Friday, July 28, 2017

दुखवा का से कहे अनुवाद Who Would Listen the Pang of Translation




वस्‍तु एवं वि‍चार के वि‍नि‍मय हेतु अनुवाद का आवि‍ष्‍कार मानव सभ्‍यता के साथ ही शुरू हुआ और भारत में ईस्‍ट इण्‍डि‍या कम्‍पनी के डैने फैलने से पहले तक इसकी नैष्‍ठि‍क पवि‍त्रता बरकरार रही। इस दीर्घ यात्रा में यह धर्म-प्रचार, ज्ञान-विस्‍तार और शासन-संचालन का भी अभि‍न्‍न अंग बना रहा। आगे चलकर भारतीय ग्रन्‍थों के अनुवाद में अपनाई गई फि‍रंगी कुटि‍लता के कारण अनुवाद-कर्म की धारणा पहली बार शक के दायरे में आई। साम्राज्‍य-वि‍स्‍तार की धारणा से अनुवाद करवाने की उनकी कलुषि‍त नीति‍ को भारत के राष्‍ट्रवादी बौद्धि‍कों ने उन्‍हीं दि‍नों उजागर कर दि‍या। अनुवाद की वि‍श्‍वसनीयता जैसे वि‍चार सर्वप्रथम उन्‍हीं दि‍नों अस्‍ति‍त्‍व में आए। मगर यह बहुत पुरानी बात है।...
नई बात यह है कि भूमण्‍डलीकरण के इस उदार वातावरण में ‍अनुवाद का बाजार गर्म है। इससे भी अधि‍क नई बात यह है कि‍ अनुवाद के बाजार के इस वर्द्धि‍ष्‍णु ग्राफ को देखकर हमारे स्‍वदेशी बन्‍धु बड़े उल्‍लसि‍त हैं। इस बाजार में वे अपने लि‍ए बड़ी सम्‍भावनाओं की जगह ढूँढने में लि‍प्‍त हैं। क्‍योंकि‍ हमारे देश का शि‍क्षि‍त समाज अनुवाद को लेकर बहुत बड़े भ्रम में है। उन्‍हें लगता है कि दो भाषाओं का समान्‍य ज्ञान रखनेवाला हर व्‍यक्‍ति‍ अनुवाद कर सकता है। भ्रम यह भी है कि‍ स्रोत-भाषा एवं लक्ष्‍य-भाषा का ज्ञान कम भी हो, तो क्‍या फर्क पड़ता है? डि‍क्‍शनरी तो है न! और उससे भी बड़ा सहायक, गूगल ट्रान्‍सलेट वेबसाइट तो है ही!...भाषा और अनुवाद के बारे में ऐसी अवहेलनापूर्ण धारणा शायद ही दुनि‍या के कि‍सी कोने में हो! देश भर के कई सेक्‍टरों में अबूझ अनूदि‍त पाठ की अराजकता अकारण ही नहीं है। अनुवाद के आँगन में कूद पड़े ऐसे वि‍द्वानों को कैसे समझाया जाए कि‍ दो भाषाओं में वार्तालाप की शक्‍ति‍ भर जुटा लेने से अनुवाद की क्षमता नहीं आ जाती? उन्‍हें यह समझना चाहि‍ए कि‍ अनुवाद हेतु न केवल दोनों भाषाओं की संस्‍कृति‍, प्रकृति‍, प्रयुक्‍ति‍, पद्धति‍...का ज्ञान आवश्‍यक है; बल्‍कि‍ पाठ के वि‍षय, लक्षि‍त पाठक समूह के भाषा-बोध और उनके जीवन में अनूदि‍त पाठ की प्रयोजनीयता भी उतने ही महत्त्‍वपूर्ण हैं। धनार्जन की लि‍प्‍सा से अलग हटकर तनि‍क अपने पूर्वजों की नि‍ष्‍ठा को याद करते तो उन्‍हें सब स्‍पष्‍ट हो जाता। अवुवाद के आवि‍ष्‍कार-काल से लेकर बीसवीं शताब्‍दी के अन्‍ति‍म चरण तक के भारतीय अनुवाद चि‍न्‍तकों एवं उद्यमि‍यों के सारे प्रयास मानवीय, राष्‍ट्रीय, एवं ज्ञान के प्रचार-प्रसार की धारणा से प्रेरि‍त होते थे। अनुवाद तब तक कमाई का साधन नहीं बना था। ज्ञानाकुल समाज के हि‍त में लोग राष्‍ट्रवादी भावना से अनुवाद करते थे; मान्‍यता, पुरस्‍कार मि‍ल गया तो वाह-वाह, वर्ना सामाजि‍क प्रति‍ष्‍ठा को कौन रोक लेगा! कि‍न्‍तु व्‍यापारि‍कता के प्रवेश ने इनकी लुटि‍या डुबो दी।
