जन्म
किसी भी विद्वान या विशाल व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के देहावसान के पश्चात्,
उनके जन्म-स्थान पर विवाद उठना प्रारंभ
हो ही जाता है प्रायः। और, होता
यह है, कि जहां के वे नहीं होते
हैं, वहां के लोग, बड़े जोर-शोर से यह कहना प्रारंभ कर देते हैं,
कि ‘ये’ हमारे
राज्य, हमारे गाँव...में पैदा
हुए थे। जैसे अभी मंडन मिश्र के बारे में कुछ समीक्षक उनका जन्म-स्थान महिषी
(सहरसा, बिहार) नहीं कहकर
अन्यत्र प्रमाणित करने में लगे हुए हैं; महाकवि विद्यापति का जन्म-स्थान बिस्फी (मिथिला) नहीं मानकर कहीं और
सुनिश्चित करने को व्यग्र हैं...। ऐसी ही कुछ बातें राजकमल चौधरी के बारे में कही
जाने लगी हैं। वैसे, इसमें कुछ
अंश तक दोष स्वयं राजकमल का ही है। कारण, अपने जीते जी, उन्होंने
अपने बारे में बहुत-सी भ्रांतियां फैला रखी थीं। लोग उन्हीं सुनी-सुनाई बातों को
आधार मानकर अब क्या-से-क्या लिखते-बोलते रहते हैं।
राजकमल चौधरी के सम्बन्ध में किसी तथ्य की
सत्यता तक पहुंचने के क्रम में निरंतर याद रखा जाना चाहिए कि राजकमल एक ऐसे
विवादास्पद व्यक्तित्व का नाम है, जो
स्वयं संदेह और विवाद में गहन अभिरुचि रखते थे। यहां तक कि अपने सम्बन्ध में
किसी तथ्य को सही-सलामत रहने देने में उनकी अभिरुचि नहीं थी।
यह बात कमोबेश उनकी सही जन्मतिथि प्राप्त करने
में भी लागू होती है। अनेक जगहों पर, राजकमल चौधरी की जन्मतिथि 13.12.1929 अंकित मिलती है। फिलहाल, राजकमल का जन्म-दिवस सही तिथि को मनाया जाता है।
राजकमल के हिन्दी कविता-संग्रह ‘कंकावती’
के आवरण पृष्ठ-4 पर उनकी जन्मतिथि 13 दिसंबर, 1929 अंकित है। उनके उपन्यास ‘बीस
रानियों के बाइस्कोप’ के फ्लैप
पर भी यही तिथि अंकित मिलती है। उनकी मृत्यु के पश्चात् उन पर केंद्रित अनेक
पत्रिकाओं विशेषांकों में यही तिथि अंकित है।[1]
पर विडंबना है कि राजकमल के जीते-जी इस जन्मतिथि की सत्यता खंडित हो गई।
सन् 1966 में प्रकाशित उनके
चर्चित उपन्यास मछली मरी हुई के आच्छादप फ्लैप पर उनकी जन्मतिथि 13 दिसंबर, 1931 अंकित है। उन पर लिखते हुए अनेक लेखकों ने बाद में
इसी जन्मतिथि को प्रामाणिक माना।[2]
राजकमल के अति निकटस्थ मित्र तथा हिन्दी के
उपन्यासकार शिवचंद्र शर्मा ने उनके जन्म-स्थान और जन्म-तिथि के बारे में उठे विविध
विवादों का अपने निबन्ध राजकमल चौधरी: मौत: कुछ विचारणीय में खंडन किया। उनके
अनुसार उपर्युक्त दोनों तिथियां (13.12.1929 तथा 13.12.1931) प्रामाणिक नहीं हैं।[3]
फिर भी, अभी तक उनकी जन्म-तिथि 13 दिसंबर 1931 तथा जन्म-स्थान मसूरी हिल (उ.प्र.) छप जाता है।
जन्म-स्थान के सम्बन्ध में तो नहीं, किंतु जन्म-तिथि के सम्बन्ध में ऐसी ही गलत
सूचनाएं मेरे भी दो निबंधों में छप गई हैं। ये गलतियां इन्हीं भ्रांतियों के
दुष्परिणाम हैं। प्रतिष्ठित कथाकार एवं संपादक श्री राजेंद्र यादव ने अपनी पत्रिका
‘हंस’ के मई 1987 के अंक में मेरे द्वारा अनूदित (मैथिली से हिन्दी) कहानी प्रकाशित करते
हुए उनका परिचय प्रकाशित किया। उसमें मेरे द्वारा सारी बातों को स्पष्ट कर देने के
बावजूद उन्होंने जन्म-स्थान मसूरी हिल तथा जन्म-तिथि 13 दिसंबर 1931 ही छापा।
इस संदर्भ में ध्यातव्य है कि दिनांक एवं
मासांक सर्वत्र एक समान ही है, अंतर
मात्र वर्ष का है। इस अंतर के संदर्भ में शिवचंद्र शर्मा आगे लिखते हैं--‘उनकी जन्मतिथि (13.12.1929) कुछ मायने में सही हो सकती है। यों मालूम करने
पर मालूम हुआ है कि इससे कुछ पूर्व (लगभग दो-ढाई वर्ष ही) उनकी जन्म-तिथि पड़ती है।
प्रमाणित तिथि हाथ नहीं आई।’[4]
मैथिली के आलोचकों के बीच उनकी जन्मतिथि के
संदर्भ में किसी प्रकार का विवाद नहीं है। उन सब ने राजकमल चौधरी की जन्मतिथि 13.12.1929 ही मानी है। उनकी जन्म-तिथि सम्बन्धी
विवादों से खिन्न होकर रामकृष्ण झा ‘किसुन’ ने लिखा है--‘इस बात में संदेह का अवकाश नहीं है कि उनका
जन्म रामपुर (सहर्षा) में 13
दिसंबर, 1929 को हुआ।’[5]
जन्म-स्थान
राजकमल चौधरी के जन्म-स्थान के संदर्भ में भी अनेक भ्रांतियां हैं,
जो अति विचित्र-सी लगती हैं। प्राचीन
काल के कवि-लेखकों के जन्म-स्थान सम्बन्धी भ्रांतियां तो एक हद तक समझने लायक
होती हैं, किंतु बीसवीं शताब्दी
के तीसरे दशक के अंत में जन्म लिए किसी समकालीन लेखक के बारे में ऐसी भ्रांति हो,
तो यह निश्चित ही अचंभे की बात मानी
जाएगी। और यह भ्रांति किसी दूसरे ने फैलाई हो, ऐसा भी नहीं। स्वयं लेखक द्वारा ऐसी-ऐसी भ्रांतियां
लोगों को चैंकाने हेतु फैलाई गईं, जो
आज किसी भी शोधार्थी के लिए मनोरंजक हो सकती हैं।
सन् 1966 में प्रकाशित ‘मछली मरी हुई’ के आच्छादप फ्लैप-2 पर
उनका जन्म-स्थान अंकित है--मसूरी
हिल (उ.प्र.)।
कंकावती के आवरण पृष्ठ-4 पर जन्म-स्थान सम्बन्धी विवरण छपा है--रामपुर हवेली। और, राजकमल चौधरी से लिए गए एक साक्षात्कार के अनुसार
जन्म-स्थान लिखा गया है--खड़गपुर
हवेली।[6]
इसके अतिरिक्त, मैथिली तथा हिन्दी के अनेक आलोचकों ने अपने लेखों में
उनके जन्म-स्थान के रूप में महिषी (सहरसा) की चर्चा की है।
सत्यता यह है कि उनका जन्म मसूरी हिल अथवा
खड़गपुर हवेली अथवा महिषी में नहीं, रामपुर
हवेली में हुआ था, जो उस समय
भागलपुर जिले में, बाद में सहरसा
जिले में और आज मधेपुरा जिले में है। रामपुर, मुरलीगंज से दो-ढाई कोस दक्षिण-पश्चिम में बसा,
परम्परागत मैथिल ब्राह्मणों का एक गाँव
है, जहां राजकमल के पिता मधुसूदन
चौधरी का दूसरा विवाह त्रिवेणी देवी से हुआ था।
राजकमल की पितृ-भूमि निस्संदेह महिषी है और
उनके बचपन का अधिकांश महिषी में ही बीता, पर जन्म ननिहाल में हुआ था। इस तथ्य की सत्यता उनके पितृव्य नरेंद्र
नारायण चौधरी के कथन से भी साबित होती है--‘उनका जन्म रामपुर में ही हुआ। उनके जन्म से चार महीने
पहले ही उनकी मां नैहर चली गई थीं। कारण, इस जगह (महिषी में) उनका स्वास्थ्य खूब अनुकूल नहीं रहता था। दूसरा कारण
था कि ‘लाल-भाई’ (मधुसूदन चौधरी) को पहली संतान होनी थी और
हमारे परिवार की परम्परा थी कि पहली संतानोत्पत्ति ननिहाल में ही हो।
उस चार महीने की अवधि में अनेक बार लाल भाई
रामपुर गए थे। भौजी के जिज्ञासार्थ मैं भी दो बार गया था।’[7]
पं. नरेंद्र नारायण चौधरी ने अनेक मुलाकातों
में स्पष्ट तौर पर कहा कि ‘‘मेरी
भौजी (राजकमल की मां) जब गर्भवती थीं, तब मैं उनसे मिलने के लिए उनके नैहर, रामपुर हवेली (सहरसा, बिहार) जाया करता था। फूल बाबू का जन्म वहीं हुआ।’’
राजकमल चौधरी का जन्म-स्थान मसूरी-हिल छापना
एकदम निराधार है। इस बात का इससे बड़ा साक्ष्य और क्या हो सकता है कि उन्हें अपनी
गोद में खेलाने वाले कतिपय लोग, महिषी
(सहरसा) में हाल तक जीवित थे, उनके
कई सहयात्री तो अब भी जीवित हैं; उनकी
पत्नी शशिकांता चौधरी हाल में दिवंगत हुई हैं; उनका बेटा नीलू अपने पितृग्राम महिषी जाता-आता रहता है;
उनकी सौतेली मां महिषी में हैं...। ऐसे
अनेक साक्ष्यों के आधार पर यह निर्विवाद एवं अटल सत्य है कि राजकमल चौधरी का
पितृ-ग्राम, उत्तर बिहार के
सहरसा जिले का इतिहास-प्रसिद्ध गाँव महिषी है। उनकी जन्म-तिथि 13 दिसंबर 1929 और जन्मस्थान उनका ननिहाल ‘रामपुर हवेली’ है।
अभी भी राजकमल के मामा जीवित हैं, और रामपुर में रहते हैं। उनके छह ममेरे भाई भी
रामपुर-निवासी हैं। मैथिली के अनेक लेखक-आलोचक इस तथ्य की प्रामाणिकता स्वीकार
करते हैं।[8]
नाम
राजकमल चौधरी का नाम असल में मणींद्र नारायण चौधरी था। यह नाम उन्हें उनके
पिता ने दिया था। उनके तीनों भाइयों का नाम क्रमशः मणींद्र, मुनींद्र तथा माधवेंद्र था। घर में उन्हें फूल बाबू के
नाम से पुकारा जाता था। गाँव के लोग भी उन्हें फूल बाबू के नाम से ही जानते थे। अब
भी अधिसंख्य लोग इसी नाम से जानते हैं। इस संदर्भ के एक रोचक प्रसंग का उद्घाटन
रामानुग्रह झा ने राजकमल से लिए गए इंटरव्यू के क्रम में किया। ध्यातव्य है कि
हिन्दी-मैथिली के संपूर्ण साहित्य-जगत् में राजकमल चौधरी के दो इंटरव्यू प्रकाशित
हैं; मैथिली में उसके आयोजन का
श्रेय रामानुग्रह झा को जाता है, और
हिन्दी में इब्बार रब्बी को। इसके अलावा डॉ. रामकिशोर द्विवेदी के कुछ प्रश्नों
के जवाब एक परिचर्चा में अवश्य दिए थे। तो, महिषी पहुंचने पर जब रामानुग्रह जी ने किसी से पूछा कि
राजकमल जी का मकान कौन-सा है, तो
उस ग्रामीण की समझ में आया ही नहीं, और विश्वासपूर्वक उसने कहा कि राजकमल नामक कोई व्यक्ति इस गाँव में नहीं
है। फिर जब उन्होंने ‘फूल बाबू’
नाम कहा, तब जाकर वे अपने गंतव्य तक पहुंच पाए।[9]
राजकमल पर शोध कर चुकी डॉ. कल्पना, उनका पूरा नाम बताती हैं--वीर विक्रम फूल बाबू राजा मणींद्र नारायण
मधुसूदन दास चौधरी।[10]
अपने विविध नामों के बारे में राजकमल चौधरी ने
अपनी डायरी में विस्तार से लिखा है--I have changed my name several times.
Some names given by others. Some I gave myself. My father gave us the names--वीर, धीर, सुधीर। फूल बाबू is
my pet neme among school friends. When I was a 'gigolo' in Gaya 'Prostitute quarters', they called me राजा and फूल राजा। Name in certificate is मणींद्र नारायण। I started living (in
absconding period) with a name मधुसूदन
is my father's name. After wards I wrote some articles with this false name. राजकमल चौधरी is my pen name. This
proves I have been six or seven separate persons'[11]
इन नामों के अतिरिक्त और भी अनेक छद्म नामों से उन्होंने रचना की। अनामिका
चौधरी के नाम से ‘वदैही’
(मैथिली पत्रिका) में तत्कालीन
साहित्य-परक समीक्षा लिखते थे।[12]
इस नाम से प्रकाशित उनकी एक श्रेष्ठ कहानी भी है।[13]
हिन्दी मासिक पत्रिका ‘लहर’ में
वनलता सिंह के नाम से उनकी अनेक रचनाएं प्रकाशित हैं। इसके सम्बन्ध में ‘लहर’ के संपादक प्रकाश जैन स्वयं स्पष्ट करते हैं कि ये सारी उन्हीं की रचनाएं
थीं।[14]
अपनी पत्नी शशि चौधरी के नाम से भी उनकी अनेक
रचनाएं मिलती है। पत्नी के नाम से लिखने के पीछे, उन्हें भी साहित्य-जगत् में परिचिति प्रदान करने की
मंशा थी। हिन्दी मासिक ‘विनोद’
में ‘मणि मधुसूदन दास’ के नाम से सामयिक लेखन-परक उनके अनेक लेख प्रकाशित
हैं।[15] ‘लहर’ के राजकमल-अंक में मासूम अजीमाबादी के नाम से
उनकी एक छोटी-सी कविता प्रकाशित है।[16]
राजकमल की प्रेमिका अलकनंदा दास गुप्त के पास उनकी अनेक शायरी तथा गजलें मासूम
अजीमाबादी के नाम से हैं, डॉ.
कल्पना ऐसा कबूलती हैं।[17]
इस मसले पर उपेंद्र चौधरी कहते हैं कि मणींद्र नारायण चौधरी से राजकमल
चौधरी तक की यात्रा बड़ी दिलचस्प है। मैट्रिक में थे, तो उन्होंने अपना नाम मणींद्र
किरण रखा। कॉलेज में आने के बाद मणींद्र स्वर्णफूल लिखने लगे। फिर बदलकर
स्वर्ण फूल हो गए, और अंत में
राजकमल। राजकमल से पूर्व कुछ दिनों तक मणींद्र राजकमल के नाम से लिखते थे।
इन सारे नामों के अतिरिक्त, नाम सम्बन्धी अनेक तथ्य इस बीच प्रकाश में
आए हैं। राजकमल के परम आत्मीय (सम्बन्ध में उनके पितृव्य) और उनके प्रारंिभिक
जीवन के एकांत साक्षी, महिषी
ग्राम निवासी उपेंद्र नारायण चौधरी ने अपने एक साक्षात्कार में बताया कि लेखन
प्रारंभ करने के समय में राजकमल, एक
पेन नेम की खोज में थे। इस क्रम में उन्होंने अनेक नाम चुने। कुछ नामों से तो
उन्होंने रचना भी की। वे नाम थे--मणींद्र
किरण, पुष्पतीर्थ, स्वर्णफूल, पुष्पराज, मणींद्र राजकमल और राजकमल। अंततः सबसे सटीक उन्हें राजकमल लगा और बाद में
इसी को उन्होंने ग्रहण किया। सही नाम को इतिहास में अंकित होना था।[18]
वंश-परम्परा तथा माता-पिता
राजकमल का जन्म, परम्परागत
मैथिल ब्राह्मण वंश में हुआ। उनके पूर्वज महिषी के आदि-बाशिंदे थे और उनका मूल ‘बुधवारय महिषी’ था। इस सम्बन्ध में युयुत्सा में (राजकमल विशेषांक)
शिवचंद्र शर्मा की यह स्थापना पूर्णरूपेण असत्य है कि राजकमल का जन्म उसी वंश में
हुआ जिससे महामीमांसक मंडन मिश्र संबद्ध थे।[19]
वस्तुतः मंडन मिश्र का मूल ‘पलिवार
महिषी’ था और आज ‘पलिवार महिषी’ मूल का एक ही ब्राह्मण परिवार महिषी में है, शेष सभी मिथिला के विभिन्न भागों में बसे हुए
हैं। प्रासंगिक रूप से यह बात कह देना अनुचित न होगा कि मिथिला के महान सपूत डॉ.
अमरनाथ झा ‘पलिवार महिषी’
मूल के थे।
राजकमल के प्रपितामह स्व. बबुनंदन चौधरी महान्
तांत्रिक और पहलवान थे। परम्परागत रूप से उन्होंने शिक्षा हासिल नहीं की थी,
लेकिन अपनी अधिष्ठात्री देवी उग्रतारा
की दृढ़ भक्ति के कारण अत्यंत प्रतापी माने जाते थे। अपनी तंत्र-साधना से उन्होंने
इलाके के कितने ही लोगों का अनिष्टनिवारण किया था। महिषी के बुजुर्गों द्वारा आज
भी ये किंवदंतियां सुनी जा सकती हैं कि जब काफी दिनों तक वर्षा नहीं होती थी,
अथवा मौसम कृषि-कर्म के प्रतिकूल रहता
था, तो लोग तांत्रिक जी के पास
जाकर निवेदन करते थे कि वे भगवती से प्रार्थना करें। तांत्रिक जी पाग-दुपट्टा धारण
कर रामशाला (महिषी का परम्परागत चौपाल-स्थल, जो राजकमल के पूर्वजों द्वारा निर्मित है और अतिशय
पवित्र माना जाता है) पर पहुंचते थे। वहां से गाँव के लोगों को साथ कर भगवती स्थान
आते और अंजलि जोड़कर निवेदन करते--‘मां
बहुत भेल। आब भाभट समेटू।’ (अर्थात्
हे माते! भक्तजन परेशान हो रहे हैं! अब इनका कल्याण करें) और मौसम अनुकूल हो जाता
था।[20]
राजकमल के पितामह पं. फूदन चौधरी थे। राजकमल
के संदर्भ में लिखे गए अनेक आलेखों में और ग्रंथों में पं. फूदन चौधरी का नाम गलत
दिया गया है। डॉ. कल्पना ने खुदन चौधरी लिखा है, जो गलत है।[21]
शिवचंद्र शर्मा ने अपने लेख में सुदन चौधरी लिखा है, यह भी सही नहीं है।[22]
यहां तक कि असंख्य तथ्यों की सही जानकारी रखने वाले रामकृष्ण झा ‘किसुन’ भी अपने लेख में पंडित जी का नाम सही नहीं दे पाए।
उन्होंने भी ‘खुदन चौधरी’
ही लिखा है।[23]
पंडित फूदन चौधरी ने पारम्परिक रूप से
संस्कृत भाषा का अध्ययन किया था। व्याकरण, साहित्य और दर्शन शास्त्र में उन्होंने बहुज्ञता हासिल की थी। ‘शास्त्रर्थ-पारंगत’ की उपाधि से विभूषित पं. फूदन चौधरी मधुबनी स्टेट के
राज पंडित थे। वे राजरानी के परम विश्वासी थे। स्टेट के बहुत सारे वित्तीय कार्यों
का भार उन्हीं पर छोड़ा जाता था। पंडित जी को स्टेट की ओर से काफी बड़ी-बड़ी जमीनें
महिषी, आरा (महिषी के समीप का एक
गाँव) तथा उससे सटे अनेक गांवों में मिली थीं। उन जमीनों के अनेक प्लॉट
हाल-फिलहाल तक राजकमल के परिवार वालों के नाम अधिकृत थे।
पंडित फूदन चौधरी के विशाल ज्ञान से मिथिला के
तत्कालीन पंडित प्रभावित थे। उनके विरोधियों की संख्या भी कम नहीं थी। श्री
नरेंद्र चौधरी के सौजन्य से पंडित जी की विद्वत्ता की जो कहानी मालूम हुई, तदनुसार एक बार दरभंगा महाराज लक्ष्मीश्वर
सिंह ने अपने भतीजों के उपनयन संस्कार के क्रम में मिथिला के समस्त पंडितों को
आमंत्रित किया। पर उपनयन-मंडप तक पहुंचने की विचित्र शर्त थी। बाहर के गेट पर एक
विचित्र तरह का जटिल और अतिशास्त्रीय श्लोक लिखकर टांग दिया गया था और निर्देश था
कि वही पंडित भीतर प्रवेश कर सकते हैं, जो उस श्लोक की व्याख्या कर सकें। पं. फूदन चौधरी भी वहां आमंत्रित थे।
पंडित जी वहां पहुंचे तो पंडितों की एक बड़ी भीड़ को बाहर निराश और हतोत्साह हुए
देखा। वे लोग श्लोक की व्याख्या नहीं कर सके थे, अस्तु मंडप में प्रवेश से बहिष्कृत हो गए थे। पंडितजी
को पंडितों का यह अपमान बहुत बुरा लगा। उन्होंने गेट पर जाकर श्लोक पढ़ा। फिर
राजपंडित को एवं महाराज के विश्वस्त विद्वान मंत्री लोगों को बुलवाकर कहा कि श्लोक
का अर्थ तो मैं बता सकता हूं, पर
यह श्लोक अशुद्ध है। पहले इसको शुद्ध करवाइए। इतना सुनकर चारों ओर हड़कंप मच गया।
महाराज स्वयं गुम्म रह गए। पंडितों की सभा लगी। पंडित फूदन चौधरी के विचार पूछे
गए। उन्होंने श्लोक में तीन अशुद्धियां दिखाईं और बहुत निवेदन करने के बाद इस शर्त
पर मंडप तक जाना स्वीकार किया कि आगत सभी पंडितों को मंडप तक सादर ले जाया जाए।[24]
पंडित फूदन चौधरी द्वारा लिखा कोई ग्रंथ
प्राप्त नहीं है, पर अनेक गूढ़
ग्रंथों पर जो उनकी टीका-टिप्पणियां थीं, वे आज भी पांडुलिपि के रूप में उनके परिवार में सुरक्षित हैं।
पंडित फूदन चौधरी की मृत्यु मात्र 39 वर्ष की आयु में हो गई। पर उतनी-सी उम्र में
उन्होंने जो किया, वह किसी के
लिए भी स्पृहणीय हो सकता है।
पंडित फूदन चौधरी के चार पुत्र हुए--सुरेंद्र नारायण चौधरी, मधुसूदन चौधरी, नरेंद्र नारायण चौधरी तथा उपेंद्र नारयण चौधरी। यहां
भी एक प्रसंग की चर्चा आवश्यक प्रतीत होती है। राजकमल के गहरे मित्र चंद्रमौलि
उपाध्याय, राजकमल के वक्तव्य का
हवाला देेते हुए कहते हैं कि राजकमल की वंशावली मंडन मिश्र से शुरू होती है...उनके
घर के किसी भी लड़के का नाम ‘म’
से ही शुरू होता था। कोई अज्ञात कथा है
इसके पीछे।[25] इसमें वंशावली से
संबद्ध धारणा तो पूर्व ही खंडित की जा चुकी है, पुत्रों के नामकरण से संबद्ध धारणा भी यहां खंडित हो
जाती है। हां, यह संभव है कि
पंडित मधुसूदन चौधरी ने अपने नाम के प्रारंभिक अक्षर ‘म’ की
अस्मिता अक्षुण्ण रखने की धारणा से अपने तीनों पुत्रों का नाम ‘म’ से ही प्रारंभ किया हो। नरेंद्र नारायण चौधरी तथा उपेंद्र नारायण चौधरी,
शिक्षा तथा कार्यालयीय कार्य-व्यवसाय
में थे। सेवा निवृत्ति के पश्चात नरेंद्र नारायण चौधरी अपनी वृद्धावस्था महिषी में
बिताकर 27.12.2010 को दिवंगत हुए,
उपेंद्र नारायण चौधरी का देहांत 01.07.2006 को हुआ। सबसे बड़े सुरेंद्र नारायण चौधरी,
दीर्घ जीवन बिताने के बाद सन् 1985 में परलोक सिधारे। राजकमल के पिता स्व.
