान एवं भाषा-क्षमता के लोग काम करते हैं। भारत जैसे बहुभाषिक, बहुसांस्कृतिक देश के प्रशासनिक महकमों और नागरिक जीवन में भाषिक अनभिज्ञता सहज सम्भाव्य है। अधिकंश लोगों को तो अपने ही राष्ट्र की अधिकांश भाषाओं का ज्ञान नहीं होता। पर प्रशासनिक परिपत्रों से सबका जुड़ाव होता है--अधिकारियों और कर्मचारियों का भी, और जनसामान्य का भी। इन सभी अक्षम लोगों तक परिपत्रों में दर्ज जानकारी पहुँचाने का एक मात्र साधन अनुवाद होता है। अनुवाद बेशक आज अन्तर्राष्ट्रीय संवाद का माध्यम है; वैश्विक बाजार का सेतु बना है; जन-जन तक प्रशासनिक गतिविधियाँ पहुँचाने की तरकीब है; पर इन सबके लिए अनुवाद की भाषा की सहजता, सरलता, सम्प्रेषणीयता, बोधगम्यता अनिवार्य है। सभी महत्त्वपूर्ण संविदाओं, करारनामों, सूचनाओं, लाइसेंसों, परमिटों...के प्रपत्र; अध्यादेश, नियमादि, सूचनाएँ, रिपोर्ट, प्रेस विज्ञप्ति, संसदीय कार्यवाही...हिन्दी एवं अंग्रेजी में साथ-साथ जारी किए जाते हैं।
साहित्य की आधुनिकता के प्रारम्भिक दौर में यद्यपि अनुवादकों को कोई खास महत्त्व नहीं गया, पर अनुवादक सदैव डटे रहे। लोक-समर्थन एवं व्यावसायिक-प्रोत्साहन के क्षीणकाय स्वास्थ्य के बावजूद वे इसे ज्ञान-प्रसार, अन्तर्सांस्कृतिक संवाद, समाज में चेतना-प्रसार का साधन मानते थे। ज्ञान-क्षितिज के विस्तार से समाज की वैश्विक-दृष्टि निर्मित हुई, तो लोगों की चेतना जागृत हुई। लोग समझने लगे कि ‘जीने, जीते रहने और औरों को भी जीते रहने के अवसर देने’ का सीधा सम्बन्ध उदारता और व्यपकता से है; पारिवारिकता एवं क्षेत्रीयता की संकुचित धारणा से बाहर निकलकर वैश्विक समझ बनाने से है। इसलिए लोगों में विभिन्न वर्गों-व्यवसायोंवाले समाज की संस्कृति और सामाजिक प्रवृत्ति को जानने की इच्छा बलवती हुई। अनुवाद इस व्याकुलता को शान्त करने का सर्वश्रेष्ठ साधन बना।
साहित्य, कला, संस्कृति, इतिहास, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, विधि, वाणिज्य, प्रशासन -- सभी क्षेत्रों के विशिष्ट पाठ के आदान-प्रदान से भाषिक अक्षमता की दीवर टूटी। ‘सबको सबका सब कुछ जानने की बलवती इच्छा’ पूरी हुई। मनुष्य के सामुदयिक जीवन-मूल्य में विलक्षण परिवर्तन आया। विश्व-युद्ध के पाशविक आचरण के कारण विभिन्न भूभागों के नागरिक जीवन की पीड़ा, बेचैनी, शवों की शृंखला के बीच एक मानवीय सम्बन्ध विकसित हुआ। इलेक्ट्राॅनिक और प्रिण्ट मीडिया तथा अधुनातन संचार के विभिन्न माध्यमों की जागृति से विश्व-मानव की कल्पना यथार्थ-चेतना से भर उठी। सचमुच, अनुवाद ने ही राष्ट्रीय समस्या के अन्तर्राष्ट्रीय समाधान ढूँढने का कौशल सिखया। वैश्विक स्तर पर नितान्त मानवीय, समाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और व्यावसायिक सम्बन्धों के सम्प्रेषण का भगीरथ प्रयास तथ्यतः अनुवाद ने किया।
स्वतन्त्रयोत्तर काल में हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकारे जाने के बाद सरकारी कामकाज हिन्दी में करने का विधान बना अवश्य, पर निरन्तर प्रयुक्त होनेवाले अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्याय की आवश्यकता हुई। इसकी प्रतिपूर्ति के लिए पारिभाषिक शब्दावली की आवश्यकता हुई; जिसके निर्माण के लिए आधिकारिक रूप से वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग का गठन हुआ। इसके लिए अनुवाद एवं अनुकूलन को माध्यम बनाकर शब्द निर्मित हुए। इसके लिए प्राचीन शब्दों को अंग्रेजी के पर्याय के रूप में निश्चित अर्थ देने की संकल्पनात्मक अभिव्यक्ति अपनाई गई। उपसर्ग लगाकर ‘अभिकर्ता’, ‘उपसचिव’, ‘अधिकरण’, ‘परिपत्र’, ‘अभिलेख’...