दुनिया भर में अपनी
ज्ञान-परम्परा एवं बौद्धिक विवेक की समृद्धि के लिए भारत की ख्याति प्राचीन
काल से है। यहाँ के बौद्धिक धरोहरों के अनुवाद से दुनिया के कई देशों के लाभान्वित
होने की कथा विश्व-इतिहास के पृष्ठों में दर्ज है। आततायियों के बेशुमार हमले
झेलकर भी इस देश ने अपनी सांस्कृतिक मौलिकता अक्षत रखी, तो इसका श्रेय यहाँ की
भव्य विरासत को ही जाता है। अपनी शासन-व्यवस्था, राजनीतिक विवेक एवं बौद्धिक
क्षमता को सुसंगत बनाने हेतु, अतीत काल के कई राजाओं ने भारत के बौद्धिक धरोहरों
का उपयोग किया है।... परन्तु, यह सब भारत के आधुनिक होने से पहले की बात है। अब
तो हमारा देश आधुनिक हो गया है। विभिन्न ग्रहों की पूजा करनेवाले लोग चन्द्रमा
पर जाकर सैर कर आए। तकनीकी सुविधाओं के दोहन में निपुण हो गए। मशीन से गाय-भैंस
दूहने लगा। ट्रैक्टर से खेती होने लगी। बैल निष्प्रयोजन हो गया। साक्षरता बढ़
गई, ज्ञान का महत्त्व घट भी गया, तो कोई बात नहीं! लोगों का जीवन आधुनिक तो हुआ!
दूरदर्शन पर आए विज्ञापनों के सहारे दिनचर्या की वस्तुएँ खरीदी जाने लगीं। अत्याधुनिक
(स्मार्ट) फोन ने हर किसी को अत्याधुनिक (स्मार्ट) बना दिया। लोगों के
बैंक-खाते एवं ई-मेल तथा संस्थानों के वेबसाइट हॅक होने लगे। किशोर/ नाबालिगों
(औरों को भी) को पोर्नोग्राफी में लीन रहने की सुविधा बढ़ गई (देश आधुनिक जो हो
गया है!)।...परन्तु इतनी दिशाओं से आधुनिक हो गए भारत में नागरिक मनोदशा देखकर
हिन्दी के महत्तम चिन्तक गजानन माधव मुक्तिबोध की कहानी 'पक्षी
और दीमक' की बरवश याद आती है।
इस कहानी के अन्तिम अंश में
कथानायक ने नायिका को एक कहानी सुनाई--एक पक्षी अपने पिता एवं मित्र के साथ ऊँचे आसमान
में तेज-तेज उड़ रहा था। एक दिन उसने जमीन पर चलते एक गाड़ीवान को चिल्लाते
सुना-- 'दो दीमकें लो, एक पंख दो!' नौजवान पक्षी को दीमकों का शौक चरमराया। वह अपनी
ऊँचाइयाँ छोड़कर नीचे उतरा, अपनी चोंच से एक पंख खींचकर गाड़ीवान को दिया और बड़े स्वाद से मुँह
में दीमकें दबाकर फुर्र हो गया। इसके बाद वह हर रोज गाड़ीवान को एक पंख दे कर दो दीमकें खरीदने
लगा। पिता ने समझाया कि दीमक हमारा स्वाभाविक आहार नहीं हैं, पंख की कीमत पर तो
हरगिज नहीं। किन्तु नौजवान पक्षी पर दीमकों का शौक सवार था। वह किसी समझदार की
बात क्यों सुने! उसे तो अपनी समझ (?) और निर्णय पर घनघोर आस्था थी! लिहाजा, उसके
पंख खर्च होते गए। ऊँचाइयों पर उड़ने का उसका सन्तुलन बिगड़ता गया। पर दीमक खाने
का शौक कम न हुआ। जब उड़ना उसके लिए सम्भव नहीं रहा, तो उसने सोचा कि आसमान में
उड़ना ही फिजूल है। इधर वह गाड़ीवान भी गायब रहने लगा। उड़ान में अक्षम होकर पक्षी
जमीन पर आ गया। यहाँ उसने ढेर सारे दीमक देखे। चुन-चुन कर उसने दीमकों का ढेर कर
लिया। फिर अचानक-से उसे वह गाड़ीवान दिखा। प्रसन्न होकर पक्षी ने उससे कहा--देखो, मैंने ढेरो
दीमक जमा कर लिए हैं। तुम ये ले लो और मेरे पंख वापस कर दो। गाड़ीवान ठठाकर हँसा
और कहा--बेवकूफ, मैं दीमक के बदले पंख लेता हूँ, पंख के बदले दीमक नहीं! गाड़ीवान
चला गया। पक्षी छटपटाता रहा। फिर एक काली बिल्ली आई और उसे दबोचकर चली
गई। पक्षी का खून जमीन पर लकीर बनाता गया।...
