इतिहास के हर दौर में जनभाषा के प्रति अनुराग मनुष्य
के मानवीय और सांस्कृतिक सरोकार का सूचक होता आया है। भारतीय साहित्य के दो महाकवि--विद्यापति
एवं सूरदास--के जनभाषा-प्रेम को इस दृष्टि से देखने का विशेष प्रयोजन है। इन
दोनो महाकवियों ने अपने रचना-सन्धान से 'देसिल वयना सब जन मिट्ठा' का सन्देश
पूर्ण कर दिखाया। दोनो में से किसी ने कोई महाकाव्य नहीं लिखा, पर जन-जन के
होठों पर ये 'महाकवि' सम्बोधन से समादृत होते रहे। दोनो ऐसे कालदर्शी रचनाकार हैं
जिनकी लोकप्रियता का आधार जनभाषा में रचित उनके वे पद हैं, जो खेतों-खलिहानों
से विश्वविद्यालयों एवं शोध-संस्थानों तक समान रूप से समादृत हैं। भाषा, वस्तु
एवं शैली की सहजता के कारण ही उनकी रचनाओं का प्रभाव कई-कई महाकाव्यों पर भारी
पड़ता रहा है, अपने रचनात्मक सरोकारों से वे जन-जन के महाकवि बने रहे हैं। यहाँ
दोनों के रचनात्मक अवदान पर एक साथ विचार करना अभीष्ट है।
पर्याप्त तर्क-वितर्क के बाद सुनिश्चित हुआ है कि
महाकवि विद्यापति का जन्म मिथिला के ‘बिस्फी’ गाँव में हुआ। सन् 1350-1360 के बीच उनका जन्म और सन् 1438-1448 के बीच निधन माना जाता है। उनके पिता का नाम गणपति ठाकुर तथा
माँ का नाम गंगा देवी था। इसी तरह अनुमान किया जाता है कि महाकवि सूरदास का जन्म
सन् 1478 तथा निधन सन् 1563 के आस-पास हुआ। यूँ भक्तमाल और चौरासी वैष्णवन की
वार्ता, आईने अकबरी एवं मुंशियात
अब्बुल फजल आदि के सहारे और जनुश्रुतियों के आधार पर सूरदास से सम्बद्ध
जानकारी बटोरने में बेशुमार दिमागी कसरत करनी पड़ती है।
जाहिर है कि उम्र और रचना काल के आधार पर दोनों
महाकवियों का कोई आमना-सामना नहीं हुआ। पर आज दोनों की साथ-साथ चर्चा का आधार उनकी
रचनाओं का विषय एवं शिल्प-संस्कार ही है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जिन बारह
पुस्तकों को आधार मानकर हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल को ‘वीरगाथा काल’ कहा, उनमें सर्वाधिक प्रमाणिक और शुक्ल जी के तर्क को पुष्ट करने
वाली पुस्तकें विद्यापति रचित ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ ही थीं, पर विद्यापति के
लिए वे एक अवतरण की जगह भी सुविधा से नहीं बना पाए। तथ्य है कि केवल पदावली के
बूते अकेले विद्यापति हिन्दी के आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल के पूरे सन्दर्भ पर भारी पड़ते हैं; विचार के स्तर पर कुछ समय तक आधुनिक काल तक पर। वीर-काव्य, गाथा काव्य, शृंगार काव्य, भक्ति काव्य (शक्ति वन्दना, शिव
वन्दना, गंगा स्तुति, विष्णु वन्दना आदि) सबकी उपस्थिति विद्यापति के रचना-संसार
में मौजूद है। बावजूद इसके, इतिहासकारों के यहाँ
विद्यापति फुटकल खाते में नजर आते हैं। बहरहाल...
