Friday, July 29, 2022

मुद्दों से भटके समय में उपेन्द्र कुमार की कविताई

मुद्दों से भटके समय में उपेन्द्र कुमार की कविताई 

हिन्दी के वरिष्ठ कवि उपेन्द्र कुमार वस्तुतः अधिकार, प्यार, असंगत व्यवस्था को धिक्कार, जनजीवन के परिष्कार, चेतना के उभार और उपादेय परम्परा के स्वीकार के कवि हैं। ये सभी समुज्ज्वल भाव उनकी कविताओं में हर स्थिति में रेखांकित होते हैं। उनकी अब तक कुल तेरह काव्य-कृतियाँ प्रकाशित हैं--दो गजल-संग्रह--अपना घर नहीं आया (सन् 1991, पुस्तकायन, नई दिल्ली) और खुशबू उधार ले आए (सन् 1998, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली); दो प्रबन्ध-काव्य--इन्द्रप्रस्थ (सन् 2017, अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली), वायु पुरुष (सन 2018, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली); एक लम्बी कविता--मैं बोल पड़ना चाहता हूँ (लम्बी कविता, सन् 1994, मगध प्रकाशन, दिल्ली); और आठ कविता-संग्रह--बूढ़ी जड़ों का नवजात जंगल (सन् 1980, आकांक्षा प्रकाशन, नई दिल्ली), चुप नहीं है समय (सन् 1996, शुभकामना प्रकाशन, दिल्ली), प्रतीक्षा में पहाड़ (सन् 1998, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली), गान्धारी पूछती है (सन 2000, पुस्तक सदन, दिल्ली), उदास पानी (सन् 2002, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली), प्रेम-प्रसंग (सन 2005, डायमण्ड बुक्स, नई दिल्ली), गहन है अन्धकारा (सन् 2010, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली), नंगे पाँव चाँदनी (सन् 2012, विजया बुक्स, दिल्ली)...; पर हिन्दी के वक्तव्य-वीरों की दृष्टि में ये कविताएँ आकर भी टिकी नहीं रहीं। इसे उपेन्द्र कुमार की कविताई का तिरस्कार मानना मुनासिब नहीं होगा। स्मृति-भ्रंश अपने यहाँ कोई व्याधि नहीं मानी जाती। भुला देने जैसी सुविधापरक राजनीतिक क्रिया सन् 1967, 74, 77, 80, 91, 92 के बाद साहित्यिक सामन्तों को भी भाने लगा था। उनके छुटभैयों की चालबाजी तो परवान चढ़ने लगी। आठवें दशक की हिन्दी काव्यधारा के दिग्दर्शकों की दाखिल-खारिज और समूह-निर्माण की नीति इस प्रसंग में गौरतलब होगा। इस विषय पर विस्तार से चर्चा कभी और होगी, अभी के विषय तो उपेन्द्र कुमार हैं।

उक्त विस्मृति में मामूली-सा दोष कवि उपेन्द्र कुमार का भी है। पहला दोष यह कि वे जो कुछ लिखते गए, संकलित कर प्रकाशित कराते गए, चयन की कोई सावधानी नहीं रखी। क्योंकि मान्यतादाताओं के अखाड़े की मानक-नीति से वे कतई परिचित नहीं थे। वर्ना जिनकी कविताओं के पहले संग्रह की संस्तुति अज्ञेय और अमृता प्रीतम जैसे कवि-कवयित्री ने लिखी हो, भवानीप्रसाद मिश्र ने आमुख लिखा हो, उनकी कविताएँ विवेचकों के संज्ञान से बाहर रहतीं! बहरहाल...

हिन्दी अकादेमी, दिल्ली द्वारा सन् 1994 में मैं बोल पढ़ना चाहता हूँ (लम्बी कविता) के लिए ‘कृति सम्मान’, फिर ‘साहित्यकार सम्मान’ के साथ-साथ उन्हें कई संस्थाओं ने ‘काव्य रचना सम्मान’, ‘नेशनल प्रेस इण्डिया सम्मान’, ‘राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ आदि से सम्मानित किया। उनका प्रबन्ध-काव्य इन्द्रप्रस्थ तथा वायु पुरुष अपनी समकालीन सामाजिक उपादेयता एवं वैशिष्ट्य के लिए महत्त्वपूर्ण है। बीते दशक भर में लिखी उनकी विशिष्ट कविताओं का एक संग्रह शीघ्र ही ‘हवा की नदी में’ शीर्षक शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाले हैं। इंजीनियरिंग एवं विधि में स्नातक, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में विभिन्न मन्त्रालयों की प्रशासनिक जिम्मेदारियाँ उन्होंने लगभग पैंतीस वर्षों तक सँभाली।