कुछ बरस पीछे चलकर सरकारी प्रयासों का जायजा लें तो दि‍खेगा कि भारतीय भाषाओं में अनूदित सामग्री जुटाने हेतु ‍भूतपूर्व प्रधानमन्‍त्री पी.वी. नरसिंह राव के कार्य-काल में 'विशेष कोष' की स्थापना हुई थी। परवर्ती काल में इस दि‍शा में और भी महत्त्‍वपूर्ण काम हुआ। जून 13, 2005 को एक उच्च-स्तरीय सलाहकार संस्था 'राष्ट्रीय ज्ञान आयोग' का गठन हुआ। भारत के प्रधानमन्त्री को ज्ञान-व्यवस्था-संरक्षण के क्षेत्र में सलाह देने हेतु इसकी सि‍फारि‍शों की मुख्य चिन्ता क विषय था कि‍ इक्‍कीसवीं सदी की आधुनिकता के वैश्‍वि‍क दौड़ का मुकाबला ज्ञान-सम्‍पन्‍नता से ही सम्‍भव है; क्‍योंकि‍ अब आर्थिक गतिविधियों क प्रमुख संसाधन ज्ञान है। स्‍पष्‍टत: भारत को अपने समृद्ध वि‍रासत, राष्‍ट्रीय नि‍जता और वि‍लक्षण ज्ञान-परम्‍परा की ओर अनुरागपूर्वक सावधान होना था। संघ लोक सेवा आयोग के सन् 2007–08 की वार्षिक रिपोर्ट का नतीजा नि‍कला कि‍ मानविकी एवं सामाजि‍क वि‍ज्ञान विषयों की विश्वविद्यालय स्तर की पढ़ाई में 80-85 प्रतिशत शि‍क्षार्थी भारतीय भाषाओं में ही सहज रहते हैं, उसमें भी प्रमुखता हिन्दी की रहती है स्‍पष्‍टत: भारतीय ज्ञान एवं शोध को प्रोन्‍नत करना अनि‍वार्य था और इस हेतु आनेवाले समय में अनुवाद की भूमि‍का सुनि‍श्‍चि‍त थी। मातृभाषा के माध्‍यम से प्रारम्‍भि‍क शि‍क्षा को बढ़ावा देने हेतु पाठ्यक्रम की पुस्‍तकों का सभी मातृभाषाओं में अनुवाद करवाने की दि‍शा में पहल हुई; वि‍भि‍न्‍न वि‍षयों की कई दर्जन पुस्‍तकों का अनुवाद हेतु चयन हुआ; राष्ट्रीय अनुवाद मिशन का गठन हुआ; और भारतीय भाषा संस्‍थान, मैसूर को इसकी जि‍म्‍मेदारी दी गई। ऐसी बात की सूचना फैलते ही अनुवादकों की सूची में शामि‍ल होने के लि‍ए आखेटक लोग छान-पगहा तोड़ने लगे। वि‍चार हो कि वहाँ के प्रभारी‍ अनुवाद हेतु आवण्‍टि‍त बजट पर आक्रामक नजर गड़ाए इन उद्यमि‍यों से अनुवाद की इज्‍जत कैसे बचाएँ? जोर-जबर्दश्‍ती से कतार में आ गए अनुवादकों से पाठ्यक्रम की बोधगम्‍यता, अनुवाद एवं भाषा की सहजता की रक्षा कैसे करें?
तनि‍क भारतीय पुस्तक बाजार की ओर रुख करें तो साफ दि‍खेगा कि‍ इस समय भारत में लगभग उन्‍नीस हजार पुस्‍तक प्रकाशक हैं; जि‍नमें आई.एस.बी.एन. का इस्तेमाल करीब साढ़े बारह हजार प्रकाशक करते हैं। संशोधित संस्करणों के अलावा यहाँ प्रति‍ वर्ष अनुमानत: नब्‍बे हजार के करीब पुस्‍तकें छपती हैं, इनमें आधे से अधि‍क हि‍न्‍दी और अंग्रेजी की होती हैं; शेष अन्य भारतीय भाषाओं की। इस संख्‍या का एक बड़ा हि‍स्‍सा अनूदि‍त पुस्‍तकों का होता है। ये पुस्‍तकें भारतीय भाषाओं के पारस्‍परि‍क अनुवाद से लेकर वि‍देशी भाषाओं से भारतीय भाषाओं में अनुवाद तक की होती हैं। ज्ञानाकुल पाठक समुदाय के कारण इन अनूदि‍त पुस्‍तकों का व्‍यापार भी अच्‍छा-खासा होता है। अंग्रेजी भाषा की किताबों के प्रकाशन के क्षेत्र में भारत की गि‍नती दुनि‍या में तीसरे स्‍थान पर होती है। पहले दो देश हैं--अमेरि‍का और इंग्‍लैण्‍डकि‍न्‍तु वि‍डम्‍बना है कि‍ भारत में पनपी 'अनुवाद एजेन्‍सी' और 'हम भी अनुवाद कर कमा सकते हैं' की संस्‍कृति‍ ने इस कर्म की धज्‍जि‍याँ उड़ा दी है। न जाने ऐसा करते हुए भारतीय शि‍क्षि‍तों का वि‍वेक कहाँ गायब हो जाता है!