मधुसूदन चौधरी मंझले भाई थे, उनकी
मृत्यु राजकमल की मृत्यु से मात्र पांच माह पूर्व 10 जनवरी, 1967 को हुई।
राजकमल के बड़े पितृव्य सुरेंद्र नारायण चौधरी
बहुत बड़े पढ़ाकू थे। देश-विदेश के साहित्य का गंभीर ज्ञान रखते थे। उन्होंने अपनी
युवावस्था में ही ‘सरस्वती
पुस्तकालय’ की स्थापना की थी,
जिसमें विविध विषयों की हजारों पुस्तकें
हाल तक उपलब्ध थीं। राजकमल की गंभीर अध्ययन-प्रवृत्ति पर निश्चय ही उनके बड़े
पितृव्य का विपुल प्रभाव था।
राजकमल के पिता मधुसूदन चौधरी के सम्बन्ध
में डॉ. कल्पना अपने शोध-ग्रंथ में लिखती हैं--उनके पिता पंडित मधुसूदन चौधरी थे, जो ‘कंकावती’ पर छपे परिचय
के अनुसार गणित और साहित्य के सुप्रसिद्ध विद्वान थे; किंतु शिवचंद्र शर्मा के अनुसार यह बात गलत है।[26]
‘कंकावती’ (राजकमल का हिन्दी कविता-संग्रह) के अंतिम आवरण-पृष्ठ
पर उनके विस्तृत परिचय में कहा गया है--पिता: पंडित मधुसूदन चौधरी। गाणित और साहित्य के अधिकारी विद्वान।
इस संदर्भ में शिवचंद्र शर्मा ने लिखा--राजकमल चौधरी के जनक पंडित मधुसूदन चौधरी,
गणित और साहित्य के सुप्रसिद्ध विद्वान
नहीं थे। हां, उन्होंने नियमित
वह शिक्षा अवश्य प्राप्त की थी, जिसके
आधार पर उच्च माध्यमिक विद्यालयों के वे अध्यापक रहे। बाद में, नवादा (गया) के उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के
प्राचार्य पद पर अधिक दिनों तक बने रहकर, वहीं से रिटायर्ड होकर, राजकमल
के निधन के कुछ मास पूर्व, जीवन
से भी रिटायर (हार्ट फेल हो गया था) कर गए।[27]
विविध सूत्रों के विश्लेषण के आधार पर हम यह
कह सकते हैं कि मधुसूदन चौधरी के व्यवसायादि के सम्बन्ध में तो शिवचंद्र शर्मा
का तथ्य सही है, पर उनकी योग्यता
और विद्वत्ता के सम्बन्ध में उन्होंने असत्य लिखा है। इस संदर्भ में सही तथ्य का
उद्घाटन, रामकृष्ण झा ‘किसुन’ ने अपने निबन्ध में किया है, जो हमारे द्वारा प्राप्त तथ्य से मेल खाता है। उनके
अनुसार-- (राजकमल के) पिता पं.
मधुसूदन चौधरी गणित और साहित्य के वस्तुतः अधिकारी विद्वान थे। उनको जिस तरह
नेसफील्ड का अंग्रेजी व्याकरण कंठस्थ था, उसी तरह हाल एंड स्टीवेन्सन का रेखागणित। जिस तरह बिहारी, देव, रत्नाकर, कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, निराला, प्रसाद, पंत, महादेवी और
मैथिलीशरण कंठस्थ थे, उसी तरह
विद्यापति, गोविंददास, चंदा झा, कविवर सीताराम झा भी। जिस तरह शेक्सपीयर, मिल्टन, शेली, कीट्स
और वर्ड्सवर्थ प्रस्तुत थे, उसी
तरह कालिदास, माघ, भास, भारवि और भवभूति, जयदेव
प्रभृत्ति भी। मुझे उनकी विद्वता का बहुत तो नहीं किंतु अनेक बार परिचय मिला है।
एक बार कटक में अखिल भारतीय माध्यमिक शिक्षक संघ का अधिवेशन था। स्वर्गीय चौधरी जी
से जमकर दो-तीन घंटे तक मेरी साहित्य पर चर्चा हुई थी। संस्कृत, हिन्दी, मैथिली और अंग्रेजी--चारों भाषाओं में जैसी परिमार्जित और सुगंभीर
विद्वत्ता का दर्शन मुझे उनमें मिला था, वह वस्तुतः स्मरणीय रहेगा।
किसुन आगे लिखते हैं--वे (मधुसूदन चौधरी) पुराने ‘खेवा’ के
कट्टर मैथिल ब्राह्मण थे। वे संभवतः सन् 1930-31 में असहयोग आन्दोलन के क्रम में जेल भी गए थे और
प्रारंभ में कविता भी करते थे, जो
तत्कालीन पत्रिकाओं ‘गंगा’,
‘सुधा’ आदि में प्रकाशित भी हुई थीं।
वे अनेक विद्यालयों में अध्यापक रहने के बाद
काफी दिनों तक गया जिले के नवादा के उच्चतर माध्यामिक विद्यालय के प्राचार्य पद पर
रहकर सेवानिवृत्त हुए और वहीं हृदयगति अवरुद्ध हो जाने के कारण स्वर्गवासी हो गए।’[28]
राजकमल से संबद्ध कुछ जिज्ञासाओं का समाधान
करते समय श्री नरेंद्र नारायण चौधरी भी अपने कौलिक संस्कार की झांकी-सी देते हुए
बताते हैं कि राजकमल चौधरी के पितामह स्व. फूदन चौधरी संस्कृत के प्रकांड विद्वान
थे। संगीत शास्त्र की उन्हें अच्छी-खासी जानकारी थी। उनके इस गुण का साक्ष्य
प्रस्तुत करते हुए नरेंद्र चौधरी कहते हैं कि भ्रमरपुर में एक बार महाभारत पाठ
करने में उन्हें एक वर्ष लगा था। संपूर्ण पाठ उन्होंने संगीत शास्त्र के नियम से
किया था। प्रत्येक राग ऋतु और प्रकृति के अनुकूल गाया गया था।
एक समय की बात है। पं. फूदन चौधरी सहरसा जिला
के एकाढ़ गाँव (नौहट्टा प्रखंड) के किनारे से गुजर रहे थे। उन्हें अपनी जातीय
श्रेष्ठता का गौरव था। प्रसंगवश उन्होंने एकाढ़ के ब्राह्मणों को ‘निम्न’ कह दिया। इसकी प्रतिक्रिया में एकाढ़ वालों ने एक हजार
रुपए दहेज देकर श्री नरेंद्र नारायण चौधरी की शादी अपने यहां करवाई। अपनी जिंदगी
के कुछ अविस्मरणीय खंडों को सुनाते हुए वे कहते हैं कि 1934 का भूकंप, 1937 का चुनाव, लाल भैया (राजकमल के पिता, स्व.
मधुसूदन चौधरी) का देहांत... कुछ ऐसे प्रसंग हैं, जो मेरे मस्तिष्क के तार-तार को झंकृत कर देते हैं।
अभिभावकों के अंधविश्वास और उनके प्रति बच्चों की अंधभक्ति से लोगों की जिंदगी
बर्बाद हो जाती थी। साढ़े पंद्रह वर्ष की उम्र में शादी हुई। पढ़ने के प्रति खूब
जिज्ञासा थी। लेकिन, इस विचित्र
शादी-प्रकरण से प्रतिभा का हनन हुआ। ससुराल में लड़कियों के साथ अंटा-कौड़ी खेलता रह
गया।
ग्रामीण परिवेश में रहने वालों में जायदाद आदि
को लेकर गोतियों-सम्बन्धियों के बीच हिस्सेदारी में मत-मतांतर हो ही जाता है।
कालांतर में जब उनके परिवार में ऐसा हुआ, तब की बात बताते हुए नरेंद्र चौधरी कहते हैं कि इन तमाम मतांतरों और तनावों
के बावजूद मेरा सम्बन्ध लाल भैया के परिवार से बहुत ही अच्छा रहा। सभी भाइयों
में बंटवारा हो चुका था। सबकी रसोई अलग-अलग पकने लगी थी। फिर भी राजकमल को मैं
अपनी गोद में खेलाता ही था। लाल भैया और भाभी के प्रति मेरी अनन्य भक्ति थी। यह
भक्ति, धाक में व्यक्त होती थी।
मेरी मानसिकता पर उनकी ऐसी धाक जमी हुई थी कि मेरे हाथों भाभी के नाम जो चिट्ठियां
भेजा करते थे, उन्हें खोलकर पढ़ने
का भी साहस नहीें होता था।
पं. नरेंद्र नारायण चौधरी बताते हैं कि परसरमा
गाँव (सहरसा जिला) के पं. सदाशिव झा, मधुसूदन चौधरी के शिक्षक रहे थे। उन्हीं की एक अल्हड़ और मंदबुद्धि पुत्री
से उनकी शादी हुई। किंतु इस पत्नी से कोई संतोनोत्पत्ति नहीं हुई और वे परलोक
सिधारीं।
उनकी दूसरी शादी रामपुर में हुई। पत्नी का नाम
था--त्रिवेणी। केंदुला और रतन--दो और भी बहनें त्रिवेणी जी की थीं। पं.
मधुसूदन चौधरी अत्यंत शौकीन मिजाज के व्यक्ति थे। सन् 1926 में त्रिवेणी देवी के साथ उनकी शादी हुई। इस पत्नी से
उनकी चार संतानें, तीन पुत्र और
एक पुत्री थीं और, 1939 के बाद,
वे भी इनके साथ नहीं रहीं, काल कवलित हो गईं।
कहते हैं कि तीसरी शादी के बाद पं. मधुसूदन
चौधरी, अपनी संतानों (राजकमल एवं
उनके अन्य दो भाई तथा एक बहन) से निरपेक्ष हो गए थे। अपने पुत्र राजकमल चौधरी के
साथ दर्शन शास्त्र जैसे गूढ़ विषयों पर जब-तब उनकी सैद्धांतिक बहस भी होती थी। उसी
बहस में एक बार इतने रुष्ट हुए कि पिता को मुखाग्नि देने तक का नाता तोड़ लिया। इस
तथ्य की पुष्टि कई साक्ष्यों से होती है। नरेंद्र नारायण चौधरी राजकमल के पिता की
प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि ‘‘यद्यपि
उनसे कोई गलती होती नहीं थी, पर
बाद के दिनों में उनमें एक कमजोरी आ गई थी। उनको सोचना चाहिए था कि ये रामपुर वाली
की संतानें हैं...वैसे विमाता से राजकमल की अच्छी पटती थी, फिर भी...। एक बार पिता से विशेष रूप से उलझ गए। काफी
उग्र हो गए...।’’ एक दूसरा
उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि ‘‘जनवरी
1967 की एक रात बारह बजे लक्ष्मण
झा, मैनेजर, महिषी आए। हम लोग सोए हुए थे। उन्होंने दरवाजा
खटखटाया। पता लगा कि लाल भाई (पं. मधुसूदन चौधरी) का देहांत हो गया, बिजली के झटके जैसा लगा। सुना कि नवादा में
(उस समय वे वहीं के स्कूल में पदस्थापित थे) स्नान करते वक्त पानी ढालते समय ही
उनका सम्बन्ध इस नश्वर संसार से टूट गया। इसे योग मृत्यु कहते हैं।...संयोग
देखिए कि खास उसी रात फूल बाबू निशा पूजा करने तारा-स्थान (महिषी नगरी की सिद्ध
पीठिका) चले गए थे। बोझिल मन से मैंने यह निर्णय लिया कि स्त्री-समुदाय में यह खबर
रात को न दूं। फूलबाबू को सूचना देने हम लोग तारा स्थान चल पड़े। ...मंदिर पहुंचकर
हम लोग प्रांगण में खड़े हो गए, पंडों
की मारफत खबर भेजकर प्रतीक्षा करते रहे, पर फूलबाबू मंदिर से बाहर नहीं आए। हम लोगों को अच्छी तरह मालूम था कि
राजकमल पुजारी नहीं हैं। उनका यह आचरण उस समय मुझे बहुत बुरा लगा था। अंततः हम लोग
वहां से चल पड़े। जैसे-तैसे सिमरिया (गंगा नदी का प्रसिद्ध घाट) पहुंचे, लाल भाई की अंत्येष्टि सम्पन्न हुई। मुखाग्नि
सदन जी ने दी।...यह बात अलग है कि बाद में ‘उतरी’ धारण
राजकमल ने किया। श्राद्ध-कर्म भी किया। पूरे गाँव के मात्र एक व्यक्ति को वे इस
क्रिया के लिए पंडित मानते थे। वे थे--पं. चतुर ठाकुर। उनको बुलवाकर उन्होंने संपूर्ण श्राद्ध-कर्म किया। भोज
करने जैसी फिजूलखर्ची और सामाजिक अंधविश्वास आदि में उनकी आस्था नहीं थी। भोज के
समय की उनकी उदासीनता से लग रहा था जैसे ‘रोम जल रहा हो और नीरो वंशी बजा रहा हो।’ एक तरफ आंगन-दरवाजे पर आए समस्त निमंत्रित लोगों को
बैठाने की व्यवस्था करने वाला कोई नहीं था और उधर फूलबाबू ताश-शतरंज में मग्न थे।
सारी अव्यवस्था के बावजूद श्राद्ध-कर्म बेहतरीन ढंग से हुआ--यह चकित करने वाली घटना थी।’’
अड़तीस वर्ष की आयु में पं. मधुसूदन चौधरी ने
जून 1940 में फिर तीसरी शादी
परसौनी गाँव में की। उनसे भी संतानें हुई।
राजकमल चौधरी, पंडित मधुसूदन चौधरी की द्वितीया पत्नी, त्रिवेणी देवी के तीन पुत्रों में ज्येष्ठ
हैं। उनके दो सहोदर भाई और एक बहन भी थे। पं. नरेंद्र नारायण चौधरी के कथनानुसार
बहन, विमला की मृत्यु ढाई वर्ष
की आयु में ही हो गई थी। कालांतर में उनके मझले भाई धीरेंद्र नारायण चौधरी भी अपने
चार पुत्रों की थाती छोड़कर चल बसे। कनिष्ठ भाई माधवेंद्र नारायण चौधरी ही जीवित
रहे, उनका पुकारने का नाम सुधीर
चौधरी था। दिनांक 08.02.2010 को
उनका भी देहांत हो गया।
त्रिवेणी देवी ही राजकमल की जननी थीं। राजकमल
के पारिवारिक गृह में (माहिषी स्थित) त्रिवेणी देवी का आदमकद छायाचित्र है,
तदनुसार वे भारी काया की नारी थीं और
उनके मुखमंडल पर फैली दीप्ति उन्हें राजरानी-सी गौरवमयी बनाती रही होगी। नरेंद्र
नारायण चौधरी के अनुसार उनका स्वर इतना गंभीर और अर्थपूर्ण होता था कि उनकी आज्ञा
को काटना किसी के वश की बात न थी।[29]
उपेंद्र नारायण चौधरी के अनुसार--वे बच्चों को दुलारने तथा सुपारी चबाने की
शौकीन थीं। उनकी कमर में कभी भी दस-पांच अदद सुपारियां खोंसी हुई मिल सकती थीं।[30]
राजकमल जब छह-साढ़े छह वर्षों के थे, उसी समय उनकी मां का देहांत हो गया और पिता ने
कुछ ही दिनों के बाद दूसरी शादी कर ली। पिता के इस कृत्य के बारे में राजकमल ने
काफी विस्फोटक रूप से लिखा है--मेरी
अपनी मां की मौत के एक सौ अठासी दिन बाद पास के ही एक पहाड़ी गाँव से मेरे पिता जी
यह औरत खरीद लाए थे। कीमत आठ सौ रुपए नकद और दो हजार रुपयों के गहने और कपड़े।[31]
इसी संदर्भ में लिखते हुए उनके अनुज सुधीर
चौधरी कहते हैं--मात्र हमारी
सौतेली मां की प्रसन्नता के ही लिए पिताजी, भाईजी (राजकमल) से और हम अन्य भाइयों से दूर होते गए।
और इसका भाईजी पर काफी बुरा असर पड़ा था।[32]
किंतु इन सारे तथ्यों के विरुद्ध, उनकी विमाता, जो अब भी स्वस्थ हैं और महिषी में रहती हैं, कहती हैं--फूल बाबू को सब दिन मैं अपनी कोख का बेटा मानती रही।
वे भी मेरे प्रति विपुल श्रद्धा, भक्ति
और प्रेम रखते थे। अपने पिता की बातें वे काट भी देते थे, पिता से झगड़ भी जाते थे, किंतु मैंने स्नेहवश कोई बात उनसे कही हो और उन्होंने
न माना हो--ऐसा याद नहीं है। आज
भी उनका स्मरण आता है, तो
व्याकुल हो जाती हूं।[33]
पारिवारिक तथा सामाजिक परिवेश
राजकमल चौधरी का जन्म रामपुर में हुआ और बाल्यावस्था का कुछ भाग वहीं
बीता। पिता व्यवसाय से शिक्षक थे और राजकमल के जन्म के समय वे जयनगर में पदस्थापित
थे। बाद में उनका स्थानांतरण नवादा और फिर गया हुआ। मृत्यु-पर्यंत वे गया में ही
रहे। राजकमल की बाल्यावस्था इन सारे स्थानों से जुड़ी रही।
राजकमल के पिता मधुसूदन चौधरी कट्टर विचारों
के परम्परागत मैथिल ब्राह्मण थे। यद्यपि तत्कालीन परिस्थिति से कमोबेश प्रभावित
होकर महात्मा गांधी के स्वातंत्र्य आन्दोलन में रुचि रखते थे, पर अपने सामाजिक जीवन में प्रगतिशीलता और परम्पराभंजन
उन्हें पसंद नहीं था। वे कठोर अनुशासनप्रिय थे। युवावर्ग की उन्मुक्तता और
स्वातंत्रयप्रियता उन्हें अप्रिय लगती थीं। अपने द्वारा अनुभूत सत्य को वे सबसे
बड़ा मानते थे। दूसरों के मुक्त क्रिया-कलाप पर उन्हें भरोसा नहीं था।
राजकमल की बाल्यावस्था की मानसिकता इन सारी
वस्तुओं से गहरे तौर पर परिचित थी। बालापन से ही अपेक्षाकृत गंभीर और चेतन स्वभाव
के राजकमल, पिता के इन सारे अनुभवों
और अभ्यासों को नापसंद करते थे। अपने आत्मकथात्मक उपन्यास में वे उस कालखंड के
संदर्भ में लिखते हैं--सोचने की,
इच्छा करने की, किसी भी वस्तु को अपने निर्णय से स्वीकार अथवा
अस्वीकार करने की क्षमता मुझे नहीं दी गई थी। नहीं दिया गया था इतना भी साहस।
मुझसे यह कहा गया कि स्वयं किसी भी स्थिति का अनुभव मुझे नहीं करना चाहिए। मेरे
अभिभावकों और पूर्वजों के अनुभव मेरे लिए पर्याप्त हैं। इच्छाएं संभवतः अनुभव से
उत्पन्न होती हैं। अनुभव प्राप्त करने की कोई सुविधा मुझे अपने पारिवारिक वातावरण
में नहीं थी।[34]
मधुसूदन चौधरी विद्वान और योग्य अवश्य थे,
पर बाल-मनोविज्ञान से कतई परिचित नहीं
थे, ऐसा राजकमल द्वारा लिखित
विवरण से ही स्पष्ट होता है। वे spare the rod,
spoil the child के सिद्धांत पर
विश्वास करते थे। अपने एक पत्र में राजकमल ने अपने पिता के बारे में लिखा है कि वे
एक अच्छे शिक्षक थे, किंतु एक
अच्छे पिता नहीं।[35] मधुसूदन चौधरी का
श्रेष्ठ पिता नहीं होना, बालक
राजकमल के लिए बहुत अहितकर साबित हुआ।
पिता चाहते थे कि उनके पुत्र एक योग्य और
संस्कारी ‘ब्राह्मण’ बनें। ब्राह्मण शब्द को उद्धरण चिद्द में रखने
का तात्पर्य यह है कि वे अपने इस ज्येष्ठ पुत्र को परम्परा-समन्वित कर्मकांडी का
रूप देना चाहते थे। इतिहास उन्हें बहुत रुचता था। इस कारण वे चाहते थे कि उनका यह
पुत्र भी इतिहास में रुचि ले। जो उन्हें प्रिय था, अपने इस पुत्र पर भी वे वही आरोपित करना चाहते थे।
नार्मन एल. ने अपनी पुस्तक ‘मन’ में कहा है कि जब अभिभावक अथवा शिक्षक द्वारा यह प्रयास किया जाता है कि
उनके सारे गुण अथवा अवगुण बच्चों में आरोपित हो जाएं और जैसे वे स्वयं हैं,
वह बच्चा भी वैसा ही हो, तो यह बालक के विकास हेतु बहुत बाधक साबित
होता है और ऐसा बच्चा या तो मूर्ख होता है या विद्रोही।[36]
नार्मल एल. का यह कथन राजकमल के संदर्भ में
इतना सटीक बैठता है कि लगता है उनके जीवन को ही ध्यान में रखकर यह पंक्ति लिखी गई
हो। अपनी आत्मकथा में राजकमल लिखते हैं-- (आज्ञा यही दी गई थी) कि मैं सुबह तीन बजे उठकर गुलाम और खिलजी वंश का
राजकीय इतिहास, ईसवी सन् की
तारीखों के साथ दुहराया करूं और नींद में डूबी हुई आंखों से बगल के बिस्तरे में
खर्राटे भरती हुई अपनी मां को देखता रहूं। ये दोनों अनुभव मुझे अप्रिय थे, और मेरे पिता के द्वारा मुझ पर जबरदस्ती लादे
जा रहे थे, जैसे किसी नए बैल पर
अनाज के बोरे लादे जाते हैं, मंडी
तक पहुंचाने के लिए।[37]
‘ऐसा न होता, तो क्या होता...’ जैसे तथ्य पर निरंतर विचार करना, मनुष्य के कल्पनाशील मस्तिष्क का स्वभाव होता
है। मनुष्य, अतीत को मात्र अतीत
(समाप्ति-बोधक) मानने को तैयार नहीं होता। वह नकारात्मक दिशा में हेतुहेतुमद्भूत
के चिंतन का अभ्यासी होता है। राजकमल चौधरी के संदर्भ में विचार करते हुए इस तरह
की बात मस्तिष्क में उभरती है कि मधुसूदन चौधरी अपनी द्वितीय पत्नी त्रिवेणी देवी
(राजकमल की जननी) के मृत्यूपरांत यदि विवाह नहीं करते, तो राजकमल के जीवन की दिशा कुछ और होती। इस बात की महत्ता
को नरेंद्र नारायण चौधरी भी स्वीकारते हैं।[38]
अपनी बाल्यावस्था और तरुणाई की जिंदगी को
रेखांकित करते हुए, पिता द्वारा
लादे गए संस्कार के सम्बन्ध में एक जगह राजकमल लिखते हैं--मैंने इस जीवन में स्वतंत्र होने की चेष्टा की थी--अपने पारिवारिक संस्कारों से और सामाजिक
अर्थ-तंत्र से।...किंतु, मेरे
पिता मुझे ब्राह्म मुहूर्त में प्रतिदिन दस हजार गायत्री मंत्र जाप करने वाला
ब्रह्मचारी बनाना चाहते थे...।
...मुझे परिवार के ब्राह्मण संस्कारों में
दीक्षित करने के लिए, पिताजी के
पास कुल तीन तरीके थे--आज्ञा,
आदेश और मार-पीट। आठ साल की उम्र से
सोलह की उम्र तक, मैं लगभग हर
रोज पिटता रहा हूं, और उसी औसत
से ब्रह्मचर्य, ब्राह्मणत्व,
परिग्रह, आज्ञाकारिता के विषय में उपदेश सुनता रहा हूं।[39]
अपने पिता के स्वभाव एवं आदर्श-चिंतन के बारे
में राजकमल ने यह लिखा कि उन्हें (पिता को) पिता की आज्ञा से जलयान की डेक पर
पत्थर की मूर्ति-सा अविचल खड़ा बालक अत्यंत प्रिय था, जो यान में आग लगने पर जलकर स्वाहा हो गया था। पिता
अपने प्रत्येक उपदेश में उस बालक की चर्चा (उदाहरण रूप में) अवश्य करते थे। किंतु,
उस मूर्ख बालक से राजकमल को घृणा होती
थी, और वे सोचते कि ऐसे मूर्ख को
