राजकमल चौधरी ने हिन्दी के अलावा मैथिली में भी कविता, कहानी, निबन्ध, नाटक, आलोचना, पत्र-डायरी... सब कुछ लिखा, और बेहतरीन लिखा। तथ्य है कि
स्वातन्त्र्योत्तर भारत की शासकीय व्यवस्था और लोकतन्त्र के रहनुमाओं ने जिस
पेचीदगी से जनसामान्य को नारकीय जीवन-दशा में पहुँचाया, उन वर्जित विषय प्रसंगों से ही उन्होंने अपनी रचनाओं
को खरोंचदार बनाया। उनकी रचना-शैली भी पाठकों को कहीं रेशम के नर्म स्पर्श से
सहलाती नहीं, भाषा के खरोंच से
उन्हें जगाती है, उद्बुद्ध करती
है। अब इन प्रसंगों को खरोंचदार बनाकर राजकमल ने जिनकी बदनीयती को उजागर किया,
वे तो उनके निन्दक होंगे ही!
राजकमल-साहित्य का मूल्यांकन करते हुए इन बातों का ध्यान रखना उल्लेखनीय होगा।
प्राप्त सूचनाओं के अनुसार मैथिली में राजकमल के तीन उपन्यास (‘आन्दोलन’, ‘आदिकथा’ और ‘पाथर-फूल’), एक प्रहसन (हफीम), एक एकांकी (महाकवि विद्यापति), एक रेडियो नाटक (‘बसात’), चार आलोचनात्मक निबन्ध, अड़तीस
कहानियाँ तथा इक्यानबे कविताएँ उपलब्ध हैंैं।
विषय-वस्तु और शिल्प-संरचना--दोनों ही दृष्टियों से राजकमल चौधरी ने मैथिली
कहानी को एक उत्कर्ष दिया। स्थानीय घटनाओं, तीर्थ-व्रत, गंगा-स्नान, विवाह-मुण्डन,
दान-दहेज, हास-परिहास की सीमा से बाहर लाकर उन्होंने मैथिली
कहानी को एकाएक सार्वदेशिक बना दिया। फलस्वरूप मिथिला के ग्रामाँचलीय जीवन के
कटु-सत्य उनमें उभरे।
दुःख में भी हँसकर जी लेना, मैथिलों ने विरासत में सीखा है। अर्थ-तन्त्र की दृष्टि से मिथिला के
ग्रामाँचल की मर्दनशुमारी की जाए, तो
यहाँ की निरीह जनता के जीवन-यापन की पद्धति समझ में आएगी। सच है कि इसी परिवेश में
कुछ उच्च-मध्यमवर्गीय भी हैं, जो
अपने वैभव की बदौलत निम्न-मघ्यमवर्गीय जनता को चूसते आ रहे हैं। राजकमल चौधरी का
साहित्य इसी चूसने और चूसे जाने की आख्यायिका है। कथा-शीर्षक ‘एकटा चम्पाकली: एकटा विषधर’ में दशरथ झा के डीह पर शशि बाबू की शनि-दृष्टि
है, और दशरथ झा की पत्नी
रामगंजवाली अपनी पुत्री चम्पा को नाना की उम्र से भी अधिक उम्र के शशिबाबू के
हाथों ब्याहने को आतुर है--ये दोनों ही स्थितियाँ घोर त्रासद हैं। रामगंजवाली माँ
होकर भी विषधर है; दशरथ झा पिता
होकर भी कसाई है, पुरुष होकर भी
नपुंसक है, मनुष्य होकर भी गीदड़
है; शशि बाबू विचित्र तरह से
व्याख्येय हैं। तमाम दुष्टताओं के बावजूद कोई मानवीय कमजोरी उन्हें अपने लक्ष्य से
नहीं हिला सकती। रामगंजवाली अपनी बेटी अर्पित करने को तैयार है, पर उनको स्त्री-देह नहीं, जमीन चाहिए, वे जमीन के लिए डटे हुए हैं। मिथिलांचल के जनपरिदृश्य
में इस तरह के दांव-पेंच कई स्तरों पर खेले जाते रहे हैं।
असल में मनुष्य विचित्र जीव होता है, अपने अहं को सहलाते रहने के लिए न जाने कैसी-कैसी
हरकतें करता रहता है, अपने को
प्रसन्न करता रहता है; मनुष्य न
जाने किस बात से किस परिस्थिति में प्रसन्न होता है, वस्तुतः वह खुद को ठगता रहता है। किस परिस्थिति में वह
मनुष्य से लोमड़ी, भेड़िया,
साँप, केचुआ... हो जाता है, उसे खुद समझ नहीं आता। राजकमल चौधरी का साहित्य मनुष्य
के इसी योनि-परिवर्तन, लिंग-परिवर्तन,
जाति-परिवर्तन का दस्तावेज है; देश, काल, पात्र के साथ
जीवन्त तथा सचेतन सम्बन्धों के व्याकरण का उदाहरण है। इसमें परम्परा का शोधन,
युग-बोध, जीवन के वैविध्य की स्पृहा, पर्यावरण के माध्यम से आत्मसिद्धि, विवेकयुक्त वैज्ञानिक दृष्टिकोण, रूढ़ियों के प्रति विद्रोह, नवजीवन के विकास के लिए प्रयोग के प्रति आग्रह,
परिवेश के प्रति गहरी जागरूकता, सामाजिक यथार्थ, मूल्यगत विकृति की पहचान, जीवन की विसंगतियों की अभिव्यक्ति, व्यंग्य-विपर्यय कूट-कूटकर भरा हुआ है।
अर्थाभाव में मिथिलांचल की निरीह जनता जीने के लिए मानवता की किस निम्नतर सीढ़ी तक
उतर जाती है; कुछ सम्पन्न लोग
अपनी मामूली स्वार्थसिद्धि हेतु किस कदर मानवता के विराट प्रासाद से निकलकर हैवानी
की खोह में घुसकर जीवन-जगत् के सारे सम्बन्धों, सारे नियमों को भूलकर ‘क्षण’ में
जीने लग जाते हैं--ये रचनाएँ इस मर्मान्तक पीड़ा का बखान करती हैं। किन्तु सामाजिक
नियमों के ठेकेदारों को उनके इस आचरण में अश्लीलता दिख जाती है। दरअसल आधुनिक जीवन
के भुक्तभोगियों के लिए अश्लीलता का परिचय जानना बेहद जरूरी है। ‘ननदि-भाउज’ कथा की नायिका ‘पदुमा’ को
दो रुपए पाने के लिए, अन्धेरी
रात में बंगट की तलाश में भटकना पड़ता है; ‘वैष्णव’ की कमलपुरवाली
को अपना हृष्ट-पुष्ट, आकर्षक,
वैधव्य भरा यौवन अपने श्वशुर श्रीमन्त
बाबू को सौंपना पड़ता है--इन घटनाओं का चित्रण अश्लील कदापि नहीं हो सकता। यदि यह
चित्रण अश्लील है, तो इसकी
सत्यता क्या होगी? राजकमल का
साहित्य इसी यथार्थबोध, युगबोध,
और परिवेश के सत्य से उद्भूत अनुभूति की
व्यंजना है।
‘चन्नरदास’ कहानी में
भिखारन नायिका ‘किरतनियाँ’
का टीसन बाबू के साथ सिनेमा देखने जाने
का प्रस्ताव सुनकर उसके भिखारी प्रेमी चन्नरदास का हृदय व्यथित हो उठता है,