असल में भारत में अनुवाद-कर्म से जुड़े लोगों के साथ एक बड़ी वि‍डम्‍बना है; इनके लि‍ए समुचि‍त मानदेय की कोई मानक व्‍यवस्‍था नहीं है। मोल-भाव से सारी बातें तय होती है। यह सौदा पूरी तरह मुवक्‍कि‍ल की मजबूरी और अनुवादक के कौशल पर नि‍र्भर करता है। अनुवादक जि‍तना अधि‍क ऐंठ ले, या मुवक्‍कि‍ल जि‍‍तने कम में पटा ले। अधि‍कांश सरकारी संस्‍थाएँ आज भी पचास पैसे प्रति‍ शब्‍द से अधि‍क अनुवाद-शुल्‍क नहीं देतीं; प्राइवेट संस्‍थाएँ उन्‍हीं का अनुकरण करती हैं। इस दर पर एक श्रेष्‍ठ अनुवादक का दैनि‍क भत्ता चार सौ से अधि‍क नहीं बनता। और यह काम भी नि‍रन्‍तरता में नहीं मि‍लता; लि‍हाजा काम पाने के लि‍ए अनुवादक को कि‍सी न कि‍सी बिचौलिये की तलाश रहती है। ये बिचौलिये अनुवादकों का भरपूर शोषण करते हैं, पर बि‍चौलि‍ये से अनुवादक कटे तो उन्‍हें काम लाकर कौन दे? इस वि‍चि‍त्र परि‍स्‍थि‍ति‍ में भारतीय सांगठनि‍क क्षेत्र के नि‍यन्‍ता तनि‍क सोचें कि जि‍स अनुवादक को वे एक हमाल की मजदूरी भी नहीं मुहय्या कराते, उनसे कैसे अनुवाद की अपेक्षा करेंगे; भारतीय अनुवाद को कौन-सी दि‍शा दि‍खाएँगे और ऐसे अनुवादकर्मि‍यों के सहारे राष्‍ट्रीय ज्ञान-गौरव की वि‍रासत की रक्षा कैसे कर पाएँगे।‍
भूमण्‍डलीकृत बाजार के वि‍स्‍तार से अब मानवीय उद्यम का हर आयास 'इवेण्‍ट' हो गया है। जीवन-यापन में बदस्‍तूर 'इवेण्‍ट मैनेजमेण्‍ट' का नया दौर आ गया है। शादी करवानी है, श्राद्ध करवाना है, पार्टी करवानी है, बच्‍चे को ट्यूशन पढ़वाना है, अनुवाद करवाना है...हर काम के लि‍ए एजेन्‍सी है। कि‍न्‍तु अनुवाद के क्षेत्र में एजेन्‍सी चला रहे व्‍यक्‍ति‍यों को तनि‍क बुद्धि‍-वि‍वेक और नि‍ष्‍ठा से काम लेना चाहि‍ए। ध्‍यान रखना चाहि‍ए कि‍ अनुवाद-कर्म व्‍यापार नहीं, एक मि‍शन है। अनुवाद हेतु दी जानेवाली राशि‍ मेहनताना या मूल्‍य नहीं, मानदेय कहलाती है; ज्ञान के वि‍कास में नि‍ष्‍ठा से लगे कि‍सी उद्यमी के सम्‍मान में दी जानेवाली मानद राशि‍। संस्‍थाओं-संगठनों का भी दायि‍त्‍व बनता है कि‍ वे एजेन्‍सि‍यों को न्‍यूनतम भुगतान पर अनुवादक तलाशने के लि‍ए मजबूर न करे। फि‍र अनुवाद के अखाड़े में कूदने से पहले अनुवादकों को भी आत्‍म-मूल्‍यांकन करना चाहि‍ए; इस क्षेत्र में आने की इच्‍छा ही है, तो कौशल जुटाएँ। गूगल ट्रान्‍सलेट अथवा मशीनी अनुवाद का बेशक सहयोग लें, कि‍न्‍तु अनुवाद को 'मशीनी' न बनाएँ। श्रेष्‍ठ अनुवादक को वांछि‍त पारि‍तोषि‍क देने हेतु भूमण्‍डलीकृत बाजार तथा उनकी भाषा की सराहना करने हेतु वि‍शाल उपभोक्‍ता समाज तैयार बैठा है। सरकारी नौकरी के अलावा जनसंचार, पर्यटन, व्‍यापार, फि‍ल्‍म, प्रकाशन...हर क्षेत्र में अनुवाद की तूती बजती है। सभी देशी-वि‍देशी फि‍ल्‍मकार भारतीय भाषाओं में अपनी फि‍ल्‍म की डबिंग करवाना चाहते हैं; वि‍भि‍न्‍न ज्ञान-शाखाओं में बड़े-बड़े वि‍चारकों की पुस्‍तकें प्रकाशक छापना चाह रहे हैं; सभी उद्योगपति‍ अपने उत्‍पाद्य का वि‍ज्ञापन सभी भाषाओं में करवाना चाह रहे हैं...इन सभी कार्यों की अपेक्षि‍त योग्‍यता के बि‍ना जो इस क्षेत्र में हाथ डालते हैं; वे सचमुच अपने देश के उपभोक्‍ता समाज के साथ गद्दारी करते हैं।