अपनी मूर्खता की ऐसी सजा उचित ही मिली।[40]
नार्मल एल. के निष्कर्षानुसार, राजकमल मूर्ख और भोंदू तो नहीं हुए, विद्रोह और क्रांतिकारिता उनके स्वभाव में आई।
वे लिखते हैं कि विद्रोह की स्थिति में आकर उन्होंने अपने पिता के घर में आग लगा
देने की चेष्टा की थी। चौक और स्टेशन रोड के आवारा और दिग्भ्रमित छोकरों के साथ
ताड़ी पीने लगे थे, ताश खेलने लगे
थे, नाटक कंपनी में और अन्यत्र
भी तरुणियों की खोज में भटकने लगे थे। घर से भाग जाते थे, महत्त्वपूर्ण चीजें चुरा लेते थे, पिता के अहंकार को ठेस लगे--इस निमित्त एक से एक क्रियाकलाप खोजते रहते
थे।[41]
बहुत कम आयु में ही राजकमल ने दो-दो मृत्यु
निकट से देखी थी। उनका भावुक तथा संवेदनशील मन उससे काफी मथित हो गया था। दुःख और
अवसाद उन्होंने उसी समय भोग लिया था। उनकी एक छोटी बहन की मृत्यु मात्र ढाई वर्ष
की आयु में हो गई थी। कुछ ही दिनों बाद उनकी जननी भी परलोक गईं। मां राजकमल के लिए
बहुत प्रिय थीं। मां पर कालांतर में उन्होंने अनेक कविताएं भी लिखीं, जिनमें पीड़ा और करुणा अनुस्यूत है। उनकी
मृत्यु ने राजकमल की बालसुलभ चंचलता और रौनक समाप्त कर दी। कारण, उसके बाद ‘अपना’ कहने
लायक उनके लिए इस दुनिया में कोई नहीं रहा। एक जगह लिखते हैं--राजकमल चौधरी को अपनी सारी उत्तर क्रियाएं
विरासत में अपनी मां से मिली थीं। मां उस बेडौल पत्थर की मूरत की तरह थी, जिसे लोग पुराने किलों के खंडहरों से निकाल
लाते हैं, और महलों में फिट कर
देते हैं।[42]
उनकी मात्र ये दो पंक्तियां ही अपनी मां के
प्रति उनकी समस्त श्रद्धा, करुणा
और पीड़ा को स्पष्ट कर देती हैं तथा इनकी पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था पर,
जहां नारियों के लिए अत्यंत अपमानजनक और
लघुतर स्थान है, व्यंग्य भी करती
हैं।
राजकमल के पिता बुद्धिमान और विवेकी होने की
बावजूद कामुक और स्त्री-शरीर के दास थे, ऐसा राजकमल के उद्धरणों से ही ज्ञात होता है। जीवन के तृतीय चरण में भी
उनकी काम-लोलुपता घटी नहीं थी और अपने तीन-तीन संस्कारी एवं योग्य पुत्रों का हित
नहीं सोच सके, और दूसरी पत्नी की
मृत्यु के मात्र 188 दिनों के
उपरांत तीसरी शादी कर बैठे। यह बात पहले भी कही जा चुकी है (राजकमल के अनुसार) कि
राजकमल के पिता ने आठ सौ रुपए नगद और दो हजार के गहने देकर अपनी तीसरी पत्नी के
रूप में एक तरुणी खरीद ली थी।
अनेक सूत्रों से ज्ञात होता है कि इतना कुछ
होते हुए भी पिता, बालक मणींद्र
का विकास चाहते थे। राजकमल के पितृव्य जनाते हैं कि एक स्कूल-छात्र के लिए जितनी
सुविधाएं हो सकती हैं, सब देने
की चेष्टा करते थे।[43]
अपने पिता के प्रति बाल्यावस्था से ही उनके मन
में जिस तरह का क्षोभ और घृणा थी, वह
विमाता के आगमन के बाद निरंतर बढ़ती गई। इस स्थिति का विवरण प्रस्तुत करते हुए श्री
जीवकांत कहते हैं--एक लड़का था।
उम्र तेरह-चौदह साल। वह हमेशा अपने को सारी दुनिया से कटा-कटा महसूस करता था। उसकी
अपनी मां नहीं थी। वह हमेशा अपनी तीसरी मां से लड़ता-झगड़ता रहता था--कभी नीली-लाल पेंसिल के टुकड़े के लिए, कभी किसी चीज के खाली डिब्बे के लिए। जैसा
स्वाभाविक है, डांट कभी भी मां
को नहीं पड़ी। डांट पड़ती रही लड़के को। और, लड़का दिन-दिन पिता से, मां
से, इन सारे सम्बन्धों से,
सारी भीड़ से अलग होता गया। इसी का
परिणाम था कि एक दिन लड़के ने अपने बाप से कह दिया--जाइए मैं आपका बेटा नहीं हूं, आपको मेरे हाथ की आग नहीं मिलेगी।[44]
उनके पारिवारिक परिवेश के संदर्भ में विचार
करते हुए यह तथ्य सामने आता है कि मध्यम वर्ग का नैष्ठिक ब्राह्मण परिवार एक सीमा
तक सामंतवादी होता था। यह सामंतवादी प्रवृत्ति इतनी कट्टर होती थी कि अपने परिवार
के बच्चों के प्रति भी सख्ती से इसका पालन किया जाता था। स्नेह तथा सहानुभूति का
अभाव सामान्य बात थी।
इस तरह विचार करें तो पारिवारिक तथा सामाजिक
सीमा के प्रति उत्कट मोहभंग राजकमल को बालापन में ही हो गया था। सन् 1934 के प्रलयंकारी ऐतिहासिक भूकंप का जो कुछ स्मरण
उन्हें था, उसका उल्लेख उन्होंने
अपने एक आत्मपरक लेख में किया है, जो
अंतर्मथित करने वाला है--जिस समय
धरती जोरों से कांप रही थी, उस
समय राजकमल के पिता ने अपनी पत्नी को बचाने की चेष्टा तो की किंतु उन्हें यह सुध
नहीं रही कि बगल में आतंकित एक बालक भी खड़ा है--जो आंगन में दरार फटती धरती को, अपने पिता को भागते देखकर मूक हो गया है। जिसकी ओर
देखने की, जिसके विषय में सोचने
की फुर्सत किसी को नहीं है।[45]
मैथिल ब्राह्मणों के परम्परागत समाज में
राजकमल चौधरी का लालन-पालन हुआ। विविध प्रकार की मिथ्या धारणा तथा अविवेकपूर्ण
अंधविश्वास इस समाज में वे देखते रहे। भविष्य पर आवश्यकता से अधिक निर्भर तथा अतीत
के आगे वर्तमान को झूठ ठहराने का दंभ मैथिल समाज का स्थायी भाव रहा है। इन्हीं
स्थितियों का चित्रण उन्होंने अपने प्रसिद्ध उपन्यास आदि में किया है।[46]
उक्त समस्त सामाजिक स्थितियों में ही राजकमल
ने अपनी जीवन-दृष्टि को मांजा और समाज-व्यवस्था की मानव विरोधी हरकतों को
प्रश्नांकित किया।
शिक्षा-दीक्षा
विविध सूत्रों से ज्ञात होता है कि अल्प वयस में ही राजकमल अलग और एकाकी
मनोवृत्ति के हो गए थे। अपने विशाल परिवार के बीच रहते हुए उन्होंने सामाजिक
जीवन-यापन की जिस जटिल पद्धति को देखा, उससे उनके मन में विभिन्न प्रकार के कांप्लेक्स पैदा हुए। बालपन से ही वे
अद्भुत प्रतिभाशाली माने जाते रहे, यह
विशेषता उन्हें पितामह और पिता से प्राप्त हुई।
अल्प वयस से ही पिता मधुसूदन चौधरी इस बालक को
‘न मे बाला सरस्वती’, ‘सा ते भवतु सुप्रीता’ और ‘लघु
सिद्धांत कौमुदी’ तथा ‘नीतिशतक’ के श्लोक रटाने का प्रयास करते रहे। अंग्रेजी व्याकरण,
गणित और इतिहास--मधुसूदन बाबू के विषय थे। इनमें उनका मन खूब रमता था
और वे चाहते थे कि बालक मणींद्र भी इनमें रुचि ले। इतिहास से राजकमल को उस आयु में
महान घृणा थी, जैसा कि उन्होंने
स्वयं अपने आत्म-कथात्मक उपन्यास में लिखा है--...उन्हें खुश करने के लिए मैं इतिहास के पन्ने पलट रहा
था। पिताजी कहते थे कि भूगोल और अंकगणित से भी जरूरी विषय इतिहास ही है। जो आदमी
अपने परिवार, अपने गाँव, अपने देश का इतिहास नहीं जानता है, उन महापुरुषों को नहीं जानता है, जो उसके खानदान और उसके देश में पैदा हुए--वह जीवन में कुछ नहीं कर सकता। खिलजी वंश का
बादशाह, अल्लाउद्दीन खिलजी और
तलवार से रोटियां काटकर खाने वाला सिपहसालार शेरशाह इतिहास में उनके सबसे प्रिय
चरित्र थे।[47]
...अपने आपको मैं ऊंची नस्ल के कुत्ते के ज्यादा
करीब पाता हूं। भारतवर्ष के राजकीय इतिहास की तारीखें और ऊबड़-खाबड़ टीलों से भरी
हुई बंजर जमीन के बेडौल टुकड़े की तरह पलंग पर सोई हुई एक औरत--यही दो अनुभव एक लंबे अरसे तक ऊंची नस्ल के इस
कुत्ते को दिए गए।...मेरे पिताजी यह औरत खरीद लाए थे।[48]
राजकमल की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा अपने पिता
के साथ विभिन्न शहरों में सम्पन्न हुई। जयनगर में उनके पिता उच्च विद्यालय में
शिक्षक थे। लोअर प्राइमरी उन्होंने वहीं से किया। उस समय भी अपनी तीक्ष्ण मेधाविता
के कारण वे सबके हृदय में अपना स्थान बनाए हुए थे। एक योग्य शिक्षक का पुत्र होने
के कारण भी छात्र वर्ग और अध्यापक वर्ग में इस बालक के प्रति सम्मान का भाव था।
प्रसंगवश यह बात कही जा सकती है कि राजकमल पर लिखते हुए अनेक लोगों ने उनको ‘एरिस्टोक्रेट’ मिजाज का व्यक्ति कहा। निश्चित रूप से उनकी इस
मानसिकता का प्रारंभ बालापन में ही हो गया था--कुछ तो स्वयं को अन्य से अलग और उच्च अनुभव करते रहने
के कारण और कुछ अत्यधिक सम्मान-प्राप्ति के कारण।
जयनगर के बाद उनके पिता का स्थानांतरण बाढ़
(पटना) हो गया और वे यहां चले आए। कुछ सूत्रों के आधार पर यह भी प्रमाणित होता है
कि पिता के स्थानांतरण के बाद भी कुछ समय तक वे जयनगर में रहे और आगे की शिक्षा
प्राप्त करते रहे। कुछ दिनों के बाद पुनः वे पिता के साथ विद्याध्ययन में निमग्न
हुए।
बाढ़ से स्थानांतरित होकर मधुसूदन चौधरी नवादा
गए। वहां से सन् 1947 में मणींद्र
ने मैट्रिक की परीक्षा पास की।[49]
तत्पश्चात् पटना बी.एन. कॉलेज में उनका नामांकन कराया गया और वे पटना में रहने
लगे। यह समय उनके जीवन के सबसे उद्दाम विद्रोह और भटकाव का समय था। अब तक जो कुछ
वे चोरी-छिपे करते आए थे, उसे
मुक्त होकर करने का अवसर मिला। पहाड़ की चट्टान से रोकी हुई जलधारा को जैसे आगे
बढ़ने का मार्ग मिल गया हो। इस समय तक वे विभिन्न प्रकार की वर्जनाओं और कठोर
अभिभावकत्व से दबे हुए थे। इससे मुक्त होकर विचार करने का उन्हें अवसर मिला और वे
चंचल तथा उच्छंृखल हो गए।[50]
यही वह समय था, जब वे अनेक प्रकार के अच्छे-बुरे साहित्य के अध्ययन
में जुटे। रम-व्हिस्की-मसीरा-पोट आदि अनेक प्रकार के नशीले पदार्थों के स्वाद लिए;
एलीना कार्टन, हुसनाबाई जैसी अनेक स्त्रियों के संसर्ग में आए,
उनके भटकाव में और अधिक तीव्रता आई।
श्री साकेतानंद ने अपने एक लेख में लिखा है कि
पटना आने पर अपनी यायावरी एवं अनावश्यक उत्साह के कारण उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और
भागकर जयनगर पहुंचे। वहां जिस कमरे में रहते थे, अब भी उसके दरवाजे पर मिटते हुए शब्द देखे जा सकते हैं--फूल।[51]
सन् 1966 में जब वे पटना अस्पताल में भर्ती थे तो उन्होंने
अपने जीवन की कथा को आधार बनाकर एक आत्मकथात्मक उपन्यास लिखने की योजना बनाई थी।
अध्याय-विभाजन के साथ उस उपन्यास का प्रारूप उनकी डायरी में उपलब्ध है, जो युयुत्सा के राजकमल अंक में प्रकाशित भी
है। इस प्रारूप में राजकमल जयनगर के अपने जीवन के बारे में इस तथ्य का भी उल्लेख
करते हैं कि स्त्री-संसर्ग का पहला अनुभव उनको वहीं प्राप्त हुआ।[52]
पटना और जयनगर के जीवन से भटककर युवा राजकमल
भागलपुर आए, जहां उनके अनेक
मित्र रहते थे और उनकी प्रेमिका शोभना का निवास-स्थान भी था। भागलपुर मारवाड़ी
कॉलेज में अध्ययनरत उनके आत्मीय मित्र-सह-पितृव्य उपेंद्र चौधरी के अभिभावकत्व में
उन्हें रहने दिया गया। श्री उपेंद्र चौधरी सूचना देते हैं कि बी.एन. कॉलेज,
पटना में राजकमल आई.ए. में पढ़ते थे। पर
चूंकि उपेंद्र चौधरी कॉमर्स के छात्र थे और उनसे राजकमल की आत्मीयता थी, उन्होंने भी कॉमर्स पढ़ना ही पसंद किया।
भागलपुर की शिक्षा-दीक्षा के प्रसंग में साकेतानंद लिखते हैं--इस मोह-भंग के बाद वे पुनः लौटे और भागलपुर
मारवाड़ी कॉलेज में अपना नाम लिखवाया। किंतु इस बीच उन्होंने जो देखा अथवा जो सुना,
उससे रचना करने की कुलबुलाहट हुई हो--परन्तु आई.कॉम. परीक्षा पास करना संभव नहीं
हुआ। अस्तु, असफल हुए--वापस गया आए और गया कॉलेज में नाम लिखवाए। पास
किए।[53]
यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि
साकेतानंद द्वारा उद्धृत उक्त तथ्य सत्य नहीं है। राजकमल निश्चित रूप से आई.कॉम.
की परीक्षा में असफल हुए, किंतु
यह सत्य नहीं है कि गया जाकर उन्होंने आई.कॉम. पास किया। वस्तुतः सन् 1950 में मारवाड़ी कॉलेज भागलपुर से ही उन्होंने
आई.कॉम. पास किया, जिसका उल्लेख
श्री रामकृष्ण झा ‘किसुन’
ने भी अपने आलेख में किया है।[54]
सन् 1953 में उन्होंने गया कॉलेज से बी.कॉम. किया। इससे पूर्व
सन् 1952 में भी बी. कॉम. की
परीक्षा में शामिल हुए थे, पर
सफल नहीं हो सके। डॉ. कल्पना ने अपने शोध-प्रबन्ध में गया कॉलेज से विमुक्ति
प्रमाण-पत्र संख्या तथा तिथि का उल्लेख किया है--विमुक्ति प्रमाण-पत्र सं. 207 दिनांक 06.07.1954.
यहां एक अफवाह का खंडन आवश्यक है जो स्वयं
राजकमल ने प्रचारित की थी। धर्मयुग के 24.05.1964 के अंक में प्रकाशित ‘भूमिका देहगाथा’ शीर्षक उनके आत्मपरक लेख के साथ जो परिचय प्रकाशित है,
उसमें उल्लेख है कि वे सौंदर्य शास्त्र
पर शोध-कार्य कर रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि बिना एम.ए. किए किसी भी
व्यक्ति को कोई भी विश्वविद्यालय शोध-कार्य के लिए निबंधित नहीं कर सकता है।
धर्मयुग के इस अंक में स्पष्ट उल्लेख है कि वे उक्त शोध-कार्य किसी विश्वविद्यालय
के लिए कर रहे हैं।
कैशोर्यकालीन प्रकृति और उसका प्रतिफलन
राजकमल की जिंदगी को याद करते हुए, पं. नरेंद्र नारायण चौधरी कहते हैं कि वे मेरे परम
प्रिय भतीजे थे। बचपन से ही वे तीक्ष्ण प्रतिभाशाली थे। तेजस्वी, दृढ़ प्रतिज्ञ, पढ़ाकू तथा मनमौजी स्वभाव के थे। पाठ्य-क्रम की किताबें
पढ़ने की अभिरुचि उनमें कुछ ज्यादा नहीं थी। उनके इस वक्तव्य से राजकमल की अगली
जिंदगी भी रेखांकित होती है। किसी खास सीमा में बंधा रहकर कोई काम करने का उनका
स्वभाव कभी नहीं रहा। इस स्वभाव का प्रवेश उनके रक्त में ही था--यह सिद्ध होता है। हमेशा किसी-न-किसी तरह
भागकर पुस्तकालय में अच्छी-अच्छी किताबों के अध्ययन की गुंजाइश निकालते रहते थे।
बाल्यावस्था के उनके अध्ययन-क्रम से हम लोग कभी भी उन्हें एक भविष्णु छात्र नहीं
मानते थे।
कई विद्वानों ने भी इस बात का उल्लेख किया है
कि राजकमल चौधरी ने अत्यधिक अध्ययन किया था। वे अद्भुत कोटि के पढ़ाकू थे और विश्व
के तमाम साहित्यों की नवीनतम गतिविधियों की सूचना रखते थे। हिन्दी-मैथिली-बंगला
के अतिरिक्त अंग्रेजी पर भी उनका अद्भुत अधिकार था और यह उनको विश्व की तमाम
साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से जोड़कर रखता था।
यदि किशोर राजकमल के जीवन का विश्लेषण किया
जाए तो यह तथ्य सामने आता है कि अल्प वयस से ही गहन अध्ययनशीलता की ओर वे उन्मुख
हो गए थे। नरेंद्र नारायण चौधरी द्वारा प्राप्त तथ्य के अनुसार वे अपने पाठ्यक्रम
के अतिरिक्त अन्यान्य पुस्तकें पढ़ने में लगे रहते थे। भागकर पुस्तकालय चले जाते
थे। पिता को क्रोध आता था, पर यह
संतोष भी होता कि किसी भी तरह भगवती सरस्वती की सेवा में ही लगे रहते हैं।[55]
बालक मणींद्र अत्यंत जिज्ञासु प्रकृति के थे।
छोटी-छोटी घटनाओं की प्रतिक्रिया जान लेने की प्रवृत्ति उनमें थी। इतिहास की घटना
तथा विज्ञान के सिद्धांत से कोई ठोस निष्कर्ष निकाल लेने की अपूर्व क्षमता उनमें
थी। उनकी इस प्रकृति का प्रभाव परवर्ती जीवन पर बहुत अधिक पड़ा। एक लेखक के रूप में
भी वे परम अन्वेषी हस्ताक्षर दिखते हैं। जीवन के भीतरी पक्षों का उद्घाटन करना यदि
एक ओर उनकी साहसिकता का परिचायक है तो दूसरी ओर उनकी जिज्ञासु प्रकृति का प्रतिफलन
भी। व्यक्ति यदि अमित जिज्ञासा से भरा हो तो परम सत्य के अन्वेषण तक में उसे
सुगमता महसूस होती है। राजकमल के साथ भी ऐसा हुआ। अपनी इस मूल प्रकृति के साथ वे
अद्भुत परिश्रमी भी थे। छात्र-जीवन में उनका परिश्रम बहुआयामी था और विविध दिशा
में बंट जाता था। इसी कारण एक अच्छे छात्र की छवि वे कभी नहीं बना पाए। किंतु लेखन
में आने के बाद उनका यह परिश्रम एकांतिक रूप से हुआ, यही कारण है कि वे इतना अधिक लिख पाए। आनुपातिक रूप से
उनकी रचनाएं आज भी किसी लेखक के लिए ईर्ष्या की वस्तु हो सकती है।
राजकमल के साथ एक अद्भुत बात यह हुई कि उनकी
जिज्ञासु प्रकृति कालांतर में बढ़ती ही गई। सामान्यतया देखा जाता है कि बालक के
विकास के साथ-साथ उसकी जिज्ञासा घटती जाती है। वैज्ञानिक तथ्य है कि एक बच्चा
प्रतिदिन जितनी नई बातें सीखता है, कालांतर
में उसके सीखने का क्षेत्र छोटा होता जाता है, सीमाबद्ध होता जाता है। राजकमल के साथ यह नियम लागू
नहीं होता है। यह नियम ऐसे किसी भी मेधावी व्यक्ति के साथ लागू नहीं होगा, जो समय-समय पर अपनी सोच में सम्यक् परिवर्तन
लाते रहते हों। वे निरंतर अपने चिंतन में, अपने कार्य-क्षेत्र में, अपनी
रचना-प्रक्रिया में नवता लाते रहे। उस क्षेत्र की समस्त स्थितियों के अन्वेषण में
उनकी गंभीरता बढ़ती गई। लगातार अधिक कल्पनाशील और अधिक जिज्ञासु होते गए।
बचपन से ही राजकमल विद्रोही स्वभाव के थे। कुछ
तो अपनी पारिवारिक विसंगति के कारण और कुछ सामाजिक कुप्रथाओं के कारण। सन् 1942 के आन्दोलन में, जब राजकमल तेरह वर्ष के थे, अनन्य जोश और उत्साह में आकर आन्दोलनकारी लोगों का
उन्होंने साथ दिया। यहां उनका विद्रोह देश और देश की जनता के साथ आस्थावादी रूप
में जुड़ा। सन् 1942 के आन्दोलन
में बालक राजकमल जयनगर में थे, जहां
वे क्रांतिकारी लोगों के संवादवाहक का काम करते थे। अनीति, अन्याय तथा विसंगतियों के प्रति विद्रोह का जो भाव
बालापन में उनमें स्पष्ट होने लगा था, वह आगे चलकर अधिक तीक्ष्ण और ऊर्जावान साबित हुआ।
उनके पिता मधुसूदन चौधरी, यद्यपि भीरु व्यक्ति थे, फिर भी वे स्वतंत्रता आन्दोलन के
क्रांतिकारियों के पक्षधर थे और छुपकर इन लोगों को कुछ सहयोग भी देते थे। पिता की
इस प्रवृत्ति का सकारात्मक प्र्रभाव राजकमल पर पड़ा था।
सन् 1946 में जब राजकमल नवादा उच्च विद्यालय के छात्र थे,
उन्होंने कैसा क्रांतिकारी कदम उठाया था,
उसका विवरण उनके अनुज सुधीर चौधरी ने
अपने निबन्ध में दिया है--सन् 1946। तेइस जनवरी। नेताजी का जन्मदिन। शनिवार था
और जाड़े का मौसम। स्कूलों की प्रातः कक्षाएं मैदान में ही लग रही थीं। एकाएक सभी
कक्षाओं में जोरों का बिगुल बज उठा। स्कूल की बहुमंजिली इमारत की ऊंची छत पर
तिरंगा लहरा चुका था और ग्यारहवें वर्ग का एक छात्र छत पर से ही चिल्ला उठा--इन्किलाब! जिंदाबाद!! और नीचे से लड़कों ने
नारा लगाया--तिरंगा झंडा!
