आधुनिकता के चकाचौंध में दिग्भ्रान्त समकालीन सामुदायिक जीवन और अपनी समृद्ध परम्परा का तात्त्विक बोध रखनेवाले युवा कला-समीक्षक देव प्रकाश चौधरी आजीविका के रेले में पेशे से तो पत्रकार हो गए, पर स्वभाव से एक जिम्मेदार चित्रकार हैं। रंग और रेखाओं की उनकी समझ की पहचान बीते दशकों में प्रकाशित-चर्चित अनेक चित्रात्मक पुस्तकों में देखी जा सकती है। चित्रकला सम्बन्धी उनकी समीक्षाओं एवं समीक्षात्मक पुस्तकों में भी उनकी यह समझ उजागर हुई है। रंग-रेखाओं की समग्र व्यंजना न्यूनतम शब्दों से प्रकट करना उनकी कला-समीक्षा की विशिष्ट शैली है। एक मितभाषी कला-समीक्षक के रूप में उनकी पहचान अनुशीलनपरक लेखन के आरम्भिक दिनों में ही हो गई थी। विश्वविख्यात चित्रकार एम एफ हुसैन और बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में वैश्विक ख्याति अर्जित करनेवाली चित्रकार अर्पणा कौर की सर्जनाओं पर उन्हें विशेषज्ञता हासिल है। अर्पणा कौर की चित्रकारी पर केन्द्रित 'जिसका मन रंगरेज' उनकी ताजा पुस्तक है। इस पुस्तक का अवगाहन एक साथ गहन जीवन-दृष्टि के चार-चार अनुभवों का सुख देता है। भावकों का प्रज्ञालोक इसमें कई दृष्टियों से परिपुष्ट होता है--एक ओर सुप्रसिद्ध पंजाबी लेखिका अजीत कौर का जीवन-संघर्ष, दूसरी ओर सहचरी जैसी माँ के साथ विकसित अर्पणा कौर के कलाकार मन की निर्माण-पद्धति, तीसरी ओर अजीत-अर्पणा-संवाद में दिल्ली की बनती-बिगड़ती छवियाँ, और चौथी ओर इन सबके सुदक्ष संयोजन द्वारा पुस्तक को समग्रता देनेवाले देव प्रकाश चौधरी का कौशल...वस्तुत: यह पुस्तक चित्रकारी की समझ के लिए सुनियोजित चतुर्स्तम्भ पर तैयार एक मनोरम मण्डप है।
उल्लेख सुसंगत होगा कि अर्पणा कौर का जीवन उनके अकेले का जीवन नहीं है, उनके जीवन के एक-एक पल में अजीत कौर के एकाकी जीवन के दुर्दमनीय संघर्ष के समग्र अनुभव समाहित हैं। गरज यह नहीं कि अर्पणा का जीवन दोहरा है, अपनी सम्प्रेषणीयता में 'दोहरा' शब्द इधर विचित्र नकारात्मकता से भर गया है। गरज यह कि अजीत-अर्पणा ने साथ मिलकर एक समेकित जीवन जीया है। अर्पणा साथ न होतीं, तो अजीत कौर सम्भवत: संघर्ष के किसी मार्चे पर टूट जातीं; या फिर अर्पणा का लालन-पालन अजीत कौर के संघर्षों के बीच न हुआ होता, तो सम्भवत: वे वह नहीं होतीं, जो हैं। अजीत कौर की धारणा में पहले वे अर्पणा की माँ थीं, अब अर्पणा उनकी माँ हैं। अर्पणा कौर रचित चित्रों और माँ-बेटी के सुशृंखल संवाद के सूक्ष्म समायोजन से इस दार्शनिक पहलू को लेखक ने सूक्ष्मता से भासित किया है।
अपने जीवन एवं परिवेश की अनुभूतियों से कलाकार जो जीवन-दृष्टि अर्जित करता है, उनका पूरा सृजन-सन्दर्भ उसी से संचालित होता है। अर्पणा कौर की जीवन-दृष्टि में आत्मानुभूति के साथ-साथ घनघोर जीवन-संघर्ष से जूझती उनकी वीरांगना जननी अजीत कौर के एकाकी संघर्ष का भी योग है। देश-देशान्तर की कई पद्धतियों, परम्पराओं, आधुनिकताओं से परिचित होकर भी वे सदैव अपनी रचनात्मकता में भारतीय मूल्यों के अनुशीलन के लिए व्यग्र दिखती हैं, तो इसका परम-चरम श्रेय उनके जीवन-दर्शन की इसी पृष्ठभूमि को जाता है। उनकी चित्रकारी के प्रति देव प्रकाश चौधरी की अनुरक्ति का कारण भी सम्भवत: यही हो; क्योंकि उनके चिन्तन-मनन का सम्बल भी भारतीय मूल्यवत्ता के प्रति एकनिष्ठ अनुराग ही है।
