सामाजिक मनुष्य एवं मानवीय समाज के पक्षपाती
कवि प्रो. केदारनाथ सिंह से मेरी पहली मुलाकात सन् 1991 में हुई। उससे पूर्व उनके कविता-संग्रह--अभी
बिल्कुल अभी (1960), जमीन
पक रही है (1980), यहाँ से देखो (1983), अकाल में सारस (1988)
और आलोचनात्मक कृतियाँ-- कल्पना और
छायावाद (1960 के आसपास)
एवं आधुनिक हिन्दी कविता में बिम्ब
विधान (1971) से मेरा परिचय
हो चुका था। अकाल में सारस के लिए उन्हें
सन् 1989 के साहित्य अकादेमी सम्मान
से सम्मानित किया जा चुका था। अपने लेखकीय वक्तव्य में उन्होंने पडरौना के
दिनों की एक घटना का उल्लेख किया था। वहाँ के जिस डिग्री कॉलेज में वे
प्राचार्य थे, उसके छात्रों के
दो समूहों का आपसी संघर्ष किसी कारण साम्प्रदायिक संघर्ष में तब्दील हो गया
था। घटना की गम्भीरता के कारण स्थानीय प्रशासन को दखल देना पड़ा था। भीड़ को सम्बोधित
करते हुए प्रशासन ने दोनों पक्षों से कहा कि अपना-अपना पक्ष रखने के लिए दोनों
समूह अपने एक-एक प्रतिनिधि का नाम पर्ची में लिखकर दें। प्राचार्य के कार्यालय
में बैठे अधिकारियों ने पर्ची खोली तो हिन्दुओं ने अपने प्रतिनिधि के रूप
में प्रो. केदारनाथ सिंह का नाम लिखा था। मुस्लिम समुदाय की पर्ची खुलने पर सब
के सब हैरत में रह गए। क्योंकि उसमें भी केदारजी का ही नाम लिखा था। केदारजी उस
घटना से विह्वल हो गए थे।...अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि मेरे लिए इससे
बड़ा सम्मान जीवन में और क्या होगा?
गुरुवर केदारनाथ सिंह के साथ अपने निवास पर देवशंकर नवीन |
ऐसे श्रेष्ठतर कवि के काव्य-कौशल और कविता
सम्बन्धी धारणाओं से मेरे जैसे असंख्य पाठक परिचित हो चुके थे। 'तुम आईं' (सन्
1967), 'हाथ' (सन् 1980), 'जनहित का
काम' (सन्
1981), 'दाने', 'नीम' (सन् 1984), 'हक दो',
'नमक' (सन्
1990) जैसी कालजयी कविताओं ने तो पत्थर तक को साहित्यानुरागी
बना दिया था, मैं तो साहित्य का ही छात्र था। केदारजी की कविताओं के प्रति
ऐसा सम्मोहन मुझमें गत शताब्दी के नौवें दशक के पूर्वार्द्ध में ही हुआ था। उन्हीं
दिनों मैंने राजकमल चौधरी की तीन कहानियाँ—'जलते हुए मकान में कुछ लोग', 'एक चम्पाकली : एक विषधर', और 'वैष्णव'
पढ़ी भी थी। राजकमल की कविताओं से मेरा परिचय इसके बाद ही हुआ। इन दो घटनाओं
ने मेरे सोच-विचार की दिशा बदल दी थी। मैं विज्ञान छात्र था। उसे छोड़कर साहित्य
में एम.ए. करने लगा। एम.ए. पास करने के बाद 'राजकमल चौधरी : जीवन एवं साहित्य'
विषयक पी-एच.डी. के कारण मैं राजकमल-साहित्य में केन्द्रित अवश्य हो
गया; किन्तु केदारनाथ सिंह की कविताओं की मोहकता सदैव आकर्षित करती रही।
अब तक मनुष्य और समाज को देखने की मुझे दो-दो
आँखें हो गई थीं। दोनों आँखों की अपनी-अपनी उज्ज्वलता और विलक्षणता थीं। इन कविताओं
ने मेरी जीवन-दृष्टि, रचनाधर्मिता और साहित्यिक समझ का परिष्कार कर दिया
था। 'कोमल स्वर की आक्रामकता' का सूत्र इन्हीं कविताओं से समझा था--'तुम आईं/जैसे
छीमियों में धीरे-धीरे/आता है रस/जैसे चलते-चलते एड़ी में/काँटा जाए धँस/...और
अन्त में/जैसे हवा पकाती है गेहूँ के खेतों को/तुमने मुझे पकाया/और इस तरह/जैसे
दाने अलगाये जाते हैं भूसे से/तुमने मुझे खुद से अलगाया' पढ़ते हुए मैं मुग्ध
हो उठा था। 'छीमियों में धीरे-धीरे रस के आने', 'फसल की तरह प्रेमी को हवा में
पकाने' और 'भूसे से दाने की तरह खुद से अलगाने' की क्रियाओं के मोहक बिम्ब ने
मुग्ध कर रखा था। जीवन, जगत, प्रकृति, कृषि-कर्म के गहन मर्म से जुड़े इस कवि
की संवेदना के बारे में सोचता रहता था कि छीमियों में रस भरने का ऐसा अमूर्त्त
रूपक इस कवि ने कितने और किस तरह के चिन्तन से गढ़ा होगा। 'उसका हाथ/अपने
हाथ में लेते हुए मैंने सोचा/दुनिया को/हाथ की तरह गरम और सुन्दर होना चाहिए' जैसी
पंक्तियों ने मन-मस्तिष्क में उजालों का उत्सव ला दिया था। 'उसके हाथ' का
स्पर्श पाते ही दुनिया का स्मरण हो आने, और दुनिया के उस हाथ की तरह गरम और सुन्दर
होने के कवि-चिन्तन ने मुझे असीम काव्य-दृष्टि से भर दिया था। इस 'हाथ' और
'उसके हाथ' के अर्थ-गौरव ने मेरी चिन्तन-पद्धति से इतना व्यायाम कराया कि कई
बार सोचते-सोचते, अर्थ-दोहन करते-करते थक-सा जाता। इस थकान के बाद तनिक रुककर जब
फिर इस छोटी-सी कविता में वापस आता, तो बड़ी शान्ति मिलती। फिर से उसमें
डूबने का मन करता। कवि के विराट चिन्तन के आगे नत हो जाता। एक प्रेमाकुल मन से
जीवन और जगत की इतनी वृहत् यात्रा कराकर पूरे अनुभव को इतनी छोटी-छोटी पंक्तियों
में भर देने का केदार-कौशल निश्चय ही किसी नई संज्ञा की माँग करता था।
अध्यवसाय की उस छोटी-सी दुनिया में मुझे ऐसा
अर्थ-गौरव अन्यत्र नहीं मिलता। इस महान कवि को नजदीक से देखने की लालसा से भर
उठता। 'हाथ' और 'उसके हाथ' के इस बिम्ब की काव्य-व्यंजना मुझे दूर तक ले जाती।
अपने कोशीय अर्थ की सीमा लाँघकर यह 'हाथ' अपने तमाम सार्थक उपक्रमों तक पहुँच जाता और
दुनिया के शुभद अंशों की रचना करता-सा दिखता। मितभाषी दिखनेवाली केदारनाथ सिंह
की ये कविताएँ व्यंजना में सदैव विराट और मुँहजोड़ दिखतीं। उसका कारण सम्भवत: शब्द-प्रयोग
का कौशल होता, जिसमें वे शब्दों या पदों को हमेशा कोशीय-अर्थ की सीमा तोड़ देने
को मजबूर कर देते। और चमत्कार यह कि किसी को कानोकान खबर नहीं होती कि हुआ क्या
है? अर्थ भरा जा रहा है, लेकिन जैसे छीमियों में धीरे-धीरे रस भर आता है!