जिंदाबाद!! फूल राजा! जिंदाबाद!! स्कूल के एक ओर थाना था, दूसरी ओर कचहरी और सरकारी खजाना और खजाने पर तैनात
सशस्त्र पुलिस। क्षणों में सिपाहियों ने स्कूल को दोनों ओर से घेर लिया और फूल
राजा उतनी ऊंची छत से कूदकर भाग निकले। मैं उस समय चतुर्थ वर्ग का छात्र था। और
हमारे पिताजी उसी स्कूल के प्रधानाध्यापक थे। वे फूल राजा, मेरे बड़े भाई, स्व. राजकमल चौधरी ही थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता और शहर
के सारे नवयुवक आजादी की लड़ाई में उनके साथ थे और उनके बिगुल की एक ही आवाज पर जान
देने को तैयार रहते थे।[56]
अखिल भारतीय किसान सभा से भी उनका जुड़ाव हुआ।
उस समय यह अत्यंत उग्र क्रांतिकारी संगठन माना जाता था। अपनी डायरी में
आत्मकथात्मक उपन्यास के प्रारूप में उक्त तथ्य के अतिरिक्त इसका भी उल्लेख
उन्होंने किया है कि आपराधिक मामलों से सम्बन्धित धारा-396 का केस उन पर चला था और एक भिखारी की हत्या भी
उन्होंने की थी। इसी प्रकरण से यह भी उद्घाटित होता है कि नवादा में मुस्लिम समाज
के लोगों के साथ उनके अत्यंत आत्मीय सम्बन्ध थे। जिस परिवार में राजकमल का जन्म
हुआ था, उसके लिए मुसलमानों से
मेल-जोल रखना सामान्य विद्रोह की बात नहीं थी। फखरुद्दीन तथा डॉ. हबीब--ये दोनों उनके उस अवधि के आत्मीय मित्र थे।[57]
निरर्थक भ्रमण और भटकाव का जो क्रम उनके जीवन
में अत्यंत मुखर हुआ, उसका
सूत्रपात बचपन में ही हो गया था। इस संदर्भ में रामकृष्ण झा ‘किसुन’ लिखते हैं--एक बार बचपन में ही एक संन्यासिनी के साथ घर से रात को भाग गए और तब
लालटेन लेकर काफी छान-बीन के बाद स्टेशन रोड के एक सुनसान चौराहे के समीप पान की
बंद दुकान के सामने पड़ी बेंच पर गाढ़ी नींद में सोए पाए गए।[58]
अपने आत्मकथात्मक अपूर्ण उपन्यास स्थान काल
पात्र में उन्होंने उस बंगाली संन्यासिनी के साथ भागने की चर्चा विस्तार से की है।
भाग जाने की इस कथा का चरम-चित्रण राजकमल ने इन शब्दों में किया है--मैं सीधी सड़क पर अंधेरे में सीधे चलता गया।
जबकि मुझे यह भी सोचने-समझने की शक्ति नहीं थी कि मैं किधर जा रहा हूं और क्यों जा
रहा हूं। इतनी देर में मैं उस संन्यासिनी को भी भूल चुका था और मैं सिर्फ इतना
जानता था कि मां ने मुझे रोका है, इसलिए
मुझे जाना ही चाहिए। इस अंधेरी काली सड़क पर चलते ही जाना चाहिए...।[59]
आगे भी वे बार-बार निरर्थक भ्रमण करते रहे।
अनेक मित्रों से जुड़े और समय-समय पर संपूर्ण भारत की यात्रा पर जाते रहे। तथ्य है
कि काठमांडू और डिब्रूगढ़ में भी अनेक वर्षों तक उन्होंने अपना समय व्यतीत किया,
जहां वे ब्लैक मार्केटिंग का धंधा करते
थे। सन् 1956-57 में उन्होंने
मसूरी प्रवास किया। इस बीच दिल्ली आते-जाते रहे और एकांतिक यात्रा प्रसंग में
नेपाल तथा भूटान भी गए।
इन यात्राओं से राजकमल को और कोई लाभ हुआ हो
अथवा नहीं, वे देश-दुनिया की
वर्तमान स्थिति से परिचित अवश्य हुए, अनेक प्रकार के अनुभवों से जुड़े और उन्होंने उद्दाम रचनाशीलता के लिए
कच्चा माल जमा किया। विचारा जाए तो अपूर्व मेधाविता तथा अद्भुत रचनाशीलता के कारण
अध्ययन के साथ-साथ ये यात्रा-प्रसंग भी हैं।
बालक राजकमल पर परस्पर विरोधी संस्कारों का
प्रभाव पड़ता गया। निश्चित रूप से प्रारंभ में इन विरोधी संस्कारों के बीच टकराव
हुए होंगे। किंतु वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुरूप उनका मस्तिष्क दोनों प्रकार के
संस्कारों को पचा पाने में सक्षम हो गया।
व्यक्तिगत रूप से तो वे अत्यंत संघर्षशील
व्यक्ति थे, किंतु अपनी रचनाओं
में इस संघर्ष के बीच नहीं रह सके। इधर पारिवारिक बोझ से दबे एक गृहस्थ का जीवन
जीते रहे, उधर एरिस्टोक्रेट समाज
के सारे ग्लैमर अपने पर आरोपित दिखाने की चेष्टा में सन्नद्ध रहे। एक तरफ तो अपने
लेखन में अत्यंत विद्रोही रहे और ईश्वर की अवधारणाओं को जर्जर तथा आधारहीन कहा और
दूसरी तरफ उग्रतारा के प्रति जीवन-भर अत्यंत श्रद्धा भी रखी। हर तरह की वैज्ञानिक
रीति से चिंतन कर पाने में वे सक्षम थे, ऐसा उन्होंने किया भी। झटका तब लगता है, जब तंत्र-साधना में उनकी निमग्नता का प्रसंग सामने आता
है।
कहना आवश्यक नहीं कि परस्पर विरोधी संस्कारों
का बीजारोपण उनके भीतर अपने परिवार में ही हो गया। आस्था और विश्वास से जुड़ा
प्रत्येक संस्कार यदि उनको अपने परिवार से मिला, तो विद्रोह और वैज्ञानिक चिंतन की अवधारणा अपने
स्वतंत्र और निर्भीक चिंतन से। इसके लिए वे निरंतर प्रयत्नशील भी रहे।
प्रवृत्तियां
कुछ प्रवृत्तियों की ओर ध्यान आकृष्ट कराते हुए नरेंद्र नारायण चौधरी कहते
हैं कि वे गिलास में चाय पीया करते थे और चाय के साथ लिखने में डूबे रहते थे। उनके
क्रांतिकारी स्वभाव पर विशद् चर्चा श्री उपेंद्र नारायण चौधरी ने भी एक परिचर्चा
में की है, जो आगे विवेचित है।
अनैतिकता को बर्दाश्त करना राजकमल के स्वभाव
में नहीं था। अनैतिकता और अमानवीयता पर वे गंभीरतापूर्वक विचार करते, और उसका प्रतिकार किसी भी मूल्य पर करते थे।
एक समय की बात है--उनके परिवार
के एक व्यक्ति, जिनका नाम
राधाकांत था, पेशे से कंपाउंडर थे,
और दवा बेचते थे, उन्होंने राजकमल चौधरी को एक्सपायरी डेट के बाद का
इन्जेक्शन लगा दिया। जब उन्हें इस बात का पता चला, तो क्षुब्ध होकर उन्होंने नरेंद्र नारायण चौधरी से कहा,
‘देखिए बच्चा काका! राधाकांत भी ऐसा कर
सकते हैं!’ वैसे उनके स्वभाव के
अनुसार यहां लोग उनकी उग्रता की उम्मीद कर सकते थे, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। कारण मात्र इतना था कि यह
धोखा उनके रिश्तेदार ने उन्हीं के साथ किया था। यदि यही काम राधाकांत ने किसी और
के साथ किया होता, तो संभवतः
उनकी उग्रता अवश्य दिखती, जैसा
आगे कई प्रसंगों में दिखा।
अपने निर्णय पर दृढ़ रहने का तथा उग्र रूप धारण
करने की उनकी प्रवृत्तियां कई बार ‘अति’
पर पहुंच जाती थीं। वे अपनी जिंदगी को
ज्यामितिक सूत्र से पृथक् चीज मानते थे। वैसे भी सभी प्राकृतिक कार्यों में
ज्यामिति के सूत्र काम नहीं आते हैं। शायद यही कारण हो कि 19 जून, 1967 की त्रासद तारीख को हिन्दी-मैथिली की असंख्य संभावनाएं स्थगित हो गईं।
उपेंद्र चौधरी का कहना है कि लड़कियों के लिए
तो उनके व्यक्तित्व में चुंबक था। अनेक लड़कियां मर-मिटने को तैयार थीं। नेपाल में
भी, राजघराने की एक लड़की के साथ
उनका सम्बन्ध था। प्रतिभा ऐसी विलक्षण थी कि दो वर्षों के पाठ्यक्रम को दो महीने
में खत्म कर लेते थे। कॉमर्स संकाय के छात्र थे, पर हिन्दी में बी.ए. के लड़कों के लिए नोट्स, थीसिस लिखते थे। दिन-भर जहां-तहां से घूम-घाम
कर आते, लैंप में तेल भरते,
सिगरेट का पैकेट सामने रखते और लैंप
जलाकर बैठ जाते। डिबेट आदि में सबसे आगे रहते थे। बड़ा ही ओजपूर्ण भाषण देते थे।
सम्मोहन भरी उनकी अजीबो-गरीब प्रवृत्तियां
चैंका देनेवाली होतीं। उनके शौक का उदाहरण देते हुए उपेंद्र चौधरी कहते हैं कि एक
बार भागलपुर में ही उसने मुझसे कहा--काका! मुझे एक रुपया दीजिए तो।
--क्या करोगे?
--इच्छा हुई है कि आदमपुर चौराहा से कचहरी तरफ
जो ढालू सड़क गई है, किसी रिक्शा
वाले को एक रुपया दूं और उस पर वह माणिक सरकार चौराहा तक चांदनी रात में ढुलकाते
हुए मुझे ले जाए।
यह अजीबो-गरीब शौक, उनके चंचल मन का एक ग्राफ अवश्य देता है।
उपेंद्र चौधरी द्वारा दी गई सूचनानुसार जिन
दिनों वे कॉलेज में पढ़ रहे थे, कॉमर्स
में मौखिकी परीक्षा भी होती थी। राजकमल की मौखिकी वस्तुतः उनके निर्भीक एवं
दुस्साहसी व्यक्तित्व तथा विलक्षण प्रतिभा का प्रमाण देती है। दरभंगा से
प्रो.बी.के. सिंह परीक्षक आए थे। उन्होंने नाम पूछा।
--मणींद्र स्वर्णफूल।
नाम सुनकर उन्हें अचरज हुआ। वे बोले--कॉमर्स के छात्र! और नाम कवि जैसा! आप कविता
भी लिखते हैं?
--जी हां! कुछ लिख लेता हूं।
--आपकी सबसे अच्छी कविता कौन है?
--मेरी सारी कविताएं अच्छी होती हैं।
--आपकी अंतिम कविता कौन है?
--जी हां! यह मैं कह सकता हूं। पर मेरी अंतिम
कविता आपको सुनने में बहुत वीभत्स लगेगी। इसलिए पहले उसकी भूमिका कह देता
हूं।...यह जीवन क्या है?...एक
सिगरेट है! जब तक ताजगी रहती है, मनुष्य
कश लेते रहते हैं!...यह जीवन एक प्याज है, जिसके छिलके का कभी अंत नहीं होता!...यही मेरी थ्योरी है!
प्रो.बी.के. सिंह बहुत प्रसन्न हुए। अन्य
छात्रों को तो दो-तीन मिनट की प्रश्नोत्तरी में ही प्राण सूखने लगते थे, पर मणींद्र स्वर्णफूल से आधे घंटे तक प्रश्न
पूछे जाते रहे और वे आराम से जवाब देते रहे। वस्तुतः डॉ. बी.के. सिंह को वे पहले
से जानते थे। उनकी एक पुस्तक उन्होंने पढ़ रखी थी। पुस्तक में कुछ कमजोरियां रह गई
थीं और ‘पब्लिक ओपिनियन’ उस पुस्तक के बारे में अच्छा नहीं था। उस
पुस्तक को देखकर उन्होंने डॉ. सिंह के बारे में एक धारणा बना रखी थी।
फिर विषय-वस्तु से हटकर प्रो. सिंह ने उनसे
पूछा--आपकी कविताएं प्रकाशित भी
हैं?
--जी नहीं! अर्थाभाव के कारण प्रकाशित नहीं करवा
सका हूं।
--आपने कोई किताब भी लिखी है?
--जी हां! (किसी किताब की पांडुलिपि उन्होंने
दिखाई भी)।
--आप चित्रकारी भी करते हैं?
--जी हां! मैं चित्रकारी करता हूं। स्केचिंग भी
करता हूं। मेरा अलबम भी है। उसमें फोटो हैं।
--कैमरा है? कौन-सा कैमरा है? कहां से मिला?
--जी हां, है! (किसी कीमती कैमरे का नाम लिया) मैं जब पटना आर्ट
कॉलेज में था, तो मेरे एक ‘फणु अणन चित्र’ पर प्रसन्न होकर वहां के अधिकारियों ने पुरस्कार में
दिया।
कैमरा दिखाने की जिज्ञासा पर उन्होंने कहा कि
कैमरा मेरे आवास पर है, जो यहां
से दूर है। लाने में समय लगेगा। कहें, तो लाकर दिखाऊं?
इस वार्तालाप की सत्यता पर उपेंद्र चौधरी ने
टिप्पणी दी कि पुरस्कार अथवा आर्ट कॉलेज अथवा अन्य किसी भी बात पर क्या कहा जाए?
उसकी बात ही कुछ ऐसी थी कि न तो उसकी
बातों को पूर्णतः सच माना जा सकता, न
ही एकदम से झूठ कहा जा सकता! पटना में था, हो सकता है, उस कॉलेज
में नाम लिखवा भी लिया हो! शौकीन तो था ही, और प्रतिभा ऐसी कि वर्षों का प्रशिक्षण हफ्तों में
प्राप्त कर ले।
प्रो. सिंह ने आगे प्रश्न किया--आप जब साहित्यिक अभिरुचि के व्यक्ति हैं,
इस तरफ झुकाव है, रुझान है, तो आपने कॉर्मस क्यों पढ़ा?
--
(एक लंबी सांस खींचकर बोला) पिताजी
की...य...ही...इच्छा थी!
--अब आप समझदार हो गए हैं, आपको अपने जीवन-मरण के बारे में खुद सोचना
चाहिए!
--नहीं, हर पिता अपनी संतान के लिए बेहतर सोचते हैं!
उपेंद्र चौधरी के अनुसार सच यह है कि कॉमर्स
पढ़ने का दबाव पिता की ओर से एकदम नहीं था, यहां तक कि पिता का कोई निर्देश भी नहीं था। फिर भी, प्रो. सिंह से उन्होंने ऐसा कहा। वस्तुतः वे
अजीब-अजीब प्रवृत्तियों के संग्रहालय थे। जब आई. कॉम. की परीक्षा दे रहे थे,
तो प्रो. गुप्ता उनके वीक्षक थे। राजकमल
ने उनसे कहा, मैं चोरी करूंगा।
आप पकड़ सकें, तो पकड़ें। पूरी
परीक्षा में प्रो. गुप्ता का सारा प्रयास विफल गया, परीक्षा खत्म होने पर उन्होंने कहा, सारे प्रश्नों के उत्तर मैंने चोरी करके लिखे
हैं।
उनके दुस्साहस का एक और उदाहरण है--मारवाड़ी कॉलेज, भागलपुर में सदानंद झा नाम के किसी छात्र के बदले वे
परीक्षा दे रहे थे। हिन्दी के एक शिक्षक ने देख लिया। वे पांच मिनट तक के उनके
पास खड़े रहे। इसी दौरान उन्होंने उनका मनोविज्ञान पढ़ लिया। वे चले गए। आधे घंटे के
बाद वे फिर आए, कुछ देर खड़े रहकर
फिर चले गए। उनका यह आना-जाना लगा रहा, जब तक वे किसी निष्कर्ष पर पहुंचे, फूल बाबू कॉपी जमाकर कैंपस से बाहर आ गए। परोपकार की
भावना से अभिभूत होकर वे कई अवैध काम उपेंद्र चौधरी को सूचना दिए बिना कर लेते थे,
काम निपट जाने के बाद उन्हें बताते थे।
उपेंद्र चौधरी, राजकमल के पिता मधुसूदन चौधरी के बारे में कहते हैं कि
वे शुरू-शुरू में अपने उस पुत्र को पत्रिकाओं, अखबारों के पृष्ठ काटते-फाड़ते देखते, तो उन्हें बड़ा कष्ट होता, वे कुपित होते। मैट्रिक की परीक्षा पास करने
के बाद (1946 के बाद) 1947-48 में एक बार हिन्दी साहित्य के किसी विषय पर
अकाशवाणी, पटना से उनकी वार्ता
प्रसारित हो रही थी। संयोगवश मधुसूदन चौधरी ने सुन लिया। वे आनंद के मारे पुलकित
हो उठे। उपेंद्र चौधरी से उन्होंने इस बात की चर्चा की और कहा, ‘‘आज तक मैं सोचता था कि हरदम यह चोरी करने की
कला सीखता रहता है, पर आज मैंने
जाना कि वह मेरा भ्रम था। इसके पास अपनी प्रतिभा है। अच्छे-अच्छे विद्वानों के बीच
यह उठ-बैठ सकता है।’’ फिर तो,
जब पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं आने लगीं,
तब तो बात ही कुछ और हुई।
फूल बाबू अपनी दृष्टि, अपने निर्णय और अपनी अवधारणाओं पर अडिग रहने वाले अपने
किस्म के व्यक्ति थे। उपेंद्र चौधरी के लिए उनके हृदय में अपार श्रद्धा थी।
गिने-चुने लोगों को ही वे पैर छूकर प्रणाम करते थे, उपेंद्र चौधरी उनमें से एक थे। उनकी साफ धारणा थी कि
पैर उन्हींे का छुआ जा सकता है, जिनके
प्रति श्रद्धा हो, भक्ति हो।
जिनके लिए हृदय में श्रद्धा न हो, उनका
पैर छूना, कहीं से तार्किक नहीं
है। तत्कालीन मैथिल समाज के किसी युवक को अशिष्ट, उद्दंड कहने के लिए इतनी-सी बात पर्याप्त थी। जबकि
उनके शिष्टाचरण के अगणित उदाहरण हैं। जब कभी कुछ नशा-सेवन कर रहे होते, और कहीं से उपेंद्र चौधरी के आने की कोई आहट
होती, फटाफट सब छोड़़कर कुछ दूसरा
काम करने लगते। इतने बड़े नशेबाज होकर भी, उपेंद्र चौधरी का इतना लिहाज श्रद्धा के कारण ही था।
साहस और अनीति विरोध के कुछ उदाहरण स्वरूप
उपेंद्र चौधरी बताते हैं --उन
दिनों महिषी व्लॉक में बी.डी.ओ. थे शरदेंदु वर्मा। वे आततायी किस्म के आदमी थे।
अहंकार में चूर रहते थे। पूरा गाँव उनसे आतंकित था। उग्रतारा मंदिर में जूता-मोजा
पहने प्रवेश कर जाता था। उनका सैन्य-बल बाहर में खड़ा रहता और गाँव के सारे लोग इस
बदतमीज और असभ्य पदाधिकारी द्वारा धर्म और संस्कृति के मर्दन को देखते रहते। एक
दिन श्री वर्मा अपनी पुरानी आदत के अनुसार मंदिर के दरवाजे तक आए ही थे कि पीछे से
राजकमल पहुंच गए। उनकी कमीज का कालर पकड़कर उन्होंने पीछे खींच लिया। वर्मा चकित हो
गए। उन्हें आश्चर्य हुआ कि जिस महिषी में वर्मा से जवाब-तलब करने का साहस किसी ने
आज तक नहीं किया, उसमें आज कालर
पकड़ने वाला भी आ गया। क्रोध, आश्चर्य
और ग्लानि से वे भर गए। आंखें लाल-लाल होकर निकलने को हो उठीं।...राजकमल ने उन्हें
डांटते हुए कहा, ‘‘ऐ वर्मा!
सुनो! सरकार ने तुमको यहां इसलिए नहीं भेजा कि तुम हजारों-हजार वर्ष की हमारी
पुरानी संस्कृति को जूते से रौंद दो। तुम हमारे यहां मेहमान न होते, तो आज सबक सिखा देता। जाओ! माफ कर दिया।’’...क्रोध से आक्रांत वर्मा अपने सिपाहियों की ओर
देखने लगे, राजकमल फिर गरज उठे,
‘‘मैं जानता हूं तुम अपने सिपाहियों से
कहोगे कि इसे ‘अरेस्ट’ करो। तुम्हारे मन में यह बात अभी आई है। अब
तुम बोलोगे। लेकिन सुन लो--राजकमल
को ‘अरेस्ट’ करने से पहले, अपनी रोजी-रोटी की सोच लो। मुझे दया आती है। तुम्हारा
बाप है न, कलक्टर; वह भी राजकमल को ‘अरेस्ट’ करने के लिए बहुत कुछ सोचेगा। तुम जिस पर प्रसन्न होगे, उसे राशन ज्यादा दोगे। लेकिन, मैं गाँव आया हूं, तो मेरे साथ राशन कार्ड भेज दिया गया है। जाओ! होश से
काम किया करो!’’
बेचारे बी.डी.ओ. हतप्रभ और हतवाक् हो गए।
अपमान और धमकी से उठी आत्मग्लानि तथा मिथ्या अफसराना अहंकार के दमन के सम्मिलित
दुःख को बर्दाश्त नहीं कर सके। संताप से स्याह होकर रह गए।
कुरीति और अनीति के दाग से युक्त एक भी क्रिया
उन्हें कभी रास नहीं आई। एक बार गाँव की राशन-दुकान में गेहूं बंट रहा था। राजकमल
अपने अनुयायियों के साथ उधर से कहीं जा रहे थे। वहां किसी गरीब को गेहूं नहीं दिया
गया था, राजकमल के कानों तक यह
बात पहुंची, उन्होंने तत्काल उस
दुकान में ताला बंद कर दिया और डीलर से कहा, ‘‘जाकर बी.डी.ओ. से कहो, कि राजकमल ने दुकान में ताला लगा दिया है। आकर इसका
समाधान करे। आधे घंटे के भीतर नहीं आया, तो ‘मैं’ उसे ‘शो-कॉज’ नोटिस भेजूंगा।’’
बी.डी.ओ. को खबर मिली। वे आए और राजकमल
के कथनानुसार दो आदमियों को वहां बैठाया, उनकेे समक्ष गेहूं का बंटवारा हुआ। फिर उन्होंने बी.डी.ओ. से कहा,
‘‘तुमको यहां सेवा करने के लिए भेजा गया
है, आदमी को तंग करने के लिए
नहीं!’’