विश्वनाथ त्रिपाठी की राय में ‘जयदेव का गीत गोविन्द, विद्यापति
की पदावली और सूरदास का सूरसागर एक ही कोटि की रचनाएँ हैं, जिनमें भक्ति का आधार शृंगार है।’ सचाई भी है कि ब्रजभाषा में लिखे जाने के बावजूद, विद्यापति पदावली के सौ-सवा सौ वर्ष बाद सूर के पद, उस परम्परा के विकसित और परिवर्द्धित रूप हैं। कुछ स्थानों पर
तो परम्परा में कुछ नई कोपलें भी जुड़ी हैं। प्रेम और भक्ति--ये दो तत्त्व इन दोनों महाकवियों की इन रचनाओं के प्राण-तत्त्व
हैं।
सूरदास ब्रजभाषा के पहले प्रतिष्ठित कवि हैं। विद्यापति
पदावली की भाँति उनके पद भी गेय हैं और वे मुक्तक हैं। पर उनमें
प्रबन्धात्मकता का रस इतना प्रबल है कि उसे ‘लीलापद’ भी कहा जाता है। विश्वनाथ
त्रिपाठी का कहना है, ‘‘उनकी भाषा में साहित्यिकता
के साथ चलतापन एवं प्रवाह भी है। कहीं-कहीं वे गीत गोविन्द के
वर्णनानुप्रास की शैली भी अपना लेते हैं। उनकी कविता में लोक-साहित्य की सरलता ही
नहीं, काव्य की परम्परा से सुपरिचित रूढ़ियों
का उपयोग भी है। सूर की एक अन्य विशेषता नवीन प्रसंगों की उद्भावना है। उन्होंने
कृष्ण-कथा, विशेषतः बाल-लीला और प्रेम-लीला के
अंशों को नवीन मनोरंजन वृत्तों से भर दिया है,
जैसे दानलीला, मान लीला, चीरहरण आदि (हिन्दी
साहित्य का संक्षिप्त इतिहास/पृ. 42)।’’ विद्यापति पदावली के गीतों की गेयधर्मिता, उसके मुक्तक होने के बावजूद उसमें मौजूद प्रबन्धात्मकता, गीतों में सुपरिचित और रूढ़ उपमानों के उपयोग, लोक-साहित्य की सरलता और सहजता, विरह
वर्णन में दैनन्दिन जीवन-प्रसंगों के चित्रण,
मार्मिकता के
आधार तत्त्व, विरहावस्था में हृदय की
नानावृत्तियों के चित्रण...जिस तरह घनीभूत हैं,
सूर के यहाँ ये
सारे तत्त्व इसी रूप में मौजूद दिखते हैं। दोनों के यहाँ विरह-वर्णन की जीवन्तता
देखते ही बनती है। गोपियों की व्याकुलता, निरीहता, विवशता, धीरज के बावजूद बेचैनी, मिलन की उत्कण्ठा...अपनी प्रखर छवियों में व्यक्त हुई है।
विद्यापति की राधा अपने प्रिय के सुमिरन में अपना ही
स्वभाव भूल जाती है--
अनुखन माधव माधव सुमिरइत
सुन्दरि भेलि मधाई
ओ निज भाव सुभावहि बिसरल
अपने गुन लुबधाई।
...
दुहुँ दिसि दारुदहन जइसे
दगधइ आकुल कीट परान
ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि कबि
विद्यापति भान।
कृष्ण का स्मरण करते-करते राधा, कृष्ण रूप में हो जाती है और विरह में राधा-राधा रटने लगती
है। फिर होश में आते ही कृष्ण-कृष्ण रटने लगती है। विरह की आग में झुलसती इस
नायिका को कवि ने ऐसे अंकित किया है, जैसे लकड़ी के भीतर लगी हुई
घुन का कीड़ा हो और लकड़ी की दोनों शिराओं में आग लगा दी गई हो।
सूरदास के श्याम की नायिका जब विरह व्यथा में होती है, तो वह भी ठीक इसी वजन पर विचलित होती हैं--
जब राधे, तब ही मुख ‘माधौ-माधौ’ रटति रहै
जब माधौ ह्वै जाति सकल तनु
राधा बिरह दहै।।