संसदीय कार्यवाही के र्नि‍वचन हेतु चयनि‍त इण्‍टरप्रेटर का तो चयन ही इतना ठोक-ठठाकर होता है कि‍ वहाँ के अनुवाद में कि‍सी दुवि‍धा की गुंजाईश सामान्‍यतया नहीं होती; कि‍न्‍तु प्रशासनि‍क महकमों के प्रपत्रों, वार्षि‍क रपटों के हि‍न्‍दी अनुवाद; या सामाजि‍क जागरूकता फैलानेवाले नारों के सर्वभाषि‍क अनुवाद का जैसा उदाहरण सामने आता है; मालूम ही नहीं चलता कि‍ अनुवाद हुआ कि‍स भाषा में है? इस समय सभी संस्‍थानों के वेबसाइट के हि‍न्‍दी अनुवाद पर जोर दि‍या जा रहा है। सारी संस्‍थाएँ मुस्‍तैदी से सरकारी फरमान के अनुपालन में यह काम एजेन्‍सी को सौंपकर नि‍श्‍चि‍न्‍त हो रहे हैं। धनलोलुप वि‍वेकहीन एजेन्‍सी को तो कमाना है, वे न्‍यूनतम कोटेशन के अनुवादक के आखेट में जुट जाते हैं। अब बेचारे अनुवादक क्‍या करें! उपलब्‍ध अवसर का लाभ वे क्‍यों न उठाएँ! गूगल देवता के चरण में पाठ को रखकर वे भी प्रसाद उठा लेते हैं और एजेन्‍सी को सौंप देते हैं। एजेन्‍सी उस पाठ का  मूल्‍यांकन जि‍स वि‍द्वान से करवाती है; उन्‍हें क्‍या पड़ी है कि‍ उसमें खोट नि‍कालें; एक बार खोट नि‍काल दें तो अगली बार उन्‍हें काम नहीं मि‍लेगा। वे उसे बेहतरीन अनुवाद का तमगा दे देते हैं। चारो घर इन्‍जोर (उजाला) हो गया। धज्‍जि‍याँ तो भाषा की उड़ी, जि‍सका कोई खेवनहार नहीं! ऐसी रामभरोसे धारणा से संचालि‍त अनुवाद-उद्योग के गर्म बाजार पर संवेदना प्रकट करने के अलावा अन्‍य कुछ कि‍या नहीं जा सकता।
व्‍यापारि‍क क्षेत्र में अनुवाद के पाँव जि‍स तरह पसरे हैं, उसमें मामला एक सीमा तक ठीक कहा जा सकता है, क्‍योंकि‍ वहाँ अनूदि‍त पाठ का सीधा सम्‍बन्‍ध भुगतान करने वालों के नि‍जी हि‍त से है। भाषा की बोधगम्‍यता का परीक्षण करके ही वे भुगतान करते हैं। कि‍न्‍तु जहाँ कहीं पाठ की सम्‍प्रेषणीयता का तत्‍काल परीक्षण नहीं होता, वहाँ अनुवाद की बड़ी दुर्गति‍ है।

Friday, July 7, 2017

भाषावि‍हीन समाज का सच Truth of the Society, Who has Lost it's Language




उपभोक्‍ता-वृत्ति‍ और वि‍ज्ञापन के वर्चस्‍व के कारण भारत की सदि‍यों पुरानी भाषि‍क वि‍रासत आज कहीं नेपथ्‍य में बैठी है; क्‍योंकि‍ उसके प्रयोक्‍ता खुद को वि‍ज्ञापनों की भाषा में सुर्खरू समझते हैं। अब सचाई तो है ही कि‍ यह समय वि‍ज्ञापन के वर्चस्‍व का समय है; अर्थात् ऊँचा बोलने का समय, झूठ बोलने का समय। अपने शून्‍य को सौ-हजार और दूसरों के सौ-हजार की उपेक्षा करने का समय। राजनेता तो खासकर आत्‍मश्‍लाघा के कुएँ से नहाकर आए हुए प्रतीत होते हैं। उन्‍हें अपने सि‍वा दुनि‍या का हर प्राणी नि‍रर्थक, नि‍कम्‍मा और बेईमान लगता है। व्‍यापारी लोग तो अपने उत्‍पादों का वि‍ज्ञापन करते समय भूल ही जाते हैं कि‍ उनकी डींगें लोगों में पकड़ी जाएँगीं। दूरदर्शन पर टूथ पेस्‍ट के वि‍ज्ञापन में मॉडल को हवा में उछाल मारते हुए; परफ्यूम लगाने, माउथ-फ्रेशनर खाने या दाढ़ी बनाने से मॉडलों पर सुन्‍दरि‍यों को लहालोट होते हुए; माहवारी स्राव का पैड पहनने से युवति‍यों में उड़ान भरने की काबि‍लि‍यत आते हुए देखकर कि‍तना फूहड़ लगता है? पता नहीं संवाद लि‍खते हुए लेखक को या कि‍ फि‍ल्‍माते समय मॉडल को अपनी इस फूहड़ता का भान होता है या नहीं! भोण्‍डे वि‍ज्ञापनों की इस ललक से अब तो शि‍क्षा के व्‍यापारी भी बचे नहीं हैं। कि‍न्‍तु सवाल है कि‍ वि‍ज्ञापन कि‍सलि‍ए होता हैउपभोक्‍ताओं को ठगने के लि‍ए; या उत्‍पादकों को सम्‍पन्‍न करने के लि‍ए? यह बात विज्ञापनों की भाषा की सूक्ष्‍म पड़ताल करने पर ही स्‍पष्‍ट होगी। क्‍योंकि‍ 'भाषा' वस्‍तुत: मनुष्‍य के सभ्‍य और स्‍वायत्त होने की पहचान के साथ-साथ अपने उत्‍पादकों और प्रयोक्‍ताओं की नीयत भी बताती है। बशर्ते कि‍ आप उस नीयत को पहचान सकें!  