बक्सर (बिहार) की पुण्य-भूमि में उनका जन्म सन् 1947 में हुआ। बाल्यावस्था से ही साहित्यिक गतिविधियों में उनकी रुचि थी, स्कूली जीवन से ही तुकबन्दी किया करते थे। अपने गृह-क्षेत्र की धरोहर ‘बक्सर के किले’ की बदहाली पर उन्होंने भावुकतावश एक कविता सन् 1967-68 के आसपास लिखी थी, जो वहीं के किसी स्थानीय पत्र में प्रकाशित हुई। यहीं से उनकी साहित्यिक यात्रा शुरू हुई। सन् 1970 में ‘कादम्बिनी’ पत्रिका में नवागन्तुक कवि के रूप में उनकी एक प्रेम-कविता प्रकाशित हुई; फिर तो काव्य-लेखन गतिशील हो उठा।

सन् 2012 तक उनकी ग्यारह काव्य कृतियाँ प्रकशित हो चुकी थीं। उसी वर्ष उनके ‘नंगे पाँव...चाँदनी’ शीर्षक कविता-संग्रह की भूमिका लिखते हुए प्रसिद्ध कवि गंगा प्रसाद विमल ने उनकी कविताई में नए मोड़ आने की स्थापना दी। उनसे सहमत होना मुनासिब होगा, क्योंकि यहाँ आकर उनके काव्य-शिल्प में लोक-धाराओं एवं लोकाधारों की निजता-सम्भूत प्रयुक्ति अनूठी दिखने लगी। वैसे तो अपने हर नए संग्रह के साथ एक खास नूतनता लेकर आए, पर इन कृतियों के बाद लिखी उनकी कविताओं का तेवर और अधिक सन्तुलन का बोध देता है। उनके शब्द-संसार अपनी खामोशी और मितव्ययिता से भी बहुत कुछ कहने लगे हैं।

हर सच को उजागर करने की अपनी-अपनी सीमा होती है, कवि की भी कविता की भी। ‘परिचय नाम और लिवास’ शीर्षक कविता में वे रिश्ते और आचरण की संगति के मान्य सत्य को दार्शनिक अन्दाज में देखते है--‘रिश्ते लिवास पहन अक्सर/निकल जाते हैं घूमने/लगा लाते हैं दाग धब्बे/न छूटने वाले।’ ये पंक्तियाँ कबीर को याद करने को विवश करती हैं--‘दास कबीर जतन से ओढ़ी/जस के तस रख दीनी चदरिया’ पर विश्वास करने वाले कवि उपेन्द्र कुमार को लिवास में रिश्तो के कारण लगे दाग पर क्लेश होता है। रिश्तेदारों को सन्तुष्ट करने, रिश्ता निभाने में मनुष्य चाहे-अनचाहे अपने आचरण पर या कि लिवास पर दाग लगा आता है। यह लिवास दरअसल मनुष्य का आचरण ही है। लोक-व्यवहार के ऐसे मामूली प्रसंगों पर गहन चिन्तन द्वारा उनका दार्शनिक भाव पैदा करना स्पृहणीय है।

‘कोट बदलने से नहीं बदलता सच’ कविता में वे आगाह करते हैं कि लिबास बदलने से रूप बदलता है, मौलिकता नहीं। सत्ता के बहुरूपिए आचरण के कर्ता देश का रूपान्तरण विकास से नहीं लिबास से करना चाहते हैं। राष्ट्र और समाज को मूलोच्छिन्न करने के उत्सव देखकर वे झूठ का नया व्याकरण रचनेवालों, चाटुकारों को वे धमकाते हैं--‘तुम समझते हो/मुसाहिब हैं तुम्हारे वे ढीठ/जो घूम रहे हैं/दरबारे-खास से दरबारे-आम तक।’ गरीबी, इनसानियत, भूख, वहशत की बेशर्म परिभाषा देनेवालों को सावधान करते हैं--‘भूल गए हो तुम कि/सदा नहीं रहेगा यह मौसम/प्रचण्ड गर्मी के बाद बरसती है गाभिन घटा/दहकती धरती पर बदल जाता है मौसम/और अँखुआते हैं हरे-भरे मोथे/आखिर कहाँ छुपे थे/ये सत्य के बीज?’ यह कविता आततायी किन्तु भंगुर शासकों और उनके चमचों को चुनौती देती है। उन्हें तथ्य-बोध कराती है कि मौसम सदा एक ही के अनुकूल नहीं रहता। सृष्टि-चक्र पर उन्हें अटूट आस्था है। भारतीय लोक परिवेश में कहावत प्रचलित है कि ‘घूरे के भी दिन बहुरते हैं।’ जब घूरे के भी दिन बहुरते हैं, तो देश के तो बहुरेंगे ही! अर्थात नागरिक परिदृश्य में जब सही चेतना आएगी, वे आतंकियों के अहाते में सामान्य लोगों का प्रवेश बन्द कर देंगे, स्थिति निश्चय बदलेगी।