उन्हीं दिनों समाज के उद्दण्ड लोगों के
मुँह से दृष्टि-बाधित लोगों को 'अन्धा' कहते भी सुनता था, अब भी कहते हैं। खुद
मेरी दाईं आँख में तनिक बाँकपन था, जिस कारण लोग मुझे 'काना' कहकर चिढ़ाते थे।
उस निजी दर्द में मैं तमाम दृष्टि-बाधित लोगों का दर्द महसूस करता था। मगर
राजकमल चौधरी और केदारनाथ सिंह की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे उन्हीं दिनों स्पष्ट
हो गया था कि 'अन्धा' या 'काना' शब्द असल में उन दृष्टि-बाधित लोगों अथवा
मेरे जैसे लोगों के लिए नहीं, उन तमाम लोगों के लिए है, जो दुनिया को राजकमल
चौधरी और केदारनाथ सिंह जैसे लोगों की तरह नहीं देखते।
गुरुवर केदारनाथ सिंह के साथ अपने निवास पर देवशंकर नवीन |
बारिश के बाद जब मेघ खुल जाए तो खेत की मेड़
पर रखे हल की भीगी लकड़ी पर आदतन चोंच मारती चिड़िया को घनेरो लोगों ने देखा
होगा। 'जनहित का काम' शीर्षक कविता पढ़कर कहना पड़ेगा कि दृष्टि-बाधित
व्यक्ति अपनी अक्षमता के कारण बेशक उस दृश्य को न देख पाए, पर चक्षुधारी तो
सक्षम होते हुए भी नहीं देख पाते थे। केदारजी ने इसे यूँ देखा कि 'मेह बरसकर
खुल चुका था/खेत जुतने को तैयार थे/एक टूटा हुआ हल मेड़ पर पड़ा था/और एक चिड़िया
बार-बार बार-बार/उसे अपनी चोंच से/उठाने की कोशिश कर रही थी/मैंने देखा और मैं लौट
आया/क्योंकि मुझे लगा मेरा वहाँ होना/जनहित के उस काम में/दखल देना होगा'।
केदारजी के इस तरह देखने के करतब को लोग बेशक फैण्टेसी कहें, पर यह उनका दोहरा
दोष होगा। उनमें देखने की क्षमता तो नहीं ही है, किसी के दिखा देने पर उसे समझने
की क्षमता भी नहीं है। उस टूटे हुए हल पर छोटी-सी चिड़िया की छोटी-सी चोंच से बार-बार
होती जोर-आजमाइश में कवि, भावकों को प्रेरणा देते दिख रहे हैं कि यहाँ जनहित के
सारे उपादान हैं, मेह बरसकर खुल चुका है, खेत जुतने को तैयार है, मेड़ पर एक हल भी
पड़ा हुआ है, जनहित के वाजिब काम अर्थात् खेत की जुताई हो सकती है, पर ऐन मौके पर
वहाँ कोई जन नहीं है, वह जगह निर्जन है, और ऐसी निर्जनता में एक चिड़िया अपनी
क्षीणप्राय शक्ति के बावजूद अपनी चोंच से हल उठाने की कोशिश कर रही है, जनहित का
काम कर रही है, जनशक्ति के आलस्य-भाव को चिढ़ा रही है, इस जनहित में किसी जन
को दखल नहीं देना चाहिए, कवि को भी नहीं।
सन् 1984 में लिखी मात्र तिरपन शब्दों की
एक महान कविता 'दाने' में खलिहान से विदा होते दानों का विद्रोह उन्होंने देख
लिया था। मण्डी न जाने की जिद पर डटे, किसानों को भविष्य के खतरों से सावधान
कर रहे दाने कह रहे थे—हम
मण्डी नहीं जाएँगे/...जाएँगे तो फिर लौटकर नहीं आएँगे/...अगर लौट कर आए भी/तो तुम
हमें पहचान नहीं पाओगे...।' यह
भारतीय समाज की दुर्वह जीवन-दशा का समय था, जब जनजीवन का आर्थिक-ढाँचा चरमराया
हुआ था; सूखा, बाढ़, दुर्भिक्ष, आपातकाल और सिलसिलेवार चुनाव-पर्व की राजनीतिक
अनस्थिरताओं ने उनकी कमर तोड़ दी थी। भारतीय राजनीतिज्ञ आम जनता की दुख-दुविधाओं
का संज्ञान लेने को राजी नहीं थे। दलगत शत्रुता में पहले से मदान्ध राजनेता कुछ
और उग्र हो उठे थे। स्वयं को जनसेवक घोषित करनेवाले राजनीतिकर्मी राष्ट्र, जन
और जनतन्त्र की सारी संवेदनाओं को ताख पर रखकर कुर्सी के तिकड़म में व्यस्त
थे। आपराधिक राजनीति और राजनीतिक अपराध का बोलबाला था। सन् 1980 के दशक में
जनजीवन से परांग्मुख इन राजनीतिक विसंगतियों ने भारतीय जनजीवन को तरह-बेतरह
प्रभावित किया था। लाल बहादुर शास्त्री द्वारा दिए गए 'जय-जवान जय-किसान' के
नारे और चौधरी चरण सिंह द्वारा किसानों की पक्षधरता के बावजूद किसानों की वास्तविक
दशा में कोई सुधार नहीं हुआ था। खलिहान से मण्डी जाते हुए दानों से किसानों के
मन में स्थिति-सुधार का कोई भ्रम अवश्य हुआ था, पर वह एक घातक स्थिति थी।
असल में राजनीतिज्ञों द्वारा पैदा की गई छलना को सामान्य लोग नहीं पहचान पाते;
गहरी जीवन-दृष्टि और जन-जन से निजी सरोकार रखनेवाले महान कवि ही देख पाते हैं।
केदारनाथ सिंह ने देख लिया था। उन्हें किसानों के प्रति दानों का वह अनुराग और
कृतज्ञताबोध स्पष्ट दिख गया था। उनके वे दाने मण्डी नहीं जाना चाहते थे; क्योंकि
वे दाने अपने उत्पादकों की सेवा में अपनी मौलिकता में खुद को खर्च करना चाहते
थे; मण्डी जाकर, घाट-घाट का चक्कर लगाकर, बदले हुए स्वरूप में फिर अपने उत्पादकों
के पास आकर अजनबी नहीं होना चाहते थे; अपने उत्पादकों को लूटकर स्वरूप बदलनेवाले
पूँजीपतियों का कोष भरना नहीं चाहते थे। इस छोटी-सी कविता में कवि केदारनाथ
सिंह ने किसानों को बाजार और अर्थ-तन्त्र का शिकार होते देखा। इतनी सहजता से,
इतने कम शब्दों में, इतनी बड़ी अर्थ-ध्वनि उत्पन्न करना एक महान काव्य-कौशल
और तत्त्वदर्शी चिन्तन का सूचक है। उन्हें आधुनिकता अथवा विज्ञान से कोई वैर
नहीं था, पूरे जीवन उन्होंने तमाम जनोपयोगी आधुनिकता और जनहितकारी वैज्ञानिक
आविष्कार का स्वागत किया। किन्तु विज्ञान और आधुनिकता के किसी आचरण से
मनुष्य और प्रकृति की मूल-वृत्ति पर, उसकी सहजता-तरलता पर जब-जब उन्होंने आघात
होते देखा, वे तिलमिला उठे। 'दाने' कविता में सम्भवत: उन्हें इसीलिए
इतना दर्द हुआ।
सन् 1991 में ऐसे कवि केदारनाथ सिंह को पहली
बार अपने इण्टरव्यू में बैठे देखकर मन तोष से भर उठा था। सोचा कि मेरा चयन हो
चाहे न हो, केदारनाथ सिंह को इस तरह आमने-सामने बैठा देखना किसी उपलब्धि से कम
नहीं। यह मुग्धता इतनी जबर्दस्त थी कि अब स्मृति पर जोर डालकर भी याद नहीं कर
पा रहा हूँ कि इण्टरव्यू में केदारजी ने क्या सवाल किया था, शायद कोई सवाल
नहीं किया था। अधिकांश सवाल तो नामवरजी ने ही किया था, केदारजी तो हर सवाल के
मेरे जवाब पर मुस्कुराते रहे थे। नामवरजी से मेरी पहली भेंट उससे महीने-डेढ़
महीने पूर्व हो चुकी थी, देर तक बातचीत भी हुई थी। इस बार उनसे दुबारा भेंट हो रही
थी। इण्टरव्यू ठीक ही हुआ, डायरेक्ट पी-एच.डी. में नामांकन हेतु मेरा चयन हुआ,