उसके भीतर बसी हुई काहिली भाग खड़ी होती
है। चन्नरदास, किरतनियाँ को साथ
लेकर झरिया-धनबाद कमाने चला जाता है। यह कथा मनुष्य की जीवनी शक्ति की ओर इशारा
करती है; प्रेम-पाश की डोर को
कमजोर होता देखकर, अथवा आर्थिक
बदहाली का अनुमान कर किसी काहिल पुरुष का पुंसत्व कैसे जाग उठता है--इसकी स्पष्ट
छवि यहाँ अंकित हुई है। इसी तरह की कई छवियाँ राजकमल की कहानियों में व्यक्त हुई
हैं। गौरतलब है कि ये छवियाँ कभी इतिहास नहीं हो सकतीं, यह सिर्फ कहानी है और कहानी की गरिमा और सीमा बरकरार
रखने में सक्षम हैं, समर्थ हैं।
स्थिति-चित्र उकेरने में उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रतीकों का आश्रय अत्यन्त कौशल
और कलात्मकता से लिया है। ‘किरणमयी’
कहानी में चन्नर भाई के मृतमस्तक को गोद
में लिए कान्ति दीदी का प्रतीकों में सम्भाषण इसका उदाहरण है।
इसके अलावा वे स्त्रियाँ हैं जो आर्थिक रूप से विपन्न नहीं हैं, सम्पन्न हैं, कुछ और सम्पन्न होना चाहती हैं, उनके जीवन की सारी नैतिकता उस सम्पन्नता में प्रवेश कर
जाती है। कुछ अपनी आत्मकेन्द्रिकता में, निस्सहाय विधवा ननद की परवरिश से मुकरना चाहती हैं और इस वृत्ति के लिए
अपने पतियों को तैयार करने का चातुर्य दिखा रही हैं। तमाम विपन्नता के बावजूद अपनी
देह को पूँजी नहीं बनानेवाली स्त्रियाँ, श्रम से जीवनयापन करनेवाली स्त्रियाँ, अपने समाज के वहशी पुरुष से परेशान हैं। एकनिष्ठ चरित्र
की स्त्री जहाँ भी थोड़ा आधुनिक होने की कोशिश करती है, चरित्रहीन घोषित हो जाती है। मगर दशरथ झा की पत्नी
अपनी किशोर वय की बेटी का विवाह अपने ससुर की उम्र के व्यक्ति से करने का प्रस्ताव
देती हुई शर्मिन्दा नहीं होती (‘एक
चम्पाकली: एक विषधर’)। मंचीय और
सार्वजनिक व्यक्तित्व की छवि अर्जित करने हेतु जो स्त्री आगे आती है, वह कथित समाजसेवियों के छलावे और चारित्रिक
दोहरेपन का शिकार होती है। पर ऐसी स्त्रियाँ उनकी मैथिली कहानियों में कम हैं,
हिन्दी में ज्यादा हैं। देह को सीधे तौर
पर निजी सम्पत्ति मानने वाली स्त्रियों के तो कई रूप हैं, उसका उपयोग वे अर्थोपार्जन के लिए करें, या उन्माद की शान्ति के लिए--वे अपने को
स्वतन्त्र मानती हैं, किसी का
कोई हस्तक्षेप उन्हें पसन्द नहीं। ऐसी स्त्रियों की बोल्डनेस भी हिन्दी कहानी में
ही अधिक है, मैथिली में कम।
मैथिली में ज्यादातर इस तरह की स्त्रियाँ भयभीत रहती हैं और गोपनीयता में विश्वास
रखती हैं।
अपनी कहानियों में स्त्रियों के विविध रूपों को उकेरते हुए राजकमल ने
पुरुष वर्चस्व की भी चीड़-फाड़ की है। आधुनिक आलोचनात्मक कसौटी पर आज के आलोचक,
और जनोपयोगी कसौटी के आधार पर आज के
प्रबुद्ध पाठक, जिस तरह की
कहानियों को उम्दा और अधुनातन कहते हैं--राजकमल चौधरी की कहानियाँ उस पर एकदम खरा
साबित होती हैं और समकालीन दिखती हैं। यह विस्मयकर है कि आज भी भारतीय नागरिक वही
जीवन बिता रहा है--जो उनकी कहानियों का नागरिक उन दिनों बिता रहा था।
यह विशेषता राजकमल के कथा-संसार को कालजयी बनाती है। उनके शिल्प में समय
से आगे की बात स्पष्ट दिखती है। उनकी कहानियों में कथानक और घटनाक्रम जैसे प्राचीन
कथा-तत्त्वों से अलग हटकर पाठकों के लिए एक भिन्न उपक्रम प्रस्तुत होता है,
जहाँ एक ही कहानी में कई-कई परतें मिली
होती हैं और उभरती रहती हैं।
सामाजिक सुरक्षा, दैहिक
रक्षा, दैहिक आवेग, सन्तान, परिवार...कई स्तरों पर स्त्रियों का जीवन पुरुषों पर
आश्रित रहा है। इनमें से किसी भी स्थिति के वशीभूत स्त्री, अपने को एक पुरुष को सौंपकर सुरक्षित महसूस करती है।
जिस स्त्री के साथ यह सुरक्षा नहीं है, वह लुटती-बिकती रहती है। पर इससे अलग किस्म की स्त्रियाँ भी हैं, जिनके पास ये सारी सुरक्षाएँ हैं, पर उनके जीवन में स्थिरता नहीं है। जिन
स्त्रियों के लिए ‘देह’ से बड़ा साधन कुछ भी न हो, आधुनिक समाज की अति आधुनिकता के यथार्थ का वह
भी अकाट्य पहलू है।
‘अपराजिता’ और ‘हाथीक दाँत’ के अतिरिक्त राजकमल चौधरी की शेष सारी मैथिल कहानियों
के केन्द्र में नारी है। ‘अपराजिता,’
बाढ़ में डूबे मिथिला क्षेत्र के
नागरिक-जीवन के चित्र, सरकारी
उद्यमों के नाटक, पुलिस की
बदमाशी, टुटपुँजिए नेताओं की
कवायद आदि को रेखांकित करती है, तथा
‘हाथीक दाँत’ में एक समाजवादी नेता के ‘खाने के’ और ‘दिखाने
के’ अलग-अलग दाँतों का असली
चरित्र उजागर किया गया है। वस्तुतः उनकी कहानियों का प्रधान तत्त्व कथानक नहीं
होता, हर पंक्ति, हर शब्द, यहाँ तक कि यति-विराम और पाॅज तक में कहानी रहती है।
यही कारण है कि कहानियों के अवान्तर पात्र और अवान्तर प्रसंग द्वारा भी बड़ी-बड़ी
बातें सूत्र, संकेत और मुहावरों
में कह दी गई हैं। ‘ननद-भाउज’
कहानी में ननद, पदुमा और भौजाई रामगंजवाली--दोनों विधवा हैं, जीवन-यापन के लिए उनके पास देह के सिवा आमदनी
का कोई स्रोत नहीं है, ‘पदुमा का
गाँव, बनगाँव बहुत विशाल है।