महिषी अस्पताल में एक डॉक्टर थे--दिवाकर सिंह। बड़े अकड़ू थे। हाथ में रूल (डंडा)
लेकर घूमते थे। उनके बारे में गाँव के लोग कहते ‘ही इज पुलिस दैन डॉक्टर।’ उसी समय राजकमल को एक घाव हो गया था। डॉक्टर को इसकी
खबर कई बार दी गई, वे नहीं आए।
अंततः क्रोध के मारे वे स्वयं चल पड़े। दसेक युवक तो हरदम साथ रहते थे। जाकर आधे
घंटे तक उन्हें अंग्रेजी में डांट पिलाई। डॉक्टर का दिमाग ऊपर-नीचे होने लगा। उनकी
मदांधता चूर हुई और कहा, ‘‘अब
मैं आपका इलाज यहां नहीं, आपके
घर पर करूंगा!’’ और घर जाकर
उन्होंने राजकमल के घाव की ड्रेसिंग की। ऐसी अनेक घटनाएं हैं, जो उनके जीवन के विशेष पक्ष और व्यक्तित्व की
बहुआयामिता को उजागर करती हैं।
विमाता से उनके अच्छे सम्बन्ध की सूचना तो
नरेंद्र नारायण चौधरी भी देते हैं, पर
उपेंद्र चौधरी के अनुसार मधुसूदन चौधरी की तीसरी शादी सन् 1940 में ‘परसौनी’ हुई थी। शादी 1940 में हुई या 1941 में, यह
दुविधा दोनों के उम्रजन्य विस्मरण के कारण संभव है, पर प्रश्न है कि सन् 1934 के भूकंप में घटी जिस घटना के कारण वे अपने को नितांत
एकाकी अनुभव करने लगे थे वह ‘मां’
कौन थीं?...इसका एक मात्र उत्तर है कि वह मोहभंग उन्हें ‘अपनी मां’ और पिता के कारण हुआ था। स्वयं राजकमल के शब्दों में,
‘‘...1934 का प्रसिद्ध भूकंप...आंगन में
बहुत बड़ी दरार फट गई और अंदर से मटमैले पानी के फव्वारे छूटने लगे। पिताजी चीखकर
मां की ओर लपके और मां पिताजी से लिपट गई।
पीली धोती और पीला कुर्ता पहने, गले में मूंगे की ताबीज और आंखों में काजल
डाले, चार साल का उनका पुत्र
वहीं पास खड़ा था और प्रलय काल आ गया था। लेकिन, एक-दूसरे की सुरक्षा के लिए वे दोनों एक-दूसरे को अपनी
बांहों में छिपा लेने की चेष्टा करते रहे...प्राण-रक्षा के उस चरम क्षण में उन्हें
मेरे अस्तित्व का ध्यान ही नहीं रहा। यह स्वाभाविक ही था। लेकिन, उसी क्षण से मैं हमेशा के लिए अकेला हो गया।
कटकर अलग हो गया मैं, अपने और
अपनी मां के जीवन और शरीर से--फिर
उनमें मैं कभी किसी वक्त जुड़ नहीं पाया (स्थान-काल-पात्र/राजकमल चौधरी/युयुत्सा:
अगस्त-1967/पृ. 134)।’’
जाहिर-सी बात है कि बहुत-सी घटनाएं इस धरती पर
घट जाती हैं जो असंभावित रूप से मनुष्य के जीवन को झकझोर देती हैं। राजकमल की
बाल्यावस्था में घटी इस घटना के पीछे उनके मां-पिता का उपेक्षाभाव एकदम ही नहीं
रहा होगा। कारण, उस समय उनकी मां
जीवित थीं और कोई सौतेली मां उनके घर में नहीं थीं और राजकमल अपने मां-पिता के
ज्येष्ठ पुत्र थे। कुल मिलाकर उपेक्षाभाव का कोई आधार कहीं से नहीं दिखता। हां,
इतना तय है कि तर्क, मंथन, चिंतन और मनन के अतिरेक से कभी-कभी ऐसे निष्कर्ष निकाल लिए जाते हैं,
जो बिल्कुल सही नहीं होते। कुछ घटनाएं
ऐसी दिखने लगती हैं, जो वह होती
नहीं हैं।...ऐसा ही कुछ हुआ होगा। राजकमल संवेदनशील व्यक्ति थे। उस घटना ने उन्हें
प्रभावित किया होगा। संभव है, कि
आगे चलकर विमाता के व्यवहार मेंं भी इस तरह की उपेक्षा दिखी हो।
बचपन में उन पर एक बार रुपए चोरी करने का आरोप
लगाया गया। ट्यूशन पढ़ने वाले किसी छात्र ने उनके पिता, मधुसूदन चौधरी को एक सौ रुपए दिए। उन्होंने वे रुपए
कहीं रख दिए, जो चोरी हो गए।
बालक मणींद्र उन दिनों स्कूल के छात्र थे, उन दिनों बालक उपेंद्र चौधरी भी मधुसूदन चौधरी के ही संरक्षण में
विद्याध्ययन कर रहे थे। उक्त चोरी का आरोप मणींद्र, उपेंद्र--दोनों पर लगाया गया। बालक मणींद्र क्रांतिकारी और विद्रोही स्वभाव के थे।
उन्होंने इस चौर्य-उपकथा पर शोध किया और समूल पता कर लेने के पश्चात् अत्यंत प्रौढ़
की तरह उपेंद्र चौधरी से बोले--उपे
कका! इस चोरी का नाटक आपको विस्तार से सुना दूं? पर उपेंद्र चौधरी ने मना कर दिया।
उनके लिखने-पढ़ने की गति बहुत तेज थी।
अध्ययन-फलक विराट था। लेखकीय जीवन की शुरुआत कलकत्ते से हुई। वहां भौगोलिक और
सामाजिक परिवेश उनके लेखन में पराग की तरह समाया हुआ है। निर्भीकता उनका मूल
स्वभाव था। बौद्धिक बहस में किसी से भी नहीं डरते थे। एक बार पिता के साथ ही ‘दर्शन’ पर बहस शुरू कर दी। उनके पिता मधुसूदन चौधरी की
विद्वता प्रख्यात थी, पर उनके
सारे तर्कों को राजकमल खंडित कर देते थे। अंत में उन्होंने कहा-- आप मेरे पिता हैं, मैं आपकी बात स्वीकार कर सकता हूं, पर बहस में तथ्य और तर्क चाहिए। उसी दौरान
उनके परिवार के एक सदस्य मदन चौधरी (जो उन दिनों दर्शन शास्त्र में एम.ए. के छात्र
थे) बोल पड़े। राजकमल ने उन्हें बुरी तरह डांटा और कहा--अभी तुम्हारी पहुंच वहां तक नहीं हुई है। चुपचाप सुनो
और सीखो!
परहित-भावना से वे अभिभूत रहते थे। एम.एन. बोस
नामक एक छात्र उनके अनन्य मित्र थे। बाद में कहीं बहुत बड़े अफसर हो गए। उनके पिता,
बेगूसराय में अंग्रेजी के व्याख्याता
थे। बोस की भी विमाता थीं। दो-तीन महीनों तक राजकमल ने उन्हें अपने साथ
खिलाया-पिलाया। उपेंद्र चौधरी की सहमति लेकर बोस के बदले अंग्रेजी और हिन्दी की
परीक्षा में बैठे।
नरेंद्र नारायण चौधरी कहते हैं--वे उदारता की प्रतिमूर्ति थे। रहने पर कुछ भी
दे देने में कोई हिचक नहीं होती थी। भाइयों से आत्मिक स्नेह था। अदम्य आत्मबल था।
सन् 1967 में अपने पिता के
श्राद्ध में उन्होंने अपनी घड़ी अपनी चचेरी बहन सुमंगला के पति को दे दी। सन् 1962 में सुमंगला की शादी हुई थी। सम्पत्ति उनके
लिए कोई महत्त्व नहीं रखती थी, पर
अपने हक के लिए लड़ना वे जायज मानते थे।...
नरेंद्र नारायण चौधरी ने स्वीकार किया कि वजह
जो भी हो; हम लोगों का
पुरातनवादी होना अथवा उनकी प्रगतिशीलता, उन्मुक्तता, पर ‘मछली मरी हुई’ पढ़कर मैं उस समय प्रभावित नहीं हुआ था। बड़े भैया
(मांगैन चौधरी) को भी वह पुस्तक अच्छी नहीं लगी थी। फिर भी मेरे परमप्रिय भतीजे का
ऐसा आकस्मिक अंत मेरे लिए किस हद तक दुःखदायी हुआ, उसका वर्णन असंभव है। दुःख इस बात से और बढ़ जाता है,
जब देखता हूं कि उनके गुजर जाने के बाद
चानपुरा वाली (शशिकांता जी) को सब लूटने के फेर में लगे हुए हैं। लाभ कोई नहीं
देता। चानपुरा वाली काफी शौर्यशालिनी महिला हैं। संपूर्ण गाँव की युवतियां उन्हें
श्रद्धा और आदर की दृष्टि से देखती हैं। उनका शुभचिंतक पूरे परिवार में कोई नहीं
है। उन्हें महिषी में रहना चाहिए। वे समाज की सर्वश्रेष्ठ महिला हैं। मेरा तो उनसे
यही कहना होगा कि वे गाँव में रहकर नई पीढ़ी को प्रश्रय दें।
उपेंद्र चौधरी ने अपनी बातचीत इस तरह खत्म की--राजकमल सचमुच कुलकमल थे। उनके जीवन-काल में
ग्रामीणों ने उन्हें नहीं पहचाना। उनके देहांत के पश्चात् उनके सौरभ से समाज अधिक
सुरभित हुआ। मेरे साथ उनका स्नेह-सम्बन्ध औरों से अधिक था। अब भी, उनकी याद आती है, तो प्राण विह्नल हो उठता है...!
असाधारण प्रतिभा के स्वामी राजकमल की लेखनी से
कथा, कविता, निबन्ध, रूपक... कोई भी विधा अछूती नहीं रही। सभी विधाओं में
उनकी लेखनी का चमत्कार उभर कर आया। किसी ने उन्हें कवि कहा, किसी ने कथाकार, पर सच यह है कि वे एक सफल सर्जक थे। आलोचना की
भाषा-शिष्टता और लक्षण ग्रंथ के सूत्र से एकदम भिन्न आधार पर उपजी यह धारणा उन्हें
मुक्त कंठ से समाज का एक सफल शल्य चिकित्सक कहेगी, जिसने समाज के एक-एक तंतु की शल्यचिकित्सा की और अपना
डाइग्नोसिस लोगों के सामने बेधड़क रख दिया। सभी रोगग्रस्त अंगों के चित्र उनकी
लेखनी से उपस्थित होते रहे।
स्वेच्छाचारिता एवं वर्जनामुक्ति उनके स्वभाव
का हिस्सा थी। एक तरह से उन्हें आत्महंता कहना उचित होगा। मानवीय संवेदनाओं की
तल्खी से आपादमस्तक भरा हुआ यह व्यक्ति जिस अनुपात में लेखन के प्रति ईमानदार और
दयालु था, उसी अनुपात में,
बल्कि उससे कहीं ज्यादा अपने जीवन के
प्रति बेईमान और क्रूर था। उसने अपने जीवन को सामाजिक विकृतियों और विडंबनाओं के
विरोध का समर-क्षेत्र बना रखा था। उनकी रचनाओं से गुजरते हुए इन तथ्यों का पूरी
तरह खुलासा होता है। वास्तविक अर्थों में उनकी रचनाएं एक साफ-सुथरा सरोवर है। यहां
कीचड़ में कमल खिलाने की जिद है। कमल को अनदेखा कर कीचड़ को ही देखा जाए तो इसमें
रचना या रचनाकार का कोई कसूर नहीं होगा।
प्रेम, विवाह, दांपत्य
राजकमल के जीवन के उतार-चढ़ाव को रेखांकित करते एक बात अच्छी तरह कही जा
सकती है कि वे आंधी के प्रकोप से वृक्ष से टूटा ऐसा पत्ता थे जो हवा के झोंकों के
साथ एक जगह से दूसरी जगह उड़ता रहता है। यही उनके जीवन का उपक्रम था। अपनी प्रसिद्ध
मैथिली कथा ‘पात’ में उन्होंने ‘पतिया’ का
चित्रण जिस तरह किया है, समाज की
विविध क्रिया-प्रतिक्रियाओं के कारण वृक्ष से टूटी पत्ती की तरह ‘पतिया’ जिस तरह एक जगह से दूसरी जगह बदहाल भटकती रहती है,
स्वयं राजकमल के जीवन में भी प्रतिफलित
देखा जा सकता है।
बचपन से ही उनको अपने पिता से जो उपेक्षा और
घृणा का भाव मिला था, उसका
प्रतिफल दो रूपों में हुआ। कष्टकारक अनुशासन और बन्धन से उन्होंने विद्रोह किया
और उससे मुक्त होने की चेष्टा करते रहे। ऊपर से देखने पर वे दोनों अभिक्रियाएं
परस्पर विरोधी लग सकती हैं। किंतु राजकमल का जीवन-सत्य वस्तुतः यही था। प्रतीत
होता है, जैसे स्नेह, प्रेम और सौमनस्य का अन्वेषण ही उनके लिए
किरणमाला का अन्वेषण बना।
प्रेम के इस अन्वेषण में राजकमल अनेक नारियों
से जुड़े। उनसे स्नेह और आत्मीय सम्बन्ध रखने वाली नारियों की संख्या इतनी है कि
किसी भी व्यक्ति के लिए यह आश्चर्य का विषय हो सकता है।
अत्यंत छोटी उम्र में उन्होंने किसी बंगाली
चित्रकार द्वारा काफी यत्न से बनाया गया रासलीला का चित्र देखा था। उन्होंने स्वयं
लिखा है कि उस समय उन्हें नारी-शरीर की कोई जानकारी नहीं थी। नारी-शरीर के
आकर्षण-अलसभाव से अपरिचित रहने के बावजूद उस चित्र ने उनको अंतर्मथित कर दिया था
और वे अपने जीवन में भी रासलीला के कृष्ण बनने का स्वप्न देखने लगे थे। उन्हीं के
शब्दों में--...फिर भी, मैं उस चित्र के पीछे पागल हो गया।...चौरासी
गोपियां हैं, और एक राधा रानी भी
है, और एक ही श्रीकृष्ण एक ही
समय में सभी के पास हैं, किसी को
मनाते हुए, किसी से रूठते हुए,
किसी को प्यार करते हुए...और, क्या मैं भी एक साथ अलग-अलग (पचासी न सही)
पांच या दस आदमी हो जा सकता हूं? क्या
यह किसी भी उपाय से संभव है?[60]
वयस्क और बुद्धिमान होने पर भी राजकमल अपने
भीतर से उस शिशु को नहीं निकाल सके, जिसने कभी रासलीला के अनेक कृष्ण होने का स्वप्न देखा था और उसको स्वयं
में पचा जाना चाहता था।
...लेकिन वह चित्र मुझे अब भी पागल करता रहा
है।...बाद में और भी कई रईसों के यहां वेश्याओं के कमरों में, मंदिरों में, और पानवालों की दुकानों पर मैंने रासलीला की उसी
दृश्यावली की तस्वीरें देखी हैं। हर बार मेरे अंदर वही छोटा-सा लड़का अपनी
विस्मय-विमुग्ध आंखें फैलाए मुझसे वही प्रश्न पूछने लगा, जो मैंने कभी उपेंद्र काका जी से पूछा था।[61]
राजकमल ने इस तथ्य का भी उल्लेख किया है कि
स्वामी सत्यानंद महाराज की संगति से उन्हें यह बात मालूम हुई थी कि श्रीकृष्ण और
उनकी पचासी गोपिकाएं भारतीय संस्कृतिकारों की कवि-कल्पना है।[62]
किंतु उनके अवचेतन में बिछी यह धारणा दिनानुदिन पुष्ट होती गई और पौरुष का एक आयाम
उन्होंने इसे भी माना।
राजकमल के साहित्य में अनेक ऐसी स्त्रियों
(विभिन्न उम्र की) का नाम आता है, जो
उनसे देह अथवा मन के धरातल पर जुड़ी थीं।
अपने आत्मकथात्मक उपन्यास में उन्होंने जीवन
में आई पहली नारी की चर्चा की है, जिसके
वक्ष पकड़कर वे लटक गए और उन्होंने आनंद का अनुभव किया। उस समय, बालक राजकमल मुश्किल से बारह-तेरह वर्ष के थे।
वह नारी उनके घर की नौकरानी थी। नाम था--शगुन। बालक राजकमल उससे बहुत स्नेह करने लगे थे। उन्होंने उल्लेख किया है
कि मां की साड़ी चुराकर वे शगुन को देते थे।[63]
अपनी दूसरी डायरी में एक नौकरानी मंगला कहारिन
की चर्चा उन्होंने की है, जिससे
स्नेह रखने के बावजूद उस पर अति क्रुद्ध हो जाते थे।[64]
बचपन की एक घटना की चर्चा राजकमल बार-बार करते हैं कि कैसे एक बंगाली संन्यासिन के
साथ वे घर छोड़कर भाग गए थे। उन्होंने लिखा है कि उस युवा संन्यासिन के शरीर से
सटकर खड़े होने में उनको अद्भुत सुरक्षा का अनुभव हुआ था।[65]
उक्त तीनों घटनाएं, जो राजकमल के बचपन से संबद्ध हैं, एक मनोवैज्ञानिक तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करती
हैं। पारिवारिक उपेक्षा तथा असुरक्षा की भावना कुछ लोगों में हीन भावना की ग्रंथि
उत्पन्न कर देती है। कुछ बालकों को यही उपेक्षा तथा असुरक्षा आक्रामक बना देती है।
राजकमल में आक्रामकता आई। असुरक्षा की इस भावना ने एक और प्रतिक्रिया की। उन्होंने
नारियों के दिल में बैठना बहुत आवश्यक नहीं समझा। बहुत आवश्यक समझा नारी-शरीर को।
नारी-शरीर की उत्तप्तता और सांस की ऊष्णता--यही उनके लिए प्रमुख रहा। इसका प्रतिफलन उनके आगामी
जीवन पर और गंभीरता से स्पष्ट हुआ।
राजकमल ने अपनी डायरी में उषा देवी की चर्चा
की है, जो नवादा के विद्यालय में
शिक्षिका थीं और बालक राजकमल जिनके पास बैठकर परम आध्ाद का अनुभव करते थे।[66]
जब राजकमल भागलपुर में रहते थे, तब शोभना नाम की एक तरुणी से उनका प्रगाढ़
स्नेह था। शोभना, किसी पुरातत्त्व
अधिकारी की पुत्री थीं और मैथिल परिवार के धार्मिक संस्कार में पली-बढ़ी थीं। उनके
साथ राजकमल का स्नेह-सम्बन्ध पटना में ही अंकुरित हुआ था। वहां वह अपने पिता के
साथ रहती थीं। तय किया गया था कि फूल बाबू इंटर पास कर जाएं तो शोभना से उनकी शादी
हो जाएगी। किंतु ऐसा नहीं हुआ। राजकमल के मित्र विदेश्वर को संबोधित अपने पत्र में
शोभना ने लिखा है--यदि मैं उनकी
पत्नी न हो सकी, तो वे शराब
पी-पीकर नाली में पड़े-पड़े मर-मिट जाएंगे, यह एक तय बात है।[67]
परम आत्म-विश्वास से युक्त उस युवती की भविष्यवाणी एक हद तक सत्य सिद्ध हुई। नाली
में न सही, पर अत्यधिक नशा-सेवन
ही उनकी अकाल-मृत्यु का कारण बना--यह
सच है।
अपने उक्त पत्र में शोभना ने राजकमल के
तत्कालीन भटाकव का उल्लेख करते हुए कुछ ऐसी युवतियों-तरुणियों का भी नामोल्लेख
किया है, जिनसे उनका सम्बन्ध
था। शोभना ने सरोज नाम की एक तरुणी की चर्चा की है और लिखा है--वह सरोज नाम की किसी लड़की की मुर्दा लाश के
पीछे अपने को तबाह और बर्बाद करते रहे। ‘सरोज’ कौन थी, मैं कुछ नहीं जानती। केवल उनके द्वारा बार-बार
सुनती रही थी कि ‘तुम सरोज नहीं
हो सकती। सरोज देवी थी। मैं सरोज के सिवा किसी को अपना नहीं बना सकता, वह मरकर भी मेरी है!’[68]
सरोज से संबद्ध उक्त संदर्भ से स्पष्ट होता है
कि युवा राजकमल के लिए यद्यपि नारी-शरीर की उपलब्धि अधिक महत्त्वपूर्ण थी, किंतु नारी के हृदय से, और चेतना से भी वे गहराई से जुड़े थे।
इसके अतिरिक्त, शोभना के उक्त पत्र में कुछ और नारियों का नामोल्लेख
हुआ है, जिनसे राजकमल के दैहिक
अथवा आत्मीय सम्बन्ध थे।
एलिना कार्टन भागलपुर अस्पताल की एक नर्स थी,
जो युवा राजकमल पर मुग्ध थी। एलिना
कार्टन उनको अनेक बार अपने आवास में आमंत्रित करतीं और मोटी-मोटी किस्तों में
अर्थ-सहयोग करतीं।
गीतांजलि भागलपुर की एक बदनाम युवती थी,
जिससे राजकमल की घनिष्ठता थी। शोभना के
पत्र में यह उल्लेख है कि गीतांजलि फूल बाबू को अपने से अलग होते कभी भी पसंद नहीं
करती थी।
वहां शकीला बनो नामक एक तवायफ से भी उनका निकट
सम्पर्क था--ऐसा शोभना के पत्र
से भी ज्ञात होता है और राजकमल के ‘स्थान-काल-पात्र’
आत्मकथात्मक उपन्यास के प्रसंगों से भी।[69]
यहां उपेंद्र चौधरी के हवाले से कुछ चर्चा
अपेक्षित है। उपेंद्र चौधरी से राजकमल चौधरी के बड़े अंतरंग सम्बन्ध थे, वे इन्हें बड़े सम्मान से ‘उपे कका’ कहते थे, उनकी प्रेमिकाएं इन्हें ‘परदेशी
काका’ कहती थीं। उनसे राजकमल के
जीवन के अनेक कटु-मधु उपाख्यान, दुस्साहसी
प्रवृत्ति, अजीबो-गरीब शौक,
उदारता के किस्से सुनने को मिले। उनके
अनुसार राजकमल के जीवन में अनेक स्त्रियों के साथ-साथ तीन औरतों के प्रवेश को
गंभीरतापूर्वक लिया जाता है। उन्होंने अपनी प्रारंभिक कविताओं का एक संग्रह
विचित्र उन्हीं तीनों के नाम समर्पित किया है। लिखा है--शशि, सावित्री
और शुभी के लिए। शशि हैं, मैथिल
संस्कृति का परिपूर्ण उदाहरण, शशिकांता
चौधरी, जिनके साथ उनका पारम्परिक
विवाह हुआ; सावित्री मूसरी-हिल
की वह धनाढ्य विधवा, जिनके बारे
में कहा जाता है कि राजकमल ने उनके साथ शादी कर ली थी और कुछ समय बाद एक साधारण-सी
बात में अहं के टकराव के कारण वहां से चल पड़े; शुभी हैं, शोभना, जिनके साथ
प्रेम-सम्बन्ध के साथ-साथ देह-सम्बन्ध की भी चर्चा अनेक आलोचक करते हैं,
और पिछले पृष्ठों पर मैंने भी की है।
इतना तो तय है कि इन तीनों के साथ राजकमल चौधरी का आत्मिक तादात्म्य था, जिनका स्थितिपरक विश्लेषण आगे हो सकेगा,
पर उपेंद्र चौधरी की धारणा इस प्रसंग
में सबसे अलग है। वे कहते हैं कि शोभना का क्रम पटना से बनता है। पटना में
बी.एन.कॉलेज में आट्र्स संकाय में उन्होंने दाखिला लिया। पुस्तकालय में जाना-आना
लगा रहता था। पिता के साथ जब तक रहे, काफी संयम से रहना पड़ा। पिता की दीक्षा होती--मांसाहार मत करो, शिखा रखो, उसे बांधकर रखो, खाते
वक्त मौन रहो...इन संयमों के वैविध्य से दबा हुआ व्यक्तित्व, एकाएक स्वतंत्र हुआ। सारी वर्जनाओं एवं
उपदेशों से मुक्त हो गया। पटना में मुक्तभाव से वे सारे कार्य करने लगे, जिन पर प्रतिबन्ध था। परिचय बढ़ाने की अपूर्व
क्षमता उनमें थी। किसी से पल भर भी बातचीत हो जाती, तो वे अभिन्न बन जाते। सम्पन्न परिवार की लड़कियों का
झुंड इनके पीछे-पीछे लगा रहता। सहयोग करने की अद्भुत प्रवृत्ति थी। पटना में,
उनके छात्रावास के बगल में ही, शोभना झा का निवास था। उनके पिता पुरातत्त्व
विभाग में इंजीनियर थे। एक बार शोभना का छोटा भाई बीमार था, राजकमल ने डॉक्टर बुलाकर उसका इलाज करवाया और काफी
सेवा की। इसी संयोग से वहां आपकता बढ़ने लगी, कालांतर में वह आपकता प्रेम में परिणत हो गई। उनसे
एकाध बार राजकमल ने कहा भी था कि मैं तुमसे शादी करूंगा (उन दिनों राजकमल की शादी
नहीं हुई थी)। शोभना का हाल यह था कि वह राजकमल की तस्वीर सीने से लगाए रखती। बाद
के दिनों में शोभना के पिता का स्थानांतरण भागलपुर हो गया। वह अपने पिता के साथ
नया टोला, भागलपुर में रहने
लगीं। साल-भर के भीतर ही अपनी संयमित दिनचर्या से अनेक दिशाओं में भटके हुए राजकमल,
कॉमर्स पढ़ने के लिए उपेंद्र चौधरी के
अभिभावकत्व में भागलपुर चले आए। वैसे तो उपेंद्र चौधरी ऐसी बातों की चर्चा में
रुचि नहीं दिखाते, पर शोभना के
भागलपुर आ जाने, और राजकमल के
भागलपुर आते ही उन दोनों के प्रेम-प्रसंग के नवीकरण को देख कर, इस संदेह से सहमत हुए कि भागलपुर आकर पढ़ाई
करने के राजकमल के निर्णय का कारण शोभना का भागलपुर प्रवास हो सकता है। टी.एन.बी.