विदित है कि भाषा स्वयं में, विचारों एवं भावों की अभिव्यक्ति की एक प्रतीक-व्यवस्था है। साहित्यिक रचनाओं में यह व्यवस्था वर्णों, शब्दों, पदों, वाक्यों के कौशलपूर्ण संयोजन से निर्मित होती है, जबकि चित्रकारी में चित्रकार के चिन्तक-मन की क्रियाशीलता रंगों-रेखाओं के सन्तुलित समन्वयन से दर्ज होती है। स्पष्टत: रंगों और रेखाओं की भी अपनी भाषा होती है; पर इसके अर्थ-लोक में जनसामान्य का प्रवेश सहज नहीं होता। भाषिक प्रचलन के कारण साहित्यिक रचनाओं का तादात्म्य तो जनसाधारण का भी हो जाता है; रंगों और रेखाओं की प्रतीकात्मकता की गाँठें सहजता से ढीली न हो पाने के कारण चित्रकारी से उनका जुड़ाव कठिन होता है। चित्रकार के सूक्ष्म जीवन-दर्शन की समझ तो दूर, अधिकांश लोग चित्रों के सामान्य संकेतों को भी नहीं पकड़ पाते। यह विस्मयकर है। इस बात से कम लोग अवगत हैं कि लिखित साहित्य की उनकी समझ सुने-पढ़े शब्दों-वाक्यों के कारण नहीं, उनके ज्ञान-लोक में बने बिम्ब के कारण होती है। सुने-पढ़े सारे शब्द उनके ज्ञान-लोक में एकत्र होकर बिम्ब रचता है, यह बिम्ब वाक्य के पूरा होते ही प्रकट हो जाता है, समझ उसी बिम्ब से स्पष्ट होती है। चित्रकारी में यह बिम्ब बनी-बनाई रहती है। फिर भी चित्रों तक जनसामान्य की पहुँच कम हो पाती है। वस्तुत: रंगों और रेखाओं की निजी प्रतीकात्मकता के कारण वहाँ सहजता से बिम्ब की गाँठें ढीली नहीं होतीं, फलस्वरूप सम्प्रेषण जटिल हो जाता है। देव प्रकाश चौधरी की पुस्तक 'जिसका मन रंगरेज' से इन जटिलताओं की सरहदें टूट-बिखर गईं। साधारण कला-प्रेमियों के लिए भी अब चित्रों के रंगों-रेखाओं में ध्वनित रूपकों को समझना, अर्पणा कौर के चिन्तन का मर्म जानना आसान हो गया। रंगों की भाषा समझने की मेरी दक्षता निस्सन्देह सन्देहास्पद है, किन्तु इस पुस्तक से मिले संकेतों ने उनकी चित्रकारी के विराट क्षितिज को देख पाने की दृष्टि साफ कर दी है। रंगों की उज्ज्वलता और रेखाओं के संचरण की व्यंजना समझना सचमुच सुलभ हो गया है। 'आकारों से पूरे एक संसार में' अर्पणा कौर की जीवन-दृष्टि समझ आने लगी है। उनके मानवीय सरोकार और दायित्वबोध में सामाजिक चिन्ता के स्वरूप स्पष्ट होने लगे हैं। अर्पणा की चित्रकारी में लोगों को 'स्वान्त:सुखाय' ही नहीं; बुद्ध-कबीर-नानक-सोहनी के समुज्ज्वल प्रेम और गतिमान ऊर्जा के रूपक दिखने लगे हैं, पतनशील मानवीयता को सँवारने की प्रेरणा मिलने लगी है।
'जिसका मन रंगरेज' पुस्तक एक बार फिर से प्रमाणित करती है कि विराट मानवीय उद्देश्यों से बने चित्रों को समझने के लिए विवेकशील कला-समीक्षा की बड़ी जरूरत होती है। सुविख्यात भारतीय चित्रकार अर्पणा कौर (सन् 1954) इस कृति के केन्द्रीय चरित्र हैं। उनके चित्रों की प्रदर्शनी सन् 1974 से ही दुनिया भर की चित्रशालाओं (आर्ट गैलरीज) में लगती रही हैं, समीक्षाएँ भी होती रही हैं। पर उनके चित्रानुराग की परिपुष्टि-प्रक्रिया और सृजन-चिन्तन पर इस तरह एकाग्र सम्भवत: यह पहली पुस्तक है, जिसमें उनकी सृजन-युक्तियों के कई अनछुए पहलू उजागर हुए हैं। ऐतिहासिक-पारम्परिक धरोहरों के रूपक से उनके चित्रों की व्यंजना विराट और बहुआयामी हो जाती है। आधुनिक-प्रगतिशील-समकालीन कही जानेवाली जन-क्रियाओं की विसंगतियों को वे इन रूपकों द्वारा इस तरह रेखांकित करती हैं कि प्रमाता उद्बुद्ध हो जाते हैं, सर्जक की जनसंवेदी प्रतिबद्धता निखर उठती है। इन प्रतीकों से वे कोई कलात्मक वर्चस्व फैलाने, या प्राचीन गाथाओं का पुर्सृजन करने की चेष्टा नहीं करतीं; बल्कि उन रूपकों की मुखरता से आधुनिक दिग्भ्रान्ति मिटाने का उद्यम करती हैं। कला-मर्मज्ञ यशवन्त व्यास की राय युक्तिसंगत है कि उनके चित्रों के अभिमन्त्रित रंग कुछ इस तरह अपनी परम्परा का पुनराविष्कार करते हैं, जिसमें परम्परा की आवाज सुन पाने में सक्षम व्यक्ति ही उनसे संवाद कर सकते हैं। गौरतलब है कि अपनी परम्परा से मूलोच्छिन्न मनुष्य तत्त्वत: उखड़े हुए पेड़ होते हैं, जिनका धराशायी होना सुनिश्चित है। अर्पणा जनसामान्य को इन आशंकाओं से सचेत करती हैं।
