Monday, March 14, 2022

तुलनात्‍मक साहित्य अध्‍ययन : मूल्‍यगत राष्‍ट्रीयता की पहचान का स्रोत Comparative Literature Study : Resources of Identity of Core Nationality

तुलनात्‍मक साहित्य अध्‍ययन

मूल्‍यगत राष्‍ट्रीयता की पहचान का स्रोत 

Comparative Literature Study : Resources of Identity of Core Nationality 

तुलनात्‍मकता मानव समुदाय के रहन-सहन की आदि‍म प्रवृत्ति‍ है। पारस्‍परि‍क सद्भाव में भी और प्रति‍स्‍पर्द्धा में भी लोग अक्‍सर आस-पास के लोगों की जीवन-व्‍यवस्‍था या परि‍वेश से अपनी या औरों की तुलना करते रहते हैं। प्रयोजनवश भी, नि‍ष्‍प्रयोजन भी। स्‍वाभावि‍क रूप से वे इस तुलनात्‍मकता में कि‍सी को बेहतर, कि‍सी को कमतर साबि‍त करते रहते हैं। यह सामुदायि‍क जीवन-व्‍यवस्‍था की प्राचीन प्रक्रिया है, जन-चि‍त्त-वृत्ति‍ की आदि‍म उद्भावना भी।

अकादेमिक क्षेत्र में आकर तुलनात्‍मकता की यही वृत्ति‍ तुलनात्मक अध्‍ययन या तुलनात्मक साहित्य कहलाने लगता है। यह एक अन्‍तरानुशासनि‍क अध्‍ययन है। इसमें भि‍न्‍न-भि‍न्‍न भाषि‍क, भौगोलिक, अनुशासनि‍क, राष्ट्रि‍क परि‍वेश के साहित्यि‍क-सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों का अनुशीलन होता है। इसे तुलनात्मक अध्ययन भी कहा जाता है। इसकी प्रक्रि‍या भिन्न-भि‍न्‍न राष्ट्रों की संस्कृतियों में उत्पन्न भाषाओं के कार्यों पर आधारि‍त होती है। इसकी संज्ञा में साहि‍त्‍य की मूल ध्‍वनि‍ होने के बावजूद इसका आचरण साहित्यिक अध्ययन तक सीमि‍त नहीं रहता; यह सम्‍बद्ध क्षेत्र की अर्थव्यवस्था, राजनीतिक गतिवि‍धि, सांस्कृतिक आन्‍दोलन, ऐतिहासिक बदलाव, धार्मिक अन्‍तर, वातावरण, अन्‍तर्राष्ट्रीय सम्‍बन्‍ध, सार्वजनिक नीति, सामाजिक-सांस्कृतिक उत्पादन, विज्ञानादि‍ के आन्‍तरि‍क विश्लेषण पर जोर देता है। इसमें संस्कृतियों के आन्‍तरि‍क सरोकारों से सम्‍बद्ध भाषि‍क एवं कलात्मक परम्‍पराओं का अनुशीलन और अन्‍तर्राष्ट्रीय सम्‍बन्‍धों का अध्ययन कि‍या जाता है। इसका चारित्रि‍क रेखांकन अन्‍तर्सांस्कृतिक और अन्‍तर्राष्ट्रीय साहित्य, इतिहास, राजनीति, दर्शन, कला, विज्ञान समेत सभी मानवीय गतिविधियों से होता है।

तुलनात्मक साहित्य वैसी ज्ञान-शाखा है, जिसमें दो या दो से अधिक भाषाओं के साहित्य के भाषि‍क, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय मूल्‍यवत्ता का व्यापक और तुलनात्‍मक अध्ययन किया जाता है। तुलना इस अध्ययन का मुख्य अंग है। यह अध्ययन संकीर्णता त्‍यागकर वैश्वि‍कता की उदार धारणा की ओर उन्‍मुख करता है।

इस अध्‍ययन में अध्‍येता कला, इतिहास, समाज विज्ञान, धर्मशास्त्र जैसे वि‍भि‍न्‍न ज्ञान-शाखा से अर्जि‍त ज्ञान के उपयेग से पारस्‍परि‍क सम्बन्धों का अध्ययन करता है।

ज्ञान-क्षेत्र की स्वतन्‍त्र शाखा के रूप में तुलनात्मक साहित्य की मान्यता अभी भी सर्व-ग्राह्य नहीं हुई है। इसका मुख्‍य कारण, इस शाखा के आदि‍ स्रोत हैं। लगभग शैक्षि‍क संस्‍थानों में इस ज्ञान-शाखा की शुरुआत भाषा-साहि‍त्‍य अध्‍ययन केन्‍द्र से हुई है। वर्चस्‍ववादी धारणा के कारण वह उद्भव स्रोत इतनी आसानी से अपनी सन्‍तति‍-शाखा को स्‍वतन्‍त्र शाखा की मान्‍यता कैसे दे? पर सचाई है कि‍ तुलनात्मक साहित्य अपने अन्‍तरानुशासनि‍क आचरण के कारण इस अत्‍यन्‍त महत्त्‍वपूर्ण, उपादेय और लोकप्रि‍य ज्ञान-शाखा के रूप में स्‍वीकृत है। यद्यपि‍ यह तकनीकी और प्रविधिपरक शाखा नि‍रन्‍तर अपनी प्रवृत्ति‍यों में वि‍स्‍तार लाता रहता है। अपनी प्रक्रि‍या में यह अध्ययन इतिहास-बोध से शुरू होकर सार्वभौमि‍क साहित्येतिहास तक पहुँचता है।

तुलनात्मक साहित्य की मुख्‍य पद्धति‍ तुलना होती है; पर इस तुलना का लक्ष्‍य कि‍सी रचना या रचनाकार को बेहतर या कमतर साबि‍त करना नहीं, बल्कि तुलनीय रचना की वैचारि‍कता के साम्‍य-वैषम्‍य को देखते हुए उसके राष्‍ट्र-बोध, मूल्‍य-बोध और मानवीयता का अनुरक्षण होता है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत जैसे बहुभाषि‍क राष्‍ट्र में 1652 मातृभाषाओं के अलावा अनेक समुन्नत साहित्यिक भाषाओं का अस्‍ति‍त्‍व है। रूप-रचना की भिन्नता के बावजूद हर भारतीय भाषा की आर्थिक संरचना समरूप है। भारतीय भाषाओं का साहित्य इसी कारण जातीय इतिहास, सामाजिक चेतना, सांस्कृतिक मूल्य एवं साहित्यिक संवेदना के सन्‍दर्भ में एक साहि‍त्‍य है। भारतीय साहित्य के इस मूल्‍य की सही पहचान का सर्व सुगम मार्ग तुलनात्मक साहित्य से ही स्‍पष्‍ट हो सकता है; जहाँ भारतीय संस्कृति के आधारभूत वैशिष्ट्य की परख हो सकती है। इस अपेक्षा के आलोक में भारत के सभी विश्वविद्यालयों में 'तुलनात्मक साहित्य' ज्ञान-शाखा की शुरुआत अनि‍वार्य है। और, चूँकि‍ तुलनात्मक अध्‍ययन का वि‍धि‍वत वि‍कास अनुवाद के बि‍ना असम्‍भव है, इसलि‍ए भारत के सभी विश्वविद्यालयों में 'अनुवाद अध्‍ययन' जैसी ज्ञान-शाखा का वि‍कास अनि‍वार्य है।