अत्याधुनिक हो गए आज के
भारतीय नागरिक बहुत हद तक उस पक्षी की तरह ही उत्साही, जिद्दी और अपने सुदक्ष
निर्णय-क्षमता (?) पर डट गए हैं। ऊँची उड़ान भरने की अथाह शक्ति रखनेवाले
भारतीय नागरिक के पंख कुछ उस पक्षी की तरह ही खर्च होते दिख रहे हैं। अपनी
सुबुद्धि पर गौरवान्वित भारतीय नागरिक क्षणिक और छुद्र लिप्साओं की पूर्ति
हेतु अपने पंख उखाड़-उखाड़कर गाड़ीवान को दिए जा रहे हैं। कुछेक लोग उस पक्षी के
पिता की भूमिका में अवश्य हैं; पर उन्हें सुनने को कोई तैयार नहीं है। मुक्तिबोध
के कथा-नायक ने नायिका को यह कथा सुनाकर प्रण किया कि मैं उस पक्षी की मौत नहीं मरूँगा। मैं
अभी उबर सकता हूँ। रोग अभी असाध्य नहीं हुआ है। बड़ी आपदाओं से बचने हेतु उन्हें
ठाट-बाट की लिप्सा त्यागना उचित लगा था। तथ्यान्वेषण सहज होगा कि ऐसी कहानी
लिखने की मुक्तिबोध की मंशा निश्चय ही स्वातन्त्र्योत्तरकालीन भारतीय
लोकतन्त्र की नृशंस व्यवस्था और नागरिक-निरपेक्षता देखकर बनी होगी; आज के
भारत का जनजीवन कहीं उससे कठितर समय भोग रहा है। ...
भारतीय साहित्य में इस
कथा-नायक का अवतरण दशकों पूर्व हो गया था; करीब पाँच दशक पूर्व यह प्रकाशित होकर
लोगों के सामने भी आ गया था। तब से लेकर आज तक पल-पल ऐसे 'गाड़ीवान' पैदा होते गए
हैं। पर, सामान्य भारतीय नागरिकों को इस कथा-नायक का प्रण मान्य नहीं दिख रहा
है। सम्भवत: इसलिए, कि उन्हें ठाट-बाट का लोभ सम्मोहित करता है। उन्हें
बताया जा रहा है कि यह जीवन सुख-सौरभ के साथ जीने के लिए मिला है, ऐशो-आराम
फरमाने के लिए मिला है। ऐसे नागरिकों के उपदेशिक उनके समक्ष कर्तव्य और नैतिकता
का उल्लेख नहीं करते। वे अपनी ही संदिग्ध नैतिकता से परिचित नहीं हैं; उन्हें
भली-भाँति मालूम नहीं है कि वे जो कर रहे हैं, उसका उद्देश्य क्या है, उसकी
हरकत कितना मानवीय और सार्थक है!
वे आमजन को निरन्तर आश्वस्त
किए जा रहे हैं कि 'गाड़ीवान' ही इस समाज के त्राता हैं, उपकारी हैं। उन्हें
सुविधा मुहय्या करा रहे हैं। भोली भारतीय जनता यह बात बड़ी आसानी से मान भी लेती
है। देश के समस्त अभिकरणों में तैनात उस 'गाड़ीवान' की सन्ततियों को हमारे
देशीय नागरिक पल-पल अपने पंख उखाड़-उखाड़कर दिए जा रहे हैं। पर, उसकी शिनाख्त
नहीं कर पा रहे हैं, अपने वंशनाशक को पहचान नहीं पा रहे हैं।...चेतना के ऊर्वर
क्षेत्र से जनसामान्य को दूर रखने का शासकीय धन्धा सदैव संचालित रहा है; इसलिए
अभी भी है। ऐसा करने के लिए भारतीय लोकतन्त्र के धनकामी एवं सत्ता के आखेटक किसिम-किसिम
की व्यवस्था सदैव करते रहे हैं। वे लगातार अपने पैंतरे बदलते रहे हैं। जनसामान्य
की पीड़ाओं को अपने पक्ष में भुना लेने का उनका कौशल विलक्षण है। आप चाहें, तो
एलान कर सकते हैं—दुनिया
के जिज्ञासुओ! आओ, आज के भारतीय राजनीतिज्ञों से यह कला सीखो! भारत में अब चाणक्य
नहीं, कैसियस पैदा होते हैं। प्रपंच की जैसी चमत्कारी तरकीबें इन्हें ज्ञात
हैं, सम्भवत: दुनिया के किसी देश के राजनीतिज्ञों को नहीं मालूम होगी। दुनिया
की तमाम खबरों से बाखबर रहने का दम्भ पालनेवाली; मगर अपनी ही खबरों से बेखबर
रहनेवाली ऐसी जनता भी दुनिया के किसी देश में नहीं होगी।
प्राचीन काल में, जब लोग