कॉलेज में नामांकन हुआ। आदमपुर में आवास लिया। उपेंद्र चौधरी अभिभावक हुए, जो स्वयं मारवाड़ी कॉलेज में पढ़ते थे। उन्हींे
के नाम से राजकमल के खर्च के लिए पैसे आते थे और सारी व्यवस्था होती थी।
इधर शोभना को राजकमल के भागलपुर आने की खबर
मिली। उन्होंने अपने छोटे भाई (नाम प्रायः ‘रामू’) के
माध्यम से सम्पर्क किया। अंतरंगता थी ही। सम्बन्ध पुनः यथावत् हो गया। एक स्कूल
अथवा कॉलेज में रामू को किसी ने तंग किया। राजकमल ने इस मामले में हस्तक्षेप किया
तो वे बलवाई आप से आप किनारे हट गए। बाद में उन्होंने शोभना को स्पष्ट कह दिया कि ‘तुम जैसी स्टैंडर्ड लड़की मेरे परिवार में नहीं
रह सकेगी।’ शोभना की शादी
अन्यत्र हुई। फूल बाबू ने भी शादी की। इस तरह उपेंद्र चौधरी ने शोभना-प्रसंग पूरा
किया।
साकेतानंद ने अपने निबन्ध में उनसे संबद्ध दो
नारियों का उल्लेख किया है--मृदुला
चतुर्वेदी तथा रौशन अफरोज। मृदुला चतुर्वेदी बड़े घराने की लड़की थी, अविवाहित थी और अपने पिता के परिवार के साथ
कलकत्ता में रहती थी। उस युवती से उनका सम्बन्ध ट्यूशन पढ़ाने के क्रम में हुआ।[70]
इससे पूर्व गया में एक और तवायफ से उनका निकट
का सम्पर्क रहा, जिसका नाम था--रौशन अफरोज। रौशन अपने समय की सबसे सुंदर और
सफल तवायफ के रूप में बिहार-भर में चर्चित थी।
राजकमल की एक प्रेमिका थीं--शीला जयसन, जो आकाशवाणी, पटना में चौपाल की प्रोड्यूसर थीं। उनकी एक और प्रेमिका थीं डॉली मुखर्जी,
जिनसे उनका सम्पर्क कलकत्ता प्रवास में
हुआ था। दिनांक 05.06.1960 को
कलकत्ता से प्रकाश जैन को पत्र लिखते हुए डॉली मुखर्जी के बारे में राजकमल लिखते
हैं--...डॉली मुखर्जी भी साथ थी।
अरसा हुआ--हमने आउट्राम घाट के
किनारे गंगा की लहरें गिनते हुए एक सपना बुना था...बाद में हमारे सपने पर हमें खुद
ही हंसी आई। उसने शादी कर ली। उसने डाइवोर्स ले लिया। फिर उसने मुझसे कहा--कमल, Let us
pretend, we love each other[71]
मंजू हालदार तथा चंद्रा मजुमदार से उनका
सर्वाधिक सम्पर्क अनेक वर्षों तक बना रहा। अपने प्रस्तावित आत्मकथात्मक उपन्यास
के प्रारूप में उन्होंने इन दोनों युवतियों के प्रति अलग से अध्याय लिखने की योजना
बनाई थी।[72]
अपने हिन्दी उपन्यास ‘ताश के पत्तों का शहर’ (1986 में प्रकाशित) के समर्पण पृष्ठ पर वे लिखते हैं--
1961 की
मंजू और चंद्रा मजुमदार के लिए।
(एक
सवाल--क्या तुम दोनों
लेस्बियन नहीं थीं?)[73]
मंजू हालदार तथा उनकी अंतिम प्रेमिका अलकनंदा
दासगुप्त--इन दोनों का उल्लेख
उनकी कविताओं में अनेक जगह मिलता है। अपनी सर्वप्रसिद्ध काव्य पुस्तक ‘मुक्ति-प्रसंग’ में वे मंजू हालदार की चर्चा इस रूप में करते हैं--
कोकाकोला के नीले ग्लास में
रम डालकर देह की राजनीति करती थी
मंजू हालदर
नीली नदी थी मेरे गाँव की उन्मादिनी
नीली उग्रतारा[74]
अपनी एक अन्य प्रसिद्ध दीर्घकविता ‘ऋतु शृंगार में खंडित नायिकाएं’ उन्होंने अपनी प्रेमिका अलकनंदा दासगुप्त को
समर्पित की। अस्पताल की अपनी डायरी में उन्होंने इस तथ्य का उल्लेख किया है कि
पहले से ही अतिशय प्रेम रहने के कारण अलकनंदा उनके और करीब आती जा रही है।[75]
मुक्ति प्रसंग की भूमिका में भी स्वीकार किया है--नंदा ने ही ‘मुक्ति प्रसंग’ की
मनःस्थिति के लिए मुझे प्रस्तुत किया।[76]
अपने आत्मकथात्मक उपन्यास के प्रारूप में
उन्होंने दो और युवतियों की चर्चा की है, जो उनके निकट सम्बन्ध की थीं--छवि राय तथा गीता बनर्जी।
अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘मछली मरी हुई’ [77] की भूमिका में इन सारे नामों के अतिरिक्त उमा सहगल, चंपा कुलश्रेष्ठ तथा अरुंधती मुखर्जी के नाम भी
उन्होंने लिए हैं, जिनसे उनकी
प्रगाढ़ मित्रता थी। चंपा कुलश्रेष्ठ से उनका दैहिक सम्बन्ध भी था, जैसा कि आत्मकथात्मक उपन्यास के प्रारूप से
ज्ञात होता है।
हिन्दी मासिक ‘आजकल’ के
दिसंबर, 1987 अंक में राजकमल पर
मधुछंदा का एक लेख छपा--उखड़ा हुआ
आदमी। इस संस्मरणात्मक लेख में मधुछंदा ने राजकमल के प्रति अपने अनन्य प्रेम की
चर्चा की है। इस प्रसंग में वे यह भी उल्लेख करती हैं कि उनसे बड़ी बहन त्रिपुर
सुंदरी (यह नाम राजकमल का ही दिया हुआ था) से भी उनका अद्भुत प्रेम था। ‘त्रिपुर-सुंदरी,...मेरी नंदा’ शीर्षक से राजकमल ने आठ पृष्ठों की डायरी भी लिखी है, जो रचनावली के खंड-8 में संकलित है। अपने लेख में अत्यंत भावुकता के साथ
मधुछंदा लिखती हैं--महज संयोग की
बात है कि उसके कुछ अंतरंग क्षणों में, समय ने मेरे भी हस्ताक्षर अंकित कर दिए थे। मेरे भी और मेरी बहन त्रिपुर
सुंदरी के भी (उसे वह त्रिपुर सुंदरी कहकर पुकारा करता था।)। वह भी न जाने उसे कैसे
मिल गई थी--सरे राह चलते-चलते।
उसके मिलने से थोड़े दिनों के लिए ही सही, एक तरोताजागी आ गई थी उस उखड़े हुए आदमी की दिनचर्या में।[78]
अपने इसी लेख में मधुछंदा ने अलका नाम की किसी
युवती की चर्चा की है और उसके बारे में लिखा है कि संपूर्ण मित्र-मंडली में अलका
उनसे सबसे नजदीक थीं--कुछ हमारा
भी असर पड़ा होगा उस उखड़े हुए आदमी पर, खास तौर से अलका का, जिसके
लिए खास-खास लम्हा उसने खास तरीके से पिरोया था।[79]
यह अलका, अलकनंदा दासगुप्त ही थी या कोई और--यह खूब स्पष्ट नहीं है। इसके अतिरिक्त एक
रजिस्टर में राजकमल ने अपने आस-पास की तमाम स्त्रियों के जिक्र के साथ अंग्रेजी
में डायरी लिखी है, जो पुस्तक के
आकार में लगभग 36 पृष्ठों की
हुई। यह ‘काजल’ के नाम मणि चौधरी के हस्ताक्षर से 02.05.1957 को समर्पित की गई। इस डायरी के शुरू के पृष्ठ
पर निम्नलिखित नामों का उल्लेख है: शशिकांता, सावित्री, संतोष, राजकुमारी,
ग्रीटा, निम्मी, राज भवनानी, मिसेज कपूर,
सरोज, जेनेट, गायत्री,
चमेली, उर्मिला, कम्मो, रौशन, सिद्धेश्वरी, नाबालिग, चांद, शकीला, चिंता, लिजा, गुलाब,
उर्मिला, सुशीला, रचना, मालती, मोती, गीता, बच्ची, स्वरूपा, अर्पणा, शांति, छवि, उर्मिला, मनु, इड़ा।
उक्त संदर्भ से स्पष्ट हो जाता है कि अपने
बचपन में राजकमल ने पचासी गोपिकाओं के मध्य कृष्ण होने का जो स्वप्न देखा था,
अंततः साकार हुआ।
किसी ऐसे व्यक्तित्व को, जो प्रतिभा सम्पन्न हो, प्रश्नाहत हो, अकेला हो--किसी ऐसे मित्र, ऐसी
स्त्री की खोज रहती है, जो उसकी
तमाम क्षुद्रताओं के बावजूद समग्रता से उसे प्रेम दे सके, जिसके समक्ष वह अपने तमाम नीच-कर्म, क्षुद्रता और असामाजिक व्यक्तित्व के बावजूद
अपने को क्षुद्र और पतित अनुभव नहीं करे। अपने तमाम गुणों के बावजूद जिसके समक्ष
अपने को गौरवशाली अनुभव नहीं करे। कुल मिलाकर ऐसे व्यक्ति को कुछ ऐसे मित्र चाहिए
ही, जिनके समक्ष वह अपने को न तो
छोटा महसूस करे, न बड़ा। राजकमल
सतत इस अन्वेषण में सन्नद्ध रहे। इसी क्रम में उनको अनेकानेक स्त्री-पुरुषों का
संसर्ग मिला। किंतु भाग्य की विडंबना ही कही जाएगी कि उनका यह अन्वेषण पूर्ण नहीं
हुआ। अपने मित्र मनमोहिनी को 18.05.1960 को लिखी एक चिट्ठी में वे लिखते हैं--मैं भी साहसी बनना चाहता हूं, मगर साहस के लिए भरोसा चाहिए, कोई साथी चाहिए, कोई हमसफर चाहिए। मेरे पास बिस्तरे में सोने वाली
औरतें हैं, खाना पकाने वाली,
आंखें तिरछी कर शरमाने वाली, मुस्काने वाली औरतें हैं। हमसफर नहीं है। न
कोई दोस्त, न बीवी, न बहन, न मां, न
भाई, न ही कोई प्रेमिका। बीच-बीच
में कोई प्रेमिका हो जाती है, अपने
को, यानी अपने मोरल सेन्स को
धोखा देकर उससे प्यार की बातें करता हूं, उसके साथ लेक के किनारे बैठकर रवींद्र संगीत सुनता हूं, बहुत कम उम्र, बहुत अनुभवहीन बनने की चेष्टा करता हूं। मगर आजकल अपनी
ही नैतिकता अपने सामने नंगी तलवार बनकर खड़ी हो जाती है। प्रेमिका को उसके घर तक
पहुंचा आता हूं--और कहता हूं--कल फोन मत करना। अब कभी फोन मत करना।[80]
विवाह तथा संतान
साढ़े सैंतीस वर्षों की अपनी आयु में राजकमल ने कुल दो बार शादी की। पहली
शादी परम्परागत और मैथिल संस्कारों से आवेष्टित थी तथा दूसरी प्रेम से।
पहली शादी 13.07.1951 को श्रीमती शशिकांता चौधरी से हुई। उनकी पत्नी का
वास्तविक नाम है--कर्पूर देवी।
बसैठ चानपुरा के सम्मानित परिवार की इस पुत्री की शादी उस समय राजकमल से हुई जब वे
बी.कॉम. के छात्र थे। शशिकांता जी के दो भाइयों--श्री राजवंशी चौधरी तथा श्री चंद्रवंशी चौधरी का
यथेष्ट आदर राजकमल के परिवार में था। मैथिली के प्रसिद्ध कथाकार ललित ने उनके इस
विवाह-प्रसंग का विवरण अपने निबन्ध में प्रस्तुत किया है। तदनुसार, ललित के मित्र राजवंशी ने आग्रह किया तो वे
सौराठ सभा (मिथिलांचल की प्रसिद्ध जगह) में पहली बार परिचित हुए। मैथिली की दो
महान हस्तियों का परिचय-बीज यहीं अंकुरित हुआ। ललित को यह जानकर घोर आश्चर्य हुआ
कि बी.कॉम. में पढ़ने के बावजूद वे कविता लिखते हैं। मणींद्र राजकमल की ‘स्प्लिट पर्सनेलिटी’ से उनका साक्षात्कार वहीं हुआ।[81]
इधर उपेंद्र चौधरी का कहना है कि राजकमल के
परिवार के समस्त सदस्य बैठकर उनकी शादी की बात कर रहे थे। उन्होंने जिद ठान ली कि ‘उपेंद्र काका जहां कहेंगे, मैं वहां शादी कर लूंगा।’ स्पष्ट है कि उपेंद्र चौधरी उनके सर्वाधिक
विश्वसनीय, आत्मीय और निकटस्थ
व्यक्ति थे। पिता मधुसूदन चौधरी, उनके
जिद्दी स्वभाव से पूर्णतः परिचित थे। अततः उन्होंने टेलीग्राम भेजकर उपेंद्र चौधरी
को महिषी से नवादा (जहां वे शिक्षक थे) बुलवाया। वहां पहुंचकर उपेंद्र चौधरी ने
राजकमल को अच्छी डांट पिलाई और पूछा--ऐसे बौड़म की तरह क्यों करते हो?
उन्होंने जवाब दिया--आप जहां, जिस लड़की से कहेंगे, मैं
शादी कर लूंगा।
उपेंद्र चौधरी के लिए यह अत्यंत दुविधा का
क्षण था। पशोपेश की स्थिति थी--क्या
करें, क्या नहीं करें--कुछ करते नहीं बनता था। चानपुरा (मिथिला का एक
प्रतिष्ठित गाँव, अब मधुबनी जिले
में है) से आए रिश्ते का थोड़ा-थोड़ा आभास उन्हें था। उन्होंने वहीं के लिए अपनी
स्वीकृति दे दी। लेन-देन, तिलक-दहेज
का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। विवाह तय हुआ। अब उपेंद्र चौधरी को साथ लिए बगैर वे
शादी में जाने को तैयार नहीं थे। यहां तक कि मधुश्रावणी (नव विवाहित मैथिलों के
लिए श्रावण पंचमी को आयोजित एक विशेष पर्व) में भी उनके साथ उपेंद्र चौधरी को जाना
पड़ा। ससुराल में खाने की थाली में किसी वस्तु में कोई अंतर देखते, तो वहां भी विद्रोह कर उठते थे। शशिकांता के
साथ उनकी शादी का यही संक्षिप्त किस्सा है।
यद्यपि राजकमल के सम्बन्ध अनेक स्त्रियों से
थे और वे अपने व्यवहार में सर्वविध स्वतंत्रता के आग्रही थे, किंतु अपनी पत्नी शशिकांता से उनका सम्बन्ध
सदैव मधुर रहा और वे उनकी एक-एक इच्छा की पूर्ति करते रहे।
यह भी सच है कि शशिकांता जी से राजकमल कुल दो
बार अलग रहे। एक तो 1956-57 में
कुछ आठ महीने के लिए, जब
उन्होंने मसूरी की सावित्री शर्मा से दूसरी शादी की और दूसरी बार अपने
कलकत्ता-प्रवास के समय में, जब
वे एक तरह से संपूर्ण वैयक्तिक सीमा से अपने को अलग करने में लगे हुए थे।
शशिकांता जी अधिक पढ़ी-लिखी महिला तो नहीं थीं,
किंतु बुद्धिमान तथा विवेकी थीं। वे
स्वयं अपने छोटे भाई के साथ कलकत्ता गईं और उस महानगर में अपने पतिदेवता को खोज
लेने में सफल हुईं।[82]
शशि जी के कलकत्ता पहुंचने के बाद राजकमल के
जीवन में संयम और उत्तरदायित्व की भावना आई और वे अधिक सक्रिय होकर अपनी
रचनाधर्मिता का निर्वाह करने लगे।
राजकमलपरक अपने लेख में साकेतानंद ने
शरच्चंद्र से उनकी तुलना करते, दोनों
के बीच वैचारिक अंतर दिखाते हुए कहा कि शरच्चंद्र ने कभी भी विवाह-संस्था को नहीं
स्वीकारा और न ही कहीं स्वयं जुड़े। किंतु राजकमल ने न केवल शादी की अपितु एक शुद्ध
और निश्छल पत्नी को आजन्म पत्नी माना और एक सीमा तक इस सम्बन्ध को अंत तक निभाया
भी। वे अपने परिवार की सुरक्षा के प्रति सचेष्ट रहते थे--ऐसा कहा जा सकता है। अपनी तमाम आधुनिकताओं के बावजूद वे
कभी शशिकांता जी से विमुख नहीं हुए। हां, बीच-बीच में ऐसा समय आया, जब
वे घर-परिवार सब से दूर अनाम भीड़ के बीच रहकर अपने को पहचानने की चेष्टा करते रहे।[83]
निश्चित रूप से राजकमल के ‘राजकमल’ होने में उनकी धर्मपत्नी शशिकांता का अपूर्व सहयोग था।
यह छोटी बात नहीं है कि राजकमल की फाकामस्ती,
उनके औघड़पन, यायावर जीवन और अनेकानेक महिलाओं के साथ भिन्न-भिन्न
स्तर के सम्बन्धों को शशिकांता जी अत्यधिक उदारता और धैर्य से सहती रहीं। पति का
वियोग और आर्थिक कष्ट कितनी ही बार उन्हें सहना पड़ा--किंतु हर बार वे इसे हंसते-हंसते सहती गईं।[84]
स्वयं शशिकांता जी से जब तारानंद वियोगी ने
पूछा कि किसी लेखक को महान् बनाने में उनकी पत्नी क्या योगदान कर सकती है, तो उन्होंने उत्तर दिया कि घर में लिखने-पढ़ने
योग्य वातावरण यदि पत्नी बना सकी और शांति-सुव्यवस्था तथा सौमनस्य रख सकी, तो यही उसका सबसे बड़ा योगदान साबित होगा।[85]
कहना आवश्यक नहीं कि शशिकांता जी ने ऐसी
सुव्यवस्था परिवार में सब दिन रखी और राजकमल के विकास में सहयोगिनी हुईं। शशि जी
के साथ उनका दांपत्य जीवन अत्यंत सहयोग-भरा रहा। उस जीवन का उल्लेख करते हुए
राजकमल के अनुज श्री सुधीर चौधरी अपने संस्मरणात्मक लेख में लिखते हैं--वे भाभी को बेहद प्यार करते थे। रात के दो बजे
ही सही, लेकिन वे घर लौटते अवश्य,
चाहे उन्हें चौरंगी से बारह मील दूर
पूर्वी पुतियारी पैदल ही क्यों न आना पड़ता। बाहर भले ही पेट भर आएं, पर जब तक भाभी के हाथ का बना रूखा-सूखा वे
नहीं खाते, उन्हें संतोष नहीं
होता।
...रात देर से घर लौटने पर वे भाभी से नित्य
बहाना बनाते, नई कहानियां गढ़ते।
भाभी को और मुझे कहानियां अच्छी लगतीं। और भाभी का सारा गुस्सा मिनटों में
मुस्कुराहटों में बदल जाता।[86]
यह बात पहले भी कही जा चुकी है कि शशि जी बहुत
कम पढ़ी-लिखी महिला थीं। पति यदि बहुत अधिक पढ़ा-लिखा और आधुनिक हो, तो अल्प शिक्षित ग्राम-कन्या के साथ निर्वाह
करना उसके लिए कठिन हो जाता है। निश्चित रूप से यह कठिनता राजकमल के साथ भी थी। इस
कारण वे कुछ दिनों तक परेशान भी रहे, किंतु बाद में उन्होंने समझौता कर लिया और सब कुछ सामान्य हो गया।
अक्सर ऐसा सुना जाता रहा है कि उनका दांपत्य
जीवन कटुतापूर्ण था। पर इस सम्बन्ध में श्री नरेंद्र नारायण चौधरी का कहना है कि
‘‘हमारा पारिवारिक संस्कार ही
ऐसा था कि पत्नी पक्ष से मर्द कुछ मुक्त-जैसे रहते थे। पत्नी-भक्ति कम थी। फूल बाबू
ने भी पत्नी का अधिक ‘केअर’
नहीं किया। इस कारण शशिकांता जी (राजकमल
जी की पत्नी) कुछ दिनों उपेक्षित रहीं। किंतु संतानोत्पत्ति के पश्चात् पारिवारिक
सौमनस्य कायम हुआ और अच्छा निभा।’’
जब राजकमल पटना सचिवालय में नौकरी कर रहे थे
(सन् 1955-56) तो बराबर शशिकांता
जी को साथ रखते थे। उस अवधि की उनकी मानसिकता निश्चित रूप से असामान्य थी, लेकिन अपने पितृव्य और मित्र उपेंद्र चौधरी को
लिखे पत्रों में शशि जी की चर्चा इस प्रकार करते--आपकी चानपूरावाली के सम्बन्ध में ‘अपील’ सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। यों भी, मैंने उन्हें कोई शारीरिक-मानसिक कष्ट नहीं दिया है।
वह खुश हैं, हर वक्त प्रसन्न ही
रहती हैं--इतना यकीन कीजिए। मुझे
वह अभिशाप नहीं मालूम होती हैं, आप
गलत ‘इन्फेरेन्स’ मत निकालिए।[87]
राजकमल के संपूर्ण जीवन को देखते हुए यह
स्पष्ट होता है कि अपनी पत्नी के प्रति अपने उत्तरदायित्व को उन्होंने हमेशा महसूस
किया, उसे निभाया, किंतु इसके बावजूद भीतर-भीतर वे कहीं-न-कहीं
एकाकी रहे। उनका भटकाव खत्म नहीं हुआ। ‘लहर’ पत्रिका के संपादक
अपने मित्र प्रकाश जैन को संबोधित एक पत्र में उन्होंने इस स्थिति पर लिखा है--....सिर्फ मैं बहुत टूट गया हूं। अकेले चला नहीं
जाता। और शशि में ऐसा कुछ नहीं है, जो
मुझे शक्ति दे सके। वह रूठ सकती है, नाराज हो सकती है, मुस्कुरा
सकती है। मगर, हम लोग ऐसे आदमी
नहीं रह सके हैं जो आचारगत या शरीरगत धर्म के प्रति ही रुचिशील हो सकें। इसमें शशि
का कोई अपराध नहीं है। इसलिए कोशिश करता हूं कि वह अपने वृत्त में सुखी रहे,
स्वस्थ रहे।[88]
दूसरी जगह अपनी इस द्वन्द्वात्मक स्थिति और अहंकार का उल्लेख करते हुए राजकमल ने
लिखा है--मैं अपने शरीर पर किसी
का कोई अधिकार नहीं मानता हूं--शशि
का अधिकार भी नहीं। आदेश, धर्म,
समाज, परम्परा और संस्कृति नहीं। यह मेरा अहंकार है।[89]
लेकिन, इन सारी स्थितियों के बावजूद उनका दांपत्य-सम्बन्ध
मधुर रहा। उन्होंने शशि जी के सम्बन्ध में अनेक कविताएं लिखीं। उनको परिचिति
प्रदान करने हेतु उन्होंने उनके नाम से कुछ कविताएं भी लिखीं, जो ‘लहर’ में प्रकाशित हुईं।
शशि जी के साथ अपने दांपत्य-जीवन पर राजकमल की
एक महत्त्वपूर्ण कविता है--दांपत्य:
शशि के साथ!
