नीम रोशनी में देश-दशा : दिखे पर न दिखे
प्रखर राजनीतिक चेतना, गहन इतिहास-बोध, संवेदनशील समाज-बोध, तत्त्वान्वेषी संस्कृति-बोध और अनुरक्त मानवीयता से सम्पन्न कवि श्री मदन कश्यप का अपने समय के सामुदायिक परिवेश से सघन रचनात्मक सरोकार है। इन अवबोधों के बिना कोई बड़ा कवि तो हो नहीं सकता। मदन कश्यप बड़े कवि हैं। केदारनाथ सिंह और कुँअर नारायण की बाद वाली पीढ़ी के वृहत्त्रयी हिन्दी कवि --राजेश जोशी, विनोद कुमार शुक्ल और मदन कश्यप ही हैं। मंगलेश डबराल के रहते मैं वृहत्चतुष्टय की गणना करता था।
उल्लेखनीय है कि बड़ा कवि कोई, अपनी कविताओं और संकलनों की बड़ी गिनती से नहीं; रचनात्मक दृष्टिकोण से होता है। क्योंकि दृष्टिकोण से ही रचनाओं में विषय-विस्तार और कथ्य-संघनन होता है; शिल्प और सम्प्रेषण प्रभावशाली होता है; मूल्य-बोध दृढ़ होता है; चेतना उन्नत होती है; जिसके बिना कविता, कविता नहीं, वक्तव्य हो जाती है। अपने समय के ज्वलन्त प्रश्नों का सामना करना हर विशिष्ट कवि का धर्म और दायित्व होता है। इतिहास, समाज और संस्कृति की सूक्ष्मता जाने बिना किसी की राजनीतिक चेतना साफ नहीं होती, वह सामुदायिक परिवेश की सूक्ष्मता जान नहीं पाता। इसी सूक्ष्मता के अवबोध में -- प्रेम, क्रान्ति, घृणा, युद्ध, अहंकार, वर्चस्व...सब कुछ आता है।
समकालीन हिन्दी कविता के ऐसे अनिवार्य और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कवि, मदन कश्यप का जन्म भारतीय स्वाधीनता के पौने सात बरस बाद, 29 मई, 1954 को, अपने ननिहाल (भगवानपुर रत्ती, वैशाली, बिहार) में हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पैतृक गाँव (फुलाढ़) के प्राथमिक स्कूल में शुरू हुई। मात्र सात बरस की कच्ची आयु में, सन् 1961 के दुर्गापूजा के आसपास, उनकी माँ का निधन हो गया। सन् 1963 से उन्होंने ननिहाल में रहकर हायर सेकेण्डरी तक की शिक्षा हासिल की और सन् 1970 में बिहार विश्वविद्यालय मुजफ़्फरपुर में बी.एस-सी. में प्रवेश लिया। अगले ही वर्ष वे अपनी ज्ञान-शाखा बदलकर कला संकाय में आ गए और सन् 1976 में वहीं से एम.ए. की डिग्री हासिल की। सन् 1978 में कुछ महीनों के लिए गुरुनानक कॉलेज धनबाद में अध्यापन भी किया। सन् 1979 में धनबाद से प्रकाशित दैनिक पत्र 'आवाज़' से पत्रकारिता की शुरुआत की। सन् 1981 में हिन्दुस्तान ज़िंक लि. धनबाद में हिन्दी अनुवादक की नौकरी की, सन् 1987 में भारत वैगन एण्ड इंजी कं. लि. (पटना) में राजभाषा कार्यपालक हुए और सन् 2000 में राजभाषा उपप्रबन्धक पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक-सामाजिक विषयों पर वैचारिक लेखन करने लगे।
मदन कश्यप की अब तक कुल छह कविता-संग्रह --'लेकिन उदास है पृथ्वी' (सन् 1992 एवं 2019), 'नीम रोशनी में' (सन् 2000), 'कुरुज' (सन् 2006), 'दूर तक चुप्पी' (सन् 2014), 'अपना ही देश' (सन् 2016) और 'पनसोखा है इन्द्रधनुष' (सन् 2019); और आलेखों/टिप्पणियों के तीन संकलन -- 'मतभेद' (सन् 2002), 'लहूलुहान लोकतन्त्र' (सन् 2006), 'राष्ट्रवाद का संकट' (सन् 2014), 'कोरोना डायरी' (सन् 2023) और 'बीजू आदमी' (सन् 2023) प्रकाशित हैं। इनके अलावा 'कवि ने कहा' काव्य-शृंखला में उनकी चुनी हुई कविताओं का भी एक संग्रह प्रकाशित है। इन छहो संग्रहों में कुल 298 कविताएँ संकलित हैं; जिनमें से बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में 17, नौवें दशक में 58, अन्तिम दशक में 60, इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक में 80 और दूसरे दशक में 67 कविताएँ है। कुल सोलह कविताओं का रचनाकाल अज्ञात है।
मात्र 15 वर्ष की आयु में सन् 1969 में ही 'महात्मा गाँधी की विचारधारा' पर उनका आलेख (पहली प्रकाशित रचना) स्कूल-पत्रिका में प्रकाशित हुआ। साहित्य सेवा के लिए वे शमशेर सम्मान, केदार सम्मान (सन् 2015), बिहार सरकार राजभाषा विभाग नागार्जुन पुरस्कार (सन् 2016), बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान, बेंगलुरु की शब्द संस्था का 'अज्ञेय शब्द शिखर सम्मान' (सन् 2022) जैसे अनेक सम्मानों से सम्मानित किए गए हैं। उनकी ढेरो कविताएँ अंग्रेजी समेत कई भारतीय भाषाओं के अलावा फ्रेंच एवं अन्य विदेशी भाषाओं में अनूदित, प्रशंसित एवं संकलनों में संकलित हैं।
व्यावहारिक तथ्य के अनुसार बालापन में आई मातृविहीनता की पीड़ा मनुष्य को घनीभूत अवसाद के चंगुल में दबोच लेता है; पर वही अवसाद उसकी चेतना और संवेदना को इतना ऊर्ध्वमुखी कर देता है कि मातृ-प्रेम के सुख से वंचित वह जातक पूरे परिवेश के प्राणियों के लिए प्रेम का अजस्र स्रोत बन जाता है। मदन कश्यप की पूरी कविताई अकारण ही प्रेम, क्रान्ति और संघर्ष का आगार नहीं बन गई है। उनकी काव्य-दृष्टि के ओर-छोर तलाशनेवाले भावकों को उनके बाल्यकाल की उस मनोदशा की पहचान करनी होगी, जिसके कारण अल्पायु में ही वे अपनी जीवन-दृष्टि निर्मित करने लगे थे और ऊर्ध्वोन्मुखी चेतना का विस्तार करने लगे थे। दारुण झंझावातों का सामना करते हुए भी, श्रमशील मनुष्य की आकांक्षाओं से उनका सरोकार सदैव बना रहा। माँ के परोक्ष होने के बाद नवम्बर 1961 से 1962 तक वे झरिया (धनबाद) की एक कोलियरी गोलकडीह में अपने चचेरे नाना के घर लगभग एक वर्ष तक रहे। ननिहाल के लोगों की ऐसी तत्परता से अर्थ लगाना आसान है कि उनकी माँ अपने मैके की दुलारी बेटी-भतीजी-बहन रही होंगी; और इसलिए मदन कश्यप अपने नानाओं, नानियों, मौसियों, मामाओं के अतिशय दुलारे हुए। ननिहालवालों की ओर से ऐसी व्यवस्था निश्चय ही उनके मनोजगत से मातृविहीनता का अवसाद मिटाने के लिए किया गया होगा। पर मातृ-विछोह का अवसाद किसी भी उद्योग से कहाँ मिट पाता है! मातृशोक की पीड़ा मदन कश्यप के मनोजगत को सदैव ही कुरेदती रही। कुछ इस तरह कि गोलकडीह से अपने ननिहाल भगवानपुर आने के बाद सन् 1963 में वसन्त ऋतु में कोकिल की कूक सुनकर प्रश्न किया – 'कोकिल तुम आ गई लौटकर, मेरी माँ कब आएगी/हँसते-खेलते आया वसन्त, मेरी खुशियाँ कब आएगी।' नौ बरस से भी कम आयु के बालक द्वारा कोकिल से पूछे गए इस वेदनामय काव्य-प्रश्न का उत्तर तो किसी के पास क्या होगा; किन्तु बालक मदन कश्यप की काव्य-संवेदना जाग्रत हो उठी। 'माँ की तस्वीर' (कुरुज, पृ. 13) और 'माँ के गीत' (नीम रोशनी में, पृ. 14) शीर्षक उनकी कविताओं (रचनाकाल क्रमश: सन् 1988, 1992) में रेखांकित यह काव्य-संवेदना भावकों को आज भी विह्वल कर देती है। माँ के लिए उनकी विह्वलता वैसे अनेक कविताओं में उपस्थित हुई है; पर इन दोनो कविताओं में चित्रित माँ के साथ संवेदना भी धन्य हो उठती है। बचपन में ही कहीं देखी वह माँ की इकलौती तस्वीर अब कवि के पास नहीं है, ढूँढने पर उन्हें पिता के सन्दूक में कई मामूली कागजों के साथ जर-जमीन तथा बँटवारे के दस्तावेज़ बेशक मिले, वह तस्वीर नहीं मिली। वैसे उनके '...ज़ेहन में/अब भी कुछ धुँधली तस्वीरें हैं माँ की/पलकें मूँदने पर आहिस्ता-आहिस्ता...।' उनकी आँखों में उनकी छाया उतरती है। कवि डॉक्टर का वह चाकू देखना चाहता है, जिससे हो रही शल्य-क्रिया के दौरान माँ गत हो गईं; लेकिन उन्हें उस डॉक्टर का नाम तक नहीं मालूम; पिता से पूछने पर भी कुछ हासिल नहीं हुआ। देखते-देखते समय की क्रूर गति और विस्मृति की निरन्तरता में सारी मनोहारी स्मृतियाँ मिटती गईं। 'धीरे-धीरे मिटती रहीं माँ की निशानियाँ/कुछ साड़ियाँ थीं जो शादी में बहन को दे दी गईं/बक्सा टीन का था जंग लगते-लगते टूट गया/कुछ गहने थे जिनके बारे में भी पिता कुछ नहीं बताते...।' पिता से उन्हें वैसे भी कोई बहुत आश नहीं थी, क्योंकि -- 'पिता ने जब माँ को ही नहीं सँभाला/तो भला तस्वीर को क्या सँभालते...।' संवेदनात्मक हृदय से पढ़ते हुए ही इस कविता के सही मर्म तक पहुँच पाना सम्भव है। पिता के व्यवहारों पर ध्वनित यह चिढ़ पिता के बारे में व्यक्त कवि-व्यक्तित्व का चिढ़ नहीं है; या कि पिता के समग्र व्यक्तित्व का मूल्यांकन नहीं है; बल्कि मातृ-ममत्व से क्रूरतापूर्वक विलग हुए सात बरस के बालक की संवेदना और अपेक्षा की अनुरक्षण-प्रक्रिया का लेखा-जोखा है। एक बालक, जो अपनी माँ को 'पृथ्वी की सबसे सुन्दर स्त्री' (लेकिन उदास है पृथ्वी/पृ. 16) मानता है; माँ के न रहने पर पिता से ही सारी अपेक्षाएँ रखेगा। पिता की व्यावहारिकता एवं अन्य जिम्मेदारियाँ अपनी जगह जायज हो सकती है; पर जागतिक सत्य यही है कि मातृ-ममत्व से विलग हुए बालक की संवेदनाएँ साबुन के बुलबुले की तरह बात-बात में फूट जाती हैं। इस कविता में कवि ने पुंशत्ववादी उस वृत्ति पर भी तीक्ष्ण व्यंग्य किया है, जिसके मद में वह अपनी अर्द्धांगिनी की कोई तस्वीर सुरक्षित नहीं रख पाता, अलबत्ता अपने सन्दूक में चालीस वर्ष पुरानी फिल्मी पत्रिकाएँ और छियालीस वर्ष पुराना डाक-टिकट सुरक्षित रख लेता है। इस कविता की दिवंगत स्त्री, सात बरस के एक बालक की माँ और पुश्तैनी सम्पत्ति की मुश्तैदी से रक्षा करते हुए एक पुरुष की अर्द्धंगिनी थीं। वह स्त्री अपने लिए तो कुछ नहीं, पर इन दो पुरुषों के लिए नेह और ममत्व का अक्षय भण्डार थीं। पर सोचने की बात है कि ऐसा क्या है कि उनके परोक्ष होते ही उनकी स्मृति की सरिता एक के मन में निरन्तर सूखती गई, दूसरे के मन में निरन्तर उमड़ती गई।
चार वर्ष बाद फिर से मदन कश्यप 'माँ के गीत' की स्मृति में उद्बुद्ध हुए। उम्मीदों को दुलार से पालती हुई अपनी माँ की बड़ी-बड़ी आँखें, उन्हें विपन्नता में भी सम्पन्न दिखीं। व्याकरणविदों की दृष्टि में समय के तीन खण्ड होते हैं, भूत-वर्तमान-भविष्यत; पर जीवन-क्रिया में वर्तमान का कोई अर्थ नहीं होता; जिसे वर्तमान समझकर जीना शुरू करें, निमेष मात्र में अतीत हो जाता है। मनुष्य के पास वस्तुत: दो ही काल-खण्ड होते हैं -- अतीत और भविष्य। चिन्तनशील मस्तिष्क में दो ही स्थितियाँ होती हैं -- अतीत की स्मृतियाँ और भविष्य के सपने। कुटुम्बों ने मदन कश्यप के बाल-मन से मातृ-शोक की पीड़ा को निर्मूल करने की बड़ी चेष्टा की; पर उनके किसी उद्यम को सफलता नहीं मिली, बढ़ती उम्र के साथ मदन कश्यप की स्मृतियों और सपनों ने उनकी तर्कशीलता को इतना ठोस बना दिया कि उनकी सारी सृजनशीलता प्राणि, प्रकृति और परिवेश की सहजता की चिन्ता करने लगी। बचपन से ही वे जिस ममत्व से वंचित रहे, वैसा ममत्व उन्हें पूरी दुनिया से हो गया। परिवेश की प्रकृतावस्था को लांछित-बाधित करनेवाले आततायियों और उनके कीर्तन में लीन-तल्लीन बौद्धिकों की क्षुद्रता पर वे बेहिसाब क्रोधित हो उठे। ध्यातव्य है कि इस क्रोध के बावजूद उनकी ऊर्जा सदैव सकारात्मक उद्यमों की तलाश करती रही; जीवन की सहजता के प्रेमियों और मनुष्यता के रक्षकों के प्रति वे सदैव अनुरक्त बने रहे। माँ के लाड़-दुलार में सुने 'ढेर सारे गीतों' की स्मृतियों से भी उन्होंने अपनी जीवन-दृष्टि की नींव पुख्ता की। उनकी माँ के पास '...महल नहीं था/पर गीत थे कोठे-अटारियों के/गीत थे सोने की थाली के...।' उन गीतों में माँ का बेटा जब कभी रूठकर नदी के पार चला जाता, चाँदी की नाव लेकर मनाने पिता आते, बेटा सोने का मुकुट पहने चन्दन की पाटी पर मोती-से अक्षर लिखता, उन गीतों में बेटे के पाँव कभी नंगे नहीं होते। गीतों में बेटे की अपनी पूरी-की-पूरी पृथ्वी होती, अपना एक तारामण्डल होता, बेटे का सागर भी होता, किला भी होता, किले के सारे द्वार खुले होते, गीतों में बेटे के पाँव कभी किसी को देख कर काँपते नहीं, बेटा राक्षस को मार कर राजकुमारी से ब्याह कर लेता, ढेर सारा धन ले आता -- 'जीवन में चाहे हर बार जीतता हो/अत्याचारी कभी नहीं जीत पाता था गीतों में।' 'माँ के गीत' के सहारे इस कविता में कवि ने स्मृति, स्वप्न, आचार और जीवन-दर्शन का ऐसा छतनार उगाया है कि जीवन-क्रिया के एक-एक तार निखर उठे हैं। अपने रचाव में यह कविता 'माँ' के बारे में अकेले मदन कश्यप की संवेदना हो सकती है; किन्तु अपनी प्रभावान्विति में यह कविता दुनिया भर की माँओं और माँ के ममत्वों की परिभाषा है। सचमुच, 'माँ की आँखों में गीतों का महासमुद्र' होता है और सचमुच वह 'दुख को भी गा लेती है।' माँ की स्मृतियों में 'एक-एक अनुष्ठान के लिए कई-कई गीत' होते हैं और उसकी युक्तियों में 'कई-कई अनुष्ठानों के लिए एक ही गीत' होते हैं।
मदन कश्यप प्रेम के कवि हैं; घृणा, युद्ध, अहंकार और वर्चस्व से उन्हें परहेज है। उनकी जीवन-दृष्टि उदार है। अपनी समकालीनता को भी वे आदिम सभ्यता से और क्षेत्रीयता को वैश्विकता से अविच्छिन्न नहीं मानते। उल्लेख सुसंगत होगा कि क्रान्ति, प्रेम का ही अवयव है, प्रेम के अवरोधों को दूर हटाने के लिए क्रान्ति की जाती है; बेशक वह भौतिक प्रेम हो या नैसर्गिक, मनुष्य-प्रेम हो या राष्ट्र-प्रेम। 'स्त्री-पुरुष' ('पनसोख है इन्द्रधनुष',पृ. 9, रचनाकाल सन् 2015) शीर्षक कविता में मदन कश्यप ने स्वीकार भी किया है कि 'हमें प्यार की उतनी ही जरूरत थी/जितनी क्रान्ति की/...क्रान्ति की तरह प्यार पर भी हमारा बस नहीं है।' उनकी कविताओं में दर्ज क्रान्ति के संकेतों की सिद्धि भी प्रेम के परिपाक से ही होती है। मनुष्य, समाज, मूल्य, नीति, विवेक, राष्ट्र और विश्व के जिस किसी प्रसंग में जहाँ कहीं असंगत गतिविधियाँ उन्हें दिखीं, अपनी कविताओं में उन्होंने धज्जियाँ उड़ाते हुए व्यंग्य-प्रहार किया है, और हर जगह उनका प्रेम ही प्रकट हुआ।
उन्हें अपने आत्म या अपनी भामिनी या अपनी सन्तानों से ही नहीं, पूरी दुनिया से प्रेम है। उन्हें केवल अपने घर नहीं, दुनिया के हर जीव-जन्तु के लिए एक सुरक्षित घर, व्यवस्थित परवरिश और सकारात्मक सोच की चिन्ता रहती है। उन्हें केवल अपनी ही माँ नहीं, दुनिया के हर जीव-जन्तुओं के मातृत्व की रक्षा की चिन्ता रहती है। उनकी कविताओं के अवगाहन से उनकी यही धारणा स्पष्ट होती है कि मनुष्य प्रेम भर करना सीख ले, तो बाकी सब कुछ उन्हें प्रेम सिखा देगा। प्रेम मिल जाए, तो मनुष्य को क्रान्ति का प्रयोजन नहीं होगा; और इससे इतर प्रसंग तो फिर कोश में आएँगे ही नहीं। स्पष्टत: उनका यह 'प्रेम' केवल शरीरी नहीं है। यहाँ उनके छठे कविता संग्रह 'पनसोख है इन्द्रधनुष' में संकलित दूसरी कविता 'एक अधूरी प्रेम कविता' का पाठ-विश्लेषण प्रासंगिक होगा। इस कविता का लेखन-काल संग्रह में उल्लिखित नहीं है, पर लिखे जाने के तत्काल बाद यह श्रेष्ठ कविता अक्टूबर 2015 में प्रकाशित 'तद्भव' पत्रिका के बत्तीसवें अंक में छपी थी। भारतीय परिवेश से पूरी तरह अवगत दुनिया का हर संवेदनशील प्राणी इस दौर में हो रहे घृणा, द्रोह, आघात, छद्म, वंचना के अमानवीय उत्सव से परिचित होगा।
इस अधूरी प्रेम कविता में कवि अपने सारे परुष आचार त्यागकर अपने प्रेमाधार के समक्ष उपस्थित हैं। अपने सारे उद्यमों का लेखा-जोखा और अनजाने में की गई सारी भूलों के लिए स्वीकारोक्ति व्यक्त करते हैं। इस स्वीकारोक्ति में उनका 'मैं' पूर्वजों की सम्पूर्ण शृंखला का प्रतीक है, क्योंकि इस कविता की अधूरी प्रेम-कथा उनकी युवावस्था में नहीं, हड़प्पा काल की सिन्धु घाटी सभ्यता के ऐतिहासिक स्थल, राजस्थान के कालीबंगा[1] और सिन्ध में अवस्थित काँस्ययुगीन मुअनजोदड़ो[2] से शुरू हुई है। लगभग दो सौ दो पंक्तियों की इस कविता में कवि ने प्रेम के इतने रूप दिखाए हैं, कि प्रेम की विलक्षण परिभाषा निर्धारित हो गई है। प्रत्यक्ष समय के दारुण दैन्य और मानवीयता की अधोगति देखकर उन्होंने सिन्धु घाटी सम्यता के आदिम रूप का स्मरण किया है, और पुरा-काल के सारे दर्द से निरपेक्ष हो गए हैं। अपनी सभ्यता से प्रेम करते हुए उन्हें स्मरण आया है कि -- 'जब कच्ची ईंटों वाले/कालीबंगा के मकानों से/भागे थे हम/मोअनजोदड़ो की ओर/तब जो पाँव हमारे हुए थे लहूलुहान/आज भी टीसते हैं/रात के तीसरे पहर में/...कम नहीं हुआ दर्द ऋचाओं के पाठ से/बुद्ध की करुणा के लेप का असर भी/बहुत थोड़े दिनों तक रहा/और अपने पुरखे महावीर को तो/हमने पहले ही निर्वासित कर दिया था।'
दुनिया की सबसे प्राचीन, अपनी सभ्यता के प्रेम में, कवि ऐसे समय के लिए दुनिया की सबसे प्राचीन प्रेम-कविता उत्कीर्ण करना चाह रहे हैं, जब कालीबंगा से मुअनजोदड़ो तक के प्रवासन में मनुष्यों के लहूलुहान पाँव की टीस को सहलाने में वैदिक सभ्यता[3] की ऋचाओं के गान अपर्याप्त साबित हुए थे, महात्मा बुद्ध[4] की अमिय-वाणी भी बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकी, महावीर जैन तो खैर याद भी नहीं रखे गए। गौर करना होगा कि सनातन धर्म के जिन आडम्बरों और वंशानुगत अहमन्यताओं से उबारने का उद्यम बौद्ध-धर्म के विचारों में था, उस वैचारिकता के प्रति अस्वीकृति-भाव से भरे यूरोप ने ईर्ष्यावश अपने यहाँ 'अपने खास' प्रबोधन युग के शुरुआत की घोषणा लम्बे समय बाद सतरहवीं शताब्दी के अधोकाल में आकर सन् 1650-1780 के दशक तक में की। पश्चिमी यूरोप के सांस्कृतिक एवं बौद्धिक वर्ग ने इस अवधि में परम्परा से हटकर तर्क, विश्लेषण तथा वैयक्तिक स्वातन्त्र्य पर बल दिया। ऐसे प्रबोधन या कि दार्शनिक प्रवचन की अवधि भारतीय सभ्यता में ई.पू. छठी शताब्दी में, अर्थात् महात्मा बुद्ध के समय में ही आ गई थी; और दुनिया के कई देश इस वैचारिकता के अनूदित संस्करण से अपनी सभ्यता/व्यवस्था सुधारने में लग गए थे। इस कविता की पृष्ठभूमि में कवि को यह सब कुछ याद आता है, अपनी प्राचीन सभ्यता का वह भव्य-दिव्य स्वरूप, सर्वधर्म समन्वय की धारणा, मानव-मूल्य की पहचान-पद्धति, यहाँ तक की 'अप्प दीपो भव' वाले आचरण के टूटते डोर तक याद आते हैं। इसीलिए सम्भवत: उस प्राचीन सभ्यता का अपनी प्रेमिका के रूप में मानवीकरण कर उसके प्रेम में लीन हो जाते हैं; कुछ इस तरह कि उसके प्रेम और अनुराग की स्वीकृति में अपनी पहचान तय कर बैठते हैं। अपनी प्रेमिका को किंचित उपालम्भ भी देते हैं कि हे सभ्यते! तुम्हें याद हो कि न हो, पर फूलों के गहनों और छालों के वस्त्रों से जब आगे बढ़ने लगी थी हमारी दुनिया, हमने (अर्थात् हमारे पूर्वजों ने) ही खोदा था पहला सीढ़ीदार कुआँ और जल की सतह के पास तुम्हारे बैठने की जगह बनाई थी, जिस पत्थर पर लेटकर तुम पानी की पीठ थपथपाया करती थी; मैं उसे अब भी तलाश रहा हूँ। सभ्यता द्वारा नागरिक उद्यम के प्रतिफल की पीठ थपथपाने, या प्रेमिका द्वारा प्रेमी की पीठ सहलाने को एकमेक करते हुए कवि ने अपनी जैसी विराट दृष्टि का परिचय दिया है, वह अनुपम है। यहाँ 'कुआँ खोदना' और 'जल-तल को थपथपाना' भी एक गूढ़ बिम्ब की तरह है। भारतीय लोक-परिवेश में ऐसे पदबन्ध मुहावरों की तरह प्रयुक्त होते हैं। गौरतलब है कि कुआँ खोदना, सामुदायिक हित में घोर श्रमसाध्य कार्य करना है, निर्माण की चिन्ता और उद्यम का प्रतीक है; इसी तरह जल-तल थपथपाना, प्रेमानुराग है, या कोई काम न रहने पर अनुराग से समय बिताने का प्रयास। ऐसे प्रतिबिम्बन में कवि की उस पीड़ा का अनुमान सहज है, जो उन्हें स्मरण कराता है कि हमारी सभ्यता प्रेम और निर्माण में इस तरह सन्नद्ध थी, कि जनहित के सिवा सारा कुछ उसके लिए निष्प्रयोजनीय और अकर्तव्य था; उसी शृंखला की वर्तमान श्रेणी में ऐसा जनाचार कैसे आया कि वह विध्वंस, घृणा और किसी न किए गए अपराधों के लिए प्रतिशोध-भाव से भर गया। अपने समय की ध्वंस-लीला (छवि-ध्वंस, इतिहास-ध्वंस, विरासत-ध्वंस, संस्कृति-ध्वंस, ज्ञान-ध्वंस, नीति-विवेक-ध्वंस) और मूर्ति-भंजकता देखकर पूर्वजों के निर्माण-कर्म और निर्मिति को नेह से सहलानेवाली व्यवस्था को स्मरण करना कवि की गहन पीड़ा का परिचायक है। कवि जानते हैं कि निर्माण-वृत्ति इतिहास रचती है, ध्वंस-वृत्ति विस्मृति की कोख में समा जाती है। जन-जन को ज्ञात है कि क्रूरता और अत्याचार के कारण कंस-चाणूर-मुष्टिक-पूतना[5] या धनानन्द[6] का नामोल्लेख आज भी कोई अलग से नहीं करता। या तो अत्याचारी के रूप में करता है, या कृष्ण-बलराम[7] और चाणक्य[8]/चन्द्रगुप्त[9] के साथ करता है।
ऐसा भी नहीं कि मदन कश्यप अपने अतीत से इतने मोहाविष्ट हैं कि उन्हें उनमें कुछ व्यतिक्रम दिखता ही नहीं; अतीत के कुछेक मतिभ्रंशों का उन्हें भी क्लेश है। उन्हें दिखता है कि हमारे जिन पूर्वजों की नीयत सर्वदा जागती आँखों से सपना देखने की होती थी, अपने किए के इतिहासीकरण की कभी कोई लिप्सा नहीं होती थी, उन्हीं पूर्वजों ने लम्बे समय तक व्रात्यों के जीवन-दशा की सुधि क्यों नहीं ली, महावीर/बुद्ध जैसे दार्शनिक क्यों बिसार दिए गए। पर उन्हें आज की दुर्वह पीड़ा अधिक सताती है, जब वे अपने देश के 'लीलाधरों' में इतिहास मिटाकर अपना नाम उत्कीर्ण करने की बेताबी देखते हैं। प्रतिशोध की खूनी लिप्सा से बौखलाए सेनापतियों की दहाड़-हुँकार सुनते हैं। इतिहास-हन्ता बने इन 'कर्मवीरों' के आचरण पर उनकी धारणा जायज है कि हजारों वर्ष पुराने सच अचानक से इस नई सदी में सपने में तब्दील होने लगे; इस ख़तरनाक समय में सपनों के सच होने की कोई जगह नहीं रही, यहाँ सच को सपना बनाने का उद्योग चल पड़ा।
उल्लेखनीय है कि शरीर की चर्चा करते हुए भी मदन कश्यप की यह अनूठी कविता किसी शरीरी प्रेम की कविता नहीं है। इसमें प्रेम के उज्ज्वल और प्रभावी स्वरूप की पहचान बनाई गई है, यहाँ प्रेम की अमूर्तता को विवरण की आकृति मिली है। पर मजे की बात यह है कि इस विवरण से भी कोई आकृति मूर्त नहीं होती, बस अनुभव का एक संसार रच जाता है। यह प्रेम व्यक्ति, समूह, राष्ट्र, मानवीयता, सामूहिकता, सभ्यता, प्रकृति...हर उपादान से प्रेम का सन्देश देती है। पर सन् 2015 आते-आते देश के सामुदायिक परिवेश से प्रेम तथ्यत: इस तरह लुप्त हुआ, घृणा और प्रतिशोध का भाव इस तरह फैला, निर्मिति त्यागकर विध्वंस की ऐसी लिप्सा सवार हुई कि कवि को इतिहास के अन्धकार और सभ्यता की अतल नींव तक जाने की इच्छा बलवती हो गई। बीसवीं-इक्कीसवीं सदी के जीवन-प्रेमी इस कवि नागरिक को देव-दनुज, दिति-अदिति, किसी के वंशज होने का अहंकार नहीं पालना है; वे न तो पुरुरवा के दम्भ पसन्द करते, न ही दुष्यन्त की अहमन्यता, न ययाति का यौवन-मद, न देवव्रत की इच्छा-मृत्यु; वे पूर्वजों की सारी दुष्कृतियों से परांग्मुख हैं; वे मनुष्य हैं, पूर्वजों की कुछेक अनचाही भूलों के स्वीकृति-बोध के बावजूद, उन्हें अपने आत्मबल पर आस्था है, विवेकशील प्रयत्नों की लालसा है। वे कहते हैं कि 'मैं तो बस जीना चाहता हूँ अपने हिस्से की जिन्दगी/करना चाहता हूँ अपने हिस्से का प्यार/लड़ना चाहता हूँ अपने हिस्से की जंग/जंग, हिंसा से जिसका रिश्ता अनिवार्य नहीं होता है/जंग जो सिर्फ जीतने के लिए नहीं लड़ी जाती है।'
इस कविता के अगले अंश में अपने अस्तित्व का सारा श्रेय अपने प्रेमाधार (अर्थात् सभ्यता) को देते हुए कवि ने प्रेम का ऐसा सन्दर्श रचा कि अमूर्त सभ्यता और शरीरी प्रेमिका का भेद मिट गया। मनोरम कौशल से प्रेमानुभूति को साकार करने की इस शैली को अपनी अनुभूति में रमाया तो जा सकता है, इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है -- 'पहली बार तुम्हारे होंठों पर होंठ रखते हुए/मैंने अपने होंठों का होना भी महसूस किया था/वह मेरी ही आँखें थीं तुम्हें निहारती हुई/मेरी ही साँसें थीं तुम्हें छूती हुई/मेरी ही हथेलियाँ थीं/जितनी नर्म/उतनी ही कठोर/...जब हमने कसा था एक दूसरे को बाँहों में/तो वह जकड़न नहीं/मुक्ति थी देह और आत्मा की/अचानक झरने की शक्ल में फूट पड़ा था/चट्टानों के बीच सदियों से ठहरा जल/...कुछ पल के लिए/ईश्वर ने त्याग दिया था स्रष्टा का भाव/और मुक्त कर दिया था मनुष्य को/रचने के लिए प्यार!' प्रेम में ऐसा समर्पण विलक्षण है। ऐसे विलक्षण वर्णन का कोई वर्णन नहीं हो सकता, अनुभूति हो सकती है। साहित्यिक वातावरण में प्रेम के ऐसे समर्पण का स्वरूप विद्यापति (तोहें जनमि पुनि तोहें समाओब सागर लहरि समाना) के सिवा अन्यत्र कम दिखा है। यहाँ तो कवि को अपने होने तक का गुमान नहीं है। प्रेम के संस्पर्श ने ही उनके होंठों, आँखों, साँसों...को सार्थकता दी, पहचान दी। एक दूसरे के आलिंगन में आते ही अकड़-जकड़ के सारे रोध तरल हो गए, चट्टानों के बीच सदियों से ठहरे जल झरने लगे, देह देह न रहा, आत्मा आत्मा न रही, ईश्वर तक ने सृष्टि त्यागकर प्यार रचने के लिए मनुष्य को मुक्त कर दिया, चारो ओर प्यार ही प्यार बचा रहा...ओफ्फ्...प्यार को इस तरह जीवन्त करना सम्भवत: मदन कश्यप से ही सम्भव था। इस कविता को, और इनकी इस जैसी अन्य कविताओं को पढ़कर एक बार फिर से निर्धारित होता है कि मनुष्य की सृष्टि प्यार करने के लिए हुई है। काश, इस जमाने के घृणा के सौदागर ये कविताएँ अनुरागपूर्वक पढ़ते!
अपने हिस्से की जिन्दगी जीने, अपने हिस्से का प्यार करने, अपने हिस्से की जंग लड़ने की कामना रखनेवाले कवि मदन कश्यप ज्यों ही इस प्रेम-क्षेत्र में उतरे; रोचक है कि पूरी कविता में देर तक वहीं ठहर गए। सन् 2015 के उन्मादी, प्रतिशोधी और विध्वंसक वातावरण से व्यथित होकर, अपनी जिस छह हजार वर्ष बूढ़ी सभ्यता के प्रेम-पाश में गए, देर तक वापस नहीं हुए, उसी प्रेम-सरोबर में गोता लगाते रहे। प्रेम की जद में आए लोग-बाग सचमुच उसी के होकर रह जाते हैं, यह प्रेम का नैसर्गिक स्वभाव है।
इस प्रेम में कवि को दर्द भी फुसफुसाहटों-सा धीमा या 'न' जैसा प्रतीत होता है; यहाँ प्यार से इतर सारे भाव अपना अस्तित्व खो देते हैं; यहाँ तक कि प्रेमी का 'मैं' भी 'मैं' जैसा नहीं लगता -- 'बस एक प्यार था प्यार की तरह/चारों ओर पसरी थी जिसकी गहरी छुअन/जिसके पहलू में आकर हर रंग/बदल लेता था अपना रूप।... तुम्हारे कोमल कपोलों पर मचल रही लालिमा/मैं खुशबू की तरह फैलता चला जा रहा था/पूरे ब्रह्माण्ड में।... सितारों के बेलबूटों वाले आसमान को/चादर की तरह ओढ़ कर/मैं चला जाना चाहता था/तुम्हारी ऊर्ध्व हँसी के उड़नखटोले पर बैठे-बैठे…/जोगिनों मालिनों की किस्से कहानियों वाली दुनिया में।'
यहाँ कपोलों पर मचल रही लालिमा से प्रेम की नैसर्गिकता को प्रश्नांकित करने का उद्वेग सुभद्र नहीं होगा। वस्तुत: प्रेम का भाव ही ऐसा होता है, जिसमें घिर जाने के बाद सारा कुछ सुन्दर ही सुन्दर दिखता है। 'छाप तिलक सब छीनी' की तरह। प्रेमी को अपने प्रेमाधार जैसा सौन्दर्य अन्यत्र कहीं नहीं दिखता। तभी तो कवि अपनी प्रेमिका के सौन्दर्य पर चकित होते हैं -- 'उफ्! यह इतनी सुन्दरता/कि सुन्दरता में ही छिप जाती है तुम्हारी सुन्दरता/जैसे ईश्वर में छिप जाता है ईश्वर।' सुन्दरता में सुन्दरता और ईश्वर में ईश्वर के छिप जाने के ऐसे अनूठे रूपक ने प्रेमिका के सौन्दर्य को अनन्त विस्तार दिया है। ऐसे भव्य-दिव्य सौन्दर्य में तृप्त होने के लिए प्रेम-प्रवाह की लहरें कातर नदी की तरह उमड़कर भी किनारे को नहीं छू पातीं। हृदय में उमड़ी मुस्कान को प्रेमी, प्रेमिका के होंठों तक पहुँचाना चाहते हैं, उनके बालों में फँसी बारिश की फुहियों को कविता की रुमाल से पोंछना चाहते हैं, पर क्रमश: सारा कुछ मिट जाता है, यथार्थ भी दरक जाता है, बस सम्मोहन नहीं टूटता, आशंकाओं के बीच भी प्यार बचा रहता है। प्यार की दुनिया में उन्हें, ईश्वर की दुनिया से कहीं अधिक हलचल दिखती है। दुख यहाँ बेशक बड़ा दुख है, सुख बेशक छोटा सुख, उदासी भी आती ही रहती है; पर प्रेम करनेवाले इन्हें जीवन के अनुषंग मानते हैं। स्मृतियों की खिड़की से झाँकते समय उन्हें अपनी प्रेमिका कभी सम्मोहित करनेवाली जादूगरनी तो कभी लोककथाओं की सम्मोहिका दौना मालिन या नैना जोगिन लगती हैं। दौना मालिन के बगीचे में फूल है, फूलों में खुशबू है; पर अन्त में दौना मालिन कहती हैं -- 'ख़ुशबू में तुम हो', 'तुझमें मैं हूँ', 'मुझमें तुम हो!'
प्रेम के इस अत्यन्त मोहक सरोबर में गोता लगाते हुए अन्तिम अंश में कवि पुन: प्रेमाकुल क्रिया के लिए उस प्रेम-भाव से वापस अतीत की ओर रुख करते हैं -- 'मैं तुम्हारी आत्मा के अन्धेरे में/धूप की थिगली की तरह पसरना चाहता हूँ/तुम्हारी करुण चुप्पी में/अक्षर के अंकुर-सा फूटना चाहता हूँ/सात हजार वर्षों से तुम्हारे सीने पर रखी/सभ्यता की पुंस चट्टानें हटाना चाहता हूँ/तुम्हारी नीन्द में पैठ कर/भयानक सपनों को दूर भगाना चाहता हूँ/...तुम्हारे घुटनों की ताकत बन कर खड़ा होना चाहता हूँ/तुम्हें पाना नहीं/तुझमें विलीन हो जाना चाहता हूँ।' चारो ओर फैले हिंस्र वातावरण के बावजूद यह कविता हमें ध्वंस और प्रतिशोध के भाव से बरजती है और प्रेम एवं अनुराग की ओर अनुरक्त करती है।
इस कविता के छठे अवतरण में घृणा के सौदागरों के लिए महान दार्शनिक ग्रन्थ (अद्वैत वेदान्ती मण्डन मिश्र की 'ब्रह्मसिद्धि' में 'रज्जु सर्प:' का उल्लेख है, जिसका सार यह है कि प्रकाश की अनुपस्थित में रस्सी भी साँप लगती है) से एक बड़ा सन्देश देते हैं कि 'इतिहास जब अन्धेरे में था/तब भी था/और तब भी मैं तुम्हें ही ढूँढ़ रहा था।' विलक्षण धारणा है कि अन्धकार होने पर भी कोई प्रेमी प्रेमाधार को ही ढूँढता है, घृणा उसके निकट नहीं जा पाती; फिर इक्कीसवीं सदी के नागरिकों को ऐसा मन्त्र किसने दिया कि उसके भीतर घृणा और द्रोह के अलावा कुछ रहा ही नहीं। सभ्यता के शुरुआती दौर में जब रोशनी की पहली किरण प्रकट हुई, और दुनिया को अपने होने की अनुभूति हुई; तब इस कवि के पूर्वज भी सहस्रो अभिलाषाओं के साथ उन सभी राहों पर दौड़ते-भागते रहे थे, जो वस्तुत: रास्ते थे ही नहीं; फिर आज के नागरिक सर्वदा घृणा से ही इतना प्रेम क्यों करते हैं?