‘अपने हिस्से की रोटी’ की चिन्ता करते हुए कवि धमाचौकड़ी करनेवाले गिरोहबन्द बन्दरों को झपट्टा मारकर रोटी छीनते देखकर खुद को धिक्कारते हैं--‘जाने कैसा इनसान हूँ/छीन नहीं पाया कभी/अपने हिस्से की रोटी।’ यहाँ वे खुद पर ही नहीं, सकल समाज पर भी व्यंग्य करते हैं कि इनसानों को अपने हिस्से की रोटी छीनने का उद्यम करना चाहिए। ये बन्दर प्रकृति में उछल-कूद मचाते बन्दर नहीं है, लोकतन्त्रा के मन्दिर में बैठकर मनुष्य के हिस्से की रोटी छीननेवाले सांकेतिक बन्दर हैं। ‘हिरना सँभल-सँभल कर चलना’ कविता अनेक स्तरों पर दार्शनिकता के भाव खोलती है। बाल सूरज के कन्धे पर बैठकर सुकवा (तोते) के साथ शिशु का जगना, खेलते हुए बड़ा होना, खेल में जीतना-हारना...सब कुछ उन्हें अच्छा लगता है। किन्तु इन सारे परिदृश्य में आसपास का खूँखारपन और जोखिम...उस बालक, अर्थात की एक चंचल हिरण, अर्थात मनुष्यता का स्वातन्त्रय बचने नहीं देगा--‘खेल में क्या जीत क्या हार/स्मृति शेष केवल खेल का खेलना/हिरणा का सँभल सँभल कर चलना/जन्म, जवानी, जरा, मृत्यु से निस्पृह/धूरी पर घूमती/प्रत्येक दिन को बुलाती विदा करती/निरन्तर अग्रसर परिक्रमा पथ पर पृथ्वी।’ यहाँ सबके प्रति समभाव रखनेवाली पृथ्वी की उदारता और समदर्शिता में अपनत्व का अनुराग मोहक है। कवि को अपनी परम्परा और संस्कृति की जनोपयोगी शुचिता से बेहद प्यार है। किन्तु ‘पुरोधा नई सभ्यता के’ आमादा हैं प्राचीन सभ्यताओं के सर्वनाश को--‘झेल लेना अपमान हँसकर/अन्याय को छोटी-सी बात कहकर टाल देना/और आजादी को गिरवी रखने के/एवज में मिली सुविधाओं पर इतराना/आवश्यक शर्तें हैं, आधुनिक और सभ्य होने की।’ आधुनिक और सभ्य होने की ऐसी कीमत चुकानेवाले हमारे देश में सभ्यताओं के उद्घोषकों की सूची के मुताबिक मनुष्य स्वयं एक साँचे में ढल गया है--‘सभ्यताओं को मन मुताबिक साँचों में ढालना आसान नहीं/रौंदते हुए बढ़ना पड़ता है/मानवता को जीवित रखनेवाली कलाओं को/कितनी ही परम्पराओं और विश्वासों को/रेखांकित करें, किन्तु वह यह कहते हुए नहीं चूकते कि/इसीलिए नई सभ्यता के पुरोधाओं ने/इस बार पूरा ध्यान दिया है मशीनों पर/और लगाया है सारा धन बाजारों में।’