जैसे शब्दों और प्रत्यय लगाकर ‘सचिवालय’, ‘विधिक’, ‘प्रशासनिक’, ‘निदेशालय’, ‘निरीक्षण’, ‘संसदीय’...जैसे शब्दों का निर्माण हुआ। ‘मशीन’, ‘परमिट’, ‘लाइसेन्स’, ‘फॉर्म’, ‘स्कूल’...जैसे कई अंग्रेजी शब्द ज्यों के त्यों प्रयुक्त होने लगे। फिर इसमें भी प्रत्यय लगाकर ‘मशीनीकरण’, ‘लाइसेन्सदार’, ‘स्कूली’...जैसे शब्द प्रयुक्त होने लगे।
संसदीय कार्यवाही विषयक पाठ का अनुवाद
संसद हमारे देश के लोकतन्त्र की सर्वोच्च संस्था है। यहाँ देश भर की जनता की आशाओं, स्वप्नों, क्रान्तिकारी परिवर्तनों की दशा एवं दिशा पर विचार-विमर्श होता है। विचार-विमर्श के लिए यहाँ देश के विभिन्न जनपदों से निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र के जनजीवन की दशा-दिशा-अपेक्षा-अभिलाषा-समस्यादि...रखते हैं। बहुभाषिक राष्ट्र होने के कारण इन प्रतिनिधियों की भाषा भिन्न-भिन्न होती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 120 में प्रावधान है कि ‘अनुच्छेद 348 के उपबन्धों के अधीन रहते हुए संसद का कार्य हिन्दी या अंग्रेजी में किया जाएगा। परन्तु यथास्थिति, राज्य-सभा के सभापति या लोक-सभा के अध्यक्ष या ऐसे रूप में कार्य करनेवाला व्यक्ति, किसी सदस्य को, जो हिन्दी या अंग्रेजी में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता, अपनी मातृभाषा में सदन को सम्बोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा।’ इस प्रवाधान के आश्रय से जब कोई सदस्य मातृभाषा में भाषण करते हैं, तो अन्य भाषाभाषी प्रान्त से आए सदस्य समझ नहीं पाते। इस स्थिति में संसदीय कार्यवाही में भाषा-वैविध्य का गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। ऐसे में द्विभाषी एकता का सन्दर्भ बनाकर संसदीय कार्यवाही के प्रत्येक दस्तावेज का द्विभाषी संस्करण तैयार करना अनिवार्य हो जाता है। इसलिए हिन्दी या अंग्रेजी या मातृभाषा में दिए गए भाषणों का द्विभाषी संस्करण अनुवाद द्वारा ही तैयार होता है। यह अनुवाद लोक-सभा और राज्य-सभा सचिवालय की तत्काल भाषान्तरण सेवा के भाषान्तरकार (इण्टरप्रेटर) से करवाया जाता है। संसदीय पाठ के लिखित अनुवाद भी होते हैं, मौखिक भी। मौखिक अनुवाद को आशु-अनुवाद, तत्काल भाषान्तरण (साइमल्टेनियस इण्टरप्रिटेशन) या निर्वचन भी कहते हैं। इस भाषान्तरकार से एक सफल संसदीय अनुवादक की सभी अपेक्षाएँ की जाती हैं।मौखिक भाषान्तरण में लिखित कुछ भी नहीं होता, संसदीय कार्यवाही के समय सदस्यों के भाषण सुनते हुए भाषान्तरकार भाषण के साथ-साथ भाषान्तरण करते हैं। अर्थात सुनने और बोलने की क्रिया एक साथ चलती है। सामान्य अनुवादक की तरह उनके सहयोग के लिए कोई अनुवाद-उपकरण (शब्दकोश, सन्दर्भ साहित्य आदि) उपलब्ध नहीं होता, तत्काल भाषान्तरण करना होता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई मन्त्री किसी विशिष्ट विषय पर अंग्रेजी में भाषण दे रहे हों, और कमतर अंग्रेजी-ज्ञान के कारण सदन में बैठे किसी सदस्य को बात समझ में नहीं आ रही हो, तो वे हिन्दी अथवा अपनी मनोनुकूल भाषा का चयन कर उपलब्ध हेडफोन अपने कानों पर लगाकर वह भाषण हिन्दी अथवा अपनी पसन्द की अन्य भाषा में सुन सकते हैं! यह अनूदित भाषण वे मन्त्री की आवाज में नहीं, भाषान्तरकार की आवाज में सुनेंगे, जो स्वयं हेडफोन लगाए उस मन्त्री का अंग्रेजी भाषण सुनते हुए साथ-साथ अनुवाद करते जाते हैं।