तुलनात्मकता वस्‍तुत: शि‍क्षा की एक वि‍स्‍तृत दृष्‍टि‍ है, जि‍समें न्‍यूनतम दो तुलनीय वस्‍तु-वि‍षय-प्रसंग-पाठ का होना अनि‍वार्य है, इसलि‍ए अनूदि‍त साहि‍त्‍य की बहुतायत और अनुवाद अध्‍ययन के प्रसार से 'तुलनात्मकता' का बहुमुखी वि‍कास सुलभ होगा। इस शैक्षि‍क शाखा में अध्ययन, विवेचन, अनुशीलन, विश्लेषण का लक्ष्‍य साम्‍य-वैषम्‍य, समस्या, विकास-क्रम की ओर रहता है।

गौरतलब है कि‍ सामाजि‍क पृष्ठभूमि में विभिन्न राष्‍ट्रों की शैक्षि‍क प्रणालियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन तुलनात्मक शिक्षा कहलाता है; इस प्रकार का अध्‍ययन राष्ट्रीय शिक्षा सुधार के दृष्टिकोण में व्‍यापक योगदान देता है। तुलनात्मक शिक्षा समाज के बहुमुखी आयासों, आयामों के अध्ययन का क्षेत्र है। इसका सम्‍बन्‍ध सभी सामाजिक विज्ञानों से होता है। इसी कारण अन्‍त:क्षेत्रीय और अन्‍तरानुशासनि‍क अध्ययन से तुलनात्मक शिक्षावि‍दों का जुड़ाव अनि‍वार्य है। इस शैक्षि‍क प्रणाली में भि‍न्‍न-भि‍न्‍न राष्‍ट्रों की ऐतिहासिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, औद्योगिक अवस्थाओं का गहन अध्ययन कि‍या जाता है। क्‍योंकि‍ मनुष्‍य के सामुदायि‍क आचरण पर इन सब के प्रभाव इतने शक्तिशाली होते हैं कि उनका शैक्षि‍क संस्‍कार और वातावरण कि‍सी भी स्‍थि‍ति‍ में इनसे मुक्‍त नहीं रह पाता। स्‍पष्‍टत: इनसे नि‍रपेक्ष ज्ञान-पद्धति‍ नि‍स्‍सन्‍देह निष्फल साबि‍त होगी। तुलनात्मक शिक्षा के अन्‍तर्गत उक्‍त घटकों के आलोक में शैक्षि‍क संस्थानों की रचना, संगठनात्‍मक उद्देश्‍य, सांख्यिक ब्‍योरा, वि‍षय एवं पाठ्यक्रम, अध्यापन पद्धति‍ एवं कौशल का अनुशीलन होता है। जाहि‍र है कि‍ सामाजि‍क उन्नयन में इस शि‍क्षण पद्धति‍ की बड़ी भूमि‍का होती है। अध्‍ययन की यह पद्धति‍ अध्‍येताओं को निष्पक्ष अनुशीलन की प्रेरणा देती है, अन्य राष्‍ट्रों की समस्याओं एवं समाधान-युक्तियों से अपनी समस्याओं की पहचान कर उससे नि‍जात पाने की समझ देती है। अपने वि‍कास के लि‍ए औरों की खूबि‍यों से प्रेरणा लेना और खामि‍यों से सीख लेना सदैव ही अच्‍छा होता है। इस दृष्‍टि‍ से तुलनात्मक शिक्षा और तुलनात्मक साहित्य अन्‍तर्राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा देता है और शैक्षि‍क वतावरण को भव्‍य एवं उदार बनाता है।

भारतवर्ष सदैव से ज्ञानाकुल विदेशी पर्यटकों और लगनशील अध्‍येताओं के आकर्षण का केन्‍द्र बना रहा है। भारत के गुप्त राजवंशीय राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य और चीन के 'जिन राजवंश' के समय में चीनी बौद्ध भिक्षु, लेखक, अनुवादक फाहियान (सन् 337-422) ने बौद्ध साहि‍त्‍य एकत्र कर चीन ले जाने के लि‍ए सन् 402-407 तक भारत की यात्रा की, और वापस लौटकर अपना यात्रा-वृत्तान्‍त लिखा। चीनी बौद्ध धर्म में युगान्‍तरकारी योगदान के लिए ख्‍यात चीनी बौद्ध भिक्षु, वि‍शि‍ष्‍ट अनुवादक ह्वेनसांग (सन् 602-664) का सन् 629-645 का भारत यात्रा-वृत्तान्‍त इस दि‍शा में वि‍शि‍ष्‍ट कार्य है। प्रख्‍यात चीनी बौद्ध भिक्षु इत्सिंग (सन् 635-713) ने अपनी भारत-यात्रा (सन् 671-695) के दौरान दस वर्षों तक 'नालन्दा विश्वविद्यालय' में रह कर वहाँ के प्रसिद्ध आचार्यों से संस्कृत तथा बौद्ध धर्म-ग्रन्थों को पढ़ा। सन् 691 में लि‍खे 'भारत तथा मलय द्वीपपुँज में प्रचलित बौद्ध धर्म का विवरण' शीर्षक प्रसिद्ध ग्रन्थ में उन्‍होंने 'नालन्दा विश्वविद्यालय' एवं 'विक्रमशिला विश्वविद्यालय' तथा उस दौर के भारत के राजनीतिक इतिहास के बारे में लि‍खा, जो आज भी बौद्ध धर्म और 'संस्कृत साहित्य' के इतिहास का अमूल्य स्रोत है। इन तीनों चीनी यात्रि‍यों ने भारत की तत्कालीन शिक्षा की सम्यक् प्रशंसा की है।