नामांकन भी हो गया। परिसर के महान लोगों में नामवर सिंह से मिल आने का मेरा धाक
खुल चुका था। प्रो. मैनेजर पाण्डेय से भी मिलना-जुलना शुरू हो चुका था। केदारजी
से निकटता नहीं हो पाई थी। चलते-चलाते उन्हें कई बार नमस्ते करता था, अभयदान की
मुद्रा में जब वे अपनी दाईं तलहत्थी सीने तक लाकर हिलाते और मुस्कुराते हुए
आशीर्वाद देते, तो प्रतीत होता कि कोई बड़ी-सी चीज मिल गई है। वह चीज क्या होती
थी, इसका आकलन आज तक नहीं कर पाया हूँ। डायरी लिखने की आदत रही होती तो हिन्दी
साहित्य या कहें कि भारतीय साहित्य के इस अनमोल रतन से अपनी पहली भेंट की तिथि
ढूँढ पाता; पर ऐसा सम्भव नहीं।
गुरुवर केदारनाथ सिंह के साथ अपने निवास पर देवशंकर नवीन |
सन् 1991 के मानसून सत्र की कोई तिथि थी। भारतीय
भाषा केन्द्र में पी-एच.डी. के गाइड तय होने की बात आई, नामवर जी ने घर पर बुलाया
और कहा कि अपने लिए एक गाइड चुन लीजिए और उनसे बात कर लीजिए। मैंने कहा कि
चुनने की औकात यद्यपि मुझे है नहीं पर चुन लिया है; बात अभी कर लेते हैं! लम्बी
चर्चा हुई, नामवर जी ने कहा कि मेरे साथ आपको दिक्कत हो जाएगी, थोड़े ही दिनों
बाद आपको गाइड बदलनी पड़ेगी, इसलिए अभी ही तय कर लीजिए, ताकि आनेवाले परिवर्तन
से आप बच
सकें। चर्चा समाप्त करते हुए नामवर जी ने संकेत किया कि केदार जी से बात करके
देखिए, वे मान गए तो आपके लिए अच्छा होगा।
उल्लेख करूँ कि शुरू-शुरू में दिल्ली के
शिष्टाचार में स्वयं को समायोजित करने में मुझे बड़ी तकलीफ हुई। मैं था ठेठ बिहारी,
बिहार में बड़ों के लिए 'बाबू' लगाकर सम्बोधन देने का पाठ सीखा था; जैसे केदार
बाबू, नामवर बाबू...यहाँ पर सारे लोग 'जी' लगाकर सम्बोधन देते थे; जैसे केदार जी,
नामवर जी...। काफी दिनों तक अजीब-सा लगता था; इस तरह की पुकार मुँह में बस ही
नहीं पाती थी; फिर भी यहाँ का होकर रहना था तो करना ही पड़ा। ...और मैं केदार जी
के घर 16, दक्षिणपुरम पहुँच गया। वैसे तो जे.एन.यू. के आवासीय परिसर का अधिकांश
घर शान्त ही रहता है, पर उस घर के दरवाजे पर खड़ा होते हुए एक अलग-सी शान्ति
महसूस हुई थी। बन्द रहने के बावजूद उस घर के दरवाजे में एक मोहक आकर्षण, अपनापन,
आलिंगन-भाव, स्वीकार और उदारता थी। घण्टी बजाई, एक सुन्दर-सी युवती ने दरवाजा
खोला, बिना कुछ पूछे-आछे भीतर ले गई। सौम्यता, नीरवता और सादगी से परिपूर्ण
बड़े-से हॉल में डाइनिंग टेबल पर एक भव्य व्यक्तित्व का नौजवान जलपान कर रहा
था। नजर पड़ते ही उन्होंने अभिवादन किया और नाश्ते का आग्रह किया। ऐसे भव्य-दिव्य-सभ्य
व्यवहार से मैं मुग्ध हो उठा था। धन्यवाद सहित मैंने जलपान के लिए शालीनतापूर्वक
मना किया और युवती के इशारे का अनुसरण करते हुए सोफे पर बैठ गया। बगल में बैठी एक
सौम्य, शान्त बुजुर्ग महिला हाथ में रिमोट लिए टी.वी. देखने में तल्लीन थीं;
एक नजर मेरी ओर डालीं, जैसे मेरे बैठने को अनुमोदन दे रही हों, और फिर टी.वी.
देखने में तल्लीन हो गईं। सारा कुछ एक यान्त्रिक अनुशासन में होता चला जा रहा
था। बिना किसी आग्रह-निवेदन के। मेरे कहे बिना वह युवती ऊपर के मंजिल की ओर
चली गईं। दो पल बाद आहट सुनकर मैंने पीछे की ओर नजर दौड़ाई तो कवि केदारनाथ सिंह
सीढ़ियों से उतरते दिखे। तत्काल खड़े होकर मैंने प्रणाम कहा, उन्होंने उसी अनुपम
मुद्रा में आशीर्वाद देते हुए बैठने को कहा। बगल के सिंगल सीटर सोफे पर खुद बैठे।
मैंने अपना परिचय देना शुरू ही किया कि मोहक मुस्कान के साथ उन्होंने कहा--जानता
हूँ, यहाँ तुम्हारा चयन डायरेक्ट पी-एच.डी. में हुआ है, तुम मैथिली और हिन्दी
में लिखते भी हो, तुम्हारा इण्टव्यू बहुत अच्छा हुआ था, नामवर जी बड़े प्रसन्न
थे।...मैंने तपाक से अपना बड़बोलापन यहाँ निकाल डाला, पूछ बैठा—सर, आप प्रसन्न नहीं हुए? केदारजी ने अपनी
मुस्कान को थोड़ा और खिलाया, और कहा कि मेरे कहे का अर्थ यह नहीं होता! फिर उन्होंने
मेरे बगल में बैठी बुजुर्ग महिला की ओर देखकर बताया—मेरी माँ हैं।...मैंने उनके पैर छुए। उन्होंने सिर
पर हाथ रखा। बड़ा शीतल था वह स्पर्श। पल भर के लिए लगा कि किसी मजबूत सुरक्षा
की छाया में बैठा हूँ। फिर केदार जी ने जलपान कर रहे उस युवक और दरवाजा
खोलनेवाली उस युवती का परिचय दिया। वे केदारजी के पुत्र सुनील (अभी भारत सरकार
के खाद्य आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामले
विभाग में स्पेशल कमिश्नर) और केदारजी की अत्यन्त दुलारी बेटी रॉली
(मूल नाम डॉ. रचना सिंह, अभी दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में हिन्दी की अध्यापिका)
थीं। बाद के दिनों में तो दादी, सुनीलजी और रॉली से निरन्तर मिलना-जुलना होता
रहा। परिचय सत्र समाप्त होते ही केदारजी ने पूछा—बताओ, किस उद्देश्य से आए? मैंने कहा--सर पी-एच.डी.
से सम्बन्धित कुछ बात करनी है। केदारजी सोफे से उठते हुए बोले—आ जाओ, उधर कमरे में बात करते हैं!
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उन्होंने एक सवाल किया—तुम्हारी मैथिली में भी मेरे नाम का कोई कवि
है न? मैंने कहा—जी, केदार कानन,
मित्र हैं मेरे, उनके पिता भी बहुत बड़े कवि थे, रामकृष्ण झा 'किसुन'।...कोई
जिज्ञासा करने के बाद वे बिल्कुल बच्चे की तरह हो जाते थे। अब किसुन जी के
बारे में जिज्ञासु हो गए। कई बातें पूछीं। इस बीच हम दोनों उनके ऊपर के कमरे में
आ गए थे। केदार जी फिर पुराने प्रसंग पर लौटे—हाँ, बताओ क्या बात करनी है? कोई भूमिका बनाए बगैर मैंने
सीधे कहा—मुझे आपके निर्देशन
में पी-एच.डी. पूरी करने की अभिलाषा है, आप स्वीकृति दें। केदारजी कुनमुनाने
लगे। बोले—मेरे पास भीड़ बहुत
है, सेण्टर में कुछ लोगों के पास जगह है, उनसे बात करके देखो। वे लोग मेहनती भी
हैं, तुम्हें सुविधा होगी। मैं थोड़ा आहत तो हुआ, मगर घबड़ाया नहीं। मैं
होठों-होठों में बुदबुदाया--मेहनती गाइड का मुझे क्या करना है, थिसिस तो मैं लिखूँगा!