गाँव में ही हाई स्कूल, थाना,
पोस्ट ऑफिस, अस्पताल और हाट-बाजार है। इसलिए, इन दो विधवा ब्राह्मणियों का जीवन-निर्वाह कोई
कठिन नहीं। दो हजार घरों की इस बस्ती में दो सौ बंगट(वैसे रसिक युवक, जो घरेलू महिलाओं का बाजारू उपयोग करते हैं) अवश्य
हैं।’ इस छोटे से अंश में कथाकार
ने सिर्फ कथा नहीं कही है, कथा
के बीच कई कथाओं का सृजन किया है। ‘हाई
स्कूल, थाना, पोस्ट ऑफिस, अस्पताल और हाट-बाजार’ वाले इस गाँव की विशालता भर दिखाना कथाकार का उद्देश्य
नहीं, बल्कि इस तरह की संस्थाओं
की विकृतियों की ओर संकेत करना है। बातों-बातों में अपने लक्ष्य की इस तरह की
पूर्ति के लिए भाषा-शिल्प-शैली ही कारगर हथियार हो सकती है।
राजकमल चौधरी की कहानियाँ वस्तुतः हमें साहित्य पढ़ने कि तमीज सिखाती है।
वे हमें अन्तश्चेतना देती हैं कि कहानियाँ क्षणिक आनन्दित होने के लिए पढ़ी जाएँ या
उद्बुद्ध होने के लिए! तथ्यतः राजकमल चौधरी की कोई कहानी, पाठक को चैन से नहीं बैठने देती; उद्वेग से भर देती है; कहानी के शुरू होते ही भावक, कथा-नायक के साथ हो लेते हैं। उनके पात्र यथार्थ के
धरातल से इस तरह जुड़े होते हैं कि उसका सहयात्री हुए बिना रह पाना असम्भव है! कथ्य
इतने छोटे और व्यंजना इतनी विराट होती हैं कि पाठक कहीं खो-से जाते हैं; पाठकों के मन में चिन्तन की नई-नई दिशाएँ
अविष्कृत हो जाती हैं। ‘पनडुब्बी’
कहानी की नायक-नायिका को स्टीमर से
उतरने भी नहीं देते, और कहानी
समाप्त हो जाती है। अत्यन्त छोटे-से
घटना-प्रसंग के बावजूद कहानी की परिणति बड़ी लम्बी हो जाती है। इसका मूल
कारण उनका कथा-शिल्प है। शिल्प की मौलिकता और परिपक्वता ही साहित्य में कुछ नया
कहने का मार्ग प्रशस्त करती है। कथ्य का उद्गम-स्थल तो सबका एक ही होता है। इस
सम्बन्ध में राजकमल चौधरी ने अपने मित्र योगिराज को पत्र में लिखा था--‘कथा में मूल वस्तु क्या होती है, जानते हो? मूल वस्तु होती है शिल्प। कथ्य तो सबों का एक ही होता
है। या कि ऐसे समझो कि कौन-सा ऐसा कथ्य है, जिस पर किसी-न-किसी लेखक ने कथा या कि उपन्यास नहीं
लिखा। अस्तु हमें...जो अब लिखना चाहते हैं ...शिल्प को ही प्रधान बनाकर, आगे बढ़ना पड़ेगा। शिल्प की नवीनता ही हमारा
निजत्व होगा।’
अर्थात, शिल्प और संरचना
के कारण एक ही विषय पर लिखी गई कई कहानियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। शिल्प-संरचना के
इस गठन में रचनाकार के दृष्टिकोण की अहम् भूमिका होती है। जीवन को देखने-परखने का
दृष्टिकोण, रचनाशीलता को दिशा
देता है। इस दिशा में राजकमल चौधरी को महारत हासिल थी।
स्वातन्त्र्योत्तर काल के प्रारम्भिक कुछ वर्षों तक, जमीन्दारी खत्म हो जाने के बावजूद, मिथिलांचल में वह मनःस्थिति बरकरार थी। स्त्री,
जमीन और सम्पत्ति...तीनों को वस्तु समझा
जाता था। पुरुष इसके स्वामी होते थे। साठ वर्ष के विधुर या निःसन्तान या निपुत्र
व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी पाने हेतु, अथवा आँगन का राजकाज सँभालने हेतु, अथवा बिस्तर पर मन बहलाने हेतु किसी निर्धन की
कुंआरी बेटी को उठा लाते थे। उस कुंआरी के पिता पंजीबद्ध और सम्पत्तिशाली सद्पुरुष
का कुटुम्ब होकर अपने को ‘उद्धार
हुआ’ मानते थे। अपनी सांस्कृतिक
और बौद्धिक विरासत की गरिमा को लेकर मैथिलगण लिप्त-तृप्त रहते थे, पर धार्मिक पाखण्ड, सामाजिक रूढ़ि, कौटुम्बिक नाटक, मान-मर्यादा
की पद्धति की ओट में कितनी-कितनी विकृतियाँ, पल-बढ़ रही थीं--इसकी गिनती नहीं थी। और, मैथिली साहित्य में इसका संकेत दिख नहीं रहा
था। कांचीनाथ झा ‘किरण,’ तन्त्रनाथ झा और हरिमोहन झा के अलावा कहीं नई
दृष्टि दिख नहीं रही थी। वैसे ही समय में महाकवि यात्री की कविता और उपन्यास से;
ललित की कहानी से; राजकमल चौधरी, सोमदेव और मायानन्द मिश्र की कविता, कहानी, उपन्यास से; तथा रामकृष्ण झा ‘किसुन’
की कविता एवं संगठनात्मक एप्रोच से
अचानक मैथिली साहित्य अद्यतन हुआ।
मिथिलांचल में हाल-हाल तक स्त्रियों की स्थिति पालित-पोषित की ही रही है।
चाहे वह वृद्धा माँ, दादी,
नानी, मामी, मौसी,
काकी हो, जवान-प्रौढ़ा पत्नी, भौजाई, बहन,
अनुज वधू हो, परिवार की अकाल-दुष्काल विधवा हो, दाई, नौकरानी हो, या रखैल,
प्रेमिका हो...सब के प्रतिपालक पुरुष
रहे हैं, जो उन्हें अन्न-वस्त्र,
सुरक्षा देकर इनके तन-मन, स्वाभिमान पर राज करते रहे हैं। निष्ठा,
सुरक्षा, प्रतिपाल और सामाजिकता के इस घोषित आवरण के तले कितने
अघोषित अनाचारों को मान्यता मिली हुई थी--इसका सर्वेक्षण करना लेखकों का ही
दायित्व था, राजकमल चौधरी ने इस
दायित्व का निर्वाह बड़ी निष्ठा से किया।
‘फुलपरासवाली’ का कथानायक,
संस्कृतनिष्ठ दरिद्र ब्राह्मण-पुत्र
बिलट झा रिक्शा चलाकर जीवन-यापन करता है, देशी शराब पीकर नशेे में धुत्त रहता है। उस नशेेड़ी के साथ सिनेमा जाने से
जब उसकी पत्नी मुकरती है, तो वह
चीखता है--‘मेरी बात टालोगी!’