एक सफल संसदीय भाषान्तरकार की श्रवण-शक्ति बेहतरीन और अभिव्यक्त शैली विलक्षण होनी चाहिए, ताकि भाषण सुनकर उसे पूरी तरह समझकर लक्षित भाषा में कौशल से अभिव्यक्त कर दें। इस भाषान्तर के समय भाषान्तरकार केवल वक्ता के विचारों की ही नहीं, लक्ष्य-भाषा में वक्ता के स्वर के आरोह-अवरोह और भाव को भी अभिव्यक्त करता है। इन भाषान्तरकारों को संसद की कार्यवाही के अलावा अनेक संसदीय समितियों की बैठकों के दौरान भी तत्काल भाषान्तरण करना होता है। इसलिए उन्हें संसदीय समितियों में उठने वाले हर विषय और समस्या से परिचित होना होता है। इस दौरान उन्हें सभी तनावों से मुक्त रहकर मानसिक सन्तुलन बनाए रखना होता है, ताकि एकाग्र होकर भाषण सुनें और प्रयुक्त भाषा की ध्वनि, अर्थ, मर्मादि को सूक्ष्मता से समझकर लक्ष्य-भाषा में सटीक अनुवाद करें।
भारतीय भाषाओं के बीच पारस्परिक अनुवाद में सम्भवतः उतनी कठिनाई न हो, पर अंग्रेजी का भाषा-संस्कार, वाक्य-संरचना, मिजाज, व्याकरण...सब कुछ अलग होता है, इसलिए अलग प्रकृति की भाषा में अनुवाद करना सुगम नहीं होता।
संसदीय कार्यवाही के अनुवाद में पारिभाषिक शब्दावली का उपयोग बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। इन शब्दों के गहरे एवं सूक्ष्म ज्ञान के बिना संसदीय कार्यवाही के अनुवाद की व्यवस्थित पद्धति तैयार नहीं हो सकती। उदाहरण के लिए ‘प्रेसिडेण्ट्स एड्रेस’ शब्द का अनुवाद ‘राष्ट्रपति का सम्बोधन’ या ‘राष्ट्रपति का पता’ या ‘अध्यक्ष का पता’ नहीं हो सकता। ऐसे पदों के सटीक अनुवाद के लिए इसके सन्दर्भगत अर्थ-ज्ञान की बड़ी जरूरत होती है। लोक-सभा के गठन के पश्चात पहले अधिवेशन और प्रत्येक बजट अधिवेशन के प्रथम दिन संसद की दोनों सभाओं की संयुक्त बैठक में राष्ट्रपति द्वारा दिए गए भाषण को ‘प्रेसिडेण्ट्स एड्रेस’ कहते हैं; जिसका सही अनुवाद ‘राष्ट्रपति का अभिभाषण’ होता है। ध्यातव्य है कि राष्ट्रपति द्वारा दिया गया हर भाषण ‘अभिभाषण’ नहीं होता। भाषान्तरकार को यदि इस पृष्ठभूमि की जानकारी नहीं होगी तो निश्चय ही वे इसका सही अनुवाद नहीं कर पाएँगे। दो पदबन्ध और--Bar of house का अर्थ होता है--सभा का कठघरा। सदन की अवमानना के दोषी को जब संसद में दण्डित करने के लिए बुलाया जाता है, तो उन्हें Bar of house में खड़ा होना होता है। वहीं उसे दण्ड सुनाया जाता है। इसी तरह जब कोई सदस्य किसी विषय का विरोध करने के लिए सदन के बीचोबीच अध्यक्ष पीठ के सामने आकर खड़े हो जाते हैं, तो इस स्थान को well of house (वेल ऑफ हाउस) कहते हैं। संसदीय प्रणाली की इस अवधारणा एवं पृष्ठभूमि से अपरिचित अनुवादक इसका सही अनुवाद नहीं कर सकेंगे।
हिन्दी में संसदीय पारिभाषिक शब्दावली का विकास अधिकांशतः संस्कृत भाषा के शब्दों के आधार पर किया गया है। भारत में लोकतन्त्र की अवधारणा अत्यन्त प्राचीन है-- सभा की महत्ता, सभा की सदस्यता, सभा की कार्यप्रणाली, बहुमत, निर्णय, सभासदों का निर्वाचन, जनमत, प्रतिनिधि सभा, मन्त्री परिषद, कार्यवाही संचालन, सभा लिपिक...जैसी अवधारणा यहाँ प्राचीन काल से प्रचलित थी। इसी कारण लोकतान्त्रिाक संस्थाओं से सम्बद्ध अनेक शब्द-पद संस्कृत में सहजता से मिल जाते हैं।