फिर प्रत्यक्ष रूप से कहा—सर,
सुना है यहाँ के शोधार्थी पी-एच.डी. में छह वर्षों तक डटे रहते हैं, शायद इस आशंका
में आप मुझे मना कर रहे हैं। मैं आपको वचन देता हूँ कि न्यूनतम समय पूरा होते ही
मैं शोध-प्रबन्ध जमा कर दूँगा। मैं यहाँ समय काटने नहीं आया हूँ। छह वर्षों की
तदर्थ व्याख्याता पद की नौकरी त्यागकर आया हूँ। मेरे पास 'काटने' के लिए समय
नहीं है। सेवानिवृत अल्पवृत्तिभोगी शिक्षक पिता की सन्तान हूँ। परिवार के
भरण-पोषण का दायित्व मेरे कन्धों पर है। नामवरजी पहले ही मना कर चुके हैं। आप मेरा
निवेदन स्वीकारेंगे, तो मैं यहाँ पी-एच.डी. करूँगा, वर्ना वापस चला जाऊँगा। एक
पी-एच.डी. तो है ही मेरे पास!...एक साँस में यह सब कह लेने के बाद केदारजी फिर
मुस्कुराए और बोले—इतनी जल्दी
नकारात्मक नहीं होना चहिए। बोलो, विषय क्या रखोगे? मेरी तो बाछें खिल गईं।
मैंने कहा—आप कुछ इशारा करें तो
ठीक, वर्ना कुछ सोचकर फिर मिलूँगा। वे बोले—तुलनात्मक साहित्य पर कुछ सोचो। मैथिली-हिन्दी
कविताओं पर तुलनात्मक दृष्टि से कभी सोचा है? मैंने कहा--नागार्जुन और राजकमल
चौधरी की दोनों भाषाओं की रचनाएँ पढ़ते हुए ऐसे विचार कभी-कभी मन में आए हैं, पर
थिसिस की दिशा में ऐसा सोचा नहीं कभी।
वे बोले अपने उसी विचार को विस्तार दो।
मैंने कहा कि यह विस्तार भी तो अधिक पीछे नहीं जा सकता! वे बोले—सही कह रहे हो, ठीक से विचार करने के लिए विषय
को सीमित करना जरूरी होगा। ऐसा करो, साठ के बाद की हिन्दी-मैथिली कविताओं के
तुलनात्मक अध्ययन पर विचार करो।
प्रसन्न मन से वापस आया। सिनॉप्सिस की
तैयारी करने लगा। कुछेक दिन बाद सिनॉप्सिस लिखकर ले गया। उलट-पलट कर उन्होंने
देखा और कहा—इसे छोड़ जाओ। एक
सप्ताह बाद मिलो। इस बीच कोई को-गाइड के नाम पर विचार करो। मैं फिर ठमक गया।
अब को-गाइड कहाँ से लाऊँ? उन्होंने मेरी चिन्ता भाँपते हुए कहा—कोई मैथिली का जानकार चाहिए। मैंने कहा—सर, ऐसा दिल्ली में सम्भव नहीं है। क्योंकि
यहाँ उपलब्ध दो
लोग—डॉ. गंगेश गुंजन और श्री
मंत्रेश्वर झा हैं; और बाबा वैद्यनाथ मिश्र यात्री (नागार्जुन) हैं, जो कभी-कभी
दिल्ली आकर रहते हैं। पर इन तीनों की कविताओं पर थिसिस में चर्चा होगी। इसलिए
इन्हें तो को-गाइड नहीं बनाया जा सकता! केदारजी ने तनिक लम्बी साँस खींचकर कहा—चिन्ता छोड़ो! कोई समस्या आई, तो मैं ही
दावा करूँगा कि मुझे मैथिली आती है!...मैं प्रमुदित मन से लौट आया और सप्ताह भर बाद फिर
पूछने गया तो वे नीचे के हॉल में सोफे पर बैठे टी.वी. देख रहे थे। कोई क्रिकेट
मैच चल रहा था। मैंने नमस्ते कहा, उन्होंने अपने उसी स्थाई अन्दाज और शाश्वत
मुस्कान के साथ आशीर्वाद देने के लिए हाथ उठाया। नजर उनकी मगर टी.वी. से ही चिपकी
थी। सचिन तेन्दुलकर धुआँधार बल्लेबाजी कर रहे थे। उन्होंने बैठने का इशारा किया।
बगल के सोफे पर मैं भी बैठ गया और टी.वी. देखने में उनका सहयात्री हो गया। दो तीन
मिनट बाद कोई ब्रेक हुआ, तब केदारजी मेरी ओर मुखातिब हुए और स्पष्टीकरण देते
जैसे बोले—यही एक खेल है, जो
मुझे पकड़ता है। तुम्हें भी अच्छा लगता है?...तथ्यत: सचिन तेन्दुलकर की बल्लेबाजी
मुझे अतिशय अच्छी लगती थी, मगर इस तरह आसन लगाकर खेल देखता रहूँ, ऐसी लालसा
मुझमें सचिन के अलावा किसी खेल के किसी खिलाड़ी ने नहीं जगाई। हाँ, वॉलीबॉल के
एक युवा खिलाड़ी अचल तिर्की ने डालटनगंज में उसी तरह मुग्ध किया था। मैं कह
नहीं सकता कि इसमें दोष खेलों के बारे में मेरे अज्ञान का था, या कि गरीबी के
कारण उस समय तक टी.वी. के साथ मुझमें अपनापे के अभाव का। किन्तु केदार जी को क्या
कहता? कुछ इस तरह बुदबुदाया कि मेरी हाँ या ना, कुछ भी स्पष्ट न हो। उन्होंने
मगर मेरी उस बुदबुदाहट में 'हाँ' ही ढूँढी (वे तो स्वभाव से सकारात्मक व्यक्ति
थे, किसी के दुर्दान्त नकारात्मक प्रसंग को भी अपनी व्याख्या से सकारात्मक
बना देते थे), और फिर दो चार जुमले क्रिकेट की तारीफ में देने के बाद मुद्दे पर
लौटे और कहा—बहुत ही सुगढ़ मसौदा
तैयार किया है तुमने, इसे सेण्टर में जमा कर दो। लिखा हुआ तो साफ-सुथरा है।
सुन्दर लिखावट भी है तुम्हारी। इसी पर दस्तखत कर दूँ?... खुशी और संकोच के मारे
मुस्कुराकर मैंने पलकें झुका लीं। उन्होंने कहा ऊपर चले जाओ, टेबल पर रखा हुआ
है, ले आओ। मैं कूदता हुआ-सा ऊपर जाकर उनके स्टडी रूम से सिनॉप्सिस ले आया। दस्तखत
के लिए उनकी ओर बढ़ाया। दस्तखत के बाद मुझे वापस देते हुए उन्होंने आश्वस्ति
दी कि विषय पास हो जाएगा, जाओ अब पढ़ो-लिखो। उस दिन उस घर से निकलते समय
मैंने पहली बार केदार जी के पैर छुए थे और उन्होंने सिर पर हाथ रखा था। पीछे के
जीवन में जितने झंझावात झेले थे और जितनी थकान जीवन में भर गई थी, उसका अधिकांश
कुछेक माह पूर्व प्रो. नामवर सिंह के सहज व्यवहार से दूर हो गया था; उस दिन
बची-खुची दुराशा विलुप्त हुई-सी लगी। दरवाजे से बाहर आकर स्वयं को ताकतवर-सा
महसूस करने लगा।
जे.एन.यू. में डाइरेक्ट पी-एच.डी. में दाखिल
होने की वजह से केदारजी अथवा नामवरजी की कक्षा में बैठने का सौभाग्य मुझे कभी
नहीं मिला। कक्षा में दिए गए इनके व्याख्यानों की अगाध प्रशंसा वरिष्ठ-कनिष्ठ
अध्येताओं से सुन-सुनकर मन कचोटता रहता था, किन्तु संगोष्ठियों में इनके व्याख्यान
सुनकर उसकी भरपाई कर लेता था। जे.एन.यू. में पी-एच.डी. के अध्येताओं की कक्षा
नहीं लगती, इसलिए सेण्टर मैं कम ही जाता था। पुस्तकालय से कमरे तक की दूरी में
दिनचर्या पूरी हो जाती थी। शोध-निर्देशक की आधिकारिक अनुमति के बिना उन दिनों
जे.एन.यू. के शोधार्थियों के जीवन की हवा भी टस्स से मस्स नहीं होती थी। पर
अपने शोध-निर्देशक प्रो. केदारनाथ सिंह की इन अनुमतियों के लिए सेण्टर जाने की
अनिवार्यता मुझ पर कभी लागू नहीं हुई। काबेरी छात्रावास में रहता था, सामने में
एक फर्लांग से भी कम की दूरी पर गुरु-मन्दिर; जो भी समस्या सामने आती,
सुबह-सुबह घर जाकर निराकरण करवा आता। सेण्टर आकर बात करने की अनिवार्यता का न
तो उन्होंने कभी अपने किसी वक्तव्य में संकेत किया और न ही घर आ जाने के मेरे
आचरण पर कभी कोई असहजता प्रकट की। वहाँ के घरेलू वातावरण से मैं भी तनिक ताजा हो
जाता।...