यह क्रोध, मात्र तीन
शब्दों में ब्राह्मणवादी अहंकार की दीर्घ परम्परा का परिचय देता है। पुरुषवादी
मनोवृत्ति के मिथ्या दंभ का परिचय देता है। राजकमल चौधरी के पूरे मैथिली कथा-लेखन
में नारी-पात्र के प्रति लेखकीय दृष्टि बहुत विश्लेषणात्मक है। अपने नारी-पात्र के
अनाचार तक में लेखक ने समाज की भूमिका खोज निकाली है। यह दीगर बात है कि ‘आवागमन’ में सरस्वती की माँ, और ‘एकटा
चम्पाकली : एकटा विषधर’ में
चम्पा की माँ, विषधर के रूप में
सामने आती है।
नारी जीवन के जितने रूप राजकमल चौधरी की मैथिली कहानियों में दर्ज हैं,
उतने मैथिली तो क्या, किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा में दिखना कठिन
है। वस्तुतः हमारा समाज जिस तरह की व्यवस्था में जीता आ रहा है, वह किसी हिसाब से मानवोचित नहीं है। नेता,
अफसर, पुलिस, पत्रकार
तो शहर के वासी हैं, निरन्तर
गाँव में बसनेवाले लोग, सामाजिक
नियम कायदे के रखवाले माने जाते हैं, कई बार कायदा स्वयं उन पर ही भारी पड़ जाता है। सबसे पहले विधवाओं के जीवन
से बात शुरू करें। मिथिलांचल की वर्ण-व्यवस्था की तरह विधवा की भी एक विचित्र
किस्म है, जो न जीने के लिए
स्वतन्त्र है, न मरने के लिए।
स्त्री का भी क्या जीवन है, जब
तक सधवा रहेगी, पति उसका शासक
रहेगा; और ज्यों ही वह विधवा होगी,
पूरा परिवार, पूरा समाज उसका शासक हो जाता है। पूरे गाँव की नजर
उसकी जवानी पर और जवान देह पर रहती है। सफेदपोशों की यौन-लिप्सा पूरा करने को राजी
नहीं हुई, तो परिवार से लेकर
समाज तक उसे वेश्या घोषित कर देगा और जवानी ढलान पर आ जाए तो वह डाइन हो जाएगी,
जैसे ‘सहस्र मेनका’ की निर्मला वेश्या हुईं, जैसे
‘कादम्बरी उपकथा’ की कादम डाइन हुईं। इस तरह के लांछन से स्त्री
को कोई भी योग्यता नहीं बचा सकती। निर्मला निर्धन हैं, इसलिए समाज कलंकिनी कहता है; कादम सम्पत्तिशालिनी हैं, तो उन्हें देवरानी ही बाँझ कहती हैं और समाज डाइन कहता
है। ‘पात’ की पतिया, विधवा होने के बाद वृक्ष से टूटकर गिरे सूखे पत्ते की तरह लुढ़कती रहती है,
कभी कूड़े में, कभी नाली में, कभी सड़क पर, जो पाता है
वही उसका दैहिक दुरुपयोग कर लेता है, प्रलोभन देकर घर ले जाता है और वहाँ उसके साथ अनाचार करता है, पतिया यह सब सहने को विवश है। ‘बहिनदाइ, अस्पताल, बनगाम’ की बहिनदाई
(अर्थात दीदी) अपनी भौजाइयों द्वारा तिरस्कृत होती हैं और समाज उन्हें भूखे शेेर
का सुलभ आहार समझ लेता है। ‘दमयन्ती
हरण’ की दमयन्ती और उसकी विधवा
माँ की स्थिति ठीक वैसी नहीं है, पर
शरीर को ही जीवन-रक्षा की पूँजी मान लेने वाली इस असहाय माँ-बेटी का जीवन समाज
भली-भाँति नहीं चलने देता। वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता रामबाबू, दमयन्ती के घर रात का भोजन-शयन क्यों करते हैं,
मन्दिर के पीछे पकड़ी गई दमयन्ती के साथ
पुरुष कौन था--यह जबाव ढूँढना समाज को निरर्थक लगता है, केवल सार्थक लगता है, इन दोनों असहाय स्त्रियों को लांछित नजर से देखना।
‘आकाश गंगा’ की विधवा
अन्नपूर्णा, बहुत बड़े जमीन्दार
विवेकानन्द चौधरी की बेटी है, पर
यहाँ कथाकार ने, शिक्षा के
प्रवेश से स्त्री और विधवा स्त्री के जीवन में उत्साह, स्वाभिमान और आत्मबल का अदम्य रूप दिखाया है।
अन्नपूर्णा ऐसी ही साहसी स्त्री हैं, जिस पर पिता इसलिए कुपित हैं, कि उन्होंने पिता के सामन्ती अहं के रक्षार्थ अपने प्रेम की बलि नहीं दी। ‘हरिद्वारवास’ की विधवा, ‘ननदि भाउजि’ की विधवा,
‘सुरमा सगुन बिचारै ना’ की विधवा, ‘अन्धकार’ की विधवा, ‘वैष्णव’
की विधवा, ‘मलाहक टोल: एक चित्र’ की विधवा के विविध रूप इन कहानियों में व्यक्त हुए
हैं। ये सारी विधवाएँ यौवन की उत्तप्त दोपहरी में जीवन के आयाम को जिन मजबूरियों
में नाप रही हैं, उनका विश्लेषण
सूक्ष्मता से किया गया है। किसी को देह और मन की माँगें मजबूर कर रही हैं, तो किसी को जीवन रक्षा के साधन या
इच्छा-अभिलाषा की पूर्ति हेतु तन को पूँजी बनाना पड़ता है। जीवन की अपरिहार्य
शर्तों की पूर्ति हेतु अन्धेरी सड़क पर किसी मनचले पुरुष की तलाश में कोई खड़ी हो
जाती है, तो किसी को विधुर
श्वसुर की सारी उचित-अनुचित कामनाओं की पूर्ति करनी पड़ती है। यौवनोन्माद की
उत्तप्त ज्वाला, उम्र के वसन्त
और मन के झूले में झुलसती, बिहुँसती
और झूलती ये विधवाएँ, मिथिला के
नारी-परिदृश्य का ऐसा आँकड़ा इन कहानियों के माध्यम से उपस्थित कर रही हैं, जिनमें समाज और सामाजिक आचार संहिता के
तार-तार अलग हो गए हैं।
राजकमल चौधरी के यहाँ केवल विधवा ही नहीं, पूरे स्त्री चरित्र का एक विस्मयकर पाठ प्रस्तुत है। ‘सती धनुकाइन’ की सत्ती, ‘समुद्र’ की दयामयी,
‘कोपड़’ की चमेला, ‘घड़ी’ की जहूरनी अथवा
चन्द्रमुखी, ‘खरीद बिक्री’
की शरणार्थिनी, ‘माहुर’ की
शकुन, ‘ललका पाग’ की तिरू, ‘कमलमुखी कनियाँ’ की कमलमुखी, ‘पनडुब्बी’ की
कादम...विधवा नहीं है, परन्तु
इनके जीवन का तीक्ष्ण दंश कितना क्लेशकर है--यह अनुमान करना असम्भव है। किसी
