विश्व पुस्तक मेला एक बार फिर सामने है। दस दिनों तक मेला परिसर में
एक बार बौद्धिकों का सम्मिलन और पुस्तक-व्यवसायियों के विपणन के कई रूप दिखेंगे।
कई प्रान्तों के पुस्तकप्रेमी मेला परिसर में मुदितमन घूमते नजर आएँगे। ऐसे
मौके पर पुस्तक-पाठक के अनुरागमय सम्बन्ध पर नजर डालना मुनासिब होगा।
यह कथन अब मुहावरे की तरह दुहराया जाता है कि हर पुस्तक पढ़ने के बाद हर
पाठक नव-स्नात हो उठता है। बात अपने वास्तविक अर्थों में तो सही है, पर देखना
चाहिए कि हमारे में समाज में यह व्यावहारिक सच हो पाया है क्या? पुस्तक लिखने,
छापने, खरीदने, पढ़ने से यदि समाज मानवीय, या कि मनुष्य सामाजिक होता, तो
हमारे समाज में इतनी दारुण घटनाएँ होतीं?...नहीं होतीं।...तो क्या, हमें पुस्तकों
से, या कि अध्यवसाय से मुँह मोड़ लेना चाहिए?...बिल्कुल नहीं। अन्तत: पुस्तकों
के प्रति अनुराग ही हमें सही राह दिखाएगा। यह अनुराग मनुष्य को अनेक अच्छे सन्दर्भों
से जोड़ता है, और अनेक बुरे
सन्दर्भों से काटता है। हाँ, इसमें पात्रता की जरूरत तो होती है! मनुष्य ने यदि
खुद को न बदलने की जिद न ठान ली हो; और अध्यवसाय के लिए उसके पाठ का चयन सुचिन्तित
हो; तो प्रमाणित सच है कि पाठक हर पुस्तक के अवगाहन से नव-स्नात हो उठेगा।
कहा जाने है कि इधर आकर पुस्तक-पाठक के अनुराग का स्तर घटा है। सम्भव है
कि यह बात कुछ हद तक सच हो, पर यह अधूरा सच है। आज के पाठकों की संख्या को कम कहने
से एक अनुत्तरित सवाल सामने आएगा कि यह संख्या इससे अधिक कब थी? सम्पूर्णता में पाठकों की संख्या बढ़ी है।
शिक्षा का क्षेत्र बढ़ा है, ज्ञान
की शाखाएँ बढ़ी हैं, लोगों की
रुचि, पढ़ने की जरूरत और
विशेषज्ञता का फलक बढ़ा है, लेखकों
और प्रकाशकों की संख्या बढ़ी है, इस
विविधमुखी विस्तार की परिधि में साहित्य के पाठकों की संख्या में अपेक्षित वृद्धि
न देखकर लोग घोषणा कर डालते हैं कि पाठकों की संख्या में ह्रास हुआ है। वैसे
संज्ञान में तो यह बात भी आनी चाहिए कि बरसाती मेढक की तरह टर्राने वाले लेखकों की
संख्या बढ़ गई है! मुद्रण-सुविधा के विस्तार और शौकिया लेखकों की आर्थिक उन्नति
के कारण बाजार में किताबों की संख्या भी बढ़ी है। निस्सन्देह पाठकों की
संख्या लगातार बढ़ी है। विगत पाँच-सात दशकों में विभिन्न विषयों और विभिन्न विधाओं
की पुस्तकों का पाठक निश्चित रूप से बढ़ा है। पाठकों के इस रुचि-विस्तार में पुस्तक-मेला-संस्कृति
ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। मगर इस सत्य से मुँह छिपाना असम्भव है कि किताबों
के नाम पर बाजार में रद्दी के ढेर से औसत पाठक अक्सर दिग्भ्रम का शिकार हो
जाते हैं।
मेला और प्रर्दशनी जैसे अवसर पाठकों को मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया से
प्रभावित करते हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि लोग मेला देखने यूँ ही चले आते है।
बिना किसी कारण के, और
देखते-देखते अचानक उन्हें कोई पुस्तक पसन्द आ जाए तो बगैर खरीदे नहीं रहते,