भाषा अपने आवि‍ष्‍कार-काल से ही मानव-जीवन की अलौकि‍क उपलब्‍धि‍ है। सभ्‍य, व्‍यवस्‍थि‍त और उत्तरोत्तर उन्‍नत होने की दि‍शा में यह मनुष्‍य की सबसे बड़ी सहायि‍का रही है। भावाभिव्यक्ति क साधन के अलावा यह सामुदायि‍क संस्‍कृति‍ की सरणि‍ और सोच-वि‍चार का आधार भी है। भाषा के बि‍ना कुछ भी सोचा जाना असम्‍भव है। अपने वैयक्‍ति‍क, पारम्‍परि‍क एवं राष्‍ट्रीय अस्‍मि‍ता की पहचान कोई मनुष्‍य इसी के जरि‍ए करता है; और जि‍न मूल्‍यों एवं नैति‍कताओं के कारण वह मनुष्‍य होता है, उनके सन्‍तुलन की चि‍न्‍ता करना भी सीखता है। कि‍न्‍तु वि‍ज्ञापनी वर्चस्‍व के आधुनि‍क दौर में हम भाषा को ऐसे नहीं देख सकते। उस दि‍शा में भारतीय समाज का भाषि‍क परि‍दृश्‍य आज वि‍चि‍त्र दशा में है। आज के प्रयोक्‍ताओं के पास शब्‍दों, सम्‍बोधनों, क्रि‍यापदों, प्रयुक्‍ति‍ की भंगि‍माओं की बेहद गरीबी छाई हुई है। स्‍वायत्त एवं प्रभुत्‍वसम्‍पन्‍न भारतीय समाज का भाषि‍क-बोध इतना सि‍मट गया है कि‍ वे मुहावरों में भी अभि‍धेयार्थ ढूँढते हैं। अपने उतावलेपन से आधुनि‍क हुए ऐसे भारतीय न्‍यूनतम क्रि‍यापदों से सारा काम चलाना चाहते हैं। जबकि‍ क्रि‍यापद और सर्वनाम के जरि‍ए भारतीय भाषाओं के संस्‍कार परि‍लक्षि‍त होते हैं। 'कामचलाऊ सम्‍प्रेषण' और 'बेशुमार धनार्जन' के नशे में लि‍प्‍त-तृप्‍त, आधुनि‍कता के इन सि‍पाहि‍यों को नहीं मालूम कि‍ भाषा अन्‍तत: मनुष्‍य की नि‍जता और राष्‍ट्रीयता की पहचान होती है। इन्‍हें चूँकि‍ अपनी भाषि‍क गरि‍मा का बोध नहीं है; इसलि‍ए कि‍श्‍तों में अपनी भाषि‍क-क्षमता खो-खोकर आज पूरी तरह भाषावि‍हीन हो गए हैं। इस दि‍शा में भारत के भाषावि‍दों, अध्‍यापकों, समाजसेवि‍यों, शोधार्थि‍यों और सत्ता के नि‍यन्‍ताओं को गम्‍भीरता से सोचने की जरूरत है कि‍ दीर्घकाल तक औपनि‍वेशि‍क मनोदशा के अधीन रहकर भी जि‍न भारतीयों ने अपनी भाषा-संस्‍कृति‍ की गरि‍मा कायम रखी; आजादी के कुछेक बरस तक भी वह अनुराग कायम न रह सका। परराष्ट्रीय भाषा के प्रति‍ लोलुप लोग अपने ही भाषि‍क सौष्‍ठव से नि‍रपेक्ष दि‍खने लगे। अपने अनेक भाषा-व्‍यवहार में आज का भारतीय अपनी सांस्‍कृति‍क पहचान और राष्‍ट्रीयता अस्‍मि‍ता का सम्‍पूर्ण संकेत नहीं दे पाता। वे न केवल अपनी भाषि‍क प्रयुक्‍ति‍यों की मर्यादाओं, वि‍शि‍ष्‍टताओं से नावाकि‍फ हैं; बल्‍कि‍ भाषि‍क छवि‍याँ भी उनके लि‍ए अजनबी हैं। चि‍न्‍तनीय, कि‍न्‍तु सत्‍य है कि‍ ऐसी स्‍थि‍ति‍यों में आकर भी वे खुद को अयोग्‍य नहीं समझते; 'एडवान्‍स हो चुके' समझते हैं।   
भारत के भाषि‍क परि‍दृश्‍य में ऐसी नागरि‍क नि‍रपेक्षता का कारण सामुदायि‍क परि‍वेश में भोगवृत्ति‍ का गहन प्रवेश है। चारो ओर उपभोक्‍ता संस्‍कृति छाई हुई है।‍ लोगों की पूरी जीवन-व्‍यवस्‍था वि‍ज्ञापन और वि‍ज्ञापन की भाषा से संचालि‍त हो रही है। वि‍ज्ञापनी वक्‍तव्य पर वे धर्म की तरह आस्‍था रखते हैं; उस पर संशय/तर्क करना उन्‍हें अधर्म-सा लगता है। छह-छह दार्शनि‍क परम्‍पराओं वाले देश के नागरि‍कों के लि‍ए तर्क करना आज इतना नि‍रर्थक लगता है कि‍ मुर्गी के अण्‍डे पर चि‍पके स्‍टीकर के कारण वे उसे उस कम्‍पनी का अण्‍डा मानते हैं। जबकि‍ अण्‍डे तो मुर्गी ने दि‍ए! वस्‍तुनि‍ष्‍ठता की दि‍शा में तर्क-वि‍चार करना अब नागरि‍कों के लि‍ए नि‍रर्थक हो गया है। मोबाइल पर ज्‍यों ही एस.एम.एस. आता है'बाय वन, गेट वन फ्री'; लोग हरकत में आ जाते हैं; स्‍लोगन के व्‍यापारिक लक्ष्‍य पर तनि‍क वि‍चार नहीं करते। सम्‍मोहि‍त अनुयायी की भाँति‍ चल पड़ते हैं। क्‍योंकि‍ वे अपनी भाषा और भाषि‍क समझ खो चुके हैं।