स्त्री के लिए जीवन जीना एक दुष्कर सबक हो जाता है। सतीत्व बचाने, सुरक्षित सतीत्व का प्रमाण देने, अपने को पुष्पवती-फलवती साबित करने, अपने जीवन साथी का चुनाव अपनी सुविधा और पसन्द
से करने, एक जून रोटी और एक
प्याली चाय की प्राप्ति हेतु किसी भी पराए मर्द के साथ हमबिस्तर होने, बेराजगार पति की पत्नी होने के कारण जीवन के
गान-मुस्कान से च्युत रहने, अनाहूत
अपराध के दण्ड को चुपचाप शिरोधार्य करने और कौलिक मर्यादा की रक्षा में खुद को
मिटा देने, परम्परा के निर्वाह
में अपना अस्तित्व भूल जाने का कौशल जिस मिथिला, या जिस भारत की स्त्रियाँ अपने पूरे जीवन मंे सीखती
रही हैं और यह सीख लेने में अपने को धन्य मानती रही हैं; राजकमल चौधरी की कहानियों का कथ्य-शिल्प उसी
ज्वालामुखी के गर्भ से बाहर आया है। कायदे से देखें, तो आज इक्कीसवीं शताब्दी की गौरवमय घोषणाओं के बावजूद,
देश की स्त्रियों की दशा, इससे बहुत आगे नहीं आई है।
इन कहानियों में स्त्रियों के इन नाना रूपों को प्रस्तुत करते हुए राजकमल
ने समाज की पुरुष मनोवृत्ति का भली-भाँति विश्लेषण किया है। कथानक, घटनाक्रम जैसे प्राचीन कथा-तत्त्वों से अलग
हटकर उनकी कहानियों का स्वरूप पाठकों के लिए एक भिन्न उपक्रम प्रस्तुत करता है,
जहाँ एक ही कहानी में कई-कई बातें कही
गई हैं। ‘चन्नरदास’ और ‘किरतनियाँ’ भिखमंगों के
जीवन पर केन्द्रित कहानियाँ हैं। इनमें पेशेवर भिखारियों के जीवन के राग-द्वेष,
अनुराग-विराग, प्रेम-संघर्ष, भीख माँगने, भीख पाने की
तकनीकों और उचित अवसरों की समझ, यौन-प्रसंग,
भिखमंगों के संगठनात्मक अनुशासन आदि-आदि
तत्त्वों की तथ्यपरक प्रस्तुति विस्मयकर है।
‘साँझक गाछ’ राजकमल चौधरी
की वैसी कहानी है, जिसके साथ
तरह-तरह की समस्याएँ बेवजह चिपक गईं। ‘ननदि-भाउजि,’ ‘सुरमा
सगुन बिचारै ना’ और ‘माहुर’ कहानियों को तो मैथिली के विद्वान व्याख्याकारों ने
इतना विवादास्पद बना दिया कि बाद के पाठकों के मस्तिष्क पर कहानी के मूल-पाठ का
प्रभाव कम और लोगों की चर्चाओं का पूर्वाग्रह ज्यादा छाया रहा। और तो और, ‘सुरमा सगुन बिचारै ना’ के समर्थन और व्याख्या में जब राजकमल ने एक लेख लिख
दिया, तब से उस कहानी के साथ और
भी अत्याचार हो गया। वस्तुतः उस लेख में अपनी इस कहानी की चर्चा कर राजकमल चौधरी
ने वही भूल की है, जिस भूल के
लिए उन्होंने नई कहानी आन्दोलन के वणिक्बुद्धि कथाकारों की खिंचाई की है। इन
विवादास्पद कहानियों पर क्रमशः यह आरोप लगा कि किसी मृत पुरुष के साथ, स्त्री के समागम का चित्रण, जैववैज्ञानिक भूल(बायोलाॅजिकल मिस्टेक) है,
विधवा बहन और विधुर भाई की परस्पर
अनुरक्ति अवैधानिक है, और
अनुजवधू के प्रति जेठ की अनुरक्ति अनैतिक है--जबकि बात यह नहीं है। दरअसल, इन कहानियों को ग्रहण करने में सबसे बड़ी
समस्या यहाँ से शुरू हुई कि पाठकों या समीक्षकों ने इसे सदाचार के सिद्धान्तों के
साथ पढ़ना शुरू किया। यदि इसे मानव-जीवन की अनुभूतियों और अपेक्षाओं के साथ पढ़ा गया
होता, तो कुछ सही परिणाम सामने
आता। लेकिन इससे भी बड़ी विडम्बना यह है कि जब कभी पाठ्यक्रम में राजकमल चौधरी को
सम्मिलित करना जरूरी होता है, तो
अध्यापन पेशे से जुड़े लोग उनकी कहानी ‘ललका पाग’ चुन लेते हैं,
जो राजकमल का मुख्य स्वर ध्वनित नहीं
करती, उनके रचना-कौशल की कोई एक
छवि प्रस्तुत करती है; और जब
लेखक वर्ग उनकी प्रतिनिधि कहानी ढूँढने चलते हैं, तो वे ‘साँझक
गाछ’ चुनते हैं, जो अस्तित्वरक्षा हेतु दिशाहारा, अन्धे कुत्तों की तरह भटकते तथा अस्मिता की
इमारत खड़ी करने में रत मनुष्य के जीवन-दर्शन का उदाहरण है। एक आलोचक ने राजकमल चौधरी
की रचना ‘साँझक गाछ’ और ‘मुक्ति प्रसंग’ को
पश्चाताप से भरी रचना कह दिया।यह उनकी राय हो सकती है! उन्हें शायद अनुमान न हो कि
‘मुक्ति प्रसंग’ दो दशक की रुग्ण भारतीय स्वाधीनता की जीवन्त
पेण्टिंग है, जिसे राजकमल चौधरी
ने दुर्गन्ध, पीले मवाद और रक्त
मिश्रित पेशाब के रूप में देखा। ‘साँझक
गाछ’ के कथानायक, और उसकी भौजी के जीवन का ‘स्वांग’ हैरत उत्पन्न करता है। हर रचना में रचनाकार को अपने
नायक से सहानुभूति होती है, नायक
के विचार और हरकतों के माध्यम से रचनाकार अपनी ही बात कह और कर रहा होता है,
पर वह नायक, स्वयं लेखक नहीं होता। समाज की जिन परिस्थितियों में
रचनाकार स्वयं झुककर समझौता कर लेता है और जिन परिस्थितियों में दृढ़ रहता है,
सारी आपदाओं को झेलकर अपना भविष्य कंटकमय
कर लेता है, यह जरूरी नहीं कि
उसका नायक भी वैसा ही हो। उसका नायक समाज के नागरिकों का प्रतिनिधि भी होता है,
इसलिए ‘मैं’ शैली
की हर रचना का नायक लेखक नहीं होता। इसलिए ‘मुक्ति प्रसंग’ और ‘साँझक
गाछ’ और ‘कवि परिचय’ जैसी रचनाओं का नायक पूरा-पूरा स्वयं लेखक ही नहीं, समकालीन समाज का नागरिक भी है। और ‘साँझक गाछ’ का नायक उसमें पश्चाताप नहीं कर रहा है, वह विस्मित है। वह अपनी मजबूरियों, अपनी भौजी की मजबूरियों और अपने भतीजों की
मजबूरियों की तुलना कर रहा है। वह उस लालसा को तौल रहा है, कि इस विधवा स्त्री ने अपनी सन्तानों के भावी जीवन