कभी-कभार गुरुजी घर पर न मिलते, तो भी निराशा
नहीं होती। परिचय हो जाने के बावजूद सुनीलजी और रचना से औपचारिक बातों से अधिक
कोई चर्चा नहीं होती; पर दादीजी तो नेहपूर्वक पारिवारिक बातें करतीं। वस्तुत:
उनकी गहन मानवीय जिज्ञासाओं से केदारजी की कविताई को जानने में मुझे बड़ा सहयोग
मिला। वे मेरे पारिवारिक जीवन, पारिवारिक संरचना और सामाजिक परिस्थितियों
पर इस अनुराग से जिज्ञासा करतीं कि मैं विह्वल हो उठता। वे भोजपुरी में पूछतीं,
मैं हिन्दी में जवाब देता। कुछ देर बतियाकर वापस आ जाता।
तथ्यत: अच्छा मनुष्य होना अच्छे गृहस्थ
होने की पहली शर्त है। अच्छा मनुष्य हुए बिना कोई अच्छा कवि तो क्या, कुछ भी
अच्छा नहीं हो सकता—न अच्छा
माता-पिता, न अच्छा शिक्षक, उपदेशक, नेता, अभिनेता, अधिकारी, पत्रकार...कुछ
भी अच्छा नहीं हो सकता। केदारजी चूँकि मनुष्य अच्छे थे, इसलिए वे अच्छे पुत्र
भी थे, अच्छे पिता भी और अच्छे कवि, चिन्तक, अध्यापक, दोस्त...तो थे ही। यद्यपि
उन्हें पारिवारिक चौपाल बिठाकर गप्पें लड़ाते मैंने कभी नहीं देखा; पर माता-पिता
के लिए ऐसी भक्ति, सन्तानों के लिए ऐसा प्यार, शिष्यों के लिए इतना स्नेह
किसी पौराणिक कथा में ही सम्भव है। जिस दिन उनके घर मैं पहली बार गया था,
उनकी बेटी और बेटे ने मुझे पहली बार देखा था, बिना किसी पूर्व परिचय के मेरे
साथ इतना अनुरागमय व्यवहार कैसे किया? निश्चय ही वह उनके श्रेष्ठतर लालन-पालन
और पारिवारिक आचार-विचार का हिस्सा था। शिष्यों के प्रति उमरे स्नेहासिक्त
व्यवहार सम्भवत: उनके प्रेममय पारिवारिक वातावरण का ही विस्तार था। कोई-कोई
पुराने जेएनयूआइट यह किस्सा भी सुनाते हैं कि वे कहीं केदारजी मिले, अपना परिचय
देते हुए कहा कि मैंने अमुक वर्ष में भारतीय भाषा केन्द्र से पी-एच.डी. की है।
इस पर उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए पूछा कि गाइड कौन थे? उस व्यक्ति
ने कहा—सर, आपके ही साथ तो था
मैं!...इस जवाब के बाद केदारजी झेंप गए। पर मैं समझता हूँ कि ऐसे किस्से
सुनानेवालों को तनिक अपने व्यवहार के बारे में भी सोचना चाहिए। केदारजी की स्मृति
में वे खुद को दर्ज नहीं कर पाए, तो इसमें उनका क्या कसूर? कुछ लोग उन दिनों ऐसे
किस्से भी सुनाते थे कि केदारजी अपने शोधार्थियों की थिसिस पढ़ते नहीं हैं।
पर मैं अपना अनुभव कह सकता हूँ। सितम्बर-अक्टूबर 1995 में कभी अपने शोध-प्रबन्ध
का तीन अध्याय लिखकर उन्हें देने गया। उनके आवास पर ही। मसौदा हस्तलिखित था।
उन दिनों कम्प्यूटर का चलन नहीं के बराबर था। सभी शोध-प्रबन्ध टाइपराइटर पर
टंकित होते थे। मसौदा हाथ में लेते हुए उन्होंने कहा—तीन-तीन अध्याय एक साथ! इसे देखने में समय लगेगा। दो
हफ्ते बाद ले जाना! मैं वापस आ गया। दो हफ्ते बाद गया, तो वे डाइनिंग हॉल में ही
बैठे थे, मुझे देखते ही बैठ जाने का संकेत किया, और ऊपर जाकर अपने स्टडी रूम से
मेरा लिखा मसौदा ले आए। मुझे सौंपते हुए बोले—देख लिया है, अच्छा लिखा है, कहीं-कहीं निशान लगे
हैं, उनका निवारण कर लेना। तीन बातों का विशेष ध्यान रखना। पहला अध्याय बहुत
बड़ा है। उसके आरम्भिक उन्नीस पृष्ठ में तुमने तुलनात्मक साहित्य के
उद्भव-विकास का गीत गाया है। वह निरर्थक नहीं है। पर उसका उपयोग कहीं और कर
लेना, यहाँ वह पृष्ठों का अपव्यय होगा। दूसरी बात यह कि एक जगह तुमने नामवरजी
के मत का किंचित खण्डन किया है, सम्भव है कि तुम्हारे परीक्षक काशीनाथजी (जो
नहीं हुए) हो जाएँ। तो क्या वाइवा में अपना पक्ष मजबूती से रख सकोगे? तीसरी बात
यह कि नागार्जुन प्रगतिशील धारा के कवि हैं, मैथिली में तुमने यात्री की चर्चा
'नव कविता' में की है; क्या मैथिली की नव कविता हिन्दी की नई कविता से अलग
है? ऐसा कैसे सम्भव है कि कोई द्विभाषी कवि भाषा के बदलाव से वैचारिकता बदल
दे?...इन सभी बिन्दुओं पर गम्भीरता से विचार कर लेना। अब कोई अध्याय दिखाने
की जरूरत नहीं है। पूरी थिसिस बाइण्ड कराके ही लाना।...इतने विवरण के बाद भी
किसी को लगे कि केदारजी थिसिस पढ़ते नहीं थे, तो उनके लिए क्या कहा जाए!