स्वातन्त्रयोत्तरकालीन भारत की हीरक जयन्ती मनाते हुए हम देख रहे हैं कि--‘जब हम लड़ रहे होते हैं अपनी असफल लड़ाइयाँ/कितनी सहजता से सीख लेते हैं बच्चे हमारे/घनघोर अभावों के साथ जीना/आफतों के भँवर से/किनारे छिटक, बाहर निकल आना/ललचाने वाली हसरतों से आँखें फेर/आपदाओं को अवसर में बदलने की कला/...सबसे पहले वे सीखते हैं/आँसुओं को रोकना/कि निकले नहीं कोई सिसकी/न पड़े गालों पर निशान उनके सूखने का/वे बहुत समय नहीं गँवाते/बचपन और किशोरावस्था के चोंचलों के लिए/हमारे असफल सपनों और भूली चाहतों की गठरियाँ/कहीं बहुत भीतर अपने चौड़े सीनों में दबाए/वे अचानक आ खड़े होते हैं सामने।’ ऐसे अभाव में पलता बचपन आखिर किस अनुरागी क्षण में एक समृद्ध राष्ट्र की कल्पना करेगा? उसका सपना कितना ऊँचा होगा?‘उपहार लिए आए नए अवतार’ कविता में कवि को चिन्ता है कि--‘सत्ता या विपक्ष किसी को भी ताकत का एहसास नहीं हैं/जिन्हें है उन्हें कैद कर रखा है नीति ने/घेरे में है विचारों की दुनिया/वोट की कोई कीमत नहीं है/गोपनीयता की शपथ लेकर भी करवट बदल लेते हैं।’ राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति इस तरह सचेत कवि उपेन्द्र कुमार की राय में--‘यह भी एक बात है कि--/जमीन से गेहूँ, समुद्र से तेल, पहाड़ों से रत्न लो/लेकिन असली मुद्दों से लोगों का ध्यान दूर रक्खो/जो करते तो कुछ भी नहीं/फिर भी अखबारों में उनके बयान देखो/नहीं है तेल जिन तिलों में उनके तेल की धार देखो।’ अखबारों और विज्ञापनों में एक को तीन बनाकर कहने की जैसी व्यवस्था हमारे समाज में चल पड़ी है और सच को सच की तरह नहीं स्वीकार कर कल्पित सच की घोषणा की जा रही है, मजबूरन उपेन्द्र कुमार की कविताएँ ‘सत्योत्तर’ (पोस्ट-ट्रूथ) प्रसंग देखने लगती है।

युद्ध उपेन्द्र कुमार को कतई पसन्द नहीं। किसी को पसन्द नहीं आते। किन्तु वर्तमान से अतीत तक के सभी युद्ध-प्रसंगों, पुराणों-धर्मकथाओं-नीतिकथाओं को रेखांकित करते हुए वे हर समय के युद्ध को निरर्थक और अमानवीय मानते हैं। वे आधुनिक सियासी आचरणों के लिए महाभारत के नीतिकार कृष्ण का रूपक गढ़ते हुए ‘युद्ध’ के नायक कृष्ण से पूछते हैं--‘फिर वह धर्म युद्ध कहाँ रहा, कृष्ण!/जब एक ही बाण से पूरे वृक्ष के बिंधे पत्तों को देख/बर्बरीक से भयभीत होकर उसकी बलि ले ली/कर्ण से कवच कुण्डल छिनवाया/मलयुद्ध में जरासन्ध को चीरकर हिंसा की/जयद्रथ भी तो सूर्यास्त के छलावे में था/अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो क्या था?/मुझे छल से जीते महाभारत की कथा नहीं चाहिए व्यास/कुछ और कहो!’ उनकी कविताओं में गाहे-बगाहे धर्म-ग्रन्थों से भी शिकायतें साँस लेने लगती हैं--‘ईटों का चूल्हा, बोरसी के आग/हाँड़ी में पानी, आम का अचार/कथरी पुरानी, चूता छप्पर-छानी/गोबर से लिपे-पुते/घर से उठते धुएँ के भकोल से चेहरे/कभी हाथी, कभी ऊँट, कभी बैल और फिर/जादू से हवा में घुलते जाना/तीनों बच्चे चूल्हा तापते हुए/हाँड़ी में पकते कोदोभात की खदबद/और ढक्कन की जुगलबन्दी सुन रहे थे।’ एक अभावग्रस्त परिवार के तीन बच्चों को चूल्हे पर पकते भात के भाप में झूलते हाथी, ऊँट, बैल के जादुई चित्र सम्मोहित करते हैं, इधर बालपन की स्मृति में भावकों को भावुक।