सुधारने हेतु उचित शिक्षा-दीक्षा की सुविधा पाने के लिए किसी सम्पन्न जमीन्दार की
बाँह पकड़ी है या अपनी इच्छा-आकांक्षा-वासना की पूर्ति हेतु अपनी सन्तानों के भावी
जीवन का आत्म-सम्मान छीना है। बिडम्बनाओं से व्यथित होना पश्चाताप नहीं है। देश,
समाज और व्यवस्था की विकृतियों पर चीखना
पश्चाताप नहीं है, मानवता है,
शौर्य और पराक्रम का उद्घोष है। राजकमल चौधरी
ने पूरे जीवन और पूरे लेखन में अपनी मानवता और पराक्रम का ही संकेत दिया है।
उन्होंने ऐसा कोई भी साहित्यिक या गैरसाहित्यिक काम नहीं किया, जिसके कारण उन्हें पश्चाताप करना पड़े। ईमानदार
लेखक, संवेदनशील नागरिक, नैष्ठिक गृहस्थ और बेहतरीन पिता-पति-दोस्त के
रूप में राजकमल चौधरी से बेहतर उदाहरण शायद ही कोई बन सके। दोष केवल उन पर इस
दृष्टि से मढ़ा जा सकता है कि उन्होंने अपने स्वास्थ्य के प्रति सदा अत्याचार ही किया।
आज भी हमारे समाज की स्त्रियों को किसी पुरुष के आश्रय के बिना अपना जीवन
पहाड़ लगता है। नीयत केवल सन्तानोत्पत्ति नहीं रहती। वासनात्मक मनोवेग, जीवन-यापन के साधन की प्राप्ति और
सामाजिक-भौतिक प्रकोप से अपनी सुरक्षा--ये तीन स्थितियाँ अधिकांश स्त्रियों को किसी
पुरुष के प्रति आकर्षित करती हैं। अपवाद हरेक सिद्धान्त के होते हैं। और इनमें से
किसी भी स्थिति के वशीभूत स्त्री, अपने
को एक पुरुष को सौंपकर सुरक्षित महसूस करने लगती हैं। जिस स्त्री के साथ यह
सुरक्षा नहीं है, वह या तो लुटती
रहती है, या बिकती रहती है। पर इससे
अलग किस्म की स्त्रियाँ भी हैं, जिनके
पास ये सारी सुरक्षाएँ हैं, फिर
भी उनके जीवन में थिरता नहीं हैं। ‘हरिद्वासवास’
की मालती, ‘अन्धकार’ के अधिनायक की पत्नी जैसी स्त्रियों के लिए ‘देह’ से
बड़ी उपलब्धि कुछ भी नहीं है और मानव-जीवन के यथार्थ का यह अकाट्य पहलू है।
बेटी, बहन, बीवी के अलावा दुनिया की हर जवान स्त्री को
कामान्ध और क्षुधाकुल शेेर की नजर से देखनेवाले पुरुष आज भी समाज के नीति-रक्षक
हैं। ‘कोपड़’ की चमेला वर्षों से जवान तन और जवान मन का बोझ
ढोती रह गई, उसकी विधवा माँ उसकी
शादी नहीं करवा पाई, समाज कुछ नहीं
करवा पाया, पर जब उसने स्वयं
किसी कमाऊ सद्पुरुष को अपना देवता बना लिया, तो नीति के रक्षक उस पर पंचायत करने बैठ गए। ‘सती धनुकाइन’ की सत्ती गाँव की बेटी है, फिर भी रात भर उसका दरवाजा गाँव के युवक पीटते रहते
हैं और सत्ती अपने शील की रक्षा हेतु काँपती रहती है।
राजकमल चौधरी की कहानियों में पुरुष का चारित्रिक वैविध्य भी विवेच्य है।
एक तरफ ‘वैष्णव’ में विधवा पुत्रवधू के बिस्तर पर खेलते हुए
विधुर श्रीमन्त हैं, जो वैष्णव
हैं, अर्थात् माँस-मछली नहीं
खाते, पर कसाई के हाथों वृद्ध
गाय बेच लेते हैं, दूसरी तरफ ‘मलाहक टोल: एक चित्र’ के तिरपति मिसर हैं, जो साग-सब्जी की तरह विभिन्न जाति, विभिन्न उम्र की स्त्रियों का भोग करना अपने
जीवन का परम कत्र्तव्य मानते हैं। ऐसे चरित्रवाले पुरुष पात्रों से उनकी कहानियाँ
भरी पड़ी हैं।
‘परम प्रिय निरमोही बालम...’ और ‘किछु अलिखित पत्र’--ये दो कहानियाँ मिथिलांचल की स्त्रियों के
जीवन के अन्यतम रहस्य को, उनके
भीतर की निश्छलता, पवित्रता और
समर्पण को इस कारीगरी से प्रस्तुत करती हैं कि पाठकों की समस्त संवेदना जाग्रत हो
उठती है। सहानुभूति का अम्बार लग जाता है। दरअसल कथा लेखन का औचित्य और उसकी सार्थकता
मोटे तौर पर यही है कि उसके माध्यम से एक महत्त्वपूर्ण बात महत्त्वपूर्ण ढंग से
कही जाए, और उससे एक अधिमान्य
उद्देश्य की पूर्ति हो। कहानी की यही विशेेषता उसे शाश्वतता प्रदान करती है। जिस
रचना में रचनाकार अपने द्वारा समर्थित पात्र को पाठकों की सहानुभूति नहीं दिला
पाता, वह उसकी असफल रचना होती
है। राजकमल चौधरी की हर रचना को पाठकों से समर्थन, सहानुभूति और स्वीकृति मिली है। और, इसका एक मात्र कारण है कि उनकी तमाम रचनाओं के
पात्र, वस्तु, शिल्प, भाषा...नागरिक जीवन क्षेत्र से उद्भूत हैं।
उनकी भाषा-शैली पाठकों को बाँध लेती है। घटनाओं की विविधता और उसके
क्षिप्र परिवर्तन के बावजूद, पाठक
के मन पर कोई तनाव नहीं आता, अतीत
बनता परिवेश पाठक के मन में ऊब पैदा नहीं करता। रचना में प्रवेश करते ही पाठक
एक-लय हो जाते हैं। भाषा-शैली का यह विलक्षण रूप, निश्चित रूप से राजकमल की जिन्दगी और उनके लेखन पर पड़े
महानगरीय परिवेश की विविधता और वहाँ की व्यस्तता के प्रभाव को रेखांकित करता है।
उनके जीवन और लेखन का ताल-मेल यहाँ भी दिखाता है। उनके जीवन का असन्तोष, पीड़ा, कुंठा, विद्रोह, क्लिष्टता...कुछ भी उनकी रचनाओं से अलग नहीं
है, और इसी कारण उनके पात्र
अक्सर टूटे हुए, दिग्भ्रमित और
विरूप पाए जाते हैं। हाँ, एक बात
जरूर है, उनके स्त्री-पात्र
अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली, व्यवस्थित
तथा प्रामाणिक हैं। पर-पुरुष-रता स्त्री पात्र कामुक और व्यभिचारिणी रहने के
बावजूद, अपने अन्तस् में नारीत्व
की गरिमा और करुणा को अक्षुण्ण रखती है। इन चरित्रों में भी पत्नीत्व और मातृत्व