मदन कश्यप के यहाँ जीवन के विविधमुखी संघर्षों और क्रियाओं की तरह प्रेम के अनेक रूप हैं। सारे ही रूपों में जीवन-धर्मी वैविध्य तो है, पर हर जगह विवेक और मनुष्यता की रक्षा का उत्कर्ष बसा हुआ है। जीवन और प्रेम को सुरक्षित और निष्कलुष बनाए रखने की जिद है। 'नीम रोशनी में' शीर्षक उनके दूसरे संग्रह की छठी कविता है 'तुम्हारी यादें।' यह कविता दूसरे मध्यावधि चुनाव के बाद सन् 1982 में लिखी गई। भावकों को भली-भाँति स्मरण होगा कि यह समय भारतीय समाज में शिक्षा, रोजगार की सम्भावनाओं और नीति-विवेक को नेस्तनाबूद करने, तथा दलाली-माफियागिरी के संस्थानीकरण का काल था। जाहिर है कि ऐसे क्रूर समय की नृशंसताओं का असर प्रेम पर भी होना था। जीने के संसाधन जुटाने की मजबूरियाँ कर्ता की कार्यसूची में प्राथमिक बन गई थीं, पर इस कारण प्रेम परोक्ष नहीं हो गया था, स्मृतियों में बसा रहता था। निरपेक्ष भावकों को गौर करना होगा कि लक्षण-ग्रन्थ में और मध्यकालीन साहित्य में खण्डिता नायिकाओं का जितना वर्णन है, स्वाधीन भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था ने खण्डित नायकों की जीवन-व्यवस्था कहीं उससे अधिक दुर्वह बना दी। 'तुम्हारी यादें' शीर्षक इस कविता में वैसे ही खण्डित नायक के मार्मिक चित्र अंकित हुए हैं। इसमें अंकित यादें प्रेमिका के आलिंगन-सुख या सहभोग-सुख की यादें ही नहीं हैं। कोलियरी क्षेत्र में कार्यरत, जीवन-यापन के संसाधन जुटाने की और उसके मार्ग में आई यातनाओं की चट्टान तोड़ने में तल्लीन कर्मियों की पीड़ओं को प्रेम की स्मृतियों के साथ रूपायित किया गया है। उन कर्मियों में खुद का कायान्तरण करते हुए कवि इस कविता का वाचक बन बैठे हैं, जिनकी स्मृति में प्रेम, प्रेमिका और गाँव अपने सारे भावों के साथ बसा हुआ है। इसमें वाचक का गँवई मन खुद को तालाब से निकलकर मछुआरे की हाँड़ी में गिरी मछली की तरह बेबस देख रहा है। स्मृतियों के अलावा उसे कुछ भी अपना और सुखद नहीं लगता। वह गाँव के हर प्रसंग को लगातार याद करता रहता है। यहाँ प्रेमी के मन में बसे प्रेम और प्रेमाधार की स्मृति तो विलक्षण है ही, उससे भी बड़ी विलक्षणता उस प्रेम के अनुमाप के लिए रचे गए रूपक में है, जो किसानी संस्कृति, कृषि-कर्म, किसानी उपादान, ग्राम्य वातावरण और फसलों से कवि के प्रेम को निरूपित करता है। उन्हें जेठ की पहली बारिश के बाद, उत्तप्त-अकुलाई धरती से उठनेवाली सोंधी महक की याद आती है। यद्यपि 'कस्तूरी कुण्डली बसै' की तरह वह महक उनकी स्मृति में पहले से दर्ज रहती है। वस्तुत: किसी अकुण्ठ प्रेम के अवधारक की स्मृति में इसका बसा रहना उचित ही है, फिर भी उन्हें अचरज होता है कि वह महक गाँव से नगर तक की दूरी में नदियों, पहाड़ों और जंगलों को पार करते हुए, न जाने कैसे, खिच्चे दानों में भरते दूध की तरह उनकी आत्मा में भरती चली आती है! 'कोयले की गर्द/और चिमनियों के विषाक्त धुएँ से भरे वायुमण्डल में/जाने कैसे जीवित बच आती है वह गन्ध...।' वाचक के हाथों में भले ही 'धनरोपनी के कीचड़ की जगह/ग्रीस और मोबिल लगते हैं...।' पर 'आँखें अब भी देखती हैं/लहलहाती फसलों का सपना।' इस प्रेमालाप में बेशक कहीं प्रेमिका का उल्लेख नहीं है, पर प्यार एक ऐसी मानवीय वृत्ति है, जिसमें प्रेमी केवल प्रेमिका के रूप-स्वरूप-व्यवहार-आलिंगन या प्रेम की अन्य क्रियाओं को ही नहीं, प्रेमिका के सगे-सम्बन्धियों और उसके रहवासी वातावरण तक से प्यार करता है। वाचक केवल जीवन-संघर्ष की मजबूरियों से ही त्रस्त नहीं है, वह 'ऊँची चिमनियों और गहरी खदानों की/साँप-सीढ़ियों वाली' औद्योगिक नगरी में जीवन-यापन के संसाधन जुटाने में अपनी भावनाओं को थोक भाव से खर्च करते हुए, उन माफ़ियाओं, दलालों, 'क्रान्ति की बातों से बातों की क्रान्ति करने वाले' श्रमिक-नेताओं या कि क्रान्ति के सौदागरों के भ्रमजालों से भी त्रस्त है, फिर भी वह अपने प्रेम को नहीं भूल पाता। वह खुद को तालाब से निकालकर मछेरे की हाँड़ियों में पहुँचाए मछली की तरह महसूस करता है और मुक्ति के लिए छटपटाता रहता है। यह केवल जीवन-संघर्ष और प्रेम के द्वन्द्व की छटपटाहट नहीं है; इसमें दुनियावी फरेब में फँसे जनसाधारण की लालसाओं के अमानवीय दमन से मुक्ति-कामना भी है।
गौरतलब है कि मदन कश्यप प्रेम के कवि होकर भी भावुकताओं के ज्वार में बह चलनेवाले कवि नहीं हैं; उन्हें जीवन-संघर्ष के हरेक सोपान पल-पल याद रहते हैं। इसलिए इस कविता के वाचक के रूप में कहते हैं कि 'कभी भी तो नहीं भूल पाता हूँ तुम्हें/मक्के की हरी बाल के खिच्चे दानों जैसी/तुम्हारी धवल दन्तपंक्तियों से/झड़ने वाली उजली-उजली हँसी/अभी भी मेरी नीन्द में थिरकती है/आषाढ़ की बारिश में उपजे मोथे की जड़ों-सी मीठी/तुम्हारी यादें/गठिबन्ध सरीखी मेरी आत्मा से लिपटी हैं!' विदित है कि रचनाओं में रूपक और उपमान रचने के कौशल में रचनाकार के रचनात्मक सरोकार प्रकट होते हैं। मकई की बाली जैसी दन्तपंक्ति और बारिश में उपजे मोथे की जड़ों जैसी मिठास जैसा रूपक किसानी संस्कृति से प्यार करनेवाला कोई कवि ही रच सकता है, वर्ना तो वह 'सिन्दूर लोहित मोती अइसन दाँत' या 'मिस्री जैसी मिठास' ढूँढता।
इसी तरह इस संकलन की अगली कविता 'कुछ देर साथ चलो' (सन् 1993) में प्रेम का एक दूसरा रूप निखरता है, जिसमें तीन बिम्बों--काली सड़क, दमकती धूपवाली जलती तिपहरी और वाटिका-विहीन, झीलहीन वातावरण के सहारे कवि ने महानगरीय जीवन की मूल्य-रिक्तता को उजागर कर दिया है। राजीव गाँधी की हत्या (मई 1991) और भारतीय लोकतन्त्र के दसवें लोकसभा चुनाव (जून 1991) के बाद सिर पर बैठी सरकार में हर्षद मेहता घोटाला (सन् 1992), मस्जिद-ध्वंस (सन् 1992) के बाद की क्रूर हिंसाएँ, बम्बई में शृंखलाबद्ध बम-विस्फोट (सन् 1993), राजनीति के अपराधीकरण पर वोहरा की रिपोर्ट, जैन हवाला काण्ड, तन्दूर हत्याकाण्ड, झामुमो घूसकाण्ड, इण्डियन बैंक स्कैम, शुगर इम्पोर्ट घोटाला, लखूभाई घोटाला, सुखराम घोटाला, यूरिया घोटाला जैसे मामले सामने आए, जिसने नरसिंहराव सरकार की विश्वसनीयता धूमिल कर दी। इन स्थितियों ने इन वर्षों के भारतीय परिवेश को ऐसा मूल्यहीन बनाया कि स्नेह और सम्बन्धों में रिक्तता ही रिक्तता भर गई थी, अनास्था परवान चढ़ी थी, विश्वासपूर्वक किसी प्रसंग में कुछ कहना कठिन हो गया था। ऊपर से पी.वी. नरसिंहराव के नेतृत्ववाला कांग्रेसी शासन...। मनुष्य तो हर मामले में अवसन्न ही था। ऐसे समय में महानगरीय जीवन में स्नेह-शून्य सम्बन्धों की औपचारिकताओं एवं विडम्बनाओं के सिवा कुछ भी बचा नहीं रह गया था, प्रेमिका का व्यवहार भी कुछ-कुछ परीक्षणीय ही था। इन्हीं सन्दर्भों को प्रकट करते हुए कवि, प्रेमिका से कहते हैं 'कुछ देर साथ चलो/महानगर बनते शहर की काली सड़क पर/इस ढलती मगर जलती तिपहरी में चलना कठिन है/...बस थोड़ा दूर-दूर ही सही/थोड़ी दूर तक चलो/इस शहर में शामें सुनहरी नहीं होतीं/...कोई झील नहीं/जो हमारे स्नेह को दे सके शीतल स्पर्श/बस तपती हुई सड़क का निर्मम सूनापन/यह काफ़ी है कुछ दूर तक साथ चलने के लिए!'
जिस महानगरीय आचरण को काली सड़क की कालिमा (कलुष), दमकती धूपवाली जलती तिपहरी की तीक्ष्णता एवं क्रूरता और वाटिका-विहीन, झीलहीन शहर का शुष्क वातावरण मनुष्य को रिक्त कर देता है; उसी रिक्तता से उबरने के लिए कवि अपनी प्रेमिका को आश्वस्त करते हुए कुछ दूर तक साथ चलने का आग्रह करते हैं। इस आग्रह में कवि को कहीं प्रेमिका पर अनास्था नहीं है; बल्कि उपस्थित वातावरण में कदाचित प्रेमिका के मन में उपजी अनास्था को दूर करने और अपने व्यवहार की आश्वस्ति देने का आग्रह है। वे आग्रह करते हैं कि दूर-दूर ही सही, पर थोड़ी दूर तक चलो, इस शहर की तपती सड़क के निर्मम सूनापन से खुद को उबारने के लिए यह पर्याप्त होगा।
पर सन् 2016 आते-आते जनपदीय वातावरण में विराट परिवर्तन आ गया। धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, घृणा, द्रोह, प्रतिशोध और अनास्था की चिनगारियों को हवा दे-देकर ज्वाला बनाने का कार्य पूरा हो चुका था। सामुदायिक जीवन में धर्म और शासन का ऐसा दखल हुआ कि सामाजिकता के पुनीत अर्थ सिरे से गायब हो गए। 'पनसोखा है इन्द्रधनुष' संग्रह में संकलित कविता 'अकेलापन' (सन् 2016) ऐसी ही विडम्बनाओं को उजागर करता है। असंगत और मनुष्य विरोधी आचरणों में तल्लीन ऐसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में मदन कश्यप बार-बार अपनी कविता के लिए प्रेम और प्रेम की भाषा तलाशते दिखते हैं। प्रेम के प्रतिगामी स्वरूप और पाखण्डपूर्ण आचरण की चतुर्दिक व्याप्ति देखकर वे धिक्कार और आत्मालाप पर उतर आए हैं। प्रेम के मनभावन स्वरूप की अनुपस्थिति मनुष्य को अकेलेपन का शिकार बनाता है। अकेलेपन की दुर्वह स्थिति से उबरने के लिए ही कभी हमारे पूर्वजों ने सामाजिकता और सामूहिकता की भावना विकसित की होगी। अक्सर देखा जाता है कि समाज के हर परिवार के लोग अपनी दैनन्दिन चर्या की प्रतिपूर्ति अपने उद्यमों से करते हैं, पर जीवन में कदम-कदम पर ऐसी स्थितियाँ आती हैं, जिनसे निपटने के लिए सामाजिक सहयोग अनिवार्य होता है। पर व्यवहारत: देखा जाने लगा कि राजनीतिक दखलन्दाजी से यह सामाजिकता खण्डित होने लगी। मनुष्य धर्म, सम्प्रदाय, जाति, वर्ग, पदक्रम, भाषा में विभाजित होने लगा। ऐसा भी नहीं रहने लगा कि समान धर्म या समान जाति के लोगों में पारस्परिक आस्था हो। अपने खण्ड में आकर भी लोग अन्तत: खण्डित ही रहने लगे। ऐसे में कवि के समक्ष कविता की भाषा का सवाल खड़ा हुआ। गिनती के लोगों की अभीप्सा-पूर्ति के लिए ऐसा जघन्य आचरण, न केवल नागरिकों के लिए, बल्कि कवि नागरिक के लिए भी दुर्वह ही होना था, सो हुआ। छठे-सातवें दशक में ऐसे राजनीतिक आचरणों पर राजकमल चौधरी को क्रोध आया था, वे भी इसी तरह धिक्कार और आत्मालाप पर उतर आए थे।
पन्द्रह अगस्त 1966 को प्रकाशित अतिचर्चित दीर्घ कविता 'मुक्ति प्रसंग' चन्द पंक्तियों में -- 'मैं कुछ नहीं जानता हूँ/स्त्रियों नदियों बीमारियों भूख जन्म अपराधों ईश्वर मृत्यु दास्तोवस्की/हिरोशिमा विधान-सभाओं के विषय में कुछ नहीं/आदमी क्यों पार करता है युद्ध क्यों परिवार नियोजन/क्यों बर्लिन की दीवार/क्यों देशप्रेम क्यों अफीम की गोलियाँ क्यों चैप्लिन की फिल्में/क्यों ताशकन्द-सम्मेलन क्यों रीढ़ की हड्डियों में/गैंग्रीन/...क्यों सुकरात क्यों सेगाँव की बौद्ध भिक्षुणियाँ जल मरती हैं/क्यों गर्गातुआँ की कहानियाँ क्यों काश्मीर के लिए/सेनाएँ क्यों अजन्ता/क्यों एक ही युद्ध मेरी कमर की हड्डियों में और कभी वियतनाम में होता है/...वियतनाम में उड़ी-पुँछ में यू.एन.ओ. में तिब्बत बस्तर काले अफ्रीका में/वह आगे बढ़ता है राइफल का निशाना साधने के लिए/मेरे ही कलेजे पर मस्तिष्क पर/...मूल्य-नियन्त्रण के लिए कभी उड़ीसा में दुर्भिक्ष/काहिरा में कभी शक्ति-सम्मेलन युद्ध अणु-आयुध नियन्त्रण के लिए/कभी दण्ड कभी साम/कभी ईसामसीह और कभी वेश्याओं के नाम/...वैज्ञानिक राजनेता और स्त्री के अंगों के व्यापारी/कुल तीन ही प्रभु-जातियाँ रह गई हैं अब स्वयम्भू अस्तु/मैं क्रीतदास हूँ/...मैं इतिहास-पुस्तक की तरह खुला पड़ा हुआ हूँ/लेकिन मेरा देश मेरा पेट मेरा ब्लाडर मेरी अँतड़ियाँ खुलने से पहले/सर्जनों को यह जान लेना होगा/हर जगह नहीं है जल अथवा रक्त अथवा माँस/अथवा मिट्टी/केवल हवा कीड़े जख्म और गन्दे पनाले हैं अधिक स्थानों पर इस देश में/जहाँ सड़कर फट गई हैं नसें वहाँ हवा तक नहीं/...अपने रोग अपनी भूख अपनी नीन्द अपने युद्ध में प्रत्येक आदमी/बालखिल्य-ऋषि है अपने अन्दर/किसी चमगादड़ मन्त्री-उपमन्त्री अन्नपूर्णा उग्रतारा की एक मूर्ति/अपने घर अपने मन्दिर में स्थापित करता है (रा.क.चौ. रचनावली, पृ. 42-47)।' में भावकगण राजकमल चौधरी के क्रोध, आत्मालाप, धिक्कार, राष्ट्र-प्रेम, नागरिक सरोकार, लोक-तन्त्र की अवधारणा, वैश्विक राजनीति की समझ, इतिहासबोध, सामुदायिक बेवशी पर क्रुद्ध बरबराहट स्पष्ट देख सकते हैं।
विदित है कि हर कवि अपनी कविता का कथ्य प्रत्यक्ष परिवेश से ही उठाता है। कोई ज्ञानी कवि कभी अपने ज्ञानलोक से विषय ले भी ले, तो भी अपनी कविता को समकालीन और अन्नत: कालजयी बनाने के लिए उसे अपने वर्तमान में आना ही पड़ता है। घटित दृश्य तो कवि को केवल भावुक (मुग्ध, क्रुद्ध, वीतराग) बनाता है, इन भावों से कवि दग्ध भर होते हैं। भाव मात्र से कविता पूरी नहीं होती। वाल्मीकि भी क्रौंच-वध की घटना से दग्ध भर हुए थे। कविता, घटित दृश्य के रूपान्तरण से पूरी होती है। घटित दृश्य या कथ्य का कविता में रूपान्तरण विशिष्ट कौशल से होता है। बिम्ब, प्रतीक, रूपक और कहन की लय-रक्षा इस कौशल का अनिवार्य घटक है। जिस कवि की राजनीतिक चेतना जितनी उन्नत होगी, अपने समय के इतिहास, परम्परा, समाज, राष्ट्र और वैश्विक घटनाओं की समझ जितनी सूक्ष्म होगी; उनका कौशल उतना ही उन्नत होगा। सुधी जन जानते हैं कि राजकमल चौधरी अपने समय के सर्वाधिक अधीत रचनाकार थे। पौराणिक प्रतीकों ने उनकी कविताओं को जितना उज्ज्वल और प्रभावशाली बनाया है, कोई अन्य शैली प्राय: इतनी कारगर नहीं होती।
इन सारे अभिज्ञान से सम्पन्न कवि मदन कश्यप की कविताओं का अवगाहन करनेवाले बड़ी सहजता से गणित कर लेंगे कि राजकमल चौधरी से उनकी अनुरक्ति अकारण ही नहीं है। प्रभाव ग्रहण करना या प्रभावित होना सचेत मनुष्य की जीवन्तता का प्रमाण है। निर्जीव वस्तु पर किसी भी भाव का प्रभाव नहीं पड़ता। राजकमल चौधरी की सृजन-दृष्टि का कुछ न कुछ प्रभाव परवर्ती काल के अनेक कवियों पर पड़ा है; पर गौर करना अनिवार्य है कि विश्व इतिहास और वैश्विक घटनाओं की जैसी समझ मदन कश्यप की कविताओं में है, राजकमल चौधरी के अतिरिक्त हिन्दी के काव्य-परिवेश में अन्यत्र कम है।
राजकमल चौधरी, मदन कश्यप के मानक रचनाकार हैं, पर इस कारण यह नहीं मानना चाहिए कि मदन कश्यप ने कहीं राजकमल चौधरी का अनुगमन किया है या कि दोनो का अकेलापन, क्रोध, धिक्कार और आत्मालाप समान है। दोनो के चिन्तन में मानवीयता-प्रेम बेशक समान है, पर दोनो की परिस्थितियों में विराट अन्तर है। सारी विसंगतियों के बावजूद राजकमल चौधरी के समय में मनुष्य के लिए कुछ सम्भावनाएँ बची हुई थीं, जो मदन कश्यप के समय में सिरे से नष्ट कर दी गईं। इसलिए मदन कश्यप का अकेलापन, क्रोध, धिक्कार और आत्मालाप राजकमल चौधरी से भिन्न है।
'अकेलापन' शीर्षक इस कविता में कवि का अकेलापन मात्र उनका निजी अकेलापन नहीं है, सामुदायिक अकेलापन है; समुदाय में रहकर भी हर नागरिक अपने अकेलेपन का दर्द भोग रहा है। इसलिए कवि को बार-बार बेचैनी और विवशता के शरण में जाना पड़ता है, और तब उनका क्रोध मुखर होता है। व्यंग्य की धार प्रहारक हो उठती है। उनका अकेलापन गुलदस्ते में सूख रहे फूलों की उदास गन्ध जैसा हो जाता है, एकदम से निष्प्रभ, जो खिड़की से बाहर निकलना तो चाहता है, पर उसकी अशक्यता उसे कहीं जाने में सक्षम नहीं बनाती। फलस्वरूप वह कवि की रगों में दौड़ती ख़ामोशी बन जाती है और फिर वही खामोशी उनके प्रेमाधार को यह कहकर पुकारना चाहती है कि 'सुन सकती हो तो सुनो/और जो नहीं सुन सकती, तब भी इन बेचैनियों के होने पर यकीन करो/कसमसाहट जो बाहर बहुत कम दिख रही है/भीतर बहुत-बहुत तेज़ है।' कविता के अगले अंश में कवि कहते हैं कि 'यह अब इतना आसान नहीं/कि गणित के सवालों को हल करते हुए/समय के सवालों के हल पा लिए जाएँ/मैं तुम्हें प्यार करता हूँ शायद इसीलिए बेहद/कि तुम्हारा प्यार और बढ़ा देता है मेरा अकेलापन/कर देता है मुझे और बेचैन/और यह सब अब शामिल है मेरी आदत में।' गणित और समय के सवालों के हल निकालने की पद्धति में प्रतिकूलन भाव डालते हुए इस पद्यांश में कवि ने प्रमेय के एक बड़े परिप्रेक्ष्य की ओर इशारा किया है, क्योंकि गणित के सवाल प्रकटत: आते हैं, जिसके हल किसी सुनिश्चित प्रमेय से निश्चय ही निकलते हैं; समय के सवाल न तो दृश्य होते हैं, न उसके हल का कोई प्रमेय होता।
गौरतलब है कि प्रेमिका के रूप में लक्षित इस प्रेम-कविता का प्रेमाधार कोई स्त्री नहीं, वह मनोरम व्यवस्था है, जिसके सम्मोहन में रहकर हर नागरिक अपने समय के सवालों का हल, गणित के सवालों की तरह निकाल लेता है। यह भेद कवि की उस पंक्ति में खुलता है, जब उनका प्यार उनके अकेलेपन को और बढ़ा देता है, उन्हें और बेचैन कर देता है; और इन सबको वे अपनी आदत में शामिल कर लेते हैं। समय की धारा को देखते हुए वे आश्वस्त हो चुके हैं कि इस वातावरण में अब मनोरम व्यवस्था तो आने से रही, फिर क्यों न व्यवस्थाहीनता की ही आदत डाल ली जाए! क्योंकि कवि को अन्तत: अपने और अपने समाज के जीवन से प्यार है। पर चूँकि वे एकदम से निरास भी नहीं हैं, समय-चक्र और जनशक्ति पर उन्हें आस्था बची हुई है, इसलिए वे उस व्यवस्था को धिक्कारकर कहते हैं कि 'आओ/जो मुझसे नहीं मिलना चाहती/तब भी आओ/और मिलो मेरे अकेलापन से/मेरी उदासी में घोल दो थोड़ी और उदासी!'
यद्यपि उन्हें मालूम है कि सरकार की तरह ही उन्होंने अपने अकेलेपन का समय भी खुद नहीं चुना नहीं है, फिर भी वे स्वीकारते हैं कि यह समय उनका समय है, जिसे वे पार करना चाहते हैं। उनकी स्मृति में उनके पुरखे भी हैं। वे खुद को विद्यापति के दुखों का वारिस मानते हैं, पर उनके पास उन जैसी कोई अमोघ शक्ति नहीं रहने दी गई है। जिस कारण कोई अनुष्ठान उनके काम नहीं आनेवाले हैं, इसलिए वे व्यवस्था को भी इतराने से बरजते हैं, क्योंकि किसी प्रयोजनकाल में ये उनके काम भी नहीं आएँगे। नैराश्य के ऐसे क्षणों में उसे वे अपने अकेलेपन में और उदासी घोलने आने का आमन्त्रण देते हैं। उन्हें सारे शुभग उपक्रमों की क्षमता पर अचरज होता है कि 'सबसे विश्वसनीय विचारधारा मुझे बचाती क्यों नहीं/सबसे सुन्दर सपना मुझे लुभाता क्यों नहीं।' यहाँ आकर कवि मान लेते हैं कि 'केवल मनुष्यों की अनुपस्थिति नहीं/प्रत्ययों का संकुचन है अकेलापन/जो धीरे-धीरे हमें ले जाता है वहाँ/जहाँ से हम दुख को सराहने लगते हैं।' प्रेम की कविता होकर भी यह सामुदयिक जीवन की बेबसी की कविता है। प्रेम तो यहाँ प्रतिकूलन (कण्ट्रास्ट) द्वारा व्यंग्य की धार तेज करने के लिए लाया गया है। यह उनके सृजनात्मक कौशल की एक विलक्षण पद्धति है।
सन् 2012 से 2015 के बीच अवसर पाकर मदन कश्यप ने चैटिंग की शैली में बारह कविताएँ लिखीं, जिन्हें उन्होंने 'चैट कविता' कहा। साहित्यिक विधाओं और चिन्तनों में ऐसी कविता की कोई परम्परा पहले से नहीं है। पर सार्वजनिक संचार के चबूतरों (सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म) पर ऐसी पंक्तियाँ आती रही हैं, जो अपने प्रभाव में भावकों को कविता का रसबोध कराती हैं। ये कविताएँ भिन्न-भिन्न तिथियों में रची गईं हैं और इन बारहो कविताओं में प्रेम की घनीभूत अभिव्यक्ति है। पन्द्रह अगस्त 2012 को लिखी प्रेमपरक पंक्तियों में कवि ने अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए भाषा की अक्षमता और अननुवाद्यता को जीवन्त कर दिया है – 'हम देखते रहे एक-दूसरे को/सन्नाटों और सपनों के ताने-बाने से कुछ बुनते रहे/जो शायद प्यार था/तुम्हारी चुप्पी इतनी सुन्दर थी/हम भाषा में उसके कमतर अनुवाद से बचना चाहते थे/बैठे थे हम एक-दूसरे के निकट।' प्रेम की ऐसी सघनता में कवि उस देवता को भी निकट हुआ समझने लगते हैं, जो उस मन्दिर के भीतर थे, जिसमें वे सायास नहीं गए थे। क्योंकि वे आश्वस्त थे कि उनके पास सपने थे, पर देवता के पास सपने नहीं थे। महीने भर (17.09.2012) बाद ही, जब प्रेमिका के निकट बैठकर भी प्रेम की अनुभूति सघन नहीं हुई, तो कवि का उस देवता के लिए नकार भाव उपजा और कवि को संशय हुआ कि 'उस दिन काव्य पाठ अधूरा छोड़कर हम भागे/...हम पास-पास बैठकर भी पास कहाँ थे।' प्रेमिका के निकटताबोध में पिछली बार उन्हें जिस देवता का निकट होना प्रतीत हुआ था, उसी देवता के लिए वे कहते हैं 'अगर वह ईश्वर था/मेरा ईश्वर नहीं था/अगर वह नैतिकता थी/मेरी नैतिकता नहीं थी/तो क्या वह हमारी वासना थी/जो कभी ईश्वर तो कभी नैतिकता की तरह दिख रही थी!' ये भाव प्रेमविद्ध प्राणियों के विविध भावों को ईमानदारी और निष्ठा से व्यक्त करते हैं, जिसमें सारे ही भाव ऋजुरैखिक नहीं होते, वक्ररैखिक भी होते हैं; प्रेमी मन के आत्मबोध और आत्मालाप को भी व्यक्त करते हैं। आगे की चैटिंग में ऐसे ही प्रेम की स्मृतियों में कभी सपना या चेतना का विस्तार, कभी धर्म निरपेक्षता, कभी धरती और बादलों के प्यास की चिन्ता करते हुए प्रेम की पारस्परिकता, कभी प्रेम की अनश्वरता के रूप निखारते हैं। अपने प्रेम को वे रेत नहीं, गुलाल समझते हैं, क्योंकि मुट्ठी में बन्द करने पर रेत के कण एक-एक कर गायब हो जाते हैं, गुलाल गायब होने पर भी अपना रंग छोड़ जाता है। प्यार के लिए यह अनुपम रूपक है, जो पूरे-का-पूरा झड़ जाने पर भी काल की हथेली पर अपना निशान छोड़ जाता है। प्रेम की एषणा-पूर्ति के सारे प्रयासों के बावजूद, प्रेमाधार परांग्मुख हो, तो कवि के पास विलक्षण रूपक है कि 'मैं गीले तौलिये की तरह/लिपट जाना चाहता हूँ/लेकिन तुम तो अपनी/ओदी-ओदी इच्छाओं को सुखाने चली गई हो/ईश्वर के आँगन में!' यह ईश्वर, यहाँ एक भ्रम है, माया है, मृगतृष्णा है, भटकाव है, जो दो प्रेमियों के मिलन-भाव का प्रतिपक्षी है, जो प्रेमिका को सत्य का भान नहीं होने देता; या फिर समाज या परिवार का प्रतिष्ठाबोध (?) है, जो उसे प्रेम-डगर पर चलने से बरजता है। प्रेम के प्रसार, प्रसार की चतुराई, प्रेमाधार में अहं और चतुराई के विलय की बड़ी सघन अनुभूति नौ मार्च 2013 की उनकी चैटिंग देती है, जिसमें प्रेमी अपनी प्रेमिका को आश्वस्त करते हैं कि हम दोनो की कामनापूर्ति के लिए सारी बाधाओं को लाँघकर मैं तुमसे मिलने इस तरह आऊँगा कि दरवाज़ा तक नहीं चरमराएगा, 'वहशी रखवाले ताकते ही रह जाएँगे/इस तरह पैठूँगा तुम्हारी आत्मा में/कि तन को भी पता नहीं चलेगा /...जैसे अमरूद में घुसती है मिठास/खिच्चे कसैलेपन को टरियाती हुई/वैसे ही घुसूँगा अनन्त चोर दरवाज़े से/पानी में मिले ग्लूकोज-सा घुल जाऊँगा/फैल जाऊँगा तुम्हारी पूरी देह में!' प्रेम में दो के एक हो जाने का यह मनोरम चित्र है। पर प्रेम की यह लालसा सन् 2015 आते-आते कुछ ऐसी स्थिति में चली गई कि प्रेमी सामुदायिक जीवन की चर्याओं में ही प्रेम के लिए प्रतिगामी बिम्ब देखने लगे। छब्बीस अप्रैल 2015 को आकर उनका प्रेमी मन उस प्रेमाधार की प्रतीक्षा कुछ ऐसे करने लगा, जैसे ख़ाली सड़क राहगीरों के कदमों की प्रतीक्षा करे, जैसे धँसने से पहले तक मिट्टी की खान किसी कुम्हार की बाट जोहे, जैसे परती खेत की खुरदरी देह हलवाहे की आहट अकाने; और इन्तजार में उनके प्रेमी-मन को प्रतीत होता है कि 'काश! प्रतीक्षा कोई ख़ुशबू होती/जो फैलती चली जाती तुम तक!' प्रतीक्षा को खूशबू बनाने की यह संकल्पना अकल्पनीय है। यह प्रेम के उदात्त का प्रमाण है कि प्रेमी खुद न सही, अपनी प्रतीक्षा को ही खुशबू बनाकर अपने प्रेमाधार तक पहुँचाना चाहता है। यह एषणा परम पवित्र है, इसमें कहीं कोई कलुष नहीं दिखता, प्रेमी मन स्वयं को खुशबू बनाना नहीं चाहता, खुद को उन तक पहुँचाने की इच्छा नहीं करता, अपनी प्रतीक्षा को उन तक पहुँचाना चाहता है। इस पवित्रता को नमन।
'स्त्री-पुरुष' (पनसोखा है इन्द्रधनुष, पृ. 9) शीर्षक कविता का लक्ष्य-बिन्दु भी प्रेम ही है, जिसमें कवि ने स्त्री और पुरुष -- दोनों दृष्टियों से विचार करने की कोशिश की, किन्तु अनुभव केवल पुरुष पक्ष का ही उतारा, स्त्री पक्ष का उपशीर्षक देकर छोड़ दिया। कदाचित इसलिए कि इस पक्ष के अनुभव के वे अधिकारी नहीं हैं। अनुभवी जानते होंगे कि जब स्त्री-पुरुष साथ होता है, तो पुरुष अपने पुंशत्व के पराजित हो जाने की आशंका से सर्वाधिक भयभीत रहता है। ऐसे में जब प्रेमिका उसे अपने स्त्रीत्व की क्षमता बताकर, उसके बचे-खुचे पुंशत्व को भुलाकर 'प्यार' पर केन्द्रित होने की सलाहाज्ञा दे, वह भयमुक्त हो जाता है। प्यार में लीन हर प्रेमी को अपनी प्रेमिका, दुनिया की सबसे सुन्दर स्त्री दिखती है। और, प्यार करने के ऐन मौके पर जब प्रेमी की बाँहों में घिरी प्यार करती हुई प्रेमिका कहे कि स्त्री जैसा कुछ भी नहीं बचा है मेरे भीतर, तुम में भी मर्द जैसा कुछ बचा है, तो उसे त्यागकर प्यार करो, तो प्रेमी भयमुक्त हो उठता है। कवि कहते हैं कि 'एक-दूसरे को बाँहों में जकड़ते हुए/हमने सबसे पहले जिसे छोड़ा/वह था भय/न तो असफलता हमें डरा रही थी न ही सफलता/सारा संकट तो स्त्री-पुरुष होने तक ही था।' वस्तुत: पुरुष का पुंशत्व और स्त्री का स्त्रीत्व प्यार करते समय भी विजय-बोध की लालसा से भरा रहता है। पर जय-पराजय की लालसा से मुक्त होकर ही कोई अलिंगनबद्ध जोड़ा निर्द्वन्द्व प्यार का भोक्ता हो सकता है। सही भी है कि प्यार में जब दो शरीर, दो आत्माएँ, दो धारणाएँ, दो लालसाएँ एक हो जाती हैं, तो किसकी विजय और किसकी पराजय! किस पर किसकी जय, किससे किसकी पराजय! प्यार की जिस उत्कट लालसा की कामना इस पद्यांश में की गई है, वस्तुत: हर प्रेम करनेवालों की ऐसी ही कामना, ऐसी ही समझ होनी चाहिए; पर प्रश्नाकुल कवि-मन अगले ही पल सशंकित हो उठता है। 'क्या मतलब हमारे होने का जो हम स्त्री-पुरुष न हों!' जैसे सवाल को नामंजूर करने से पहले, 'प्यार में दो जीवों का समेकन स्वीकार करने पर' उन्हें दोनों के लिए एक नकार दिखने लगता है, क्योंकि समेकन के बाद दोनो में से कोई वह तो नहीं रह गए, जो थे। इसलिए प्यार की भावनाओं से निकलकर तर्क की वैचारिकी में आने पर, उन्हें अपना होना ही अधूरा लगने लगा; क्योंकि उन्हें 'प्यार की जरूरत उतनी ही थी/जितनी क्रान्ति की/...क्रान्ति की तरह प्यार पर भी हमारा बस नहीं है।' तथ्यत: पूरा जीवन तो कोई 'भावुकता' में डूबा नहीं रह सकता, यथार्थ की दुनिया सर्वत्र और सर्वदा कोमल ही नहीं होती, कठोर भी होती है। 'जिन्दगी एक जलता हुआ सिगरेट थी/जिसे मैंने अंगुलियों में फँसा रखा था/लेकिन कश लेना भूल गया था/आग ने फिर भी अंगुलियों को छुआ/तब जाकर उसके होने का एहसास हुआ।' यही आग यथार्थ है; इसी यथार्थ में मनुष्य की इच्छाएँ, जल-तल पर तैरते स्पाइरोगाइरा के ढूह की तरह छाई रहती है। यह स्पाइरोगाइरा, पानी के ऊपरी तल पर तीव्र गति से विकसित होनेवाला शैवाल है, जो इतनी तेजी से विकसित होता है कि मिनटों में पूरे तालाब में छा जाए। अब कोई आदमी अपनी इच्छा के इस स्पाइरोगाइरा से कब तक संघर्ष करे! मानवीय इच्छा के लिए इस स्पाइरोगाइरा का रूपक कवि ने बहुत सोच-विचार कर रचा होगा; क्योंकि जिस तरह क्रान्ति और प्यार पर मनुष्य का वश नहीं चलता; बहुत हद तक इच्छा के स्पाइरोगाइरा पर भी वश नहीं चलता। जब तक मनुष्य जल-तल से उसे हटाने का विचार और तरकीब बनाए, तब तक वह दूर-दूर तक अपना क्षेत्र विकसित कर लेता है; इच्छा भी ऐसे ही करती है।
'एक अधूरी प्रेम कविता', 'स्त्री-पुरुष' या उल्लिखित अन्य कविताओं का केन्द्रीय विषय प्रेम है, पर सबमें प्रेम के एक रूप नहीं हैं, इनकी कविताओं में प्रेम के असंख्य आयाम हैं, शरीरी भी, नैसर्गिक भी, व्यवस्थाजन्य भी। पर तय है कि उनकी कविताओं के सारे प्रेम मानवीयता की ओर केन्द्राभिमुख हैं। उनकी कुछ और प्रेम कविताओं का उल्लेख आगे के अंशों में होगा।
उपलब्ध स्रोतों से प्राप्त कविताओं में उनकी सन् 1973 की लिखी सर्वाधिक पुरानी कविता 'चिड़िया की चोंच' (दूर तक चुप्पी, पृ. 57) मिली है। उन दिनों कवि की आयु उन्नीस वर्ष की रही होगी, प्राय: बी.ए. अन्तिम वर्ष में रहे होंगे। सामान्य भारतीय युवाओं के लिए यह उन्माद और खुशफहमी की उम्र होती है। पर मदन कश्यप चूँकि सामान्य युवा नहीं थे, माँ के असामयिक निधन के बाद उनका रहवास एक बरस तक धनबाद में अपने चचेरे नाना के घर हुआ था। नाना जी कोलियरी के मजदूर संघ के लोकप्रिय नेता थे। वंचितों के प्रति अनुराग और उनके हक के लिए खड़े होने की चेतना और संस्कार का बीजारोपण सम्भवत: उसी सात-आठ बरस की कच्ची आयु में हुआ होगा, जो वार्द्धक्य के साथ विकसित-परिस्कृत होता गया। तभी तो अपनी पहली ही कविता 'चिड़िया की चोंच' में उन्होंने प्रवंचित समुदाय के जीवन की त्रासदी के लिए एक निहत्थ, नि:शस्त्र चिड़िया का रूपक उठाया --'दाना दिखाता है/फिर जाल बिछाता है/कौन नहीं कहाँ नहीं कब नहीं सताता है/जिधर भी नजर डालो खतरा ही खतरा है/कहीं मिलती नहीं निर्भयता एक कतरा है/सघन अमराई में/डाल यह बैठी एक चिड़िया रही थी सोच/इन सबसे बचने को नियति ने उसे दिया है क्या/बस यही चोंच!' विचारकगण चाहें तो भगीरथ-श्रम करके उनकी इस प्राथमिक कविता के शिल्प में निश्चय ही कोई मामूली-सी कमजोरी ढूँढ लेंगे; पर देखने की बात यह है कि बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक की शुरुआत में मदन कश्यप की राजनीतिक-सामाजिक चेतना और रचनात्मक सरोकार किस तरह सक्रिय, सावधान और दृढ़ था कि उन्होंने ऐसे रूपक रचे; अर्थध्वनियों को ऐसा नादमय बनाया कि भावक चमत्कृत हो उठते हैं। इस प्रारम्भिक प्रयास में छन्दों से उनकी मुक्ति-कामना भी दिखती है। प्रतीत होता है कि इससे पूर्व भी वे गीतिमय रचनाएँ करते रहे होंगे, जिसे उन्होंने कभी प्रकाश में नहीं आने दिया। यह कवि-कर्म और कविता की गुणवत्ता के प्रति उनकी अनुशासित सावधानी का ही प्रमाण है कि सन् 1973 में ऐसी श्रेष्ठ कविता लिखनेवाले कवि का पहला संग्रह लगभग बीस वर्ष बाद सन् 1992 में 'लेकिन उदास है पृथ्वी' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। और, पहले ही संग्रह के बूते उनकी गिनती हिन्दी के मानक कवियों में होने लगी। इसके साथ यह भी विचारणीय है कि भावुकतावश या छपास रोग के रोगी की तरह उनकी ऐसी कोई भी कविता प्रकाश में नहीं आई, जिस पर विचारकगण कचास का दोषारोपण करें या नवोदित संज्ञा से विभूषित करें। ऐसा धैर्य, असामान्य होता है।
इस कविता की चिड़िया असल में भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था के वर्चस्ववादी शिकंजे में फड़फड़ाते आम नागरिक की जीवन-दशा को रेखांकित करती है; जहाँ आजादी की रजत जयन्ती मना चुके भारतीय नागरिक, आजाद नागरिक तो क्या, आजाद चिड़िया भी नहीं हो पाए थे। सन् 1973 में भी व्यवस्थापतियों की नजर में आम नागरिक किसी चिड़िया से अलग नहीं था। उन्हें फँसाने के लिए हर जगह जाल बिछी थी, लुभावने दाने पड़े थे, उन्हें हर सामर्थ्यवान व्यक्ति सताता था, हर ओर कोई न कोई खतरा दिखता था, कहीं से कतरा भर निर्भयता की आश नहीं दिखती थी। एक चोंच भर थी उसके पास, जिससे उसे दाना चुगना था, बाल-बच्चों के भरण-पोषण के लिए दाना लाना था, अगले प्रसव के लिए घोसला बनाना था, और फिर जीवन-संघर्ष की सारी लड़ाइयाँ लड़नी थीं। अत्यन्त लघुकाय यह कविता अपने प्रभावी अर्थान्वेष की दृष्टि से एक बड़ी कविता है, जिसकी समालोचना उस दौर के महान आलोचकों को करनी चाहिए थी।
वस्तुत: इस कविता की पृष्ठभूमि जानने के लिए उस दौर के भारतीय लोकतन्त्र के खूँखारपन पर चिन्तनशील दृष्टि डालनी पड़ेगी। भावक गौर करेंगे कि सन् 1967 में हुए चौथी लोकसभा चुनाव के बाद मार्च 04, 1967 को भारतीय लोकतन्त्र में इन्दिरा गाँधी के नेतृत्ववाली सरकार बनी, किन्तु आन्तरिक कलह के कारण सन् 1969 में कांग्रेस पार्टी दो भागों में विभाजित हो गई -- 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' (आर) और 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' (संगठन)। 'कांग्रेस' (आर) का नेतृत्व इन्दिरा गाँधी कर रही थीं, जो नवम्बर,1969 आते-आते अल्पमत में आ गई। स्वाधीन भारत की यह पहली अल्पमत सरकार थी, जिसके कभी भी गिर जाने की आशंका थी। इसलिए इन्दिरा गाँधी ने सिफ़ारिश की और राष्ट्रपति वी.वी. गिरि ने, सत्र पूरा होने के लगभग एक बरस पूर्व ही, 27 दिसम्बर 1970 को लोकसभा भंग कर; फरवरी 1971 में मध्यावधि चुनाव का आह्वान कर दिया। भारतीय लोकतन्त्र का यह पहला मध्यावधि चुनाव था। इस चुनाव में विपक्षियों का नारा था 'इन्दिरा हटाओ', जिसके टक्कर में इन्दिरा गाँधी ने नारा दिया 'गरीबी मिटाओ'। 'गरीबी मिटाओ' का नारा प्रभावी हुआ, भारी बहुमत से इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस (आर) की जोरदार वापसी हुई। पर इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में आम नागरिक की दुर्दशा ही दुर्दशा व्याप्त रही।
लोग-बाग चाहें तो सन् 1971-75 के मध्य-काल में इस कविता को सन् 1971 की परिणति में जन-प्रवंचना और सन् 1975 के आपातकाल की पृष्ठभूमि के रूप में रेखांकित कर सकते हैं। उन्हें स्मरण होगा कि सन् 1971 के चुनाव में पराजित होने के चार बरस बाद सन् 1975 में समाजवादी नेता राजनारायण ने क्यों इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इन्दिरा गाँधी पर चुनाव में धाँधली का आरोप लगाते हुए याचिका दायर की, जिस पर फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने जून 12, 1975 को चुनाव रद्द कर दिया, जिसकी अवहेलनाकर इन्दिरा गाँधी ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की, जिसमें जून 24, 1975 को फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इन्दिरा गाँधी को प्रधानमन्त्री पद पर बने रहने की राहत दी। अगले ही दिन, जून 25, 1975 को उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद को कहकर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में यह उस समय तक का सर्वाधिक अलोकतान्त्रिक काल था। पर इस अलोकतान्त्रिकता की पृष्ठभूमि सन् 1971 से ही बनने लगी थी। मदन कश्यप का राजनीतिक चेतना इतनी उन्नत तो थी कि वे इन्दिरा गाँधी के चुनावी नारे 'गरीबी मिटाओ' का अनूदित संस्करण 'गरीब मिटाओ' समाज में देख लें! लोकतन्त्र को 'एक-तन्त्र' या 'आखेट-तन्त्र' में तब्दील होते देखकर उन्हें यकीनन भारत देश का आम नागरिक किसी बेबस चिड़िया से कम नहीं दिखा होगा।