भाषा में मुहावरेदार प्रयुक्तियों का बड़ा महत्त्व होता है। साधारण वाक्य में तो प्रायः अभिधात्मक अर्थ लिया जाता है, पर मुहावरों में लक्षण, अभिप्रेत से; और उसके सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, भौगोलिक सन्दर्भ से अर्थ लगाना होता है। अनुवाद के समय यदि लक्ष्य-भाषा में उसी वजन का मुहावरा मिल जाए तो भाषिक सौन्दर्य बढ़ जाता है। इससे अनुवाद में वक्ता की भाषा-शैली बरकरार रखने में सहयोग मिलता है किन्तु समान वजन के मुहावरे या लोकोक्ति न मिलने पर मुसीबत खड़ी हो जाती है। don’t throw the baby out with the bathwater का अर्थ स्पष्ट है, किन्तु हिन्दी में इससे मिलता-जुलता मुहावरा नहीं मिलता। जहाँ ऐसी स्थिति हो, वहाँ भावानुवाद से काम लेना श्रेयस्कर होता है।
विधि साहित्य का अनुवाद
स्वातन्त्रयोत्तर भारत के सांविधानिक प्रावधानों एवं विधिक व्यवस्थाओं के आलोक में आज विधि-साहित्य के अनुवाद की बड़ी जरूरत है। राजभाषा के रूप में हिन्दी की स्वीकृति के कारण विधि-क्षेत्र में भी इसका चलन हुआ, किन्तु उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय की भाषा अंग्रेजी ही बनी रही। संविधान के अनुच्छेद 348 और राजभाषा अधिनियम की धारा 3((3) में सरकारी कार्यालयों से जारी--नियम, अधिनियम, सूचना, प्रशासनिक प्रतिवेदन, सामान्य आदेश, प्रेस विज्ञप्ति, संविदा, करार, लाइसेन्स...आदि सरकारी दस्तावेज अनिवार्य रूप से हिन्दी एवं अंग्रेजी उपलब्ध कराने का उल्लेख है।राजभाषा अधिनियम 1963 तथा राजभाषा नियम 1976 के अधीन विधायिका एवं न्यायपालिका में राजभाषा-प्रयोग का जो मार्ग खोला गया, उसमें हिन्दी का विकल्प मौजूद रहा, किन्तु वर्चस्व अंग्रेजी का ही रहा। बाद के दिनों में, अक्टूबर 1976 से संसद में प्रस्तुत हर विधेयक के हिन्दी एवं अंग्रेजी में होने की अनिवार्यता हो गई। इसी द्विभाषिक स्थिति से विधिक सामग्री के अनुवाद की आवश्यकता हुई।
न्याय और शासन के निष्पक्ष निर्णयों के प्रति जनसमान्य को आश्वस्त करने की की चिन्ता हरेक सत्ता को होती है। न्यायिक व्यवस्था की निष्पक्षता पर जनता तभी आश्वस्त होगी, जब जनता उसे अपनी चेतना से समझेगी। और, ऐसा तभी सम्भव होगा, जब दिए गए निर्णय समान्य-जन की भाषा में होंगे। जनता केवल अपनी भाषा में मिले सन्देश को ही आत्मसात कर पाती है, विदेशी भाषा में मिले न्याय उन्हें सम्प्रेषित ही नहीं होते। कानून की अंग्रेजी वैसे भी इतनी जटिल होती है कि अनपढ़ तो दूर, कई पढ़े-लिखे व्यक्ति भी भलीभाँति समझ नहीं पाते। इसीलिए अंग्रेजी में उपलब्ध विधि-साहित्य का हिन्दी अनुवाद अनिवार्य है।
आम जनता विधिक नियमों का अनुपालन तभी करेगा, जब उसे समझेगा; इस समझ के लिए जनभाषा में उसकी उपलब्धता अपरिहार्य है। बहुसंख्यक जनता को न्याय-निर्णय की भाषा सिखाने से बेहतर न्याय को बहुसंख्यक की भाषा सिखाना होगा। विधि-साहित्य के अनुवाद की अनिवार्यता इसी विवेक से जुड़ा है। कानूनी ज्ञान के अभाव में ही आज जनसामान्य को अपने कानूनी अधिकार का बोध नहीं हो रहा है; अन्याय-उत्पीड़न से स्वयं को बचाने के रास्ते उन्हें मालूम नहीं हैं। विधि-साहित्य के अनूदित संस्करण का प्रयोजन ज्ञान-पूर्ति के इसी खण्ड से सम्बद्ध है।