उभय अग्र दव दारुकीट ज्यों
सीतलताहि चहै
सूरदास अति विकल बिरहनी
कैसेहु सुखन लहै।।
शृंगारिक पदों के अलावा भी विद्यापति और सूर के यहाँ
ऐसे साम्य हैं।...किम्बदन्ती है कि सूरदास जन्मान्ध थे। ऐसा भी कहा जाता है कि उन्होंने
कृष्णभक्ति में ‘तीव्र अन्तर्द्वन्द्व के किसी क्षण
में...अपनी आँखें फोड़ ली थीं।’ स्वयं भी उन्होंने खुद को ‘जन्म को आन्धर’ कहा। किन्तु शब्दार्थ से किसी
बड़े कवि की व्यंजना स्पष्ट नहीं होती। ‘जन्म को आन्धर’ कहने का अभिप्राय खुद को अज्ञानी रूप में प्रस्तुत करना है। उनके
काव्य में चित्रित जीवन और प्रकृति की छवियों के विश्लेषण से कोई अल्पबुद्धि भी
कहेगा कि वे जन्मान्ध नहीं रहे होंगे। वे भक्ति, वात्सल्य
और शृंगार के कवि हैं। जो विद्यापति भी हैं। विषय विस्तार यद्यपि सूर के यहाँ
विद्यापति की तरह फैला नहीं है। पर विद्यापति-साहित्य की कई बातें सूर के यहाँ स्पष्टतः
दिखती हैं। दोनों महाकवियों के वैचारिक वैशिष्ट्य का केन्द्र ‘लोकसत्ता’ में, ‘जन-जन’ में समाहित है। दोनों की
रचनाओं में ‘लोकहित’ और ‘लोक-मन रंजन’ की भावना प्रबल हैं। विषय में कहीं-कुछ जो भिन्नता दिखती है, उसका कारण दोनों कवियों में सौ-सवा सौ वर्षों का अन्तराल, दोनों के ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक, पारिवारिक परिवेश; और दायित्वजन्य स्थितियों के अन्तर भी हो सकते हैं। पर समानता
की स्थिति तलाशने पर स्पष्ट दिखता है कि दोनों कवि ‘लोक’ के प्रति एक जैसे अनुरक्त थे। विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार ‘सूरदास के पहले ब्रजभाषा में काव्य-रचना की परम्परा तो मिल
जाती है, किन्तु भाषा की यह प्रौढ़ता, चलतापन और काव्य का यह उत्कर्ष नहीं मिलता। ऐसा लगता है कि
सूर ब्रजाभाषा काव्य के प्रवर्तक न हों, किसी परम्परा के चरमोत्कर्ष
हों। शुक्ल जी ने सूर को एक ओर जयदेव, चण्डीदास और विद्यापति की
परम्परा से जोड़ा है, दूसरी ओर लोकगीतों की परम्परा से।
विद्यापति और सूरदास में जो निरीहता, तन्मयता मिलती है, अनुभूतियों को जिस प्रकार बाह्य प्रकृति के ताने-बाने में
बुना गया है, वह लोक गीतों की विशेषता है।
लोकगीतों में अभिव्यक्ति इतनी निश्छल होती है कि वह शास्त्रीयता और सामाजिक
विधि-निषेध की मर्यादा का निर्वाह नहीं कर सकती (हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त
इतिहास/पृ. 39)।’
दोनों के यहाँ ऐसी समानता लोकसत्ता में कवि की आस्था
का परिचायक है। कबीर और तुलसी जैसे महान मध्यकालीन कवियों की सामाजिक चेतना
अत्यन्त प्रखर थी। किन्तु उनके स्त्री सम्बन्धी विचारों पर, प्रतीक अर्थों में ही सही,
पर उस युग की
स्पष्ट छाप है। कबीर स्त्री को बुराइयों और अवगुणों की जड़ समझते हैं, उसे नरक का कुण्ड समझते हैं। तुलसी स्त्री की पराधीनता को
असह्य मानते हुए भी उसकी स्वतन्त्रता पसन्द नहीं करते, उसे पुरुष सत्ता के अधीन रखना पसन्द करते हैं। जबकि उन दोनों