यूरोप से आए यात्रियों ने भी भारतीय शैक्षि‍क पद्धति‍ का उल्लेख किया है। फि‍र भी अनियोजित, अक्रमिक एवं अवैज्ञानिक नि‍रूपण के कारण इन्‍हें शास्त्रीय पद्धति‍ के अनुसार तुलनात्मक शिक्षा का अंग नहीं माना गया। शास्त्रीय रूप से इस ज्ञान शाखा में अध्ययन की व्‍यवस्‍था उन्‍नीसवीं शताब्दी से मानी जाती है। प्रसि‍द्ध फ्रांसीसी चि‍न्‍तक मार्क-एण्‍ट्वाइन जुलि‍अन (सन् 1775-1848) तुलनात्मक शिक्षा के अधि‍ष्‍ठाता माने जाते हैं। वे क्रान्‍ति‍कारी स्‍वभाव के चि‍न्‍तक थे। साम्राज्य विरोध के अपराध में उन्‍हें सन् 1813 में जेल में डाल दिया गया था। सन् 1815-1817 उन्‍होंने कई प्रति‍पक्षी स्‍वभाव की कई पत्रिकाएँ प्रकाशित कीं। इसी दौरान उनकी ख्‍याति‍ एक शिक्षावि‍द् के रूप में हुई। उन्होंने अपने समय के स्‍वि‍ट्जरलैण्‍ड के महान शि‍क्षा सुधारक जोहान हेनरिक पेस्टलोज़ी (सन् 1746-1827), जि‍नका दृष्टिकोण स्वच्छन्‍दतावाद का उदाहरण माना जाता था, उनके साथ नियमित रूप से पत्राचार किया, और शैक्षि‍क प्रणाली की निगरानी के उन्‍नायक बन गए। सन् 1817 में उन्‍होंने अपने ग्रन्‍थ 'स्‍केच एण्‍ड प्रलि‍मि‍नरी व्‍यूज ऑफ ए वर्क ऑन कम्‍परेटि‍व एजुकेशन एण्‍ड सि‍रीज ऑफ क्‍वेश्‍चन्स ऑन एजुकेशन' में तुलनात्मक प्रणाली के प्रयोग का सुझाव दिया। तुलनात्मक शिक्षावि‍दों को इस दि‍शा में गहन कार्य करने का प्रयोजन बना हुआ है।

इस दि‍शा में अमेरि‍का के शि‍क्षावि‍द् जॉन ग्रि‍सकॉम (सन् 1774-1852); शिक्षा सुधारक, सार्वजनिक शिक्षा संवर्द्धक, दासता उन्मूलन के पक्षधर होरेस मान (सन् 1796-1859); होरेस मान के कार्यों से प्रेरि‍त अमेरिकी शिक्षा प्रणाली के सुधारक शिक्षाविद हेनरी बरनार्ड (सन् 1811-1900); अंग्रेजी कवि, संस्कृति आलोचक मैथ्यू ऑर्नल्ड (सन् 1822-1888); विक्टोरिया विश्वविद्यालय मैनचेस्टर के अध्‍यापक, लीड्स विश्वविद्यालय के कुलपति, अंग्रेजी इतिहासकार एवं शिक्षाविद सर माइकल अर्नेस्ट सैडलर (सन् 1861-1943); इंग्‍लैण्‍ड के स्‍टॉ स्‍कूल; और फ्रांसीसी दर्शन में चयनशीलता के संस्थापक विक्टर कजिन (सन् 1792-1867) जैसे महान शि‍क्षावि‍दों एवं शैक्षि‍क संस्‍थानों का वि‍शि‍ष्‍ट कार्य है।

इन मनीषियों के प्रयासों से तुलनात्मक शिक्षा का स्‍वरूप नि‍र्धारि‍त हुआ। इससे राष्ट्रीय शिक्षा सुधार और तुलनात्मक शिक्षा का स्वरूप निखरने लगा, इसके सैद्धान्‍तिक स्‍वरूप नि‍र्धारि‍त होने लगे। द्वितीय-विश्व युद्ध की परि‍णति‍यों से इस ज्ञान-शाखा को नई प्रेरणा मिली। सन् 1945 के बाद से दुनि‍या भर के शैक्षि‍क संस्‍थानों में इस ज्ञान-शाखा की लोकप्रि‍यता बढ़ी।

तुलनात्मक अध्‍ययन के क्षेत्र में वि‍भि‍न्‍न भाषाओं में दक्ष, उन भाषाओं की साहित्यिक-आलोचनात्‍मक परम्‍पराओं एवं प्रमुख साहित्यिक ग्रन्‍थों से परिचित अध्‍येता काम करते हैं। इस क्रम में वे कई बार अपने ज्ञानलोक से अर्जि‍त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्‍तों से प्रभावित भी होते हैं; तत्‍सम्‍बन्‍धी समाजशास्त्र, इतिहास, नृविज्ञान, अनुवाद अध्ययन, सांस्कृतिक और धार्मिक अध्ययन से परिचित भी होते हैं। 'तुलनात्मक साहित्य' और 'विश्व साहित्य' जैसे पद अक्सर समान दृष्‍टि‍बोध के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। इस अध्‍ययन में अध्‍येता के बहुभाषि‍कता का सरोकार वि‍भि‍न्‍न भाषाओं के ग्रन्‍थों को मूल रूप में पढ़ने की इच्‍छा से है। इस अनुशासन में व्‍यापक ज्ञानार्जन के नि‍मि‍त्त कई देशों में अन्‍तर्राष्ट्रीय तुलनात्मक साहित्य संघ एवं तुलनात्मक साहित्य संघ का गठन हुआ है।

भारतीय चि‍न्‍तक इस ज्ञान-शाखा में अक्‍सर कवि‍गुरु रवीन्‍द्रनाथ टैगोर (सन् 1861-1941) का उल्‍लेख करते हैं। 'वि‍श्‍व साहि‍त्‍य' पर अपने एक व्‍याख्‍यान में टैगोर ने साहि‍त्‍य की सही-सही अध्‍ययन-प्रक्रि‍या के लि‍ए तुलनात्‍मक आलोचना पर बल दि‍या था; उन्‍होंने कहा था कि‍ 'यह पृथ्‍वी वि‍भि‍न्‍न टुकड़ों में बँटी हुई लोगों के रहने का अलग-अलग स्‍थान नहीं है – उनका साहि‍त्‍य अलग-अलग रचि‍त साहि‍त्‍य नहीं है। प्रत्‍येक लेखक के द्वारा रचि‍त साहि‍त्‍य एक पूर्ण इकाई है तथा वह इकाई समूचे मानव समाज की सार्वभौमि‍कता की परि‍चायक है। राष्‍ट्रीयता की संकीर्ण मनोवृत्ति‍ से अपने को मुक्‍त करते हुए प्रत्‍येक कृति‍ को उसकी सम्‍पूर्ण इकाई में देखना है और इस सम्‍पूर्ण इकाई या मनुष्‍य की शाश्‍वत सृजनशीलता की पहचान वि‍श्‍व साहि‍त्‍य के द्वारा ही हो सकती है। 'वि‍श्‍व साहि‍त्‍य' जि‍सको अंग्रेजी में 'कम्‍प्रेटि‍व लि‍ट्रेचर' कहा जाता है इस सार्वभौम सृजनात्‍मकता की अभि‍व्‍यक्‍ति‍ है।' कवि‍ टैगोर का यह भाषण सन् 1907 में रवीन्‍द्र रचनावली के दसवें खण्‍ड (पृ. 324-33) में प्रकाशि‍त हुआ। यकीनन इस वक्‍तव्‍य में तुलनात्‍मक साहि‍त्‍य की बहुफलकता उजागर हुई है। कि‍न्‍तु इससे पूर्व सन् 1873 में ही बंकिम चन्‍द्र चट्टोपाध्याय (सन् 1838-1894) ने इस दि‍शा में वि‍शि‍ष्‍ट और शाश्‍वत मूल्‍य का काम कर दि‍या था। 'शकुन्तला, मि‍राण्‍डा और डेस्‍डेमोना' शीर्षक नि‍बन्‍ध में उन्‍होंने तुलनात्मक साहित्य अध्‍ययन के पार्याप्‍त सूत्र दि‍ए। यद्यपि‍ भारतीय लोक-चि‍न्‍तन में अध्‍येताओं को तुलनात्मक साहित्य के वि‍कसि‍त स्‍वरूप कई रूपों में कि‍स्‍सों-कहानि‍यों, लोक-कथाओं, मुहावरों, कहावतों, किंवदन्‍ति‍यों में बड़ी स्‍पष्‍टता से परि‍लक्षि‍त हैं।