विधि-साहित्य का सीधा सम्बन्ध मानव-व्यवहार से है। जीवन-व्यवहार की व्यापकता के कारण ही विधि-साहित्य का क्षेत्र विस्तृत होता है। अन्य पाठों की तरह विधि-साहित्य के अनुवाद में अनुवादकों को स्रोत-लक्ष्य-भाषा के आधिकारिक ज्ञान की आवश्यकता तो होती ही है; इसके साथ-साथ विधि विषयक शैक्षणिक या अनुभवजन्य ज्ञान भी आवश्यक होता है। विधि-साहित्य के ज्ञान के बिना कोई भी अनुवादक सही अनुवाद नहीं कर पाएगा। विधि-क्षेत्र के सम्यक ज्ञान के बिना स्रोत-भाषा के मूल मर्म की समझ असम्भव है; फलस्वरूप लक्ष्य-भाषा में उसका सही सम्प्रेषण असम्भव होगा। यही कारण है कि विधि-साहित्य के अनुवाद के लिए नियोजित होनेवाले अनुवादकों के लिए विधि-विषयक ज्ञान अनिवार्य माना जाता है। विधि-साहित्य के प्रमाणिक अनुवाद की यह अनिवार्य अर्हता है।
विधि-साहित्य में प्रयुक्त शब्द, वाक्य, क्रिया, अनुबन्ध, उपबन्धादि व्याकरणिक नियमों से इस तरह सधे होते हैं कि तनिक-सी चूक से अनर्थ हो जा सकता है; इसलिए इस क्षेत्र के अनुवादकों को दोनों भाषाओं के व्याकरण का सम्यक ज्ञान अनिवार्य है। अनुवादकों को इसके मूल पाठ बार-बार और सावधानी से पढ़ने पड़ते हैं। चूक होने से विकराल अर्थ-भेद की सम्भावना सदैव बनी रहती है। इस पाठ के अनुवाद में अभिव्यक्तियों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। अर्थ-बोध की जटिलता की स्थिति में तकनीकी कोश अथवा अनुभवी विशेषज्ञ का सहयोग अनिवार्य रूप से लेना चाहिए; अनुमान का आश्रय कदापि नहीं लेना चाहिए। कोश में भी यदि शब्द-विशेष के एकाधिक पर्याय हों, तो सन्दर्भ के अनुसार मूल अर्थ का विवरण ध्वनित करनेवाले पर्याय का प्रयोग करना चाहिए।
स्थिति शब्दानुवाद की हो या भावानुवाद की, विधि साहित्य के अनुवाद में प्रधानता शब्द की ही होती है। इसके वाक्य-विन्यास और प्रारूप अन्य पाठों से पूरी तरह भिन्न होते हैं। इसमें प्रयुक्त शब्द बोलचाल के नहीं होते। साहित्यिक पाठ में सामान्यतया शब्दों की पुनरावृत्ति दोष मानी जाती है; किन्तु कानून की भाषा में यह कोई दोष नहीं है, स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस कारण भी विधि-क्षेत्र में शब्दों का स्पष्ट होना, निश्चित अर्थ-व्यंजक होना अनिवार्य माना जाता है।
न्यायिक निर्णय चूँकि विधि की व्याख्या से होता है, और यह व्याख्या शब्दों में निहित अर्थ-ध्वनि से की जाती है, इसलिए शब्दों की विशेष महत्ता के बावजूद विधि-साहित्य के अनुवाद में भावों की स्पष्टता पर अत्यधिक सावधानी रखी जाती है। विधि-क्षेत्र में निश्चय ही शब्दों का विशेष महत्त्व होता है, पर निहित भावों की उपेक्षा नहीं की जाती। अनुवादकों को विशेष ध्यान रखना होता है कि किसी अनुच्छेद या वाक्य का जैसा अर्थ-द्योतन मूल-पाठ में होता है, अनूदित पाठ में भी ठीक वैसा ही हो। शब्द एवं भाव के इस सन्तुलन और सावधानी का यहाँ पल-पल ध्यान रखना होता है। असन्तुलन होने से, भाषा की जगह केवल भाव को ही प्रमुख मान लेने से अनुवाद का विधि-मूल्य आहत होगा। इसलिए विधि-साहित्य में भावानुवाद का रूढ़ार्थ स्वीकार्य नहीं होता।
इसके अनुवाद में स्रोत-पाठ की शैली भी प्रभावी रहती है। पाठ के सहज सम्प्रेषण के लिए अनुवादक कभी-कभी मूल-शैली में परिवर्तन भी करता है; पर विधि-साहित्य के अनुवाद में शैली पर्याप्त सावधानी रखनी पड़ती है। वैसे अर्थ की सर्वोपरि सत्ता स्वीकारने के लिए शैली से कभी सहज समझौता भी कर लेता है। पर अर्थ-द्योतन के साथ-साथ शैली का बहुत ध्यान रखा जाता है। वस्तुतः शैली, पाठ की अर्थ-ध्वनि को प्रभावी बनाने की व्यवस्था होती है; इसलिए अर्थ निखारने के लिए प्रयोजनवश शैली से समझौता करना भी एक शैली है। विधि-साहित्य के अनुवाद की उपादेयता सीधे-सीधे सामान्य जन की समझ से होती है। इसलिए असम्प्रेषणीय अनूदित पाठ निष्प्रयोजक है। सोद्देश्यता की मद में विधि-साहित्य के अनुवादकों को निर्वचन के सिद्धान्तों का निष्ठापूर्वक अनुपालन करना होता है। विधिक मीमांसा शास्त्र से अपरिचित अनुवादक किसी भी मूल्य पर इस क्षेत्र का बेहतर अनुवाद नहीं कर सकता।