आम नागरि‍क ही नहीं, वि‍ज्ञापन की भाषा और पद्धति‍ पर सोचने की जरूरत व्‍यवस्‍था-संचालन के नि‍यन्‍ताओं को भी महसूस नहीं होती। सामाज में जागरूकता फैलानेवाले प्रसंगों के अलावा व्‍यक्‍तियों/संस्‍थाओं के व्‍यावसायि‍क उन्‍नति‍ को बढ़ावा देनेवाले वि‍ज्ञापनों को भी इन दि‍नों भारत में जनसंचार माध्‍यमों, सोशल मीडि‍या एवं मुनादी द्वारा प्रचारि‍त करने की आजादी मि‍ली हुई है। इन संचार माध्‍यमों पर अब तो दवाइयों का भी वि‍ज्ञापन होता है(वि‍धानवि‍रुद्ध है, कि‍न्‍तु वैधानि‍क बचाव के कौशल वे जानते हैं)। अधि‍कांश वि‍ज्ञापनों से सामाज में ठगी, असावधानी, अन्‍धवि‍श्‍वास, राष्‍ट्रीयता एवं नैति‍कता के प्रति‍ लापरवाही...तरह-तरह की वि‍संगति‍याँ फैल रही हैं। त्‍यौहारोत्‍सव के अवसर आते ही मेल/मोबाईल/टीवी पर ऑफर आने लगते हैं। अभी-अभी मॉल से जीएसटी ऑफर आया था, मानसून ऑफर आ चुका है, तीज ऑफर/झूला ऑफर आनेवाला है। इन उत्‍पादकों ने शायद तय कर रखा है कि‍ आम नागरि‍क इत-उत में न पड़े, जो भी कमाकर घर लौटे, आकर हमारे खाते में डाल जाए। वि‍ज्ञापन लि‍खनेवालों, मॉडलिंग करनेवालों को तो उत्‍पादकों से मोटी रकम उगाहनी होती है, उन्‍हें कोसने से भी कुछ हो नहीं सकता; कि‍न्‍तु इन ऑफरों/वि‍ज्ञापनों के सम्‍मोहन में बेतहाशा दौड़ते आम नागरि‍क का आचरण हैरत में डालता है। 
गजब खेल है; उपभोक्‍ता समझता/कहता है कि‍ वह फायदे में है; जबकि‍ वह शि‍कार हुआ है। उत्‍पादक समझता है कि‍ उसका नि‍शाना सही लगा है, पर वह कहता है कि‍ हम तो उपभोक्‍ता के सेवक हैं, जबकि‍ उसने उपभोक्‍ता का शि‍कार कि‍‍या है। नि‍स्‍सहाय उपभोक्‍ता चूँकि‍ लम्‍बे समय से कथन का 'आरोपि‍त अर्थ' समझता आया है; अपनी भाषि‍क भव्‍यता का नि‍रन्‍तर ति‍रस्‍कार करता आया है, इसलि‍ए उसे यह ति‍लि‍स्‍म समझ नहीं आता, वास्‍तवि‍क स्‍थि‍ति‍ का उसे बोध नहीं होता। इनकी तर्कशक्‍ति‍ अवरुद्ध है; वि‍ज्ञापनकर्ताओं के लि‍ए ये मुग्‍ध, सम्‍मोहि‍त और उनके पीछे बेसुध दौड़ती हुई भीड़ हैं। इस सम्‍मोहि‍त पीढ़ी के अनुयायि‍यों को समझाया भी नहीं जा सकता। क्‍योंकि‍ उत्‍पादकों के वि‍ज्ञापन पर इन्‍हें खुद से अधि‍क भरोसा है। वि‍ज्ञापनों पर तर्क करना उनके लि‍ए अधर्म है। तर्क करने का अर्थ वे विरोध मानते हैं--विज्ञापन का विरोध, विज्ञापन के माॅडल का विरोध। विज्ञापन का माॅडल चूँकि उनके आइकन हैं, इसलिए तर्क का अभिप्राय हुआ उनके आइकन का विरोध; और उनके आइकन का विरोध हुआ तो उनका ही विरोध हुआ! विरोध की इस लम्बी शृंखला में कोई उलझना नहीं चाहता।