के प्रति, एक शिष्ट सामाजिक जीवन
के प्रति लालसा रहती है।
चरित्रों का ऐसा चयन उनकी मार्मिक दृष्टि का प्रतिफल है। इससे यह
प्रतिपादित होता है कि उन्होंने जीवन को, खासतौर से नारी-जीवन को अन्तरंगता और सहृदयता से देखा और जाना है। उसमें
डूबकर उसे अपने अनुभव का अंग बनाया है। बगैर इसके नारी-जीवन का इतना तलस्पर्शी
चित्रण कदापि सम्भव न था।
‘जलते हुए मकान में कुछ लोग’ अथवा ‘ननदि-भाउज’
जैसी कहानियों को समाजोचित नहीं
माननेवाले शुचितावादी पाठकों को रचनाओं का पाठ धर्म-शास्त्र की कसौटी पर नहीं,
समाज-शास्त्र का कसौटी पर करना चाहिए।
राजकमल की रचनाओं में मनुष्य की तीन आदम प्रवृत्तियों--रोटी, सेक्स, सुरक्षा--का उचित सत्कार हुआ है। सेक्स सृष्टि का कारण
है, इसलिए रचनाओं में इसकी चर्चा
से परहेज, कोई सात्त्विक
प्रवृत्ति नहीं, ढोंग होगा।
राजकमल को ऐसा ढोंग पसन्द नहीं था।
उन्होंने मैथिली के वरिष्ठ कथाकार ललित की कहानी ‘मुक्ति’ की कथा-नायिका ‘शेफाली’
के दरबान के साथ भाग जाने की घटना को
अस्वीकार कर; अपनी कहानी में ‘फुलपरासवाली’ को खड़ा किया। देह-व्यापार या देह-उत्सव के पीछे एक
मात्र कारण, अर्थ ही नहीं
होतार्। आर्थिक-सम्पन्नता ही स्त्री के लिए सब कुछ नहीं होती। कई बार सुखी-सम्पन्न
घर की स्त्रियाँ भी, और नहीं कुछ,
तो अपने नौकरों, दरबानों, ड्राइवरों के साथ अपना देह-सम्पर्क बना लेती हैं। अत्यन्त खूबसूरत औरतों
के पति वेश्यागामी हो जाते हैं। सेक्स के प्रति यह झुकाव, हमारे समाज में उत्पन्र्न आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों के
परिणाम हैं। देह की भूख का अपना आवेश और आवेग होता है, जिसमें आचार-शास्त्र के सारे नियम उलट-पुलट जाते हैं।
नई समाज-व्यवस्था में इसका आधिक्य ही हुआ है। इस समाज में यदि ‘फुलपरासवाली’ बहुत हैं, तो ‘शेफाली’ भी असंख्य हैं। यहाँ राजकमल की दृष्टि
एकपक्षीय है। यदि ‘कृष्ण भक्त
कथा’ के ‘गणेश’ राधा-कृष्ण
की जगह मन्दिर में ‘रेशमी’
के साथ खुद खड़ा हो जाना चाहते हैं;
अथवा मन्दिर की मूर्तियों को कोशी की
धारा में बहाकर रेशमी की प्रतीक्षा में पान-बीड़ी की दुकान खोल लेते हैं, ‘हरिद्वारवास’ की मालती, मोहनजी के लिए अपने महाकान्त का और पुनः करिया बाबू के लिए मोहनजी का खून
कर सकती है, तो यह बात एकदम
सम्भव है कि ‘मलाहक टोल: एक
चित्र’ कहानी में अपंग पति ‘तुरन्ता मलाह’ को समर्पित देह को दूसरों से बचाने हेतु ‘केतकी’ तिरपित मिसर का खून कर दे। जीवन जीने की बुनियादी
सुविधाएँ जुटाने के लिए किसी स्त्री का देह-व्यापार चरम विवशता और अटल मानसिक
यातना का भोग है। इस वृत्ति के कत्र्ताओं को इस व्यसन में कोई शर्म नहीं आती,
पर वे यौन-शुचिता के हिमायती बने फिरते
हैं। कामुकतावश किसी असहाय स्त्री का यौन-शोषण करना; किसी पागल स्त्री के साथ समागम करना; प्राण और इज्जत-आबरू बचाने के लिए उजाड़ आसमान
में बाँहें फैलाकर सहायता की भीख माँगती स्त्रियों के साथ बलात्कार करना कोई
मामूली अनाचार नहीं है, एक
मानसिक विकृति है। समाज के इस यथार्थ से जन-जन को जाग्रत करना हर सजग लेखक का धर्म
होना चाहिए। राजकमल की कहानी इसी क्रूर यथार्थ की अनुकृति है।
मनुष्य के अचेतन में रहने वाली प्रेरणाएँ दुर्दमनीय होती हैं, स्वार्थपरायण, तृप्तिकामी, असभ्य, अनगढ़ और क्रूर
होती हैं; और चेतन में रहने वाली
पे्ररणाएँ सभ्य, उदार, सुसंस्कृत तथा उदात्त। अचेतन की प्रेरणाओं को
सभ्यता की विद्रोहिणी समझकर चेतन की प्रेरणाएँ उसे दमित करने का असफल प्रयास करती
हैं। इन्हीं प्रेणाओं को राजकमल की कहानियों में मनोविश्लेषणात्मक स्तर पर
प्रस्तुत किया गया है। चेतन और अचेतन के इस संघर्ष में कभी चेतन की प्रेरणाओं को
विजय मिलती है, तो कभी अचेतन की
प्रेरणाओं को। ‘मुग्धा-विमुग्धा’
कहानी में ‘अलबरवाली’ की हस्तरेखा देखने के बहाने कमल बाबू द्वारा उसका हाथ पकड़ना और दोनों के
मन में इस अवस्था पर अनेक शंकाएँ उत्पन्न होना और अलबरवाली के पुत्र मधुकान्त का,
उन्हें इस अवस्था में देखकर धमकी
देना...सब इन्हीं चेतन-अचेतन की प्रेरणाओं को चित्रित करने में हुआ है। इन रचनाओं
में नारी मनोविज्ञान की गम्भीर परख की जरूरत है। ‘खरीद-बिक्री’ की शरणार्थिणी का वक्तव्य, पुलिस
बाॅगी में संरक्षण हेतु चढ़नेवाली नवोढ़ा सदृश ‘सती धनुकाइन’ की दशा, ‘दमयन्ती-हरण’
की नायिका दम्मो की दशा, ‘सहस्र-मेनका’ की निरमला दीदी की विवशता पर समाज का कटाक्ष, समाज के लोगों की मिथ्या लांक्षणाएँ...सारी
बातें हमारे समाज की घृणित प्रवृत्तियों और अमानवीय कुकर्मों का चित्रण ही तो है।
गो कि राजकमल की कहानियाँ क्षण में घटने वाला एक दुःस्वप्न है। ‘अन्धकार’ कहानी के नायक डाॅक्टर उपेन्द्र इतने विवेकशील हैं,
जो वासना से कोसों दूर हैं, आमन्त्रण के बावजूद उस स्त्री के घर नहीं
पहुँचते, पर कत्र्तव्य बोध
उन्हें वेश्या के रुग्ण पति के इलाज हेतु खींच लाता है; ‘मलाहक टोल: एक चित्र’ कहानी की नायिका कमली इतनी उदार है, कि अपनी देह के सौदे से प्राप्त जेवर,