उनकी कविताओं का सुचिन्तित अवगाहन करनेवाला हर पाठक आज ऐसा महसूस करता है कि सुविचारित आतंक से भरे आज के गहन अन्धकार भरे वातावरण में भारतीय चेतना की जागृति के लिए, उस जागृति की निरन्तरता के लिए, उस निरन्तरता की निरन्तर जुताई, गुड़ाई, निराई के लिए; आतंकित परिवेश में मानवीयता बचाए रखने की जिद के लिए...और भी ढेरो शुभग, शुभद वातावरण के लिए... दुनिया के हर देश के हर प्रान्त के हर गाँव के हर मुहल्ले के हर परिवार के हर मनुष्य के लिए...हर हाल में निश्चय ही एक मदन कश्यप चाहिए; कम से कम एक मदन कश्यप तो चाहिए ही चाहिए; जिनकी कोई भी कविता, नैराश्य से भरे किसी नागरिक के सामने गहन अन्धकार में भी आशा की कोई चिनगारी रख दे, साहस का कोई बाहुबली तूफान रख दे...और सामान्य नागरिक अपने हित में डटकर खड़े होने का साहस कर ले। इस दुनिया को सचमुच एक मदन कश्यप चाहिए, उनका लम्बा ही नहीं बड़ा जीवन चाहिए, उनका सफल ही नहीं सार्थक सृजन चाहिए, उनकी जीवन्त और प्रफुल्ल मुस्कान चाहिए, क्योंकि उनकी समग्र सृजनशीलता सामुदायिक जीवन में विश्वास करनेवाले, पगडण्डियाँ बनानेवाले, जागती आँखों में सपनों की खेती करनेवाले मामूली लोगों के होठों पर चिरन्तन मुस्कान लाने के लिए तूफानों से मुठभेड़ करने में तनिक भी नहीं हिचकती। दुनिया भर के देशों के निर्वीर्य व्यवस्थापति जिस तरह इतिहास की भव्यता मिटाकर अपने ओछेपन का प्रदर्शन करने में जुटे हुए हैं; मानवेतर आचरण को वैध व्यवस्था घोषित करने में लगे हुए हैं, ऐसे में दुनिया के सभी देशों के सभी नागरिक की भाषाओं में मदन कश्यप की कविताएँ उपलब्ध होनी चाहिए, ताकि लोग समझ सकें कि हठपूर्वक उनकी चौकीदारी का दायित्व झपटकर, उन्हें गुड्डा-गुड्डी के खेल में उलझाकर वे किस तरह उन्हें बलिदानी बकड़ा बना रहे हैं।
प्रारम्भिक समय से हर दौर के, हर भाषा के श्रेष्ठ रचनाकार अपने समय की शासकीय और राजनीतिक विसंगति को उजागर करते आए हैं; पर यह विसंगति तो साहित्यिक आँगन में भी है। स्वयं मदन कश्यप इसके प्रबल उदाहरण हैं। दशकों में बाँटकर कवि-कर्म को दाखिल-खारिज करनेवाली राजनीति में संलिप्त हिन्दी के कुछ कवि-चिन्तकों ने मदन कश्यप को ठेलकर नौंवें दशक में पहुँचाने की बड़ी चेष्टा की। 'नौवें दशक के विशिष्ट कवि मदन कश्यप' जैसे चतुराईपूर्ण 'कथन' जब-तब टिप्पणियों में खोंसे गए, जैसे प्रेमिका के जूड़े में डण्ठलवाले फूल खोंस रहे हों।...मदन कश्यप विशिष्ट कवि तो हैं, पर नौवें दशक (बीसवीं शताब्दी) के क्यों? आठवें दशक के क्यों नहीं? आखिर किस नियोजन कार्यालय ने यह अर्हता तय की? आठवें दशक के कवि माने जाने की अर्हता क्या है? मान्य मत तो यही है कि जिस दशक के ज्वलन्त प्रश्नों के समक्ष जो कवि निष्ठा और तत्परता से खड़े हुए, वे उस दशक के विशिष्ट कवि/कथाकार हुए। बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक का आपातकाल से भी बड़ा प्रश्न क्या था? और विचारक देखें कि उस दशक में मदन कश्यप ने अपनी कविता से विषय और शिल्प से क्या दिया है? उपलब्ध सामग्री के अनुसार आठवें दशक में उनकी सतरह (सन् 1973 में एक, सन् 1976 में सात, सन् 1977 में दो, सन् 1979 में पाँच, सन् 1980 में दो) श्रेष्ठ कविताएँ लिखी गईं। इनमें से चौदह कविताएँ बहुत छोटी-छोटी हैं, पर अपने प्रहार में बहुत ताकतवर। इन कवितओं में दर्ज मानवीय, राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन की चिन्ताओं के साथ-साथ, आपातकाल के दौरान अकुलाए जनजीवन पर गम्भीरता से विचार हुआ है। पर विचित्र है कि विचारकों ने आपातकाल के समर्थकों में शामिल कवि को तो आठवें दशक में गिना, जिन्होंने गाहे-ब-गाहे उपलब्धि के लिए अन्यथा समझौते भी किए, पर मदन कश्यप को ठेलने लगे। उन्हें उनमें ऐसा कौन-सा विकार दिखा, इसका उल्लेख अब तक नहीं हुआ है। उन्हें सोचना होगा कि वैसी धारणा के अनुगमन की स्थिति में वे उस दशक के ज्वलन्त प्रश्नों से मुखातिब उनकी इन सतरह श्रेष्ठ कविताओं का क्या करेंगे? पर, एतद्विषयक विवेकशील निर्णय एकाक्षि आलोचक नहीं, सुबुद्ध भावक देते हैं और कविता दिलाती है।
आठवें दशक की उनकी दस कविताएँ -- 'ताज', 'गाँव फागुनी', 'तुम आओ', 'हथेलियों में चेहरा' (1976), 'हलवाहे भाई' (1977), 'तुम्हारी हँसी', 'बच्चे', 'भूमिगत आग', 'कूपलेन में अन्धेरा' (1979), 'कोई सुर गूँजता है' (1980) उनके पहले संग्रह 'लेकिन उदास है पृथ्वी' (सन् 1992) में और सात कविताएँ -- 'चिड़िया की चोंच' (1973), 'हँसी की तलाश', 'तुम्हारा इन्तज़ार', 'महल फ़िल्म देखकर' (1976), 'मुट्ठियाँ तन रही हैं' (1977), 'चाँद चौथी का' (1979), 'प्रतीक्षारत' (1980) उनके चौथे संग्रह 'दूर तक चुप्पी' (सन् 2014) में संकलित हैं।
'ताज' कविता के बैगनलाल को दी गई धमकी कोई सामान्य धमकी नहीं है। वह समय भारतीय लोकतन्त्र का शर्मनाक काल था, आपातकाल की शासकीय क्रूरता जारी थी। इसलिए वह धमकी सत्ताधीशों को थी, जो कभी गिर जानेवाले अपने ताज पर अकड़े हुए थे और शासकीय मद में उन्हें अपने नंगेपन का बोध नहीं हो रहा था। इसलिए कवि ने बैगन को धिक्कारा कि सिर पर खड़े डण्ठल को वह बेशक ताज समझे पर अपने नंगे बदन की शर्म न भूले, ऐंठ न दिखाए, क्योंकि उसे आग में पकाए जाने का समय निकट आ गया है। उन्होंने बैगनलाल को सावधान किया कि जनशक्ति से डरे, लोकतन्त्र में जनता शक्तिशाली होती है, दुर्दिन में अपना ताज भी प्रतिपक्षी बन जाता है। कदाचित उन दिनों कवि की धारणा में लोकतान्त्रिक विवेक पर रही-सही आस्था बची थी। इसलिए उन्होंने धमकाया कि 'यह मत भूलो कि आग में पकाकर जब/तुम्हारा भुर्ता बनाया जाएगा तब यही ताज/तुम्हारे छिलके उतारने वाले का सहारा बन जाएगा!' ऐसी कविता लिखने का साहस मदन कश्यप ने आपातकाल (25 जून 1975 से 21 मार्च 1977) के दौरान सन् 1976 में किया। शासकीय उद्दण्डता एवं दुर्नीति को अस्तित्व-बोध करानेवाली यह विलक्षण कविता, जो उस दौर के कांग्रेसी शासकों के लिए तो लिखी ही गई, किन्तु परवर्ती काल के सत्ताधीशों पर समान भाव से लागू होती है। महत्त्वपूर्ण रचना वही होती है, जो अपने समय को पार कर लेने पर भी प्रासंगिक बनी रहे।
इसी वर्ष लिखी गई कविता 'गाँव फागुनी' में कवि ने एक ग्राम्य बालिका और फागुन की फसलों के सहारे मोहक, किन्तु मार्मिक चित्र उपस्थित किया है। वातावरण जीवन्त हो गया है। ग्राम्य प्रतीकों से रचा गया अनूठा बिम्ब अचानक से आपातकाल का रूपक खड़ा कर देता है। कविता में आई उस साँवली लड़की की भंगिमा और आचरण में ग्राम्य संस्कृति एवं कृषि-कर्म की उज्ज्वलता निखर उठती है। शासकीय क्रूरता और राजनीतिक उग्रता की जघन्य छाया ने उस बालिका के अल्हड़पन को यद्यपि बख्शा नहीं है, उस अशुभ छाया से उसका मनोजगत अछूता नहीं है, धारियों पर पड़ी आलू के पौध की झुलसी हुई फुनगी-सी उसकी हँसी झुलसी हुई है, पर इस कारण उसकी दिनचर्या आहत नहीं हुई है। उदास ही सही, पर उसकी हँसी बरकरार है। पगडण्डी को चूमने आई मटर की लतरों, फुनगियों, छीमियों को अपने पैरों तले कुचले जाने से वह बचाना चाहती है; उन पौधों की रक्षा करना अपना धर्म ही नहीं, संस्कार भी समझती है। यहाँ एक तरफ न्यूनतम शब्दावली में शासकीय क्रूरता परिलक्षित है, तो दूसरी तरफ उस साँवली लड़की का ग्राम्य संस्कार। वह सँभल-सँभलकर पाँव रखती आगे बढ़ रही है, 'वह धूल की धुन्ध से धूसर गाँव फागुनी/पगडण्डी को चूमती मटर की लतरें/कि छीमियाँ न कुचल जाएँ कहीं/थाह-थाह कर पैर रखती/जा रही है वह साँवली लड़की!' एक ग्राम्य बालिका के नन्हें-से उद्यम द्वारा आपातकाल की शासकीय नृशंसता को दी गई ऐसी ललकार बड़े साहस और बड़े कौशल का कार्य है।
'तुम आओ' शीर्षक उनकी कविता आपातकाल के दु:स्वप्न को, टीसते घावों को बार-बार हरा कर देती है। 'हरियाली में डूबी पगडण्डी का कोरा बदन/कहीं-कहीं दीखता है/जैसे मूँग के पौधों में दुबका कोई खरगोश/ कभी-कभी सिर उठा देखता हो।' पगडण्डी, पथिक, मूँग के पौधों की हरियाली और उस हरियाली में दुबके खरगोश -- ये चारो प्रतीक यहाँ बड़ी सूझ-बूझ से रचे गए प्रतीत होते हैं। पगडण्डी स्वयं में एक गहन अर्थ-ध्वनि को रेखांकित करती है। राजमार्ग बेशक धोखा दे दे, पगडण्डी कभी धोखा नहीं देती। स्मरणीय है कि पगडण्डियों ने ही आपातकाल के दौरान झूठे आरोपों के अपराध में भाग रहे आन्दोलनकर्मियों को पुलिसिया अत्याचार से बचाया था। हरियाली से ढकी पगडण्डी तो यूँ भी पथिकों के अन्दर-बाहर को किसानी ममता से भर देती है। इन पगडण्डियों, और इन पर चलनेवाले पथिकों का ग्राम्य-सरोकार बड़ा ही ममत्वपूर्ण होता है। हरियाली से ढकी इस पगडण्डी का कोरा बदन कहीं-कहीं ही दिखता है। यहाँ बिम्ब-सृजन का कवि-कौशल सराहणीय है कि सातत्य के प्रतीक उस पगडण्डी को मूँग के पौधों की हरियाली से ढका गया है, जो अत्यन्त भंगुर हरियाली है, सूखने में भी और गलने में भी। पगडण्डी के अस्तित्व को वह अधिक देर ढके नहीं रह सकती। प्रचण्ड गर्मी में भी उसकी तासीर इतनी गर्म होती है कि उसे खानेवाले मवेशियों के गोबर फब्बारे की तरह निकलते हैं। और, उसकी ऊष्णता में खरगोश जैसे कोमल प्राणी के छिपने का प्रतीक और भी व्याख्येय है। ऐसे सुन्दर, मनभावन, चंचल, निष्कलुष प्राणी के भयातुर होने और इतने ऊष्ण पौधों की ओट में छिपने की विवशता, आखेटकों की क्रूरता को कई गुणा बढ़ा देती है। इस कविता की रूप-रचना में कवि-बर्ताव तो प्रेम-कविता जैसा है, पर वस्तुत: यह कविता आपातकाल के शासकीय आचरणों को शर्मसार करती है। पगडण्डी के सातत्य की सुनिश्चिति बताते हुए इसमें कवि जिन्हें बुला रहे हैं, असल में वह उनका अपना ही शौर्य, पराक्रम, साहस और चेतना है; वे कहीं गए नहीं हैं, उन्हीं में हैं, और उन्हें मालूम है कि सब कुछ छिन जाने के बाद भी उनके पाँव के नीचे की जमीन उनके साथ है। उनके आने के लिए पगडण्डी भी बदस्तूर कायम हैं। कदाचित चतुर्दिक फैले क्रूर वातावरण में कवि को अपनी यह पूँजी असुरक्षित लग रही होगी, हो न हो, उनमें यह भाव उस दौर के कुछेक बौद्धिकों के सत्ताभक्त हो जाने के कारण आया हो। कवि अपने उस शौर्य-पराक्रम-साहस-चेतना को समूचे का समूचा सुरक्षित करना चाहते थे, क्योंकि उस विकट-काल में कवि के समय ने मिट्टी के सिवा अपना सब कुछ खो दिया, अपना आसमान, अपना सूरज, अपनी हवा...सब कुछ। जबकि कवि-पराक्रम ने अभी कुछ भी नहीं खोया था; इसलिए उन्होंने उन्हें इस माटी के सहारे ही अपना आसमान, अपना सूरज, अपनी हवा हासिल करने के लिए आमन्त्रण दिया। 'तुम आओ/हवा की विपरीत दिशा में/सूरज का क्रोध अपने माथे पर झेलते हुए/बस जीने और जीतने की अपनी इच्छा की बदौलत चले आओ/...यह ठीक है कि सूरज तुम्हारे पक्ष में नहीं उगा है/हवा तुम्हारे अनुकूल नहीं चल रही है/फिर भी पगडण्डी पर बढ़ते हुए तुम्हें लगेगा/यह धरती लगातार तुम्हारे साथ है।' आपातकाल की दुष्कृति को मुँहतोड़ जवाब देनेवाली यह प्रशंसनीय कविता है।
'हथेलियों में चेहरा' शीर्षक कविता देखने में पत्नी को सम्बोधित लगती है, किन्तु इसकी अर्थ-ध्वनि भावकों को इसके रचनाकाल में खींचकर ले जाती है, जब समय की आँच से दग्ध कवि के मनोजगत पर छाया आतंक स्पष्ट होता है -- 'माँ नहीं रही/अब तुम हो/और हैं सपनों से सराबोर तुम्हारी आँखें/और है मक्खन की भेली-सा तुम्हारा चेहरा/ हथेलियों में होता है तुम्हारा चेहरा/और सीने में दहशत/जानता हूँ/नहीं दे सकेंगी मेरी हथेलियाँ इतनी शीतलता/कि वक़्त की आँच में/मक्खन की भेली-सा तुम्हारा चेहरा/पिघल नहीं जाए!' यह पद्यांश भावकों को इस कविता की शुरुआत में ले जाती है, जहाँ बचपन की हथेलियों में माँ के दिए मक्खन की भेली है, भेली पर गढ़ी हुई आकृति है, आकृति में पत्नी है, मक्खन की भेली जैसा पत्नी का चेहरा है; और कर्ता के समक्ष उस मक्खन को, या सपनों को, या पत्नी को, या सम्बन्धों को पिघलने से न बचा पाने की असमर्थता है, सीने में दहशत है।...यह दहशत वस्तुत: आपातकाल की है, मदन कश्यप ने अपनी भिन्न-भिन्न कविताओं में उस एक ही दहशत को भिन्न-भिन्न प्रतीकों में स्पष्ट किया है। जैसे कोई महान गायक भिन्न-भिन्न आरोह-अवरोह के आलापों से एक ही भाव को प्रकट करते हों; जैसे कथक नृत्य के नर्तक भिन्न-भिन्न भंगिमाओं से एक ही भाव को स्पष्ट करते हों। इसी क्रम में उदास आँखें और चुप चेहरे 'फैलते आसमान और सिकुड़ती धरती के बीच/किसी हँसी की तलाश' (हँसी की तलाश) करते रहते हैं; आपातकाल के आतंक में मनुष्य मात्र के चेहरों से हँसी तो गायब हो गई थी, पर आँखों और मन पर तो आपातकाल भी पहरा नहीं दे सकता था। इसी क्रम में उन्होंने स्पष्ट किया कि नीम की शीतल छाया में 'राशनकार्ड लिए गेहूँ-चीनी पाने का इन्तजार' करते हुए, दाँत से नाखून काटते हुए, कतार में खड़े रहकर टिकट खिड़की खुलने का इन्तज़ार करने से कितना अलग होता है प्रेमिका का इन्तज़ार (तुम्हारा इन्तज़ार)! इन्हीं परिस्थितियों में फिल्म देखकर आने के बाद उन्हें चाँद दरख्तों के बीच से झाँकता प्रतीत होता है; जैसे रोशनदान से मधुबाला झाँक रही हो। उन्हें सारा देश एक 'महल' जैसा लगता है 'जिसमें जिन्दगियाँ रूहों की तरह भटक रही हैं' ('महल' फ़िल्म देखकर)!
किन्तु साल भर बाद सन् 1977 आते-आते भारत देश का राजनीतिक परिदृश्य बदला और जनसामान्य को एक बार फिर से शासकीय बन्दर-बाँट का झटका लगा। आपातकाल से ऊबी-अकुलाई जनता के जीवन में ऐसा कुछ भी नया नहीं हुआ, जो उन्होंने अपने सपनों में देखा था। सन् 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान भारत के द्वितीय प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री द्वारा दिए गए 'जय जवान जय किसान' के नारे मदन कश्यप ग्यारह वर्ष की आयु से ही सुनते आ रहे थे। इस राष्ट्रीय नारे में किसानी श्रम के लिए जिस सम्मान का भाव अनुमित किया गया था; सन् 1977 के कांग्रेस विरोधी शासन में भी उन्हें किसानी संस्कृति के आधार, हलवाहों के लिए वैसा सम्मान नहीं दिखा। हथियार-युग में भी हलधरों का हथियार हल ही रहा। ऋषि दधीचि की निष्ठा से जमीन्दारों के खेत को हरा-भरा करने और अन्न उगानेवालों की अवहेलना देखकर कवि ने उनके निरासक्त अवदान को उनकी पीड़ा बनाने की चेष्टा की -- 'मुट्ठी भर बीज की ये इत्ती फसलें!... पूरा का पूरा इन्हें मालिक के यहाँ पहुँचाकर/तुम बस केवल अपनी थकान के साथ/घर वापस होते हो/बीज तुम्हारे कदम चूमते हैं/बालियाँ तुम्हारी बाँहों में खेलती हैं/और अनाज की टोकरियों को/तुम लाड़ले बच्चे की तरह ढोते हो/फिर भी भूखे रहते हो!' कविता के बीचवाले अंश में श्रम, श्रमिकों की निष्ठा, प्रकृति, फसल, किसानी क्रियाएँ, जमीन्दारी शोषण...सबकी जीवन्त तस्वीर खींचते हुए कवि अन्तिम अंश में हलवाहे से प्रश्न करते हैं कि 'आखिर तुम्हारे मालिक का पेट/कितना बड़ा है हलवाहे भाई/कि अपने पूरे परिवार की हड्डियाँ गलाकर भी/उसे भर नहीं पाते/उसकी आँखों की आग कितनी तेज़ है/कि लगातार उसमें झुलसती हुई तुम्हारी चमड़ी/पत्नी की बाँहों में समाने पर भी हरी नहीं होती (हलवाहे भाई)?
कुल मिलाकर बीसवीं शताब्दी के ढलते समय में आकर भी, कांग्रेसी कुशासन से मुक्ति पाकर भी जनता स्वयं को कठपुतली ही समझ रही थी। चारो ओर गहन अन्धकार छाया था। ऐसे समय में सामुदायिक जड़ता दूर कर जन-जन में चेतना का प्रसार करना अनिवार्य था। अन्धेरे के पिघलने, धूप के गर्म होते जाने, जन-जन की धमनियों के रक्त के गर्म होते जाने, नसों के तन जाने, मुट्ठियों के बँध जाने, हजारों हज़ार मुट्ठियों के तन जाने का सन्देश जन-जन को देना (मुट्ठियाँ तन रही हैं) कवि को अनिवार्य लगा, सो उन्होंने दिया!
सन् 1979 में आकर स्थितियाँ थोड़ी और गम्भीर हुईं। शासकीय लटके-झटके को समझने में कवि भी कुछ सावधान हुए। अपने शासन के तीसरे वर्ष में प्रवेश कर गई वैकल्पिक सत्ता की चतुराई में उन्हें पूर्ववर्ती शासकों की क्रूरता और खूँखारपन दिखने लगे। उन्हें लगने लगा कि इसके निखरे हुए चेहरे पर जो हँसी है, उस हँसी में हमारी हँसी का कोई बिम्ब नहीं है। इसलिए उन्होंने उस शासक को उसकी कुटिलता का बोध कराते हुए साफ कहा कि अब तुम अपना रास्ता लो, हमें तुम्हारी जरूरत नहीं, तुम्हारी हँसी की उत्तेजित धारा तुझे मुझसे अलग करती है 'जैसे मुझे और तुम्हें/किनारों की तरह बाँटती हुई/हँसी की एक उत्तेजित धारा/बह गई हो (तुम्हारी हँसी)!'
बाल-क्रीड़ाओं के प्रतीकन द्वारा उस दौर के सामुदायिक जीवन के भोलेपन और निरीहता को रूपायित कर उन्होंने स्वयं को जन-जन का दिग्दर्शक बनाया और स्वयं को निरुपाय देखा, धरती-सा बिछा हुआ। जनता, सियासत की सुरंग में चल रहे खेलों से अनभिज्ञ और निश्चिन्त थी, जैसे सीमित दाँव-पेंचों के साथ खेल के मैदान में खेलते और जीतते और तालियाँ बजाते बच्चे अनभिज्ञ रहते हैं, खुशी से झूमते हैं फागुनी हवा में इठलाती गेहूँ की बालियों की तरह। उनकी खुशियाँ देखकर माँ-पिता को भी खुश होना पड़ता है 'हँसने लगती हैं पिता की बेचैन पराजय/माँ की सुबकती व्यथा और बहन की आहत आकांक्षाएँ/हरसिंगार के उजले-उजले फूल की तरह/मेरे सीने पर झड़ती है इनकी नन्ही-नन्ही हँसी/और मैं स्वयं को धरती-सा बिछा महसूस करता हूँ (बच्चे)।'
'भूमिगत आग' शीर्षक कविता में तो उन्होंने षड्यन्त्रकारी सत्ताधीशों को पर्यावरण संकट की भयावह परिणति की ओर संकेत करते हुए धमकी दी है कि 'जलते भूखण्ड को/धरती को काटकर/मिट्टी को बाँटकर/अलग-थलग आग' बतलानेवाले दुष्टो! याद रखो कि आग लगती है तो 'जंगल ही नहीं जलाशय भी जलता है/ज्वालाएँ सब पीती रहती है वसुधा यह/पर यह माटी जब जलने लगती है/होता नहीं सम्भव तब आग को बुझाना/...सब जलकर/सब गलकर/मिट्टी बनते हैं/जानो क्या बनता है मिट्टी जब जलती है!' कोयला खदानों के कूपलेन में फैले अन्धेरे को वे सियासी बाज के झुण्ड द्वारा फैलाए अन्धेरे की तरह देखते हैं ('कूपलेन में अन्धेरा')। उस अन्धेरे को वे सहज अन्धेरा नहीं मानते, इसलिए वे ललकार की भाषा में उन आखेटकों से पूछते हैं, 'ऐ रोशनी से खेलने वाले/ उजाले की दुनिया के तमाम सफ़ेदपोश परजीवी लोगो/जरा हिसाब लगाओ/कि तुम्हारे रोज-रोज के खाने में/कितना हमारी धमनियों का/ताजा गरम ख़ून होता है?' और सफेपोश चुप रहते हैं। कोई जवाब नहीं मिलता, कोई कविता नहीं बनती। जहाँ सिर्फ मजदूर ही रहते हों, जहाँ भाषा या तो रोटियाँ माँगे या सूदखोरों के आगे गिड़गिड़ाए, वहाँ कविता बने भी तो कैसे? और कविता बन भी जाए तो क्या हो! 'हर बार उसके अत्याचारों के सामने/गत्ते के सुदर्शनचक्र के समान/निरर्थक हो जाती है आपकी कविता!' आठवें दशक के सामुदायिक जीवन की विडम्बनाओं को इसी तरह रेखांकित करती उनकी कविताएँ 'चाँद चौथी का', 'कोई सुर गूँजता है', ' प्रतीक्षारत' आदि विशिष्ट ध्वनियों की ओर इशारा करती हैं।
मदन कश्यप के पहले संग्रह 'लेकिन उदास है पृथ्वी' में समाविष्ट पचास कविताएँ, पाँच महत्त्वपूर्ण खण्डों में विभक्त हैं। पहला खण्ड हिन्दी के महत्त्वपूर्ण कवि वीरेन डंगवाल को अपनी काव्य-पंक्ति के साथ समर्पित है कि 'हमारे रक्त में बर्फ के बुरादे भरते हुए/शिशिर आ रहा है।' इस पंक्ति से कवि अपने अग्रज कवि को अपने समय के एक खतरनाक षड्यन्त्र से सावधान करते नजर आ रहे हैं। षड्यन्त्रकारियों के अन्य दुष्कर्मों से अपने सहयात्री रचनाकार विजयकान्त को सावधान करते हुए दूसरा खण्ड समर्पित है कि 'वे पेड़ों को काटना नहीं चाहते, उनका हरापन चूस लेना चाहते हैं।' तीसरा खण्ड डॉ. शम्भुनाथ को इस आशा के साथ समर्पित है कि 'पृथ्वी के किसी कोने में तो होगा मीठा जल।' यह सम्भावना पृथ्वी की भव्यता और सम्पन्नता के प्रति आशान्वित करती है। चौथे खण्ड का समर्पण वाक्य कथाकार संजीव के लिए सूचना-स्वरूप है, जिसमें कोलियरी क्षेत्र में सफेद पोशाक की पवित्रता को लांछित करनेवाले सूदखोरों की छुद्रता दिखती है और वे कहते हैं कि 'यहाँ सफेद कपड़ों में सिर्फ सूदखोर आते हैं।' पाँचवाँ खण्ड इस समय के महत्त्वपूर्ण चिन्तक रविभूषण को समर्पित करते हुए कवि कहते हैं कि 'वे इस सपने का खतरा जानते हैं।' इस खण्ड की कविताएँ दुनिया भर की शासकीय कुटिलताओं को परखती हुई मनुष्य और मनुष्यता की चिन्ता करती है। यहाँ 'वे' उन साधारण मनुष्यों का सर्वनाम है, जिन्हें इस इस धरती के स्वम्भू प्रभु-वर्ग रौंदते रहना चाहते हैं। इन कविताओ का ऐसा संयोजन-वर्गीकरण, इसकी उद्देश्यपरक दृष्टि एवं प्रभावोत्पादकता को वैशिष्ट्य प्रदान करता है।
सन् 1987 में रचित इस संकलन पहली कविता 'शिशिर आ रहा है' सुविधा और दुविधा, सुख और दुख के आसन्न संघर्ष को सूक्ष्मता से रेखांकित करता है। समुन्नत चेतना सम्पन्न कवि मदन कश्यप वस्तुत: हिन्दी के सृजनात्मक क्षेत्र में ऐसे वरदान हैं, जिनकी पैनी दृष्टि किसी सावधान प्रहरी की तरह सदैव अपने आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक मूल्य की मूल्यवत्ता के लिए आवेगमय रहती है। अपनी रचनात्मकता के प्रारम्भिक दिनों से ही वे भारतीय राजनीति की विसंगतियों से हत-आहत सामुदायिक जीवन की पीड़ा का संज्ञान लेते रहे हैं। प्रेम-कविताओं के अलावा उनकी समस्त रचनाओं में शासकीय विसंगतियों पर बेहिसाब क्रोध रहता है, पर उस क्रोध की अभिव्यक्ति उनके कौशल के साथ तीक्ष्णतर व्यंग्य में ढल जाती है। प्रयुक्तियों में तो कहीं नहीं दिखता, पर प्रभाव में उनकी कविताएँ राजकमल चौधरी की तरह उग्र आवेग से भरी हुई, नागार्जुन की तरह उद्वेलित करती हुई और केदारनाथ सिंह की तरह सहजता से संचरित होती है। रोचक यह है कि कथ्यात्मक वैविध्य में बिम्ब-प्रतीक-रूपक रचने का बहुरंग भी इनके यहाँ इन तीनो पूर्वज कवियों का स्मरण कराता है। पर ध्यातव्य है कि अपने किसी अनुसन्धान या प्रयुक्ति में वे किसी को दुहराते-से नहीं दिखते। 'कालयात्री' कविता पढते हुए किसी सुअधीत पाठक को राजकमल चौधरी, 'पुलिस अधिकारी' पढ़ते हुए नागार्जुन, 'छोटे-छोटे ईश्वर' पढ़ते हुए केदारनाथ सिंह, 'किसी विस्थापन की तरह नहीं' पढ़ते हुए विनोद कुमार शुक्ल का स्मरण हो आए, तो इसका यह अर्थ कतई नहीं होगा कि इनके यहाँ किसी अग्रज पीढ़ी की बातें दुहराई गई हैं। इनकी रचनाएँ अपने समय के पाठकों को यह प्रेरणा भी देती है कि आशाओं-आस्थाओं की जैसी सम्भावनाएँ पूर्वज कवियों के सामुदायिक परिवेश में बची हुई थीं, परवर्ती काल के बौद्धिकों ने अपने लालची स्वभाव के कारण उनकी भी समाधि बना डाली, अब कुछ भी सम्भव होगा, तो जनसामान्य के द्वारा ही होगा। अपने इसी अनूठेपन के कारण वे अपने समय के अन्य कवियों से सर्वथा भिन्न हैं।
कवि को मालूम है कि शरद् ऋतु की घनघोर ठण्ड आने से पहले शिशिर की ठण्ड धीरे-धीरे आती है और पृथ्वी को गर्म रखनेवाला सूरज का ताप दुर्बल होने लगता है। ताजा कटे धान के पुआल और कोल्हुआर में पक रहे गुड़ की मनभावन महक बेशक जनसामान्य की घ्राण-शक्ति को सहलाए, पर शिशिर की छाती रौंदकर आई शरद् की ठण्ड जब सूरज के ताप को लाचार बना देगी, मनुष्य आप से आप लाचार हो जाएगा। चिन्तनीय है कि यह शिशिर की ठण्ड क्या शिशिर की ही ठण्ड है?...नहीं। यह ठण्ड मनुष्य की ऊष्मा मिटा देने के लिए लोकतन्त्र के देवताओं द्वारा सृजित ठण्ड है, जो धीरे-धीरे लाई जा रही है, भोली जनता को अभ्यस्त बनाकर निर्ममता से उसका गला रेतने की तरकीब है। इसी कारण तो कवि ने संग्रह के इस खण्ड की कविताएँ अग्रज कवि वीरेन डंगवाल को समर्पित करते हुए लिखा कि 'हमारे रक्त में बर्फ के बुरादे भरते हुए/शिशिर आ रहा है।' यह पंक्ति उस दौर के खतरनाक षड्यन्त्रों से पूरे सृजनात्मक समूह को सावधान करती है। इस खण्ड की सारी कविताएँ सत्ताधारियों द्वारा जनता को फँसाने के लिए फेके जा पाशे की पहचान करती हैं। त्रासद है कि इनके संयन्त्र केवल शरीर ही को नहीं, हमारे रक्त तक में बर्फ के बुरादे भर कर हमारे संस्कारों को ऊष्माविहीन करना जानते हैं। शिशिर की ठण्ड से बचने के लिए आम जनमानस की चेतना टटोलते हुए कवि पूरे का पूरा लोकाचार और सामुदायिक जीवन की सारी पद्धतियाँ टटोल लेते हैं, पर वे करें क्या? वे तो देखने लगते हैं कि 'हमारी उफनती बेचैनी को/मादक नशीली थपकियों से/आहिस्ता-आहिस्ता सुला देने की कोशिश करते हुए/शिशिर आ रहा है।' ऐसे में कवि सारे रुचिकर प्रसंगों और सुखमय चर्याओं के प्रतिकूलन का चातुर्यपूर्ण रूपक गढ़ते हैं और बड़े प्रभावी ढंग से स्पष्ट करते हैं कि सुविधाओं में लिप्त कराकर जनता को जिबह करनेवाली सत्ता का आखेटक उद्देश्य हमारे समय के बौद्धिकों को समझना होगा। ये हमारे समय के बुनियादी प्रश्न हैं, इसका समाधान ढूँढना इस दौर के कवियों का दायित्व है; ऐसा न कर पानेवाले कवियों पर उन्होंने अपनी कई कविताओं में तंज कसा है। वे लोकतन्त्र के इन बहेलियों की गिद्ध-दृष्टि को इतनी सूक्ष्मता से पहचानते हैं कि उनके नेपथ्य की मंशा भी भाँप लेते हैं। इसीलिए वे सावधान होते हैं कि हमारी उमस और छटपटाहटें आगे बढ़कर कोई दिशा ढूँढे, इसके पहले ही 'हमारी गरमाहट को/नुकीली ठण्डी हवाओं से बेधते हुए/हमारे सपनों को/कुहरों की दीवारों में चुनते हुए/शिशिर आ रहा है।' और अन्तमें अपने समय के कवि नागरिक और नागरिक कवि को वे सलाह देते हैं कि 'कल के कलेवे के लिए/एक मुट्ठी भात की जुगाड़ के साथ/पूरे वर्ष भर के रोटी के सवाल को/निर्मम ठण्डेपन से दबाते हुए/शिशिर आ रहा है/...इससे पहले/कि बर्फ और कुहरों से ढक जाएँ दिशाएँ/सुलगा लो अपने अलाव...।'
सन् 1987 में संचालित भारतीय लोकतन्त्र की जड़ीभूत शासकीय कुटिलताओं और जनविरोधी आचरणों का नग्न चेहरा जिस किसी को स्मरण होगा, वे आज भी तय करने में सक्षम होंगे व्यवस्थापकीय नीति में उनकी हैसियत मनुष्य की थी या कठपुली की। पर मदन कश्यप को स्पष्ट था कि जनसामान्य को दिया जानेवाला शासकीय प्रलोभन उन्हें शिष्ट राजभक्त बनाने का लेमनचूस था, शिशिर ऋतु का गुदगुदी भरा गुनगुना अहसास था; वह शिशिर नहीं, राजनीतिक रूप से उसके ऊष्मा-हरण का उद्योग था; जो आनेवाले समय में मनुष्य की जीवन पद्धति को दबोच लेता; उसकी बची-खुची ऊष्मा को नुकीली ठण्ड से भेदकर उसके सपनों को नेस्त-नाबूदकर देता।
इस संग्रह की 'घर' शीर्षक कविता अनेक सन्दर्भों से महत्त्वपूर्ण है। बालपन की कोमल स्मृतियों, घर से बेघर होने की पीड़ाओं और मानवीय संवेदनाओं को इसमें कवि ने ऐसे रचनात्मक कौशल से उपस्थापित किए हैं कि यह 'घर' कवि का घर रहा ही नहीं, यहाँ पूरे समुदाय के निजी घरों का दीर्घ विमर्श तैयार हो गया। यह कविता मदन कश्यप ने सन् 1987 में तब लिखी थी, जब उनके गाँव का पुश्तैनी घर टूट गया था, जिस घर से कवि की कम से कम तीन पीढ़ियों की स्मृतियाँ जुड़ी थीं। पर पता नहीं किस हड़बड़ी में, इसे कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह की कविता मानकर बहु-अधीत विद्वान आनन्द प्रकाश ने 'पत्थरों का गीत' संग्रह में शामिल कर लिया। सम्पादक को जानकारी दी गई, तो उन्होंने खेद प्रकट किया। इसके बावजूद इस संकलन पर दिल्ली विश्वविद्यालय में शोध हुआ और शोधार्थी ने सर्वाधिक चर्चा इसी कविता की की। सन् 2016 में 'नया ज्ञानोदय' पत्रिका के वार्षिकांक में यह घटना फिर से दुहराई गई; इस बार यह कविता वरिष्ठ कवि विजय कुमार के नाम से छपी; पर इस बार आपत्ति स्वयं विजय कुमार ने ही की। मनुष्य के बेघर होने की पृष्ठभूमि के साथ मदन कश्यप ने अपने और अपनी कविता के घर के बेघर होने की यह पीड़ा इस संग्रह के दूसरे संस्करण की 'कैफियत' में व्यक्त की है। यह कथा हिन्दी के अराजक सम्पादन-कर्म को भी प्रश्नांकित करती है।
साम्य-वैषम्यमूलक बिम्ब बनाकर और वस्तु में चेतना समाविष्ट कर कविता की अर्थ-ध्वनि को वैराट्य देने के मदन कश्यप के कौशल की कितनी भी प्रशंसा कम होगी। उनके इसी कौशल के कारण उनकी कविताओं के भावक कविता में रेखांकित प्रसंगों में स्वानुभूति की तरह स्मृतियों में खो जाते हैं। उस घर के गिरने की पूरी प्रक्रिया में वे घर के एक-एक अंश की चेतना को रूपायित करते हैं। उन्हें यकीन है कि गिरने से पहले उस घर की नोनियाई दीवारों ने उन्हें याद किया होगा; उस घर का ठाट भदभदाकर गिर जाने से पहले उनके कन्धे की प्रतीक्षा में थोड़ी देर रुका होगा। यहाँ तक कि चूहा पकड़ने की कोशिश में, उस ठाट से फिसलकर उनके पाँव के पास गिर जानेवाले साँप की विफलता भी उन्हें याद आई। पर चतुराई प्रशंसनीय है कि बालपन में अपने पाँव के पास साँप के गिरने से अपना भय उन्हें याद नहीं आया। यकीनन उन्हें भय नहीं हुआ होगा, या फिर भय की स्मृतियों से वे परहेज करते होंगे। इसमें दूसरी सम्भावना प्रबल है। मदन कश्यप की कविता न तो कभी उनके भय को रेखांकित करती, न अपने नायकों की भयाकुल मन:स्थिति को। इस कविता में वस्तुत: रहवासियों की स्मृतियाँ घर के तिनके-तिनके में जीवित रहती हैं। किसी संवेदनशील मन को कल्पना करते देर नहीं लगेगी कि घर केवल टाट-फूस से बने छप्पर का नाम नहीं होता, घर में पीढ़ियों से जीवन बसर कर रहे मनुष्य की असंख्य अनुरक्तियाँ जुड़ी होती हैं। उन्हें मलबे में दबने से पहले तक उन खम्भों में बची अपने स्पर्श की स्मृतियाँ भी कुरेदती हैं, जिन्हें पकड़कर वे बचपन में चक्कर काटा करते थे। अतीत-व्यतीत के अत्यन्त साधारण प्रसंगों का ऐसा असाधारण रेखांकन, जो कविता में आकर सार्वजनिक उपादेयता प्राप्त कर ले, विलक्षण है। विरासत को बचाए रखने के प्रयास में खर्च हो गई दो पूर्ववर्ती पीढ़ियों की घनीभूत पीड़ा तो इस कविता में है ही; पर उन्हें सर्वाधिक पीड़ा किसी अनदेखे 'राकस' के कुकृत्य से सताई गई अपनी माँ की पीड़ा से है।
उस घर में उनके पैदा होने की प्रतीक्षा थी, छप्परों के चूने से गीली देहरी पर फिसलकर गिरता हुआ उनका बचपन था, घर के पूरा होते ही दिवंगत हुए दादा और उम्र के आखिरी दस वर्ष गुजारनेवाली दादी की स्मृति थी, पर सर्वाधिक मार्मिक वह दृश्य था, जिसमें ओसारे पर धधकती सबसे मीठी आग के समक्ष भात पकाती पृथ्वी की सबसे सुन्दर स्त्री उनकी माँ होती थी, जो मरने से पहले ही उस घर की दीवार में जड़ दी गई थी। सावन-भादो के नियमित अन्नाभाव में माँ कोठी के पेन्दे से निकाले गए चावल बीनती हुई दादी के किस्से के राकस को याद करती, कि कैसे वह राकस मिट्टी ढुलवाकर, थका-थकाकर मनुष्य को मार देता। राकस का पराक्रम उसकी चमत्कारी जटा में होता, जटा नोंच लें तो पराक्रम नष्ट। लोक-कथा के उस राकस के पराक्रम को उनकी माँ भी परिपुष्ट करतीं -- '...कोई उसे भी ला देता राकस की जटा/तो वह रख देती चावल की कोठी में/फिर चाहे जितना पकाते, जितना खाते/कभी न घटता चावल/कभी न कमता भात।' यह परिपुष्टि यकीनन माँ के अन्धविश्वास या अज्ञानता का समर्थन नहीं; बल्कि एक साधन-सुविधाविहीन माँ की तरकीब होती, जो अबोध बालक के झूठी आस्था की ओट में अपनी विवशता को उजागर होने से बचा लेती। यह राकस कौन था? यह राकस वस्तुत: परिवार-मोह, सन्तान-मोह, व्यवस्था-मोह की दीवार में चुन दी गई एक स्त्री की विवशता थी, जो चाहकर भी उस राकस की जटा उखाड़ नहीं पाती थी। कविता के इस अंश में स्त्री-विमर्श की ऐसी उज्ज्वलता खचित है, जिसकी पहचान अभी भारतीय समाज में बाकी है।
इस कविता के दूसरे अंश में कवि ने उसी घर में किसी ठण्डी भोर में पत्नी की आँखों की ललक और बेटी की तोतली मुस्कान के साथ अपने दायित्व-क्षेत्र की शुरुआत की, जहाँ जिन्दगी के लम्बे सफर में असंख्य कँटीली लताओं से उलझकर दफ्तरों-कारखानों में दौड़-भाग करते हुए, पत्नी के दर्द, बेटी के गलशोथ, बेटे की गिल्टी से जूझते हुए फिर से वह राकस मिला, बंगलों में और मंचों पर वर्चस्व बनाए उन राकसों की जटा उखाड़ने की कोशिश में कटकर गिरे हाथ मिले; पर कवि निराश नहीं हुए। उनका वह घर बेशक नहीं रहा; न नीन्द में, न सपनों में, न खून में, कहीं भी नहीं; पर उन्हें इस पृथ्वी और देश से बेहद प्यार है -- 'हे पृथ्वी/अब तुम्हारे किसी कोने में नहीं है मेरा कोई घर/प्यार करता हूँ मेरे देश/मैं तुम्हें अब भी प्यार करता हूँ/तुम्हारे धीरोदात्त पहाड़ों को/तुम्हारी चंचल नदियों को/तुम्हारे झरनों, जंगलों, खेतों, फसलों, खदानों और कारखानों को/बेहद-बेहद प्यार करता हूँ ।'
पूरी पृथ्वी के सभी उपादानों से प्यार करनेवाले इस कवि की काव्य-संवेदना वस्तुत: बेहद प्यार से भरा हुआ है। उनके प्यार की सीमा बस प्यार ही निर्धारित कर सकता है, क्योंकि उस प्यार का सरोकार किसी जाति, धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग, धारणा, क्षेत्र...से नहीं, पूरी पृथ्वी और मानवीयता से है। यहीं आकर मदन कश्यप के इस पहले संग्रह के शीर्षक की सार्थकता सिद्ध होती है -- 'लेकिन उदास है पृथ्वी।' सब कुछ तो सही चल रहा है। आम चुनाव लगातार हो रहे हैं, घपले-घोटाले हो रहे हैं, खून-खराबा-दंगा करवाया ही जा रहा है, प्राकृतिक आपदाएँ आ ही रही हैं, किसानों की भूखमरी और आत्म-हत्याएँ जारी ही हैं, अबलाओं के बलात्कार आए दिन होते ही रहते हैं, राजनीतिज्ञों की थोथी घोषणाएँ होती ही रहती हैं, मँहगाई बढ़ती ही जा रही है, घूसखोर की समृद्धि हो ही रही है, निठारी काण्ड हो ही रहा है, राजनेताओं की मौज-मस्ती बढ़ ही रही है, फिर 'पृथ्वी उदास क्यों है?' इसलिए कि जिस पृथ्वी से मदन कश्यप को इतना प्यार है, उस पृथ्वी की सबसे सुन्दर स्त्री इस पृथ्वी को तबाह करनेवाले 'राकस' की पराक्रमी जटा उखाड़कर उसे निष्क्रिय और निरर्थक नहीं बना पा रही है। पृथ्वी सर्वसहा होती है, सब कुछ सह लेती है, माँ की तरह; पर अपनी पीठ पर पसरी हुई सृष्टि की अधिष्ठात्री, सबसे सुन्दर स्त्री की त्रासद विवशता वह पृथ्वी कैसे देखेगी? इसलिए उदास है पृथ्वी।
मदन कश्यप का विषय-क्षेत्र अत्यन्त उदार और विराट है। पूरी पृथ्वी के लिए उदार हैं। अपने निज और संकुचित धारणाओं से उन्हें बड़ी चिढ़ है। उनकी इस धारणा की स्पष्ट अभिव्यक्ति उनके पाँचवें कविता-संग्रह 'अपना ही देश' की 'बिजूका' (सन् 2005) शीर्षक कविता में हुई है, जिसमें कवि ने स्वयं को ही एक बिजूका की हैसियत में खड़ा कर दिया है। मानवीय छुद्रताओं को अपने ऊपर ओढ़कर उन्होंने बताया कि वे खेतों में बिजूके की तरह अनन्त की ओर बाँहें फैलाए इसलिए राजी-ख़ुशी खड़े हुए थे कि अपने कुटुम्बों को आपद-विपद से बचाएँ और अनन्त में फैले सन्मार्ग अपनाकर वे कुछ बेहतर करें, पर ऐसा हो न सका। कुटुम्बों ने अपने आलस्य, बेपरवाही और छुद्रताओं में न केवल अपना, बल्कि बिजूका बने अपने महान विचारक कुटुम्ब को भी किसी काबिल नहीं रहने दिया। धीरे-धीरे उसके वस्त्र सड़े, धरती में गड़े पाँव और फैले हुए हाथ जड़ हो गए, और अन्त में महसूस हुआ कि उनका सिर त्यागी हुई काली हाँड़ी हो गया। विवेकहीन राजनीतिक व्यवस्था, दानवीय दुर्नीति से भरे स्वार्थी शासन-तन्त्र और दूसरों के हिस्से के पवन-प्रकाश-पायस चुरानेवाले व्यवस्थापकों की चेतना ने मनुष्य को ऐसा 'बिजूका' बनाया कि वह सही अर्थ में 'बिजूका' भी नहीं रह गया, क्योंकि मनुष्य के स्वभाव में -- 'सबसे पहले दुनिया को बदलने का सपना मरा/एक ख़ूबसूरत दुनिया में हो मेरा घर की जगह पर मैं सोचने लगा/दुनिया में हो मेरा ख़ूबसूरत घर/फिर एक-एक कर वह सब कुछ मर गया/जिनके मरने से आदमी मर जाता है...।'