और जब पुस्तक खरीदी गई, तो पढ़ी तो जाएगी ही।
ग्रामीण-शहरी क्षेत्र में संचालित किताबों की दुकानों से पाठकों के अध्यवसाय
की भूख का सम्पूर्ण निराकरण नहीं होता। दुकानों में रखी पुस्तकें, पाठ्यक्रम की पुस्तकें खरीदनेवालों के लिए
लाभप्रद होती हैं। कस्बाई क्षेत्र एवं छोटी जगहों की दुकानों में सामान्यतः ऐसी ही
किताबें होती हैं। पुस्तक-मेला या पुस्तक-प्रदर्शनी में लोगों के सामने सारी
किताबें फैली रहती हैं। उन्हें चयन की पूरी सुविधा रहती है। ऐसे अवसर पर लोग यह
सोचकर नहीं चलते कि अमुक किताब ही खरीदनी है। वे किताबें ढूँढते हैं, जो पसन्द आ
जाए, वह खरीद लाते हैं।
मेले में छोटे-छोटे बच्चों का आना, और भी मनोवैज्ञानिक प्रभाव उत्पन्न
करता है। बच्चे यहीं से अपने संस्कार का सम्वर्द्धन करते हैं। मेले के दौरन शहर के
लोगों का जैसा रुझान देखा जाता है, वह
वहाँ की सांस्कृतिक विरासत के प्रति आम लोगों को आश्वस्त करता है।
इन दिनों पुस्तकों के प्रति लोकरुचि के ह्रास की बात किम्बदन्ती की तरह
फैल गई है, बड़े ऊँचे स्वर में लोग कहते पाए जाते हैं कि
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दवाब ने समाज में पुस्तकों की जगह संकुचित कर दी है,
पठन रुचि का अत्यधिक ह्रास हुआ है। पर
लोग इसके गणित से खुद को निरपेक्ष रखते हैं; वे इस ह्रास की नियामक शक्ति की तरफ
नहीं देखते। गौर करें तो पूरा परिवेश इसके लिए जिम्मेदार दिखेगा। पाठक, प्रकाशक, लेखक, वितरक--हर कोई थोड़ा-थोड़ा दोषी दिखेगा। पर सर्वाधिक दोषी लेखक
दिखेंगे। अगले दोषी, व्यावसायिक शिष्टाचार सीखे बगैर प्रकाशन के क्षेत्र में कूद
आए अयोग्य प्रकाशक दिखेंगे। आज के अधिकांश लेखकों को आम पाठकों की चिन्ता नहीं
रहती, उन्हें पाठकों की मान्यता गैरजरूरी
लगती हैं। उपभोक्तावादी
समाज-व्यवस्था में उनकी दृढ़ मान्यता है कि पाठकों की मान्यता अमूर्त्त गहना है,
उसे कहाँ-कहाँ दिखाएँ? असली और मूर्त्त गहना है पुरस्कार! पुरस्कार
मिल जाए तो हर कोई बड़ा लेखक मानेगा। पुरस्कार देती हैं संस्थाएँ, पुरस्कार देते हैं धन्ना सेठ, पुरस्कार दिलाते हैं आलोचक, पुरस्कार-दातृ समिति के विशेषज्ञ, जो खुद तरह-तरह के अहंकारों के बोझ तले दबे
रहते हैं। जनोपयोगी या उपयोगी या महत्त्वपूर्ण साहित्य की परिभाषा आज जनता नहीं तय
करती, आलोचक तय करते हैं,
वे प्रमाण-पत्र दें तो लेखक का जनसरोकार
साबित हो वर्ना बौखते रह जाएँगे। कोई पुरस्कार नहीं मिल पाएगा। किसी भी पुरस्कार
के निर्णय में जनता की भगीदारी नहीं होती। जाहिर है कि निर्णायक समिति के उच्च
कुल-शीलोद्भव विशेषज्ञों का नयनतारा बनना अधिकांश लेखकों को फलदायी लगता है,
उनके मिजाज और उनके एजेण्डों के अनुसार
लिखना सार्थक लगता है। तुलसीदास या निराला या नागार्जुन हो जाना उनके
धर्म-कर्म-मर्म के लिए अनैतिक है। पुरस्कार झपटने की तरकीब में व्यस्त इस दुनिया
के लेखक चतुर-सुजान हो गए हैं। शायद यही कारण हो कि पुस्तक बाजार में वर्गीय