प्रखर चेतना वाले कवियों से बहुत पहले विद्यापति के यहाँ स्त्री सम्बन्धी धारणाओं
का खुलासा हुआ है। स्त्री जीवन की पीड़ा के चित्रण से स्पष्ट है कि विद्यापति स्त्री
स्वातन्त्र्य के हिमायती थे। उल्लेखनीय है कि प्रेम सारे बन्धनों से परे होता है।
प्रेम करने, और प्रेम का साहित्य रचने, दोनो ही स्थितियों में बन्धन स्वीकार्य नहीं होता, वहाँ प्राणी निर्बन्ध होता है, वर्जनाओं
का विरोधी होता है, स्वतन्त्रता और उन्मुक्तता का
हिमायती होता है। प्रेम ऐसा मनोव्यापार है जो स्वयं प्रेमी-प्रेमिका तक को मुक्त
करता है। यह प्राणी को मुक्त और पूर्ण करता है।
सूर और विद्यापति के सारे प्रेमपरक पद इसके
प्रमाण हैं। जिसे कबीर ने कहा ‘ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पण्डित होई’, उसे सूर और विद्यापति के पद
के हवाले से कहा जा सकता है कि प्रेम जब हो जाता है, तो
प्राणी, तर्क, बुद्धि, साहस, पराक्रम—सारे उनक्रमों से अपने बन्धनों को उतार फेंकता है।
काव्य-शास्त्र के हवाले से प्रो. मैनेजर पाण्डेय सूर-काव्य
में दस विरह-दशाओं--अभिलाषा, चिन्ता, स्मरण, गुण कथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मूर्छा—की उपस्थिति का उल्लेख
करते हैं। विद्यापति पदावली में भी इन सभी स्थितियों का अत्यन्त मार्मिक
चित्र दिखता है। विद्यापति की गोपियों की आँखें पूरे जन्म तक रूप निहारती हुई भी
तृप्त नहीं होतीं, गोपियाँ तरह-तरह के मिलन के सपने
देखतीं, ऊधो को मध्यस्थ कर भावनाओं का आदान-प्रदान
करतीं; उधर सूर की गोपियाँ भी ऐसे ही करती हैं। उनके यहाँ तो आँखों को पूरा का
पूरा व्यक्तित्व भी मिल जाता है। ‘गोपियों के नेत्र रसलम्पट
हैं, कृष्ण के रूप रस पान से अतृप्त हैं, सौन्दर्य लोलुप हैं, लालची हैं और कृष्ण के अभाव
में व्याकुल और दीन हैं। गोपियों के नेत्र कृष्ण के वियोग में दुखी, बेचैन और व्यथित हैं। गोपियों के मन की सारी विकलता, विह्वलता, उद्विग्नता, चिन्ता, आशा-निराशा इन नेत्रों के
माध्यम से ही व्यक्त हुई है (भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य/पृ. 198)।’ विद्यापति एवं सूर के यहाँ आँखों की अद्भुत छटा है। विद्यापति
की नायिका की आँखें हैं--लोचन जुगल भृंग अकारे/मधुक मातल उड़ए न पारे। सूर
के यहाँ भी आँखों की ऐसी छवियाँ कई जगह हैं। विद्यापति के यहाँ ये आँखें नायिका की
हैं,पर सूर के यहाँ नायक की—
मनहुँ कंज ऊपर बैठे अलि/उड़ि
न सकत मकरन्द लोभाने
या फिर
मनहुँ कमल सम्पुट नहँ बीधे/उड़ि
न सकत चंचल अलिबारे
विद्यापति की नायिका की आँखें काफी चंचल हैं--चकित
चकोर जोर विधि बाँधल/केवल काजर पासा
सूर कहते हैं--अंजन गुन अटके नातरु अबही उड़ जाते।
साथ-साथ चर्चा करने पर, विद्यापति
और सूरदास में कई बार तो रस, शब्द, भाव, अलंकार के साथ-साथ पंक्ति तक