भारतीय चित्रकारों में अर्पणा कौर की प्रसिद्धि वस्तुत: वैसे एकनिष्ठ चिन्तक की है, जो अपने पारम्परिक और देशीय रूपकों से समकालीन सन्दर्भों का परिष्कार करती हैं। सचाई है कि चिन्तक हुए बिना किसी व्यक्ति का कलाकार होना असम्भव है। हर रचना अन्ततः कलाकार के गहन चिन्तन की प्रस्तुति होती है। वक्तव्य द्वारा अपने चिन्तन के जिन सद्पक्षों से कलाकार औरों को सहमत नहीं कर पाता, उनकी वेदनाएँ रचना में मुखर होती हैं। रंगों-रेखाओं में अभिव्यक्त चिन्तन का सम्प्रेषण कई बार भावकों के दुर्बल-बोध के कारण बाधित भी होता है, पर सम्प्रेषण की ऐसी बाधा लिखित साहित्य में भी आती रही है; आजादी के बाद से ही। गत शताब्दी के छठे दशक में हिन्दी के विशिष्ट कवि धूमिल ने अपनी कविताओं में इसका संकेत प्रखरता से दिया था; भूख और भाषा के बीच की दूरी तय नहीं होने से मनुष्य और पशु का भेद मिट जाने का संकेत किया था। तथ्य है कि प्रश्न और प्राश्निक सत्तारूढ़ व्यवस्था की दृष्टि में अवांछित प्रसंग होते हैं; उन्हें चाटुकार या आदेशपालक पसन्द आते हैं; सलाहकार नहीं। इसलिए सर्वप्रथम भूख उगाकर प्रश्नाकुल जनजीवन का साहस छीना गया, फिर भाषा को निष्प्रभ बनाकर प्रश्न करने का माध्यम। कालक्रम में भाषा की ऐसी दुर्गति हुई कि शब्द-बिम्ब-प्रतीक...सब निष्प्रयोजक होने लगे। मगर चित्र तो स्वयं बिम्ब है, उसके रंगों और रेखाओं की रूपकता निरन्तर प्रभावी रही। इसके भावकों की संख्या निश्चय ही कम है, किन्तु शुरुआती दौर में जल-तल पर और बाद में आइने में बिम्ब देखने के अनुरागी जनसमूह चित्रों से परांग्मुख रहें, ऐसा हो नहीं सकता।
इस पुस्तक में चित्रकला की सूक्ष्म व्याख्या के साथ-साथ वर्तमान भारतीय समाज की बदरंग छवियों-नीतियों के सूक्ष्मतर संकेत हैं। प्राथमिक पृष्ठ पर अर्पणा कौर की छह पंक्तियों का पद--जह मात-पिता सुत मीत ना भाई/मन उहाँ नाम तेरे संग सहाई/जह महा भयान दूत जम दले/तो केवल नाम संग तेरे चले/जह मुस्कल होवे अत भारी/हर का नाम खिन मायें उधारी--ऊपरी तौर पर वाहेगुरु का महिमा-गान बेशक लगे, पर इसमें उनकी जीवन-दृष्टि और समाज-दृष्टि भी रेखांकित है, जिसके रूपक देव-पितर-साधु-सन्त के अलावा उनकी कला-साधना को भी द्योतित करते हैं। ये शब्द कई सन्दर्भों के साथ कला में उनकी तल्लीनता और मानवीय पक्षधरता को भी उजागर करते हैं।
इस कृति के लेखक देव प्रकाश चौधरी का मितभाषीपन प्रमुखता से लक्षित है। कला-समीक्षा में न्यूनतम शब्दों से अपनी बात कहकर पीछे हो लेना उनका स्वभाव है। शब्दों से कहीं अधिक विमर्श उन्होंने चित्रों के समायोजन और उनके मूल्य-बोधित (वैल्यू लोडेड), सारगर्भित कविताई एवं टिप्पणियों से तथा चित्रों के अनुशीर्षकों (कैप्शन्स) से प्रकट किए हैं। यह कौशल भावकों की चेतना को उद्बुद्ध करता है, चित्रकारी की दार्शनिकता और सूक्ष्म पृष्ठभूमि निखर उठती है। यहाँ लेखक की मंशा अपने बड़बोलेपन को उजागर करने के बजाय कला को प्रमुखता देने की होती है। चित्रों के संयोजन और प्रस्तुति में भी उन्होंने बड़े कौशल से अपना मन्तव्य समाहित किया है। शब्दों से अधिक बातें उन्होंने अपने कौशल में डाल दी है। उन्होंने अर्पणा कौर के चित्रों का ऐसा क्रमवार संयोजन किया है कि चित्रकार के बहुआयामी जीवन-दर्शन सम्पूर्ण संवेग से खिल उठे हैं। नेपथ्य में रहकर तात्त्वकि कार्य करना उनका शाश्वत आचरण है। अत्यन्त संकोची स्वभाव के लेखक देव प्रकाश के पास संक्षिप्ति में ही अपनी धारणाएँ दीप्त और मुखर करने के कई कौशल हैं। वे कहना जानते हैं, बोलना नहीं। इस पुस्तक में उन्होंने अपने उसी विलक्षण कौशल का उपयोग किया है। अपनी उपस्थिति