सन् 1987 के आसपास का समय भारत देश में राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण का समय था। आपातकाल से मुठभेड़ करने के लिए सर्वदलीय राजनीतिक पार्टियों का जैसा गठजोर तैयार हुआ था, उन सबकी स्वार्थपरता ने उन्हें ऐसा तिकड़मी बनाया कि नागरिक-जीवन को उन सब ने मिलकर हमेशा-हमेशा के लिए ऊबी हुई जनता का देश बना दिया। उन तिकड़मियों के कारण इस देश का ऊबा हुआ नागरिक हर चुनाव में विकल्प ही टटोलता रह गया, सुचिन्तित प्रतिनिधि कभी नहीं चुन पाया। लोकतन्त्र के मन्दिर 'संसद' में पहुँचे ये वैकल्पिक प्रतिनिधि, जनता के पथ-प्रदर्शक होने के बजाय नागरिक संसाधनों के लुटेरे हो गए। ऐसे खूँखार प्रतिनिधियों तक जनता की दुख-दुविधा तो ईश्वर भी न पहुँचाएँ। मदन कश्यप जैसे कवि की जरूरत ऐसे ही बुरे समय में नागरिक चेतना को दुरुस्त करने के लिए हुई। क्योंकि राजनीतिक सुरंगों में पापिष्ठ नीतियों के निर्माताओं की कर्म-कुण्डली उनकी पढ़ी हुई थी।
राजमार्ग के खोखले अर्थ-गौरव को तार्किकता से रेखांकित करती उनकी 'पगडण्डियाँ' (सन् 1981) शीर्षक कविता लोक-निर्मित पगडण्डियों की महिमा निरूपित करती है। समाज का वह हर व्यक्ति पगडण्डियों की रचना-प्रक्रिया जानता है, जो इस पर चलकर कहीं जाता है; पर इस तथ्य की ओर किसी का ध्यान नहीं गया होगा कि पगडण्डियों का निर्माण राजकीय बजट से नहीं, सुनिश्चित योजनाओं से नहीं, जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति में चक्कर लगानेवाले कामकाजी पाँवों से होता है; लोगों ने अब तक अभिकलन नहीं किया होगा कि पाँवों से निर्मित ये पगडण्डियाँ राजमार्ग की तरह यूँ ही बिथरकर कभी गाड़ियों-सवारियों की प्रतीक्षा नहीं करतीं; वे संकल्पों के पाँवों में अनुराग से चिपके किसी धूलकण का बेशक इन्तजार करती हैं, पर मौके-बेमौके सपने भी बनाती हैं -- 'पगडण्डियों पर गाड़ियाँ नहीं चलतीं/फौजी झण्डा-परेड नहीं होती/टैंकों की गड़गड़ाहट भी सुनाई नहीं देती/पगडण्डियों पर चलते हैं गाँव...।' और अन्त में कवि निष्पत्ति देते हैं कि 'किसान, औरतें और बच्चे/अपनी मिहनत से/इतिहास के साथ-साथ पगडण्डियाँ बनाते हैं/और जब कभी पगडण्डियों को छोड़/राजमार्गों पर निकल आते हैं/इतिहास बदल जाता है...!' यह कविता भारतीय लोकतन्त्र के दूसरे मध्यावधि चुनाव के तत्काल बाद सन् 1981 में अवश्य लिखी गई, पर विगत वर्ष के किसान आन्दोलन में इसकी परिपुष्टि ने एक बार फिर से प्रमाण दिया कि 'कवि भविष्यद्रष्टा होता है।'
यह राजनीतिक विडम्बना ही है कि सामुदायिकता के सहजीवी पगडण्डी, सर्वदा उपेक्षित रह जाती है, पर गाँवों से श्रम-प्रतिभा के पलायन और गाँवों में पूँजीपतियों के उत्पाद ठूँसकर उसके जीवन-यापन का बजट चरमरानेवाला राजमार्ग प्रमुखता पा रहा है। जो लोग गाँवों में पक्की सड़कों के आगमन को विकास का संकेत मानते हैं, उन्हें सबसे पहले अपनी समझ को दुरुस्त करना होगा कि यही पक्की सड़क उनके घर की रोशनी हर कर ले जाती है, असली विकास तो उसके दैनिक बजट समृद्ध करने से होगा। पगडण्डियों पर चलनेवाले पाँव कभी राजमार्गों के आदर-सम्मान को लालायित नहीं होते। क्योंकि वे जानते हैं कि पगडण्डियों की दिशाएँ बेशक निर्धारित नहीं होतीं, अन्तरिक्ष से लिए हुए गूगल चित्र बेशक उसके रास्ते नहीं दिखाते; पर पगडण्डियाँ राह भटके मनुष्य को आगे निकलने की गुंजाइश देती हैं।
इसी तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने वर्चस्व-संचार के लिए जमीन्दार द्वारा पाले गए हाथी के रूपक के सहारे 'बूढ़ा हाथी' (सन् 1983) कविता में कवि ने जली हुई रस्सी के ऐंठन की तरह नष्ट होती जमीन्दारी अत्याचार, नृशंसता और अहंकार को रूपायित किया है। जमीन्दार की दूसरी पीढ़ी के जवान होते-होते थकान और झुर्रियों के मारे वह बूढ़ा हाथी और भी जरायु हो गया। पर दूसरी पीढ़ी के जमीन्दार को ज्यों ही आभास हुआ कि वह हाथी, केवल हाथी ही नहीं, उसकी जमीन्दारी की जली रस्सी की ऐंठन है, उसने उस नृशंस हाथी को गणपति के रूप में पेश कर दिया। गाँव भर की स्त्रियों ने गणपति पूजन की, हाथी का महात्म्य बढ़ गया, जयकारा गूँज उठा। और, अस्ताचल को जा रही जमीन्दारी एक धार्मिक तिकड़म के रास्ते फिर से जनसामान्य के गले की फाँस बन गई।
इस कविता में कवि ने भारतीय समाज की विचित्र विडम्बना की ओर ध्यान आकर्षित किया है। जमीन्दारों या कि शोषकों का खेल तो इस समाज में सदियों से चल रहा है। नए-नए तिकड़म तो वे रचते ही रहते हैं; विडम्बना यह कि हमारा अन्धविश्वासी समाज भी क्रूर जमीन्दारों के नकली भगवत रूप को स्वीकार करने में देर नहीं करता। जमीन्दारों की दूसरी पीढ़ी ने देखा कि जमीन्दारी-प्रथा-उन्मूलन के बाद अब आतंक फैलाने से काम नहीं चलेगा, तो धर्म की ओट से शोषण शुरू कर दिया। गाँव के इकलौते जमीन्दार का हाथी होने की वजह मात्र से वह बूढ़ा हाथी चिंघाड़ता था, दहशत पैदा करता था, गरीबों के नन्हें बच्चों और झोपड़ियों को कुचल देता था, मनुष्य को टाँगों के बीच से चीर देता था, जमीन्दार साहब इसे उसकी मस्ती कहा करते थे; ऐसा इसलिए होता था कि लोग उन्हें बर्दाश्त करते थे, वर्ना उस बूढ़े हाथी की थकान और बेबसी में ऐसी कोई मस्ती नहीं थी; मस्ती का स्वांग था। पर जमीन्दार साहब की ध्वस्त होती उम्र और जमीन्दारी में अपनी औसत उम्र पार कर चुके हाथी के मर जाने, सड़ जाने, बदबू फैलने की कामना होने लगी थी; जनसामान्य के बच्चों के कुचले जाने का डर समाप्त होने लगा था। पर अचानक एक धार्मिक तिकड़म के प्रताप से हाथी और नए जमीन्दार का जयकारा होने लगा। तिकड़मधर्मी वर्चस्व के इस कौशल में कवि को जमीन्दार से अधिक क्रोध, उस भोली जनता के अनावश्यक भोलेपन पर है। पूरी कविता अत्याचार बढ़ने, अत्याचारी के सड़ने-गलने का रूपक रचते हुए कवि अन्त में एक और रूपक महाभारत से गढ़ लेते हैं, उन्हें लगा कि 'एक बार फिर, अर्जुन को आत्ममोहित करने के लिए/भीष्म पितामह की तरह आगे कर दिया गया/इस बूढ़े हाथी को!' अत्याचार करने की नई-नई पद्धतियों में सामुदायिक जीवन की सुख-सुविधा, उल्लास-विलास उपेक्षणीय हैं। जमीन्दारों की दृष्टि में नागरिक जीवन खिलौने हैं, जैसे चाहें उनसे खेलें; ऐसा विचित्र आचार कवि को क्षुब्ध करता है।
मदन कश्यप के अभिज्ञान, अध्यवसाय, कोयला-क्षेत्र से लेकर देश-प्रान्त की राजधानियों तक में रहवास, भ्रमण, बहुमुखी चिन्तनशीलता एवं कार्यानुभव के समवेत प्रभाव ने कदाचित उनकी कविताओं के विषय-क्षेत्र को दिग्दिगन्तगामी बनाया और उनकी अर्थ-ध्वनियों को वैराट्य दिया। कोयला-खदान के धुएँ से लेकर माफियाओं, सूदखोरों, खान-प्रबन्धकों, मजदूर नेताओं की शृगाल-वृत्ति के दर्द सहते खान-मजदूरों की पीड़ा को निकट से देखने का उन्हें जैसा अवसर मिला, अपनी सृजनशीलता को मानवीय बनाने में उन्होंने उसका भरपूर सद्दोहन किया है। इतिहास-बोध, राजनीतिक चेतना और पत्रकारिता में गहन रुचि ने उन्हें प्रान्त और देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक जीवन-दशा को सूक्ष्मता से विश्लेषित करने का अवसर दिया। इस अभिज्ञान के कारण ही प्राय: उनकी कविताएँ इतिहास, सभ्यता, परम्परा, चेतना और जीवन-दशा के इतने सन्दर्भों से मिलवाती हैं और काव्य-रस के साथ-साथ भावक ज्ञान-भाव से भी सराबोर हो जाते हैं। वे जान पाते हैं कि सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और परम्परा का बोध ही मनुष्य को मूलोच्छिन्न होने बचा सकता है। मनुष्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रतिफलों का लाभ बेहिचक ले, पर उसकी सुकीर्ति का; उसकी विकृति को भी धर्म-भाव से धारण न करे। ध्यान रखे कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का संचालन मनुष्य ही करता है, जो अधिकांश स्थितियों में अपनी दानवी लिप्सा से मुक्त नहीं रह पाता। उल्लेख सुसंगत होगा कि हमारे पूर्वजों ने जिस आग का आविष्कार आत्म-रक्षा और ऊष्मा प्राप्ति के लिए किया था, उस आग से आज के धर्म-रक्षक निरुपाय लोगों के घर जलाते हैं। निर्माणक वृत्ति का आविष्कार करनेवाला विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी निस्सन्देह वरदान है; विध्वंसक वृत्ति की ओर पाँव रखते ही वह अभिशाप बन जाता है। जिस सोच-विचार और संसाधन के अन्धानुकरण में लोग अपनी सभ्यता और सद्वृत्तियों से परांग्मुख हो जाए, वह वैज्ञानिकता हो ही नहीं सकती; क्योंकि विकृति की ओर सम्मोहन प्रगति नहीं, ह्रास है। मूलोच्छिन्न होकर कोई भी मनुष्य आधुनिकता और समकालीनता का अर्थग्रहण सही परिप्रेक्ष्य में नहीं कर सकता। आधुनिक समय के राजनीतिक आखेटकों ने इन्हीं मूलोच्छिन्न लोगों की दुर्बुद्धि का लाभ लेकर सामुदायिक जीवन को द्रोह, दंगा, जातीय भेद-भाव, साम्प्रदायिक उन्मादादि का अखाड़ा बनाया। स्वेच्छाचारिता एवं लोभ-लालच की सहज सुविधा के प्रति रुचि-भ्रष्ट लोगों में बड़ा सम्मोहन रहता है। ऐसे लोगों की संख्या देखादेखी बढ़ती जाती है, पतनशील नागरिकों का जनमत ऐसे ही बढ़ता है। सभ्यता-विकास की उज्ज्वल छवि के धारक देश, भारत में यूरोपीय अन्धकार युग की छवियाँ ऐसे ही राजनीतिक उत्पातों से उपस्थित हुई है। रोमन साम्राज्य के पतन के बाद चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में आर्थिक-बौद्धिक-सांस्कृतिक पतन की जैसी तस्वीर पश्चिमी यूरोप में थी, मदन कश्यप को बीसवीं शताब्दी के शेष होते-होते वे सारी स्थितियाँ भारत में दिखने लगीं।
सन् 1994-95 में दसवीं लोकसभा (सन् 1991-96) चुनाव जीतकर सत्तासीन हुई कांग्रेसी सरकार की लीला भारतीय जनता झेल रही थी। पी वी नरसिंहराव भारत के प्रधान-मन्त्री थे। माना जा रहा था कि उनसे पहले की शासन-व्यवस्था ने तो संस्थाओं को केवल भ्रष्ट किया, उनके शासनकाल में तो भ्रष्टता का संस्थानीकरण हो गया। कुछेक लोगों ने उनके ज्ञान एवं तेजस्विता के गीत भी गाए; पर वैसे ज्ञान किस काम के, जिसका उपयोग देसीय नागरिक की जीवन-दशा सुधारने में या सभ्यता-संस्कृति के पतन रोकने में न हो पाया? जिस सिनेमा के कन्धे पर समाज और राष्ट्र के उत्थान का जुआ रखा रहता है, उस भारतीय सिनेमा के खुदमुख्तारों ने सन् 1994 के पूरे वर्ष में लगभग सवा सौ फिल्में बनाईं, सारी की सारी हास्य, रोमांस, मार-धार, जोखिम की; समाज को उद्बुद्ध करनेवाला एकमात्र जीवनीपरक सिनेमा, शेखर कपूर निर्मित 'बैण्डिट क्वीन' है। स्पष्ट है कि यहाँ भी नैतिकता जैसी कोई बात नहीं रह गई थी। संचार-जगत भी पतनशील रुचि को सहलाने में ऐसे लगा हुआ था कि उन्हें गोपालगंज के जिला मजिस्ट्रेट जी. कृष्णैया की नृशंस हत्या से कहीं अधिक बिकाऊ भारतीय कन्याओं के विश्व-सुन्दरी और अन्तरिक्ष-सुन्दरी का खिताब जीतने का समाचार प्रतीत हुआ। राजनीतिक दुनिया तो पहले से ही भ्रष्ट थी, शैक्षिक वतावरण को ध्वस्त करने की सारी व्यवस्था शुरू हो गई। भावकों को इस सरकार के कार्यकाल में हुए घपलों-घोटालों के सारे घिनौने कार्यों की सूची भली-भाँति स्मरण होगी। भारतीय लोकतन्त्र के सामुदायिक जीवन की ऐसी पर्यवस्थिति 'अन्धकार-युग' जैसी दिखने लगी; जिसमें मदन कश्यप 'कालयात्री' (सन् 1994-95) शीर्षक कविता लिखने को उद्वेगित हुए।
यह कविता काल-बोध, सभ्यताबोध और समकालीनता-बोध की सूक्ष्म संवेदनाओं से परिपूरित है। इसके घनीभूत सन्दर्भ ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से इस तरह लदे हैं कि सभ्यता-संस्कृति से सम्बोधित हुए बिना इसका आस्वाद कठिन होगा। आह्लादक रस-बोध के साथ यह कविता भावकों को अपनी सभ्यता की तरलता को जानने का अवसर भी देती है। सात हजार वर्षों के सभ्यता-काल में यहाँ-वहाँ यात्रा करते हुए, कविता के वाचक ने इतिहास के दबे पृष्ठों से उन तथ्यों को खोज निकाला है, जो लगातार सभ्यता-विकास की अर्थवत्ता के दामन पर क्रूरता के दाग लगाते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि सारे उद्धृत तथ्य यथार्थ हैं, गढ़े हुए आँकड़े नहीं। इतिहास और सभ्यता के विशेषज्ञ चाहें तो इन तथ्यों की परीक्षा कर सकते हैं। इस यात्रा की पगडण्डियाँ वाचक को धरती पर नहीं, काल के प्रतिगामी खण्डहरों में ले जाती हैं। ये वाचक, या कि कालयात्री, कवि स्वयं हैं; जिनकी इस यात्रा में न कोई सहयात्री है, न कोई सम्बल। बस सभ्यता की एक अमूर्त छाया का साथ होना उन्हें प्रतीत होता रहता है, जिसे तरह-तरह के सम्बोधन से सम्बोधित कर वे आत्मतोष करते जाते हैं।
तीन टुकड़ियों में रची इस कविता की पहली टुकड़ी में कवि एक अमूर्त सुन्दरी से संलाप करते आगे बढ़ते हैं, शीघ्र ही वह अमूर्त छाया उन्हें अपनी और अपने पूर्वजों की सहचरी सभ्यता दिखने लगती है। उस अमूर्त सभ्यता को हड़प्पा-काल से लेकर बीसवीं शताब्दी के अन्त तक की दर्दनाक गाथा तो कवि पूरी कविता में सुनाते रहते हैं; पर पहली टुकड़ी के अन्तिम अंश में वे उस मुर्दालोक से बचकर भाग निकलते हैं, जहाँ शब्द और विचार पूरी तरह मर चुके थे। पर उन्होंने अपनी भाषा के थोड़े शब्द और अपनी मातृभूमि की मधुर स्मृतियाँ बचा ली थीं। दूसरी टुकड़ी में वे उन्हीं दिनों की कविता, मृदुबयनी सभ्यता को सुनाते हुए एशिया की अन्धेरी गुफा में चले जाते हैं, जहाँ भिन्न-भिन्न भूखण्डों की लीला के बीच कहीं से अमेरिका आ घुसता है। सभ्यता और संवेदना की तिजारत करनेवाले उन सौदागरों के आचरण भी उन्हें रिझा नहीं पाते, वे वहाँ से भी भाग निकलने से पहले लिखी कविता अपनी मृगनयनी सभ्यता को सुनाते हुए, यूरोपीय रक्तपायियों के दाँतों की चमक बताने लगते हैं, इस तीसरी टुकड़ी का खूँखारपन आदिम बर्बरता से भी भयावह है; पर अन्त में वे उजास की दुनिया और झूठ के पलायन की कामना के साथ चुप होते हैं।
काल-यात्रा के इस पूरे दौड़ में कवि को अपनी सभ्यता की अवहेलना से घोर पीड़ा हो रही है। मानवीय और शासकीय वृत्ति के पतनोन्मुख स्वभाव को शीर्षस्थ घोषित करने के तुमुल नाद से वे व्यथित हैं; व्यथा इतनी वेधक है कि कोई सुनने तक को तैयार नहीं है। धरती के ओर से धरती के छोर तक, जहाँ के तहाँ भटककर भी वे कुछ हासिल नहीं कर पाए। अन्तत: उन्होंने भिन्न-भिन्न सर्वनामों से अपनी पीड़ा सुनने के लिए सभ्यता का आह्वान किया -- हे निर्वासिते, असंवरितकुन्तले, हे मानिनी, हे चकितनयने, हे सुभगे, हे मृदुबयनी, हे मृगनयनी, हे गुनवन्ती और हे कल्याणी। पहला और अन्तिम सम्बोधन निश्चय ही नामोनुकूल अर्थवान है। क्योंकि अन्धकार, जागरण, पुनर्जागरण, प्रबोधन...सारे युगों का दौर पारकर भी इस धरती के लोगों की मदान्धता कम नहीं हुई। आधुनिक और अत्याधुनिक होने की होड़ में उन सब की दृष्टि तात्कालिक सुखलीनता पर टिक गई, और सभ्यता निर्वासित हो गई। मानवीय आचरणों की सारी दुर्गन्धियाँ पूरी कविता में झेलकर कवि अन्त में उस कल्याणमयी सभ्यता को 'हे कल्याणी' कहकर पास बुलाते हैं, जिसकी हँसी के झरने में बहकर उन्हें उजास में जाना है। पर, पहले सम्बोधन से भी दो पंक्ति पहले, 'हड़प्पा की मुद्राओं पर उत्कीर्ण इबारतों सी/ रहस्यमयी मुस्कानवाली' उस अमूर्त स्त्री पर कवि को किंचित सन्देह हुआ, तो पूछ बैठे, 'हे सुन्दरी/तुम कौन हो/क्या तुम्हारे ही लिए हुआ था ट्राय का युद्ध।' [10] पर जल्दी ही उनकी भ्रान्ति टूट गई, और उन्हें विश्वास हो गया कि वह सुन्दर स्त्री, और कोई नहीं, उनकी सभ्यता ही है।
अमूर्त सभ्यता को सम्बोधित होकर भी यह कविता एक संवेदनशील भारतीय कवि का आत्मालाप है। 'अन्धकार' से 'ज्योति' को विस्थापित करनेवाले विनाश-बुद्धि कारोबारियों को धिक्कार है, जो शरीरत: तो इस पूरे दृश्य से अनुपस्थित हैं, पर उस कर्ता-समूह के दुष्कृत्यों की सारी आहटें कवि ने सुन ली है। कवि आश्वस्त हैं कि वे बेशक 'गली-गली डगर-डगर मिटाएँगे/फिर भी बचे रहेंगे मेरे क़दमों के निशान/पृथ्वी की स्मृतियों में/मैं चला हूँ इस पर/रौंदा नहीं है इसकी छाती को/कोई भी नरम दूब/मेरे तलुओं से आहत नहीं हुई/पंछियों के अण्डे नहीं तोड़े मैंने/पिल्लों को कान पकड़ कर नहीं उठाया/चिड़ियों, फूलों और पेड़ों से बतियाते/बीता मेरा बचपन/हज़ारों स्पर्श अब भी हैं मेरी उस आत्मा पर/जिसके बहुत निकट से बहती है सदानीरा।' इन पंक्तियों में कवि की ओर से किसी अपराध के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं है, आचार एवं सभ्यता की एक व्याख्या है, जिसमें वे जनसामान्य को बताते दिख रहे हैं कि 'चलना' और 'रौंदना' समान क्रिया नहीं है। जीवन में कभी उन्होंने धरती को रौंदा नहीं, कोई भी नरम दूब उनके पद-प्रहार से आहत नहीं हुई, कोई भी असंवेदनशील काम उन्होंने नहीं किए, इसीलिए उनकी आत्मा पर वैसे हज़ारो स्पर्श अब भी बचे हैं जिसके बहुत निकट से बहती है सदानीरा। कविता की अमोघ शक्ति पर उन्हें अटूट आस्था है। मनुष्य के गलियों, डगरों, पगडण्डियों की पीठ पर मनुष्य के अनुरागमय पद-स्पर्श के निशान इतने भी भंगुर नहीं होते कि कोई दुष्ट उसे आसानी से मिटा दे। पृथ्वी बेशक सर्वसहा हो, पर उसे सद्वृत्ति-दुर्वृत्ति की पहचान होती है। वह अपनी सन्तानों के स्पर्श अपनी स्मृतियों में सुरक्षित रखती है। वे जानते हैं कि इस सृजित अन्धकार की कलुष छाया से मनुष्यता को केवल कविता ही बचा सकेगी, इसलिए बलि-पशुओं की दस हजार वर्ष लम्बी चिंघाड़ें सुनते हुए भी वे कविता को मुअनजोदड़ो के स्नानागार से ही कन्धे पर उठाकर भागते रहे हैं तीनों लोकों में। इस कवि-उद्यम में भावक चाहें तो, कवि के वैसे क्रोध की तलाश कर सकते हैं, जैसा सती की अधजली लाश ढो रहे शिव का था। आत्मालाप या बड़बड़ाहट दो ही स्थितियों में होती है -- या तो कोई बोलनेवाले की बात न सुने, सुनकर अमल न करे; या फिर चारो ओर दहशत छाई हो। इस कविता के रचनाकाल में दोनो ही स्थितियाँ थीं, पर मदन कश्यप कोई ऐसे उच्चारक नहीं कि कोई दहशत उनका उच्चारण रोक दे। असल में यह आत्मलाप या बड़बड़ाहट कवि-क्रोध है। सन् 1947-66 तक के उन्नीस वर्षों की लोकतान्त्रिक विडम्बना देखकर 'मुक्तिप्रसंग' कविता में राजकमल चौधरी को ऐसा ही क्रोध आया था। 'सुरक्षा के मोह में ही सबसे पहले मरता है आदमी अपने शरीर के इर्दगिर्द/दीवारें ऊपर उठाता हुआ/मिट्टी के भिक्षापात्र आगे और आगे बढ़ाता हुआ गेहूँ/और हथियारबन्द हवाईजहाजों के लिए/केवल मोहविहीन होकर ही जब कि नंगा भूखा बीमार/आदमी सुरक्षित होता है/...आदमी को तोड़ती नहीं हैं लोकतान्त्रिक पद्धतियाँ केवल पेट के बल/उसे झुका देती हैं धीरे-धीरे अपाहिज/धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए उसे शिष्ट राजभक्त देशप्रेमी नागरिक/बना लेती हैं (मुक्तिप्रसंग/प्रसंग चार, आठ)।' यह स्थिति वस्तुत: खतरनाक थी, जिसमें सदैव के लिए मनुष्य और मनुष्यता को धरती से मिटा देने की साजिश चल रही थी। यह न तो राजकमल चौधरी का दाय था, न बाद के दिनों में मदन कश्यप का हुआ। 'मुक्तिप्रसंग' के प्रकाशन के लगभग अट्ठाइस वर्ष बाद मदन कश्यप को स्पष्ट दिखा कि यहाँ धरती से मनुष्यता ही मिटाने की नहीं, सभ्यता तक को विस्थापित करने का खेल चल रहा है। जन-जागृति की आहट भाँपकर राजनीति के आखेटकों ने सभ्यता को ही बदल देने की ठान ली। इसलिए मदन कश्यप लोकतन्त्र के दुर्गति की सीमा पारकर सभ्यता की दुर्गति पर आ गए; क्योंकि मनुष्यता और लोकतन्त्र, सभ्यता के ही अनुषंग हैं। इसलिए 'कालयात्री' के कवि-क्रोध को 'मुक्तिप्रसंग' के कवि-क्रोध से अलग देखा जाना चाहिए।
अपने ही देश में निर्वासित हो रही सभ्यता की दुरवस्था कवि को क्षुब्ध करती है। अनन्त बाधाएँ पारकर अपनी कविता तक आ पहुँची सभ्यता को 'निर्वासिते', 'असंवरितकुन्तले',[11] और 'मानिनी' सम्बोधन देकर, उनके सामने अपनी थकान एवं बेबसी स्वीकार करते हैं, 'मैं कोई योद्धा नहीं/बस एक थका हुआ यात्री हूँ/सैकड़ो वर्ष तक फँसा रहा/जाने किस अज्ञात प्रदेश में।' और वे स्पष्ट करते हैं कि 'मुझमें नहीं है भीम का बल/कि दे सकूँ तुम्हें रक्त दुश्शासन का वेणी-संवरण के लिए/और हे मानिनी/महाभारत अभी खत्म कहाँ हुआ है/अभी तो अभिमन्यु मारा जा रहा है।'
यह कवि का अशक्य-भाव नहीं, परिस्थिति से डटकर सामना करने की तरकीब है। क्योंकि उन दिनों 'खींचो न कमानों को न तलवार निकालो/जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो' जैसा भाव भी नहीं रह गया था। अंग्रेजों के विरुद्ध अकबर इलाहाबादी (सन् 1846-1921) ने तोप-तलवार त्यागकर अखबार निकालने की सलाह दी; पर मदन कश्यप के समय का अखबार जैसा औजार भी मौकापरस्ती का शिकार हो चुका था, आरामदायी बगिया तलाशने लगा था। इसलिए वे अपनी सभ्यता को मनाते हुए भी प्रतीत होते हैं कि अभी महाभारत खत्म कहाँ हुआ है, अभी तो अभिमन्यु ही मारा जा रहा है। इस रूपक का अर्थ वही लगा सकेंगे जिन्हें महाभारत जैसे धर्म-युद्ध के घिनौने आचरण की जानकारी हो। महाभारत युद्ध के पहले दिन बेशक भीष्म के प्रहार से विराट के पुत्र उत्तरकुमार और श्वेतकुमार की हत्या हुई, पर वे एक निष्ठावान पराक्रमी योद्धा के प्रहार से वीर-गति को प्राप्त हुए थे। महाभारत की पहली और आखिरी घिनौनी हत्या पाण्डवों की सन्ततियों की हत्या से ही पूरी हुई थी। ग्यारहवें दिन के युद्ध में, अभिमन्यु जैसे पूजनीय नौजवान को व्यूह के भीतर लाकर, छह महारथियों -- द्रोण, कर्ण, कृप, कृतवर्मा, अश्वत्थामा, शकुनि ने मिलकर जिस घिनौनी पद्धति से हत्या की, उस क्रिया पर तो सृष्टिकर्ता भी मनुष्य की रचना कर पछताते होंगे। अश्वत्थामा जैसे महारथी ने पाँचो पाण्डवों के पाँच बच्चों को सोए में मारकर महाभारत के अन्तिम दुष्कर्म पूरे किए। इसीलिए कवि यहाँ सभ्यता को आश्वस्ति दे रहे हैं कि हे मानिनी! महाभारत अभी खत्म नहीं हुआ है, अभी तो अभिमन्यु ही मारा जा रहा है, कुकर्मियों की लिप्सा पूरी हो जाने दो, साम्राज्य के लिए लड़े जा रहे इस युद्ध की समाप्ति के बाद अठारह (कौरवों की ग्यारह और पाण्डवों की सात) अक्षौहिणी सेना में से ग्यारह के सिवा (कौरवों के मात्र तीन -- कृतवर्मा, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, और पाण्डवों के कृष्ण, सात्यकि, युयुत्सु सहित पाँचो पाण्डव) कोई बचा नहीं रहा। सभ्यता की तिजारत करनेवाले आज के असभ्य, इस वक्त महाभारत के उस दर्द को नहीं माप सकेंगे।
भयावह अन्धेरे में बार-बार खिंचे जा रहे अपने अस्तित्व की बेचैनी में, वहाँ के विचित्र करतबों से व्यथित कवि आगाह करते हैं कि 'हे चकितनयने!...एक पागल कुम्हार/लगातार चलाता जा रहा था उल्टा चाक/और गढ़ी हुई आकृतियाँ तबदील होती जा रही थीं/वापस मिट्टी के लोंदों में/सैकड़ों वर्ष पूर्व समुद्री डाकुओं ने हड़प लिया था/वहाँ का राजपाट/बाजीगरों को बना दिया था धर्माधिकारी/लोग धीरे-धीरे भूलते जा रहे थे अपनी भाषा/ संगीत की अजनबी धुनें/लगातार दहशत भरती रहती थीं हवा में/सूरज एक शाम डूबा तो फिर उगा ही नहीं/देखते-देखते/उग आए पीड़ाओं के पहाड़/फूट पड़े चीख़ों के झरने/बह चली आँसुओं की नदियाँ।'
भावक चाहें तो यहाँ पन्द्रहवीं शताब्दी में अपनी यात्राओं के दौरान क्रिस्टोफर कोलम्बस[12] (सन् 1451-1506) द्वारा लूटकर लाए हुए अकूत दौलत से स्पेन साम्राज्य को मालामाल करने, और खुद भी मालामाल होने, और स्पेन साम्राज्य का विस्तार अमेरिका के बड़े भूभाग तक पहुँचाने की दुर्नीति को स्मरण कर सकते हैं। क्रूरता से क्षेत्र-विस्तार करना पुनर्जागरण की किसी भी चिन्ता में नहीं थी। क्रूरता किसी भी दृष्टि से ज्ञानोदय का करतब नहीं हो सकता। फिर भी यूरोपीय राजनीतिक आचरणों में सभ्यता से परांग्मुखता सदैव दिखती रही। यहाँ तक कि ज्ञानोन्मुख बौद्धिकों की स्थापनाओं तक की उपेक्षा होती रही। कोलम्बस जहाँ जाते, स्पेन का झण्डा गाड़ देते, स्थानीय नागरिकों की स्थानीयता को, उसकी भाषा, संस्कृति, व्यवहार को तहस-नहस करते, बाजीगर होकर भी धर्माधिकारी बन जाते। इसलिए उक्त पद्यांश में उल्टा चाक घुमानेवाले पागल कुम्हार की शिनाख्त़ जरूरी है, जिसके द्वारा गढ़ी गई आकृतियाँ वापस मिट्टी के लोंदों में तबदील हो जाती थी। अच्छे-भले मुक्त-उन्मुक्त मनुष्य को गुलाम बना लेना, बाशक्ल को बेशक्ल बनाने की ही पद्धति थी। यही प्रमाण है कि वहाँ कोई काम नहीं हो रहा था, काम होने का तिलिस्म रचा जा रहा था, भ्रम फैलाया जा रहा था, मनुष्य की पहचान मिटाने का उत्सव मनाया जा रहा था। जीवन का ऊभर-खाबड़ मिटाकर समतल किया जा रहा था। बाजीगर धर्माधिकारी हो जाए, तो सूरज के उगने या डूबने की स्थिति स्पष्ट होना सचमुच असम्भव होता है।
पर समय तो अनन्त जड़ोंवाला बूढ़ा बरगद होता है, स्तम्भ-मूल पकड़े रहता है, आत्मीय क्षणों में आकर कानों में अपनी पीड़ा फुसफुसा ही जाता है कि 'हे सुभगे/धीरे-धीरे एक अन्धेरी गुफा में बदल जाने से पहले/ऐसा नहीं था हमारा महादेश।' मछलियों को समुद्र की सतह से बादलों की ऊँचाइयों तक उछलने की आजादी थी, चिड़ियों को घोंसले बनाने, जंगली हिरण को आकर ऋचाएँ सुनने, नदियों को नदियों से मिलने, सूरज को मुस्कुरा कर उगने और धरती का अभिवादन करने, बादल को बरसने की अनुमति माँगने, लोगों को एकान्त में जाकर अपनी व्यथा लिख आने...की सारी सुविधाएँ यहाँ थीं। इन वृत्तियों की गरिमा से खुद को महिमामण्डित करने के बजाय, भारत समेत दुनिया के सत्ता-सुखलीन खिलाड़ियों ने इस पगड़ी को अपने सिर का बोझ समझ लिया। अपनी सभ्यता के इस भव्य स्वरूप को वे न धारण कर पाए न सम्पन्न। जैसे उन्नीसवीं शताब्दी में अर्जेण्टीना, उरुग्वे ने गाऊचो जैसे महान घुड़सवार को अपना लोक प्रतीक बना लिया, टैंगो जैसे सामूहिक नृत्य को अपनी संस्कृति बना लिया, और भी कई देशों ने अपनी पारम्परिक भव्यताओं से खुद को महिमामण्डित किया। यह भारत ही ऐसा देश है जहाँ बिल्ली को दूध की चौकीदारी सौंपी गई; प्रकाश से घृणा, अन्धकार से प्रेम करनेवाले बाजीगरों को लोकतन्त्र का रक्षक बनाया गया। स्मृतियों का शिथिल होते जाना और अन्धकार झेलकर आँखों की ज्योति गँवा देना तो यहाँ की नियति होगी ही।
कवि को वैसे मुर्दालोक देश से घोर वितृष्णा है, जहाँ शब्द और विचार पूरी तरह मर चुके हैं, हत्यारों के अट्टहास और हताहतों की चीख के बीच कोई शब्द, कोई संवाद नहीं है, केवल सन्नाटा है; वहाँ से भाग निकलने पर अपनी स्मृतियों में टिमटिमाती जिस मातृभूमि का अनुराग और अपनी भाषा के कुछेक शब्द वे बचा पाए, उन्हीं शब्दों से उन्हीं दिनों की कविता वे 'अन्धेरी गुफा (एशिया)' शीर्षक से अपनी मृदुबयनी सभ्यता को सुनाते हैं। गौरतलब है कि पूँजीवाद की कीर्तनियाँ-मण्डली या झण्डाबरदार राष्ट्रों के जैसे कुत्सित भाव उस कविता में कवि ने व्यक्त किए हैं, वह कोई काव्य-कल्पना नहीं है, हकीकत का सूक्ष्म ब्यौरा है। वे कहते हैं, हे मृदुबयनी सभ्यते! यह कोई सुरंग नहीं कि भयानक अन्धकार से लड़ते हुए आगे बढ़ जाओ और एक दिन पहुँच जाओ उजास की एक नई दुनिया में; यह गुफा है, जिसमें आनेवालों की नियति उल्टे पाँव लौटना होता है। यहाँ का मौन अन्धकार किसी भी शोर से अधिक भयावह है। यहाँ गिरगिट का सरकना भी अजदहे के करवट बदलने-सी दहशत पैदा करता है। चमगादड़ों के डैने शार्दूल के पंजे से लगते हैं। पुरखों की गन्धवाली पुरानी हवा की उपस्थिति के बावजूद यहाँ रोशनी अर्थहीन है, यहाँ आना बहुत कठिन है, टिके रहना उससे भी कठिन। गिरगिट और चमगाड़, दोनो जन्तु निरीह दुष्टता के प्रतीक हैं; अन्धकार से दोनो का गहन रिश्ता होता है, अन्धकार में ये दोनो अत्यन्त क्रियाशील हो जाते हैं। इनकी निरीह दुष्टता को अजगर और शेर के खूँखारपन में बदल देने का कविचातुर्य सराहणीय है। इन प्रतीकों ने राष्ट्र के ठेकेदारों और सभ्यता के सौदागरों की क्षुद्रता और नृशंसता को सूक्ष्मता से प्रकट कर दिया है।
कवि की राय सही है कि अन्धेरे में यात्रा करते हुए आदमी भी आँखें मूँद लेता है। अन्धेरे में आँखें मूँदकर चुपचाप खड़ा हो जाना बेहतर कार्य हो या न हो, सबसे सुविधाजनक स्थिति तो वह होती ही है। कितनी दर्दनाक कल्पना है कि अन्धेरे में जिस पत्थर से टकराकर उनके टखने घायल हुए, सम्भवत: उसी पर सिर टिका कर कोई आदिमानव सोए होंगे। आदिमानव से आधुनिकतम सभ्यता तक के विकसित राष्ट्र के बहेलियों ने अपने राष्ट्र को आदिम-युग से भी पीछे पहुँचा दिया। कवि को सम्भव लगता है कि हो न हो 'इसी गुफा में रहते रहे हों/हड़प्पा के कुम्भकारों के पुरखे/यहीं से फूटी हों वे ध्वनियाँ/जिनसे बनी मितन्नी सन्धियों की भाषा।' यह विलक्षण कल्पनाओं का प्रतीकन है। ई.पू. चौदहवीं शताब्दी के मितन्नी के अभिलेख में हित्ती राजा सुप्पिलुल्यूमा और मितन्नी राजा शत्तीवाज़ा के बीच हुई इस सन्धि का उल्लेख है। हित्ती साम्राज्य से सटे मितन्नी साम्राज्य था। लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व पश्चिमी एशिया के सीरिया में इस राजवंश का शासन बहुत बड़े साम्राज्य में था। ई.पू. पन्द्रहवीं से ई.पू. तेरहवीं तक इसका साम्राज्य सीरिया के उत्तर और दक्षिण-पूर्व अनातोलिया में था। इस समय यह भूखण्ड इराक, तुर्की और सीरिया के रूप में जाना जाता है। इसकी उत्तर-पश्चिमी सीमा पर हित्ती साम्राज्य से अक्सर विवाद होता रहता था। ई.पू. चौदहवीं शताब्दी में दोनों साम्राज्यों के बीच सन्धि होने के बाद ही इस इलाके में शान्ति आई। मितन्नी राजवंश के लोग संस्कृत बोलते थे। मदन कश्यप ने यहाँ सभ्यता विकास के उस दौर को स्मरण किया है, जब यूनान में वस्त्र-संस्कृति का विकास तक नहीं हुआ था, पर एशिया में एक महान सभ्यता जन्म ले चुकी थी।
अपनी सभ्यता की प्राचीनता में घुस आई विडम्बना पर मदन कश्यप एक बार फिर से कविता के बीच में रची इस कविता पर व्यथित होते हैं कि इस अन्धकारमय गुफा का इतिहास जितना भी बड़ा हो, पर बीसवीं शताब्दी की पूर्णाहुति करते हुए राजनीतिक बाजीगरों ने इसके इतिहास से भी बड़ी इसकी त्रासदी बना दी, जहाँ से फूल खिलने या हरियाली पनपने की सम्भावनाएँ समाप्त कर दी गई। ध्यातव्य है कि हरियाली और फूल के विकास के ये अवरोधक रूपक केवल जमीन के बंजरपन के लिए ही नहीं, मनुष्य के जीवन से भी फूल और हरियाली समाप्त करने के लिए रची गई है, मनुष्य के भीतर की वैचारिक ऊर्वरता समाप्त हो जाने की सूचना दी गई है। उनके पद्यांश 'हो सकता है यहाँ जन्तुओं की कुछ ऐसी प्रजातियाँ/विकसित हो गर्इ हों जिनकी आँखें हों ही नहीं/जब रोशनी ही न हो तो आँखों की क्या ज़रूरत!' लोगों को मामूली-सा वक्तव्य लग सकता है, पर इस अंश में व्यंग्य और क्रोध का ऐसा प्रहार है कि समझ आते ही कोई गश खाकर गिर पड़े। इन आँखविहीन प्रजातियों में कवि का कटाक्ष राजनीति के सौदागरों और राजनीतिक मन्त्रणा करनेवाले उन पापियों पर है, जिसने पूरी मानवीयता को बेबसी के उस सतह पर पहुँचा दिया है, जहाँ मनुष्य अपने बचाव के लिए एहतियात भी नहीं बरत सकता। दार्शनिक ग्रन्थों में बेशक प्रकाश का महत्त्व समझाने के लिए अन्धकार के उदाहरण दिए गए हों, अन्धकार में सर्प-भय देनेवाला पदार्थ उजाले में रस्सी दिखने लगे; पर व्यवस्थापतियों ने तो सभ्यता से ही उजाला मिटाने का प्रण कर लिया। अब अन्धेरे में कोई खतरा दिखे, तब तो मनुष्य एहतियात बरते? 'हमले से पहले बचाव की कोई निवारक कार्यवाई सम्भव नहीं/जबतक अंगुलियाँ गर्दन छू न लें तबतक/अपनी ओर बढ़ते किसी पंजे का पता ही नहीं चलता/ऐसे में यह बहुत स्वाभाविक है कि हम/ख़तरे का एकदम पास आने तक इन्तजार करें।' भारतीय लोकतन्त्र के देवताओं ने ऐसा तिलिस्म रचा कि जनचेतना भी किस काम की? अन्धकार में हो रहे इस महाभारत में आम नागरिक हमले का शिकार होने मात्र के लिए जीवन-धारण किए हुए है। क्योंकि हमलावर कभी पराजित नहीं होता, या तो जीतता है या जीत नहीं पाता! किसी खास हमले में उसका नहीं जीत पाना भी उसकी पराजय नहीं है, क्योंकि उसका कोई भी हमला आखिरी हमला नहीं होता; जिस हमले में वह नहीं जीत पाया, उसके अगले हमले में, या अगले से अगले हमले में, या उसके बादवाले किसी भी हमले में उसका जीतना अवश्यम्भावी है। हारने और नहीं जीत पाने का यहाँ विलक्षण रेखांकन हुआ है।
ऐसे पराभव-काल के अमानुषिक चित्र खींचते हुए इस कविता के भीतर की कविता के अन्तिम अंश में कवि शीत-युद्ध[13] की समाप्ति से लेकर सोवियत संघ के विघटन[14] होते हुए फुकुयामा की उत्पाती घोषणा का रूपक रच बैठे हैं, जहाँ जीवन, व्यवहार, ज्ञान-विज्ञान, घोषणा-प्रतिघोषणा का तर्कहीन संसार निर्लज्जतापूर्वक जीवित है। अपनी चंचल किन्तु निरुपाय आँखोंवाली सभ्यता को वे सूचना देते दिख रहे हैं कि भागते-भागते वे ऐसे विचित्र लोक में पहुँच गए, जहाँ अन्धकार नहीं, अत्यधिक तेज रोशनी थी, सबकी आँखें चुँधिया देनेवाली। पर वे स्वयं इतने उद्भ्रान्त थे कि उनकी अपनी आँखें नहीं चुँधियाती थीं। सोवियत विघटन होते ही वे ऐसे अकुलाए, कि बड़बड़ाने लगे। भूले भी नहीं थे कि अभी-अभी तो अरबी व्यापारियों से गिनती सीखी है, और कविता का अन्त घोषित करने लगे। 'वे कविता का अन्त कर रहे थे और मैं डर गया/मेरी भटकन में हज़ारों वर्षों से/केवल कविता ही तो थी लगातार मेरे साथ/धरती के ओर से धरती के छोर तक/कहाँ-कहाँ नहीं भटका कविता का कालयात्री मैं।' यहाँ कवि का कहना कि 'मैं डर गया', अभिधात्मक नहीं है, वे डरे-वरे नहीं हैं; असल में यह उन हत्बुद्धियों की उद्भ्रान्ति से व्यथित हैं; क्योंकि कविता पर उनकी ऐसी अटूट अस्था है कि उनकी कविता का कालयात्री हज़ारों वर्षों में धरती के ओर से छोर तक भटक कर भी दिग्भ्रान्त नहीं हुआ। इसलिए वे कहते हैं, 'हे मृगनयनी/...वे इतिहास का अन्त कर रहे थे/और मुझे अब भी बहुत कुछ करना था इतिहास में/सूरज ढलने के पहले/काठ के घोड़े को वापस रख देना था किले के बाहर/ढूँढने थे डेरियस की विजय यात्राओं के पथ/सिकन्दर को नहीं करने देना था झेलम पार/बेराक्रूज की छाती से मिटाना था हत्यारों के क़दमों के निशान/अरब सागर में ही डुबो देना था क्लाइव लायड का जहाज।' इस पद्यांश में मदन कश्यप न केवल हत्बुद्धियों की उद्भ्रान्ति से व्यथित हैं, बल्कि वे इतिहास में की गई सारी दुष्टताओं का प्रतिपक्ष और समुचित हल निकालने की चिन्ता में हैं। उन्हें अठारह वर्ष की आयु में मद्रास के बन्दरगाह पर क्लर्क बनकर आए भ्रष्टाचारी राबर्ट क्लाइव (सन् 1725-1774) के भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के संस्थापक बन जाने और चौबीस वर्षों तक भारत की भव्य व्यवस्था और संस्कृति को उद्वेलित करने की क्रिया पर क्रोध है। उन्हें मेक्सिको की संघीय व्यवस्था की स्वतन्त्र इकाई वेराक्रूज़[15] में स्पेनिस उपनिवेशकों के अत्याचार की चिन्ता है। जिस देश की व्यवस्था निठारी की घटना पर मिट्टी तोपकर निश्चिन्त हो गई, उस देश का एक कवि-नागरिक मेक्सिको के एक भूखण्ड में गुलाम बनाए जा रहे मनुष्यों की चिन्ता करता है। मदन कश्यप की यही वैश्विक दृष्टि उन्हें बड़ा कवि और संवेदनशील मनुष्य बनाती है। महान मनुष्य हुए बिना कोई कुछ भी महान नहीं बन सकता, न बेटा, न बाप, न पति, न अधिकारी, न कर्मचारी, न राजनीतिज्ञ, न ही कवि। उन्हें सिकन्दर (ई.पू. 356 से ई.पू. 323) की विशाल सेना को झेलम पार न करने देने की मंशा से डटकर सामना करनेवाले पंजाब के यदुवंशी सम्राट पोरस (राज्याभिषेक ई.पू. 340, मृत्यु ई.पू. 315) के शौर्य पर गर्व है।