समतुल्य लगने लगते हैं।
विद्यापति कहते हैं--
चंचल लोचन, बाँक निहारए, अंजन शोभा पाय
जनि इन्दीवर, पवने पेलल, अलि भरे उलटाय।
इसी बात को सूर कहते हैं:
चंचल लोचन, बंक निहारनि, खंजन शोभा ताय
जनु इन्दीवर, पवने ठेलल, अलि भरे उलटाय।
चित्रण का ऐसा साम्य दोनों महाकवियों की सम्वेदनशीलता
एवं जीवन-दृष्टि के ऐक्य के द्योतक हैं। दोनों के यहाँ चित्रांकन-कौशल समान और श्रेष्ठ
हैं। सूरदास ने भी विद्यापति की भाँति स्वप्न-दर्शन में गोपियों के विरह की
व्यंजना की है। विरहाकुल गोपियों के मन में बसी कृष्ण की प्रेममूर्ति है, स्वप्न में आ जाती है। नीन्द टूट जाने के कारण संयोग-कामना से
पुलकित हो रही सूर की गोपियों के स्वप्न की वह प्रेममूर्ति खण्डित हो जाती है; फिर
विरह-व्यथा और बढ़ जाती है। ऐसा विद्यापति के यहाँ भ्ज्ञी हुआ है--
सुतलि छलहुँ हम घरबा रे, गरबा मोतिहार
राति जखन भिनसबा रे पिया आएल
हमार
केहेन अभागलि बैरिनी रे
भाँगलि मोहि नीन्द
भल कए देखि नहिं पाओल रे पिय
मुख अरविन्द
विद्यापति और सूरदास के पदों के साम्य पर अनेक
उदाहरणों से लम्बी बातचीत की जा सकती है। दोनों के पदों की गीतात्मकता, लयात्मकता भाव के लिए मनोहारी है। आत्मानुभूति, भाव-घनत्व, भाव-ऐक्य, वैयक्तिकता, अनुभूति और अभिव्यक्ति की
संक्षिप्तता, संगीतात्मकता--शब्द, स्वर और भाव का संगीत, कलात्मकता, अकृत्रिमता और रूप वैविध्य--गीतिकाव्य
के सुविचारित और तर्क-सम्पोषित प्रमुख तत्त्व माने गए हैं। इन दोनों कवियों के
पदों में ये सारे तत्त्व अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ मौजूद हैं। सूर की रचनाशीलता
पर आलोचकों को विद्यापति का स्पष्ट प्रभाव दिखता है, वहीं प्रो. मैनेजर पाण्डेय के अनुसार ‘‘सूरसागर के लीला विषयक पद गीतकाव्य के एक नवीन स्वरूप का
उद्घाटन करते हैं। लीला के पदों में कथा-तत्त्व भी विद्यमान हैं और सघन अनुभूति
भी। वास्तव में सूरदास को लीलागान की जो परम्परा जयदेव और विद्यापति से उपलब्ध हुई
थी, उसकी मुख्य विशेषताएँ हैं: तीव्र
भावानुभूति, मनोरागों के अनुकूल संगीत की राग-रागिनियों
का प्रयोग, कृष्ण की ललित-लीलाओं की रसात्मक
व्यंजना, भक्ति और शृंगार का समन्वय और
कोमलकान्त पदावली (पृ. 266)।’’
प्रो. पाण्डेय तो भ्रमरगीत को नारी की आकुल
अन्तरात्मा और तीव्र सम्वेदनशीलता की शाश्वत कहानी मानते हैं (पृ. 200)। इन दोनो के पदों से स्पष्ट लक्षित होता है कि वस्तुतः
हमारे समाज में सामन्ती संस्कार की जड़ें इतनी गहराई तक जमी हुई हैं कि यहाँ प्रेम
में भी पुरुष-सामन्तवाद घुसा नजर आता है। प्रेम का अर्थ सामान्य स्थितियों में
नारियों और पुरुषों के लिए भिन्न है। नारी के लिए प्रेम का अर्थ सम्पूर्ण समर्पण
है तो पुरुष के लिए सम्पूर्ण ग्रहण। अर्थात् स्त्री की त्याग-वृत्ति प्रेम है और
पुरुष की लोभ-वृत्ति। प्रो. पाण्डेय के शब्दों में ‘पुरुष