‘हवा की नदी में उड़ते पाखी’ में विरोधाभासी रूपक द्वारा वे एक बड़े विमर्श को सामने ले आते हैं। हवा और नदी--दोनों प्रकृति के अवयव हैं, किन्तु पाखी नदी में नहीं उड़ सकता, हवा में उड़ता है, पर नदी यदि हवा की हो तो उसमें उड़ने की जुगत कोई पाखी कैसे बैठाए--‘हवा की उस नदी में/जिसकी धारा में पंख खोले खुद-ब-खुद/चीलें चक्कर लगाती रहती हैं दिन भर/गोल-गोल तैरती हैं--।’ अब पक्षी यदि चील हो तो हवा क्या, नदी क्या, वह तो किसी घर, किसी गुफा में भी तैर/उड़ सकती है, क्योंकि यह पाखी, पाखी नहीं, पाखी का रूपक है। जो अदृश्य मुद्रा में जाकर कहीं भी शिकार झपट सकता है। ‘चील’ और अन्य पक्षियों के इस रूपक की पहचान कविता में और समाज में जरूरी है। ‘अदृश्य शून्य’ कविता में मुक्ति सम्बन्धी कवि-प्रश्न उचित है कि--‘मुक्ति अन्त है/या किसी और अन्त तक पहुँचने के लिए/एक नया प्रारम्भ।’ भय, भ्रम, पाप, पुण्य, प्रेम, घृणा, घमण्ड और अधैर्य...की गिरफ्त में पड़े हुए मनुष्य की धारणाओं पर उनकी राय है कि ऐसी चीजों से मुक्ति के लिए मनुष्य की मृत्यु जरूरी नहीं, चेतना जरूरी है। चेतना विवेकशील हो तो मनुष्य को मुक्ति का भाव स्वयमेव स्पष्ट हो जाएगा। चेतना साथ छोड़ दे तो इन सबसे मुक्ति असम्भव। उपेन्द्र कुमार को वनवासी जीवन की पवित्रता और पूर्वकालिक समाज के वीरों के प्रति यथेष्ट सम्मान है--‘पता नहीं कौन-कौन-सा राज/मिला भारत-माता को वनवास, हुए उसके बेटे उदास/जाने कहाँ बिला गई अंगद, हनुमान की महापराक्रमी टोली/गो उनके जाने के बाद नहीं रहे जंगल उतने हरे-भरे/रहे वनवासी भी सदा डरे-डरे/इस जैसे किसी दिन लौटेंगे अपने धाम/रघुपति राघव राजा राम!’ ‘रघुपति राघव राजा राम’ शीर्षक इस कविता में कवि नीति एवं धर्म की संस्थापना के निमित्त हुए राम-रावण युद्ध के सहयोगी योद्धाओं की विडम्बनाओं को एक रूपक में स्मरण करते हैं, जहाँ अब जंगल का अस्तित्व क्षीण किया जा रहा है, वर्गीय समाज और भेद-भाव की दुनिया में वनवासी वीरों का सम्मान रौंदा जा रहा रहा है। अटूट आस्था के साथ कवि उपेन्द्र कुमार, हर मनुष्य के भीतर के आदमी को जगाने की चेष्टा करते हैं--‘हर आदमी के भीतर होती है आत्मा/या शायद/आदमी जैसा ही एक और.../भीतर का आदमी/बाहर के दृश्यों को देख/कभी-कभी जग जाता है/यही भीतर का आदमी/पहले शायद बेहतर था समय/जागता था कभी-कभी/आजकल तो देते हैं दृश्य ऐसे दिखाई/अक्सर जगा ही रहता है/अन्दर का आदमी।’ यह अन्दर का आदमी कौन है? आदमी को आतंकी आचरण में क्या यही प्रवृत्त करता है? आतंकी आचरण के विरुद्ध खड़े होने की ताकत भी क्या यही देता है? सचमुच विवेक की तलाश बहुत जरूरी है। तभी तो उनसे--‘कहा कंप्यूटर ने, मोबाइल ने, संजाल ने/छूना है आकाश तो छोड़ो भूमि/कहा व्यवस्था ने/और दे दी जमीन लूटने की छूट/मेरे खुरदरे हाथों से प्रसन्न/समय ने सौंपी/एक चमचमाती खुरपी और कहा--/ये है सबसे पुरानी परन्तु सबसे बड़ी तकनीक/ऐसे ही चमकता रहेगा इसका लोहा/जब तक पसीना रहेगा इसे धोता/खोद डालो सारी जमीन एक बार फिर/नए विचारों के लिए।’ इस कवि को नई तकनीक या नवता से कोई विरोध नहीं है। विरोध उसके अमानुषिक उपयोग से है।