वाणिज्यिक, बैंकिंग, पर्यटन साहित्य का अनुवाद
वाणिज्य, बैंक और पर्यटन में भी इन दिनों अनुवाद की बड़ी महत्ता है। व्यावसायिक प्रतिस्पद्र्धा के कारण, वैश्विक और बहुभाषिक क्षेत्रों में फैले इसके आयाम के कारण आज वाणिज्यिक गतिविधियों में अनुवाद कदम-कदम पर अनिवार्य हो गया है। किसी व्यवसायी को जब कभी भिन्न भाषिक क्षेत्रों में कारोबार-विस्तार की इच्छा होगी, वाणिज्यिक साहित्य के अनुवाद का प्रयोजन सामने आएगा।ऐसा भी नहीं है कि ऐसी विवशता आधुनिक-काल में आई; वाणिज्य विस्तार के लिए प्राचीन-काल के व्यवसायियों को भी अनुवादक का प्रयोजन होता था। छोटी-छोटी रियासतों में बँटे देश के विभिन्न क्षेत्रों में भाषिक स्पष्टता या सहयोगी अभिकरणों की कोई स्पष्ट व्यवस्था तो नहीं थी; किन्तु वाणिज्य से जुड़े लोग भिन्न-भिन्न इलाकों के ग्राहकों, सहयोगी व्यापारियों की मदद से आवश्यकतानुसार अपनी तरह के कौशल विकसित कर लेते थे।
व्यावसायिक गतिविधियों का विस्तार अब तो आसान हो गया है। सरकारी-गैरसरकारी अभिकरणों के सहयोग से इसकी कई बाधाएँ दूर हो गई हैं। यातायात की बेहतरीन सुविधा के कारण उत्पाद सम्बन्धी सेवाओं की आवाजाही आसान हो गई है; देश-देशान्तर तक कारोबार फैलाने की सुविधाएँ सहजता से उपलब्ध हो गई हैं। वाणिज्यिक-संगठन से भी व्यापारिक गतिविधियों को सारी सुविधाएँ प्राप्त हो रही हैं। किन्तु वाणिज्य के इस क्षितिज-विस्तार की गति अनुवाद का सहारा पाए बिना पल भर में रुक जाएगी। क्योंकि वस्तु एवं विचार का विनिमय हर व्यपार का प्राण-तत्त्व होता है। हरेक वाणिज्य-विस्तार में व्यापरियों के बीच पारस्परिक अनुबन्ध-प्रस्ताव होता है, नीतियों, योजनाओं एवं शर्तों का आदान-प्रदान होता है, पत्रचार होता है, ग्राहकों को जागरूक या आकर्षित या सम्मोहित करने के लिए विज्ञापन होता है, प्रचार-प्रसार के और भी कई परिपत्र होते हैं, ग्राहक-वितरक-मध्यस्थादि को दी जानेवाली सूचना-पुस्तिकादि होती है; ये सब के सब वाणिज्यिक साहित्य या वाणिज्यिक पाठ कहे जाते हैं। जाहिर है कि बहुभाषिक समुदाय तक ये सारी बातें सुविधा से पहुँचाने के लिए अनुवाद का प्रयोजन निरन्तर बढ़ता जा रहा है।
वाणिज्यिक-पाठ का अनुवाद अन्य कई पाठों के अनुवाद से भिन्न होता है। इसकी भाषा बोल-चाल की होती है; ताकि समग्र उपभोक्ता समुदाय एवं कम्पनी की गतिविधियों से जुड़े हर व्यक्ति उसे भली-भाँति समझ सकें। इसमें जटिल वाक्य अक्सर अर्थ-बाधा उत्पन्न करते हैं। वाणिज्यिक साहित्य में अर्थशास्त्र, प्रशासन, प्रबन्धन, कानून आदि के तकनीकी शब्दों का बहुत प्रयोग होता है। इसलिए इसके अनुवादकों से अपेक्षा की जाती है कि वे इन क्षेत्रों की पारिभाषिक शब्दावली से परिचित हों; सन्दर्भ एवं आवश्यकतानुसार उन शब्दों या पदों का चयन करें। इस क्षेत्र का अनुवाद-कार्य सामान्य शब्दकोशों की सहायता से सम्भव नहीं है। इसकी शब्दावली व्यावसायिक कामकाजों से सम्बद्ध होती है, वे शब्द बाजार-केन्द्रित होते हैं। उनका अर्थ-द्योतन बाजार की जरूरतों के अनुसार होता है। इसके अलावा हर व्यावसायिक इकाई की अपनी भिन्न शब्दावली होती है, जिनके सन्दर्भगत अर्थान्वेष अनिवार्य होते हैं। इसके लिए भिन्न-भिन्न कम्पनियाँ अपने वितरकों, फुटकर विक्रेताओं, ग्राहकों, प्रचार-प्रसार प्रतिनिधियों की गतिविधियों एवं विक्रय विभाग के सहयोग से समय-समय पर सर्वेक्षण भी कराती रहती हैं।