द्वारा निर्मित प्रेम की आचार-संहिता का प्रतिफलन पुरुष की रस-लोलुप मधुप-वृत्ति
में हुई है। पुरुषों ने अपने लोभ को प्रेम का नाम दिया, अपनी स्वार्थी मनोवृत्ति के सहारे नारी की समर्पण भावना और
भावुकता का शोषण किया है। नारी की सुकुमारता,
सौन्दर्य और
यौवन-रस का उपयोग कर अन्त में उसे निरस समझकर त्याग देना पुरुष के लिए आम बात है।
नित्य नवीन रस के आस्वादन में प्रवृत्त रसिक पुरुष नई मुग्धाओं को अपने
सामान्योन्मुख लोभ का साधन बनाता है। पुरुष द्वारा भुक्त, परित्यक्त, रसरिक्त नारी के सामने रुदन
और शिकायत के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है (पृ. 200)।’’
विद्यापति और सूर के पदों में पुरुष की यही भ्रमर और
स्वार्थी वृत्ति का प्रतिफलन तथा स्त्री की इसी व्याकुलता का चित्र अंकित है।
राधा-कृष्ण लीला विषयक पदों में विद्यापति के यहाँ कृष्ण के मथुरागमन, गोपी विरह, कुब्जा के प्रति कृष्ण की
अनुरक्ति, गोपियों की व्याकुलता, पुरुष की भ्रमर-वृत्ति इत्यादि के जो चित्र अंकित हुए, ब्रजभाषा में वे पहली बार सूरदास के यहाँ संगठित और सुगठित
रूप में हैं। सूर से पहले ब्रजभाषा में भ्रमरगीत काव्य की ऐसी सुगठित छवि
नहीं दिखती। दौत्य वृत्ति का जो स्वरूप विद्यापति के प्रेम पदों में दिखता है, वह सूर के यहाँ भी है। मजे की बात यह है कि इस वृत्ति में जो
उद्धव उनके यहाँ हैं, वही उद्धव इनके यहाँ भी है।
गुण-गायन और व्यथा-सन्देश--प्रेम के दौत्य कर्म में ये
ही प्रमुख हैं। और ये दोनों तत्त्व दौत्य वृत्ति वाले पदों में विद्यापति और सूर--दोनों के यहाँ बहुत प्रखर रूप में हैं। सामान्यतया आज भी होता
है कि प्रेमी का सखा या प्रेमिका की सखी द्वारा इस पुण्य-कर्म का निर्वाह होता है।
दोनों पक्षों के रहस्यों को मात्र इन दोनों तक ही सीमित रखने वाले सखा को ही देवर
और साली का आदर्श माना जा सकता है, जो दोनों में मिलन की
उत्कण्ठा बढ़ाए, दोनों के प्रेम को और घना करे तथा
विरह-सन्देश देकर इस अन्तराल को नष्ट करे। सूर और विद्यापति के काव्य इसके प्रबल
उदाहरण हैं।
राधा-कृष्ण प्रेम विषयक विद्यापति के पदों में संयोगावस्था
की स्मृति, विरहावस्था की व्याकुलता व्यक्त करते
समय नायक-नायिका की कई-कई छवियाँ अंकित हुई हैं। उनकी राधा कभी अनुरागवती किशोरी
हैं, कभी प्रेममय युवती, असाधारण सुन्दरी, स्वकीया, कामिनी, मानिनी, वियोगिनी, प्रौढ़ा, अभिसार के लिए जुगत बैठाती चतुर सयानी, लाज और पारिवारिक बन्धन को तोड़ने के लिए व्यग्र विलासिनी, विरह में विक्षिप्त-व्यथित और नायक को हर तरह से समर्पित
पुष्पांजलि, नायक को उपालम्भ और उलहना तथा उसकी
स्वार्थी एवं रसिक वृत्ति पर उन्हें धिक्कारती हुई मान-मुग्धा, प्रेमरस दीवानी, और क्या-क्या हैं...इसी तरह
भावानुभूतियों और स्थितियों की भी कई-कई मनोदशाएँ व्यक्त हुई हैं। वियोग की वेदना