कंकावती में संकलित कविता है--
हम जुड़वे बच्चे हैं। एक दूसरे की
नंगी पीठ पर फूल-पत्ते आंकते हैं... [90]
दिनांक 08.09.1960 को राजकमल की पहली संतान (पुत्री) का जन्म हुआ। उसके
बाद उनका दांपत्य-सम्बन्ध और अधिक प्रगाढ़ और स्नेहसिक्त हुआ। इस कन्या का नाम
उन्होंने ‘दिव्या’ रखा। दिव्या के जन्म के बाद दांपत्य सम्बन्धी
अपनी मानसिकता को रेखांकित करते हुए उन्होंने एक कहानी लिखी--भयाक्रांत। सारिका, अप्रैल, 1963 में यह कथा प्रकाशित हुई। अपनी परिवर्तित मनोवृत्ति का मानवीकरण करते हुए
उन्होंने लिखा--वासंती के लिए
सत्यनाराण कभी कोई चीज लाया हो, वासंती
को याद नहीं। चार-छह महीने में कभी एक बार वासंती सत्यनारायण के साथ बाहर निकलती
है। साड़ियां, ब्लाउज-पीस,
सत्यनारायण के लिए पैंट-कमीज के कपड़े,
चूड़ियां और ज्यादा पैसे रहे, तो कोई हल्का-सा जेवर खरीद लेती है।
सत्यनारायण अपनी इच्छा से कोई चीज नहीं लाता है--हेयर पिन तक नहीं। मगर सत्यनारायण को इस छोटी-सी बेबी
ने कोमल बना दिया है...कोमल और हृदय के किसी कोने में स्नेहमय।[91]
बाद में, दो और संतानें हुईं--मुक्ता (पुत्री) और नीलू (पुत्र)। अपनी तीनों संतानों
में सबसे अधिक स्नेह उन्होंने दिव्या को दिया। अपने अंतिम समय में नीलू को वे बहुत
अधिक मानने लगे थे। ‘मुक्ति-प्रसंग’
के अनेक स्थलों पर उन्होंने नीलू के सम्बन्ध
में अत्यंत भावुक प्रश्न उठाया है।
सन् 1966 में जब राजकमल पटना सर्जिकल अस्पताल में भरती थे,
उनकी ज्येष्ठ संतान ‘दिव्या’ भी रोगाक्रांत होकर अस्पताल आई थी। उस दिन और उसके बाद
के दिनों में अपनी डायरी में उन्होंने जो लिखा, वह इस कन्या के प्रति उनके स्नेह और वात्सल्य का
द्योतक है। दिनांक 11 जून,
1966 को बीमार दिव्या अस्पताल लाई गई।
राजकमल के संतान-प्रेम की अद्भुत-व्याकुलता उनकी उस दिन की डायरी में भरी पड़ी है।[92]
अपनी ज्येष्ठ संतान के प्रति यह व्याकुलता
राजकमल की उदारता का द्योतक है। आम मैथिल, पुत्री को अभिशाप मानते हैं। इस वैज्ञानिक युग में भी पुत्री के जन्म को
घोर दुःख का अवसर कहा जाता है। जिसे पुत्र नहीं हो, मात्र पुत्री ही हो, उसे निपुत्र, निर्वंश जैसे कटु विशेषण यह समाज देता रहता है। राजकमल को पुत्र भी था।
संतान के प्रति पिता के हृदय में जैसा स्नेह होना चाहिए, वह पुत्र के प्रति भी था, लेकिन तथ्य कहता है कि जितना स्नेह उन्हें दिव्या से
था, उतना नीलू से कदापि नहीं।
यद्यपि स्नेह होने से पूर्व इतना सोच-विचार नहीं होता है कि स्नेहपात्र पुत्र है
या पुत्री, लेकिन बावजूद इसके
पुत्री के प्रति स्नेह उनके उदार व्यक्तित्व तथा आम मैथिल से भिन्न चरित्र का
परिचय देता है।
फिलहाल दोनों पुत्रियां विवाहित हैं। दिव्या
के पति हैं--श्री अशोक कुमार
मिश्र, जो ग्रामीण बैंक में
मैनेजर हैं, मैथिली में उनकी कुछ
कहानियां प्रकाशित भी हैं। श्री मिश्र की अद्यावधि प्रकाशित कथाओं में सर्वश्रेष्ठ
है--‘माटिक चुक्कड़’, जो मिथिला मिहिर में प्रकाशित है।
मुक्ता के पति श्री वीरेंद्र मिश्र, सरकारी सेवा में हैं। पुत्र नीलू ने सन् 1988 में बी.ए. (इतिहास प्रतिष्ठा) की परीक्षा पास
की। बाद में इतिहास में एम.ए. भी किया। फिलहाल गाजियाबाद में नौकरी करते हैं। उनकी
शादी पारम्परिक रीति से एक मैथिल कन्या के साथ हुई। वे दो पुत्रियों के पिता हैं।
अपने पुत्र नीलू के साथ रहते हुए शशिकांता जी का देहावसान 29.01.2011 को गाजियाबाद में हुआ।
दूसरी शादी और मसूरी-प्रवास
सन् 1956 में राजकमल ने
दूसरी शादी की। पत्नी का नाम है--सावित्री
चौधरी। श्री साकेतानंद ने इस विवाह की तिथि 22.07.1956 बताई है।[93]
इस सम्बन्ध में पर्याप्त दृढ़ता से उपेंद्र
चौधरी राय देते हैं कि अपनी कमाऊ जिंदगी की शुरुआत राजकमल ने पटना सचिवालय से की
थी। किंतु सचिवालय की फाइल में बंधी दिनचर्या से स्वच्छंद विचरण करनेवाला उनका
मन-विहग ऊब गया, वहां की नौकरी
छोड़कर पटना रेडियो आ गए। वहां भी अधिक दिन टिक नहीं सके। सावित्री (मसूरी) से उनका
सम्पर्क वहीं से बना। वे विधवा थीं। राजकमल ने विवाह की बात उन्हें भी कही थी।
कहा तो जाता है कि शशिकांता से शादी के बाद, मसूरी जाकर उन्होंने सावित्री से शादी कर ली और कुछ
वर्षों तक उनके साथ रहे। पर सचाई है कि सावित्री के साथ उनका सम्पर्क विवाह-पूर्व
से ही था। कभी-कभार मसूरी जाते भी थे। उनके साथ विवाह का कमिटमेंट भर हुआ था।
सावित्री चौधरी के सम्बन्ध में जो तथ्य
उद्घाटित होते हैं, तदनुसार वे
सुशिक्षित और खूबसूरत युवती थीं। जब राजकमल गया कॉलेज में अध्ययन कर रहे थे,
तभी सावित्री शर्मा नामक इस युवती से
उनका परिचय हुआ। अनेक बार दोनों के मिलन-संभाषण का क्रम चला। सावित्री स्वयं
राजकमल से शादी करना चाहती थीं। वे बहुत धनाढ्य परिवार की बेटी थीं और आधुनिक समाज
तथा वातावरण में पली-बढ़ी थीं। उनकी यह अभिलाषा बुरी नहीं थी। लेकिन सावित्री के
पिता ने इस सम्बन्ध का घोर विरोध किया और दिल्ली के किसी धनवान से उनकी शादी
करवा दी। इसे मात्र संयोग ही कहा जाएगा कि मात्र दो वर्षों के बाद सावित्री विधवा
हो गईं। और तब राजकमल के साथ उनकी घनिष्ठता फिर बढ़ी।[94]
यहां एक परस्पर विरोधी तथ्य पर विचार कर लेना
आवश्यक है।
साकेतानंद के अनुसार दिसंबर, 1955 में दिल्ली की औद्योगिक प्रदर्शनी में राजकमल
की भेंट सावित्री से होती है और मात्र सात-आठ महीनों के अल्प परिचय में ही 22.07.1956 को इन लोगों की शादी हो जाती है।[95]
इधर राजकमल पर शोध कर चुकी डॉ. कल्पना लिखती
हैं कि सावित्री, मसूरी घूमने गई
थी और संयोगवश राजकमल भी उस समय मसूरी में घूम रहे थे। कुछ दिनों तक रोमांस चला और
उन्होंने उनसे शादी कर ली।[96]
दोनों कथनों में पहला विरोध तो यह है कि
साकेतानंद के अनुसार परिचय दिल्ली में हुआ, इससे पूर्व कोई परिचय नहीं था। जबकि मसूरी राजकमल
पर्यटन के उद्देश्य से गए थे। सावित्री भी इसी उद्देश्य से आई थीं। यहां एक विरोध
और उत्पन्न होता है। अनेक व्यक्तियों के अनुसार सावित्री का पैतृक निवास-स्थान ही
मसूरी था, कहीं अन्यत्र नहीं।
ऐसा ललित ने अपने लेख में भी अधिकारपूर्वक कहा है।[97]
पर कल्पना, सावित्री का निवास
मसूरी नहीं मानतीं, उन्होंने यह
उल्लेख किया कि वहां वे पर्यटन के उद्देदश्य से गई थीं। निश्चित रूप से डॉ. कल्पना
का कथन असत्य है।
इस संदर्भ में वरेण्य कथाकार ललित की पंक्ति
उद्धृत करना आवश्यक प्रतीत होता है--उस समय की कुछ घटनाएं, आवश्यक
है कि प्रकाश में आएं। मसूरी, हैप्पीवेली
स्थित सावित्री शर्मा से राजकमल का पत्राचार उस समय में चल रहा था। दरभंगा के पते
पर मेरे केयर में राजकमल को मसूरी से पत्र आता था।
मैं इस सम्बन्ध का घोर विरोधी था। विशेषकर
राजकमल का विवाह मेरे ही गाँव में था। उसका साला श्री राजवंशी मेरा अभिन्न बाल सखा
है।
किंतु राजकमल एवं सावित्री का यह पत्राचार बाद
में पावन परिणय में बदल गया।[98]
चूंकि ललित ने एक प्रत्यक्षद्रष्टा और सहभोक्ता की हैसियत से इस सम्बन्ध के बारे
में लिखा है और राजकमल के पितृव्य सह अभिन्न मित्र उपेंद्र चौधरी ने भी इसी से
मिलते-जुलते तथ्य का उद्घाटन किया है,[99] अस्तु ललित द्वारा उल्लिखित तथ्य को मैं सत्य
तथा आधिकारिक मानता हूं।
राजकमल ने सावित्री से न केवल शादी की बल्कि
उन्हें अपना अभिधान भी दिया--सावित्री
चौधरी। सावित्री जी के सम्बन्ध में ‘लहर’ की संपादक मनमोहिनी
को संबोधित अपने पत्र में उन्होंने लिखा--श्रीमती सावित्री चौधरी को लहर की ग्रहिका बन जाने के लिए पत्र लिखो। पत्र
लिखो और परिचय कर लो। शायद एक युग बीत गया, मैंने उसे अपना टाइटिल (चौधरी) दिया था। शायद युग ही
नहीं सब कुछ बीत गया।[100]
लेकिन सावित्री से राजकमल के सम्बन्ध स्थायी
नहीं रह सके। सावित्री का स्नेह और ऐश्वर्य राजकमल को सात-आठ महीने से अधिक नहीं
बांध सका। आवश्यकता से अधिक धन, औचित्य
से अधिक सुख-सुविधा, अनायास और
पर्याप्त नारी-प्रेम--इस
दुर्दांत कवि को नहीं रख सका। सावित्री के चारों ओर के आभिजात्य तथा उस वर्ग के
आडंबर और खोखलेपन ने उनको साथ नहीं रहने को बाध्य कर दिया। संभवतः राजकमल
स्त्रियों के सम्बन्ध को शारीरिक स्तर से अधिक कुछ नहीं मानते थे। और मात्र
शारीरिक सम्बन्ध अधिकतर ऊब पैदा करने वाला होता है।
राजकमल कभी भी पराजय स्वीकारना नहीं चाहते थे।
यदि कहीं पराजय थी भी तो उसे स्वीकारने की बात उनके व्यक्तित्व में नहीं थी। कहीं
जमकर, संतुष्ट होकर रहने की
क्षमता भी नहीं थी उनमें। यही अस्वीकार, यही अक्षमता उनके सावित्री चौधरी से अलग हो जाने का कारण बनी।
वरिष्ठ कथाकार ललित ने अपने राजकमलपरक निबन्ध
‘श्मशान-धतूर’ में उनके मसूरी-निष्क्रमण का विवरण भी
प्रस्तुत किया है। तदनुसार कुछ ही दिनों में वे मसूरी के प्राण हो गए थे। किसी दिन
ब्यूटी-शो, किसी दिन मिस-मसूरी
का चुनाव, किसी दिन कोई उत्सव तो
किसी दिन किसी दूसरे कार्यक्रम में वे आमंत्रित होते थे, आयोजित करवाते थे। लेकिन सावित्री से उनका मतांतर बढ़ता
गया। एक रात की बात है, मध्य
निशा में मोटा ओवर-कोट, कनझप्पा
टोपी पहने एक व्यक्ति क्लब से बाहर निकला। वह घोर नशे में था। उसके पैर डगमगा रहे
थे। बहुत मुश्किल से वह हैप्पीवेली स्थित सावित्री के बंगले तक पहुंचा। भीतर से
सावित्री ने उसे देखा। बाहर आकर पहले उसे उठाने का प्रयास किया और बाद में उसकी
अंगुली से प्लैटिनम की अगूंठी निकालकर वापस बंगले में आ गईं।
इसी अंगूठी के कारण इन दोनों के बीच विवाद
बढ़े। राजकमल का कहना था कि अंगूठी उस व्यक्ति को वापस कर दी जाए, लेकिन सावित्री इस बात पर तैयार नहीं हुई।
इतनी-सी बात को लेकर राजकमल सदा के लिए मसूरी से प्रस्थान कर गए।[101]
मसूरी से निष्क्रमण की चर्चा साकेतानंद ने
अपने लेख में की है। उक्त घटना के बाद की स्थिति को चित्रित करते हुए वे लिखते हैं--...फलतः जुलाई, 1957 का एक दिन--मजबूत गात, कम ऊंचाई का
एक व्यक्ति, हाथ में अपना सूटकेस
उठाए मसूरी हिल्स की ढलान नाप रहा था। राजकमल, मसूरी, उनकी
अकर्मण्यता और विलासिता, सावित्री
और उसका प्रेम--सब कुछ भूलकर
वापस आ रहे थे। वहां जा रहे थे, जहां
कदम-कदम पर संघर्ष था, दुनिया की
अपनी नियमित गति थी--थकान और
झल्लाहट थी। अपनी संपूर्ण जिजीविषा और दुर्दम्य व्यक्तित्व के साथ वह एक नई
कर्मभूमि की खोज में घूम रहा था।[102]
अपने जीवन की प्रायः समर्पण बेला में राजकमल
अपनी आत्मकथा को आधार बनाकर जो उपन्यास लिखना चाहते थे, उसका प्रारूप सन् 1966 की डायरी में है। इस उपन्यास को पांच अध्यायों में
विभाजित करने की उनकी योजना थी। इसमें एक पूरा-का-पूरा अध्याय मसूरी के जीवन पर
केंद्रित होना था।[103]
उनके जीवन में मसूरी-प्रवास की महत्ता इस तथ्य से भी आंकी जा सकती है। आधुनिकतम
सभ्यता-संस्कृति, पाश्चात्य
रहन-सहन तथा अति संभ्रांत वर्ग की दशा-दिशा को जानने-परखने, देखने-भोगने का अवसर और अवकाश उन्हें मसूरी में ही
मिला। मसूरी-प्रवास का विस्तृत-प्रभाव राजकमल के साहित्य पर पड़ा है, जिसे स्पष्टतः पहचाना जा सकता है। श्रीमती
सावित्री चौधरी से राजकमल की कोई संतान नहीं है।
सरकारी सेवा से मुक्ति और लेखन में रुचिशील
सन् 1954 में जब राजकमल
चौधरी पटना सचिवालय में शिक्षा विभाग में नौकरी कर रहे थे, अक्सर उत्तेजनात्मक नोट लिखा करते थे। फाइल पर ऐसे
नोट्स देखकर उनके अफसर काफी रुष्ट रहा करते थे। एक दिन पिता से भी रुष्टता हुई और
अपने प्रमाण-पत्रों को फाड़कर, नौकरी
छोड़कर घर से निकल गए[104]
और चले गए मसूरी।
मसूरी से वापस आने के बाद दिसंबर, 1957 में अपनी संपूर्ण जिजीविषा और दुर्दमनीय
व्यक्तित्व के साथ वे कलकत्ता आ गए। इस महानगर के व्यस्त और अस्त-व्यस्त जीवन-क्रम
ने उन्हें शीघ्र ही तन और मन से तोड़ दिया। लेकिन सत्य यह भी है कि अपने पूरे जीवन
में राजकमल ने सर्वाधिक गति से काम कलकत्ता-प्रवास के काल-खंड में ही किया,
जैसा कि साकेतानंद ने भी सूचित किया है।[105]
यहीं पर वे ‘मिथिला-दर्शन’ पत्रिका से जुड़े। जीविका के लिए मृदुला चक्रवर्ती नाम की एक लड़की को
उन्होंने ट्यूशन पढ़ाना प्रारंभ किया। लेखन में रुचिशील तो 1949-50 से ही थे लेकिन प्रकाशन का प्रारंभ बाद में
हुआ। सन् 1951-52 के मध्य वे गया
में रहते थे। वहीं कुछ रईस गुंडों के संसर्ग और रौशन अफरोज के पापपूर्ण जीवन को
देखकर उनके मन में ऐसी प्रेरणा जागी कि जीने के लिए अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य आदि की परिभाषा बदलनी चाहिए। रौशन
अफरोज के इस प्रभाव से उद्भूत उनकी विहंगम दृष्टि उनकी रचनाओं में आई है।[106]
युग-यथार्थ से प्राप्त अनुभव, वैविध्यपूर्ण जीवन, मनुष्य की नियति आदि राजकमल की सृजनशीलता को उत्प्रेरित
करते रहे। एक-दो वर्षों के भीतर ही, वे मैथिली पाठकों के समक्ष एक विद्रोही रचनाकार के रूप में उपस्थित हो गए।
शीघ्र ही ‘वैदेही’ पत्रिका में उनकी रचनाएं छपने लगीं। इस
प्रकाशन के पश्चात् उनका सान्निध्य बना यात्री (हिन्दी के नागार्जुन) से, ललित से, मायानंद से...। अब वे लफंगे उनके साथ नहीं रहते थे।
लेकिन अपने जीवन के इस स्तर पर आ जाने के बाद
भी उनके चंचल मन और यायावरी जीवन ने उन्हें स्थिरता नहीं दी। वे दरभंगा जिले के
विभिन्न गांवों के चक्कर काटते रहे। यह चक्कर काटना, यह भटकना ‘निरर्थक भ्रमण’ नहीं कहा
जाएगा। इस तथ्य को साकेतानंद भी पुष्ट करते हैं[107]
और हसंराज भी।[108]
इस भ्रमण से उन्हें जो दृष्टि मिली, जो अनुभूति प्राप्त हुई--उसी का प्रतिफल है उनके रचना-संसार में
सामाजिक संदर्भ का युग-यथार्थ। इसी भ्रमणशीलता से राजकमल की लेखन-धर्मिता में ओज
और प्रखरता आई।
मैथिली में उनकी पहली रचना अक्टूबर,
1954 में प्रकाशित हुई। पहली प्रकाशित
कविता है ‘पटनिया टट्टूक प्रति’
(वैदेही, फरवरी, 1955) और पहली प्रकाशित कथा है ‘अपराजिता’
(वैदही, अक्टूबर, 1954)। ‘सती धनुकाइन’ कहानी मैथिली पत्रिका पल्लव में मई,
1957 में छपी जबकि हिन्दी की पत्रिका ‘कहानी’ में उसका अनुवाद मार्च, 1958 में छपा। वैसे वह सीधे शब्दों में अनुवाद नहीं,
पुनर्रचना थी। यही कहानी हिन्दी में
राजकमल की पहली प्रकाशित रचना मानी जाती है।
उनके प्रारंभिक काल की कोई पांडुलिपि मैथिली
में उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार
पर उनके मैथिली लेखन के पूर्वाभ्यास की चर्चा की जाए। लेकिन, हिन्दी लेखन के पूर्वाभ्यास के कुछ प्रमाण
उपलब्ध हैं। अप्रकाशित पांडुलिपि ‘विचित्रा’
में ‘फागुनी’ शीर्षक से एक कविता है, 17.02.1950 की लिखी हुई। यह कविता उनकी हस्तलिपि में है। दूसरी ओर उपेंद्र चौधरी
कहते हैं--सन् 1947 में टी.एन.बी. कॉलेज (भागलपुर) की टर्मिनल
परीक्षा में उन्होंने हिन्दी में जो निबन्ध लिखा, उससे प्रो. माहेश्वरी सिंह ‘महेश’ उस
उत्तर-पुस्तिका के मूल्यांकन के समय इतने प्रभावित हुए कि वह निबन्ध कॉलेज
पत्रिका में छपवाया गया। सन् 1948
में एक निबन्ध प्रतियोगिता में उन्हीं के लिखे निबन्ध (कन्ट्रोल का देवता) पर
मैंने प्रथम स्थान प्राप्त किया, जो
मारवाड़ी कॉलेज पत्रिका, भागलपुर
में मेरे नाम से छपा।[109]हिन्दी
लेखन में प्रवृत्त, कलकत्ता-प्रवास,
संपादन उपेंद्र चौधरी की राय में राजकमल
चौधरी का धारदार लेखन, कॉलेज
जीवन समाप्त होने के तत्काल बाद ही शुरू हो गया था। सन् 1950-51 का समय उनके गंभीर लेखन का प्रारंभिक काल है।
पर विचित्रा (कविता-संग्रह) में संकलित 1949-50 में लिखी कविताएं, उपेंद्र चौधरी से मिली इन सूचनाओं से अलग चित्र
उपस्थित करती हैं। अनुमान करना सहज है कि वे बहुत पहले से कविता लिख रहे थे।
प्रकाशन के साक्ष्य के आधार पर बात करें तो ‘अपराजिता’ कथा से मैथिली में और ‘एक ही वृत्त की रेखाएं’ से हिन्दी में (चूंकि ‘सती धनुकाइन’ कथा को एक हद तक मैथिली कथा का अनुवाद या पुनप्र्रस्तुति माना जा सकता है)
अपनी रचना-यात्रा प्रारंभ कर राजकमल द्रुत लेखन करते रहे। सन् 1960 में आकर मैथिली से उनका मोह टूट गया। जैसा कि
हंसराज के नाम लिखे दो पत्रों के अंशों से द्योतित है--वैदेही, दर्शन, अभिव्यंजना,
इजोत, धीयापूता (ये सब मैथिली की पत्रिकाओं के नाम हैं),
मैं इन सबों से असम्पर्कित हूं और रहना
चाहता हूं। आप भी हिन्दी में आइए, यही
प्रार्थना मैं करूंगा। मैथिली का मोह अधिक काल तक उचित नहीं।[110]
फिर लिखते हैं--...मात्र मैथिली में लिखने से लाभ नहीं। हिन्दी में
लिखना आवश्यक। वैदेही में जो कहानी (मेरी) आई है, वह मैंने कृष्णकांत बाबू को सन् 1951 में दी थी।[111]
मैथिली में रचनाकारों को मानदेय राशि नहीं
देने की प्रथा, रचना के प्रकाशन
में नौ-नौ वर्ष विलंब करने की प्रथा...आदि कारणों से अथवा अपनी अनुभूति से
अधिकाधिक व्यक्तियों को परिचित कराने की मानसिकता से अथवा नौकरी-चाकरी छोड़कर
श्रमजीवी रचनाकार बनने के अभिप्रेत से भी राजकमल हिन्दी-लेखन की ओर आकर्षित हुए।
किंतु ऐसा नहीं हुआ कि वे मैथिली से टूट गए।
कलकत्ता-प्रवास, राजकमल की साहित्यिक उपलब्धि का बहुत महत्त्वपूर्ण
अंतराल रहा। अपने रचना-संसार का अधिसंख्य कथ्य राजकमल ने यहीं से बटोरकर अपनी झोली
में रख लिया था। बल्कि स्वरगंधा, आदिकथा,
आन्दोलन...आदि प्रायः लिखी भी यहीं
गईं। हिन्दी की उनकी अधिकांश रचनाओं पर कलकत्ता का प्रभाव किसी-न-किसी तरह है।
अपने नाम के अतिरिक्त वे वनलता सिंह, शशि चौधरी, अनामिका
चौधरी आदि छद्म नामों से हिन्दी तथा मैथिली में खूब लिखते थे। सामाजिक-सांस्कृतिक
संस्थाओं के संचालन में उनकी खूब रुचि थी, जैसा कि पूर्व के वर्णनों में द्योतित है।
कलकत्ता में मिथिला-दर्शन की देख-रेख की
जिम्मेदारी उन्हीं पर आ गई। बाद में अकस्मात् भारतीय ज्ञानपीठ से संबद्ध हुए। फिर
ज्ञानोदय के संपादन में उन्होंने सहयोग दिया। लेकिन उनके उदात्त चरित्र और मालिक
की व्यापारी-मनोवृत्ति में ताल-मेल नहीं बैठ सका। उन्होंने उससे भी मुक्ति पा ली।
सन् 1960 में रागरंग नाम की अपनी
पत्रिका उन्होंने शुरू की। यह पत्रिका सर्वविधि अद्यावधि अपूर्व मानी जाती है।
साकेतानंद द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार 01.09.1963 को उन्होंने पूर्ण रूप से कलकत्ता छोड़ दिया।
साकेतानंद उनकी अतिवैयक्तिक डायरी की कुछ पंक्तियां उद्धृत करते हैं--आई प्रोमिस, आई विल नॉट, आई विल नेवर राइट फॉर मनी ऑर नेम। फॉर मनी एंड फॉर सोशल सिक्युरिटी--आई विल इंटर इंटू जर्नलिज्म--वर्किंग फॉर सम डेली प्रेस।[112]
तत्पश्चात् पटना आकर उन्होंने ‘भारत मेल’ के संपादन विभाग में नौकरी प्रारंभ कर दी। ‘भारत मेल’ पत्र ‘राजनीतिक
स्टंट’ की तरह सप्ताह में दो बार
प्रकाशित होता था। डॉ. कल्पना द्वारा दी गई सूचना के अनुसार पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की कुछ कहानियों का संकलन, संपादन
छह खंडों में उन्होंने किया। बाद में उन संकलनों की भूमिका के रूप में लिखे गए छह
निबन्ध मेरे ही संपादन में प्रकाशित निबन्ध-संग्रह में प्रकाशित हुए। रचनावली के
खंड-7 में भी वे संकलित हैं। डॉ.