उत्‍पादकों का व्‍यावसायि‍क गणि‍त पूरी तरह सधा होता है। उन्‍हें सुवि‍चारि‍त रणनीति‍यों के तहत  सम्मोहन चि‍त्तवि‍जय का खेल खेलना पड़ता है! नहीं खेलेंगे तो उनका घटि‍या सौदा उम्‍दा कीमत, और आनन-फानन में नहीं बि‍केगा। इसके लि‍ए उन्‍हें कुछ मदारी खरीदना पड़ता है; भाषा और करतब का मदारी। ये क्रीत मदारी आम नागरि‍कों के भावनात्‍मक दोहन (इमोशनल ब्‍लैकमेलिंग) का सि‍लसि‍लेबार इन्‍तजाम करते हैं। संवाद में भाव, भाषा और दृश्‍य का ऐसा ति‍लि‍स्‍म गढ़ते हैं; संवेदनशील घटना-प्रसंगों और कोमल सम्‍बन्‍धों के अनुराग की दुहाई देकर उत्‍पाद की ऐसी गुणवत्ता बताते हैं कि‍ भाव-प्रवण वि‍ह्वल क्रेता उत्‍पाद की वस्‍तुनि‍ष्‍ठता के बारे सोचना छोड़कर उस भावुकता के सरोवर में सराबोर हो जाते हैं। आह्लाद और मोहकता उसे दुनि‍याँदारी से काट देती है। नि‍श्‍छल उपभोक्‍ताओं की कोमल भावनाओं का दोहन करनेवाले ये चालाक मदारी नि‍मेष मात्र के लि‍ए नहीं सोचते कि‍ जि‍स सामान्‍य नागरि‍क ने हमें राष्‍ट्र का आइकन बनाया; इन वि‍ज्ञापनों में हम उन्‍हें ही चूना लगा रहे हैं और पूँजीपति‍यों का खजाना भर रहे हैं! वे कभी देश के नि‍यन्‍ताओं को नैति‍क और राष्‍ट्रहि‍तैषी पाठ पढ़ानेवाले वि‍ज्ञापनों की बात नहीं सोचते! वैश्‍वि‍क प्रति‍स्‍पर्द्धा में आगे रहनेवाले भारत के शोध, अनुसन्‍धान, शि‍क्षण, अध्‍यवसाय के उन्‍नयन की दि‍शा में वि‍ज्ञापन करने की बात नहीं सोचते! ऐसा सोचेंगे तो मोटी रकम उगाहने के लि‍ए तेल-मसाला-साबुन-मलहम-ताकतवर्द्धक दवाई कैसे बेचेंगे? सचमुच, वि‍ज्ञापनों की वैधानि‍कता और भाषा पर गम्‍भीर बहस की बड़ी जरूरत आन पड़ी है।   
मनुष्‍य से उसकी 'भाषा' छीनने की यह तरकीब भारत में कोई नई नहीं है; आजादी के कुछेक बरस बाद से ही शुरू हो गई थी। भारतीय लोकतन्‍त्र के नि‍र्वाचि‍त जनप्रति‍नि‍धि‍ और चयनि‍त अधि‍कारि‍यों में 'शासक' बनने की भूख बलवती हो उठी थी; वे जानते थे कि‍ जि‍स मनुष्‍य के पास भाषा होगी, उस पर शासन नहीं कि‍या जा सकता। (आज के सन्‍दर्भ में देखें तो जि‍स मनुष्‍य के पास भाषि‍क समझ और तर्कशक्‍ति‍ होगी, उसे ऊल-जलूल उत्‍पाद नहीं बेचा जा सकता।) क्‍योंकि‍ भाषा होगी, तो वह बोलेगा; तर्क करेगा; बोलता रहा, तर्क करता रहा तो वि‍रुद्ध बोलेगा। पहले एक बोलेगा, फि‍र दो, फि‍र दस, सौ, हजार, करोड़...आन्‍दोलन खड़ा हो जाएगा। एक की माँग बेशक भीख कहलाए, हजारो की माँग शासकों को बेदम कर देती है। इसलि‍ए शासि‍तों के मुँह में ज़बान रहने देना, दि‍माग में तर्क-शक्‍ति‍ रहने देना शासकों को अपने लि‍ए हि‍तकर नहीं लगा; वे जनता की भाषा छीनने की जुगत बैठाने लगे। उनकी यह शाति‍री उस दौर के वि‍शि‍ष्‍ट कवि‍ धूमि‍ल को स्‍पष्‍ट दि‍ख गई थी। उन्‍हें 'भाषा के चौथे पहर में जुआ तोड़कर भागते हुए शब्द' दि‍खने लगे थे; 'परिचित चेहरा भी तत्सम शब्द-सा अपरिचित' लगने लगा था; 'शब्दों के जंगल में शब्द और स्वाद के बीच भूख को जिन्दा रखना' भारी लगने लगा था। अपने पूरे दौर में वे कवि‍ता और भाषा में प्रायोजि‍त अर्थ भरे जाने के कौशल को गम्‍भीरता से नोट कर रहे थे। आम नागरि‍क को कथन के 'प्रायोजि‍त अर्थ' समझाने और मनवाने की परम्‍परा चल पड़ी थी। क्‍योंकि‍ 'प्रायोजि‍त अर्थ' समझने का अभ्यासी नागरि‍क धीरे-धीरे अर्थान्‍वेष की अपनी प्रक्रि‍या भूल जाता है; अन्‍तत: गूँगा हो जाता है। धूमिल इस तथ्‍य से अवगत थे, इसलि‍ए ‘भाषा ठीक करने से पहले आदमी को ठीक’ करना चाहते थे वे भाषा में, आदमी होने की तमीज ढूँढते थे। 'भूख और भाषा में सही दूरी' दे‍ख पाने वालों के मनुष्‍य होने पर वे आपत्ति‍ उठाते थे। भूख सबसे पहले ‘भाषा को खा’ जाती है। अभि‍प्राय यह कि‍ जीवन जीने की पहली जरूरत 'भूख' कि‍सी मनुष्‍य को कई तरह से मजबूर करती है। मजबूरी में भाषा को बदलने में देर नहीं लगती। भूख से मजबूर होकर ही कोई जमूरा मदारी की भाषा बोलने लगता है।