स्पेनिश के मानवतावादी वि‍द्वान ज्‍वाँ एन्‍द्रेस्‍स (सन् 1740-1817) और आयरिश विद्वान हचसन मैकाले पॉसनेट (सन् 1855-1927) का काम इस दि‍शा में मूलभूत माना जाता है। हालाँकि, इसकी पृष्‍ठभूमि‍ जोहान वोल्फगैंग वॉन गेटे (सन् 1749-1832) के 'विश्व साहित्य' सम्‍बन्‍धी विचारों में देखी जा सकती है। प्रबोधन युग के प्रसि‍द्ध आलोचक ज्‍वाँ एन्‍द्रेस विश्व इतिहास और तुलनात्मक साहित्य के निर्माता माने जाते हैं।

स्पेनिश-इतालवी की दृढ़ परम्‍परा पर उनके विचार नवशास्त्रीय प्रबोधन युग या ज्ञानोदय युग (सन् 1650-1780) के उत्तर काल में प्रभावी हुए। उनकी गणना उनके समकालि‍क वि‍द्वान, स्पेन के प्रसिद्ध भाषाशास्त्री, तुलनात्मक भाषाविज्ञान के निर्माता, लोरेन्‍जो हरवस पाण्‍डुरो (सन् 1735-1809) और महान संगीत सिद्धान्‍तकार जोस एण्‍टोनियो ज़ि‍मेनो (सन् 1757-1818) के साथ होती है। आयरिश विद्वान, तुलनात्मक साहित्य के क्षेत्र में अग्रणी, हचसन मैकाले पॉसनेट न्यायशास्र के मर्मज्ञ थे। सन् 1885-1890 तक उन्‍होंने ऑकलैण्‍ड विश्वविद्यालय में क्लासिक्स और अंग्रेजी साहित्य का अध्‍यापन भी कि‍या। भूमि‍ कर, राजनीतिक अर्थशास्र, नैतिकता की ऐतिहासिक पद्धति पर उनका अकादेमि‍क अधि‍कार था, कि‍न्‍तु वि‍वेचकों की राय में तुलनात्मक साहित्य सम्‍बन्‍धी सन् 1886 के उनके कार्य सर्वाधि‍क उल्लेखनीय माने जाते हैं।

विक्टर मक्सिमोविच ज़िरमुन्‍स्की (सन् 1891-1971) जैसे रूसी रूपवादि‍वादियों ने इस दि‍शा में आधारभूत कार्य करने का श्रेय अलेक्जेण्‍डर निकोलायेविच वेसेलोव्स्की (सन् 1838-1906) को दिया।

यद्यपि आज के मानकों के आधार पर उस दौर के कई तुलनात्मक कार्य राष्‍ट्रान्‍धता, यूरोपकेन्‍द्रि‍त, नस्लवादी भी माना जाता है; क्‍योंकि‍ तुलनात्‍मक साहि‍त्‍य के उद्देश्‍यमूलक कार्य -- संस्कृतियों के समझ-संवर्द्धन के बजाय विद्वानों की रुचि‍ राजनीति‍ज्ञों की तरह जब-तब श्रेष्ठता नि‍रूपण में बढ़ गई थी।

भारतीय चि‍न्‍तन के ध्‍वजवाहकों की कोई दि‍लचस्‍पी खुद को इति‍हास में खचि‍त करने की कभी नहीं हुई; इसलि‍ए चि‍न्‍तन-व्‍यवस्‍था पर्याप्‍त समृद्ध होने के बावजूद तुलनात्मक साहित्य की दि‍शा में भी यहाँ कभी कोई मठ बनाने की‍ उन्‍मुखता नहीं दि‍खी; पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके तीन स्कूल बताए जाते हैं -- फ्रेंच स्कूल, जर्मन स्‍कूल, अमेरि‍की स्‍कूल। हालाँकि‍ रूसी स्‍कूल ने भी इस दि‍शा में पर्याप्‍त काम कि‍या है।

फ्रेंच स्कूल 

बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध तक के अनुभूतिवादी (empiricist) और प्रत्यक्षवादी (positivist) दृष्टिकोण के चिन्तन विधान को फ्रेंच स्कूल कहा गया, जिसमें पॉल वैन टाइघम (सन् 1871–1959) जैसे विद्वान विभिन्न देशों की कृतियों के 'मूल' के साक्ष्य और कृतियों के 'पारस्परिक प्रभावों' की जाँच अदालती दृष्टि से करते थे। इस पद्धति‍ को 'तथ्यों की रिपोर्ट' कहा गया। इस धारा के विद्वान दस्तावेजों के तथ्यपरक विश्लेषण के आग्रही होते हैं। इसमें अध्‍येता निर्णय कर पाते हैं कि कि‍स तरह कोई विशेष साहित्यिक विचार या आदर्श समय के साथ राष्ट्रों के बीच यात्रा करता है। कैसे कोई खास साहित्यिक विचार या भाव का संचार राष्ट्र और काल के पार तक होता है। उन्‍नीसवीं सदी के प्रथम चरण में इस विचार का सूत्रपात गेटे ने जर्मनी में किया था। इसकी पहली पत्रिका 'रिव्यू द लि‍तरेत्‍यूर कम्‍परी' फ्रांसीसी भाषा में पेरिस विश्वविद्यालय से प्रकाशित हुई। तुलनात्मक साहित्य के फ्रेंच स्कूल में प्रभाव और मनोवृत्ति का अध्ययन प्रमुख होता है। यद्यपि तुलनात्मक साहित्य के संस्थापक चि‍न्‍तक फर्नांड बाल्डेन्‍स्परगर (सन् 1871-1958) ने इस दि‍शा में बीसवीं शताब्‍दी की शुरुआत में ही तुलनात्‍मकता के स्‍वरूप पर बात शुरू कर दी थी। 'रिव्यू दे लिटरेचर कम्पेयर' (सन् 1921) शीर्षक उनके लक्ष्‍योन्‍मुख आलेखों की पहली कि‍स्‍त के अनुसार ‍दो भि‍न्‍न वस्‍तुओं का तुलनात्‍मक रूप से एकाकी अवलोकन मात्र उनकी स्‍मृति‍यों और प्रभावों के सारे तत्त्‍वबोध स्‍पष्‍ट नहीं कर सकते।