उन्हें ई.पू. छठी-पाँचवीं शताब्दी में फारस के बादशाह डेरियस प्रथम[16] (ई.पू. 522-ई.पू. 486) की विजय-यात्राओं का पथ ढूँढना है, क्योंकि 'अनुचित कर' न चुकाने के अपराध में आम नागरिक के दमन के लिए उन्होंने सैन्य समेत एथेंस के उत्तर में स्थित मैराथन नामक स्थान तक गया और अन्त में जनशक्ति से पराजित हुआ। उन्हें इस दुर्वृत्ति की पराजय और जनचेतना से प्रसन्नता है। उन्हें 'ट्राय युद्ध' में पेरिस द्वारा की गई दुष्टता पर क्रोध है, मगर यूनानी सेना की सफलता पर प्रसन्नता है।
सूरज ढलने से पहले उन्हें इतिहास में बहुत कुछ करना है। सबसे अधिक तो उन्हें 'इतिहास का अन्त' घोषित करनेवाले अमेरिकी राजनीति विज्ञानी एवं अर्थशास्त्री, फ़्रांसिस फ़ुकुयामा (जन्म : 27 अक्टूबर, 1952) की बेताबी पर हैरत है। बर्लिन की दीवार गिरने के कुछ माह पूर्व सन् 1989 के ग्रीष्मकाल में प्रकाशित 'द एण्ड ऑफ हिस्ट्री' शीर्षक फ़ुकुयामा के निबन्ध का विस्तृत संस्करण 'द एण्ड ऑफ हिस्ट्री एण्ड द लास्ट मैन' शीर्षक से सन् 1992 में प्रकाशित हुआ; उसी पुस्तक में उन्होंने ऐसी अहंकारी एवं अतार्किक घोषणा की। इसके प्रकाशित होते ही पूँजीवाद एवं अमेरिकी प्रभुत्व के आलोचकों और फ़ुकुयामा के समर्थकों के बीच घनघोर बहस छिड़ी।
इस पुस्तक में फुकुयामा ने जॉर्ज विल्हेम फ्रेडरिक हीगेल (सन् 1770-1831) और कार्ल मार्क्स (सन् 1818-1883) के दर्शन को तोड़-मरोड़कर आधार बनाया। पर भूल ही गए कि उन दोनों दार्शनिकों की राय में एक सामाजिक-आर्थिक युग से दूसरे तक जाते हुए मानव समुदाय की गति इतिहास के रूप में परिभाषित हुई है। दोनों दार्शनिकों ने विकास के चरम उत्कर्ष को अन्त-बिन्दु कहकर भी उसे स्थायी अन्त नहीं माना। भौतिक, सांस्कृतिक, नैतिक ...सभी दिशाओं में, आदिम से उन्नत की ओर अग्रसर होना गतिशील इतिहास का स्वभाव होता है। पर मानव इतिहास का विकास भिन्न-भिन्न चरणों में होता है और भौगोलिक स्थानीयता के प्रभाव में ये चरण दुनिया भर में भिन्न-भिन्न होते हैं। पर इस प्रगतिकामी विकास में हीगेल और मार्क्स दोनो ने मानव स्वतन्त्रता का महत्त्वपूर्ण स्थान माना। इस विकास में समाज अपने लक्षित उत्कर्ष तक जाता है। हीगेल की दृष्टि में इस उत्कर्ष का उदाहरण प्रतिपक्षी जर्मन समाज था, तो मार्क्स की दृष्टि में साम्यवादी समाज। पर उनकी दृष्टि में इस उत्कर्ष की प्राप्ति गतिशील थी, एक सतत प्रक्रिया थी। दोनों दार्शनिकों की इतिहास-दृष्टि दूरदर्शी थी।
किन्तु फ़ुकुयामा तो अन्त करने को बेताब थे। उन्होंने घोषित कर दिया कि शीत युद्ध (सन् 1945-1991) की समाप्ति और सोवियत विघटन (सन् 1991) के बाद पश्चिमी उदार लोकतन्त्र का प्रभुत्व-काल आ गया, यह मानव-जाति के वैचारिक विकास का अन्त-काल है और मानवीय शासन के निर्णायक स्वरूप में पश्चिमी उदार लोकतन्त्र के सार्वभौमीकरण का काल है।
अल्जीरिया में पैदा हुए सुविख्यात फ्रांसीसी दार्शनिक जाक देरिदा (सन् 1930-2004) को फुकुयामा की बात रास नहीं आई। 'स्पेक्टर्स ऑफ मार्क्स: द स्टेट ऑफ द डेब्ट, द वर्क ऑफ माउर्निंग एण्ड द न्यू इण्टरनेशनल' (सन् 1993) शीर्षक अपने व्याख्यान-संग्रह में उन्होंने कहा कि रूस में पैदा हुए फ्रेंच दार्शनिक और राजनेता एलेक्जेण्डर कोजेव (सन् 1902-1968) ने जर्मन-अमेरिकी दार्शनिक लियो स्त्रॉस (सन् 1899-1973) की परम्परा के हवाले से, सन् 1950 के दशक में ही अमेरिकी समाज को 'साम्यवाद का अहसास' करा दिया। सार्वजनिक क्षेत्र में फुकुयामा की बौद्धिक स्वीकृति और मुख्यधारा में उनकी पुस्तक की लोकप्रियता को देरिदा ने 'मार्क्स की मृत्यु' सुनिश्चित करने की दक्षिणपन्थी सांस्कृतिक चिन्ता का लक्षण माना। पश्चिमी उदारवाद के आर्थिक और सांस्कृतिक आधिपत्य के बोझ तले उत्साहपूर्वक दबे फुकुयामा की आलोचना करते हुए देरिदा ने कहा कि ऐसे समय में चीख पुकार मचाने की जरूरत है, जब कुछ दुस्साहसी लोग उदार लोकतन्त्र के प्रचार में लिप्त हैं, जो अन्ततः खुद ही को मानव इतिहास के आदर्श रूप में प्रतिस्थापित करना चाहते हैं; पृथ्वी पर और मानवता के इतिहास में हिंसा, अकाल, भेद-भाव, आर्थिक उत्पीड़न से निरपेक्ष होकर इतिहास का अन्त करने के उत्साह में, उदार लोकतन्त्र और पूँजीवादी बाजार के आगमन का गायन करते हुए 'विचारधाराओं के अन्त' और मुक्तिवादी प्रवचनों के अन्त का जश्न मनाने को इच्छुक हैं। इस समय घनघोर पीड़ाओं का स्थूल यथार्थ यही है कि पुरुषों, महिलाओं, बच्चों को जितनी संख्या में गुलाम बनाने, भूखा रखने और नष्ट करने की क्रिया चल रही है, इससे पूर्व कभी नहीं हुई। इस तथ्य की उपेक्षा करने की अनुमति विकास की कोई भी परिणति नहीं दे सकती।
सभ्यता के साथ किए जा रहे अत्याचार और समुन्नत उपादानों से पूरित अपने भव्य समय को अन्धकार-युग में ले जाने को दत्तचित राजनेताओं की करतूतों पर मदन कश्यप को असहनीय क्रोध है। इसलिए अपनी मृगनयनी सभ्यता को ये सारी सूचनाएँ देकर वे अब यूरोप के रक्तपायियों के दाँत के वर्णन से युक्त कविता सुनाना चाहते हैं, जो उन्होंने वहाँ से भागने से पहले लिखी।
यूरोपीय इतिहास का मध्यकाल (पाँचवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी) की सामन्ती प्रवृतियों का काल था, जब न तो वाणिज्यिक गतिविधियाँ गतिशील थीं, न धर्म का स्वरूप उदार और मानवीय था। पृथ्वी के विस्तार सम्बन्धी ज्ञान सीमित और अन्धविश्वास से भरे थे। सीमित भौगोलिक ज्ञान के कारण सामुद्रिक व्यापार सीमित था। इस दौर में ज्ञान, तर्क, संस्कृति, व्यक्ति-स्वातन्त्र्य को क्षति पहुँची। ज्ञान का अभाव अज्ञान ही नहीं, अन्धकार का भी साम्राज्य-विस्तार करता है। यही अन्धकार युग था। मनुष्य को इस धारणा से मुक्त कराने में भौगोलिक खोजों की बड़ी भूमिका है। भौगोलिक खोजों के कारण ज्ञान बढ़ा, पारस्परिकता बढ़ी। लोग एक दूसरे के निकट आए। एशिया और यूरोप की सभ्यताओं एवं संस्कृतियों का पारस्परिक मेल हुआ। अफ्रिका, एशिया, अमेरिका तक में ईसाई धर्म का प्रचार हुआ। भौगोलिक खोजों से हुए ज्ञान-विस्तार से धर्म के स्वरूप प्रभावित हुए, अन्धविश्वास खण्डित हुए। लोग अन्धकार युग से बाहर आए।
चौदहवीं से सतरहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में जो धार्मिक-सांस्कृतिक आन्दोलन हुए, उन्हें पुनर्जागरण कहा जाता है। इससे सामुदायिक जीवन के हर क्षेत्र में नई चेतना आई। इस आन्दोलन से पुराने ज्ञान के उद्धार के साथ-साथ कला, साहित्य, संस्कृति और विज्ञान के क्षेत्र में नए प्रयोग हुए। नए अनुसन्धानों से ज्ञान-प्राप्ति के नए-नए तरीके सामने आए। यूरोपवासी मध्यकालीन संकीर्णता त्यागकर सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, वैचारिक उन्नति के मार्ग अपनाने लगे। साहित्य, कला, दर्शन, विज्ञान, वाणिज्य-व्यवसाय, समाज, राजनीति से धर्म का पाखण्ड मिट गया। पुनर्जागरण ने प्राचीन सभ्यता-संस्कृति का पुनरुद्धार कर नई चेतना का आविर्भाव कराया। तेरहवीं से सोलहवीं-सतरहवीं शताब्दी के दाँते (सन् 1265-1321), पेट्रार्क (सन् 1304-1374), बेकन (सन् 1561-1626) जैसे विद्वानों ने प्राचीन ग्रन्थों का अनुवाद कर उन्हें पुनरुज्जीवन दिया और लोगों को गूढ़ विषयों से परिचित कराया। चर्च और पादरियों के कट्टरता की आलोचना हुई, मानववाद का विकास हुआ।
सन् 1650-1780 की अवधि को यूरोप में 'प्रबोधन युग' या 'ज्ञानोदय युग' कहा जाता है। परम्परा से हटकर वहाँ के सांस्कृतिक एवं बौद्धिक वर्ग ने उस अवधि में तर्क, विश्लेषण, व्यक्ति स्वातन्त्र्य पर जोर दिया। स्पष्टत: उस परिवर्तन में पुनर्जागरणकालीन धर्म-सुधार आन्दोलन और वाणिज्यिक क्रान्ति की बड़ी भूमिका थी। उस दौर में विकसित वैज्ञानिक चेतना, तर्क, अन्वेषणादि की प्रवृत्ति परिपक्व होकर, अठारहवीं शताब्दी में 'प्रबोधन' या के 'ज्ञानोदय' नाम से ख्यात हुई। ज्ञानोदय के चिन्तकों की दृष्टि में प्रयोग और परीक्षण के बाद ही कोई ज्ञान सिद्ध होता है। सत्य तक पहुँचने के सर्वोत्तम सोपान हैं -- पर्यवेक्षण, प्रयोग और आलोचनात्मक छानबीन। फिर व्यवहारत: ऐसा क्या हुआ कि ये वृत्तियाँ इतिहास के पृष्ठों तक ही रह गईं, यूरोपवासियों के आचरण में ये बातें कभी परिलक्षित क्यों नहीं हुईं।
तथ्यत: सतत विकासशील समाज का हर नन्हा-सा बच्चा, ज्ञान-चक्षु खुलते ही अपनी सामुदायिक शृंखला के अतीत के बारे में जानना चाहता है, भावी जीवन के सपनों को सँवारने की तरकीब सीखना चाहता है, पर इस भ्रंशमति बुड्ढे ने उसे 'इतिहास के अन्त' का नारा थमा दिया। कवि को इस वृत्ति पर घोर आश्चर्य होता है कि उस क्रूर और अविवेकी मनुष्य को पल भर की चिन्ता नहीं हुई कि सात सौ वर्षों के जिस रोजनामचे को मसल कर घूरे पर डालते हुए वह आततायी हँसी हँस रहा है, वह एक घोषणा मात्र से नष्ट होनेवाला नहीं है। अन्तत: इतिहास का अन्त घोषित करके भी तो वह इतिहास के ही कूड़ेदान में कुछ न कुछ ढूँढ़े फिर रहा है।...उन्हें जानना होगा कि इतिहास अभिलेखीकरण से बनता तो है, पर घोषणाओं से मिटता नहीं, क्योंकि उसकी निर्माण-प्रक्रिया वैयक्तिक घोषणाओं से नहीं सामुदायिक उद्यमों से तय होती है। इस कविता में जो नन्हा बालक सबकुछ ख़त्म हो जाने से पहले, सबकुछ के जड़ हो जाने की सूचना लिए आता है, वह वस्तुत: इस बात का कवि-संकेत है कि सृष्टि के उस नवजात को किसी दिग्भ्रान्त-घोषणा पर विश्वास नहीं होगा, प्रमा से संचालित उसकी दृष्टि उसे अवश्य दिखाएगी कि सृष्टि तो भली-भाँति अपने नियमों से संचालित है, पृथ्वी चल ही रही है, वे उद्घोषक स्वयं भी इतिहास के कूड़ेदान पलटने में लिप्त हैं। किन्तु कवि, रक्तपायियों के दाँत इतने धवल रख पाने के कौशल से भी चकित हैं। उस दौर के कुछेक भोले कविगणों की खुशफहमी पर भी मदन कश्यप क्षुब्ध हैं, जो इस बात से प्रसन्न हैं कि 'एक बार फिर/प्राचीन मुँडेरों और गुम्बदों के दिन लौट आए हैं।' ये भोले कविगण, शासकीय सम्पोषण के वे अभिलाषी हैं, जिन्हें आराम से अपने पाखण्ड को गुदगुदाते समय जुगुप्सा नहीं होती। उन्हें न तो पुनर्जागरण पसन्द है, न ज्ञानोदय; उन्हें अन्धकार-युग की वही सामन्ती व्यवस्था पसन्द है। उन्हें मानवीयता और विवेकशीलता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। इसलिए ऐसे खुशफहमी पालनेवालों को वे सावधान करते हैं कि 'भविष्य की शक्तियो सावधान/यूरोप में विचारों का घनत्व/'सी' लिमिट पार कर रहा है!'
यह 'सी लिमिट' वस्तुत: भौतिक विज्ञान में निर्धारित 'आकार और घनत्व' की एक सीमा है, जिससे अधिक न वृद्धि सम्भव है, न संकुचन। इस नियम के अनुसार तारों का आकार ज्यों-ज्यों घटता है, उसका घनत्व बढ़ता जाता है। पर एक खास सीमा से अधिक न तो आकार घटता, न घनत्व बढ़ता। इस सीमा का अनुसन्धान नोबल पुरस्कार से सम्मानित भारतीय वैज्ञानिक सुब्रह्मण्यन चन्द्रशेखर (सन् 1910-1995) ने किया, इसलिए इसका नामकरण उन्हीं के नाम के अंग्रेजी आद्यक्षर से हुआ है। मदन कश्यप ने तारे के बौने होने और घनत्व के बढ़ जाने की इस भौतिक क्रिया का प्रतीकात्मक उपयोग, उक्त वैचारिक सघनता और क्रियात्मक बौनेपन में करते हुए; कथ्य के प्रभाव में चार चाँद लगा दिया है। ध्यातव्य है कि सीमा पार किया हुआ कोई वस्तु या विचार निरर्थक हो जाता है, जैसे सीमा से अधिक घनीभूत विचार, विचार नहीं रहकर किसी धन्धे का नुस्खा बन गया है।
विडम्बनाओं के महासागर में सभ्यता के साथ ऊब-डूब करते हुए कवि कविता के अन्तिम अंश में आकर थक-से गए लगते हैं। इस थकान का अभिप्राय उनमें शौर्य की कमी नहीं है, शौर्य तो पूरी तरह बरकरार है, पर प्रतीत होता है कि उन्हें अभी बहुत कुछ कहना बाकी है, इन वैश्विक और राष्ट्रीय आततायियों की दानवीय क्रूरताओं के ढेर प्रसंग अभी बचे हुए हैं; और सुननेवालों का धैर्य प्राय: चुकता जा रहा है; इसलिए अति महत्त्वपूर्ण बातें जल्दी-जल्दी निपटाने की धारणा से वे कैफियत और बड़बड़ाहट की भाषा पर उतर आए हैं, 'कहाँ है पसीने से तर-ब-तर मेरी वह मातृभूमि/मेरा महान एशिया/यह पानी की जगह रक्त क्यों बह रहा है दजला-फ़रात[17] में/यह थ्येन आन मन चौक है या शिकागो की सड़क/तेल के साथ क्यों बहती जा रही है अरबी अस्मिता/ कराची की सड़कों पर दो क़दम भी नहीं चल पाती है कविता/भूखी आबादी की पथरीली छाती पर/उगते आ रहे हैं पबों, जुआघरों और/मालिशघरों के कैक्टस...
मेसोपोटामिया से लेकर भारत, चीन, पाकिस्तान, अमेरिका, चीन...के खूँखार राजनीतिक आचरणों से कवि उद्वेलित हो उठे हैं; षड्यन्त्रों में लिप्त नीति-रक्षकों की नृशंस आज्ञाओं एवं उसके अनुपालकों की खूनी लिप्साओं से वे हतप्रभ हैं। चेतनाओं में बसी एशिया की महानता उन्हें, प्रत्यक्ष घटनाओं से आहत होती दिखती है। उन्हें मेसोपोटामिया जैसी प्राचीन सभ्यता को परिभाषित करनेवाली विशाल नदी दजला और फरात में पानी की जगह खून बहता दिखता है। कभी 14 फरवरी 1929 को उत्तरी शिकागो के गैराज में पुलिस की वर्दी पहने हत्यारों द्वारा सात-सात लोगों को गोलियों से भून देने की दानवता याद आती है, कभी सन् 1989 में बीजिंग (चीन) शहर के थ्येन आन मन (तियानमेन) चौक पर राजनीतिक उदारीकरण और मानवाधिकारों के सम्मान की माँग करते प्रदर्शनकारी छात्रों की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा की गई हत्या याद आती है। सतरहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी तक, मिंग राजवंश के दौरान बने इस तियानमेन गेट (सन् 1417) की भव्यता अनेक वीभत्स घटनाओं से लांछित हुई, पर इस बार की घटना तो नृशंसता की भी सीमा पार गई।
राजनीतिक कुकृत्यों द्वारा इतिहास एवं सभ्यता को कलंकित किए जाने के संचित आँकड़ों की सुदीर्घ सूची मदन कश्यप के पास है। वे अभिकलन नहीं कर पाते कि सात हजार वर्षों में हम सभ्य हुए हैं या असभ्य! 'इतिहास का अन्त' के उद्घोषक पर बेशक उन्हें क्रोध है, पर वे खुद भी देख रहे हैं कि जिनसे इतिहास मिटाना सम्भव नहीं हो रहा है, वे इतिहास को विद्रूप करने की घनघोर कोशिश कर रहे हैं -- 'एक खूनी अदृश्य पंजा झपट्टा मारता है/महादेश के नक्शे पर/और मेरी देह से मुल्कों की सीमारेखाओं तक को/खरोंचता चला जाता है/यह किस भूखण्ड में आ गया हूँ मैं/चेहरों पर ख़ुशहाली के पोस्टर चिपकाए/ये भुक्खड़ लोग कौन हैं/क्यों इतने जोर-जोर से हँस रहे हैं वे लोग/जिनकी मुस्कानें पहले ही गिरवी रखी जा चुकी हैं।' इस पद्यांश में उनका गुस्सा उन बौद्धिकों पर है, जो सब कुछ समझ रहे हैं, पर अतिरिक्त सुविधा पाने की लालसा में वे इस तरह सम्मोहित हैं कि अपनी हँसी, अपने सपने, अपनी आकांक्षाएँ, अपने विवेक, अपने दायित्व...सब कुछ उन मदारियों के पास गिरवी रख आए। अब वे अपने मन का कुछ भी नहीं करते, वही करते हैं, जो डमरू बजाकर मदारी उन्हें करने के लिए कहते हैं। अब चूँकि वे भावों की समझ खो चुके हैं, इसलिए कहने पर भी अब हँसना उनसे सम्भव नहीं है, क्योंकि वे भुक्खड़ हैं; क्षुधा-पूर्ति के नहीं, अत्यधिक संचय-वृत्ति के; इसलिए उनके चेहरों पर ख़ुशहाली के पोस्टर चिपके हैं, क्योंकि वे हँस नहीं सकते, हँसने का स्वांग कर सकते हैं। वे जोर-जोर से हँसने का स्वांग कर रहे हैं, क्योंकि उनकी मुस्कानें पहले ही गिरवी रखी जा चुकी हैं। इसलिए कवि फिर सशंकित हो उठते हैं -- 'क्या सचमुच यह मुल्क उन मदारियों का है/जो बजा रहे हैं भूमण्डलीकरण की डुगडुगी/ और उन सपेरों का/जो बेच रहे हैं जाति-धर्म का जहर/उसे बेचने दो अपनी चादर/और उसे अपनी पगड़ी/हे गुनवन्ती/मैं नहीं बेचूँगा अपने शब्द/अर्द्धसंशयवादी और अर्द्धआत्ममुग्ध/यूरोप के विचार बाजार में!' राजनीतिक खिलाड़ियों के मदारी हो जाने और उनके दलाल बौद्धिकों के सपेरा हो जाने की दुर्बुद्धि पर तथा समाज में जाति-धर्म का जहर बेचनेवाले छुटभइए सहयोगियों पर तो उन्हें क्रोध है, पर अन्यथा उपलब्धि के लालच में, मौका पाकर अपनी पहचान-प्रतिष्ठा के प्रतीक तक बेच देनेवाले बदनसीबों पर अधिक क्रोध है। बौद्धिकों द्वारा की गई चाटुकारिता पर व्यंग्य का तीक्ष्ण प्रहार तो उन्होंने अपनी कई कविताओं में किया है।
सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक रूप में 'चादर' और 'पगड़ी' की पहचान से पूरा भारतीय समाज परिचित है। सन् 1994-95 के दौर के जिन दो बड़े नेताओं की जुगलबन्दी के खास सन्दर्भ में यहाँ इसका उल्लेख हुआ है, भावकगण बड़ी आसानी से उनके नाम सुनिश्चित कर लेंगे। नाम खोलने का खतरा यह है कि सभ्यता के सौदागर आनन-फानन इसे सामुदायिक-साम्प्रदायिक अपमान का मामला बना देंगे। यह समय ऐसा है कि पूरे का पूरा समुदाय उनके पीछे भी हो लेगा। उनमें से एक तो उन दिनों नीति-विवेक को ताख पर रखकर देश बेचने में लगे थे, दूसरे उनका कीर्तन करते हुए उन्हें अर्थनीति के विशेषज्ञ घोषित करने में। इसलिए कवि वीतराग भाव से अपनी गुनवन्ती सभ्यता को कहते हैं कि अपनी चादर और पगड़ी बेच देने तक की उनकी क्रिया उनको मुबारक, मैं अपने शब्द अर्द्धसंशयवादी और अर्द्धआत्ममुग्ध यूरोप के विचार-बाजार में नहीं बेचूँगा। चादर और पगड़ी बेचने का अर्थ यहाँ अभिधात्मक नहीं, प्रतीकात्मक है। अपने शब्दों के सामर्थ्य और कवि-कर्म की निष्ठा पर कवि को जितनी अधिक आस्था है, यूरोप के अर्द्धसंशय और अर्द्धआत्ममुग्धता पर उतनी ही अधिक जुगुप्सा। वैचारिक रूप से दिग्भ्रान्त यह समाज सही-सही निर्णय ही नहीं कर पा रहा है कि वह संशयी या मुग्ध है अथवा निर्द्वन्द्व या दृढ़।
अपनी कल्याणमयी सभ्यता के समक्ष सारे दुष्कर्मियों की दुष्कृतियों का पुनरुच्चार करते-करते, कवि बड़बड़ाहट से भी आगे आ जाते हैं, और अन्त में निढाल होकर निवेदन करते हैं -- 'अभी तो जारी है मेरी यात्रा/एक लम्बी सुरंग से गुजरती हुई ट्रेन की तरह/लग रहा है हमारा महादेश/हे कल्याणी/मेरे पास आओ/इस शोर और अन्धेरे से बचाओ/मैं तुम्हारी हँसी के झरने में बह कर/पहुँचना चाहता हूँ/उजास की उस ऐसी दुनिया में/जहाँ झूठ को देख कर चीखे मेरी कविता/झूठ-झूठ/और झूठ नीलगायों की तरह भागे आदमी से दूर!'
अपनी यात्रा जारी रखने का यह कवि-संकेत कदाचित इस बात का सूचक है कि सूचनाएँ अभी पूरी नहीं हुई हैं; ढेरो बातें बची हुई हैं; अपने महादेश के सभी राष्ट्रों की वास्तविकताओं से जूझना तो बाकी ही है; और वह कथा फिर से एक लम्बी सुरंग से गुजरती रेल की यात्रा होगी! इस कविता के एशिया में तो जबरन अमेरिकी बड़बोलापन घुस गया। अपने महादेश के सभी क्षेत्रों की सूचनाओं का अनुशीलनपरक वक्तव्य आ ही नहीं पाया। सम्भव हो कि वह इस कविता या इस जैसी किसी अन्य कविता के अगले खण्ड में आए! इसलिए कवि अपनी कल्याणी सभ्यता को शोर और अन्धेरे से बचाव के लिए पुकारते हैं और उसकी हँसी के झरने में बहकर उजास की उस दुनिया में पहुँचना चाहते हैं, जहाँ नीलगायों की तरह झूठ आदमी से दूर भागे। यहाँ 'आदमी' और 'नीलगाय' का बिम्ब प्रहारक बना है। जिस तरह नीलगाय आदमी को अपना हत्यारा समझती है, और उसकी पकड़ में आने से दूर भागती है; 'झूठ' भी उसी तरह आदमी से दूर भागे! सम्भवत: इसी रास्ते आदमी, सचमुच के आदमी हो जाए!...पूरी कविता में सारे झूठों और फरेबों की बखिया उधेरने के बाद इस अन्तिम अंश में कवि की ऐसी सुभद्र कल्पना 'काव्य-निर्णय' (पोएटिक जस्टिस) का चरमोत्कर्ष है।
सभ्यता की दुर्गति को केन्द्र में रखकर एशिया, यूरोप, अमेरिका, यूनान आदि की खबर लेते हुए सात हजार वर्षों की सभ्यता की तस्वीर खींचती यह कविता 'कालयात्री' राजनीतिक और बौद्धिक दुराचार की महागाथा है। इसमें दुनिया भर के दुराचारी लोग, सभ्यता-संस्कृति-परम्परा-मनुष्यता-मानवीय संवेदना और प्राकृतिक सुषमा के साथ जब-तब अप्राकृतिक आचरण करते पाए गए हैं। पूरे सात हजार वर्षों के इतिहास एवं परम्पराओं की छवियों को इतने संक्षेप में निखारना चूँकि असम्भव था, इसलिए कवि ने प्रतीकों और रूपकों की ऐसी संश्लिष्ट पद्धति अपनाई है कि साफ-सुथरे बिम्ब के साथ पूरा दृश्य जीवन्त हो गया है। इस कविता के अवगाहन प्रक्रिया में भावकों को भी तनिक रस-सिद्ध और सभ्यता-सिद्ध होने की जरूरत है। इतिहास, परम्परा, सभ्यता और संस्कृति के तिथि-संकेतों के साथ घटनाओं एवं उपक्रमों के उद्देश्यों, परिणतियों का अभिज्ञान प्राप्त किए बिना इस कविता का सम्पूर्ण अर्थ प्राप्त करना कठिन है। सम्पूर्ण अर्थ प्राप्त कर लेने का दावा मैं भी नहीं करता, क्योंकि किसी भी विशिष्ट कविता के सम्पूर्ण अर्थ प्राप्त कर लेने का दावा कोई नहीं कर सकता। अलबत्ता, इस कविता की गाँठें खोलने की सारी तरकीबें उपस्थित की गई हैं; सुधी पाठक सम्भवत: बची हुई अर्थ-ध्वनियों का अन्वेष कर लें।
जीवन-संघर्ष की बुनियादी सुविधाएँ जुटाने, होंठों पर पल भर की मुस्कान उभारने, टूटते-बिखरते सपनों की लड़ियाँ गूँथने, जीवन-यापन के झमेलों में ऊब-डूब करते रहनेवाले भारत के जनसामान्य अक्सर परेशान रहते हैं कि नागर-जीवन में इतनी दुख-दुविधाएँ भरकर भी भारतीय लोकतन्त्र के ये बाजीग़र ऐसे अट्टहास कैसे कर लेते हैं? इनके नागफाँस में आकर सब के सब बेबस कैसे हो जाते हैं? दासानुदास प्रक्रिया से जनसमूह को अनुगत बनाने की ऐसी शासकीय सिद्धि, मनुष्यता और सभ्यता की परिभाषा बदल देने की ऐसी राजनीतिक बाजीग़री, आपदाओं में भी नागरिक-विवशताओं के अनुचित लाभ उठाने से न चूकने का ऐसा वाणिज्यिक अविवेक, द्रोह-दंगों से सामाजिक वैमनस्य फैलाने के ऐसे राजनीतिक दुराचारों...से सावधान करते हुए, राजकमल चौधरी ने सन् 1966 में ही 'मुक्तिप्रसंग' कविता में जन-जन को बता दिया था कि तुम्हारे निर्वाचित प्रतिनिधि अब मन्त्री हो जाने के बाद तुम्हें चूहा समझने लगे हैं, 'लोक-सभा में अन्न-मन्त्री कहते हैं बसते हैं कोई पाँच अरब चूहे/इस देश में/बजट के अंकों टैक्सों के रेखागणित में डूबे हुए इस देश में चूहों की/जनसंख्या सबसे भयानक प्रश्न है।' राजकमल चौधरी ने इस संख्या को सबसे भयानक प्रश्न इसलिए नहीं कहा कि यह सचमुच भयानक था, वस्तुत: प्रश्न तो कोई था ही नहीं, नागर-समस्या को मुद्दों से भटकाने के लिए यह प्रश्न बनाया गया था। वे बता रहे थे कि वैज्ञानिक विकास की सूचनाएँ देकर ये मन्त्री-सन्तरी जन-जन को भरमा रहे हैं। चन्द्रलोक की यात्राओं के किस्से सुनाकर अपनी शेखी बघार रहे हैं। देशोद्धार की डफली बजा रहे हैं। देशोन्नति के लाख किस्से ये सुनाएँ, चन्द्रमा पर अपना उपनिवेश ही बना डालें...पर इससे जनकल्याण का कौन-सा मार्ग प्रशस्त हुआ? आदमी, ईश्वर और शैतान बेशक धर्म और नीति से स्वाधीन हो जाएँ, राजनीतिक बाजीग़र बेशक वर्ल्ड-बैंक से तीस करोड़ डालर ले आएँ, भूख से आकुल-व्याकुल जनसाधारण का क्या भला हुआ...? 'भीड़ अब खाने के लिए गेहूँ/और सो जाने के लिए किसी भी गन्दे बिस्तरे के सिवा कोई बात/नहीं कहती है/प्रजाजनों के शब्दकोश में नहीं रह गए हैं दूसरे शब्द दूसरे वाक्य/दूसरी चिन्ताएँ नहीं रह गई हैं।' इसलिए उन्हें असम्भव लगा था -- 'कविता से पहले और मृत्यु से पहले' 'भीड़ से विच्छिन्न असंपृक्त रहकर भी भीड़ से मुक्त' हो पाना । मदन कश्यप की कविता का जनसाधारण, राजकमल चौधरी के नागर से आगे का नागर है, पर शासकीय वातावरण की क्रूरता भी उतने ही आगे की है।
उल्लेख हो चुका है राजकमल के समय की शासन व्यवस्था में तो संस्थाएँ केवल भ्रष्ट हुई थीं, मदन कश्यप के समय की शासन व्यवस्था में तो भ्रष्टाचार का ही संस्थानीकरण हो गया। जब तक जनसमुदाय एक किस्म के भ्रष्टाचार की समझ बनाए, संस्थाएँ दूसरे किस्म के भ्रष्टाचार से लोगों को अवसन्न कर देती थीं। बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में भ्रष्टाचारों के आँकड़े जुटाने में ही सर्वेक्षक बेदम हो जाते हैं। आगे के दिनों में तो शासकीय कदाचारों के लिए चूँ-चपड़ करनेवालों पर क्रूरतम झपट्टा भी मारा जाने लगा। मदन कश्यप की कविताएँ इन घपलों-घोटालों की, क्रूरतम शासकीय नीतियों की और किए कुमर्मों की उनकी शासकीय रफ़ूग़री का सूक्ष्म सर्वेक्षण करती रहीं। उनके पूरे रचनात्मक दौर में भारतीय समाज का जनसाधारण कभी चैन की साँस नहीं ले सका। जनता क्रूरतम व्यवस्था में साँस लेने भर की गुंजाइश तलाशती रही। उनके सृजन-प्रदेश के व्यक्ति, समुदाय और सामुदायिक जीवन में सदैव यही सच सामने आया कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था के बढ़ते सोपानों के देवताओं और उनके शासकीय अनुगामियों ने सम्भवत: भोले-भाले नागरिकों को बेदम रखना मात्र ही अपनी नीति, अपना धर्म मान लिया है।
बीसवीं शताब्दी के अन्तिम कुछेक वर्षों में भारतीय जनता के सिर पर या कि गर्दन पर बैठी सरकार के ओछे आचरणों को चित्रित करती सन् 1994 में लिखी मदन कश्यप की 'रफ़ूगरी' शीर्षक कविता वस्तुत: उस दौर के यथार्थ को रेखांकित करती है कि 'इस तदर्थयुग की/सबसे उन्नत कला है रफ़ूगरी/जिसके सामने हम नतमस्तक हैं!' लोकतन्त्र के देवताओं की दृष्टि में वह समय यकीनन कुठाँव के घाव छिपाने और काम चलाने का समय हो गया था, जब एक पाप को छिपाने के लिए शासकीय बाजीगर दूसरा पाप और दूसरे को छिपाने के लिए तीसरा और फिर अगला पाप लगातार बेशरमी किए जा रहा था। प्रतीत होता था कि इन्होंने कभी शर्म के घाट देखे ही नहीं। सारा इन्तजाम बस एक नजर में सब कुछ ठीक-ठाक लगने जैसा किया जा रहा था, क्योंकि पूरी जनचेतना को उन्होंने इस तरह दिग्भ्रान्त कर दिया था कि बौद्धिक जन तक उनके घावों को सहलाने की बेशर्मी करने में दत्तचित्त होकर तैनात हो गए थे। किसी के पास उस प्रसंग में बहस करने की फुरसत नहीं थी, क्योंकि सब के सब जानते थे इस बहस से कुछ भी सकारात्मक हासिल होने की सम्भावना नहीं है। क्योंकि हर आदमी को कल की फ़िक्र महज इतनी-सी थी कि कल के लिए कितना ज्यादा बटोर लिया जाए। इतना तो तय था कि हर आदमी अपने फटे को ढँकना चाहता था, पर इसकी चिन्ता किसी को नहीं थी कि कहीं ऐसा फटने ही न दें, बुनकरी जैसी कामयाब कारीगरी के समक्ष रफ़ूगरी जैसी कामचलाऊ पैबन्द-संस्कृति को महत्त्व देकर उन्हें महान कारीगरी का दर्जा दिया जाए। किसी ने ऐसा सोचना मुनासिब नहीं समझा कि बुने हुए वस्त्र के कटने-फटने पर रफू होती है, बुने हुए वस्त्र ही न हों तो रफू किसकी हो? और रफू की भी कोई अन्तिम सीमा होती है, एक सीमा के बाद रफू असम्भव है। दूसरी बात रफूगरी के जानकार जानते होंगे कि बुने हुए वस्त्रों के धागे खींचकर, उसी से रफू की जाती है, और ये धागे एक सीमा के बाद मिलने बन्द हो जाएँगे।
इस रफूगरी संस्कृति को बेहतर समझने के लिए सन् 1989 के नौवीं लोकसभा चुनाव परिणाम से बनी अस्थिर सरकार की ओर चलना पड़ेगा। मात्र सोलह महीने ही चली इस लोक सभा में अल्प संख्या-बल के बावजूद, 'नेशनल फ्रण्ट' (एन.टी. रामाराव की अध्यक्षता में संचालित राजनीतिक दल) के संयोजक विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भारतीय जनता पार्टी और वाम मोर्चा के बाहरी समर्थन से गठबन्धन सरकार बनाई और प्रधान-मन्त्री हुए। सर्वाधिक सांसदों के संख्या-बल के बावजूद कांग्रेस पार्टी प्रतिपक्ष में रही। किन्तु मन्दिर-मस्जिद विवादवाली रथ-यात्रा को रोककर उसके नेता को बिहार में गिरफ्तार किए जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने नेशनल फ्रण्ट सरकार से समर्थन वापस ले लिया, प्रधान-मन्त्री को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। फिर समाजवादी जनता पार्टी के नेता चन्द्रशेखर ने कांग्रेस पार्टी के बाहरी समर्थन से सरकार बनाई और प्रधान-मन्त्री हुए। राजीव गाँधी की जासूसी करवाने के आरोप के कारण 6 मार्च, 1991 को उन्हें भी त्यागपत्र देना पड़ा। बुनकरी के बजाय रफ़ूगरी को महत्ता देने की यह कारीगरी भारतीय लोकतन्त्र के दसवीं लोकसभा चुनाव में भी चला। बीच चुनाव अभियान में राजीव गाँधी की हत्या (21 मई 1991) से मिली सहानुभूति के कारण कांग्रेस पार्टी को कुछ अधिक सीटें मिलीं। गठबन्धन की रफ़ूगरी-संस्कृति चल ही पड़ी थी, कांग्रेस पार्टी ने फिर से एक रफ़ूगरी की नीति अपनाई, गठबन्धन की सरकार बनाकर पाँच वर्षों तक किए-कराए सारे घपलों-घोटालों की रफ़ूगरी करते रहे; बुनकरों के प्रतीक जनता, जिसने उनको अस्तित्व दिया, उनकी सुधि तक नहीं ली। सन् 1996 में हुए ग्यारहवीं लोकसभा चुनाव के त्रिशंकु संसद के बाइस महीने तो पूरी तरह रफ़ूगरी से ही कटे। इतनी छोटी अवधि में भारत देश के तीन-तीन प्रधान-मन्त्री (अटल बिहारी वाजपेयी, एच. डी. देवगौड़ा, इन्द्रकुमार गुजराल) हुए और देश के सिर पर फिर से एक चुनाव आ गया।
'रफ़ूगरी' शीर्षक इस कविता की मुख्य पीड़ा यही है कि रफ़ूगर का काम फटे को जोड़ना है, जबकि बुनकर का काम बुनना है। बुनकर वस्त्र बुने ही नहीं, तो रफ़ूगर किसकी रफ़ू करेंगे? इस कविता के लिखे जाने से पहले के लगभग चार दशकों की शासकीय चिन्ता में नवनिर्माण की चिन्ता उपेक्षणीय थी, कमचलाऊ और ठीक-ठाक लगने जैसी स्थिति बनाने की धारणा प्रमुख। यह धारणा आगे और सुपुष्ट हुई। ध्वस्त होते नागर-स्वप्न की पीड़ा का शासकीय चिन्ता से गायब होना त्रासद है। मदन कश्यप की कविता उसी त्रासदी का घनीभूत राग है; जो भिन्न-भिन्न बन्दिशों में प्रकट होकर वंचना के शिकार हुए समुदाय की भावनाएँ प्रकट करती हैं। विषय-वैविध्य के अनुरूप कविताओं की संरचना और रूपक-विधान का बदलना सहज ही है। कथ्य के साथ उनका संरचनात्मक वर्ताव बहुफलकीय होता है। वे सदैव इतिहास, पुराण, परम्परा, सभ्यता की घटनाओं से ही नहीं सामुदायिक जीवन की फटी-चिटी व्यवस्था से भी बिम्ब-प्रतीक रचते रहते हैं। यहाँ मदन कश्यप की विलक्षण प्रयुक्तिगौरतलब है -- 'युग' के साथ 'तदर्थ' विशेषण जैसा अनूठा प्रयोग उनसे पहले की रचनाओं में सम्भवत: न के बराबर हुआ। नियुक्ति, कार्य, निर्माण जैसे उद्यमों में 'तदर्थ' जैसे उपसर्ग लगते रहे हैं; पर युग के साथ इसका संयोजन सम्भवत: पहली बार हुआ है। ऐसी अनूठी प्रयुक्तियाँ उनके यहाँ और भी मिलती हैं। 'तदर्थ' एक अव्ययवाची शब्द है, इसका कोशीय अर्थ होता है -- उसके लिए, तात्कालिक, अस्थायी -- अर्थात्, यह कार्य खास प्रयोजन से किया गया, प्रयोजन पूरा होते ही इसे नष्ट कर दिया जाएगा। पर भारतीय व्यवस्था में तो पूरे का पूरा काल ही तदर्थ (तत्+अर्थ>उसके लिए) हो गया था। ऐसे राजनीतिक समय के लिए तदर्थ-युग जैसा नामकरण विलक्षण है। ऐसे नामकरण से उन कर्मनाशकों की निर्लज्जता तनिक स्पष्टता निरूपित हो पाई है।
अपने शासनकाल (ई.पू.1810-ई.पू.1750) में, अक्कादियन राजा हम्मूराबी ने असीरिया के राजा को अपदस्थ कर लगभग पूरे मेसोपोटामिया को बेबीलोन के अधीन कर लिया था। वे अपनी विधि-संहिता के लिए विशेष रूप से ख्यात हैं। बेबीलोन की शासन पद्धति में अपराधियों की शारीरिक सजा पर उन्होंने अधिक बल दिया था। उनके विधान में 'आँख के बदले आँख' की मान्यता थी। साम्राज्य ध्वस्त हो जाने पर भी उन्हें आदर्श शासक का सम्मान दिया जाता रहा। उनका साम्राज्य फारस की खाड़ी और दजला-फरात और भूमध्यसागर के सामी तट तक फैला हुआ था। कवि मदन कश्यप को अपने समय के शासकों की बेअक्ली देखकर उनकी याद आ गई; सन् 1992 में 'हम्मूराबी' शीर्षक कविता में वे एक दिन उस अक्कादियन राजा को कब्र से जगाकर संवाद करने लगे, 'उठिए और बताइए/ठीक-ठीक कहाँ पर था आपका बेबीलोन/वहाँ जहाँ बमों से घायल है धरती/अथवा वहाँ, जहाँ अभी भी बचे हैं बंकर'; पर हम्मूराबी बेबीलोन को पहचान नहीं पाए, कोई नहीं पहचान पाता है। युद्ध की दानवी लिप्सा का उन्माद पश्चाताप के सिवा कुछ तो देता नहीं! इस कविता द्वारा कवि भारतीय लोकतन्त्र के उन्मादियों को यही सन्देश देना चाहते हैं कि जिस तरह हम्मूराबी दजला-फ़रात में केवल पानी ही देख पाते हैं, नहीं समझ पाते कि नदी की कथा में केवल पानी नहीं होता, उसमें पानी से अधिक आदमी की व्यथा होती है; उसी तरह गंगा नदी के पानी को साफ कर देने से उसमें घुली मानवीय पीड़ा साफ नहीं हो जाएगी। सत्ता जब मानवीय पीड़ाओं की सुधि लेना बन्द कर देती है, तो सभ्यता के ललाट पर कलंक का टीका लगता है, कलंक बढ़ता जाए तो सभ्यता नष्ट हो जाती है। सत्ता और सत्ताधारी तो आते-जाते रहते हैं। पूरब की सारी महान सभ्यताएँ एक-एक कर यूँ ही नष्ट नहीं हो गईं! सभ्यताओं के नष्ट हो जाने के बाद तो हर जगह की हताश जातियाँ अपने भव्य अतीत के गौरव पर मध्ययुगीन बर्बरता की चादर डाल कर मरती-कटती रहती हैं, अब बेबीलोन कोई नहीं जाता, अब सभ्यता की जन्मभूमि ढूँढने की तिनका भर की इच्छा भी किसी को नहीं होती! सब के सब रामजन्मभूमि के केन्द्रीय बिन्दु के अनुसन्धान में संलिप्त हैं। उन्हें जब स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम राजा राम की सभ्यता की चिन्ता नहीं है, तो अपनी सभ्यता की चिन्ता क्यों हो?