इस समय हम ऐसे सामाजिक पर्यावरण में जी रहे हैं, जहाँ हर कोई निडर होना चाहता है। पर निडर होने का उसका कौशल और प्रशिक्षण शैली विचित्र है। निडर होने की कामना से भरा हर मनुष्य बार-बार वही-वही काम करता है, जिससे उसे सबसे ज्यादा डर लगता है--‘जो होना चाहते हैं निडर/लगे रहते हैं ऐसा कुछ करते रहने में/जिससे लगता है उन्हें डर/जैसे हत्याएँ या बलात्कार बार-बार/जब तक निकल ना जाए, उनका डर/डरने नहीं लग जाएँ दूसरे/माँगने लगें दया की भीख/दूसरों के डरते ही हो जाते हैं ये निडर/मान लिया जाता है कि/पूरा हुआ रियाज/सफल हुई साधना/इस भयमुक्त माहौल में लिए जा सकते हैं/वे सारे निर्णय जो थे अब तक के लम्बित।’ इस लम्बित निर्णय को पूरा करने के लिए जो आतंकी समाज, अमानवीय समुदाय मनुष्य को भयभीत करने की चेष्टा करता है, उपेन्द्र कुमार की ऐसी कविताएँ उन कलुषों पर चोट करती हैं। ‘हाशिए की सचाई’ शीर्षक कविता में संचार-माध्यमों में देश की असंगत तस्वीरें प्रस्तुत करने वाले पत्रकारों पर उँगली उठाते हुए, उनके खिलाफ निर्णय देते हुए वे घोषित करते हैं कि यह दुनिया केवल तुम्हारी नहीं है, सिर्फ तुम्हें ही नहीं जीना है यहाँ--‘मेरे देश का नाम बेहयाई नहीं है/और ना यह सिर्फ तुम्हारा है/मैं तुम्हारे अखबारों और टेलीविजन के फैलाए/झूठ पर यकीन नहीं करता/मैं तुम्हारे आँकड़ों पर यकीन नहीं करता/मैं तुम्हारे वायदों और आश्वासनों पर यकीन नहीं करता/मैं तुम्हारे उत्सवों पर यकीन नहीं करता।’ एक समय था जब पत्रकारिता को लोकतन्त्रा का चौथा स्तम्भ माना जाता था, पत्रकारों द्वारा संचार-माध्यमों द्वारा प्रसारित बात सत्य मानी जाती थी, लोक-चेतना को उद्बुद्ध करने का एक माध्यम माना जाता था। किन्तु बीते कुछ वर्षों में लालची पत्रकारों ने जैसी चारण-वृत्ति अपना ली है, उसे रेखांकित करते हुए कवि फटकारते हैं कि राष्ट्र की सच्ची छवि प्रस्तुत करो, चारण-गीत मत गाओ। समाज और परम्परा के विरुद्ध आचरण करनेवाले व्यवस्थापकों को वे ‘बचता भी क्या है पत्थर के सिवा’ शीर्षक कविता में धमकाते भी हैं--‘तुमने बनाए हैं गलत पंचांग/तुमने स्थापित किए हैं धूर्त देवता/तुमने लिखवाया है फर्जी इतिहास/झूठ के पुलिन्दे हैं तुम्हारे दिक् शास्त्रा/तुमको नहीं पता कि/मेरे पास बचता भी क्या है पत्थर के सिवा।’ फिर वे उन्हें इस धमकी के अन्दाज में कहते हैं--‘लेकिन देख लेना तुम/तुम्हारी निरंकुशता और फर्जी अधिकारों के विरुद्ध/खड़ा रहूँगा वहीं और हर कहीं/पत्थर और इच्छा-शक्ति दोनों हैं मेरे पास/निशाना साधने की कूबत और नैतिक बल भी।’ गौरतलब है कि सारी प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद कवि कभी निराशा की ओर कदम नहीं बढ़ाते; अपने पाठकों को भी नई जमीन, नई चेतना देने का प्रयास करते हैं।

 उनकी कविताओं में चिड़िया, पहाड़, पर्वत, नदी, रिश्ते, लिवास, नाम, पहचान, घर, अन्धकार-विरोध, व्यवस्था-विरोध, संचार...जैसे प्रसंगों को पूरी अर्थवत्ता के साथ जगह मिलती है। इनके मूलार्थ आहत करनेवालों पर वे आँखें तरेरते हैं। उनके जनसरोकार और उनकी काव्य-दृष्टि विस्तृत विवेचन की हकदार है।

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