साहित्य की भरमार होती जा रही है। रचनाओं की सहजता और बोधगम्यता इस तरह गायब हो गई
है कि पाठक कृति से दूर होने लगे हैं। घोषित रूप से महान-महान लेखकों की रचनाएँ
दिमाग की नसें हिला देती हैं, अकारण
ही सामान्य जन साहित्य छोड़कर पापुलर राइटिंग की ओर तो नहीं भाग जा रहा है, कुछ तो कारण होगा? उपभोक्तावादी समाज के लेखक-आलोचक-प्रकाशक इस ओर नजर
दें तो साहित्य का भला होगा। या कहें कि उनका ही भला होगा। और एक बेहतर समाज की
पुनर्संरचना में उनकी भूमिका उल्लिखित होगी।
दरअसल सारी बातें जीवन-दृष्टि पर निर्भर होती है। जीवन संग्राम की लम्बी
लड़ाई लड़ने के लिए इसी दृष्टि की जरूरत होती है। यह दृष्टि इन्सान को कई-कई दिशाओं
से सहारा देती है। केवल वैयक्तिक अनुभव भर इसके लिए पर्याप्त नहीं है। प्रतिभा,
परिश्रम, अध्ययनशीलता, कल्पनाशीलता, बौद्धिक-स्तर,
सामाजिक समझ, मानवीय सरोकार, शील-संस्कार, संगति, साहित्य, समाज...सबका योगदान इसमें होता है। जाहिर है
कि किसी व्यक्ति को अपनी जीवन-दृष्टि निर्धारित करने में समकालीन साहित्य से
प्रभूत सहयोग मिलता है। ऐसे में यदि किसी काल के साहित्य का आचरण वर्गीय हो जाए,
तो निश्चय ही उस काल का नागरिक परिवेश
दिग्भ्रमित होगा, पुस्तकों से
दूर भागेगा, पुस्तकों के विकल्प
के रूप में वांछित-अवांछित उपकरण ढूँढेगा। इसलिए लेखकों, प्रकाशकों का सामाजिक कर्तव्य बनता है कि वे समाज और
समय की जरूरत को देखते हुए पुस्तकें लिखें, और छापें; तथा आलोचकों का कर्तव्य बनता है कि वे सही समय में समाज को सही पुस्तक की
सूचना दें। उनके उपदेशक होने का अहं और उस अहं की गरिमा तभी सुरक्षित रह पाएगी। इस
स्थापना में कोई संशय नहीं कि पुस्तकें ज्ञान हैं, पुस्तकें आग हैं, पुस्तकें लाठी हैं, पुस्तकें एक प्रभालोक हैं, पुस्तकें बहुत कुछ हैं, लेकिन ये सारी चीजें तभी सम्भव हैं, जब वे पढ़ी जाएँ। इसके साथ यह तथ्य भी शाश्वत
है कि साहित्य बोधगम्य हो, तो
पुस्तकें जनोपयोगी होंगी; और
किफायती कीमत पर उपलब्ध हो तो अधिक लोग पुस्तकें खरीद पाएँगे।
पुस्तक से आम पाठकों के सम्बन्ध तो फिर भी ऐच्छिक हैं, जिन शिक्षार्थियों के सम्बन्ध अनिवार्य होने
चाहिए, वे भी काफी दयनीय हो गए
हैं। उनका काम अब कुँजी और प्रश्नोत्तरी से चल जाता है, पूरी किताब खरीदने, पढ़ने की अब न तो उन्हें इच्छा होती, न जरूरत। बैकडोर से काम हो, कम श्रम से अधिक लाभ हो, ऐसा कौन नहीं चाहता? स्थिति तो यह है कि शिक्षक वर्ग के अधिकांश लोग भी अब
पुस्तक से सम्बन्ध रखना अच्छा नहीं समझते। आने वाली सन्ततियों और भावी पीढ़ियों के
लिए यह खतरे की घण्टी है। विश्वविद्यालयीय और विद्यालयीय शिक्षा पद्धति की ओर
सरकार को ध्यान देना चाहिए और पाठक-पुस्तक सम्बन्धों में दूरी उत्पन्न करने वाले
घटकों को समाप्त करना चाहिए, ताकि
आनेवाली पीढ़ियों की दृष्टि और ज्ञान कुन्द होने से बच जाए।
पुस्तक हमारा
अलोकपुंज है। यही जीवन को जीने का आचार सिखाती है और आगे बढ़ने को हमारा पथ आलोकित
करती है।