Tuesday, March 17, 2020

कौन देगा इस सरस्वती को मन्दिर



कौन देगा इस सरस्वती को मन्दिर

मधुकान्त महतो उनका नाम था, पर पूरे इलाके के लोग उन्हें मधुकर नाम से जानते हैं। अपने कला-कौशल के बल पर गाँव के इस अशिक्षित, अप्रशिक्षित व्यक्ति का सुयश पूरे इलाके में फैला है। कोई प्रोत्साहन देने वाला उन्हें मिला होता तो निश्चय ही मधुकर की पहचान किसी बड़े शिल्पी के रूप में होती और मिट्टी से बनाई गई उनकी मूर्तियाँ भी किसी संग्रहालय में रखी जातीं।
सहरसा (बिहार) जिले के नौहट्टा गाँव में पैदा हुए मधुकर की उम्र तब पचपन वर्ष के करीब थी, अब तो उनके देहावसान के भी दशक से अधिक समय हो गए। उनके आठ बेटे, तेरह पोते और सात पोतियाँ हैं। उनके पिता स्व. सिंहेश्वर महतो राज बनैली कचहरी में सिपाही का काम करते थे। बचपन में जब मधुकर गाय चराने जाते थे तो सड़क के किनारे पानी के सोतों से गीली मिट्टी लेकर तरह-तरह की आकृतियाँ बनाया करते थे। बनाते थे, उजाड़ते थे। उसी निर्माण और ध्वस्त की प्रक्रिया में उनके हाथ इतने सधे की वे कलाकार हो गए। उनके कोई गुरु नहीं हैं और उन्होंने कोई भी शिष्य नहीं बनाया।
अपनी प्रारम्भिक अवस्था की स्मृतियाँ सुनाते हुए मधुकर बोले कि बाद में जब अपने द्वारा बनाई गई आकृतियाँ अपनी आँखों को भी भाने लगीं तो फिर मैंने उसमें और दिमाग लगाने लगा, सोचने लगा और एक से एक चीजें उनमें जुड़ती चली गई।
इस पेशे में मधुकर के परिवार का भरण-पोषण नहीं होता, पर वे बताते हैं कि हुजूर! मन लगता है।
नौहट्टा, मोहनपुर, एकाढ़, बराही, हेमपुर, चन्द्रायण...आस-पास के जितने गाँव हैं, हर गाँव में कोई न कोई मेला साल में एक बार लगता है। यह मेला कहीं कृष्ण-जन्म के अवसर पर, कहीं राम-जानकी विवाह, कहीं दुर्गा पूजा, कहीं काली पूजा, सरस्वती पूजा आदि-आदि अवसरों पर होता है। इसमें कई मूर्तियाँ बनती हैं। मेला शुरू होने के बीस-बाईस दिन पूर्व मधुकर उस गाँव पहुँचते हैं। शुरू के वर्षों में तो अकेले ही जाते थे, बाद के वर्षों में अपने बेटे को मदद के लिए साथ रखने लगे। उनके दो बेटे रतन कुमार महतो तथा महेश्वर कुमार महतो को भी इस कला का थोड़ा-थोड़ा ज्ञान है। बीस-बाईस दिनों के अथक परिश्रम से मधुकर, मिट्टी और पुआल की मदद में मूर्तियों का एक समाज तैयार कर देते हैं, जिसे उस गाँव के लोग शास्त्रीय रीति में प्राण-प्रतिष्ठा देकर दो-एक दिन पूजते हैं और फिर गाँव के बाहर किसी नदी या तालाब में बहा देते हैं। ये मूर्तियाँ जब बहाने के लिए ले जाई जाती है, तो मधुकर किसी कोने में बैठकर अभिशप्त शान्तनु-सा आँसू बहाते रहते हैं। उनका रचा हुआ संसार उन्हीं की नजरों के सामने उजरता रहता है और इतने आँसू मधुकर इलाके के हर गाँव में हर वर्ष जाकर बहाते हैं।
इस महीने भर के सेवा-फल के रूप में उन्हें गाँव वालों की ओर से एक अदद मोटी धोती और दो-ढाई सौ रुपए मिल जाते हैं। इस प्रवास के दौरान उनके भोजन का बँटवारा हुआ रहता है। आज सुबह जिनके घर भोजन हुआ, उस घर की मालकिन खाना देते समय बता देती है कि रात का आपका भोजन अमुक व्यक्ति के घर होगा, रात में वहीं चले जाएँ। इस अवमाननाजन्य भोजन व्यवस्था और अल्प मजदूरी पर आश्चर्य प्रकट करने पर मधुकर का जवाब होता है कि बाबू-भईया का गाँव है। इतने बड़े-बड़े लोग मुझसे बात कर लेते हैं, यह क्या कम है?’ मैं सुनकर दंग रह जाता हूँ कि शालीनता का मारा यह आदमी किस खुशी के लिए यह काम कर रहा है। पूछने पर वे बताते हैं कि मेरे द्वारा बनाई गई मूर्तियों को घेरकर पूरा गाँव दस दिन प्रसन्न रहता है--यह कम खुशी की बात है?’...और तब जाकर लगता है कि स्वान्तः सुखाय की बुनियाद पर ही सृजन की नींव है।
पुआलों को बाँधकर थोड़ा-सा आधार बना लेना और फिर उस पर मिट्टी पोतकर सुन्दर-सुन्दर मूर्तियाँ गढ़ लेना मधुकर के लिए अब अन्न उपजाने और बेचने जैसा हो गया है, बल्कि उपजाने और दान देने जैसा। कारण, बिक्री के भाव तो वे मूर्तियाँ बिकती नहीं। उनकी कलाकृतियाँ कभी सुरक्षा के लिए नहीं देखी गईं। और चूँकि वे सारी कृतियाँ मौजूद नहीं हैं, इसलिए उनके विकास का ग्राफ निकालना मुश्किल है। पर इतना तय है कि ऐसी-ऐसी कलाएँ या कला शिक्षाएँ मधुकर से जन्म लेकर मधुकर में ही समाने लगे तो इसकी सुरक्षा का क्या होगा? कौन देगा इस धूल धूसरित सरस्वती को एक मन्दिर जिनके उपासक का गुरु अभ्यास ही है।
पब्लिक एशिया, 30.11.1997

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