प्रतिस्पर्धा के अधीन हर व्यावसायिक कम्पनी पर बेहतर उत्पाद तैयार करने और उपभोक्ताओं को बेहतर सेवाएँ उपलब्ध कराने का दबाव होता है। इस प्रतिस्पर्द्धा में अपना वर्चस्व बनाने के लिए वे अपने उत्पाद, सेवा-प्रणाली में सुधार-परिस्कार करते रहते हैं। इस क्रम में बाजार की भाषा भी बदलती रहती है। व्यावसायिक प्रस्तावों, योजनाओं, विज्ञापनों की भाषा और उत्पादों के आवरणों पर मुद्रित जानकारियों में सहज सम्मोहक आकर्षण लाना होता है। ऐसा आकर्षण, जो देर तक उपभोक्ताओं की पसन्द पर छाए रहे। आज के सूचना-सम्पन्न उपभोक्तओं को इस तरह प्रभावित करनेवाला सम्मोहन स्पष्टतः चमत्कारी भाषा के बिना असम्भव होता है। इसलिए ऐसे प्रस्तावों, योजनाओं, विज्ञापनों का अनुवाद करते हुए शब्दानुवाद के बजाय उनके भावार्थ, उनके मर्म पर सावधान रहना होता है; लक्षित भोक्ताओं की संवेदना का पल-प्रतिपल ध्यान रखना होता है। इस क्रिया में आवश्यक नहीं कि स्रोत-भाषा के पदों के समानार्थी पद सहजता से लक्ष्य-भाषा में मिल ही जाएँ। इसके अनुवादकों को प्रचलित कोशों के अलावा सम्बद्ध उपभोक्ता समाज के आहार-व्यवहार में प्रचलित भाषिक प्रयुक्तियों और अपने विवेक का भी सहारा लेना पड़ता है।
अनुवाद-कर्म के क्षेत्र में बैंकिंग साहित्य का अनुवाद भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। उदारीकरण के दौर में आज सभी सरकारी, गैरसरकारी, निजी क्षेत्र के देशी-विदेशी बैंकों में प्रतिस्पर्धा का वातावरण चरम पर है। सभी बैंक अपनी योजनाओं, प्रस्तावों एवं उत्तम ग्राहक सेवाओं के असरकारी विज्ञापन से ग्राहकों को आकर्षित करने में लगे हैं। भारतीय ग्राहकों को लुभाने के लिए जाहिर है कि हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में उनकी विज्ञप्तियाँ प्रभावी होंगी। लिहाजा जिन निजी क्षेत्र के बैंकों पर भारत सरकार की राजभाषा-नीति लागू नहीं होती, वे भी अपने विज्ञापन, साइन-बोर्ड एवं अन्य सूचनात्मक प्रपत्र हिन्दी में बनवाने लगे हैं। हिन्दी में किए जानेवाले काम-काज के लिए अपने कर्मियों को प्रशिक्षण एवं कार्यशाला आयोजित करने लगे हैं। ग्राहक-सेवा के अन्तर्गत पूछताछ-केन्द्र से दूरभाष पर हिन्दी एवं संगत भारतीय भाषाओं में जानकारी दी जाने लगी है। एटीएम और कम्प्यूटर में हिन्दी भाषा के प्रयोग का विकल्प दिया जाने लगा है।
अनुवादकों के सामने इन सभी उपक्रमों में बैंकिंग-साहित्य के अनुवाद की चुनौतियाँ आती हैं। इस कार्य में स्रोत-लक्ष्य-भाषा पर अधिकार के अलावा अनुवादकों से अपेक्षा की जाती है कि उन्हें बैंकिंग-साहित्य में प्रयुक्त शब्दों एवं वाक्यों के विशेष सन्दर्भ का विधिवत ज्ञान हो, ताकि उनके द्वारा अनूदित पाठ ग्राहकों को सम्यक जानकारी दे। बैंकिंग-व्यवस्था में कई विभाग होते हैं--सामान्य शाखा, लोक-लेखा विभाग, लोक-ऋण विभाग, जमा खाता विभाग, ग्रामीण योजना एवं ऋण विभाग, औद्योगिक ऋण विभाग, कृषि ऋण विभाग, प्रतिभूति विभाग, रोकड़ विभाग, व्यय एवं बजट नियन्त्रण विभाग, विनिमय नियन्त्रण विभाग, बैंकिंग संचालन एवं विकास विभाग, विज्ञापन विभाग, नॉन-बैंकिंग कम्पनी विभाग, साख (क्रेडिट) योजना एकांश, आर्थिक विश्लेषण एवं नीति विभाग, सांख्यिकी