पर भारतीय शासकों की तरह हम्मूराबी ने ढिठाई नहीं दिखाई, उन्होंने पश्चातापपूर्वक कवि से कहा कि 'कुछ गड़बड़ था मेरी न्यायसंहिता में भी।' भावक यह न समझें कि कवि ने यहाँ हम्मूराबी से संवाद की फैण्टेसी गढ़ी है। इसमें हम्मूराबी और कवि अलग-अलग दो प्राणी नहीं हैं, दोनो एक ही हैं, और वे हैं कवि और कवि-चेतना। आज हम्मूराबी होते, तो वाकई ऐसे ही सोचते; क्योंकि और जगह बेशक न हो भारत में तो हैं ही '...ऐसे शासक/जो आदमी और आदमी में इतना फ़र्क करते हैं/कि आदमी और बैल में फ़र्क नहीं कर पाते', परन्तु उन्हें हम्मूराबी जैसी नीन्द नहीं आती! क्योंकि सोते वक्त उन्हें फिर अगले दिन किए जानेवाले किसी कुकर्म की रणनीति की, अथवा पिछले दिन किए गए किसी कुकर्म से अपने बचाव की नीति तैयार करने की चिन्ता सताए रहती है।
उल्लेखनीय है कि इस कवि को, जिस नरसिंहराव सरकार की दुर्नीति ने सन् 1992 में चार हजार वर्ष पीछे की सभ्यता में कब्र में सोए राजा हम्मूराबी को जगाने को विवश किया, उसी दुर्नीति ने उन्हें सन् 1993 में यह भी प्रमाण दिया कि 'नीम रोशनी में' वस्तुत: कुछ भी नहीं किया जा सकता, कविता भी नहीं लिखी जा सकती, प्यार तो हरगिज़ नहीं किया जा सकता। ऐसा होता तो घोर पराजय के बाद जनता ने एक बार फिर से जिन कांग्रेसियों को सुधरने का मौका सन् 1991 में दिया, वे सुधरे होते; उस प्यार का प्रतिदान पूरे पंचवर्षीय काल में दिया होता; वे तो लगातार सत्ता बचाने और भावी काल के लिए हिस्से से अधिक बटोर लेने में मशगूल रहे! अब ऐसी असह्य वेदना में कोई कराहे या कविता लिखे? राजनीति के बाजीगर कविता की ताकत जानते हैं। उन्हें मालूम है कि हमारे कुकृत्यों का सच कविता में आ गया, तो जनता जागृत हो जाएगी। वे यह भी जानते हैं कि घुप्प अन्धेरे में आँखों से बेशक कुछ न दिखे, हाथ टटोल लेते हैं दिशाएँ और पाँव ढूँढ़ लेते हैं रास्ते; पर रोशनी की सुगबुगाहट तनिक-सी हो जाए, तो हाथ और पाँव की क्रियाशीलता जवाब दे देती है। फिर नीम रोशनी में इतिहास का क्या, अपने समय का यथार्थ भी नहीं दिखता। 'कितनी ख़तरनाक है यह नीम रोशनी/सबकुछ दीखता है/पर कुछ भी साफ-साफ नहीं दीखता/...रोशनी इतनी मद्धिम हो/कि पुकारने वाले छायाओं की तरह दिखें/तब किसी भी चीज़ को धुँधलाया जा सकता है/इतिहास को/विश्वास को/किसी भी चीज़ को!' इस कविता के दूसरे प्रसंग के आरम्भ की एक पंक्ति और अन्त की दो पंक्तियों में कवि ने सारे भेद उजागर कर दिए -- 'जब आदमी सिर्फ आवाज़ों के पीछे दौड़ने लगे' और 'पीछे-पीछे भागते आदमी के साथ यह सुविधा है/कि वह सोचता हुआ नहीं होता!'
भारतीय लोकतन्त्र की विसंगतियों को सारे ही महान रचनाकारों ने अपनी-अपनी तरह से रेखांकित किया है। उन सभी रेखांकन से एक ही बात सामने आती है कि शासन की लगाम थामते ही उसकी ताकत केवल अपनी ताकत से बड़ी नहीं होती, उनके पीछे बेतहाशा भागते हुए जनसामान्य की ताकत से बड़ी होती है। और वही ताकत सामुदायिक परिवेश में उनके हिस्से की लड़ाई लड़ता है, उसे देवता मानने की वकालत करता है। आवाजों के पीछे दौड़नेवाले उन आदमियों को जब से दौड़ने में लगाया जाता है, उनके केवल कान रह जाते हैं, सोचने की क्रिया बन्द हो जाती है, वैसे भी पीछे-पीछे दौड़ता हुआ हर आदमी अपने हिस्से के सोचने का काम आवाज लगानेवालों पर सौंप देता है। बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक से आगे तक के दशकों तक की भारतीय लोकतन्त्र की यह बड़ी उपलब्धि है कि उन्होंने अपने पीछे दौड़नेवालों की एक बड़ी जमात बना ली है, जो जनसमूह के बीच उनके हिस्से का अपमान आसानी से सह लेने को पल-पल तैयार रहता है।
ऐसे पामर अनुयायियों के रहते, लोकतन्त्र के इन हत्यारों के लिए बहुत आसान है रोशनी को धुँधलाना, अपने चेहरे से रक्त के फव्वारों और ख़ून के छींटों को पसीने की तरह आराम से पोंछकर घटना को इतिहास की ओर मोड़ देना; क्योंकि 'वे सदी के सबसे चालाक हत्यारे हैं/उनका दावा है/उन्होंने दुनिया भर की बेहतरी के लिए की हैं/दुनिया भर की हत्याएँ!'
सन् 1997 आते-आते देश-दशा का कुछ और पतन हुआ। जनता के सिर पर चुनाव पर चुनाव लादकर जनजीवन को साँसत में डालनेवाले पाखण्डियों को कवि ने 'निर्बल पाखण्डी' कहा है; क्योंकि उनका आत्मविश्वास पल-प्रति-पल डगमगाया रहता है; उनके आत्मविश्वास का डगमगाना सुकर है; पर सही-सही वैसा भी नहीं होता! क्योंकि धूर्तों की परम अर्हता निर्बलता और पाखण्ड दोनो होती है। यह समय हमारे देश के लिए मूर्खताओं के सफल होने, विचारों को अगली पीढ़ी की चिन्ता बना देने या त्याग देने का कायर समय था। आज़ादी की स्वर्ण-जयन्ती मनाए जाने का उत्सव-काल था, जिसमें से देश ही गायब था। विश्व व्यापार संगठन में देश के ईश्वरों ने न जाने किस नशे में क्या-क्या बेच डाले! क्रय-विक्रय के उस मौसम में हमारे प्रतिनिधियों ने तो निष्ठाएँ, प्रतिबद्धताएँ, आत्माएँ, संवेदनाएँ तक बेच दीं, कवि तो सिर्फ अपना गुस्सा बेचकर जनतन्त्र के लिए थोड़ी-सी लज्जा खरीदना चाहते हैं -- 'मैं बेचना चाहता हूँ अपना थोड़ा-सा गुस्सा/और खरीदना चाहता हूँ/इस महान जनतन्त्र के लिए थोड़ी-सी लज्जा।' हर सचेत कवि किसी सही समय के लिए अपना गुस्सा धरोहर की तरह बचाकर रखना चाहते हैं, पर यहाँ हालत इतनी बदतर है कि कवि अपना गुस्सा बेचकर जनतन्त्र के लिए थोड़ी-सी लज्जा खरीदना चाहते हैं। आखिरकार इस जनतन्त्र के रक्षक बने बाजीगर क्यों इतने निर्लज्ज हो गए हैं कि उनके लिए कवि-समाज लज्जा खरीदने को बेचैन हैं? अत्याचारी इतने धूर्त हो गए हैं कि उन्होंने अपने चेहरे विदूषकों-से रंग लिए हैं। उन्हें नृशंसता को परिहास बना देने की महारत हासिल हो गई है। किसी की गर्दन मरोड़े जाने पर दर्द की रीरियाहट में लोग-बाग तालियाँ बजाकर हँस लेते हैं। आज़ादी की स्वर्ण-जयन्ती के उत्सवी मंच पर कठपुतलियों और जमूरों का नाच तो चल रहा था; पर सात समन्दर पार बैठा मदारी 'विश्व व्यापार संगठन के क्षीरसागर में/विश्व बैंक की नाग-शय्या पर आराम फरमाता है/वहीं से डोर खींचता है बाँसुरी बजाता है।'
सन् 1995 से विश्व व्यापार संगठन के विधानों के साथ भारत के जुड़ते ही भारतीय कृषि-क्षेत्र पर पड़े नकारात्मक प्रभाव, भारत में बहुराष्ट्रीय एकस्व (पेटेण्ट) पद्धति के कारण दवाओं की मूल्य-वृद्धि और गरीबों का नुकसान, भारतीय बाजार पर चीनी उत्पाद के दुष्प्रभाव आदि से असंख्य भारतीय अवगत हैं, कवि मदन कश्यप को ऐसी बाजीगरी व्यथित करती है। वे आजिजी में बड़बड़ा उठते हैं -- 'यह किस चीज़ का उत्सव है भाई/प्रतिभूति घोटाले का/यूरिया घोटाले का/चीनी घोटाले का/चारा घोटाले का/दवा घोटाले का/या उस बोफ़ोर्स घोटाले का/...जिसने अपना खून देकर पाई आजादी/उस आखिरी आदमी का चेहरा/आज इस कदर पाएमाल क्यों है/वह क्यों खो गया है नाक-नक्शहीन आकृतियों की भीड़ में/आखिर उस माननीय सेनानी ने झण्डा थमाते वक़्त/पाखण्डियों का अभिवादन क्यों किया...क्यों किया/ऐ नब्बे करोड़ लोगों, बताओ/क्या यह स्वर्णजयन्ती का सबसे शर्मनाक वाकया नहीं था!'
लोगों को स्मरण होगा कि 16 जून 1988 को जहानाबाद (बिहार) के दो पड़ोसी गाँव नोनहीगढ़ और नगवाँ में लगभग पचास हथियारबन्द हमलावर ने दलित समुदाय के 19 लोगों को गोलियों से भून दिया। शर्मनाक बात यह थी कि दोनों गाँवों के चारो ओर बसे जमीन्दारों में से किसी ने हमलावरों को चुनौती देने का साहस नहीं किया। सरकारी छानबीन के दौरान किसी ने गोली-बन्दूक, चीख-पुकार की ध्वनि सुनने की बात नहीं स्वीकारी; फिर हत्या के उद्देश्य या हत्यारों की पहचान की बात कौन करता! गाँव के लोगों ने उन सभी दलितों पर इण्डियन पीपुल्स फ्रण्ट (उग्रवादी संगठन) का सदस्य होने का आरोप लगाया। ऐसी घटनाओं का दस्तावेजीकरण न तो सरकारी आँकड़ों में होता है, न इतिहास में, न लोक-स्मृति में। सामर्थ्यशाली हुए तो मृतकों के वंशजों के हृदय में प्रतिशोध की ज्वाला बनकर ऐसी घटनाएँ जीवित रहती हैं, या फिर किसी संवेदनशील कवि की कविताओं में वह दर्ज होकर अमर हो जाती हैं। मदन कश्यप की 'कहाँ है पृथ्वी' शीर्षक कविता की आँचल में कुछ ऐसी घटनाएँ आ सिमटी हैं, जो भावकों को न केवल उद्वेलित करती हैं, बल्कि बोध के स्तर पर दार्शनिकता तक पहुँचा देती हैं।
एक अनुराग-वृत्ति की उद्भावना से इस कविता की शुरुआत करते हुए कवि पृथ्वी और दिशाओं के उस वैराट्य का परिचय देते हैं, जिसमें वे न केवल जीव-जन्तु, जड़-चेतन, पुष्प-पादप की, बल्कि आसमान तक की काया को सहलाने के भाव ढूँढने में मगन हैं कि 'कहाँ है पृथ्वी/कहाँ हैं वे खुली दिशाएँ/जिनमें दूर बहुत दूर तक/अपनी हरी-हरी दूब से/आसमान को सहलाती हुई दीखती थी पृथ्वी/कहाँ है पृथ्वी!' इन पंक्तियों में कवि, पृथ्वी के जिस स्वरूप की तलाश कर रहे हैं, वस्तुत: राजनीतिक आततायियों ने सन् 1988 आते-आते ही वैसा नहीं रहने दिया; कवि अभी भी उस पृथ्वी पर तानने के लिए अपने बचपन की गुलेल ढूँढ रहे हैं, जबकि राजनीतिक सौदागर सुपर कम्प्यूटरों से बने नए हथियारों के अभिकल्प तैयार कर चुके हैं। 'वे हथियारों को धमाकाहीन बना रहे हैं/कि हत्या के वक्त/जनतन्त्र की नीन्द में खलल न पैदा हो/और हम/अपने चीखने की शक्ति तक खोते जा रहे हैं।' जनतन्त्र की नीन्द में खलल न पैदा करनेवाली बात का उल्लेख उन्होंने विनम्रता में की है, असल बात तो यह कि उन सौदागरों ने उन्हें इसलिए धमाकाविहीन बनाया है कि उनकी पोल न खुले; जैसे नोनहीगढ़ और नगवाँ में उन हत्यारों के कुकृत्य की ध्वनियाँ पड़ोसियों को सुनाई नहीं पड़ी। बालापन की स्मृतियों का दुहराव भी यहाँ प्रतिलोम उत्पन्न कर व्यंग्य को धारदार बनाता है। यकीनन वह समय फिसलन भरा था, जब शब्द और पाँव, दोनों हवा में थे, हवा किसी को दूर तक उड़ाकर ले जा सकती है, बेशक वह वस्तु हो या गन्ध; वह किसी को गिरने से नहीं बचा सकती, सँभाल नहीं सकती, क्योंकि उसकी कोई ठोस सतह नहीं होती; इसलिए कवि अपने समय से थोड़ी-सी जमीन माँगते हैं, क्योंकि तलविहीन वायुमण्डल में गिरने पर वे किसी ऐसे अन्धे सुरंगनुमा खड्ड में जा गिरेंगे, जहाँ उनकी चीख़ सुनने के लिए कोई पंछी तक न होंगे। इस अंश में वस्तुत: कवि उन सौदागरों को बताना चाहते हैं कि गिरने के लिए पृथ्वी की जरूरत केवल वस्तु को ही नहीं, मनुष्य को भी होती है। वस्तु का गिरना तो तय है कि वह गिरकर जमीन पर आ टिकेगी, मनुष्य के पतन की कोई सीमा तय नहीं है, पतित मनुष्य किसी भी गहराई तक जा सकता है। इस कविता में कवि ने जन-जन को भली-भाँति आगाह किया है कि हवा के रास्ते, हवा होकर शिखर तक जाने के रास्तों के कोई निशान नहीं होते, क्योंकि हवा में रास्तों का कोई निशान नहीं होता। हवा में रास्तों के निशान न होने जैसे साक्ष्य से कवि ने जनतन्त्र के हत्यारों की उस चालबाजी पर भी व्यंग्य किया है, कि जैसा समय आ गया है, इसमें किसी भी करतब की कोई सुनिश्चित पद्धति या स्थान नहीं होता, ख़तरे का भी नहीं; क्योंकि अब क़त्ल के लिए किसी ठीहे की ज़रूरत नहीं होती। जनतन्त्र की गाज एक ऐसा परमाणु बम है, जिसे कहीं भी कभी भी गिराकर देश के किसी न किसी हिस्से को हिरोशिमा या नागासाकी बनाया जा सकता है; ऐसा करने के लिए किसी ठीहे की जरूरत नहीं रह गई थी सन् 1988 के भारत देश में। और, उल्लेखनीय बात यह, कि यहाँ न कोई जापान था, न अमेरिका। यहाँ चारो ओर भारत ही भारत था। यहाँ का हिरोशिमा और नागासाकी बना जहानाबाद का नोनहीगढ़ और नगवाँ और अमेरिकी लिप्सा बन गई भारतीय शासन-व्यवस्था की वर्चस्ववादी धारणा। 'जहाँ कभी राष्ट्रध्वज तक नहीं फहराया गया/वहाँ हो रहा है फौज का झण्डा-मार्च/जहाँ अभी सड़कें तक नहीं पहुँचीं/वहाँ पहुँच चुकी है सी.आर.पी./एक अदृश्य हत्याघर है/जिसमें फँसी हुई हैं हमारी साँसें/हमारे सबसे सूक्ष्म अवयव को/उससे भी सूक्ष्म विस्फोटक से घेरा जा रहा है।' विकासोन्मुख देश भारत का निस्सहाय जनसामान्य ऐसे दृश्यों से पल-पल जूझ रहा था।
भावकों की स्मृति में आज भी अमेरिका द्वारा छह अगस्त 1945 को हिरोशिमा पर और नौ अगस्त को नागासाकी पर परमाणु बम गिराने की घटना होगी। अपने कार्यकाल (सन् 1945-1953) में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन (सन् 1884-1972) ने समर्पण न करने की स्थिति में जापान को धमकी दी कि उसके किसी भी शहर को नेस्तोनाबूद कर दिया जाएगा। जापान के नहीं मानने पर, जापानी युद्ध क्षमता को प्रभावी नुकसान सुनिश्चित करने के लिए उसके सैन्य-शक्ति उत्पादन एवं आपूर्ति भण्डारन के प्रमुख केन्द्र हिरोशिमा और नागासाकी पर उसने बम बरसाया। वस्तुत: सन् 1945 में इण्डोचायना इलाके पर कब्जा करने की जापानी नीति अपनाए जाने से अमेरिका क्रुद्ध हो गया था। वैसे तो जापान यूँ भी हार ही रहा था, पर युद्ध के बाद शक्ति के मामले में अमेरिका को सोवियत संघ से आगे निकलना था; इसलिए वह बमबारी उसके शक्ति-प्रदर्शन का प्रतीक भी था।
युद्ध तो समाप्त हो गया, पर अमेरिका द्वारा मानवीयता की ललाट पर लगाया गया यह कलंक कोई भूल पाएगा? बिहार के एक छोटे-से पिछड़े गाँव में हुई दानवीय घटना का रूपक इस वैश्विक युद्ध से गढ़ने की कवि-चिन्ता में देश की बहुत बड़ी चिन्ता है। राज्य अथवा केन्द्र की सरकार ने उस दलित समूह के जीते जी उसे सुरक्षित और व्यवस्थित जीवन देने की चेष्टा तो नहीं ही की, उनके मर जाने पर भी एक तरफ उनके ग्रामीणों ने उन्हें उग्रवादी बताया, तो दूसरी तरफ सरकारी तन्त्र ने वहाँ फौज का झण्डा-मार्च कराया; जहाँ कभी राष्ट्रध्वज तक नहीं फहराया गया। 'गोलियाँ जो चलती हैं जहानाबाद में/उसके धमाके चुभते हैं यहाँ मेरे सीने में/बन्द कमरे में भी शब्दों को छूते ही/थरथराने लगते हैं मेरे हाथ/जैसे ही शुरू करता हूँ कोई कविता/राइफलों के कुन्दों से/वह खटखटाने लगता है मेरा दरवाज़ा/बूटों की धमक से/पीपल के पीले पत्तों की तरह काँपने लगती है।' इस अंश में कवि संवेदना का विस्तार सहृदय पाठकों को निश्चय ही उद्वेलित करता है, जिसमें एक ओर कवि-संवेदना उस गाँव के उन निस्सहाय लोगों तक जाती है, दूसरी ओर उन मृतकों की पीड़ा कवि की अन्तश्चेतना में प्रवेश करती है। श्रेष्ठ कविता इसी अन्तर्वाह्य की आवाजाही में तैयार होती है। उन मृतकों से कवि का कोई भी पारम्पारिक, सामाजिक, व्यावसायिक सम्बन्ध नहीं हैं, पर एक सबसे बड़ा सम्बन्ध है मानवीयता का; यह सम्बन्ध एक बार किसी से बन जाए तो उसे कोई भी क्षेत्रीयता या जातीयता खण्डित नहीं कर सकती। हैरत है कि लोक-तन्त्र के देवताओं का ऐसा सम्बन्ध अपने देश के नागरिकों से क्यों नहीं बनता है! उनके सीने में उठी पीड़ा के कारण, बन्द कमरे में भी उनके शब्दों में हरकत होने लगती है, हाथ थरथराने लगते हैं, वे कोई कविता लिखना शुरू करते हैं, पर राइफलों के कुन्दों से हत्यारे दरवाज़ा खटखटाने लगते हैं, बूटों की धमक से कमरे की रोशनी पीपल के पत्तों की तरह काँपने लगती है।...
शब्दों और भावों के इन हत्यारों की ऐसी दहशत यकीनन उस दौर में फैली थी। वैसे तो शासकीय खेलों पर बौद्धिकों के कुछ कहने या लिखने की सहज उदारता न उससे पहले थी, न बाद में हुई! पर मदन कश्यप कभी किसी की उदारता की प्रतीक्षा नहीं करते। उनकी संवेदनात्मक शक्ति ने उन्हें इतना साहस दिया है कि वे बार-बार जन-जन को छल लेनेवाली प्रजातन्त्र की मोहिनी-शक्ति के बावजूद सच देख लेते हैं और सच कहने की शक्ति जुटा लेते हैं। बेशक यहाँ कुछ भी बदलने से पहले बदलाव की स्थितियाँ बदल जाएँ, बेशक फैलते जाएँ प्रतिशब्दों का कोई ब्लैकहोल भोपाल में, आँखें निकाल कर बेशक रख दें चौराहे के उपेक्षित लैम्प-पोस्ट में, हाथ काट कर बेशक सजा लिए जाएँ गुलदस्ते, बेशक नियोजित हो कविता को चुप कराने साजिश; पर उनके हृदय में संचित सारे महासागरों के गर्जन, समूची पृथ्वी की गूँज, हजार हजार चिड़ियों के कलरव चुप नहीं रहेंगे; इन ध्वनियों और इन शब्दों से मुक्त होकर ही उनकी मुक्ति-यात्रा शुरू होगी।...यहाँ महासागर, पृथ्वी, चिड़िया...आदि के रूपक कवि की निर्द्वन्द्व उदारता और साहस को रूपायित करते हैं।
सन् 1998 की शासकीय व्यवस्था की दुर्गन्धियों ने एक और तरह से उन्हें क्षुब्ध किया। उसमें उनको अपना कवि-समाज तक किसी क्षुद्र लिप्सा में लिप्त दिखा। 'विनम्र ज़िद' शीर्षक कविता में उनकी वही धारणा व्यक्त हुई है। यह विनम्र ज़िद जीवन की अनिवार्यताओं के लिए नहीं थी, एकदम निरर्थक थी; वह भागती हुई दुनिया को रोक देने की, कदम भर भी आगे न बढ़ने देने की, अर्थात् विकास के पहिए को रोक देने की ज़िद थी। लड़-झगड़कर नहीं, रो-गिड़गिड़ाकर वह अपनी बात मनवाना चाहता था। 'वह कवि था और अन्धेरे में तीर चलाता था/चाहता था अँधेरा कभी ख़त्म न हो/ताकि वह जारी रख सके कविता का खेल/वह जानता था कि अन्धेरा सबसे मुनासिब है इस खेल के लिए/इसमें कोई लक्ष्य तय नहीं करना पड़ता/सो चूकने का भी डर नहीं रहता/बस तीर चलाते जाओ कहीं न कहीं तो लगेंगे ही।' यहाँ कवि सत्ता के गलियारे में शिक्षित-प्रशिक्षित कवि की चालबाजी पर क्षुब्ध हैं कि विनम्रता की चादर ओढ़े यह दुष्ट निर्दयी माथा टेककर विचारवानों का विचार-हरण करना चाहता है। मदन कश्यप उनकी आश्वस्ति से आश्वस्त हैं कि बेहद सुरक्षित जानकर यह खेल, 'सबसे ज्यादा राजा खेलता है/पुजारी को तो केवल यही खेल आता है/न्यायपाल को भी यह खेल प्रिय है/पुलिस तो यहीं से शुरू करती है/और यहीं पर ख़त्म करती है अपना खेल।' इसलिए प्रशिक्षण पाकर कुछ क्षमता-लोलुप कवि भी इसके लिए आसक्त होते हैं। मदन कश्यप ने उन्हें समझाने की चेष्टा की है कि 'अन्धेरे में तीर चला कर बहुत कुछ किया जा सकता है/सरकार चलाई जा सकती है/सरकार गिराई जा सकती है/मगर कविता नहीं लिखी जा सकती।' पर वे मानने को तैयार नहीं थे। इस पद्यांश में कवि ने न केवल उस विचारहीन कवि की भर्त्स्ना की है, बल्कि राजा, पुजारी, न्यायपाल, पुलिस के गोरख-धन्धों पर तीक्ष्ण व्यंग्य किया है।
अपनी गुणवत्ता के साथ हर जगह उपस्थित होने पर हर वस्तु की वस्तुनिष्ठता बरकरार रहती है। प्रतिकूल आचरण में लिप्त हर वस्तु, विषय, प्रसंग, मनुष्य या अन्य जीव की वस्तुनिष्ठता खण्डित हो जाती है। मदन कश्यप हर कुछ की वस्तुनिष्ठता बरकरार रखना चाहते हैं, बेशक वह मनुष्यता हो, या सामाजिकता, सौहार्द, अनुशासन, पर्यावरण, संवेदना...कुछ भी हो! प्रतिकूल आचरण में संलिप्त मानवीय करतब यद्यपि कवि को क्षुब्ध करता है, पर अनुकूल वस्तुनिष्ठता को विस्थापित कर कवि किसी भी स्थिति में प्रतिकूलता प्रतिस्थापित नहीं करना चाहते। इस विषय-वस्तु को लेकर श्रेष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल की 'इस मैदानी इलाके में' शीर्षक एक कविता है, जिसमें वे पहाड़ को मैदान में, मैदान को पहाड़ में, टाटानगर और मद्रास जैसे रोजगारदाता शहर को हर जगह, कुछ इस तरह विस्थापित करना चाहते हैं 'कि सब जगह हो सब जगह के पास/और अकाल, आतंक, दुकाल में अबकि साल/गाँव से एक भी विस्थपित न हो।' ('अतिरिक्त नहीं', पृ. 22-23, वाणी प्रकाशन, सन् 2000)। यह कविता, संकलन में बेशक सन् 2000 में आई, पर निश्चय ही इसका लेखन और प्रथम प्रकाशन सन् 1998 से पूर्व हो गया था। इस कविता में विस्थापन के प्रति कवि का आग्रह तो है, पर आग्रह भ्रान्त नहीं है। वे चाहते हैं, देशाटन, व्यवसाय, शौक-मनोरथ या रोजगार प्राप्ति...जिस किसी भी कारण से गाँव के लोगों का विस्थापन होता है, उसे रोका जाए, बेशक उन स्थानों का विस्थापन हो जाए। क्योंकि मनुष्य के विस्थापन से उसके कुटुम्बों को पीड़ा होती है। चूँकि स्थानों की पीड़ा का ध्यान विनोद जी की कविता में नहीं रखा गया, इसलिए मदन कश्यप ने विनोद कुमार शुक्ल से क्षमायाचना सहित सन् 1998 में 'किसी विस्थापन की तरह नहीं' शीर्षक कविता लिखी। क्योंकि मदन कश्यप का विस्थापन विनोद कुमार शुक्ल के विस्थापन की तरह तो नहीं है, वे इस सृष्टि में स्थानों या उपादानों का विस्थापन-प्रतिस्थापन तो नहीं चाहते, पर उन सबके प्रभावों का प्रतिस्थापन चाहते हैं, कि 'कुछ ऐसे प्रतिस्थापित हो यह दुनिया/कि कहीं से कहीं भी जाना/किसी विस्थापन की तरह नहीं लगे।' विनोद कुमार शुक्ल जहाँ मनुष्य का विस्थापन रोकने के अनुराग में प्राकृतिक सुषमा या रोजगारी शहर को विस्थापित कर अपने गाँव के निकट ले आना चाहते हैं, मदन कश्यप मनुष्य के सोच से विस्थापन का बोध मिटा देना चाहते हैं। वे प्रकृति की किसी भी प्रकृतावस्था में बदलाव नहीं चाहते; मसूरी, नैनीताल, पुरी, कन्याकुमारी, हिमालय, समुद्र, नदी, देवदार, घाटी, कारखाना, खेत...सब कुछ को वहीं के वहीं रहने देना चाहते हैं; सबसे मिलने-देखने के लिए वे स्वयं उनके पास जाना चाहते हैं; अपने आलस्य को सहलाने या सहूलियत अपनाने के उद्यम में वे नहीं चाहते कि पहाड़ टूट कर घाटियों पर आ बरसे, नदियों का प्रवाह रोक दे; वे चाहते हैं कि खेतों में फसलें ही उगें, कारखानों में औजार ही बनें। वे चाहते हैं कि ज़रूरत की हर चीज़ हर जगह मिले, इसके लिए ज़रूरी है कि चीजें अपनी-अपनी जगह पर ही हों, और आदमी के लिए सुरक्षित भी रहे। वे चाहते हैं कि आदमी के नीन्द में सिर्फ नीन्द हो, कुछ सपने बेशक हों, पर नीन्द में यात्राएँ न हों, नीन्द में कोई भूगोल-खगोल या इतिहास को पार न करे। आदमी का पसीना पसीने जैसा ही हो, उससे लहू न टपके; आदमी की हँसी, आदमी की हँसी जैसी ही लगे। सर्वोपरि वे चाहते हैं कि धरती की तरह आदमी के भीतर भी आदमी के लिए जगह सुरक्षित रहे; 'पीठ पर पीड़ाओं की पोटली उठाए/जब कहीं से चले कोई आदमी/तो किसी न किसी मोड़ पर उसे मिले/स्वागत में बाँहें फैलाए कोई दूसरा आदमी!' सन् 1998 में मदन कश्यप अपने देश में ऐसी स्थिति की कल्पना से इसलिए भरे हैं कि भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था के उस दौर में जनसाधारण चिक्का खेल के पहलवानों के दो समूहों द्वारा दो तरफ से खिंच रहा था। एक तरफ शासकीय व्यवस्था उनसे शीर्षासन कराकर चीजों को निर्धारित फरमे में देखने को विवश कर रही थी; दूसरी ओर वे पल-प्रति-पल द्रोह-दंगा-आगजनी-हत्या की दहशत में साँस ले रहे थे। किसी भी समय खर्च हो जाने का आतंक उनके सिर पर सवार था। वैसी भयावह स्थितियों में भी जगह-जगह कुछेक मनुष्यों में सद्भाव होने की सम्भावना से वे निराश नहीं हुए थे।
बाइस महीने (16.05.1996 से 23.03.1998) में देश को तीन-तीन प्रधान-मन्त्री देनेवाली ग्यारहवीं लोकसभा की त्रिशंकु संसद और तेरह महीने (10.03.1998 से 26.04.1999) चलकर प्राण त्यागनेवाली बारहवीं लोकसभा की करतूतों से सबलोग अवगत हैं। मात्र चालीस महीने में देश पर तीन-तीन चुनाव थोप दिए गए। तेरहवीं लोकसभा चुनाव जीतकर आए राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की सरकार ने पाँच वर्षों का अपना कार्यकाल अवश्य पूरा किया, पर कई वर्षों से सत्ता की प्यास में जीभ लपलपाती इस सरकार की लालसाएँ अनन्त थीं, समय कम था, गठबन्धन बचाने के लिए सदस्यों के प्रतिशोधात्मक उद्वेगों को सहलाना हर सरकार का धर्म होता है! ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था में चल रहे सामुदायिक जीवन को रेखांकित करने के लिए मदन कश्यप ने 'कुरुज' जैसे रूपक का बेहतरीन उपयोग किया है। बहेलियों के समुदाय में प्रचलित यह अर्थगर्भित शब्द बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। इसका अर्थ वह सुनिर्धारित स्थान है, जहाँ खास मौसम में इकट्ठे होकर परिन्दे अपने पुराने पंख झाड़ते हैं, और गर्भाधान करते हैं। सन् 1999 में भारतीय जनजीवन को उत्केन्द्रित करनेवाली उत्क्रोचक शक्तियाँ इस तरह उत्कर्ण थीं कि प्रचलित शब्द-संसार खोखले और निष्प्रभ होते जा रहे थे; बौद्धिक उद्यमों की विवशता और अकर्मण्यता देखकर कवि मदन कश्यप की पीड़ा बढ़ती जा रही थी। बूढ़ी जटाओं की तरह उलझे विचारों को सुलझाने की चेष्टा में उन्हें, आस्था और विचार-शृंखला टूट-टूटकर गंजी होती दिखने लगी थी। इस पीड़ा से मुक्ति का मार्ग उन्हें बहेलिया समुदाय के इसी शब्द 'कुरुज' से प्रशस्त हुआ। इस शब्द के अर्थान्वेष के लिए कोई अन्वयमूलक अर्थ कौरव (कुरु+ज>कुरु से जन्मा) न निकालें, क्योंकि इस शब्द का इन्तजाम उन्होंने किसी कोशीय उद्यम से नहीं, बहेलिया समुदाय से परिचय बनाकर किया है। और, कृतज्ञता-ज्ञापन के लिए उन्होंने 'कुरुज' शीर्षक से एक कविता लिखी, और अपने तीसरे कविता-संग्रह का शीर्षक 'कुरुज' रखा; और बहेलियों से परिचय कराने के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उन्होंने यह संग्रह मासूम रज़ा काज़मी के लिए समर्पित किया है। इस संग्रह का शीर्षक 'कुरुज' रखने का अभिप्राय यह नहीं कि अड़तीस कविताओं के इस संग्रह की सबसे विशिष्ट कविता 'कुरुज' ही है। उनकी सारी कविताएँ विशिष्ट होती हैं। वस्तुत: यह शीर्षक इस पूरे संग्रह की कविताओं को अर्थ-सम्पन्न करती है, क्योंकि पूरा का पूरा सामुदायिक जीवन विचित्र-से चक्र में पिस रहा था। सपने तो क्या, विचार और आस्था तक उधेड़बुन में थी; सब कुछ पर जमी काई को झाड़ने के लिए और विचारों के नवारम्भ के लिए पूरे देश के हर समुदाय और विचार के ठेकेदारों को किसी कुरुज में जाकर गर्भाधान कराने की जरूरत आ गई थी। कविगण तो चुप ही हो गए थे। सन् 1999 में उन्होने 'इन चुप्पियों का क्या करें' शीर्षक से एक कविता भी लिखी; जिसमें चिन्ता व्यक्त की कि 'चीख़ और शोर के तो मायने निकाले जा सकते हैं/पर इन चुप्पियों का क्या करें/...अब जबकि पदों-पुरस्कारों के लिए लिखी जाती है कविता/यह चुप्पा समाज भला क्या देगा किसी कवि को/उसके पास तो केवल चाहत होती है ऐसी कविताओं की/जो उसकी चुप्पियों का रहस्य खोल दे!' कवि ने यहाँ यश:प्रार्थी कवियों के साथ-साथ चुप्पा समाज को भी नहीं बख्शा।
इसलिए 'कुरुज' शीर्षक कविता में बूढ़ी जटाओं की तरह उलझे विचारों को सुलझाने के लिए कवि ने 'कुरुज' का आह्वान किया और कहा कि 'यह शब्दों का कुरुज है/अपने पुराने पंख झाड़ रहे हैं शब्द/मौसमों की मार से उलझे-पुलझे/मुंज़मिद अन्धेरे जैसे भारी/पुराने परों को उतारते-उतारते/लाचार और बदशक्ल होते जा रहे हैं शब्द/ज़ाहिरन उड़ानविमुख/...इस गाढ़े मौसम में/खुद की बुनी हुई सबसे स्वच्छ 'चदरिया' को/बेहद-बेहद मैला करके रुख्सत हो रही है/अपनी महत्ता से संस्खलित एक शताब्दी/अपराधी-सा मुँह लटकाए।' इस कुरुज में आकर शब्दों को अपने पुराने पंख झाड़ने होंगे, घनघोर अन्धकार जैसे भारी पुराने पंख उतारते हुए बेशक लाचार और बदशक्ल और उड़ानविमुख होंगे, पर शताब्दी के ढलते समय में अपनी सबसे स्वच्छ 'चदरिया' को मैला कर अपराधी-सा मुँह लटकाए रुख्सत नहीं होंगे।
यथास्थितिवाद के प्रति सम्मोहित ऐसे ही कवि नागरिक या नागरिक कवि, वणिक बौद्धिक या बौद्धिक वणिक और सत्ता समूह या सामूहिक सत्ता के आचरणों से क्षुब्ध होकर इक्कीसवीं शताब्दी में जाते हुए कवि गाँधी, लेनिन, गोर्की, प्रेमचन्द, निराला, नेरुदा, आइन्स्टाइन, ध्यानचन्द, पिकासो, सत्यजीत रे, पेले, मुहम्मद अली...सबकी शताब्दी को नमन करते हुए विदा लेते हैं। विदा तो वे लेना चक्रवात, महामारी, भूख, आतंक, बाज़ार, भूमण्डलीकरण, अपराधीकरण, फिरकापरस्ती, कुनबापरस्ती...सबसे चाहते हैं; और पराभव की दूसरी सहस्राब्दी से भी। पर ऐसा हो नहीं पाया। हालाँकि बीते दिनों के पराभव के बावजूद उनकी उन अच्छाइयों की स्मृतियाँ कवि-दृष्टि में धूमिल नहीं हुईं। उनकी भव्यता के उपादानों को याद कर वे कहते हैं कि 'कमतर तो नहीं थीं तेरी उपलब्धियाँ/तुमने दिखाया/मनुष्यता को मुक्ति का द्वार/तुमने रचा/एक बेहद खूबसूरत दूसरा संसार/तेरे वायुमंडल में ही/उम्मीदों ने भरी सबसे तेज उड़ान/सबसे कमज़ोर साँसों को भी मिली/तेरे आँचल की हवा...।' इस मौके पर अनेक भव्यताओं के खण्डित होने के दर्द को प्रसन्नमुख सह लेने की उनकी उदारता भी उन्हें याद आती है। उनके दामन में सदियों के सँजोए सपने, श्रम और संघर्ष के क़िस्से, खुशियों को निकट से छूने के रोमांच, सिंहासनों-मुकुटों के टूटने की पीड़ा, क़िलों के सार्वजनिक पार्क बन जाने के यथार्थ...सब कुछ उनके दामन में थे; 'पर कहीं कोई अनदिखा सुराख था/कि रिसता चला गया सबकुछ/बेलगाम लालसाओं की आग में/राख हो गई मानवीय गरिमा/अश्लील इच्छाओं के शोर में/गुम हो गए मुक्ति-संगीत...।' अर्थात्, सारी भव्यताओं के बावजूद कहीं कोई छोटी-सी चूक अवश्य हुई, जिसका बड़ा दुष्परिणाम सामने आया। और नहीं कुछ तो बेलगाम लालसाओं और अश्लील इच्छाओं ने तो मानवीय गरिमा का क्षरण कर ही डाला। पर रोचक बात यह है कि इतने कुकर्मों के बावजूद कवि इस शताब्दी और सहस्राब्दी को क्षमादान देते हुए हिदायत देते हैं कि विजेता की तरह न सही, अपराधी की तरह भी मत जाओ! इससे भी रोचक प्रसंग यह है कि अपनी जनपदीय संस्कृति के अनुकूल कवि उसके आँचल में दुल्हन की तरह आकांक्षाओं के दूब-धान, प्यार का हल्दी-टूसा डालकर फटकार लगाते हैं -- '...विदा लो/विदा लो इस कुकाल में/खरगीदड़ हो रहे शब्दों के भयभीत संसार से/जब उगेंगे नए पंख/धूप सरीखे हल्के और चमकीले/धीरे-धीरे तैयार हो जाएँगे शब्द/कविता की ऊँची उड़ान के लिए/तब हम तुम्हें बहुत-बहुत याद करेंगे हे, बीसवीं सदी!' उल्लेखनीय है कि कविता के अन्त में दी गई यह क्षमा, विदाई, आँचल-भराई, फटकार...सब कुछ में कवि ने अपनी गरिमामय संस्कृति को धूमिल नहीं होने दिया है। आशान्वित ऐसे कि उस पराभव के समय को भी आश्वस्त करते कि हमारे अच्छे दिन आएँगे, हमारे शब्द सामर्थ्यवान हो जाएँगे, तब तुम्हारे दिए गए दुख हमें तुम्हारी याद अवश्य दिलाएँगे।
भारतीय नागरिक सम्भवत: भूले नहीं होगे कि राष्ट्रवाद और लोकतन्त्र के महान हितैषी भावनाओं से कार्य करने के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ गठबन्धन की सरकार की नाक के नीचे से 24.12.1999 को आतंकवादी संगठन यात्रियों से भरा हवाई जहाज रास्ते से उड़ाकर कन्धार ले गया, बन्धक बनाए गए निर्दोष यात्रियों की रिहाई के लिए भारत सरकार को तीन आतंकवादियों को मुक्त करना पड़ा। सन् 2000 में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिण्टन की शाही-यात्रा ने भारत की मान-मर्यादा को शाही तौर पर रौंद दिया। इसी वर्ष तीन नए राज्यों -- झारखण्ड, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़ का गठन कर सत्ता-पक्ष ने राजनीतिक हित तो साध लिया, पर राज्य का तो सत्यानाश ही किया। गुजरात भूकम्प जैसी दारुण प्राकृतिक आपदा, तहलका डॉट कॉम के वीडियो टेप द्वारा रक्षा-संसाधन की खरीद-फरोख्त में भारतीय मन्त्री, नेता एवं सैन्य अधिकारियों की घूसखोरी, जुलाई 2001 में भारत-पाक आगरा-सम्मेलन के पाखण्ड...जैसी शर्मनाक घटनाओं के उजागर होने से भी भारतीय सत्ताधीश शर्मसार नहीं हुए। बाद के दिनों में फरवरी 2002 का अकेला गोधरा साम्प्रदायिक दंगा पूरी शताब्दी पर भारी पड़ेगा। सन् 2001 से पूर्व की इन सारी स्थितियों से व्यथित मदन कश्यप की 'हवा में पुल' शीर्षक कविता विलक्षण उद्वेलन पैदा करती है। 'हवा' जैसे शब्द से खेलते हुए इस खेलनकवि ने बड़े चमत्कार का सृजन किया है; जहाँ यथार्थ की मजबूत काया पर विभ्रम की चादर प्रतीति और दृढ़ता से ओढ़ाई जा रही है। भावक चाहें तो इस कविता के रचना-काल के बाइस बरस बाद आज भी इन स्थितियों के प्रति आत्ममुग्धता के पुनरागमन को देख सकते हैं।
इस कविता को पढ़ते हुए पाठकों को तनिक 'पुल' और 'हवा' के कोशीय अर्थ से छिटककर उसके ध्वन्यार्थ को पहचानना होगा। लोगों को यह तथ्य सूक्ष्मता से जानना होगा कि कवि ने कह तो दिया कि हवा का पुल हवा में ही हो सकता है या कि हवा में पुल हवा का ही हो सकता है; पर यहाँ कवि की वाग्विदग्धता या वक्रोक्ति या दृष्टिकूट को जानना जरूरी है। क्योंकि 'पुल के होने के लिए/कहीं न कहीं धरती से उसका जुड़ा हुआ होना जरूरी होता है...।' धरती से जुड़ाव किए बिना किसी भी ढाँचे की संकल्पना नहीं हो सकती। हवा में कोई भी ढाँचा नहीं बन सकता; यहाँ तक कि स्वयं हवा को टिकने के लिए पृथ्वी की जरूरत होती है। पर हमारे देश की सरकार थी, जो जनता को हवा में हवा के पुल का झाँसा दिए जा रही थी, और जनता थी जो अफीम की टिकिया खाए उन्मादी पहलवानों की तरह दूसरों के महल बनाने की ईंटें ढो रही थी। उन्हें समझ ही नहीं आ रही थी कि उन्हें वे हवा की सड़क से, हवा के पुल की तरफ धकेलकर किसी दूसरी तरफ की सड़क पर ले आकर किसी तीसरी तरफ भेज देती है। जब उसी पुल से वे वापस लौटते थे, तब यकीनन 'हवा का वही पुल नहीं होता था/हर बार नई हवा नया पुल बनाती थी।' पथिकों को दिग्भ्रान्त करने का यह नायाब तरीका उस दौर के नेता, अफ्सर, पुलिस, पत्रकार, शिक्षक, उपदेशक, पुरोहित, व्यापारी...सबने मिलकर इजात कर लिया था। 'हवा के पुल पर चलते हुए लोगों को/अक्सर यह पता नहीं होता था/कि वे हवा के पुल पर चल रहे हैं/उनके पैरों के नीचे कोई नदी भी तो नहीं दिखती थी/हवा की एक नदी यहाँ होती थी/मगर, वह हवा के पुल से इस तरह जुड़ी होती थी/कि अलग से उसे पहचानना असम्भव होता था।' सन् 2001 में दिग्भ्रान्ति ने भारतीय नागरिकों को किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया था। सारी चीज़ें अपनी पहचान खो बैठी थीं। लोगों का अभ्यन्तर हवाई प्रतीति का ऐसा अभ्यासी हो गया था कि उसे कुछ भी हवाई नहीं लग रहा था, न हवाई पुल, न पुल के नीचे बह रही हवाई नदी; सब कुछ यथार्थ और वास्तविक लग रहा था; वायवीय कुछ भी नहीं। इस मदहोशी में 'आदमी के लिए यह तय करना कठिन हो रहा था/कि पहचान खोकर सबकुछ पा लेने/और सबकुछ गवाँ कर पहचान बचा लेने में/सही क्या है/जो पहचान बचा रहे थे/वे चीज़ों के लिए ललचा रहे थे/और जो चीजें हथिया रहे थे/वे पहचान खोने पर पछता रहे थे।' हवा के पुल या कि झूठी घोषणाओं या झूठे आश्वासनों की तथ्यपरकता से किसी को कुछ लेना-देना नहीं रह गया था। हवा का पुल पार कर हवा में जा रहे लोग लौटकर हवा में ही आ रहे थे, उन्हें हवा के उस पुल पर अपने कदमों के निशान तक नहीं दिख रहे थे, पर न जाने ऐसा क्या था कि हवा में टिके उस पुल से गुज़रते हुए उनकी आस्था हिल नहीं रही थी।