का कोलाहल फैलाने के बजाय हर जगह उन्होंने आलोच्य चित्रकार, उनकी रचना-दृष्टि और उनकी रचनाओं को आगे रखा है। उन्हें मालूम है कि क्या कहना चाहिए और कितना कहना चाहिए। प्रयोजन से अधिक कुछ भी कहने की इच्छा उन्हें नहीं होती। अल्प-कथन की सूत्रात्मकता उनकी कला-समीक्षा की परख भी है, पहचान भी। साहित्य के विशेषज्ञ मानते आए हैं कि आलोचना रचना का शेषांश होती है, देव प्रकाश की कला-समीक्षा कई बार ऐसी प्रतीति देती है कि रचना में ही आलोचना का सर्वांश मिल जाता है। अनुशीर्षक (कैप्शन्स) मात्र से वे कई बार कृति की पूरी व्यंजना प्रकट कर देते हैं।
अर्पणा कौर से हुए संवाद में पूछे गए संगठित प्रश्न भी अपने आयत में एक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं, चित्रकार के अनुभव-संसार को बड़ी स्पष्टता से सामने लाते हैं। लक्ष्योन्मुख प्रश्न से उत्तरदाता की गहन अनुभूतियों का मर्म उजागर करना बड़े कौशल की बात होती है। अर्पणा के चित्रों में दर्ज वृन्दावन की विधवाओं एवं महानगर की त्रासदी के दर्द, हरियाली की चाह और स्त्रियों की आजादी के विषय-वैविध्य के हवाले से जब देव प्रकाश चौधरी ने उन्हें 'फेमिनिस्ट' की संज्ञा दी, तो तत्काल वे खण्डन की मुद्रा में आ गईं। अपनी चित्रकारी की समग्र यात्रा का सार प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि मेरी कला के विषयों का दायरा व्यापक है--उन्नीस सौ सत्तर के दशक में मेरे काम का मुख्य विषय 'काल' (टाइम) था। 'काल' किसी महिला के सोचने के तरीके को बाँध नहीं सकता; पर सचाई है कि 'काल' से सामना हर किसी का होता है। उन्नीस सौ अस्सी के दशक की 'वुमन एण्ड इण्टीरियर्स' शृंखला के चित्र महिलाओं और उनके अन्तर्जीवन से जुड़े थे। बाद के दशक की 'द राइट' शृंखला के केन्द्र में पुरुष थे, जो उस दौर के साम्प्रदायिक हिंसा के जिम्मेदार थे, वहाँ महिलाएँ नदारद थीं। युद्ध, हिंसा, आगजनी...महिलाओं की प्रकृति नहीं होती। उन्होंने साफ-साफ कहा कि भारत में दो समय--भूत एवं वर्तमान साथ-साथ रहते हैं। यहाँ उनका आशय भारतीय नागरिक के अतीत-मोह के साथ आधुनिक संसाधनों की जुगलबन्दियों से है; जिसका संकेत उन्होंने एक बैलगाड़ी पर ले जा रहे कार के ऊपरी हिस्से के दृश्य में दिया। उन्होंने स्पष्ट किया के ऐसे दृश्य दुनिया में अन्यत्र नहीं दिख सकते। उनकी राय में ऐसे दृश्य रोचक होने के साथ-साथ रचनात्मक तनाव भी पैदा करते हैं। बुद्ध, नानक, कबीर, पर्यावरण सम्बन्धी अपने चित्रों के सन्दर्भ से उन्होंने स्पष्ट किया कि ये मेरे प्रिय विषय हैं, जिन्हें स्त्रीवादी खाते में नहीं रखा जा सकता। उन्होंने स्पष्ट कहा कि मैं एक महिला हूँ और यह मुझे पसन्द है। एक महिला एक ही समय में अपने घर के बारे में, लोगों के बारे में, घर में काम करने वालों के बारे में सोचती है। मेरे अधिकतर विषय स्त्रियों से सम्बन्धित नहीं हैं, मुझे फेमिनिस्ट कहना सही नहीं है।
स्त्रीवादी होने के आरोपण पर अर्पणा का यह प्रतिरोध स्त्रीवादी धारणा की कोई निन्दा नहीं है; वस्तुत: वे स्पष्ट करना चाहती हैं कि उन्हें बेमतलब किसी साँचे में सीमित न किया जाए। बुद्ध, नानक, कबीर की वैचारिकता पर विश्वास रखनेवाली, सोहनी के जीवन-संघर्ष और प्रेम में दिखाई साहसिकता से अनुराग रखनेवाली, पर्यावरण की दुर्दशा और वृन्दावन की विधवाओं की वेदना से व्यथित होनेवाली और स्त्री-अस्मिता की सूक्ष्मता की पहचान करनेवाली चित्रकार अर्पणा कौर अपने विचारों को किसी लिंगवादी दृष्टि के कोष्ठक में नहीं रखना चाहतीं। उनकी चित्रकारी की सबसे बड़ी कसौटी मनुष्यता है।