उनके शिष्यों को अक्सर ऐसा भ्रम होता रहता
था कि वे सबसे अधिक उसी को चाहते हैं। ऐसा भ्रम मेरी जानकारी में हिन्दी के दो
और लोगों के साथ होता था—नागार्जुन
और राजेन्द्र यादव के साथ। तीनों ही महर्षि अपने अनुवर्तियों को इतना प्यार
देते थे कि हर कोई उनके निकटतम होने के मुगालते में रहते। मैं यद्यपि इतना संयम
और विश्वास अवश्य रखता कि उनके हृदय में मैंने जो जगह बनाई है, उसमें
कमी-बढ़ोतरी मेरे ही आचरण से हो सकती है, कोई दूसरा प्रयास करके भी मुझे उनसे दूर
नहीं कर सकता। अनासक्त प्राणी थे। राह चलते ऐसा कई बार हुआ कि मैंने उन्हें सामने
से आते हुए बाद में देखा, उन्होंने पहले देख लिया, मेरी नजर जब तक उन पर पड़े और
मैं उन्हें नमस्ते करूँ, तब तक तो वे आशीर्वाद दे चुके होते थे। नजदीक आ जाने पर
पूछते—काफी दिनों से तुम्हें
कैम्पस से अनुपस्थित नहीं देखा। घर नहीं गए क्या?...अपने शोधार्थियों से ऐसा
सवाल, गाँव-घर के प्रति उनके अपने लगाव से तो जुड़ता ही है, साथ-साथ इस बात की
तरफ भी इशारा करता है कि उन्हें हर नौजवान के गृहानुराग की चिन्ता रहती थी। किसी
से परिचय कराते समय प्रशंसा में इतने उदार हो जाते हमलोग संकोच से भर जाते। सन्
1991 के अधोकाल अथवा सन् 1992 के प्रारम्भ में कुछ फ्रीलांस काम माँगने मैं साहित्य
अकादेमी गया था। दिल्ली में रहकर अपनी खर्ची जुटाने और घर-परिवार को भी समर्थन
देने का दायित्व मेरे ऊपर ही था। इसलिए अखबार-पत्रिकाओं से लिखने या कि
अनुवाद करने का काम माँगता रहता था। उन दिनों साहित्य अकादेमी की पत्रिका 'इण्डियन
लिट्रेचर' के सम्पादक मलयालम के सुपरिचित कवि के. सच्चिदानन्दन थे।
'समकालीन भारतीय साहित्य' के सम्पादक गिरिधर राठी से तो परिचय हो चुका था,
उसमें लिखने भी लगा था। सोचा यहाँ भी परिचय कर लूँ। मैं ज्यों ही उनके चैम्बर
में घुसा, देखा कि केदारजी वहाँ बैठे हुए हैं। मैं उल्टे पाँव भागा। केदारजी आवाज
देते रहे, मैं तो निकलकर बाहर बैठ गया। इतने में एक स्टाफ ने आकर कहा कि आपको
भीतर केदारजी बुला रहे हैं। मैं भीतर गया। दोनों को नमस्ते किया। सच्चिदानन्दनजी
ने बैठने का आग्रह किया। मैं बैठ गया। अब केदारजी लगे मेरी तारीफ का पुल बाँधने। ये
मैथिली और हिन्दी के बहुत ही ऊर्जावान रचनाकार हैं। सौभग्य से मेरे ही साथ
पी-एच.डी. करते हैं।...केदारजी की ऐसी प्रशंसा से मैं संकुचित तो बहुत हुआ, पर उस
प्रशंसा की रक्षा के दायित्व से भर उठा। ऐसा कई स्थानों पर बड़े-बड़े लोगों के
साथ परिचय कराते हुए उन्होंने किया था। एक दिन अकेले पाकर मैं उनसे पूछ बैठा—सर, आप इतनी तारीफ क्यों करते हैं? मुझे शर्म
आने लगती है।...उन्होंने कहा, शर्म मत किया करो, इसे दायित्व समझा करो।...तब
जाकर मुझे समझ आया कि कोई महान व्यक्ति किस रास्ते कौन-सी महत् प्रेरणा दे देते
हैं।...फिर उन्होंने अपनी एक घटना सुनाई। कहा कि मैं अपनी थिसिस का चैप्टर
लिखकर पण्डितजी (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी) के अवलोकनार्थ दे आया था। कई दिन
हो गए थे। सोचा कि जाकर ले आऊँ। सुबह-सवेरे नहा-धोकर तैयार होने लगा। पैजामा पहन
रहा था। इतने में कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोला तो बगल में कुछ
कोश-ग्रन्थ दबाए पण्डितजी खड़े मिले। अब मेरे तो होश उड़ गए। आशंकित था, ऐसा
क्या हुआ कि पण्डितजी को मेरे कमरे तक आना पड़ा। खैर, पण्डितजी भीतर आए और
फौरन मेरी थिसिस के पन्ने पलटकर एक अंग्रेजी के शब्द पर अँगुली रखते हुए पूछा—यह शब्द मुझे इनमें से किसी कोश में नहीं मिला,
इसका अर्थ क्या होता है?...मैं देखकर बहुत लज्जित हुआ, उससे अधिक चकित हुआ।
क्योंकि उसमें मैंने हिज्जे का विपर्यय कर दिया था। इतनी छोटी-सी बात, जिसे
पण्डितजी बड़े आराम से काटकर ठीक कर दे सकते थे, उसके लिए जिज्ञासा करने यहाँ
तक चलकर आ गए। मैं जब शर्माने लगा, तो उन्होंने कहा—मुझे भी कुछ-कुछ भान हो रहा था, पर मैंने सोचा, केदार
ने लिखा है, हो न हो कोई नया शब्द हो।...प्रसंग में गाँठ लगाते हुए केदारजी ने
कहा कि ऐसी परम्परा में दीक्षित होने की वजह से मेरा धर्म बनता है कि अपने
शोधार्थियों की प्रतिभा को पहचानूँ।
उनके निजी जीवन में कोई पीड़ा न रही हो, ऐसी
कल्पना असम्भव है, पर उनके विशाल मित्र-मण्डल में किसी के पास केदारजी की
पीड़ा अथवा द्वन्द्व का दृष्टान्त नहीं है। कैसे होगा? इन सबको तो वे अपनी कविताओं
में संचित करते थे। होते तो जरूर होंगे, पर कभी मुझे वे उदास नहीं दिखे। गहन परिचय
के बावजूद कभी सुनीलजी अथवा रचना से मैंने यह सवाल नहीं किया कि 'सर कभी किसी
बात से परेशान, विचलित या द्वन्द्वग्रस्त दिखते हैं या नहीं?' सन् 1997 में प्राय:
उनके पिता का देहान्त हुआ था। सूचना पाकर मिलने गया था। शान्त चित्त बैठे हुए
थे। चेहरे से उस घनघोर पीड़ा को वे प्रयासपूर्वक हटाए हुए-से दिख रहे थे, ऐसा
मुझे पहली और आखिरी बार दिखा कि उनके चेहरे पर वह मृदुल मुस्कान नहीं थी।
बातचीत के क्रम में उन्होने सुनाया कि 'मनुष्य के जीवन में हर बात समझ-बूझ से
ही हो, ऐसा जरूरी नहीं है। कभी-कभी मन का उल्लास इतना आवेगमय हो जाता है कि समझ
और तार्किकता की सीमा लाँघ जाता है। एक बार मैं सेण्टर से घर लौटा तो देखा कि
बाबा नागार्जुन और मेरे पिताजी एक चारपाई पर आमने-सामने कुछ कानाफूसी कर रहे हैं
और दो में से किसी की ऑडियो-मशीन कान में लगी हुई नहीं है। उस कानाफूसी की ध्वनि
इतनी मद्धम थी कि भली-भाँति श्रवण-शक्ति रखनेवाला व्यक्ति मैं भी सुन नहीं
पा रहा था। मगर वे एक दूसरे के कथन से इतने उल्लसित हो रहे थे कि दोनो अपने
एक-एक हाथ के संयोग से ताली देकर ठहाके लगा रहे थे। अब देखो, तय है कि दोनो ने एक
दूसरे की बात नहीं सुनी, क्योंकि दो में से कोई मशीन लगाए बिना सुन ही नहीं