फ्रेंच तुलनात्‍मक साहित्‍य के विशिष्‍ट चिन्‍तक मारियस-फ्रेंकोइस गुयार्द (सन् 1921-2011) की राय में तुलनात्मक साहित्य, दो या अधिक साहित्यों की तुलना मात्र नहीं, यह वस्तुत: एक वैज्ञानिक विधि है, इसकी सही परिभाषा अन्‍तर्राष्ट्रीय साहित्यिक सम्‍बन्‍धों का इतिहास होना चाहिए। तुलनात्मक साहित्य के फ्रेंच स्‍कूल के वि‍ख्‍यात चि‍न्‍तक ज्‍याँ-मैरी कैर्रे (सन् 1887-1958) ने फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैण्‍ड के साहित्यिक सम्‍बन्‍धों का विशेष अध्ययन किया। विदेशी साहित्य में रेखांकि‍त छवियों एवं यात्रा-वृत्तान्‍तों का उनका अध्ययन इतना स्पष्ट और परीक्षणीय है कि वे इन क्षेत्रों में समकालीन कार्यों को आज भी प्रेरित करते हैं। उन्‍होंने तुलनात्मक साहित्य को गुयार्द की पुस्‍तक 'ला लिटरेचर कम्पैरी' की प्रस्तावना लिखते हुए 'साहित्यिक इतिहास की एक शाखा' स्‍वीकारा और कहा कि यह आध्यात्मिक अन्‍तर्राष्ट्रीय सम्‍बन्‍धों का अध्ययन है, जि‍समें तथ्यात्मक अनुशीलनों के आधार पर बायरन (जॉर्ज गॉर्डन बायरन/सन् 1788-1824) और पुश्किन (अलेक्‍सान्‍द्र पुश्‍कि‍न/ सन् 1799-1837), गेटे (जोहान वोल्फगैंग वॉन गेटे/सन् 1749-1832) और कार्लाइल (थॉमस कार्लाइल/ सन् 1795-1881), वाल्टर स्कॉट (सन् 1771-1832) और विग्नी (अल्फ्रेड विक्टर काउण्‍ट डे विग्नी/1797-1863) के साहि‍त्‍यों एवं जीवन-दर्शनों से मि‍लनेवाली प्रेरणाओं का अध्ययन सम्‍भव है।

आज फ्रेंच स्कूल में इस अनुशासन के अन्तर्गत राष्ट्र-राज्य (nation-state) के दृष्टिकोण का अध्ययन चलन में है, यद्यपि यह यूरोपीय तुलनात्मक साहित्य को भी बढ़ावा देता है। इस स्कूल के चि‍न्‍तनों में बीसवीं शताब्‍दी के वि‍शि‍ष्‍ट वि‍द्वान क्लाउड पिकोइस (सन् 1925-2004) तथा कनाडि‍यन विचारक आन्‍द्रे एम रूसो (सन् 1911-2002) जैसे समकालीन वि‍द्वानों की कृति‍याँ महत्त्‍वपूर्ण मानी जाती हैं। पिकोइस तथा रूसो के सहलेखन की पुस्‍तक 'ला लिटरेतुरा कम्‍पराडा' (सन् 1967) में संश्लेषणात्मक दृष्टि से तुलनात्मक साहित्य में साम्‍य-वैषम्यमूलक तुलना और प्रभाव के सूत्र स्‍पष्‍ट हैं। फ्रेंच तुलनात्‍मकता के वि‍शि‍ष्‍ट विद्वान, सोरबोन विश्वविद्यालय पेरिस में तुलनात्मक साहित्य के अध्यक्ष और मध्य पूर्वी और एशियाई संस्कृतियों के उन्‍नायक रेने अर्नेस्ट जोसेफ यूजीन एति‍एम्बल (सन् 1909-2002) के स्‍पष्‍ट दृष्टिकोण से इस क्षेत्र में वि‍स्‍तार आया; साम्य-वैषम्‍य की उनकी दृष्टि सफल साबि‍त हुई। साहित्यिक ग्रन्थों के अध्ययन के साथ फ्रेंच स्कूल कृतियों के पारस्परिक प्रभाव का भी अध्ययन करता है। शब्दावलियों पर केन्द्रित दृष्टि से वह शब्दों के प्रभाव, शब्दों के अधिग्रहण, शब्दों के उधारीकरण और शब्दों के अनुकरण के बीच स्पष्ट भेद ढूँढता है। वह प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष प्रभाव, साहित्यिक/साहित्येतर प्रभाव, सकारात्मक/नकारात्मक प्रभाव के बीच भी भेद ढूँढता है। अमेरिकी स्कूल फ्रेंच स्कूल की प्रतिक्रिया में उद्भूत अमेरिकी स्कूल का मुख्य उद्देश्य साहित्यिक ग्रन्थों की राजनीतिक सीमाओं से परे जाकर, तुलनात्मक साहित्य को राजनीतिकरण से मुक्त करना था। यह मुख्यतः सार्वभौमिकता और अन्तरानुशासनिकता पर आधारित था।

अमेरिकी स्कूल

मूलत: जोहान वोल्फगैंग वॉन गेटे तथा हचसन मैकाले पॉसनेट के उस अन्‍तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से गहनता से सम्‍बद्ध था, जो सार्वत्रि‍क-सर्वकालि‍क साहित्य में रेखांकि‍त मूलादर्श के 'सार्वभौमिक मानव सत्य' की धारणा पर आधारित थे। तार्कि‍क रूप से यह प्रक्रि‍या युद्धोत्तर काल के अन्‍तर्राष्ट्रीय सहयोग की इच्छा दर्शाती है। इसके अस्तित्व में आने से पहले पश्चिम में तुलनात्मक साहित्य का दायरा पश्चिमी यूरोप और एंग्लो-अमेरिकी साहित्य तक ही सीमित था; मुख्यतः अंग्रेजी, जर्मन और फ्रेंच साहित्य तक; दाँते एलीगीयरी (सन् 1265-1321) के सन्दर्भ में इतालवी साहित्य, मिगुएल दे सर्वान्तेस सावेद्रा (सन् 1547-1616) के सन्दर्भ में स्पेनिश साहित्य से। अमेरि‍की स्कूल के विद्वान तुलनात्मक साहित्य के अन्‍तर्गत ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के बीच साहित्य के सम्‍बन्‍धों को स्वीकार करने के साथ-साथ साहित्यालोचन को भी तुलनात्मक अध्ययन का महत्त्वपूर्ण अंग स्वीकार करते हैं। सन् 1886 में हचसन मैकाले पॉसनेट ने अपने 'कम्‍परेटिव लिट्रेचर' ग्रन्‍थ में तुलनात्‍मकता को वि‍वेचकों का पारम्‍परि‍क व्‍यवहार कहा है।