इस पुस्तक में देव प्रकाश चौधरी ने अर्पणा के रंगों की मुखरता-विवर्णता, उग्रता-शालीनता, सघनता-विरलता, रेखाओं के भंजन-संयोजन...सारी स्थितियों की समझ के रास्ते सहज बना दिए हैं। सचमुच यह पुस्तक चित्रों के समझ की पिटारी खोलने की एक कामयाब कुंजी है। लेखक ने सही कहा कि अर्पणा के चित्रों में रंगों के हर संस्करण एक नई सृष्टि करते हैं। रंग उनके यहाँ पुकारते-से प्रतीत होते हैं, इस पुकार की अनदेखी असम्भव है। सामुदायिक जीवन में जनहितैषी वातावरण और मानवीय सद्भाव स्थापित करनेवाली उनकी चित्रकारी की ओर भावकों की अनुरक्ति इस पुस्तक के कारण सुनिश्चित है।
पुस्तक के प्रथम आन्तरिक पृष्ठ पर सन् 2014 के चित्र 'चरखा' का अनुशीर्षक देव प्रकाश ने दिया--'काला रंग भी साँस लेता है/बनाता है एक रिश्ता तारीखों से...चुप्पी का दरवाजा टूटता है।' यह अनुशीर्षक चित्र के रूपकों की विराट व्यंजना में झाँकने का मार्ग प्रशस्त करता है। सुधीजन स्मरण करें कि सन् 2014 का समय सामाजिक-राजनीतिक घालमेल का वैसा समय था, जब सारे दल महात्मा गाँधी के विचारों-सिद्धान्तों की स्वेच्छया व्याख्या कर अपने हितसाधन में तल्लीन थे। इस चित्र में अर्पणा कौर ने रेखांकन तो किया चरखे का; जिसका सीधा रिश्ता या तो महात्मा गाँधी से बनता है या उनके पूर्वज कबीर से। इनके अलावा चरखा भारतीय कुटीर उद्योग और भारतीय जीवन-कला में गहरे समाया हुआ है। यह चरखा सूत कातने का एक माध्यम है, इस सूत के ताने-बाने से बने वस्त्र से मनुष्य का तन ढकता है, इज्जत-आबरू की सुरक्षा होती है, इसी वस्त्र से मनुष्य स्वयं को सभ्य समाज का नागरिक मानता है। मगर इस चरखे का चित्र गहन रक्ताभ पृष्ठभूमि पर खचित है; चरखे के चारो ओर ढेर सारे घातक औजार बिखरे पड़े हैं – तलवार, कृपाण, कटार, दराँती, त्रिशूल, फरसा, धनुष, ठेलागाड़ी... आदि। जीवन में काम आनेवाले और जीवन को तबाह करनेवाले ये सारे औजार भावकों की चिन्तन-पद्धति को कई दिशाओं में दौड़ाते हैं। चित्र के बगल में काले रंग की एक पट्टी है, जिस पर लाल रंग की दो बून्दें ऊपर से टपक रही हैं। वस्तुत: यह चित्र अपने समय के समाज की जीवन-प्रक्रिया का महाकाव्यात्मक रूपक खड़ा करता है, काले रंग से आच्छादित जीवन-दशा में साँस लेने और चुप्पी का दरवाजा तोड़ने की प्रक्रिया इसी दुर्वह स्थिति से शुरू होती है। गहन निराशा और घोर भयावह स्थितियों में भी अर्पणा कौर की कला विवेकशील आत्महित में तनकर खड़े होने की प्रेरणा देती है। वे आश्वस्त हैं कि बचे हुए रंगों और बने हुए सपनों में कोई न कोई रोशनी अवश्य होती है। यह रोशनी उनकी कल्पनाओं की फैण्टेसी नहीं, जनविवेक की शक्ति का यथार्थ है।
पुस्तक की शुरुआत में ही लेखक कहते हैं कि 'लकीर जिन्दगी का एक तजुर्बा है। किसी न किसी लकीर से घिरे हैं हम। कई बार एक लकीर पर चलते-चलते ही बीत जाती है जिन्दगी। लेकिन मन अगर रंगरेज हो तो फिर लकीर टूटती भी है। टूटी हुई लकीर खिलती भी हैं। आकार यहीं से बनते हैं...।' लकीरों के टूटने की इसी प्रक्रिया में किसी रचनाकार की रचना-दृष्टि स्पष्ट होती है, रचनाकार अपने समय को रेखांकित करता है। अपने समय और समाज के आचरणों की समीक्षा करती अर्पणा कौर की चित्रकारी को लेखक ने इसी सूक्ष्मता से उजागर किया है। उनका दावा युक्तिसंगत है कि इस पुस्तक के भावक निश्चय ही अर्पणा कौर की चित्रकारी की ओर उन्मुख होंगे। उनके चित्रों में रंग सचमुच पहले खुद को रंगता दिखता है।