सकते थे। फिर वे दोनो ठहाके किस बात पर लगा रहे थे?...जाहिर है कि यह उन दोनों
के मन का उल्लास था।' उनके मुख से पिता का संस्मरण सुनते हुए मैंने लक्ष्य किया
कि उनके चेहरे पर पीड़ा को चीड़ती हुई मुस्कान की एक हल्की-सी रेख आनेवाली है,
पर वह पूरी तरह आई नहीं। उनकी इस पीड़ा की मुखर अभिव्यक्ति की प्रतीक्षा मन
में लिए मैं चलने को उद्यत हुआ तो उन्होंने श्राद्ध की तारीख बताई और कहा कि आ
जाना। थोड़े ही दिनों बाद उन्होने कविता लिखी 'पिता के जाने पर'। मैं
उन सौभाग्यशालियों में से हूँ, जिसने उनकी यह कविता छपने से पहली पढ़ी, सम्भवत:
जिस दिन वह लिखी गई, उसके दो-एक दिन बाद ही मैं उनसे मिला था। उस कविता में
उनकी मितभाषिता का उल्लेख है—'जब
थे बातें कम होती थीं/चुप्पा मैं ही था/वे तो बोलते ही रहते थे निरन्तर/चाहे
चुप ही बैठे हों.../जब भरी दोपहरी में मैंने एक दिन उन्हें देखा/एक पक्षी से बतियाते
हुए/मैं टोकना चाहता था/पर लगा/एक पक्षी से बतियाते हुए पिता को टोकना/सुन्दरता
के खिलाफ है/और इसलिए इस घूमती हुई पृथ्वी की/ गति के खिलाफ भी...।' यहाँ उनके 'चुप्पा' होने की सूचना है, किन्तु
पिता के बाचाल होने की नहीं। बल्कि उनकी चुप्पी में भी वे कुछ न कुछ सुनते
रहते थे। पक्षी से पिता के बतियाने के आयास में टोकारा देने तक की क्रिया को जो
कवि सुन्दरता और इसलिए घूमती हुई पृथ्वी की गति के खिलाफ माने, उनकी पितृभक्ति
को साष्टांग दण्डवत्।
महान
लोगों के देहावसान के बाद उन पर संस्मरण लिखने के बड़े खतरे हैं। कई बार संस्मरणकार
इतने आत्ममुग्ध हो जाते हैं कि दिवंगत के कन्धे पर बैताल की तरह सवार होकर
अपना ही गीत गाने लगते हैं, बेशक दिवंगत रसातल चले जाएँ। यह संस्मरण लिखते हुए
मेरी ऐसी मंशा कतई नहीं है। मैं न तो केदारजी को देवत्व देने की चेष्टा कर रहा
हूँ, न ही स्वयं को उनका सर्वाधिक निकटवर्ती और प्रिय होने का दावा कर रहा
हूँ। क्योंकि केदारजी ने कभी कहा नहीं कि वे मुझसे कितना प्यार करते हैं। दरअसल
यह कहा नहीं जाता, देखा और महसूस किया जाता है। व्यवहार से ऐसा दिखता रहता था
कि वे सदैव दूसरों की उपलब्धियों में भोक्ता की तरह घुलमिल जाते थे। अगस्त
1996 की किसी तारीख को मैं अपना शोध-प्रबन्ध जमा कर चुका था। जे.एन.यू. का कावेरी हॉस्टल खाली कर आवास हेतु मुझे बाहर जाना था।
जाने से पहले इतने प्यार देनेवाले गुरु को प्रणाम करना जरूरी लगा। इकतीस अगस्त
की रात मिलने के लिए उनके घर गया। अगली सुबह बाहर जाना सुनिश्चित था। घण्टी
बजाई। केदारजी ने स्वयं दरवाजा खोला। किंचित रुष्ट-से बोले, इतनी रात को क्यों?
मैंने पैर छूते हुए कहा कि कल सुबह कैम्पस छोड़ रहा हूँ, इसलिए आशीर्वाद लेने
आया हूँ। आशुतोष की तरह केदारजी तुरन्त आशीर्वाद की मुद्रा में आ गए। उन्होंने
तरकीब बताते हुए कहा—सुबह सेण्टर जाकर अनस अहमद (अनस अहमद उन दिनों
भारतीय भाषा केन्द्र, जे.एन.यू. में कार्यालय प्रभारी थे) से पता करो कि मेरी
संस्तुति पर वाइवा होने तक तुम्हें हॉस्टल में रहने देने का कोई प्रावधान है
या नहीं? मैंने कहा—सर, दो-तीन महीने में दो-चार हजार रुपए बेशक
बच जाएँगे, पर हॉस्टल के कनिष्ठ छात्रों के बीच मेरी बड़ी इज्जत है, तिकड़म
से कमरे में डटा रहूँगा तो सिंगल सीटर रूम की प्रतीक्षा कर रहे छात्रों के बीच
मेरी बड़ी फजीहत होगी। गुरुजी तत्काल सहमत हो गए। बोले—सही
कह रहे हो। नैतिकता बचाने की इस चिन्ता को बचाए रखना। पर जा कहाँ रहे हो? मैंने
कहा—सर, यहाँ से चौदह किलोमीटर दक्षिण, आयानगर नाम की एक
कॉलोनी है, वहीं दो कमरे का एक मकान किराए पर लिया है। कुछ दिनों में माँ-पिता
को ले आएँगे, वहीं रहूँगा। उन्होंने पूछा—किराया
पर ही लेना था, तो वहाँ क्यों? मैंने कहा—सर,
वहीं पर एक सौ गज जमीन खरीदी है, सोचा है वहीं रहकर धीरे-धीरे अपना घर बनवा
लूँगा।...ऐसा सुनते ही वे प्रसन्नता से उत्तेजित हो गए। किशोरवय की तरह उन्मादित-से
अपने बेटे सुनीलजी को आवाज देने लगे—सुनील!
सुनील!!...सुनीलजी तेजी से बाहर आए। इन्होंने उन्हें हाँफते हुए-से सूचना दी—सुना
तुमने! नवीन ने दिल्ली में जमीन खरीदी है।...फिर मुझे बोले--अब मुझे पता मत
बताओ। अच्छे से व्यवस्थित हो जाओ, फिर आकर मुझे ले चलो, मैं उसे जाकर
देखूँगा। जाने में परेशानी नहीं होगी। सुनील ने गाड़ी खरीद ली है। तुम आ जाना
बस!...मैं तो उनके इस उल्लास के मारे विह्वल हुआ जा रहा था। मुझे इस बात की
प्रसन्नता है कि वे आयानगर के मेरे दोनों घरों में आए थे।
एक
बार मैंने उनसे पूछा—सर आपकी कविता में कभी-कभी गजब का किस्सागो
कहीं से झाँकता दिखता है। आपकी पीढ़ी के कुछ लोगों ने तो कहानी में हाथ आजमाया।
कभी आपने कोशिश नहीं की? उन्होंने छूटते ही कहा—की
थी। पर उन्हीं दिनों एक इतना बड़ा कहानीकार हिन्दी में कहानियाँ लिख रहा था
कि मुझे लगा, इनको पार करना असम्भव है। और, जब वैसी कहानियाँ न लिखूँ, तो फिर
लिखूँ ही क्यों?
उनकी
उदारता पर मैंने उनसे दो बार उत्तेजना में बात की। पर दोनों ही बार उन्होंने मेरी
उत्तेजना को उड़नछू कर दिया। किसी अनाम मूल-गोत्र की अठपेजी पत्रिका में कुछ फिकरे-सिकरे
गढ़नेवाले कवियों की कविताओं के बीच मैंने उनकी दो कविताएँ छपी देखी, तो जाकर उन्हें
दिखाया और सवाल किया—आप अपनी कविता जहाँ-तहाँ क्यों दे देते हैं?
उन्होंने उसी मुस्कान के साथ सहजतापूर्वक उत्तर दिया—जरा
शान्ति से सोचो! तुमको लगता है कि मैंने ये कविताएँ खुद से दी होगी? मैंने
कहा--नहीं, ऐसा लगता तो नहीं है! उन्होंने कहा—फिर
उत्तेजित क्यों होते हो? ये कहीं पहले से छपी हुई कविताएँ हैं। अपने फायदे में
इन्होंने इसका उपयोग कर लिया है। मुझसे अनुमति न लेकर इन्होंने गलत अवश्य किया
है! पर इस कारण उत्तेजना में खून जलाना उचित होगा? जाने दो!