अमेरिकी तुलनात्‍मक साहि‍त्‍य के स्वरूप निर्धारण में रेने वेलेक (सन् 1903-1995), हेरी लेविन (सन् 1912-1994) और डेविड मेलोन (ज. 1954) का वि‍शि‍ष्‍ट योगदान माना जाता है। इनकी तुलनात्‍मकता के आधार वैचारि‍क समतुल्‍यता ही नहीं; सृजेता और सृजन के वस्‍तु-बोध, अभिप्राय, शैली, विधा, आन्‍दोलन एवं परम्‍परा रचनात्‍मक कौशल आदि भी होता है। रेने वेलेक की राय में साहित्येतिहास के तथ्यों का चयन भी स्‍वयं में एक आलोचनात्मक क्रिया है, मूल्यांकन भी।

द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत (सन् 1939) से ही रेने वेलेक अमेरिका में रहते थे। सन् 1946 तक के सात वर्षों तक उन्होंने वहाँ आयोवा विश्वविद्यालय में अध्‍यापन कि‍या। उसके बाद वे येल विश्वविद्यालय आए और वहाँ तुलनात्मक साहित्य विभाग की स्थापना की, वहाँ वे उस वि‍भाग के अध्यक्ष थे। संयुक्त राज्य अमेरिका में वे तुलनात्मक साहित्य अध्ययन के संस्थापक के रूप में ख्‍यात थे। अपने पूर्ववर्ती अमेरिकी आलोचक और अंग्रेजी के प्रोफेसर ऑस्टिन वारेन (सन् 1899-1986) के साथ मि‍लकर वेलेक ने साहित्यिक सिद्धान्‍त को व्यवस्थित करने वाली ऐतिहासिक कृति 'थ्योरी ऑफ़ लिटरेचर' प्रकाशित करवाई, वह इस दि‍शा में पहला सुचि‍न्‍ति‍त प्रयास था।

सन् 1960 के दशक की शुरुआत में वेलेक ने संरचनावाद से प्रभावित साहित्य सिद्धान्‍त की वकालत की। उनकी समन्‍वि‍त दृष्टि की आलोचना पद्धति में साहित्य सिद्धान्‍त के साथ-साथ पूर्ववर्ती आलोचना के सचेत अनुशीलन, सृजेता की सृजन-प्रक्रि‍या में समाहि‍त नि‍जी एवं सामाजि‍क इतिहास की गहन समझ शामिल थी। इस प्रक्रि‍या में एक की तुलना में दूसरे को कमतर या बेहतर सि‍द्ध करने की मंशा कतई नहीं थी।

वेलेक की राय में एक श्रेष्ठ आलोचक को व्‍यवस्‍थि‍त और सत्‍यापि‍त मानदण्‍डों द्वारा कि‍सी कृति के मूल्यांकन से पूर्व, उसका पूर्वाग्रह-मुक्‍त दृष्‍टि‍ से अवलोकन करना चाहि‍ए; कृति‍ में समाहि‍त भाव, ज्ञान, संवेदना पर गहन नि‍ष्‍ठा से चि‍न्‍तन-मनन-विश्लेषण के बाद ही सही मूल्‍यांकन सम्‍भव है। उनके अनुसार आलोचक को साहित्य एवं आलोचना सिद्धान्‍त के आलोक में अनस्‍थि‍रता, सापेक्षता और इतिहास पर विजय प्राप्त करने का हक होना चाहि‍ए। आठ-खण्‍डों की उनकी सर्वाधि‍क महत्त्वपूर्ण कृति‍ 'ए हिस्ट्री ऑफ मॉडर्न क्रिटिसिज्म : 1750-1950' है, जिसके अन्‍तिम दो खण्‍ड उन्होंने 92 वर्ष की आयु में नर्सिंग होम में अपने बिस्तर लि‍खे।

वेलेक की अग्रज पीढ़ी के वि‍शि‍ष्‍ट अमेरिकी आलोचक जोएल एलियास स्पिन्‍गार्न (सन् 1875-1939) तुलनात्मक साहित्य अध्ययन को भाषा-आधारित साहित्यिक अध्ययन से भि‍न्‍न, स्‍वतन्‍त्र ज्ञान-शाखा की मान्‍यता के पक्षधर सन् 1908 से ही थे। सन् 1899-1911 तक वे कोलम्‍बिया विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य के प्रोफेसर थे। अपने अकादेमिक वि‍षयक ग्रन्‍थों के कारण उनकी गणना अमेरिका के अग्रणी तुलनावादियों में होती थी। 'ए हि‍स्‍ट्री ऑफ लि‍ट्रेरी क्रि‍टि‍सि‍ज्‍म इन द रेनेसाँ' के सन् 1899 और 1908 के दो संस्‍करणों और तीन खण्‍डों में सम्‍पादि‍त सन् 1908-09 में प्रकाशि‍त 'क्रिटिकल एसेज ऑफ द सेवण्‍टीन्‍थ सेन्‍चुरी' जैसी वि‍शि‍ष्‍ट कृति‍यों में उन्‍होंने तद्वि‍षयक वि‍चार कि‍या है। मार्च 09, 1910 को कोलम्‍बिया वि‍श्‍ववि‍द्यालय में 'द न्यू क्रिटिसिज्म' वि‍षयक अपने व्‍याख्‍यान में उन्‍होंने अपने दर्शन का सारांश व्‍यक्‍त कि‍या। उस व्‍याख्‍यान में उन्होंने कला की पद्धति‍, वि‍षय एवं ऐति‍हासि‍क व्‍यवस्‍था को देखने की पारम्‍परि‍क संकीर्णताओं से परे सभी कलाओं को नई दृष्‍टि‍ से देखने की सि‍फारि‍श की।