कल्पना के अनुसार राजकमल ने कुछ छोटे-छोटे नाटक और समकालीन साहित्यिक संदर्भों पर
आधारित स्तंभ भी लिखे। ‘राष्ट्रवाणी’
दैनिक एवं मासिक में और ‘नवराष्ट्र’ में भी कुछ दिनों तक उन्होंने काम किया। इसी अंतराल
में वे लगातार द्रुत लेखन में भी लगे रहे। सन् 1960 के पश्चात् लेखन को ही उन्होंने अपनी जीविका बना लिया,
ऐसा राजकमल की ही पंक्ति से स्पष्ट होता
है--पिछले तीन वर्षों से
श्रमजीवी लेखक का जीवन बिता रहा हूं।[113]
अनुवाद कार्य, विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन, रोगग्रस्तता, मृत्यु
साकेतानंद का अभिप्राय है कि सन् 1961 तक राजकमल ने हिन्दी में लिखकर, बंगला से अनुवाद कर, जीवन-यापन करने का निर्णय ले लिया था। वायरन (आंद्रे
मालरक्स), शंकर (चौरंगी),
सरोज बंद्योपाध्याय (सीमांत), दीपक चौधरी (फरियाद), वाणी राय (चोखे आमार तृष्णा) प्रभृत्ति के अनुवाद
उन्होंने जहां-तहां रहकर किए।[114] शिवचंद्र
शर्मा कहते हैं--अनुवादक (विशेष
रूप से बंगला के) राजकमल जी बंगला से हिन्दी अनुवाद करने में माहिर माने जाते थे।
बंगला के प्रसिद्ध उपन्यास चौरंगी का हिन्दी अनुवाद उन्होंने ही किया था। माणिक
बंद्योपाध्याय के दो-एक बंगला के अनुवाद उन्होंने किए थे, जो या तो प्रकाशकों के यहां पड़े होंगे या उनके घर में
ही होंगे, जिन्हें मैंने देखा
है। दोनों भाषाओं के जानकारों का कहना है, दोनों (मूल और अनुवाद) के रसतत्त्व बोध में कोई फर्क नहीं पड़ता।[115]
बंगला कविताओं का भी उन्होंने अनुवाद किया।[116]
डॉ. कल्पना, संजय भट्टाचार्य
के ‘तीसरा नेत्र’ का भी नाम जोड़ती हैं। लेकिन, वाणी राय की ‘चोखे आमार तृष्णा’ पुस्तक के अनुवाद ‘मेरी आंखों में प्यास’ में अनुवादक का नाम कहीं उद्धृत नहीं है। पर सन् 1963 की राजकमल चौधरी की डायरी में इस बात का
उल्लेख है कि चोखे आमार तृष्णा पुस्तक के हिन्दी अनुवाद हेतु उन्हें मानदेय मिला
है। इसलिए अनुवादक के रूप में उनकी सत्ता स्वीकारने में कोई संशय नहीं होना चाहिए।
यू.एस.ए. से प्रकाशित पत्रिका ‘पोटपुरी’ के ग्रीष्मकालीन अंक 1966 में उनकी एक कविता ‘बिलीफ’ शीर्षक
से प्रकाशित हुई। इस कविता के साथ यह भी उद्धृत है कि यह कविता कवि द्वारा हिन्दी
से अंग्रेजी में अनूदित है। इसका हिन्दी रूप अभी तक उपलब्ध नहीं हो सका है,
किंतु भावगत तुलना करने पर
मुक्ति-प्रसंग के ‘प्रसंग-दो’
के आसपास की चीज यह लगती है। मैथिली में
इस कविता का अनुवाद लोकवेद, दिसंबर,
1986 तथा हिन्दी अनुवाद विपाशा (हिमाचल
प्रदेश) के 40वें अंक में छपा।
यह अनुवाद अंग्रेजी से मैंने किया।
फिल्मकार और फिल्मों के पटकथा लेखक के रूप में
भी उनकी चर्चा की जाती है। साकेतानंद कहते हैं--भोजपुरी फिल्मों की सफलता के कारण पटना का वातावरण कुछ
फिल्मी बन गया था। राजकमल भला इस अत्याधुनिक विधा में प्रयोग किए बगैर कैसे रहते?
तो चीना कोठी फ्लैट्स में भारत देश
हमारा नामक नाटक के प्रारंभिक अंश और कई एक फिल्मों के स्क्रिप्ट लिखने की योजना
विभिन्न फिल्मी हस्तियों के साथ बनाई जाती है।[117]
लेकिन शिवचंद्र शर्मा कहते हैं--जलतरंग फिल्म स्क्रिप्ट की भी जानकारी नहीं
है। यह था कि फिल्मी तकनीक, उसकी
प्रत्येक अधुनातन सूक्ष्म विधा की जानकारी उन्हें थी। भोजपुरी फिल्म फेस्टिवल (सन्
1965, कलकत्ता) के संयोजकों
(कनवेनरों) में एक प्रमुख वे भी थे। मैथिली में बन रही फिल्म ‘ममता गावए गीत’ का कथानक भी उन्होंने तैयार किया था, जो किसी कारणवश संचालकों द्वारा अस्वीकृत कर
दिया गया। भोजपुरी की एक फिल्म (शायद ‘टिकुलिया वाली’) की
कहानी उन्होंने लिखी थी, जिसे
स्वयं प्रस्तुत करने का असफल संकल्प भी उन्होंने किया था। वित्त व्यवस्थापकों का
उनमें अविश्वास था।[118]
अनेक कारणों से शिवचंद्र शर्मा की सूचना अधिक विश्वनीय मानी जानी चाहिए।
अक्टूबर, 1965 में ट्यूमर के कारण उनके पेट में दर्द शुरू हुआ। असल
में बचपन से पिता के कठोर अनुशासन में बंधे राजकमल, जब कॉलेज जीवन में आए तो एकाएक अपने को मुक्त पाया।
अपने को उन्होंने अंकुशविहीन महसूस किया। इस मुक्ति ने, इस अंकुशविहीनता ने राजकमल को सारे दुर्व्यसनों का
शिकार बना दिया। ये दुर्व्यसन उनके स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक हानिदायक थे। वही
पेट-दर्द आगे चलकर उनकी जान का गाहक हो गया। दिनांक 22 फरवरी, 1966 की शाम को उनके अनुज सुधीर कुमार चौधरी और प्रिय पात्र चंद्रमौलि उपाध्याय
उन्हें जबर्दस्ती अस्पताल ले आए। राजेंद्र सर्जिकल वार्ड में भर्ती होना पड़ा।
तीव्र मूत्रावरोध से वे त्रस्त थे। लिम्फोसारकोमा के संदेह से डॉक्टर ने उनका पेट
खोला। दिनांक 13 अगस्त,
1966 को लगभग स्वस्थ्य होकर राजकमल घर
वापस आए। इससे पूर्व कुछ दिनों तक पटना आयुर्वेदिक अस्पताल में देशी दवा भी की।
लेकिन रोग बिगड़ता गया। इस समय में राजकमल का पूर्ण पथ्य-परहेज से रहना आवश्यक था।
लेकिन महिषी आकर वे और अधिक स्वाधीन और निरंकुश जीवन बिताने लगे। बदपरहेज की सीमा
का अतिक्रमण कर दिया। किसी भी दुर्व्यसन से वे मुक्त नहीं रह सके। पटना में तो
कुछ संयम बरतते भी थे, गाँव आकर
और अधिक कुसंयमी हो गए।
उनके कुसंयम और निरंकुशता पर उपेंद्र चौधरी
कहते हैं कि पटना छोड़कर जब वे गाँव आए, तो दिन भर वहां के गंजेड़ियों से घिरे रहते थे। मुझसे कहा कि ‘पटना में लोग मुझे बहुत तंग करते हैं। इसलिए
निर्णय किया है कि अब गाँव में ही रहूंगा। यहीं पर पढंूगा-लिखूंगा। पटना में किराए
का मकान रहेगा ही। साल-भर में दस हजार की सामग्री लिखूंगा। उससे ज्यादा नहीं हो
सकेगा मुझसे। और, सोचता हूं,
गाँव में ऐसा कुछ करूं कि मंडन मिश्र के
समय की महिषी की ख्याति अक्षुण्ण रह सके...!’
ये सारे निर्णय तब के हैं, जब वे पहली बार अस्पताल से मुक्त होकर गाँव आए
थे। डॉक्टर लोग आने नहीं दे रहे थे। उस समय उनकी दलील थी कि ‘आप लोग, जैसे आहार (मांस, मछली, दूध,
दही) की बात करते हैं, वे मुझे गाँव में बेहतर मिलेंगे। और, परहेज से तो मैं रहूंगा ही!’
पर गाँव में वे खाक परहेज करते! किसी का डर-वर
तो था नहीं! बेहिसाब बदपरहेज हुआ। पूरे गाँव के युवक हरदम घेरे रहते। जिधर निकलते,
एक फौज साथ निकल पड़ती। जिनके पिता उनके
कट्टर विरोधी थे, वे युवक अंध
भक्त। बदपरहेज बढ़ता गया। उपेंद्र चौधरी का कहना है कि ‘मैं उन दिनों गाँव में नहीं रहता था। रहता, तो ऐसा नहीं होने देता। उस अनियमितता और
बदपरहेज से अपूरणीय क्षति हुई, वे
अधिक दिनों तक स्वस्थ नहीं रह सके।’
इस कुसंयम का परिणाम यह हुआ कि मई,
1967 में पुनः अस्वस्थ होकर महिषी से
सहरसा अस्पताल आए। यहां इलाज संभव नहीं हुआ, पटना जाना पड़ा। दिनांक 16 जून, 1967 को पुनः पटना अस्पताल लाए गए। जीवन के कदम-कदम पर मुक्ति के आकांक्षी
राजकमल को 19 जून 1967 को इस शरीर से मुक्ति मिल गई। इस तिथि का
स्मरण मात्र भी साहित्यिक अभिरुचि के लोगों को व्यथित कर देता है। यही वह दिवस है,
जिसने हमसे साहित्य-केशरी राजकमल को
छीना है।
मृत्यूपरांत
राजकमल के देहावसान के पश्चात् रेडियो, अखबारों, पत्रिकाओं आदि में श्रद्धांजलियों का तांता लग गया। संपादकीय टिप्पणियों
और विशेषांकों की शृंखलाएं चलने लगीं। हिन्दी में प्रायः सभी पत्र-पत्रिकाओं में
उन पर कुछ-न-कुछ अवश्य ही आया। पर मैथिली पत्रिकाओं और मैथिली के पाठकों की चुप्पी
भंग नहीं हुई। मृत्यु के साल-भर बाद ‘आखर’ का विशेषांक आया।
आश्चर्य और हैरत की बात है। इतने कम दिनों में ही मैथिली साहित्य में परिमाणात्मक
और गुणात्मक साहित्य रूपों के जितने द्वार उन्होंने खोले, तालाब के ठहरे हुए पानी को उन्होंने जिस तरह गतिशील
किया, कुंभी-काई की बदबू को जिस
तरह धोया, वह शायद पूरी टीम से
भी संभव न हो पाता! लेकिन मैथिली साहित्य के संपादक, प्रकाशक, पाठक का रूढ़ि-रोग भंग न हो सका। श्रद्धांजलि देने अथवा विशेषांक निकालने
का साहस उन लोगों को नहीं हुआ।
हिन्दी की कई पत्रिकाओं के विशेषांक छपने
लगे। विशेषांकों की स्थिति तो हिन्दी में यह हुई कि प्रेमचंद के अलावा भारतीय
भाषाओं में कम ही ऐसे रचनाकार हैं, जिन
पर इतनी संख्या में विशेषांक छपे।
मृत्यूपरांत हुआ यह भी कि जगह-जगह लोग
शशिकांता जी एवं उनके बच्चों को अनाथ और दया के पात्र समझने लगे। उनकी मदद के लिए
चंदा इकट्ठा करने लगे। मनुष्य जाति की यह अजब विशेषता है, उदार होता है तो देवता की श्रेणी में चला जाता है और
सामान्य होता है तो क्षुद्र और अविवेकी। तटस्थ और ईमानदार होकर सोचना, मनुष्य के चरित्र में नहीं बदा है। वैसे
राजकमल के सम्बन्ध में, समाज
ईमानदार होता भी क्यों? बहरहाल...इसकी
जानकारी जब शशिकांता जी को मिली, तो
उन्होंने जगह-जगह अपना वक्तव्य प्रकाशित किया और शालीन भाषा में लोगों को यह काम
करने से मना किया। शशि जी का स्वाभिमान उस विपदा की घड़ी में भी नहीं हिला।
अनुज पीढ़ी के लोग उनका आदर करें अथवा
पूर्ववर्ती पीढ़ी के लोग प्रसन्न रहें और आशीष दें--इस बात की चिंता राजकमल को कभी नहीं हुई। अपने दृढ़
निश्चय पर वे निर्भीकता से बढ़ते गए। साहसिकता, अन्वेषण-प्रवृत्ति, अध्ययनशीलता का क्षेत्र-विस्तार, परम्परा-भंजकता, समन्वय-प्रवृत्ति, प्रभावकारी व्यक्तित्व, शालीन व्यवहार आदि कुछ अपूर्व गुणों के अनेक संस्मरण
सुनने को अब भी मिलते हैं।
लेकिन, असत्य भाषण, वंचना वृत्ति, अनावश्क
आतुरता, छद्म आक्रोश, नारी के प्रति असम्मानजनक विचार, मद्यपान से अतिशय जुड़ाव...जैसी अफवाहों के
कारण राजकमल अधिक विवादास्पद हुए, मैथिलों
के बीच तो खासकर।
[7]
नरेंद्र नारायण चौधरी से साक्षात्कार/ 25.11.1985
[8]
उदाहरणार्थ--रामकृष्ण झा ‘किसुन’, सुधांशु शेखर
चौधरी, डॉ. जयकांत मिश्र,
दुर्गानाथ झा ‘श्रीश’, कीर्ति नारायण मिश्र, कुलानंद
मिश्र प्रभृति।
[10] डॉ. कल्पना/ राजकमल चौधरी: शैली तात्त्विक
विवेचन/पृ. 11
[11]
शंभुनाथ सिंह द्वारा उद्धृत राजकमल
चौधरी की डायरी के अंश/आधुनिका (रा.क.अंक) पृ. 39
[13]
किछु अलिखित पत्र/ मिथिला दर्शन/ फरवरी,
1960
[14]
डॉ. कल्पना/ राजकमल चौधरी: शैली
तात्त्विक विवेचन/पृ. 32
[16]
सारे गुलशन को हमारी मायूसियों
से/हमदर्दी तो है ‘मासूम’/सिर्फ एक नरगिस की आंखों में/आंसू नहीं --लहर (दिसंबर-जनवरी, 1968)/पृ. 15
[17]
डॉ. कल्पना/राजकमल चौधरी: शैली
तात्त्विक विवेचन/पृ. 11
[18]
तारानंद वियोगी द्वारा उपेंद्र चौधरी से
साक्षात्कार/मिथिला मिहिर, 1984
[20]
नरेंद्र नारायण चौधरी से साक्षात्कार/ 25.11.1985
[21]
डॉ. कल्पना/ राजकमल चौधरी: शैली
तात्त्विक विवेचन/पृ. 11
[24]
नरेंद्र नारायण चौधरी से साक्षात्कार/25.11.1985
[25]
पत्रांश: राजकमल के मित्र चंद्रमौलि
उपाध्याय द्वारा लिखित/14-12-1970
[28]
राजकमल चौधरी: एक अविस्मरणीय
व्यक्तित्व/ आखर (राजकमल अंक)/पृ.11
[29]
नरेंद्र नारायण चौधरी से साक्षात्कार/ 25.11.1985
[30]
उपेंद्र चौधरी से साक्षात्कार/ 28.12.1986
[33]
उपेंद्र चौधरी से साक्षात्कार/ 28.12.1986
[35]
श्री शैलेंद्र चौधरी (सोना) को लिखी
चिट्ठी की पंक्ति
[36]
नार्मल एल/ मन/ पृ. 282
[38]
नरेंद्र नारायण चौधरी से साक्षात्कार/ 25.11.1985
[42]
भूमिका देहगाथा/ धर्मयुग: 24.05.1964
[43]
नरेंद्र नारायण चौधरी से साक्षात्कार/ 25.11.1985
[44]
दुर्गंधियों में किरणमाला की खोज और
मैथिली का युगकवि/ लहर (दिसंबर-जनवरी, 1968)
[46]
आदिकथा/पृ. 9-17
[50]
उपेंद्र चौधरी से साक्षात्कार/ 11.06.1987
[52]
Life at Jainagar—Nepali Life,
sachchida, High school grows up. First sex experience. 1942 Movement.
etc—Autobiographical Novel @ ;q;qRlk] vxLr] 1967@ i`- 148
[55]
नरेंद्र नारायण चौधरी से साक्षात्कार/ 25.11.1985
[57]
School Life in Nawada—Treatise on homosexuality,
How father is changing into a depraved man, the muslim society. Dr Habib,
Jangbahadur Singh, the first political attachments with kisan sabha etc.
R.S.S.Episode, the 396-chriminal case, the first murder of beger, How I become
a thief. Foot ball matches etc.
तुम तो थे अद्भुत व्यक्ति, चौधरी राजकमल --नागर्जुन, कारखाना-2/पृ. 9
[66]
बीज पत्र/ जुलाई, 1985
[67]
राजकमल के संदर्भ में विदेश्वर को लिखा
गया शोभना का पत्र/पटना वीमन्स कॉलेज, 12.10.1950
[68]
राजकमल के संदर्भ में विदेश्वर को लिखा
गया शोभना का पत्र/पटना वीमन्स कॉलेज, 12.10.1950
[69]
राजकमल के संदर्भ में विदेश्वर को लिखा
गया शोभना का पत्र/पटना वीमन्स कॉलेज, 12.10.50
[71]
डॉ. कल्पना/ राजकमल चौधरी: शैली तात्त्विक
विवेचन/ पृ. 34
[72]
My Love and Life with Manju Halder and Chandra
Mazumdar and thier girl-friends--युयुत्सा,
अगस्त, 1967/ पृ. 150
[73]
ताश के पत्तों का शहर/ पृ. 7
[74]
मुक्ति प्रसंग/ पृ. 6
[75]
Nanda is coming nearer day by day. What will happen to this relation. --युयुत्सा, अगस्त, 1967/पृ. 147
[76]
मुक्ति प्रसंग/पृ. 4
[80]
डॉ. कल्पना/ राजकमल चौधरी: शैली
तात्त्विक विवेचन/पृ. 15
[82]
हर आदमी ने मुझे ठगने की कोशिश की/
शशिकांता चौधरी से तारानंद वियोगी की बातचीत/ पाटलिपुत्र टाइम्स,
13.12.1985
[85]
हर आदमी ने मुझे ठगने की कोशिश
की/शशिकांता चौधरी से तारानंद वियोगी की बातचीत/ पाटलिपुत्र टाइम्स,
13.12.1985
[87]
उपेंद्र चौधरी के नाम राजकमल के पत्र का
अंश/पटना, 18.05.1956
[88]
प्रकाश जैन के नाम राजकमल के पत्र का
अंश/27.01.1960
[90]
कंकावती/पृ. 42
[92]
*Dibya, and Krishnadhari from
Nawadah, Dibya has serious pain in the abdomen. It upset me. Shashi, Sadan and
myself ran with her to children's ward (Emergency out-door) for help...In the
meantime Dibya caught sun-stroke (Loo) of the severest type. I lost my
balance...
—Hospital DiaryèJune
11, 1966
*For the whole of the last night and today I have been
thinking about my dearest one, Dibya.
—Hospital DiaryèJune 12, 1966
--युयुत्सा, अगस्त, 1967/पृ. 150-151
[94]
डॉ. कल्पना/ राजकमल चौधरी: शैली
तात्त्विक विवेचन/पृ. 15
[96]
डॉ. कल्पना/ राजकमल चौधरी: शैली
तात्त्विक विवेचन/पृ. 15
[100]
डॉ. कल्पना/ राजकमल चौधरी: शैली
तात्त्विक विवेचन/ पृ. 134
[104]
डॉ. कल्पना जैन/ राजकमल चौधरी: शैली
तात्त्विक विवेचन/पृ. 14
[109]
उपेंद्र चौधरी से देवशंकर नवीन की
बातचीत/ महिषी, 25.10.1988
[116]
लहर/बंगला विशेषांक