एक
बार ऐसी ही घटना लगभग 1997-98 में हुई। उन दिनों मै नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया
में था। मेरे अग्रज मित्र प्रो. सदानन्द साही उन दिनों गोरखपुर में हुआ करते
थे। वहीं उन्होंने दो दिनों की एक संगोष्ठी आयोजित की थी। आयोजक मण्डल में प्रो.
परमानन्द श्रीवास्तव और डॉ. राजेश मल्ल भी थे। जे.एन.यू. से प्रो. केदारनाथ
सिंह, प्रो. मैनेजर पाण्डेय के अलावा मैं, कृष्णमोहन, जीतेन्द्र श्रीवास्तव...कई
लोग आमन्त्रित थे। बनारस से श्रीप्रकाश शुक्ल भी आमन्त्रित थे। उद्घाटन सत्र के
मुख्य अतिथि केदारजी थे। मंच पर विशिष्ट अतिथि के रूप में कन्नड़ के कवि
और नेशनल बुक ट्रस्ट के तत्कालीन अध्यक्ष सुमतीन्द्र नाडिग थे। केदारजी ने
अपने भाषण में सुमतीन्द्र नाडिग को बेन्द्रे की परम्परा का कन्नड़ कवि कह दिया।
मैं क्षुब्ध हो उठा। जब सत्र समाप्त हुआ, मैं टोह में लगा रहा और उन्हें अकेले
पाकर सामने खड़ा हो गया।
-बोलो।
-आपने
सुमतीन्द्र नाडिग की कविता पढ़ी है?
-तुमने
पढ़ी है?
-एक
कविता और कविती जैसी कोई चीज पढ़ी है।
-मैंने
भी उतनी ही पढ़ी है। तुम्हें कैसी लगी?
-हिन्दी
में ऐसी विचित्र कविता गढ़नेवालों को कवि की मान्यता सम्भवत: तीन सौ बरस
पूर्व भी नहीं दी जाती होगी।
-सही
कह रहे हो।
-फिर
आपने उन्हें बेन्द्रे की परम्परा का कवि कैसे कहा?
-अब
तुम बच्चे जैसी बात करने लगे। देखो, अपनी जिस किसी प्रतिभा से, मगर वे नेशनल
बुक ट्रस्ट जैसी संस्था के अध्यक्ष हैं न? हिन्दीपट्टी में पहली बार आए हैं। थोड़ा
सम्मान दिया जाना चाहिए।
-तो
आप तारीफ में वही कहते न! इतना बड़ा तमगा क्यों दे दिया? हिन्दी के लोग तो
आपकी बात को प्रमाण मानते हैं। आपकी इस अनुशंसा के कारण वे कल से इन्हें सचमुच
बेन्द्रे की परम्परा के कवि मानने लगेंगे!
-(मेरी
पीठ पर हाथ रखते हुए) भविष्य के प्रति चिन्तित अवश्य रहा करो, भयभीत नहीं।
कोई भी कवि अनुशंसा के सहारे बड़ा नहीं होता, अपनी कविता से बड़ा होता है। नाश्ता-वास्ता
किए क्या?
बात
आई-गई हो गई। गोरखपुर रेलवे स्टेशन के गेस्ट हाउस में ही हमलोगों को रुकाया गया था।
रात में सारे लोग खाना खा रहे थे। मैं और कृष्णमोहन एक ही मेज पर खाना खा रहे थे।
केदारजी एक तो खाते ही थे बहुत कम, चिडिया की तरह, और वह भी बहुत जल्दी खा लेते
थे। अपना खाना समाप्त कर वे सबकी मेज पर आ-आकर देखने लगे। उसी क्रम में हमारी मेज
तक भी आए। उसी मुस्कान के साथ पूछा—दोनों
मैथिल क्या खा रहे हो?
हमने
कहा—आलू पालक की सब्जी है और दाल-चावल है।
उन्होंने
पूछा—हें? मछली नहीं है?
फिर
इधर-उधर नजर दौड़ाई, राजेश मल्ल दिखे तो सवाल किया—सदानन्द
कहाँ हैं?
सदानन्द
साही कहीं गए हुए थे। फिर आदेश दिया—परमानन्द
को बुलाओ!
हम
दोनों (मैं और कृष्णमोहन) पशोपेश में पड़ गए कि हमारे खाने के लिए इतनी बात हो
रही है! हम दोनों ने तय किया कि जल्दी से हम खाना सम्पन्न कर उठ जाएँ? इसी
बीच परमानन्दजी आ गए। वे तो केदारजी के सामने सदैव ही मुस्कान लिए प्रस्तुत
होते थे। केदारजी ने कहा—आपलोगों को तो मालूम होगा कि ये दोनों मैथिल
है। इन्हें बुलाया, तो मछली भी खिलाते!...उनका रोष शान्त करने के लिए परमानन्दजी
ने हल निकाला कि प्रबन्धकीय अव्यवस्था के कारण ऐसा हो न सका। अभी जो हुआ, सो
हुआ, अगले भोजन में मछली अवश्य रहेगी।
अट्ठाइस
वर्षों के रिश्ते का संस्मरण एक लेख में समाना तो असम्भव है! उनसे अन्तिम
भेंट अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के प्राइवेट वार्ड में हुई थी। कोलकाता
से रुग्ण अवस्था में दिल्ली लाकर उन्हें यहाँ भर्ती कराया गया था। प्रो. चन्द्रा
सदायत जी के साथ उन्हें देखने गया था। रॉली अपने कुछेक शिष्यों के साथ उनकी परिचर्या
में उपस्थित थी। कमरे में दाखिल हुआ, पैर छुए, सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया
और कहा—अच्छा हुआ कि तुम आ गए। कैसे हो?
-ठीक
हूँ। आपकी अस्वस्थावस्था से चिन्तित हो गया था।
-अब
ऐसे ही रहेगा। उमर भी तो हुई!
-नहींऽऽऽऽऽऽऽऽ!
कोई उमर नहीं हुई! अब आप ठीक हो गए हैं। जल्दी ही पुरानी दिनचर्या में लौट
जाएँगे।
नीले
रंग की चरखाना लुंगी और आधे बाजू की सफेद कमीज में वे पहले की तरह स्वस्थ और
सुन्दर लग रहे थे। रॉली ने बताया—ठीक
से खा नहीं रहे हैं। बाकी तो ठीक है। दो-एक दिन में घर चले जा सकते हैं।...घर आ
भी गए। घर जाकर मिलने का मन बना ही रहा था कि...।
पर्वतों में अपने गाँव का टीला, पक्षियों में कबूतर, भाखा में पूरबी, दिशाओं
में उत्तर, वृक्षों में बबूल, अपने समय के बजट में एक दुखती हुई भूल, नदियों में चम्बल,
सर्दियों में एक
बुढ़िया का कम्बल...हो जाने का दावा करनेवाले केदारनाथ सिंह अपने पार्थिव शरीर से हमारे बीच
बेशक नहीं हैं किन्तु वे अपने विचारों के साथ हर ठौर उपस्थित रहकर कह रहे
हैं--इस समय यहाँ हूँ/पर ठीक इसी समय/बगदाद में जिस दिल को/चीर गई गोली/वहाँ भी
हूँ/हर गिरा खून/अपने अँगोछे से पोंछता/मैं वही पुरबिहा हूँ/जहाँ भी हूँ। क्योंकि पृथ्वी के सारे निवासियों के नाम
उन्हें एक जरूरी चिट्ठी लिखनी थी, जिसके लिए वे फुर्सत ढूँढ रहे थे, और जिस
मसौदे में उन्हें सुझाव देना था कि--हर धड़कन के साथ/एक अदृश्य तार जोड़ दिया
जाए/कि एक को प्यास लगे/तो हर कण्ठ में जरा-सी बेचैनी हो/अगर एक पर चोट पड़े/तो
हर आँख हो जाए थोड़ी-थोड़ी नम/और किसी अन्याय के विरुद्ध/अगर एक को क्रोध
आए/तो सारे शरीर/झनझनाते रहें कुछ देर तक...आराध्यवर गुरुवर को शत-शत नमन!