स्पिन्‍गार्न की आलोचना-दृष्‍टि‍ और सौन्‍दर्यवादी विचार इतालवी दार्शनिक बेनेडेट्टो क्रोसे (सन् 1866-1952) से अत्‍यधि‍क प्रभावि‍त थे। सन् 1899 से ही उनके साथ उनका पत्राचार होता था। क्रोसे ने स्पिन्‍गार्न की वि‍शि‍ष्‍ट कृति‍ के एण्‍टोनियो फुस्को द्वारा इतालवी में 'ला क्रिटिका लेटररिया नेल रिनैसिमेण्‍टो : सैग्‍गियो सुल्‍ले ओरिजिनी डेल्‍लो स्पिरिटो क्लासिको नेला लेटरातुरा मॉडर्ना' शीर्षक से अनूदि‍त और लाइब्रेरि‍या लेटर्ज़ा, बारी द्वारा सन् 1905 में प्रकाशि‍त कृति‍ की प्रस्‍तावना भी लि‍खी थी। उस दौरान ग्रीक और हिब्रू साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन पर भी वि‍द्वानों पर्याप्‍त वि‍चार कि‍या।

द्वितीय विश्व युद्ध के ठीक बाद प्रकाशित 'यूरोपियन लिट्रेचर एण्‍ड द लैटि‍न मिडि‍ल एजेज' में अर्नस्ट रॉबर्ट कर्टियस (सन् 1886-1956) ने शास्त्रीय युग से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक, और इतालवी प्रायद्वीप से लेकर ब्रिटिश द्वीप समूह तक, स्थान और काल पर यूरोपीय साहित्य की उल्लेखनीय निरन्‍तरता का व्यापक उल्‍लेख कि‍या है। टी.एस. एलियट (सन् 1888-1965) ने इस पुस्‍तक की भरि‍-भूरि‍ प्रशंसा की है। इस पुस्तक में लेखक ने मध्ययुगीन लैटिन साहित्य को पुरातनता के साहित्य और बाद की शताब्दियों के स्थानीय साहित्य के बीच महत्त्वपूर्ण संक्रमण के रूप में स्थापित किया। यह पुस्‍तक होमर (ई.पू. नौवी-आठवीं शताब्‍दी) से गेटे (18वीं-19वीं शताब्‍दी) तक के यूरोपीय साहित्य का उत्कृष्ट संश्लेषण है।

शिक्षातन्‍त्र में तुलनात्मक साहित्य का प्रवेश सबसे पहले अमेरिका के विश्वविद्यालयों में बीसवीं सदी में हुआ सर्वप्रथम कारनेल विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य के स्वतन्‍त्र विभाग की स्थापना हुई। यद्यपि उसके अध्यक्ष प्रो. लेन कूपर ने इस नामकरण को स्वीकार नहीं किया। अमेरिका के हार्वर्ड, येल, प्रिन्‍सटन, शिकागो, बोस्टन तथा फिलाडेल्फिया आदि विश्वविद्यालयों ने इस दि‍शा में बड़ी तत्परता दिखाई। इंग्लैण्‍ड के कवि, आलोचक, अनुवादक, नाटककार जॉन ड्राइडन (सन् 1631-1700) और कवि, निबन्धकार, आलोचक सैमुएल जॉन्सन (सन् 1709-1784) ने भी बहुभाषी तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किए हैं।

सांस्कृतिक अध्ययन के समकालीन अध्येताओं के लिए अमेरिकी स्कूल का दृष्टिकोण सहज है। वैविध्य से भरे इस क्षेत्र के अध्येता आज नियमित रूप से चीनी, अरबी और दुनिया भर की भाषाओं के प्रमुख साहित्य का अध्ययन कर रहे हैं। इसके अध्ययन के मुख्यतः दो क्षेत्र हैं -- समानान्तरता और अन्तर्पाठीयता। समानान्तरता के अधीन इसमें कृतियों के पाठ के वैषम्य नहीं, समान सन्दर्भों और यथार्थों के अध्ययन की गुंजाईश रहती है। इसमें साहित्यिक कृतियों के बीच पारस्परिक प्रभाव दिखने पर प्रभाव के बजाए सन्दर्भ को महत्त्व दिया जाता है। सन्दर्भ यदि प्रभाव को प्रबल नहीं होने दे तो प्रभाव को कभी प्राथमिकता नहीं दी जाती। अन्तर्पाठीयता के अधीन यहाँ प्रदत्त पाठ, किसी अन्य पाठ के लिए सन्दर्भ होता है। नया पाठ पुराने पाठ पर वर्चस्व रखता है। नया पाठ हमेशा पुराने पाठ के आलोक में पढ़ा जाता है। साहित्य नए सिरे से पुराने पाठ के पुनर्गठन की एक अबाध और सतत प्रक्रिया होती है। पुराना पाठ, नए पाठ के निर्माण का आधार होता है।

जर्मन स्कूल

जर्मन तुलनात्मक साहित्य का उद्भव उन्नीसवीं सदी के अन्तिम चरण में हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, हंगरी के विशिष्ट विद्वान, पीटर स्जोण्डी (सन् 1929-1971) के एकनिष्ठ योगदान से इस अनुशासन का व्यापक विकास हुआ, वे फ्री युनिवर्सिटी ऑफ बर्लिन में नाटक, गीत, कविता, और हर्मेन्युटिक्स सहित सामान्य और तुलनात्मक साहित्य अध्ययन के अध्यापक थे। इस अनुशासन से सम्बद्ध उनका दृष्टिकोण उनके द्वारा बर्लिन में आमन्त्रित अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के विशेषज्ञों के परिचय और व्याख्यान से स्पष्ट होने लगा था। स्जोण्डी ने जाक देरीदा (सन् 1930-2004) का व्याख्यान उनकी वैश्विक ख्याति से पूर्व ही अपने यहाँ आयोजित करवाया। उन्होंने फ्रांस से पियरे बौरदिए (सन् 1930-2002) एवं लूसिए गोल्डमान (सन् 1913-1970), ज्यूरिख से पॉल डी मान (सन् 1919-1983), येरूशलेम से गेर्शोम स्कोलेम (सन् 1897-1982), फ्रैंकफर्ट से थियोडोर डब्ल्यू. अडोर्नो (सन् 1903-1969) जैसे अनेक विश्वविख्यात विद्वानों को संसार के कोने-कोने से व्याख्यान हेतु आमन्त्रित किया।