धूमि‍ल के समय के शासकों को 'भाषा' की वास्‍तवि‍क शक्‍ति‍ का डर था। उन्‍हें इस बात की गहरी समझ थी कि‍ भूखवि‍हीन मनुष्‍य तर्क करता है; उचि‍तानुचि‍त की बात करता है; जनप्रति‍नि‍धि‍यों के कर्तव्‍यों की समीक्षा करता है; मनुष्‍य के होने की नैति‍कता और तार्कि‍कता की बात करता है। कि‍न्‍तु भूख, भाषा को खा जाती है। इसलि‍ए मनुष्‍य के 'होने' की बुनि‍यादी स्‍थि‍ति‍ को घेरे में रखा जा‍ए; उसे भूख से लड़ने दि‍या जाए; लगातार अस्‍ति‍त्‍व के अवि‍चल यथार्थ से जूझने को मजबूर कि‍या जाए; वर्ना वह बोलेगा; उसका बोलना सत्ता के लि‍ए शुभद नहीं है।
उल्‍लेखनीय है कि‍ 'मनुष्‍य होना' केवल जैवि‍क क्रि‍या भर नहीं है; देह-धारण करते ही मनुष्‍य कई वि‍वशताओ में उलझ जाता है। भोजन, वस्‍त्र, आवास भर से वह तुष्‍ट नहीं होता। उसके आगे उन्‍हें सम्‍मान और सुरक्षा भी चाहि‍ए, फि‍र वर्चस्‍व भी चाहि‍ए। इसी वर्चस्‍व-स्‍थापन की प्रक्रि‍या में मनुष्‍य पति‍त होने लगता है। क्रमश: संवेदनहीन, फि‍र क्रूर, और फि‍र खूँखार हो जाता है। अति‍सभ्‍य एवं अति‍सम्‍पन्‍न होने के क्रम में वह सारी मनुष्यता त्‍यागकर पशु-प्रतीक का बेहतरीन उदाहरण बन जाता है। ये मुट्ठी भर वर्चस्‍वकामी, देश भर के सहृदय मानव के हि‍स्‍से का अनाज-पानी, पवन-प्रकाश सोखने लगता है। औरों के हि‍स्‍से में उसके इस अति‍क्रमण का विरोध आम नागरि‍क न करे, वह अपनी मुसीबतों को सुलझाने में व्‍यस्‍त रहे, इसके लि‍ए उस दौर के शासकों ने 'भूख' की नि‍रन्‍तरता बरकारार रखी। भूख से बि‍लबि‍लाता नागरि‍क वि‍‍रोध की भाषा नहीं बोल सकता। इसलि‍ए उन्‍हें भूख के अधीन रखकर भाषा का 'आरोपि‍त अर्थ' समझाया जाता था। जबकि‍ धूमि‍ल ने सावधान कर दि‍या नहीं, अब वहाँ कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है/पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों/और बैलमुत्ती इबारतों में/अर्थ खोजना व्यर्थ है।' 
कि‍न्तु आज धूमि‍ल का समय नहीं है। धूमि‍ल की इन प्रयुक्‍ति‍यों में 'भाषा' तो मानवीय आचरण के प्रतीक भर थी, आज तो भाषा का मौलि‍क स्‍वभाव ही कहीं कि‍नारे हो गया है। शासकों की दीर्घकालीन संगति‍ से उपभोक्‍ता-सामग्री के उत्‍पादकों और वणि‍कों ने ऐसी व्‍यवस्था नि‍र्मि‍त कर ली है कि‍ नागरि‍क परि‍दृश्‍य से भाषि‍क नि‍जता का पूरा स्‍वरूप गायब है। वि‍ज्ञापन से इतर कोई भाषा आज का नागरि‍क जानता ही नहीं। धूमि‍ल आज  होते, तो देखते कि‍ जि‍स जनता की ओर से वे भाषा की राजनीति‍ पर सत्ता को फटकार रहे थे; वह जनता आज खुद-ब-खुद अपनी भाषा त्‍यागकर वि‍ज्ञापन की भाषा की गुलाम हो चुकी है। स्‍थि‍ति‍ भयावह अवश्‍य है, कि‍न्तु हम अपनी नि‍जता की ओर लौटना चाहें, तो असम्‍भव भी नहीं है।



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