और प्रिय-प्रवास के दुखादि के चित्रण यहाँ भरे पड़े हैं। ये सारे तत्त्व मिलकर
विद्यापति के पदों में कथात्मकता, पद-लालित्य और रागात्मकता
कूट-कूट कर भरते हैं, जिससे उन पदों में वे सारे
दृश्य जीवन्त और मूर्तिमान हो उठते हैं। सूर के सारे लीला-पद इन दशाओं से
युक्तियुक्त हैं। नायिका के विरह वर्णन, नख शिख वर्णन, मनोदशा विवरण...सबमें सूरदास ने इन स्थितियों को लोकानुरंजकता
से इस कदर भरा है कि वे विद्यापति के पदों के वजन पर ही लोक मनोहारी हैं। नायिका
के देह-वर्णन में जहाँ विद्यापति कहते हैं--
पल्लवराज चरणयुग शोभित/गति
गजराजक भाने
कनक कदलि पर सिंह सँवारल/तापर
मेरु समाने
इसे सूरदास कहते हैं--
अद्भुत एक अनुपम बाग
जुगल कमल पर गजवर क्रीड़त/तापर
सिंह करत अनुराग
नारी-देह को बगीचे के रूप में देखने की और स्त्री-अंगों के लिए सौन्दर्य के जो प्रतिमान जंगल के
पशु-पक्षियों, ग्रह-नक्षत्रों, पेड़-पौधों, चाँद तारों से लेने की जो
परम्परा विद्यापति ने शुरू की, सूर के यहाँ वे सब मूर्तिमान
लग रहे हैं।
विद्यापति की नायिका के नाभि विवर से निकली हुई
नागिन(रोमावली) उसके सुवासित साँसों की प्यास में ऊपर चलती है। पर नायिका की नाक
को देखने पर उसे गरुड़ की चोंच समझकर डर के मारे पर्वतों(स्तनों) के सन्धिस्थल में
छुप जाती है--
नाभि-विवर सँय लोभ लतावली/भुजग
निसास पियासा
नासा खगपति चंचु भरम भय/कुच
गिरि सन्धि निवासा
सूरदास की नायिका की शारीरिक दशा भी लगभग यही है--
नाभि परस लौं रस रोमावली, कुच-जुग बीच चली
मनहुँ विवर तें उरग रिंग्यो, तकि गिर की सन्धि-थली
विद्यापति की सद्यःस्नाता अपने स्तनों को भुजपाश में
बाँध लेती है ताकि वह उड़ न सके--
ते संका भुज पासे/बाँधि धएल
उड़ि जाएत अकासे
और सूरदास की नायिका आँचल से ढककर, दबाकर रखती है--
राखति ओटकोटि जतनन करि
झाँपति आँचल झारि/खंजन मनहुँ उड़न को आतुर सकत न पंख पसारि
विद्यापति की राधा के बालों को देखकर चामरि
पर्वत-कन्दरा में समा गई, मुँह देखकर शर्म से चाँद, आकाश भाग गया, आँख देखकर हरिण, स्वर सुनकर कोयल, चाल देखकर हथिनी जंगल चली
गई। इधर सूरदास के नायक के शरीर को देखकर
कोऊ जल कोऊ वन में रहे, दुरि कोऊ गगन समाने
मुख निरखत ससि गयो अम्बर को
तड़ित दसन छवि हेरो
विद्यापति की नायिका का नीबीबन्ध कृष्ण खोलते हैं--
नीबीबन्ध हरि किए कर दूर
और सूर के नायक यह काम धीरे-धीरे करते हैं--
नीबी खोलत धीरे जुदराई
विद्यापति के कृष्ण भी विहार करते हैं--
बिहरए, बिहरए नवल किशोर
सूर की राधा और कृष्ण दोनों--
नवल गोपाल नवेली राधा, नए प्रेम रस पागे
नव तरुवर बिहारि दोउ क्रीड़त, आपु-आपु अनुरागे
कामदंश की वेदना से व्याकुल विद्यापति की नायिका का
सन्देश दूती द्वारा कृष्ण को पहुँचाया जाता है--
मदन भुजंग डस बालहि तोरी
और सूरदास की नायिका की दूती कहती है--
जो कारण तुम यह वन सोयव, सौतिन मदन भुअंगम खाई।
यहाँ तक कि विद्यापति के वजन पर सूर ने दृष्टिकूट वाले