अर्पणा कौर के चित्रों में स्त्री-जीवन और स्त्री-देह के कई रूप दिखते हैं। सन् 2012 (पृष्ठ संख्या-12) के एक चित्र--'ऑल इज फेयर इन लव एण्ड वार' (इश्क और जंग में सब कुछ जायज है) में हरे रंग की पृष्ठभूमि में एक पैर पर खड़ी एक निर्वस्त्र स्त्री, ढेर सारे घातक औजारों--धनुष, गदा, कृपाण, कटार, छूरा, तलवार, फरसा, भाला, बरछा, ढाल, त्रिशूल, तोप, बन्दूक, चक्र...आदि से घिरी है। स्त्री की एँड़ी से सटा एक कच्चा घट है, मुड़े घुटने के नीचे जीवन-रक्षा के लिए भागता एक पशु और उसे खदेड़कर दबोचता हुआ एक तेन्दुआ है। 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता' जैसी सूक्तियों का पाठ करनेवाले देश में सन् 2012 में जैसा जघन्य आचरण एक युवती के साथ दिल्ली में हुआ था, उसे भावक इस चित्र से मिलाकर देखेंगे तो अर्पणा कौर का सामाजिक सरोकार और मानवीय दृष्टि स्पष्ट रूप से सामने आ जाएगी। इस चित्र में स्पष्ट है कि ज्यों ही एक स्त्री अपने बारे में सोचने लगती है, उसके सामने समाज-व्यवस्था के इतने सारे व्यवधान तैनात हो जाते हैं। बचाव के लिए वह कितना भी तेज भागे, कितनी भी चतुराई और साहसिकता से सोचे, इन आयुधों, हिंस्र आक्रमणों से कैसे बचेगी? मिट्टी के कच्चे घट इस पानी में कितनी देर अपने आकार में रहेंगे? स्त्री-जीवन की सकारात्मक परिभाषा सुस्थिर करने की व्यग्रता के साथ-साथ इस चिन्तक चित्रकार अर्पणा कौर के समक्ष पूरी दुनिया की बदसूरती भी बिलखती खड़ी है। सन् 1997 में बने चित्र 'टियर्स फॉर हिरोशिमा' में उनकी वैश्विक और मानवीय चिन्ता बेचैन कर देती है, जिसमें हिरोशिमा के त्रासद आँसू को तराजू में रत्नादि से तौला जा रहा है। सन् 2004 में बने चित्र 'हार्वेस्ट' (उपज) में हरे रंग की सघनता से एक स्त्री दोनों हाथों से धागा पकड़े बैठी है, धागे के दोनों शिराओं से सस्य-श्यामला धरती के सारे उपजीव्य जुड़े हैं, किन्तु उनके पीछे आसन जमाए पुरुष के हाथ की कैंची उस धागे को काट रही है। कैंची अर्पणा के चित्रों में मुख स्थान घेरती है। उद्यमियों के आयास को कैंची द्वारा तत्परता से कुतरने की चेष्टा में तल्लीन इस समाज को सभ्य कहलाने का कितना अधिकार है?
कला संग्रहालय और कुलीन प्रदर्शनियों में जनसामान्य की पहुँच न हो पाने के अन्देशे में अर्पणा कौर ने कई सारे 'म्यूरल' भी रचे। चित्रांकन की तकनीक में इस स्पेनिश विशेषण का आम उपयोग 'भित्ति-चित्र' की संज्ञा से उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण से प्रचलन में आया। दीवारों, छतों जैसे स्थायी सतहों पर सीधे बनाए गए चित्र को 'म्यूरल' (भित्ति-चित्र) कहा जाता है। बंगलोर अन्तर्राष्ट्रीय कला महोत्सव एवं रॉरिक शताब्दी समारोह (सन् 2004) में हेब्बार-रॉरिक संग्रहालय की बाहरी दीवार पर बनाए गए अपने 'बुद्ध म्यूरल' में उन्होंने ध्यानस्थ महात्मा बुद्ध के हृदय और आसन में कुछेक कमल खिलाए, जिन्हें वैज्ञानिक विकास के प्रतीक तेजतर वाहनों की कतार ने चारो ओर से घेर रखा है और चित्रकार दोनों बाहें फैलाए मुस्कुराहट के साथ बगल में खड़ी हो गई हैं। गोया दुनिया को इस ओर आने का निमन्त्रण दे रही हों। यह निमन्त्रण किस ओर आने का है? अर्पणा इस निर्णय का दायित्व भावकों के विवेक पर छोड़ती हैं। वे अपने भावकों को बाध्य नहीं करतीं, उद्बुद्ध करती हैं, निर्णय लेने की आजादी देती हैं। उन्हें अपनी आजादी के साथ, औरों की आजादी भी पसन्द है। इस आजाद-ख्याल जीवन की प्रेरणा उन्हें अपनी माँ से मिली है। जुझारू जीवन-संघर्ष की स्रोत उनकी माँ ने उन्हें बचपन से ही इतनी आजादी दी कि पन्द्रह वर्ष की आयु में इनका नामकरण तक इन्हीं की इच्छा से किया गया। उक्त भित्ति-चित्र में एक साथ दो विपरीतमुखी चिन्ताएँ जुटाकर अर्पणा ने कई सारे दार्शनिक चिन्तन के मार्ग प्रशस्त कर दिए हैं। एक ओर ध्यानस्थ महात्मा बुद्ध के भीतर खिले कमल में शान्ति और मानवता का सम्पोषण, दूसरी ओर तेजतर वाहनों की शृंखला द्वारा मानव-जीवन को अन्ततः दुर्वह बनानेवाली आधुनिकता की बेतरतीब