‘सुन्दर मलाह’ को उसके बेटे के इलाज हेतु दे देती है। ‘ललका पाग’ अति चर्चित कहानी है, मिथिलांचल के वैवाहिक जीवन का, मैथिलानी के चरित्र का, उसके शील-स्वभाव, सहनशीलता का सफलतम चित्र यहाँ उकेरा गया है। ‘तीरु’ का चरित्र प्रखर रूप से खुलकर सामने आया है, उसके सहजात भावों को प्रदर्शित करने में लेखक ने किसी
तरह की कोई कंजूसी नहीं की है।
यथार्थ-चित्रण में लेखक ने माक्र्स, एंगेल्स और फ्रायड की अवधारणाओं का विवेकसम्मत उपयोग
किया है। जीवन के यथार्थ-मूलक चित्र उपस्थित करने में कत्र्तव्य-बोध के प्रति
लेखकीय सावधानी, आत्मचिन्तन की
गहनता, क्रूर यथार्थ के विश्लेषण
के प्रति आग्रह विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। न्यूनतम शब्दों में अधिकतम बात कहने की
कला में उन्हें महारत हासिल थी। शब्द-ब्रह्मा की तरह थोड़े-से उलट-फेर से सर्वथा नए
शब्दों का निर्माण वे करते रहे हैं। उनकी इन्हीं कलात्मकता, विषय-चयन तथा स्थिति-उपस्थापन की नवता के कारण रचनाएँ
सदा प्रभाव का उत्कर्ष पाती रही हैं। मैथिली में प्रकाशित उनकी पहली कहानी ‘अपराजिता’ में कोशी और बागमती नदी के ताण्डव से भयाक्रान्त जनता
की स्थिति का मार्मिक चित्र खींचा गया है। वेद में नदी को मनुष्य की सेविका,
मनुष्य की पत्नी कहा गया है, किन्तु राजकमल की व्यंग्य-पंक्ति है--‘बहुओ भ’ क’ कोशी
आ बागमती अपराजिता अछि (बीवी होकर भी कोशी और बागमती अपराजिता ही है)।’ एक ही कहानी में मिथकीय मान्यता पर आक्षेप,
समाज की दुर्दशा, सरकारी निष्क्रियता, पुलिसिया उत्पात, वैयक्तिक दुर्दशा का यथेष्ट चित्र उपस्थित है, कहानी का प्रभाव चमत्कारपूर्ण और बहुआयामी है।
अन्य कहानियाँ भी इसका अपवाद नहीं। गलित और खण्डित मानवता, घृणित सामाजिक दृश्य, कुत्सित पारस्परिकता इन कृतियों में खुलकर सामने आती
हैं। पेशा और सामाजिक मान्यता से ‘किरतनियाँ’
और चन्नरदास का एक ही स्तर और धरातल है,
‘किरतनियाँ’ पर चन्नरदास की कामुक दृष्टि अटकी रहती है, वह प्रयास करता है कि कब उसकी नानी मरे,
और खुलेआम चौराहे पर उसकी गदराई जवानी
का उपभोग वह करे। ‘एकटा
चम्पाकली: एकटा विषधर’ कहानी के
दशरथ झा, चम्पाकली-सी कोमल अपनी
तरुणी बेटी चम्पा को सत्तर वर्षीय वृद्ध शशिबाबू के हाथ किस कारण सौंपना चाहते हैं;
चम्पा से विवाह करने का प्रस्ताव
शशिबाबू के समक्ष रखकर दशरथ झा की पत्नी जब शशिबाबू के सामने खड़ी होती है, तो उस स्त्री में उन्हें किसी भयावह विषधर का
बोध क्यों होता है; चाय लाते समय
चम्पा का हाथ क्यों थरथराने लगता है; ललाट से पसीना क्यों चलने लगता है; अपने माँ-बाप को शशिबाबू की अर्चना में भक्ति-भाव से
तत्पर देखकर चम्पा के मन में किस कारण हजारों सवाल उठते हैं?--ये सारे सवाल, सारी प्रक्रियाएँ मनोवैज्ञानिक सत्य और सामाजिक
विसंगतियों की ही उपज हैं। राजकमल की रचनाओं में चरित-नायक का मनोविश्लेषण उनके
कौशल की मूलभूत विशेषता है।
‘ननदि-भाउज’ में पदुमा
सर्प-दंश से मृत बंगट के साथ रति-प्रसंग करने के कारण आक्रान्त है, पर रामगंजवाली बंगट के नहीं मिल पाने की आशंका
से चिन्तित। शहरी चटक-मटक में रंगी युवती अस्पताल की नर्स बरमा को देखकर बाबू साहब,
भोग की लिप्सा में उसके साथ शादी करने
को लालायित हो उठते हैं, और अपने
सारे संस्कार गर्त में डाल देते हैं। उस युवती के कहने पर मृग-मरीचिका में अपनी
टीक कटवा लेते हैं; और, जब कामुकता की खुमारी टूटती है, तो अपनी कटी टीक की गाँठ खोजने घाट की तरफ
दौड़ते हैं। ये सारी मानसिक अभिक्रियाएँ समाज के विविधमुखी जीवन-चक्र से उद्भूत
हैं। हमारे इसी समाज में कली-सी बेटी चम्पा को बेच डालने को आतुर रामगंजवाली है,
अपने पवित्र आचरण पर निराधार लांछन सहती
‘सहस्रमेनका’ की बहन है; श्वसुर के क्रोध और उसके वैष्णव होने की घोषणा का
प्रतिकार करती, ज्वालामुखी की
तरह फूटती ‘वैष्णव’ कथा की विधवा वधू भी है। इन वैविध्यों से
परिपूर्ण राजकमल की कहानियाँ सर्वत्र वस्तु, शिल्प, विद्रोहात्मक
स्वर और दोटूकपन के कारण अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं।
इन्हीं स्थितियों के साथ राजकमल चौधरी की मैथिली कहानियाँ गागर में सागर
भरती हुई अपनी शाश्वतता प्रमाणित करती हैं और विमर्श की नई व्याख्या को आमन्त्रण
देती हैं। आज विश्व-साहित्य में नारी लेखन और नारी जीवन पर जितनी भी बहसें हो रही
हैं, उसके सारे संकेत राजकमल के
कथा लेखन में मौजूद हैं। पर, हम
भारतीयों को तो अपनी उपलब्धियों पर गौरवान्वित होने भी नहीं आता। पुरुष मनोवृत्ति
के बरक्स स्त्री जीवन के इतने सूक्ष्म विश्लेषण की आवश्यकता हमें पर्याप्त समय
पूर्व ही महसूस करनी चाहिए थी। पाठकों की सहानुभूति तो उनकी रचनाओं को तब भी मिली
थी, विचार और विश्लेषण के
ठेकेदारों को, तब शायद गुटबाजी
और राजनीति से फुर्सत नहीं मिलती थी, कदाचित अब मिले।
इतना कुछ कह जाने के बाद भी यह कहने की आवश्यकता रह ही जाती है कि राजकमल चौधरी
के साहित्य की वृहत् व्याख्या की अपेक्षा अभी बची हुई है।
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