आधुनिक नहीं हुए थे, वैज्ञानिक आविष्कारों से प्राप्त सुविधा और चेतना से
लोग सम्पन्न नहीं हुए थे, तब सामाजिक-विधान का संचालन धर्म, संस्कृति, और
मर्यादा (नैतिकता) के सूत्रों से हो रहा था। लम्बे समय तक चली किसी व्यवस्था
के सोच-विचार में विसंगति आ जाना सहज प्रक्रिया है। इसलिए समय के बहाव के जिस
मोड़ पर सामाजिक-व्यवस्था के संचालकों की मर्यादा कलुषित हुई; धर्म और संस्कृति
का विरूपित उपयोग हुआ, और होता रहा। व्यवस्था के संचालकों ने दुराचार किया,
पर सदैव धर्म एवं संस्कृति को कलुषित होना पड़ा। किन्तु, देश जब आधुनिक
हुआ; विज्ञान के प्रादुर्भाव से समाज का सोच बदला। देवत्व से मुक्त होकर समाज
मनुष्यत्व की ओर बढ़ा। अनुपस्थित 'परलोक' की जगह उपस्थित 'लोक' का महत्त्व
बढ़ा। समाज में आधुनिकता आ गई। लोग आधुनिक हो गए। लोगों की आत्म-चेतना जाग गई।
परन्तु आधुनिक और आत्म-सजग हुए हमारे भारतीय नवांकुर समाज पर परम्परा-ध्वंस
की ऐसी धुन सवार हुई, कि उन्हें अपना सब कुछ (भाषा, संस्कृति, साहित्य, परम्परा,
चिन्तन-पद्धति...) निरर्थक और पिछड़ा लगने लगा है। आधुनिक होने के मुगालते
में उनका रिश्ता सबसे पहले अपनी परम्परा से कटा, फिर संस्कृति से, और फिर
भाषा से। भाषा, संस्कृति और परम्परा किसी समाज की पहचान होती है। इनसे कटते
हुए उन्हें बोध ही नहीं हुआ कि वे अपने मूल से कट रहे हैं; कटे मूल का पेड़ कैसे
कहाँ गिरेगा, कोई अनुमान नहीं लगा सकता।
छिन्न-मूल नागरिकों की जगह
अन्तत: किसी की झोली में होती है। झोली में आ गई जनता की आँखों पर उनके स्वामी
का चश्मा होता है; उसकी चिन्तन-प्रणाली पर स्वामी का पहरा होता है। वह वैसा
कुछ भी नहीं देखता-सोचता, जो उसके स्वामी के हितसाधन के विपरीत हो। धार्मिक/साम्प्रदायिक
उन्माद; प्रतिपक्षियों पर अभद्र लांछन; लुभावने आश्वासन...से उन्हें बताया
गया कि वे स्वामी के कहे अनुसार आचरण करें, बाकी सब कुछ अन्न-पानी-पवन के अपने
देवताओं पर छोड़ दें, वे अपनी सुरक्षा के लिए मुतमइन रहें। उनके भाषिक व्यवहार
और चिन्तन-प्रक्रिया अब मदारियों का कब्जा है। उन्हें कब, कितना और क्या
बोलना है; कब, किस तरह, क्या पहनना है; कब, कैसे, क्या खाना है; कब, कैसे, क्या
सोचना है...सारा कुछ मदारी बताएँगे। खेल के सारे करतब मदारी ही सोचता है, जमूरा नहीं
सोचता है, वह केवल करता है। अब सात दशकों के लोकतन्त्र की चमाट खाई भारतीय जनता
उनके दावे का परीक्षण कैसे करें? वे तो अपनी परम्परा से छिन्न-मूल हैं। अर्थात,
वे मुक्तिबोध के उस पक्षी की तरह हैं, जिन्हें गाड़ीवान की घोषणा हितकर लगती
है, अपने पिता की बात पाखण्ड। गाड़ीवान के प्रति सम्मोहन के मारे उन्हें अपने
उखड़ते पंख का दर्द भी नहीं महसूस नहीं होता। मुक्तिबोध के उस उत्साही पक्षी की
तरह वे अपने सारे पंख उखाड़कर गाड़ीवान को दे देंगे, दीमक खाकर मुग्ध होते
रहेंगे। जिस दिन गाड़ीवान (मदारी) उनका पंख वापस करने से इनकार कर देगा, बहुत
देर हो गई रहेगी, फिर वही काली बिल्ली आएगी, और उन्हें दबोचकर चली जाएगी, उनके
लहू की टघार से धरती पर रेखा बनेगी, जिसे परवर्ती पीढ़ी देखकर कहेगी कि सत्ता के
आखेटकों की 'बारीक बेईमानियों का सूफियाना अन्दाज' हमारे पूर्वजों को समझ नहीं
आया; हमें उनकी गलतियों से कुछ सीखना चाहिए।