तुलनात्मक साहित्य के स्वरूप एवं मानदण्ड निर्धारित करने वाले इन सभी विद्वानों ने तुलनात्मक साहित्य अध्ययन सम्बन्धी स्जोण्डी की पूरी संकल्पना का मार्ग प्रशस्त किया। बहुराष्ट्रीय तुलनात्मक साहित्य की उनकी अवधारणा संरचनावाद के रूसी और प्राग स्कूल के पूर्वी यूरोपीय साहित्यिक सिद्धान्तकारों से अत्यधिक प्रभावित थी, जिनसे प्रभावित होकर रेने वेलेक ने भी तुलनात्मक साहित्य सिद्धान्त की अपनी कई समकालीन और महत्त्वपूर्ण अवधारणाएँ विकसित कीं। म्यूनिख विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित एक पुस्तिका में जर्मनी में तुलनात्मक साहित्य में डिप्लोमा देनेवाले 31 विभागों की सूची भी जारी की गई। हालाँकि, यह स्थिति तेजी से बदल रही है, क्योंकि कई विश्वविद्यालय हाल ही में शुरू किए गए स्‍नातक एवं स्‍नातकोत्तर पाठ्यक्रमों की नई आवश्यकताओं को अपना रहे हैं। जर्मन तुलनात्मक साहित्य को एक ओर पारम्‍परिक भाषाशास्त्र के आलोक में देखा जा रहा है और दूसरी ओर अध्‍येताओं को कामकाजी दुनिया के लिए उपयुक्‍त व्यावहारिक ज्ञान देनवाले अधिक व्यावसायिक कार्यक्रमों को प्रमुखता दी जा रही है।

रूसी स्कूल

रूसी स्कूल के विद्वानों के अनुसार तुलनात्मक अध्ययन के अन्‍तर्गत विभिन्न देशों की साहित्यिक विधाओं, आन्‍दोलनों, प्रकारों तथा साहित्य के वैश्‍वि‍क दृष्‍टि‍कोणों‍ का अध्ययन होता है। इसके सूत्र देशों के सामुदायि‍क जीवन के ऐतिहासिक विकास से भी जुड़े होते हैं। जॉर्जियाई विश्वविद्यालयों सहित सोवियत विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में तुलनात्मक साहित्य पश्चिमी देशों की तरह लोकप्रिय नहीं था। गैर-सोवियत और गैर-समाजवादी देशों में यह जि‍स तरह साहित्यिक अनुसन्‍धान की सीमा-विस्तार में प्रवृत्त था, सोवियत अनुसन्‍धान के लिए जोखिम भरी सम्‍भावना थी। यहाँ 'तुलनात्मक-ऐतिहासिक साहित्यिक अध्ययन' पदबन्‍ध से व्‍युत्‍पन्‍न एक नया पदबन्‍ध 'साहित्यिक सम्‍बन्‍ध' पर चि‍न्‍तन शुरू हुआ। यहाँ 'तुलनात्मक साहित्य' और 'साहित्यिक सम्‍बन्‍ध' में मूल अन्‍तर प्रवि‍धि‍ की थी, जो सोवियत साहित्य अध्ययनों को अन्‍तर्राष्ट्रीयता से जोड़ती थी। उत्तर सोवियत काल में इस भेद को समाप्‍त करने के उत्साही प्रयास दिखे। इस काल के सीमा-विस्तार की प्रक्रिया में साहित्यिक अध्ययन को गहनतर बनाने की चेष्‍टा की गई, और जॉर्जियाई विश्वविद्यालयों ने तुलनात्मक साहित्य कार्यक्रम को लागू करने में अग्रणी भूमि‍का नि‍भाई। इस क्रम में विशेषज्ञों और पाठ्य-पुस्तकों की कमी जैसी कई समस्याएँ भी आईं। इसकी भरपाई के लि‍ए पाठ्यपुस्तकों के अनुवाद, पाठ्यक्रम-नि‍र्माण, विशेषज्ञों के प्रशिक्षण जैसी व्‍यवस्‍था हुई। सुखद है कि‍ आज जॉर्जियाई विश्वविद्यालयों में तुलनात्मक साहित्य शिक्षण और अनुसन्‍धान की प्रमुख प्रक्रिया है।

सोवियत साहित्य अध्ययन में तुलनात्मक साहित्य सम्‍बन्‍धी अवधारणा पर विक्टर मक्सिमोविच ज़िरमुन्स्की (सन् 1891-1971) जैसे प्रसिद्ध चि‍न्‍तक के अलावा कई सोवियत शोधवेत्ताओं ने यथेष्‍ट वि‍चार कि‍या। तुलनात्मक विश्लेषण के लि‍ए साहि‍त्‍येतिहास की अनि‍वार्यता के मद्देनजर उन्होंने इतिहास और तुलनात्मक साहित्य का गहन सम्‍बन्‍ध माना। क्‍योंकि‍ सामाजिक इतिहास के समानान्‍तर ही हर समय के साहित्य एवं कला का विकास होता है।

रूस में 'तुलनात्मक-ऐतिहासिक साहित्य' पदबन्‍ध के उद्घोषक एलेक्जेण्‍डर वेसेलोव्स्की (सन् 1838-1906) के सैद्धान्‍तिक कार्यों से तुलनात्मक प्रवि‍धि‍ वि‍कसि‍त की गई। तुलनात्मक प्रवि‍धि में वेसेलोव्स्की ने 'प्रभाव' एवं 'अनुकृति‍' की प्रवृत्तियों के पारस्‍परि‍क सम्‍बन्‍ध पर वि‍चार कि‍या। इस क्रम में उन्‍होंने विभिन्न मि‍थकीय प्रसंगों के वि‍श्‍लेषण से पूरब या पश्चिम के सांस्कृतिक स्‍वभावों की गहन छान-बीन की और इस नि‍ष्‍कर्ष पर पहुँचे कि‍ पाठ की मौलि‍कता से ही 'प्रभाव' एवं 'अनुकृति‍' के सिद्धान्‍त बनते हैं। उन्‍होंने ऐतिहासिक पद्धति से पाठ के उद्भवमूलक अध्‍ययन के समानान्‍तर साहित्य के सामान्य अध्ययन को जोड़ने की चेष्‍टा की।

यूनान में कवियों, नाटककारों का तुलनात्मक अध्ययन तो अरस्तू (ई.पू.385-323), कैसि‍यस लोन्‍जाइनस (ई.पू. 273 में मृत्‍यु) समेत प्राय: सभी प्रसिद्ध आलोचक आरम्‍भ से ही करते रहे थे। प्रसि‍द्ध लातिनी ग्रन्‍थ आर्स पोइति‍का में होरेस (क्विण्‍टस होराटियस फ्लैकस, ई.पू. 65-ई.पू. 8) ने यूनानी एवं लातिनी भाषाओं पर तुलनात्मकत्‍मक वि‍चार कि‍या है। तुलनात्मक साहित्य की व्याख्या करते हुए इन सभी ने इस ज्ञान-शाखा की अनेक विशेषताओं का उल्लेख किया।

स्वतन्‍त्र ज्ञान-शाखा के रूप में तुलनात्मक साहित्य नि‍श्‍चय ही इस समय परम उपादेय है। अनुशीलन की इस पद्धति‍ में सम्‍पूर्ण इकाई के रूप में विभिन्न भाषाओं के साहित्यों की व्यापक पहचान बनती है; क्‍योंकि‍ साहित्यों की तुलना से ही मानवीय ज्ञान, कलात्मकता और वैचारिकता की छवि‍ स्‍पष्‍ट होती है।

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