'कुरुज' संग्रह में सन् 2001 में रचित 'अच्छी कविता' शीर्षक से मदन कश्यप की एक कविता है। इसके वितान भी बड़े कौशल से रचे गए हैं। इसमें राजनीतिक आखेटकों को कविता का आखेट करते हुए दिखाया गया है। ये राजनीतिक बहेलिए एक अच्छी कविता को दिग्दर्शन देकर दिग्भ्रान्त किए जा रहे हैं। अच्छी कविता कविता अपने लिए विषय, शिल्प, शैली, भाषा की तलाश में थी। कौतूहल, विचार, दर्शन...सबसे ऊबकर जीवन में लौट आई थी, जहाँ प्यार था, घृणा थी, भूख थी, तृप्ति थी, युद्ध था, पलायन था...सारी कठोरताओं से ऊबकर कविता एक दिन प्रकृति में आ गई और खुद को प्रभावी बनाने का मार्ग तलाशने लगी; बस यहीं से आखेटकों के कान खड़े हो गए। कविता के उद्दण्ड व्यापारियों, सौन्दर्य के तस्करों, शिल्प के सौदागरों, शैली के जमाखोरों, भाषा के भ्रष्ट भोगियों को लग गया कि इसने सही मार्ग पकड़ लिया, तो उनका बण्टाढार हो जाएगा। इसलिए उन्होंने कविता को वहीं से बहकाया और उसे सलाह दी कि 'इस द्वन्द्व से मुक्त हो जाओ/कि जीवन में प्रकृति है या प्रकृति में जीवन/अब खत्म करो विराट बहसों को/केवल अपने बगीचे को देखो।' पर आगे चलकर उन्हें इसमें भी खतरा दिखा। चूँकि 'उनका नारा भले ही था बहुवचन/आस्था एकवचन में थी/तभी तो उन्होंने खुद को संशोधित किया/पूरे बगीचे को न देखो/किसी एक पसन्दीदा पेड़ को चुन लो/...वहीं मिलेगी सच्ची कविता अच्छी कविता।' इसके बाद तो आज्ञाकारी कविगण पेड़ों से बोलने बतियाने लगे और हिन्दी कविता में बतकही की भरमार हो गई। पर आखेटकों को फिर भी खतरा टलते नहीं दिखा। उन्हें भय हुआ कि ऊँचे पेड़ देखते हुए कवियों ने यदि आसमान की ओर नजरें डाल दी, तो उनके सपनों का संसार बड़ा हो जाएगा; इसलिए उन्होंने उन्हें पेड़ से सिमटकर पेड़ पर बैठी चिड़ियों पर केन्द्रित होने की सलाह दी। पर यहाँ फिर एक संकट था कि चिड़ियों को देखते हुए चिड़ियों के कलरव, पंखों की उड़ान से कवि-प्रतिभा को वंचित रखना असम्भव था, सो अबकी उन्होंने निर्णायक सलाह दी कि 'पूरी चिड़िया को नहीं/बस केवल उसकी दाहिनी आँख को देखो/उसी में है सौन्दर्य का महासागर/उसी को भेदकर बना जा सकता है/कविता का महाधनुर्धर।'
उल्लेखनीय है कि समय का परिवर्तन कोई एक कमरे से दूसरे कमरे में जाना नहीं होता कि एक कमरे का वातावरण दूसरे कमरे का प्रभाव समाप्त कर देगा। बीसवीं शताब्दी के पराभव की छाया इक्कीसवीं शताब्दी के पहले ही वर्ष में समाप्त या परिवर्तित नहीं हो गई थी। वही समाज, वही सरकार, वही अधिकारी, वही पुजारी...जस के तस बने हुए थे। शासकीय शिकारियों के शिकारगाह में प्रवेश पाने के लिए अनेक स्वनामधन्य रचनाकार भी लालायित थे। लालसापूर्ति के व्यामोह में, या मान्यतादातृ समितियों के निदेश पर, या बहेलियों के अनुदेश पर मदमस्त भौंरों की तरह गुनगुनाने के लिए अनेक कवि-कोविद तत्पर थे। इस कविता में केवल कवि-कर्म के भटकाव का निरूपण ही नहीं, राजनीतिक उत्क्रोचकों की उस वृत्ति को भी सूक्ष्मता से रेखांकित किया गया है, जिसमें भोले-भाले लोगों को विपथ करने के असंख्य उद्योगों के रास्ते प्रशस्त हैं। जो आखेटक कवि-प्रतिभा को विचार, दर्शन से भटकाकर प्रकृति, बगीचा, पेड़, चिड़िया और चिड़िया की आँख तक ले आ सकता है, वह आगे बैठा तो रहेगा नहीं!...पर नियति का कोई क्या करे! यह व्यापार तो अच्छा था, 'अभी इसे चलते रहना चाहिए था कि एक अनिष्ट हो गया/चिड़िया की आँख में सहसा ख़ून उतर आया/तब आजिज आकर उन्हें कहना पड़ा : अच्छी कविता/कोई अच्छी चीज़ नहीं है!' इस कविता का अन्त इस बात की भी सीख देता है कि सारे उद्यमों के बावजूद, राजनीतिक वातावरण में कभी-कभी वांछित लालसाओं की पूर्ति नहीं भी होती है। समय का गणित, गणित के गणित जैसा नहीं होता। फिर भी आखेटक बाज नहीं आते, अन्त-अन्त तक दाँव लगाते ही रहते हैं, दाँव लगा ही दिया कि अच्छी कविता कोई अच्छी चीज़ नहीं होती। ध्यातव्य है कि यह घोषणा 'खट्टे अंगूर कौन खाए' जैसी नहीं है। कुटिल उपदेश भरी इस घोषणा में एक धमकी भी है।
मनगढ़न्त धर्माचार के वर्चस्व के कारण भारतीय समुदाय के जीवन-परिवेश में सन् 2003 का समय धार्मिक उन्माद का समय बन गया था। मदन कश्यप की 'छोटे-छोटे ईश्वर' शीर्षक कविता उसी वर्ष रची गई, जिसमें सादृश्यमूलक रूपक के कारण भारत, भारतीय लोकतन्त्र और भारतीय धर्म-व्यवस्था की सारी अर्थ-ध्वनियाँ सूक्ष्मता से निखरी हैं। यह कविता उस दौर की राजनीतिक निर्लज्जता और लोकतन्त्र के पाखण्ड को उसके नग्न स्वभाव में रेखांकित करती है। भावक ढूँढने की चेष्टा करें तो आज भी यह कविता उतनी ही ध्वन्यात्मक दिखेगी। 'ईश्वर' शब्द की भरमार पूरी कविता में होने के बावजूद यह कविता धार्मिक नहीं है; और पूरी कविता में एक भी जगह 'राजनीति' शब्द के उल्लेख न होने के बावजूद यह कविता घोर राजनीतिक है। इस कविता के छोटे-छोटे ईश्वर, अर्थात् छुटभैये नेता स्वयं को ईश्वर के दर्जे का समझ तो ले रहे हैं, पर बड़े-बड़े ईश्वरों की भरमार के कारण उनका क्षीणकाय ईशत्व चरमराता-सा दिखता है। क्योंकि छोटे-छोटे ईश्वरों को छोटे-छोटे मन्दिरों में रहना पड़ता है। विशाल ऐतिहासिक मन्दिरों में रहने का अवसर मिल भी जाए तो भी भीतरी चारदीवारियों के कोनों-अँतरों के आलों-ताकों-कोटरों में दुबके रहना पड़ता है। इन ईश्वरों का कोई अपना साम्राज्य नहीं होता, ये महान ईश्वरतन्त्र के छोटे-छोटे पुर्जे होते हैं। बड़े ईश्वर से किसी की रिश्तेदारी हो, तो महात्म्य-कथाओं में एकाध पूरक वाक्य उनके बारे में भी मिल जाते हैं। ऐसे ईश्वरों के पुजारी भी इन्हीं जैसे दीन-हीन होते हैं। उनके त्रिपुण्ड में आक्रामक चमक नहीं होती। इनके पुजारी महान मन्दिर की परिक्रमा कर रहे भक्तों को, बड़े ईश्वर से अपने ईश्वर की रिश्तेदारी बताते हैं। ईश्वरों के इस वर्चस्वमूलक वर्गीकरण में राजसत्ता के चमगादड़ों का सूक्ष्म वर्गीकरण दिखता है। ईश्वर और पुजारी का रिश्ता ठीक वैसा ही होता है, जैसा नेता और चमचा का। जैसे दयनीय होते हैं 'उजाड़ में नंगी पहाड़ियों पर या मलिन बस्तियों के निकट/ढहते-ढनमनाते मन्दिरों के वे ईश्वर/जिनके होने की कोई कथा नहीं होती/उनके तो पुजारी तक नहीं होते/रोटी की तलाश में किसी शहर को भाग चुका होता है/पुजारी का कुनबा/अपने ईश्वर को अकेला असहाय छोड़कर।' ठीक उसी तरह छुटभैये नेताओं के भी कोई चमचे नहीं होते, वे सबसे छोटे और दयनीय होते हैं। ऐसे दयनीय ईश्वर अपनी देह की धूल तक झाड़ नहीं पाते, वे तो अपना वज़ूद तक भूलने लगते हैं, कोई राहगीर कुएँ के जल से धो दे उनकी देह, कर दे मन्दिर की सफाई, तो उन्हें लगता है कि ईश्वर की कृपा से यह सब हुआ है। छुटभैये नेताओं की भी यही दशा होती है। 'छोटे ईश्वर की छोटी-छोटी ज़रूरतें भी/ठीक से पूरी नहीं हो पाती हैं', पर एकदम लाचार हो जाने पर किसी छोटे पुजारी के सपने में आकर कहता है 'आदमी हो या ईश्वर/छोटों की हालत कहीं भी अच्छी नहीं है!' पर ईश्वर और मनुष्य में यही फर्क है कि ईश्वर कदाचित अपनी दयनीयता स्वीकार भी लेता है, नेता बना छुटभैया मनुष्य कभी अपनी दयनीयता नहीं स्वीकारता। लोकतन्त्र को इस विडम्बना का दानवीय वरदान किसकी राजसत्ता में मिला, गणित करना असम्भव है।
भारतीय लोकतन्त्र में वकील को न्याय, पुलिस को कानून, शिक्षक को ज्ञान, पुजारी को धर्म और पत्रकार को व्यवस्था एवं मानवीयता का रक्षक माना जाता है। बेशक माना जाए, पर तथ्यत: ऐसा है भी क्या? सन् 2000 में भारतीय लोकतन्त्र के पुलिस की नीचता का नग्न स्वरूप उनकी 'पुलिस अधिकारी' शीर्षक कविता में उजागर हुआ है। पुलिस अधिकारी यदि लॉटरी, जुआ, शराब के अड्डे चलाएँ, गुण्डों के साथ दारू पीएँ, घोषणा करें कि हत्यारों को पकड़कर रहेगा और उधर उसकी पत्नी अपराधियों को चाय की प्याली बढ़ाएँ, बलत्कृत सुन्दरी के कपड़ों से सबूत मिटाकर महाबली बलात्कारियों का पक्ष मजबूत करें, नंगी घुमाई गई स्त्रियों की रपट तक न लिखें, पुलिस कैम्प से किराये पर ली गई राइफलों से भूमिहीन दलित मजदूर मारे जाएँ, और पुलिस अधिकारी केन्द्रीय बल की कमी का रोना रोएँ...तो फिर कानून की रक्षा कौन करे? दुर्योगवश गत शताब्दी के अन्तिम क्षण में भारतीय लोकतन्त्र को ऐसे ही आरक्षी बल मिले, जिनकी क्षमता के बूते आम नागरिक कभी चैन की नीन्द तो क्या सोए, चैन की साँस तक न ले। खबर शैली में लिखी यह कविता किसी तन्त्र, यन्त्र, मन्त्र, जनतन्त्र की खबर नहीं है; यह निर्लज्ज जनतन्त्र के अधिपतियों के आचरण से जनसामान्य को सावधान करने का मन्त्र है। कवि खीजकर कहते हैं कि 'उन सब को एक साथ निर्वासित कर दिया गया था/जनतान्त्रिक प्रशासन के ऐसे अन्धेरे जंगल में/जहाँ से बाहर निकलने की कोई राह नहीं थी/बस भटकना ही भटकना था!' यह भटकाव और निर्वासन, सत्ता के दुष्कर्मों पर व्यंग्य है कि जनतान्त्रिक प्रशासन के अन्धेरे जंगल में ऐसे आरक्षी अधिकारियों का निर्वासन एक शासकीय दुष्कृति है, क्योंकि उनके सारे कुकर्मों के हिस्सेदार लोकतन्त्र के देवताजन भी हैं। इसलिए हे लोकतन्त्र के नागरो, अपनी व्यवस्था स्वयं सुधारें, इन्हें तो आपकी सुधि लेनी नहीं है।
प्राकृतिक आपदाओं में हुई मृत्यु या अन्य सामुदायिक क्षति का दोष तो किसे दिया जाए, पर आपदाओं के बाद किए गए शासकीय नाटकों की भी अपनी भंगिमाएँ होती हैं। सन् 2001 में लिखी उनकी कविता 'तूफ़ान... भूकम्प... जिन्दगी' में कवि की धारणा शत प्रतिशत सही है कि मौत के घाट उतारनेवाले उपकरणों या उपादानों से ही मौत हो, यह आवश्यक नहीं, जीवन-रक्षा की बुनियादी जरूरत की चीजें जान ले लेती हैं; जैसे हवा-पानी जैसी अनिवार्य चीजें भी चक्रवात, तूफान, मेघ के रूप भयावह मौत दे देती है। पर विडम्बना तब दिखती है, जब उड़ीसा के तूफ़ान में मरे लोगों से अधिक दर्दनाक मौत का दंश बचे रह गए लोग झेलते हैं। 'जिन्हें तूफ़ान भी नहीं मार सका/वे राहत के महानाटक में मर गए/कोठों पर पहुँचने लगी हैं नन्हीं बेटियाँ/और चायखानों में छोटे-छोटे बच्चे/जनतन्त्र का कौन-सा चेहरा है यह?' मौत का कोटि-निर्धारण करते हुए प्रचलित मुहावरे 'कुत्तों की मौत मरा आदमी' पर उनकी राय सही है कि 'प्रकृति कभी कुत्तों को उस तरह नहीं मारती/जिस तरह उसने आदमियों को मारा गुजरात में/जिनके पास जितना सुरक्षित घर था/उन्हें मिली उतनी ही बुरी मौत/और उनके साथ केवल वे कुत्ते ही आदमी की बदतर मौत मरे/जिन्हें जंजीरों में बाँध रखा था आदमियों ने।' आपदा की चपेट में आए लोगों की मौत अचानक हो जाती है, पर बच गए परिवार के लोग खो चुके रिश्तेदारों की वेदना के साथ सारे सपनों को भुलाकर जीवन-रक्षा की शर्तों को पूरा करने में लगे रहते हैं। घर हो, पर घर से अधिक अन्धेरा मनुष्य की आँखों में हो, जीवन में हो, तो वह व्यक्ति कहाँ जाए। 'आदमी का सबसे बड़ा सपना होता है/उसका अपना सुन्दर-सा घर/और जब ठण्ड में ठिठुरता आदमी/अपने ही घर में लौटने से डरने लगे/तो समझिए उसके सारे सपनों का अन्त हो चुका है!'
राजनीति में बड़े-बड़े नाटक होते हैं। राजनीतिज्ञों को वे सारे स्वांग ओढ़ने पड़ते हैं, जो ओढ़ना तो वे कतई नहीं चाहते, अलबत्ता राजनीतिक बड़प्पन दिखाने के लिए उन्हें करने की जरूरत होती है। सन् 2010 में लिखी उनकी 'उद्धारक' शीर्षक कविता इसी का सबूत पेश करती है। उद्धारक बने रहने की साजिश में नेताजी जूठन खा भी सकते हैं, खिला भी सकते हैं, क्योंकि उनके भीतर के अहंकारी सच को कोई नहीं जानता। वे सही अर्थों में 'तुगलक' होते हैं। अनेक सन्दर्भों से विद्वानों ने 'तुगलक' शब्द का अर्थ स्थिर किया है। तदनुसार तुगलक वे कहलाते हैं, जिनके मन की सारी बातें, सारी योजनाएँ, सारी कामनाएँ, कोई दूसरा न जाने; कोई दूसरा उतनी ही बात जाने, जितनी वे जनाना चाहते हैं। इसलिए वे जिनके जूठन खाते हैं, उन्हें पता नहीं होता कि उन्होंने जूठन क्यों खाया? इसलिए वे प्रकटत: या मनत: घोषणा करते हैं कि 'हम तुम्हारा उद्धार करेंगे/ जिन्दा रखा तो जूठन खिलाकर/पाँव धुलवाकर तुम्हारा उद्धार करेंगे/मार दिया तो बैकुण्ठ भिजवाकर/तुम्हारे वंशजों को अपना भक्त बनाकर तुम्हारा उद्धार करेंगे/और किसी आफ़त-बिपत, बेला-कुबेला, ठौर-कुठौर में तुम्हारे जूठे बेर खाकर भी तुम्हारा उद्धार करेंगे!'
सन् 1989 के आसपास ही हिन्दी कविता में सृजनात्मक पाखण्ड का ऐसा समावेश हुआ था कि कविता में भी नौकरशाही आने लगी। मदन कश्यप को सृजन-क्षेत्र की ऐसी विसंगति उद्वेलन से भर देती है। इसलिए 'नौकरशाह कवि' शीर्षक कविता में उन्होंने कवियों का कोटि निर्धारण करते हुए दरबारी कवि से लेकर नौकरशाह कवि तक के लक्षण बताए, जो एक तरफ तो वैसे कवियों के लिए भावकों को हास्यबोध से भर देता है, तो दूसरी तरफ वैसे कवियों की दयनीयता भी प्रकट करता है। हिन्दी काव्य-क्षेत्र में सृजनकर्मियों का पाखण्ड कुछ इस तरह छाया रहा कि बीते चार दशकों में उनमें सत्ता की सारी बदतमीजी भर गई। उन्होंने काव्य-क्षेत्र में बदतमीजियों का अनुशासन-पर्व संचरित कर दिया। ऐसे पाखण्ड की नियति होती है कि चाहे कवि नौकरशाह हो जाए या नौकरशाह कवि हो जाए, बात एक ही होती है। वे कहते हैं, 'होते थे कभी दरबारी/अब तो होते हैं नौकरशाह कवि/जनता का दुख दरबार तक नहीं/दरबार की चमक-दमक और रोबदाब/जनता तक पहुँचाते हैं नौकरशाह कवि/शब्दों की चमक निचोड़ कर अपने जूते चमकाते हैं नौकरशाह कवि/और दावा करते हैं कि संस्कृति की पृथ्वी/किसी नाग के फण पर/नहीं किसी कच्छप की पीठ पर नहीं/उनके जूते की नोंक पर टिकी है।' यह विवरण ऐसे कवियों की सृजन-दृष्टि की ही भर्त्स्ना नहीं करता, उनकी मूढ़ता और अहमन्यता को भी निरूपित करता है।
सन् 1993 आते-आते देश की स्थिति ऐसी बना दी गई कि किसी एक के जीतने के लिए सबका हार जाना जरूरी हो गया; जैसे किसी एक के खाने के लिए सबका भूखा रहना; जैसे किसी एक के जीने के लिए सबका मर जाना। 'म्यूजिकल चेअर' शीर्षक कविता में एक को प्रसन्न करने के लिए सबको दुखी करने की ऐसी ही नीति स्पष्ट हुई है। 'सिर्फ एक कुर्सी कम होती है/और एक हारता है/फिर एक-एक कर कुर्सियाँ घटती जाती हैं/और एक के बाद एक हारता जाता है/अन्त में जीतता है बस एक/उस एक के जीतने के लिए/एक-एक कर सबको हारना पड़ता है।'
सन् 2008 में रचित मदन कश्यप की 'पुरखों का दुख' शीर्षक कविता तीन पीढ़ियों के बहुविध दुख और करुणा की कविता है। यह अवधि संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन के तहत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में संचालित मनमोहन सिंह के मन्त्रीमण्डल की अवधि है। पर इस कविता की भाव-भूमि राजनीतिक नहीं है। दादा से पोता तक की तीन पीढ़ियों की भव्यता और अन्तरात्मा में दबाए हुए दुखों के पहाड़ को इसमें सूक्ष्मता से रेखांकित किया गया है। उल्लेखनीय है कि दादा की भव्यता और पिता के क्रोध के बीच दुख-सुख के आँकड़ों का गणित करते हुए और पोता, वेदना की अथाह नदी में चला जाता है और निदान ढूँढने के प्रयास में बुद्ध की जीवन-दशा को याद कर लेता है।
दादा की टीनवाली पेटी में ढेर सारे काग़ज़ात के बीच जरी वाली एक टोपी भी थी। दादा अपने ज़माने के ख़ासे पढ़े-लिखे थे, उनकी लिखावट अच्छी थी, और वे कैथी में नहीं नागरी में लिखते थे। यह टोपी, और कैथी छोड़कर नागरी में लिखने की उनकी आदत उनके ऐश्वर्य और आधुनिक होने के सबूत तो हैं; पर, मनुष्य कितना भी समृद्ध हो सदैव उसके जीवन में उल्लास ही नहीं होता, पीड़ाएँ भी होती हैं। कवि को उस पेटी से मिले ज़र ज़मीन के दस्तावेज़ों में दादा के दुख का कोई भी दस्तावेज़ नहीं मिला, क्योंकि 'दादा ने अपनी पीड़ाओं को कहीं भी दर्ज नहीं किया था/उनके ऐश्वर्य की कुछ कथाएँ ज़रूर सुनाती थी दादी/कि कैसे टोपी पहनकर/हाथ में छड़ी लेकर/निकलते थे गाँव में दादा!' पर दादा के दुख की कोई बात दादी ने भी नहीं बताई कि 'भादो में जब झड़ी लगती थी बरसात की/और कोठी के पेन्दे में केवल कुछ भूसा बचा रह जाता था/तब पेट का दोजख भरने के लिए/अन्न कैसे जुटाते थे दादा!' कवि ने सम्भवत: दादा के दुख के दस्तावेज़ों की तरह ही, अपने पिता के आचरण में धीरता ढूँढने की कोशिश की होगी, पर मिली नहीं प्राय:। इसीलिए बचपन में बीमार रहने के कारण अधिक पढ़-लिख नहीं पानेवाले, जनम से ही चुप्पा अपने पिता को 'हर समय अपने सीने में नफ़रत और प्रतिहिंसा की आग धधकाए' देखा, जिनका भभूका कभी उठता तो 'पूरा घर झुलस जाता था/उनकी पीड़ा थी कोसी की तरह प्रचण्ड वेगवती/जिसे भाषा में बाँधने की कभी कोशिश नहीं की उन्होंने!'
इन दो स्थितियों के विपरीतमुखी आचरण में दो पीढ़ियों की स्त्रियों की तुलना तुलना करते हुए कवि अपनी माँ की आँखों में जिस घनीभूत वेदना का दर्शन करते हैं, उससे बहुत बड़ी मार्मिकता रेखांकित होती है। उन्होंने अपनी 'माँ की आँखों और पिता की चुप्पी में/महसूस किया था जिस दुख को/अचानक उसे अपने रक्त में बहते हुए पाया/किसी भी अन्य नदी से ज़्यादा प्राचीन है वेदना की नदी/जो समय की दिशा में बहती है/पीढ़ी-दर-पीढ़ी/पुश्त-दर-पुश्त!' इस बीच उन्होंने अपने दादा के बालापन में अपने गाँव की दशा, नदी और संस्कृति के बहाव, तत्कालीन ग्रामीणों की जीवन-दशा...सब कुछ की कल्पना कर ली; जान लिया कि किसी भी दस्तावेज़ में कुछ महिमागानों के अलावा और कुछ नहीं दर्ज है, 'यह किसी ने नहीं बताया है/कि बाढ़ और वर्षा की दया पर टिकी/छोटी जोत की खेती से कैसे गुजारा होता था पुरखों का/क्या स्त्रियों और बेटियों को मिल पाता था भरपेट खाना!' पर इस पूरी कविता में कवि की वेदना ही इतनी प्रबल है कि पुरखों की वेदना को स्मरण करते हुए भी उन्हें वेदना की नदी सर्वाधिक प्राचीन लगी। वेदना उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी समय की दिशा में बहती दिखी। इस वेदना से मुक्ति का मार्ग ढूँढते हुए उन्हें सुजाता की खीर खाते बुद्ध दिख गए। 'दुख का कारण और निदान ढूँढ़ने ही तो निकले थे बुद्ध/वे तो मर-खप जाते ढोंगेश्वर की गुफाओं में/कि उनके दुख को करुणा में बदल दिया/सुजाता की खीर ने!' उल्लेखनीय है कि यह सुजाता भी एक स्त्री ही है। बोधगया से लगभग बारह किलोमीटर दूर स्थित डुंगेश्वरी पहाड़ी की प्रागबोधि गुफा, जिसकी तलहटी से होते हुए मुहाने नदी पारकर नदी तट पर सेनानी ग्राम है, सुजाता इसी गाँव के प्रधान, अनाथपिण्डिका की पुत्र-वधू थी, जिसने पुत्र-प्राप्ति पर गाँव के वृक्ष-देवता को खीर चढ़ाने की मनौती माँगी थी। खीर चढ़ाने जाने पर उन्हें, उस वृक्ष के नीचे बैठे राजकुमार सिद्धार्थ मिले, उन्होंने उन्हीं को खीर खिलाई।
राजकुमार सिद्धार्थ ने ज्ञान-प्राप्ति के लिए छह वर्षों तक प्रागबोधि गुफा में हठयोग साधना की, खाना-पीना तक छोड़ दिया, निराहार रहने के कारण शरीर कंकाल जैसा हो गया। उसी स्मृति में वहाँ बुद्ध की कंकाल-मूर्ति स्थापित है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी प्रागबोधि गुफा का वर्णन किया है। पर इस साधना से सिद्धार्थ सन्तुष्ट नहीं हुए, पहाड़ की तलहटी से होते सेनानी ग्राम में उसी वटवृक्ष के नीचे जाकर विश्राम करने लगे, जहाँ सुजाता को आना था। सुजाता ने राजकुमार सिद्धार्थ को खीर खिलाई। उनका उपवास टूटा और अब उन्हें लगा कि शरीर भी जरूरी है। उनके मन में यह भाव आया कि वीणा के तार इतने ढीले न हों कि संगीत ही न निकले और इतने कसे भी न जाएँ कि वह टूट ही जाए। इसके बाद ही उन्हें मध्यम मार्ग का बोध हुआ। इस तरह कवि ने अपनी वेदना से मुक्ति का मार्ग दिव्य-ज्ञान की प्राप्ति के मार्ग तक जाकर ढूँढा है।
सन् 2009 में रचित 'तानाशाह और जूते' शीर्षक कविता भारत में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संचालित चौदहवीं लोकसभा (17 मई 2004 से 18 मई 2009) की अवधि की है। चार चरणों में 20 अप्रैल से 10 मई 2004 तक आयोजित चुनाव के बाद यह सरकार गठित हुई थी। तीन-तीन संसदीय कार्यकाल में मुँहकी खाने के बाद भी कठिनाई से मिली इस सत्ता-समय में भी इनके सहयोगी अपने आचरण नहीं सुधारे। ऑयल फार फूड घोटाला, सत्यम घोटाला, आईपीएल घपला, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला...जैसे घोटाले किए। संसद में प्रश्न उठाने के लिए घूस लेते हुए ग्यारह सांसदों का वीडियो स्टिंग ऑपरेशन द्वारा सामने आया और उन्हें लोकसभा से निष्कासित कर दिया गया। इस दौरान भारत की प्रशासनिक व्यवस्था में तानाशाही इतनी बढ़ गई थी कि जमीन पर चलते तानाशाह को चलने की प्रतीति कम, अपने जूतों से धरती को रौंदने की प्रतीति अधिक हो रही थी। इस अवधि के तानाशाहों के जूते की चमक में सूरज भी अपनी झाइयाँ देख सकता था। दो क़दमों में तानाशाह नाप लेना चाहता था पूरी दुनिया। उन्हें अपने जूतों पर गुमान था कि रौंदे जाने के बाद कोई दुबारा अपना सिर नहीं उठा सकेगा। पर ऐसा हुआ नहीं। लोकतन्त्र सदैव पराभव नहीं सहता, प्रतिकार भी करता है। 'एक जोड़े साधारण पाँव से निकला एक जोड़ा जूता/और उछल पड़ा उसकी ओर/...ताक़त का खेल खेलने वाले तमाम मदारी/हतप्रभ होकर देखते रह गए/और चल पड़े जूते/दुनिया के सबसे चमकदार सिर की तरफ़/...एक जोड़े जूते के उछलते ही/खिसक गई उसके पाँव के नीचे दबी दुनिया/...फटे-पुराने, गन्दे-गन्धाए जूतों के ढेर के नीचे/दब गया दुनिया का सबसे ताक़तवर तानाशाह!' तानाशाही से होड़ लेते जनसाधारण के ऐसे प्रयास अब खूब होते हैं। कविता में ऐसी घटना को रूपायित कर कवि ने जनशक्ति को समर्थन और प्रोत्साहन दिया है। ऐसी भविष्य-दृष्टि प्रणम्य है।
सन् 2007 की लिखी मदन कश्यप की कविता 'अठारह सौ सत्तावन' भारतीय बौद्धिकों एवं जनसामान्यों के मतिभ्रंश और यथास्थिति-प्रेम की धज्जियाँ उड़ाती है। यह एक ऐसी कविता है जिसकी कुछेक पंक्तियाँ ही नहीं, हर पंक्ति, हर शब्द, यहाँ तक कि यति-विराम तक उद्धरणीय हैं। भारतवंशियों को भली-भाँति स्मरण होगा कि सन् 2007 में, प्रथम स्वाधीनता संग्राम की डेढ़ सौवीं वर्षगाँठ पूरे देश में धूमधाम से मनाई जा रही थी। जगह-जगह सम्मेलन, अधिवेशन, संगोष्ठियों का आयोजन हो रहा था। कारण-अकारण लोगों में जोश और उत्साह भी भरा हुआ था; कुछ लोग सन् 1857 का महत्त्व समझकर, कुछ लोग बिना समझे, उन आयोजनों में शामिल हो रहे थे। उस संग्राम की घटनाओं की मार्मिकता और राष्ट्रीय मूल्य के रूप में उनकी स्मृतियों के महत्त्व निरूपित करते हुए भारतीय बौद्धिक भावुक हुए जा रहे थे। पर ऐसा भी नहीं था कि प्रतिपक्षी नहीं थे! भारतीय बौद्धिकों के एक से एक धुरन्धर, महारथी विरोध की जुगाली कर रहे थे। कुछ तो सन् 1857 को ही प्रश्नांकित किए जा रहे थे, कुछ बहादुरशाह ज़फर की अशक्यता के मवाद सूँघकर तृप्त हो रहे थे; कुछ तो यहाँ तक प्रश्न पूछ रहे थे कि 'क्या यह सच नहीं है कि अंग्रेजों ने हमें सभ्य बनाया?' उस दौर के पत्र-पत्रिकाओं से सरोकार रखनेवालों की स्मृतियों में आज भी वे बातें होगीं। उनके इन आक्षेपों के दो ही अभिप्राय हो सकते थे -- या तो आयोजक मण्डल में शामिल नहीं किए जाने से वे इतने आहत थे कि 'हाय हुसैन हम न हुए' की डफली बजाने लगे या भारत-यूरोप की शासकीय-सांस्कृतिक विरासत का तुलनात्मक बोध उनकी प्रमा में था ही नहीं। जिस भारत में 'रामायण', 'महाभारत', 'पंचतन्त्र', 'अर्थशास्त्र' जैसे ग्रन्थ लिखे गए हों; वाल्मीकि, व्यास, विष्णु शर्मा, चाणक्य जैसे बौद्धिक पैदा हुए हों और भर्तृहरि, चन्द्रगुप्त, अशोक, अकबर जैसे राजा हुए हों; उस देश की शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान और शासन-व्यवस्था पर यदि किसी को सपने में भी सन्देह होता है, तो उन्हें अपने मस्तिष्क और हृदय की गहन चिकित्सा तत्काल करवानी चाहिए। पर भारतीय लोकतन्त्र में बोलने का हक तो सबको है! अपनी सभ्यता और संस्कृति से परांग्मुख ऐसे ही भारतीयों की निश्चेष्टा और कुटिल चेष्टा के कारण सन् 1857 के संग्राम के बाद आगे के भी नब्बे वर्ष गुलामी में कटे! 'अठारह सौ सत्तावन' शीर्षक कविता में भारतीयों की ऐसी ही निश्चेष्टा एवं परांग्मुखता को रेखांकित किया गया है।
सन् 1857 के संग्राम से लेकर स्वाधीनता संग्राम होते हुए हिन्द-पाक बँटवारे के दृश्य तक के सूक्ष्म रेखांकन से यह कविता भावकों को उद्बुद्ध कर देती है। गुलामी के दिनों की जड़ता को रेखांकित करते हुए कवि सच ही कहते हैं कि हम भारतीय तो गहरी नीन्द में सोए थे, मंगल पाण्डे या गंगू मेहतर की हुँकार से जगाए भी गए, तो ऊँघते हुए ही लड़ी वह लड़ाई; फिर सो भी गए गहरी नीन्द में, 'हमारी नीन्द/हमारी बेहोशी/हमारी मौत/एक जैसी दिख रही थी।' हमारे इतिहासकार मंगल पाण्डे के गीत गाते रहे, 'गंगू के नए देश की मिट्टी, मिट्टी में मिल गई/उसकी एक तस्वीर भी उतारी तो अंग्रेज़ डॉक्टर ने।' वह मुकाबला 'दुनिया के सबसे बर्बर और आततायी नस्ल से था/जो स्त्रियों और निर्दोषों के क़त्ल को/अपनी गौरव गाथाओं में शामिल करती थी।' बहुत दिनों बाद एक लँगोटीवाले ने (अर्थात् महात्मा गाँधी ने) हमें फिर से जगाने की कोशिश की, पर तब 'हमारे पास नहीं था/अठारह सौ सत्तावन के घावों का कोई हिसाब/हम सिसकते-सिसकते सो गए थे/या सोते-सोते सिसक रहे थे/तय करना मुश्किल था/हमारी स्मृति में केवल दो ही युद्ध थे/राम-रावण युद्ध/कौरव-पाण्डव युद्ध/हम हर जगह तलाश रहे थे रामायण और महाभारत/वैशाली के अशोक स्तम्भ को भीमसेन की लाट कहने लगे थे/और केसरिया के विशाल स्तूप को राजा बान का क़िला।' ये सारे दृश्य भ्रंशमति भारतीय नागरिक की निरपेक्षता के हैं, जिन्हें अपनी ही वस्तुस्थिति जानकारी नहीं होती।
इतिहास या राष्ट्रीय अस्मिता का उनकी दृष्टि में कोई अर्थ नहीं था, जानने की इच्छा नहीं थी। किस्से-कहानियों की रोचक शैली में कोई संक्षेप में कुछ सुना दें तो ठीक, वर्ना कोई बात नहीं। वस्तुत: वे राष्ट्रीय पहचान के अर्थ से ही अनभिज्ञ थे, अभिज्ञ रहे होते, तो उनकी सन्ततियाँ घपले-घोटाले-तस्करी-तिजारत के इतने रास्तों के आविष्कारक न होते, जिन्हें देश की अधोगति करते किसी भी अंग में लज्जा नहीं आती! उनके पास समाज की कोई अवधारणा नहीं थी, वे समुदायों की स्मृतियों में दुबकी आस्था के सहारे जिए जा रहे थे। उनकी आँखें थीं, पर आँखों में सब कुछ स्पष्ट देखने की शक्ति वे खो चुके थे। गौर से सोचने पर हर किसी को समझ आ जाएगा कि देखने की क्रिया आँख से ही नहीं, मस्तिष्क से होती है। उनके मस्तिष्क की क्रियात्मक रचना (प्रोग्रामिंग) इस तरह कर दी गई थी कि वे निर्धारित दृश्य ही देख पाते थे, कान निर्धारित बातें ही सुन पाते थे। इसीलिए तो रामायण, महाभारत के अलावा उनकी स्मृति में किसी युद्ध की बातें रह नहीं गई थीं। वे वैशाली के अशोक स्तम्भ को भीमसेन की लाट कहते थे, केसरिया स्तूप को राजा बान का क़िला और बुद्ध को दसवाँ अवतार मान रहे थे। जिन बातों का तिरस्कार कर, धारण करने लायक कर्मों को तर्क से परीक्षित करना महात्मा बुद्ध ने सिखाया, वे बुद्ध को ही भगवान बनाकर पुराने पाखण्ड की ओर निकल पड़े थे। नागरिक चिन्ता से तर्क करने की प्राचीन भारतीय परम्परा कब के ग़ायब हो गई थी। यहाँ सोचने की जगह अनुमान, तर्क की जगह आस्था से काम चलने लगा था। इसीलिए 'अधनीन्दे में हमने लड़ी एक और लड़ाई/इस बार बतलाया गया कि/मुल्क आज़ाद हो रहा है/इसलिए हमें फिरंगियों को नहीं/अपने उन भाइयों को मारना था/जिनके कन्धे से कन्धा मिलाकर हम लड़े थे/अठारह सौ सत्तावन में/हमने मारा/हम मारे गए/और सो गए/फिर से शुरू हो गई/कराहों और खर्राटों की जुगलबन्दी!' इस पूरी कविता में डेढ़ सौ वर्षों के आलस्य, परांग्मुखता और लापरवाही को निरूपित कर कवि ने इन्हीं विडम्बनाओं की पीड़ा व्यक्त की है, और व्यंग्य की धार-प्रहार को तीक्ष्णतर कर दिया है।
सन् 2005-06 में मानव-अंगों के व्यापारी समूह जिस तरह निठारी गाँव में बच्चों की हत्या कर अंग-तस्करी कर रहे थे, भारत के भावुक लोग आज भी भूले नहीं होंगे। दोषियों को बेशक पकड़ लिए गए हों, मौत की सजा सुनाई दी गई हो, पर राष्ट्र की ललाट पर लगे इस कलंक से मुक्ति सम्भव नहीं है। ऐसी नृशंसता तो बर्वर युग में भी नहीं होती होगी। इस घटना ने मदन कश्यप की सृजन-दृष्टि को सर्वाधिक उद्वेलित किया है। इस दारुण प्रसंग पर उनकी कई कविताएँ हैं। सन् 2007 में रचित 'निठारी : एक अधूरी कविता' इस विषय की हृदय-विदारक गाथा है। यह कविता अधूरी इसलिए है कि इस पर कितना भी लिखा जाए, पूरी कभी नहीं होगी, अधूरी ही रहेगी। सब कुछ लिख देने के बाद भी कतरा भर वेदना बची ही जाएगी। इतिहास गवाह है कि 'आदमी के होने से भी पुराना है/क्रूरताओं का इतिहास/फिर भी क्रूरता का ऐसा क्रूर व्यापार कभी नहीं हुआ होगा/जैसा निठारी में हुआ।'
निहायत निर्धन परिवार की बेटियों को पकड़ लाना, बलात्कार करना, फिर हत्या करना, फिर अंग बेचना, भोग को मज़ेदार बनाने के लिए कम-उम्र लड़कियों का शिकार करना, अपनी जाँघों के नीचे दम तोड़ती लड़कियों के गुह्यांग और चीत्कार पर कैमरा टिकाना...उफ्फ, ऐसी नृशंसता घटित हो सकती है, इसका पुनर्सृजन असम्भव है। पुलिस तो इन ग़रीबों की बेटियों की गुमशुदगी के तो मामले तक दर्ज नहीं करती थी।
'बाज़ार और सरकार की नज़र में/कोई क़ीमत नहीं थी उनकी/पर मरते ही बेशक़ीमती हो जाती थीं/आँखें/ जिगर/टिसू/मज्जा/कितना कुछ होता था बेचने को/पता नहीं किस डॉक्टर ने किस कॉलेज में की थी पढ़ाई/ इस कर्म के लिए।' ऐसी नृशंसता वैसे विकसित समाज में हो रही थी, जहाँ रचनाकार अपनी रचनाओं की शिल्प-प्रयुक्ति पर बहस कर रहे थे, बुद्धिजीवी वर्ग इराक में अमेरिकी फ़ौजों की बर्बरता और पाकिस्तान में लोकतन्त्र की वापसी की सम्भावनाओं पर चिन्तित हो रहे थे, जनतन्त्र के रणनीतिकार कश्मीर समस्या सुलझाने की तरकीब सोच रहे थे, निठारी उनकी चिन्ता से गायब था। निठारी की माताओं का रुदन कॉर्पोरेट समाजवाद की बदसूरत चिल्लाहट में खो गया था, 'जाँच अधिकारी/बस हुकुम बजा रहे थे/...जो सच बच्चा-बच्चा जानता था/उस तक नहीं पहुँच पा रहे थे/देश के सबसे कुशल जासूस/...ग़रीबों की बेटियों का लापता होना/कोई ख़बर नहीं बन पाती है/क्योंकि वहाँ दिखाने लायक कुछ नहीं होता/रोती-बिलखती निर्धन माताओं की/न तो आँखें कटीली हैं/न ही छातियाँ उठी हुईं/जहाँ टिक सके कैमरा।' इस नृशंसता से हतप्रभ भर हुआ जा सकता, इसका विवरण देना उतना ही त्रासद है, जितना इसका हो जाना। कोई प्रर्थना करे कि दुनिया के किसी कोने के किसी प्राणी के सपने में भी ऐसे दुराचार के भाव न आएँ।
सन् 2009 में लिखी 'माफ़ीनामा' शीर्षक कविता मदन कश्यप ने किसी अपने किए अपराध के प्रायश्चित में नहीं लिखी है। यह कविता अतीत काल में दलितों या सवर्णेतर समाज पर सवर्णों द्वारा किए गए अनाचार के लिए एक माफीनामा है, जो पूर्वजों को धिक्करते हुए लिखी गई है। अपने पितरों के प्रति वे जन्म देने के लिए, जीवन और पहचान देने के लिए, अपने हिस्से की भूमि देने के लिए और अपने दुख को छुपा रखने के लिए आभारी होना चाहते हैं, पर पुश्त-दर-पुश्त पवित्रता के सौदागर बने रहने, अत्याचारों को धर्मसंगत बनाने की क्रूर चतुराई पर इतराते रहने के कारण वे लज्जा-ग्रस्त होकर धिक्कार भाव से पूछते हैं कि 'तुम्हें पता ही नहीं था/आदमी को आदमी न समझकर/तुम खुद कितने आदमी रह गए थे/हमारे कन्धे पर वेताल की तरह चढ़ा है/तुम्हारे दुराचारों का इतिहास/अब तुम्हीं बताओ इसे कहाँ ले जाऊँ/किस आग से जलाऊँ/किस नदी में बहाऊँ!'