पद भी लिखे हैं--
सारंग नयन वयन पुनि सारंग
सारंग तसु समधाने
सारंग उपर उगल दस सारंग केलि
करथि मधुपाने --विद्यापति
और,
सारंग सारंग धरहि मिलावहु
सारंग विनय करत सारंग सों, सारंग दुख बिसरावहु
सारंग समय दहत अति सारंग
सारंग तिनहि दिखावहु
सारंग पति सारंग घर जैहें, सारंग जाइ मनावहुँ
सारंग चरन सुभगकर सारंग, सारंग नाम बुलाबहु --सूरदास
श्लेष, यमक, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास, उपमा आदि अलंकारों की समानता
तो दोनों की रचनाओं में है ही। बहुअर्थी शब्दों के सद्दोहन में और इस शैली के
उपयोग में दोनों महाकवि समान रूप से उद्यमशील दिखते हैं।
सूरदास की रचनाधर्मिता की चर्चा जिस तरह विद्यापति की
चर्चा के बिना पूरी नहीं हो सकती, उसी तरह विद्यापति की चर्चा
भी सूरदास के बिना पूरी नहीं हो सकती। सूरदास ऐसे अकेले परवर्ती रचनाकार हैं जहाँ
विद्यापति का प्रभाव सबसे ज्यादा और पूरे विश्वास के साथ मौजूद है। कई बार तो केवल
भाषा का अन्तर दिखता है। ठीक इसी तरह विद्यापति भी ऐसे लगभग अकेले पूर्ववर्ती
रचनाकार हैं जहाँ सूरदास की रचनाधर्मिता के स्रोत अधिकतम दिखते हैं। विषय बोध, भावबोध, लयबोध, ताल बोध, अनुभूति, संगीतात्मकता, छन्द, अलंकार, रूप रस आदि से इतना अधिक
साम्य किन्हीं अन्य रचनाकारों के यहाँ दिखना दुर्लभ है।
गीतिमयता, सहज बोधता, शब्द सरलता, कथात्मकता, पदलालित्य और लोकजीवन की तात्त्विकता इन दोनों के यहाँ इतना
घनीभूत है कि यह कहने की मजबूरी आ जाती है कि इन पदों की रचना लोकजीवन के मार्मिक
तन्तुओं को ध्यान में रखकर की गई है।
मजे की बात है कि दोनों भक्त कवि हैं, पर
उनके लीला-पदों की संरचना में राधा-कृष्ण का चरित्र सामान्यतया अलौकिक रूप में
नहीं दिखाया गया है। शुद्ध रूप से दोनों के नायक और नायिका गृहस्थ लगते हैं, सामाजिक
और आस-पास के लगते हैं, इनके
प्रेम, इनके
संयोग, वियोग, मान, अभिसार, रूपासक्ति, प्रथम
मिलन, रति
विलास...सबके सब परम सामाजिक और परम पारिवारिक लगते हैं। विद्यापति के नायक-नायिका
को प्रेम ‘दुहु
मुख हेरइत दुहु भेल भोर’ से हुआ
तो सूर के नायक-नायिका को राजपथ पर यात्रा करते हुए ‘चलल
राजपथ दुहु उद्झाईं’।
दोनों के यहाँ नायिका की लाज, संकोच, लुका छिपी...सब इहलौकिक
हैं। यही कारण है कि आज भाषा और क्षेत्र की सीमा तोड़कर विद्यापति और सूरदास अपने
लीला-पदों के साथ जन-जन के मस्तिष्क पर बसे हुए हैं। बुद्धिजीवियों के शोधग्रन्थों
से लेकर टोले-मुहल्ले के लोकाचारों और सांस्कृतिक-सामाजिक अनुष्ठानों में, शिक्षित
से अनपढ़ महिलाओं के कण्ठ में इनके पद बसे हुए हैं--संस्कार गीत के रूप में, लोकगीत
के रूप में, भजन
कीर्तन के रूप में, लोकोक्ति-मुहावरों
के रूप में और अन्ततः जीवन-प्रक्रिया के रूप में। कह सकते हैं कि विद्यापति और
सूरदास के लीला-पदों में लोक-जीवन की एक-एक धड़कन मौजूद है।