चिन्ताएँ। मानवता के हित में इस प्रेरणास्पद भित्ति-चित्र की कितनी भी व्याख्या की जाए, कम होगी। सन् 2008 में बने चित्र 'धरती' में गहन अन्धकार से भरी पृष्ठभूमि को भेदकर, गहरे हरे रंग की एक स्त्री छवि महात्मा बुद्ध की विश्राम मुद्रा में प्रकट हुई है; वक्षों के बीच नृत्य-मुद्रा में एक स्त्री, उदर-भाग में ध्यान-मुद्रा में महात्मा बुद्ध, नाभि-योनि-प्रदेश के नीचे एक सन्त एवं कई सांघातिक औजार, जाँघों-घुटनों-टखनों के नीचे बिखरे पड़े आयुध और नर-कंकाल के टुकड़े, नीचे की काली सतह पर भिन्न-भिन्न दुरवस्थाओं में लुढ़के हुए ढेरो स्त्री-पुरुष, पार्श्व की काली पृष्ठभूमि में ज्योति और हरीतिमा उगाती उस स्त्री की बाँह और मुट्ठी...। इतनी भयावह स्थितियों के बावजूद इस चित्र में पौधों के वर्द्धिष्णु ज्योति की आभा घनघोर दुराशाओं में भी आशान्वित चेतना का बोध कराती है। जिसे सूक्ष्मता से देखने की जरूरत है। इन्हीं संकेतों के कारण देव प्रकाश चौधरी उनके चित्रों के खालीपन में भी कोई बड़ी व्यंजना ढूँढते हैं और कहते हैं कि रंग, जब चाहे वसन्त होने का दावा कर सकता है।
सन् 1993 के उनके चित्र 'बॉडी इज जस्ट ए गार्मेण्ट' (शरीर एक वस्त्र मात्र है) में उन्होंने जीवन के अनेक दार्शनिक पहलुओं को उजागर किया है। एक भूरे रंग के कैनवास पर काले रंग का एक कुर्ता लटक रहा है; कुर्ते की परिसीमा में स्त्री-पुरुष आकृतियों के समायोजन से मनुष्य का आकार गढ़ने का उद्यम, उस आकार की बाँह, कमर, हाथ, गर्दन, जाँघादि में वस्त्राभूषणों की तरह लटके मनुष्य की विभिन्न मुद्राएँ...। उसके ठीक नीचे भूरे रंग की पृष्ठभूमि पर खुली एक किताब, किताब के आगे आग की लपटें, चारो ओर फैले मनुष्य के कटे हुए हाथ-पैर। ये दोनों चित्र जीवन की नश्वरता, चरम दार्शनिकता और शाश्वतता की पहचान से दूर भागते मनुष्य की नृशंसता का अनुशीलन करते हैं। बीते दशकों में सदा-सदा के लिए धरती से मनुष्यता गायब कर देने की जैसी क्रियाएँ होने लगी हैं, उस पर चित्रकार की चिन्ता व्यग्र करती है। उनकी ऐसी चिन्ताएँ 'धरती' शृंखला के चित्र में मर्माहत करती है। सन् 2010 में बने इस शृंखला के चित्र में धरती के प्रतीक एक स्त्री शरीर के अंग-भंग से जनसामान्य की दायित्वहीनता एवं स्वार्थपरता के सम्मोहन में नैतिकता के परित्याग, चेतनशून्यता और लापरवाही को प्रहारक ढंग से उजागर किया गया है। सफेद पृष्ठभूमि में मात्र रेखाओं द्वारा धरती पर खड़े किए गए दो भवन-बुर्जों के कारण रक्तिम पंख और रंग से खण्डित स्त्री शरीर के वक्ष से ऊपर के अंग एक बुर्ज में, कमर से नीचे के अंग दूसरे बुर्ज में समाए हुए हैं। इस चित्र में रंगों की मितव्ययिता और रेखाओं का आधिक्य है। देव प्रकाश का कथन यहाँ भी परिपुष्ट होता है कि अर्पणा के चित्रों में रिक्तता भी आवाज देती है। कंक्रीट के जंगल बनाते समय हमारे समाज के लोग धरती को जिस निर्दयता से आहत कर रहे हैं, उसके अनेक प्रसंग अर्पणा कौर की चित्रकारी में दिखाई देते हैं, जिसकी दिव्य व्याख्या होनी चाहिए।
उल्लेखनीय है कि स्वातन्त्र्योत्तरकालीन स्वदेशी शासन-व्यवस्था द्वारा प्रचारित भाषिक-द्रोह के कारण भाषिक व्यंजना निष्प्रभ होने लगी थी। नियोजित पद्धति से भाषिक क्षमता को कमजोर कर आम नागरिक को निर्वाक् बनाया बनाया जा रहा था, उनकी जुबान काटी जा रही थी। अनाज-पानी और व्यवस्था के स्वघोषित देवतागण अंग्रेजों की निष्प्रयोजक क्रूर-कथा सुना-सुनाकर जनता के चिन्तन और चेतना पर काबू पाने में तल्लीन थे। उन क्रूर कथाओं ने राष्ट्रप्रेमी भारतीय नागरिक को ऐसा उलझाया कि उन्हें राष्ट्र और अपनी वास्तविक स्थिति का कभी भान ही नहीं हुआ। ऐसे प्रवंचित समुदाय के नागरिकों