विश्लेषण एवं संगणक सेवा विभाग, विधि विभाग, निरीक्षण विभाग, प्रशासन एवं कार्मिक विभाग, प्रबन्धन सेवा विभाग, केन्द्रीय अभिलेख-प्रलेख केन्द्र, अन्तर्राष्ट्रीय बैंकिंग एवं निवेश विभाग, प्रशिक्षण विभाग...। इन सभी विभागों द्वारा अनेक विषयों से सम्बन्धित परिपत्र जारी होते हैं। इसलिए विषयानुकूल सन्दर्भों के अनुसार बैंकिंग-साहित्य में भिन्नता होना स्वभाविक है। अनुवादक इन विषयों और सन्दर्भों से भली-भाँति परिचित नहीं होंगे तो अनुवाद के दौरान पाठ के साथ न्याय नहीं होगा। इसके साथ-साथ अनूदित पाठ का भाषिक स्वरूप सम्बद्ध विषय के अनुसार और सही अर्थ-ध्वनि के साथ होना चाहिए। कई बार सम्प्रेषणीय अभिव्यक्ति के बावजूद विषय की सही जानकारी देने में चूक हो जाती है, इसीलिए बैंकिंग साहित्य के अनुवादकों को विषय-सन्दर्भ पर विशेष सावधानी रखनी होती है। इस क्षेत्र के अनुवादकों को कई बार सामान्य शब्दकोश यथेष्ट सहयोग नहीं देता, उन्हें सन्दर्भ के अनुसार सुनिश्चित पदबन्धों का प्रयोग करना पड़ता, मूल पाठ के मर्म को आत्मसात करते हुए समतुल्य शब्द ढूँढना पड़ता है। विषय के अपर्याप्त ज्ञान से अनर्थ की सम्भावना सदैव बनी रहती है। बैंकिंग-सेवा की पारिभाषिक शब्दावली का उपयोग इसमें उपयोगी होता है।
पर्यटन-साहित्य में भी अनुवाद-कर्म की विशेष भूमिका होती है। वैश्विक पर्यटन सेवा के विस्तार से इस क्षेत्र में अनन्त सम्भावनाओं एवं प्रयोजनों की दिशाएँ स्पष्ट हुई हैं। पर्यटन साहित्य मूलतः सूचना-प्रधान होता है। इस क्षेत्र के पाठ अक्सर समाजशास्त्रीय प्रकृति के होते हैं, जिसका गहन सम्बन्ध मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान से होता है। अन्य पाठ की तरह इस पाठ के अनुवाद में भी लक्ष्य-भाषा के अभिप्राय का सही-सही सम्प्रेषण अनिवार्य होता है।
इस पाठ में उपलब्ध सूचनाएँ अक्सर संस्कृति और इतिहास का वाहक भी होती हैं। ऐसे पाठ का अनुवाद करते हुए तथ्यों के प्रति सजगता और राष्ट्रीय अस्मिता, इतिहास एवं संस्कृति की रक्षा का दायित्व अनुवादक के कन्धों पर होता है। इस तरह पर्यटन-साहित्य का अनुवादक लक्ष्य-भाषा की संस्कृति में अभिव्यक्त पाठ में स्रोत-भाषा की तथ्य-रक्षा करते हुए स्थानीय संस्कृति और पारम्परिक रीति-रिवाजों के मर्म की सुरक्षा भी करता है।
पर्यटन सम्बन्धी पाठ मुख्यतः सूचना-प्रधान होता है, जिसके निर्माण के समय राष्ट्रीय, प्रान्तीय, क्षेत्रीय एवं स्थानीय सन्दर्भों के समावेश और भिन्न-भिन्न संस्कार-बोध के जिज्ञासुओं की रुचि एवं योग्यताओं का ध्यान रखा जाता है। सांस्कृतिक सन्दर्भों एवं धार्मिक आस्थाओं के साथ-साथ इस पाठ में राष्ट्रीय भावनाएँ भी निबद्ध होती हैं। ये पाठ उपादेय सूचनाओं के साथ-साथ कई उपयोगी एवं प्रासंगिक सन्दर्भों से भरे होते हैं। ये सूचनाएँ बेशक कला के तात्कालिक सन्दर्भ और उपयोग के हों, किन्तु स्थानीयता की गहन समझ इसके अनुवादक को अनिवार्यतः होनी चाहिए। सन्दर्भ, स्थिति और स्थान को ध्यान में रखे बिना अनुवाद भ्रामक और अनर्थकारी होगा। जनसंचार के मुद्रित, श्रव्य, दृश्य-श्रव्य एवं अन्य इलेक्ट्राॅनिक माध्यमों से इसके सूचना-साहित्य विज्ञापित होते रहते हैं। इसमें चित्रों, आरेखों, आँकड़ों की बहुलता होती है। ऐसे प्रसंगों में इसकी शब्दावली तथा सन्देश की रूपरेखा पर सावधान रहना पड़ता है। इस क्रम में अनुवादकों को आंकड़ों के महत्त्व दर्शानेवाली शब्दावली का उपयोग करना पड़ता है।