कवि के वाचक को मालूम है कि उनकी धमनियों में उन राजन्यों का रक्त है, जो कभी क्षत्रिय रहे कभी ब्राह्मण; पर उन सवर्णेतरों को तो विकल्प-चयन का कभी कोई अवसर ही नहीं मिला। इतिहास में भी कहीं व्यवस्थित रूप से दर्ज नहीं कि वे कहाँ थे और कैसे थे। बीसवीं सदी में उन्होंने गौतम बुद्ध को सबसे अधिक स्मरण किया, पर क्या जाने उन्होंने भी इन्हें कितना अपनाया था। 'ऋग्वेद' (ई.पू. 1500-1000) के दसवें मण्डल के रचना-समय से पूर्व तक 'शूद्र' शब्द का उपयोग कहीं नहीं हुआ था। दसवें मण्डल के पुरुष-सूक्त में पहली बार इसका उपयोग चौथे वर्ण के रूप में हुआ है, जबकि वर्ण-व्यवस्था के रूप में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की प्रयुक्ति अनेक बार हुई। यह आर्यमूल का शब्द नहीं है। प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा ने भी अपनी कृति 'शूद्रों का इतिहास' में इसके उद्भव पर कुछ नहीं कहा। अर्थान्वेष की दृष्टि से इन दिनों भारतीय परिदृश्य में इस शब्द का जैसा जातिसूचक हीनताबोधक अर्थ लगाया जाता है, वह सही नहीं है। निश्चित रूप से इस शब्द के प्रति अज्ञानता का सूचक है। आरम्भिक प्रयोग-काल में अथवा प्राचीनकाल में इस शब्द का ऐसा अर्थ नहीं था। अपने मूल रूप में अथवा व्यापक प्रचार के दौर में ‘शूद्र’ शब्द उपेक्षा एवं हीनता का द्योतक नहीं था। यह सम्मानसूचक शब्द था, गौरव का प्रतीक माना जाता था, जिस तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य माना जाता था। यह शब्द सुमेरी भाषा से उद्भूत है। इसका सम्बन्ध भारत-मेसोपोटामिया व्यापारिक सम्बन्ध और अक्कादी परम्परा के लोकप्रिय पौराणिक राजा जिउशूद्र (शासनकाल ई.पू. 2900 के आसपास) की लोकप्रियता एवं सर्वस्वीकार्यता से है। ई.पू. तीन हजार के आसपास भारत से मेसोपोटामिया की सुमेरी सभ्यता का व्यापारिक सम्बन्ध था। थल मार्ग से बलूचिस्तान होते हुए व्यापारियों का आवागमन होता था। इसका प्रभाव उस दौर के उन अनार्यों पर भी पड़ा, जो उस दौरान आर्यवर्त में प्रवेश कर रहे थे। व्यापारिक उद्देश्य से भारत आए जिउशूद्र के साथ ढेरो सुमेरी जन भी आए थे। उनमें से जो भारत में रह गए, और व्यापार के कारण महत्त्वपूर्ण माने गए, कालान्तर में वे अपने लोकप्रिय राजा की स्मृति में शूद्र संज्ञा से गौरवान्वित होने लगे।
पर बीसवीं शताब्दी में इतिहास और आख्यान इनकी वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ हो गया। उनके पुरखों के बारे में परिचयात्मक जानकारी भी कवि मदन कश्यप को उपलब्ध नहीं है, बल्कि किसी को उपलब्ध नहीं है। उन्हें मालूम नहीं कि कम बातें करनेवाला, कम खाकर कम पहनकर जिन्दा रहनेवाला 'भरोसा महरा' के छू जाने से बाभन की देह कैसे अपवित्र हो जाती थी? मालूम नहीं कि 'भरोसा महरा' घृणा करने वालों से घृणा करते थे या नहीं? वे 'दूर से उस ईश्वर को प्रणाम करते थे/जिसके मन्दिर में जाने की इजाजत उन्हें नहीं थी/धर्म की उन कथाओं को सिर झुका सुनते थे/जिनमें उनके पुरखों को नीच-पातकी बताया जाता था/उन्हें लांछनों से ज्यादा पेट की चिन्ता थी।' बेशक उनकी झोंपड़ियाँ नहीं जलाई गईं, पर अपरिभाषित जुल्म तो हुए ही; कवि पूर्वजों की उन सारी दुष्कृतियों के लिए, जो हुईं, मगर नहीं होनी चाहिए थीं, शर्मिन्दा हैं। तानाशाही फरमान जारी करनेवाले समय में कवि के चिन्तन-क्षेत्र में माफीनामा की उपस्थिति स्वयं में एक बड़ी बात है।
मदन कश्यप केवल वंचितों, पीड़ितों के दर्द का गीत ही नहीं गाते, उनकी जागृति और प्रतिरोध के कारण भयभीत शोषकों की आशंकाओं का भी संज्ञान लेते हैं। उद्यमशील आदिवासी जीवन की पीड़ा, विरासत के मूल की रक्षा के प्रति उनकी निष्ठा और जल-जंगल-जमीन पर अपने अधिकार की सावधानी से वे सघन सरोकार रखते हैं। सन् 2008 में लिखी 'आदिवासी' शीर्षक कविता में आदिवासियों के जीवन और संसाधन को खिलौना समझ लेने की शोषकीय नीति पर उन्होंने तीक्ष्ण व्यंग्य किया है।
शोषकों को, पाँव रखकर लम्बी छलाँग लगाने के लिए, आदिवासियों का मजबूत कन्धा चाहिए; अपना आयतन बढ़ाने की सुविधा के लिए, उनके आयतन में घटाव चाहिए; अपनी कामुकता गुदगुदाने के लिए उनकी स्त्रियों की वस्त्रहीनता चाहिए; निचोड़ने के लिए, उनके जंगल-नदी-पर्वत चाहिए; नचा-गवाकर मन बहलाने के लिए, उनकी युवतियाँ चाहिए। उन शोषकों को उनकी भाषा में विचार आ जाने के कारण भाषा गन्दी हो गई लगती है। आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ती उनकी बस्तियाँ भटकी हुई लगती हैं। उन्हें केवल इनकी दया पर बसे रहना चाहिए। उन्हें बोलना नहीं, गाना आना चाहिए; पढ़ना नहीं, नाचना आना चाहिए; सोचना नहीं, डरना आना चाहिए।...ये सारे सन्देश इस कविता में निदेश-उपदेश की वाक्य-संरचना में दिए गए हैं; जिनके ध्वनि-विस्तार में प्रहारक व्यंग्य रूपायित हुआ है।
मदन कश्यप के पाँचवें कविता-संग्रह 'अपना ही देश' (सन् 2016) में इसी शीर्षक से सन् 2011 में लिखी गई कविता संकलित है। यहाँ भी वही धारणा लागू है, कि चारो ओर, पूरे देश में जहाँ कहीं, जो भी ठीक-ठाक या सुसंगत हो रहा है, प्रकृति, नियति और जन-वृत्ति के कारण हो रहा है; पर आफत-विपद की जितनी भी विसंगतियाँ दिख रही हैं, सब-के-सब किसी-न-किसी राजनीतिज्ञों के हित-साधन में राजनीतिज्ञों द्वारा थोपे गए उत्पात के कारण हो रहा है। इस संग्रह में संकलित सारी कविताओं में व्यक्त भाव-दृश्य इसी जनाकांक्षा का निरूपण है कि ओ भई राजनीतिज्ञो! हमें हमारे हाल पर छोड़ दो, हमारी चिन्ता मत करो, क्योंकि ज्यों ही तुम हमारी चिन्ता में लगते हो, हमारे संसाधन, हमारे लोग, हमारे सुख-चैन, हमारे सपने उजड़ने लगते हैं। इस समय तक आते-आते जनसामान्य तक कि धारणा बन गई थी कि सरकारी उपक्रमों में क्षेत्र या समुदाय विशेष की अतिरिक्त चिन्ता, किसी-न-किसी बड़े उत्पात को न्यौता देती है। इसीलिए अपने खनन-क्षेत्र में बेमतलब मिलिट्री छावनी तैनात करने की सरकारी चेष्टा देखकर वहाँ के रहवासियों में दहशत छा गई, अकल्पनीय उत्पात की आशंका बढ़ गई। इस कविता में कवि मदन कश्यप की जुबानी, उन्हीं स्थानीय लोगों की आन्तरिक धारणा व्यक्त हुई है। खनन-क्षेत्र के रहवासियों के पास नदी, पर्वत, जंगल और खनिज के अलावा वस्तुत: देह और नागरिक अनुराग ही तो होता है, और कुछ कहाँ होता वहाँ? पर रोचक है कि वे अपनी विपन्नता में भी सम्पन्न रहते हैं। अपनी क्षमता पर उन्हें आस्था रहती है। वे वन-पर्वत-नदी को कोई संसाधन नहीं, अपने पुरखे समझते हैं; वे उन्हें पुरखों की तरह पूजते भी हैं, और उनसे अपने परवरिश भी करते हैं।
इसलिए उस क्षेत्र सरकारी अभिकरणों के उद्यम देखते ही, उन्हें अपने पुरखों के खर्च हो जाने की आशंका दिखने लगती है। वे उन्हें चेतावनी देते हैं कि 'ये बॉक्साइट के पहाड़ नहीं हमारे पुरखे हैं/आप इन्हें सेंधा नमक सा चाटना बन्द कीजिए/यह लाल लोहामाटी/हमारी माता है/आप बेसन के लड्डू सा इन्हें भकोसना बन्द कीजिए/ये नदियाँ हमारी बहनें हैं/इन्हें इंग्लिश बियर की तरह गटकना बन्द कीजिए।' वे सत्ता के उद्यमियों से उनके कुकर्मों की भर्त्स्ना करते हुए फटकार की भाषा में बात करते हैं। वे कहते हैं कि अब तक आप हमारी भाषा खाते रहे, अब सपनों को खाना चाहते हैं; विचार को मारते रहे, अब हमारी संस्कृति को मारना चाहते हैं; काल को चबाते रहे, अब हमारे भविष्य को गटकना चाहते हैं; सभ्यता को रौंदते रहे, अब हमारी अस्मिता को मिटाना चाहते हैं; आप बेहद हड़बड़ी में हैं, पर हमारे संघर्षों का इतिहास हज़ारों साल पुराना है। इस नागरिक वक्तव्य में, सरकारी अभिकरणों के क्षुद्रता-निरूपण के साथ, स्थानीय नागरिकों की चेतना एवं हुँकार परिलक्षित है। खनन-क्षेत्र के वे नागर स्पष्ट कहते हैं कि 'अगली बरसात में/फूस का छन्ना बन जाएँगे हमारे घर/अब तो हमें अपना अन्न उगाने दीजिए/अपना छप्पर छाने दीजिए/भला आप क्यों बनाना चाहते हैं यहाँ मिलिटरी छावनी/यहाँ तो चारों तरफ़ अपना ही देश है।' वे कहते हैं कि आप बेमतलब हमारे पीछे परेशान मत होइए, हमें किसलिए चाहिए मिलिट्री की सुरक्षा, चारो ओर तो अपना ही देश है, इस अपने देश में आपके और आपके मुलाजिमों के अलावा हमें किसका डर है? हमें आपका कोई उद्गार नहीं चाहिए, क्योंकि आपका कोई भी उद्गार किसी हत्या और आरोप की साजिश से अलग नहीं है। हम जानते हैं कि आप हमें कुछ देने नहीं आए हैं, हमसे कुछ लेने आए हैं; हमारी निजता को सरकारी संसाधन घोषित कर हमसे वे छीनने आए हैं। ध्याव्य हो कि हमारे पास जो भी है, हमारा निजी है, आपको देने के लिए हमारे पास कुछ नहीं है, हमारे पास जो है, वह हम आपको लेने नहीं देंगे। 'निराशा का एक शान्त समुन्दर हमारी आँखों में है/और जो कभी आशा की लहरें उठती हैं उसमें/तो आप हिंसा-हिंसा कहकर चिल्लाने लगते हैं/...हम किसी और से नहीं/केवल अपनी हताशा से लड़ रहे हैं/आप इसी को देशद्रोह बता रहे हैं/हम हिंस्र पशु नहीं हैं/पर बिजूके भी नहीं हैं/...हम कमज़ोर भाषा/लेकिन मज़बूत सपनों वाले आदमी हैं/ख़ुद को कस्तूरीमृग मानने से इनकार करते हैं।...उधर देखिए/...आपके सिपाहियों के डर से/शेरनी की माँद तक में छिप जाती हैं लड़कियाँ/हमें शान्त छोड़ दीजिए अपने जंगल में/हम हरियाली चाहते हैं/आग की लपटें नहीं...।' यह कविता सरकारी मुलाजिमों के उस खूँखारपन को रेखांकित करती है, जो उसे हिंस्र पशुओं से भी अधिक खूँखार साबित करती है।...खनन-क्षेत्र के रहवासियों के वेदना की ऐसी गहन अनुभूति कवि के सघन जनसरोकार का परिचायक है।
सन् 2015 में लिखी 'पनसोखा है इन्द्रधनुष' शीर्षक कविता एक प्रेम कविता है। इन्द्रधनुष का देशज नाम पनसोखा है। 'पनसोखा है इन्द्रधनुष/बारिश रुकने पर उगा है/या बारिश रोकने के लिए उगा है/बारिश को थम जाने दो/बारिश को थम जाना चाहिए/प्यार को नहीं थमना चाहिए/...प्यार के बाद कोई वही कहाँ रह जाता है जो वह होता है।' लोक प्रचलित धारणाओं में इसके दोनो वैशिष्ट्यों को मान्यता है -- बारिश रुकने पर ही यह उगता है, पर कुछ क्षेत्रों की मान्यता है कि यह बारिश रोकने के लिए उगता है। जिज्ञासा उल्लेखनीय हो सकती है कि है कि प्यार की सघन अनुभूति के लिए इन्द्रधनुष उगाने का प्रयोजन क्या था? जो लोग प्रकाश किरण के अपवर्तन की वैज्ञानिक प्रक्रिया से अवगत हैं, वे जानते होंगे कि अपवर्तन के दौरन श्वेत रंग के एक ही प्रकाश के विचलन से ये सात रंग परिलक्षित होते हैं। जिस तरह श्वेत प्रकाश की एक किरण वायुमण्डलीय जल-कण पर अपवर्तित होकर सात रंगों की मोहक छवि प्रस्तुत करती है, प्रेम भी उस श्वेत प्रकाश की तरह एक ही होता है; श्वेत, उज्ज्वल, निर्मल, मोहक, पवित्र, निष्कपट; प्रेमी-प्रेमिका के मिलन से दोनो के तन-मन और स्मृतियों में सुखानुभूतियों की असंख्य रश्मियाँ प्रसारित होती हैं, दर्ज होती हैं, कुछ प्रत्यक्ष कुछ गुप्त। तुलनात्मकता से स्पष्ट है कि इन्द्रधनुष की मोहक छवि सार्वजनिक रूप से गोचर होता है, जबकि प्रेम-व्यापार की मोहक रश्मियाँ प्रेमी-प्रेमिका तक ही सीमित रहती है। तीसरा कोई उन दोनो के प्रसन्नानन से कुछ अनुमान कर ले तो कर ले! इस कविता में प्रेम-क्रिया की प्रस्तावना ऐसी है कि 'दुनिया को समझ लेना चाहिए था/हम माँस के लोथड़े नहीं/प्यार करने वाले दो जिन्दा लोग थे/महज़ चुम्बन और स्पर्श नहीं था हमारा प्यार/कुछ उपक्रमों और क्रियाओं से ही सम्पन्न नहीं होता था वह/हम इन्द्रधनुष थे लेकिन पनसोखे नहीं/अपनी-अपनी देह के भीतर ढूँढ़ रहे थे अपनी-अपनी देह/बारिश की बूँदें जितनी हमारे बदन पर थीं/उससे कहीं अधिक हमारी आत्मा में।' प्यार की इस अनूठी क्रिया में प्यार के श्वेत किरण की बहुरंगी अनुभूतियाँ, बिल्कुल इन्द्रधुष की तरह अपने प्रभाव प्रसारित करती हैं, मोहक, आकर्षक, लुभावना, चितहर्षक, सघन, आनन्ददायी, उत्तेजक, स्मृतियों में खचित। इस प्यार को कवि चुम्बन, स्पर्श, कुछ उपक्रमों, क्रियाओं तक ही सीमित नहीं करते, वे अपने प्यार को पनसोखा नहीं, इन्द्रधनुष मानते हैं, सोखना या शोषण करना उनके प्यार में कभी काम्य नहीं होता। कवि को प्रेमिका की उसाँसों से बड़ा कोई संगीत नहीं दिखता, उनकी चुप्पी से मुखर कोई संवाद नहीं दिखता, उनकी विस्मृति से बेहतर कोई स्मृति नहीं दिखती। प्रेमिका जिस नैपकिन से चेहरा पोंछे, उसे भी कूड़ेदान में नहीं डालने की क्रिया प्रेमी की दृष्टि में प्रेम की गरिमा का द्योतक है। दहकते अंगारे-से निचले होंठ पर बची रह गई मोटी-सी जल-बूँद को वे अपनी तर्जनी पर उठा लेना चाहते हैं, पर सम्मोहन में निहारते रह जाते हैं, यह प्रेम की अन्तरंगता का परिचायक है। प्रेम-रंग की ऐसी रंगीनी, कविता की उज्ज्वलता निखारने में बहुत सरस योगदान देती है।
मदन कश्यप ऐसे संवेदनशील कवि हैं जिन्होंने बीते दशकों में घटी लगभग नृशंसताओं पर कविताएँ लिखी हैं, जिनमें निरूपित चित्र उनके घटना-सरोकार की सघन अनुभूति के परिचायक हैं। अपनी लैण्ड क्रूजर कार से बम्बई के फुटपाथ पर सो रहे पाँच लोगों को मदमस्त सलमान खान ने 28.09.2002 को कुचल दिया, सत्र न्यायालय द्वारा सलमान को पाँच वर्षों की सजा हुई। पर तेरह बरस बाद 10.12.2015 को उच्च न्यायालय ने उन्हें न केवल बरी किया, बल्कि घटना के दौरान सलमान के नशे में होने और लैण्ड क्रूजर कार चलाने की बात भी नहीं स्वीकारी। इस घटना के इतिवृत्त से भारत का हर नागरिक अवगत है। पर हिन्दी सिनेमा के असफल गवैया अभिजीत ने इस घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए सलमान की गाड़ी के नीचे मर गए लोगों की तुलना कुत्तों से की। कहा कि कुत्ता रोड पर सोएगा तो मरेगा ही। इस घटना की पूरी शृंखला असह्य वेदना से भर देती है। हम किस सभ्यता के कैसे समुदाय और कैसी न्यायिक व्यवस्था में जी रहे हैं? मदन कश्यप इस पूरी प्रक्रिया से बेहद परेशान थे। सन् 2015 में सू्त्रधार शैली में लिखी 'फुटपाथ पर सोने वाले' शीर्षक कविता में उन्होंने इस घटना-शृंखला को मानवीयता के ललाट पर कलंक के टीके के रूप में ग्रहण किया। उन्होंने फटकार लगाते हुए कहा 'कानून की धज्जियाँ उड़ा कर पैसे बटोरने वाले अधिवक्ताओ/ख़ुद पर फक्र करो/तुमने किसी मुद्दई को नहीं मनुष्यता को पराजित किया है।'
फुटपाथ पर सोने वालों के '...अरमान तो पहले ही कुचल दिए गए थे/जब वे आए थे फुटपाथ पर सोने/बचे थे शायद थोड़े सपने/जिनके बल पर वे टिके हुए थे इस क्रूर महानगर में/...जब मारे गए तभी पता चला कि वे थे/अन्यथा क्या प्रमाण था उनके होने का/...देश ने उन्हें सिर्फ मतदाता होने की पहचान दी थी।' इस प्रमाणवादी न्यायिक प्रक्रिया में प्रमाणविहीन अस्तित्व के ऐसे नागरिकों के पीछे छूट गए पारिवारिकों की पीड़ा कौन सुनता? उन मृतात्माओं को कुत्ता कहने के आरोप में अभिजीत पर मानहानि का मुकदमा और पैरवी कौन करता, उनकी कौन सुनता? पर मदन कश्यप ने सुना; उन्होंने अभिजीत की प्रतिक्रिया से व्यथित होकर कहा कि जिसका 'गाना कभी नहीं सुना, अब भौंकना सुन रहा हूँ है, प्यारे कुत्तो! उसे बिरादरी बदर का एचएमवी के पुराने रिकॉर्डों पर बिठा दो।'
'एक दलित प्रार्थना' शीर्षक कविता उन्होंने सन् 2014 में लिखी। उनकी चेतना में इस कविता का बीजारोपण एक दलित बस्ती में अनूठी सामूहिक पूजा-पद्धति देखते हुए हुआ। यह बस्ती हैदराबाद से आगे लिंगमपल्ली से पहले एक उपेक्षित पहाड़ी के निकट है। दलित नागरिकों के उस पूजन-कर्म में नौ देवियों -- पोचम्मा, कट्टामाईसम्मा, पोलीमोराम्मा, मारेअम्मा, येल्लम्मा, अप्पालम्मा, मक्कालम्मा, सामक्का, सारक्का की पूजा होती है। वह पूजा देखकर मदन कश्यप उन नौ देवियों से नौ दुर्गा की तुलना करने लगे। 'एक दलित प्रार्थना' कविता उसी कवि-अनुभूति को साकार करनेवाली कविता है।
भावकों की जिज्ञासा उचित ही होगी कि पूजा-पाठ में भरोसा न रखनेवाले मदन कश्यप की कविता पूजा पर क्यों? ईश-पूजा तो आस्तिकों की वृत्ति है, मदन कश्यप नास्तिक हैं। पर सावधान! मदन कश्यप को नास्तिक घोषित करने से पहले उद्घोषकों को आस्तिक-नास्तिक का भेद जान लेना होगा। वेद, परलोक, ईश्वरादि में विश्वास नहीं रखनेवालों को कोश में नास्तिक और विश्वास करनेवालों को आस्तिक कहा गया है। पर आस्तिकता की वैचारिकी में दिख रहे सुराखों पर कोई आस्तिक, सूक्ष्मता से विचार नहीं करते, यह कार्य नास्तिक ही करते हैं। नास्तिकों को अनास्थावादी कहना ज्ञानविमुख बात होगी। वे घोर आस्थावादी होते हैं, पर उनकी आस्था तर्क-परीक्षित होती है। नास्तिकों के तर्क दार्शनिक, सामाजिक, ऐतिहासिक दृष्टिकोणों से धोए-पखारे होते हैं। मदन कश्यप की दृष्टि में ईश्वर की कोई जगह हो या न हो, मनुष्य और मनुष्यता के लिए जगह ही जगह है। अद्वैतवाद के पक्षधरों को यह बात अच्छी लगेगी कि आधा आस्तिक तो मदन कश्यप यूँ ही हो गए। इस वार्तिक का उद्देश्य मदन कश्यप के आस्थावादी होने की वकालत करना नहीं है, बल्कि उल्लेख करना है कि कोशों में नास्तिक के छह दर्शन -- चार्वाक, योगाचार, माध्यमिक, सौत्रान्तिक, वैभाषिक और जैन बताए गए हैं। यदि नास्तिक लोग अनास्थावादी होते हैं, तो इन दर्शनों में उनकी आस्था क्यों होती है? एक मात्र तर्क के कारण! चार्वाक, बौद्ध, जैन नास्तिक माने जाते हैं, इनमें चार्वाक तो घोषित रूप से घोर नास्तिक थे।...अब आस्तिकों के पास देवताओं के होने के कोई साक्ष्य नहीं होते, बुराई करनेवालों को कभी दण्ड नहीं मिलता, असंगत रहस्यों के लिए कोई तर्क नहीं होता...तो क्या देवताओं के अस्तित्व का प्रमाण प्रस्तुत करने का सारा बोझ नास्तिकों पर ही थोपा जाए? अपनी मान्यता के लिए तर्क देना तो आस्तिकों का कर्तव्य होना चाहिए! कोई आस्तिक बता सकता है कि फुटपाथ पर कुचले गए मृतकों, या निठारी में बलि दी गई बच्चियों के बचाव के लिए कोई देवता क्यों नहीं आए? कोई आस्तिक तर्क दे सकता है कि लोकतन्त्र के नागर-समूह जिन प्रतिनिधियों को चुनकर जन-सेवा के लिए भेजता है, वहाँ पहुँचने पर उसकी चेतना में जन-सेवा की जगह हिंसक-उत्क्रोचक क्यों घुस जाता है? देवी-देवता उन पापियों का कुछ बिगाड़ क्यों नहीं लेते? नास्तिकता वस्तुत: अज्ञेयवाद (श्रेष्ठ कवि अज्ञेय का वाद नहीं) है, जिसकी दृढ़ मान्यता है कि जो धारणा सारे तर्कों के बावजूद हमारे लिए अज्ञेय ही रहती है, हम उसे नहीं मानते।
पर उस दलित बस्ती के पूजन-कर्म में सामान्य आस्तिकों की तुलना में एक खास बात यह थी कि अपनी नौ देवियों की पूजा करते हुए उनकी प्रार्थना में किसी अतिरिक्त अभिलाषा के संकेत नहीं थे। वे अपनी, अपने फसलों की, अपने बच्चों की रक्षा चाहते थे; धरती को छेदकर फूटे अंकुर को सूखने से, छुट्टे जानवरों के कहर से, जमीन्दारों के कोप से, बामनों के जहर से, बनियों के गलागोप से बचाना चाहते थे; वे अपनी बहुओं बेटियों की कोख हरी-भरी करवाना चाहते थे; बच्चों को दीठ-कुदीठ से बचाना चाहते थे। 'हे नौ देवियो! हमें बचाना/धर्म की महान गाथाओं से/ईश्वर की महालीलाओं से/संस्कृति की उदात्त परम्पराओं से/स्वर्ग और नरक की कथाओं से/हमें बचाना! हमें बचाना!'
सम्भवत: मदन कश्यप को इसी बात ने सम्मोहित किया होगा कि ये मामूली लोग अपनी देवियों से जीवन-यापन के कितने मामूली वरदान माँग रहे हैं। भारतीय लोकतन्त्र के महाबली तो अपनी प्रचण्ड शक्ति से यज्ञ कराकर स्वयं देवता हो जाने की शक्ति छीन लेना चाहते हैं। मन्दिरों में उनका दिव्य-प्रवेश जिस तरह होता है, यदि सचमुच उस मन्दिर में कोई देवता पहले से रह रहे होंगे, तो इन महाबलियों का पराक्रम भाँपकर किसी गुप्त मार्ग से डर के मारे भाग जाते होंगे।
मदन कश्यप जैसे बड़े कवि की पूरी कविताई को एक आलेख में समेटना असम्भव है। उनके यहाँ विषय वैविध्य की विस्तृत दुनिया तो है ही, कथ्य को रूपाकार देने का रचनात्मक कौशल इतना बहुमुखी एवं अन्तरानुशासनिक है; और अर्थ-छवियों की रश्मियाँ इतनी दिशाओं में फूटती हैं कि छोटी से छोटी कविताओं के अर्थान्वेष के लिए कई-कई युक्तियाँ लगानी पड़ती हैं। परिणामस्वरूप काव्य-विवेचन में विस्तार आना सहज सम्भाव्य है। अब तक प्रकाशित छहो कविता संग्रह में संकलित 298 कविताओं में से मेरी सर्वाधिक प्रिय कविताएँ -- 'कालयात्री', 'छोटे-छोटे ईश्वर', 'एक अधूरी प्रेम कविता', 'स्त्री-पुरुष', 'अकेलापन', 'पानसोखा है इन्द्रधनुष', 'बिजूका', 'हवा में पुल', 'कुरुज', 'माँ की तस्वीर', 'माँ के गीत', 'रफ़ूगरी', 'हम्मूराबी', 'नीम रोशनी में', 'एक दलित प्रार्थना', 'कहाँ है पृथ्वी', 'किसी विस्थापन की तरह नहीं', 'अच्छी कविता', 'पुलिस अधिकारी', 'तूफान...भूकम्प...ज़िन्दगी', 'क्षमायाचना', 'सरकार', 'उद्धारक', 'नौकरशाह कवि', 'म्युजिकल चेअर', 'पुरखों का दुख', 'तानाशाह और जूते', 'अठारह सौ सत्तावन', 'उदासी का कोरस', 'अपना ही देश', 'लौटूँगा', 'फुटपाथ पर सोनेवाले'...आदि हैं, जिनकी इतनी विवेचना के बावजूद उन पर कहने के लिए अभी भी बहुत कुछ बचा हुआ हैं। इनके अलावा लगभग डेढ़ सौ महत्त्वपूर्ण कविताएँ और हैं, जिन पर इत्मीनान से विचार होना चाहिए। 'कालयात्री', 'एक अधूरी प्रेम कविता' और 'छोटे-छोटे ईश्वर' न केवल मेरी सर्वप्रिय कविताएँ हैं, बल्कि मेरी राय है कि इन तीन कविताओं के बूते भी एक कवि महान कवि माने जा सकते हैं। अभिप्राय कोई यह न लगाएँ कि इन के अलावा लिखी गई मदन कश्यप की कविताएँ निष्प्रभ और निरर्थक हैं। ऐसा होता तो अन्य कविताओं की ऐसी व्याख्या क्यों करता! प्रभावान्विति तो उनके छहो संग्रहों का श्रेष्ठ और समुज्ज्वल है; पर 'नीम रोशनी में' संग्रह की उज्ज्वलता मेरी राय में प्रखरतर है।
[1] ई.पू. 4000-ई.पू. 2900
[2] ई.पू. 3300-ई.पू. 1300
[3] ई.पू. 3500-ई.पू. 1200
[4] ई.पू. 563-483
[5] ई.पू. बारहवीं शताब्दी
[6] मृत्यु ई.पू. 321
[7] महाभारत में ई.पू. दसवीं शताब्दी के जैन-मत का उल्लेख न होने और ई.पू. ग्यारहवीं शताब्दी के शतपथ ब्राह्मण में महाभारत के पात्रों का होने के कारण महाभारत काल (ई.पू. बारहवीं शताब्दी)
[8] अनुमानतः ई.पू. 376-283
[9] ई.पू. 345- ई.पू. 297
[10] यूनानी पुराकथा और 'इलियड' (होमर) के अनुसार 'ट्राय युद्ध' का समय ई.पू 1184-1194 माना जाता है। यह युद्ध ट्राय के राजकुमार द्वारा स्पार्टा की रानी हेलेन के अपहरण के कारण हुआ था। हेलेन, प्राचीन यूनान के यूरोटस नदी-तट पर बसे प्रमुख नगर-राज्य स्पार्टा के राजा मेनेलाउस की दिव्य सुन्दरी रानी थीं। ट्रॉय के राजा प्रियम के पुत्र पेरिस, उन्हें अपहृत कर ट्रॉय ले आए। इस अपमान का बदला लेने और रानी हेलेन को वापस लाने के मेनेलाउस और उसके भाई आगामेम्नन के अभियान को यूनानवासियों ने गति दी। समस्त ग्रीक राजाओं और सामन्तों की सेना एकत्र कर ट्रॉय पर आक्रमण कर दिया। दस वर्षों तक ट्रॉय नगर को घेरकर यूनानी सेना युद्ध करती रही, पर ट्रॉय की अभेद्य दीवारों को लाँघकर नगर में प्रवेश न कर सकी। अन्तत: सेनापति ओडिसियस के सुझाव से एक सौ योद्धाओं के खड़े होने लायक लकड़ी का एक खोखला घोड़ा तैयार कर नगर-द्वार पर छोड़ कर यूनानी सैनिक पीछे हटकर छिप गए। उपहार समझकर ट्रायवासी उस घोड़े को किले के भीतर ले गए। उसके भीतर छुपे योद्धाओं ने ट्रॉय पर अकस्मात आक्रमण कर दिया। भीषण युद्ध हुआ। यूनान के सबसे योग्य योद्धा एकिलीस ने ट्रॉय के प्रख्यात वीर हेक्टर (प्रियम के पुत्र) को द्वन्द्व युद्ध के लिए चुनौती दी। घमासान युद्ध हुआ। एकिलीस के भाले के प्रहार से युवा हेक्टर जमीन पर गिर पड़ा और सिर पटक-पटक कर आँखें बन्द कर लीं। यूनानी वीरों ने ट्रॉय पर अधिकार कर लिया। एक भयानक अन्त के साथ युद्ध समाप्त हुआ। उल्लेखनीय है कि यूनान के प्राचीनतम कवियों में परिगणित होमर, यूरोप के सबसे महान कवि हैं; अपने समय की सभ्यता-संस्कृति की अभिव्यक्ति के प्रबल उद्गाता हैं। वे दृगान्ध थे, पर दिव्य-दृष्टि के स्वमी थे। वैश्विक ख्याति के उनके दो महाकाव्य 'इलियड' और 'ओडिसी' हैं। उनका काल ई.पू. नौवीं-आठवीं शताब्दी से ट्रॉय युद्ध तक का माना जाता है।
[11] बिन सँवरे बालोंवाली, वेणी सँवारने के लिए दुश्शासन की छाती के खून की प्रतीक्षा कर रही द्रौपदी।
[12] समुद्री यात्रा के अनुभवी और उपनिवेशवादी जहाजी क्रिस्टोफर कोलम्बस का जन्म जेनोआ गणराज्य बताया जाता है, जो यूनान के बाद यूरोप के दूसरे प्राचीनतम वैभवशाली राष्ट्र इटली का मुख्य नगर था। वे अदम्य साहसी और महत्त्वाकांक्षी थे। उनकी राय में किनारा छोड़कर आगे बढ़े बिना कोई अपने सपनों का समन्दर पार नहीं कर सकता। उनकी खोजी वृत्ति की लाख प्रशस्ति हो, अमेरिकी लोग बेशक उनके सम्मान में 'कोलम्बस दिवस' मनाएँ, पर वे घोर कदाचारी, नृशंस क्रूर और बधिक स्वभाव के थे। जहाँ पहुँचते थे, स्थानीय लोगों को दास बनाकर बेचने लगते थे। उनकी इस वृत्ति की शिकायत के कारण स्पेन के राजा कैस्टिले के शासन-काल का एक शूरवीर अधिकारी, फ्रांसिस्को फर्नाण्डीज डी बोबाडिला (सन् 1448-1502) ने उन्हें हिस्पानियोला द्वीप से गिरफ्तार भी किया था। भारत की खोज करने की मंशा से वे 3 अगस्त 1492 को तीन जहाजों के साथ स्पेन से रवाना हुए, पर राह भटक गए, और एकहत्तर दिनों की यात्रा के बाद 12 अक्टूबर की रात जिस धरती पर उतरे, वह इण्डिया नहीं, दक्षिण अमेरिकी द्वीप था। उन्होंने वहाँ के निवासियों को इण्डियन कहा, आज भी दक्षिण अमेरिका के मूल निवासी रेड इण्डियन कहलाते हैं। उस यात्रा में हिस्पानियोला द्वीप से अपार धन बटोरकर स्पेन लौटे। चौथी यात्रा (9 मई 1502 से नवम्बर 1504) में मौसम-गणना के आधार पर भयकंर तूफान आने की उनकी भविष्यवाणी की उपेक्षा कर बोबाडीला जहाजों का काफिला लेकर चल पड़े, उनके सत्ताइस जहाज तूफान में डूब गए, जेवरों से लदा जहाज तो स्पेन के पास पहुँचकर डूब गया।...कदाचित उनके क्रूर पापों का ही परिणाम हुआ कि जीवनभर यात्रा करनेवाले कोलम्बस कब्र में भी चैन से नहीं रह पाए। मलेरिया जैसी कई बिमारियों की जकड़ में आ जाने के कारण पचपन वर्ष की आयु में 20 मई 1506 को उनकी मृत्यु के बाद उनके अवशेष स्पेन के कार्तूजा मठ में रखे हुए थे। सौ साल बाद उन्हें सैन्तो दोमिंगो में दफन किया गया। सन् 1795 में हिस्पानियोला पर फ्रांस का आधिपत्य हो जाने पर कब्र खोदकर उनका अवशेष क्यूबा में दफनाया गया। सन् 1897 में अमेरिका-स्पेन युद्ध के बाद क्यूबा के स्वतन्त्र होने पर उनकी कब्र फिर खुदी और इसे स्पेन के सेविले के कैथेड्रेल भेज दिया गया। कब्र का कोई स्थाई साक्ष्य नहीं है। कब्र खोद-खोदकर उन्हें कई बार अलग-अलग जगहों पर दफनाया गया।
[13] द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वर्चस्ववादी अहंकार के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस जैसी दो महाशक्तियों के बीच पल रहे तनाव को शीत-युद्ध माना जाता है, जिसके अन्त की औपचारिक घोषणा अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश तथा सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाचोव की सहमति से हुई। यह दो विरोधी विचारधाराओं -- पूँजीवाद और साम्यवाद का शस्त्रविहीन संघर्ष, या कूटनीतिक उपायों पर आधारित वाग्युद्ध था।
[14] सोवियत विघटन का सम्बन्ध मिखाइल गोर्बाचोव (सन् 1931-2022) के कार्यकाल से है। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव (सोवियत संघ का सर्वाधिक शक्तिशाली पद) का पदभार उन्होंने 11 मार्च 1985 को सँभाला। पाँच बरस बाद 15 मार्च 1990 को वहाँ राष्ट्रपति पद सृजित कर वे सोवियत संघ के राष्ट्रपति भी बने और 25 दिसम्बर 1991 तक दोनों पदों पर आसीन रहे। वे सोवियत संघ के पहले और अन्तिम राष्ट्रपति थे। देश की आर्थिक दशा सुधारने और साम्यवाद को सकारात्मक दृष्टि से मजबूत बनाने के लिए उन्होंने उस्कोरेनी (वेगवृद्धि), पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) और ग्लास्नोस्त (खुलापन) की विशिष्ट नीतियाँ अपनाईं, पर इस खुलेपन, अर्थात् खुली बहस का दुरुपयोग सोवियत संघ में गुटबाजी और संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति में होने लगा। कुछ गणराज्यों के अधिक स्वायत्त होने और कुछ के पूरे स्वतन्त्र होने की बेताबी के कारण वहाँ का मुखर अलगाववाद हिंसात्मक हो उठा, घोर अराजकता छा गई। गोर्बाचोव ने 25 दिसम्बर 1991 को राष्ट्रपति पद त्याग दिया, 26 दिसम्बर 1991 को सोवियत संघ विघटित होकर पन्द्रह स्वतन्त्र गणराज्यों में बँट गया। भूलें बेशक हुई हों, पर सोवियत विघटन का पूरा दायित्व गोर्बाचोव मात्र पर थोपना उतना मुनासिब भी नहीं है। समाजवादी व्यवस्था मजबूत करने के लिए देश में समाजवादी मनुष्य एवं संस्कृति की बड़ी जरूरत होती है, जिसका प्रयास दुर्योगवश सोवियत संघ में स्थापना काल से ही नहीं हुआ। इतना अवश्य हुआ कि स्टालिन (सन् 1878-1953) के शासन-काल (सन् 1941-1953) में साम्यवाद की रक्षा के लिए जैसी दमनकारी नीति अपनाई गई, उससे आमजन में बहुत आक्रोश था। गोर्बाचोव की उदार नीतियों में उसी आक्रोश को व्यक्त करने का अवसर मिल गया। बहरहाल... सोवियत विघटन के परिणामस्वरूप एकमात्र महाशक्ति कहलाने की अमेरिका की लालसा पूरी हो गई। तीसरी दुनिया के देशों में नवउपनिवेशवाद के खतरे बढ़े। पूरी दुनिया को अपने बाजार का उपभोक्ता बनाने के आखेटकों ने राय बनाई कि वैचारिक विकास का अन्त हो गया और अमेरिकी प्रभुत्व से सम्पोषित पूँजीवाद का वर्चस्व-काल आ गया। विश्व में बाजार की अर्थव्यवस्था अब उनकी मुट्ठी में है।
[15] मेक्सिको की बत्तीस संघीय इकाइयों में से एक स्वतन्त्र और सम्प्रभु इकाई 'वेराक्रूज़' है। मैक्सिको-खाड़ी के समुद्र-तट के एक बड़े हिस्से पर वेराक्रूज़ का आधिपत्य है। पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में यहाँ स्पेनिस उपनिवेशकों द्वारा अत्यधिक संख्या में गुलाम बनाए गए, जिनमें से ढेर सारे इन पहाड़ों की ओर भाग गए। गैबॉन के एक मुक्तिकामी विद्रोही गुलाम गैस्पर याँग के नेतृत्व में लड़ा गया युद्ध यहाँ का स्मरणीय युद्ध है। जनवरी 1609 में स्पेन के वायसराय ने याँग के विद्रोहियों को कुचलने की भरसक कोशिश की, पर घनघोर युद्धों के बाद अन्तत: बातचीत से युद्ध-विराम की सहमति बनी। तीन सौ बरस बाद, सन् 1918 में, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, याँगवासी निचले इलाकों के करीब एक शहर में जाने और कुछ स्थानीय प्राधिकरण को स्वीकार करने पर सहमत हुए। यह शहर पूर्व में गुलाम बनाए गए लोगों के पहले स्वतन्त्र शहर के रूप में, 'याँग' नाम से सन् 1956 से जाना जाता है।
[16] ई.पू. पाँचवीं-छठी शताब्दी में एजियन सागर के निकट के लगभग क्षेत्रों पर फारस के बादशाहों का आधिपत्य था। इन क्षेत्रों में अधिकतर यूनानी उपनिवेश थे। डेरियस प्रथम (ई.पू. 522-ई.पू. 486) के बादशाह बनने के बाद इन क्षेत्रों में विद्रोह-स्वरूप जनता से कर मिलने बन्द हो गए। उन्हें सबक सिखाने के लिए डेरियस, बड़ी सेना लेकर एथेंस के उत्तर में स्थित मैराथन तक पहुँच गया, और उस मैराथन-युद्ध में पराजित हुआ। इस उपलब्धि का सुखद समाचार लेकर फीडिपीडिज नामक एक व्यक्ति चालीस किलोमीटर दूर एथेंस तक दौड़ता चला गया और थकान के कारण मर गया। ओलिम्पिक खेलों में मैराथन दौड़ आज उन्हीं की स्मृति में आयोजित की जाती है।
[17] दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक मेसोपोटामिया सभ्यता इन्हीं दोनो नदियों की घाटियों में पनपी। ये नदियाँ इन सभ्यताओं को परिभाषित करती हैं। दजला मेसोपोटामिया की पूर्वी ओर और फरात पश्चिमी ओर बहती थी।