के लिए रंगों की भाषा समझना तनिक कठिन अवश्य है; किन्तु तय है कि सघन मानवीय सरोकार से समृद्ध किसी चित्रकार के रंग इतने भी अबूझ नहीं होते कि उसकी समझ बने ही नहीं! वातावरण में फैली हवा के गति की भाषा, पादपों की फुनगी के झूमने की भाषा, पशुओं के रँभाने की भाषा, पक्षियों के चहचहाने की भाषा समझने का दावा करनेवाला समाज, एकनिष्ठ अनुराग से किसी चित्र के समक्ष आए, और उन्हें रंग-रेखाओं की भाषा समझ न आए, ऐसा कैसे होगा! अर्पणा कौर के चित्र और उनकी चित्रकारी पर देव प्रकाश चौधरी द्वारा लिखी गई अनुशीलनपरक पुस्तक 'जिसका मन रंगरेज' आम नागरिक से इसी अनुराग की माँग करती है; अपने लिए नहीं, भावकों के निजी आत्म और मानवीयता के लिए।
हर कलाकार की तरह अर्पणा के यहाँ भी रंग जगह घेरते हैं, पर इनके यहाँ रंगों का होना एक घटना है, जो हमारी परम्परा की नम्यता और ग्रहणशीलता को उजागर करती है। एक ही साथ वे बुद्ध, कबीर, नानक, सोहनी एवं लोक-परम्पराओं की दुनिया में भी होती हैं और इक्कीसवीं सदी की आधुनिक दुनिया में भी। मनत: इतने समयों में होते हुए वे चिन्तनानुभव की सघन पीड़ा अपने चित्रों के रंगों-रेखाओं में दर्ज करती हैं। अपने चिन्तन की व्याख्या कोई रचनाकार नहीं करना चाहता, क्योंकि समग्र व्याख्या उनकी कृतियों में समाहित होती है। सन् 2015 के एक चित्र 'वैनीशिंग ट्री' में उन्होंने पर्यावरण सम्बन्धी सजगता और आनेवाले दिनों के सारे खतरों को जीवन्त कर दिया है। यह एक चित्र अपने आयत में एक सम्पूर्ण ग्रन्थ बन गया है। इस चित्र के शीर्षक से भाषा में केवल दो ही अर्थ सामने आते हैं--'लुप्त होते पेड़' अथवा 'पेड़ों को लुप्त करते हुए'। पर पेड़ तो स्वयं लुप्त होते नहीं, लुप्त किए जाते हैं! इन्हें कौन, किस उद्देश्य से लुप्त कर रहा है? इसकी निर्णायक परिणति क्या होगी? इस आत्मघाती, जीव-विरोधी आचरण का परिणाम क्या हो रहा है, आनेवाले दिनों में क्या होगा?... प्रश्न असंख्य हैं, उत्तर निर्वाक्। ये सारे प्रश्न जनजीवन को लिए-दिए एक गहन दार्शनिक बिन्दु पर खड़ा कर देते हैं। जमीन-आसमान के बीच खड़े पेड़ों की हत्या परिन्दों के जीवन को जिस तरह दुर्वह बनाती है, उसमें मनुष्य के जीवन की भयावहता भी समाहित है। इस चित्र में नर-कंकाल के विभिन्न आकार की हड्डियों से एक पेड़ की आकृति रची गई है। एक मोटी हड्डी के तने कुछ शिराओं से जमीन पकड़ने की चेष्टा में हैं। कुछ छोटी-छोटी हड्डियों से पेड़ की डालियाँ बनी हैं। पत्ते गायब हैं। पृष्ठभूमि में हरीतिमा की अभिलाषा दिख रही है। पेड़ के चारो ओर तरह-तरह के परिन्दे आश्रय की कामना में फड़फड़ा रहे हैं। एक परिन्दा पेड़ के तने में चोंच मारकर अपने लिए कुछ आशा तलाश रहा है। एक परिन्दा किसी जुगत से हड्डी की एक शाख पर बैठने की चेष्टा कर रहा है। इस चित्र-रचना से पूर्व अर्पणा कौर निश्चय ही कंक्रीट के जंगल बुनते नव-धनाढ्यों की संलिप्ति, धरती की खूबसूरती के प्रधान घटक पेड़ एवं हरियाली को जड़ से मिटा देने के मानवीय आचरण से व्यथित हुई होंगीं। इस चित्र की व्याख्या शब्दों से सम्भव नहीं, यह व्याख्या अनुभव से की जा सकती है। समय और सन्दर्भों को जीने की सद्भावपूर्ण पद्धति से की जा सकती है।
'जिसका मन रंगरेज' शीर्षक देव प्रकाश चौधरी की यह पुस्तक अर्पणा कौर के चित्र-चिन्तन को गम्भीरता से समझने और कला-समीक्षा में उद्यत होने के वे सारे सन्दर्भ देती है, जिसे कला-शिक्षा के क्षेत्र में एक आकर ग्रन्थ माना जाना चाहिए। लेखक ने इसमें अपने वक्तव्यों में जितना कहा है, उससे कहीं अधिक चित्रों के समायोजन और अनुशीर्षकों से कहा है। इस समायोजन से सामान्य चित्र-प्रेमियों की भी अनुशीलक चेतना जग उठती है।