Tuesday, March 17, 2020

तब भी वह अबला क्यों



तब भी वह अबला क्यों

भारतीय इतिहास में नारी पुरातन काल से देवी मानी जाती रही है। सृष्टि के कारण का वह अर्द्ध भाग है। हिन्दू धर्म में सदा से इसे पवित्रता की निगाह से देखा गया। आचार्य विनोवा ने इस पवित्रता की जाँच के लिए पुरातन साहित्य पर नजर दौड़ाई तो उनके सामने विचित्र रहस्य आ खड़े हुए। एक जमाने में स्त्रियाँ पूर्ण स्वतन्त्र थीं। पुरुषों की भाँति वे भी ब्रह्मवादिनी थीं। वेदों में उनके सूक्त भी आते हैं। अर्थात् स्त्रियों को वेदाभ्यास का पूर्ण अधिकार प्राप्त था। बाद में उनसे वेदाध्ययन का अधिकार छीन लिया गया। प्रतीक अर्थों में यूँ कहें कि उन्हें ज्ञान से, शिक्षा से दूर करने का षड्यन्त्र शुरू हो गया।
पिछले कुछ समय से स्त्री और मजदूर वर्ग के शोषण के विरुद्ध आवाज बुलन्द हो रही है, कहा जा रहा है कि इनकी मुक्ति का मार्ग आर्थिक और शैक्षिक दुर्बलता दूर करने से ही प्रशस्त होगा। प्रश्न है कि स्त्री की कैसी मुक्ति विचारणीय है।
संस्कृत कवियों ने स्त्री को भीरुकहा है। इस भीरुका अर्थ पाप-भीरुनहीं, ‘कायरलिया गया और विशेषण के रूप में स्त्रियों को दिया गया। यह भले ही पुरुष समुदाय की ज्यादती हो और षड्यन्त्रपूर्वक ऐसा घिनौना विशेषण उन्हें दिया गया हो, लेकिन स्त्रियों ने इसे बड़ी आतुरता से ग्रहण भी किया। अर्थात्, स्त्रियाँ उसी समय से अपनी कायरता के लिए अपने को धन्य मानने लगीं।
सांख्यों ने सृष्टि का निरीक्षण करते हुए दो तत्त्व पाए--विविध रूपधारी जड़और एकरस चेतन। पहले को उन्होंने प्रकृतिकहा और दूसरे को परुष। हमारे ऐतिहासिक समस्त कुख्यात असुरों का संहार शक्ति रूप द्वारा ही हुआ है। सहस्रबाहु, शुम्भ-निशुम्भ, महिषासुर आदि का वध देवियों द्वारा ही सम्भव हुआ है। फिर भी यहाँ स्त्रियाँ अबला कहलाती हैं। इसे रक्षण-योग्य माना गया है। स्त्रियों का मूल नाम महिला है और महिला का अर्थ होता है महान शक्तिशाली। लेकिन लोग कहते हैं कि स्त्री में कोई शक्ति होती होगी, तो भी वह रक्षणीय ही है। कैसा रहस्य है यह!
प्रारम्भ से लेकर आज तक की नारियों की शृंखलाबद्ध स्थितियों की तुलना में आज के समाज में व्याप्त मान्यताओं और व्यावहारिक पक्षों को देखकर उबकाई-सी आने लगती है। स्त्री-दुर्दशा की सारी जिम्मेदारी मर्दों पर दे भी दी जाए, तब भी विश्लेषण आवश्यक है। सांख्यों की रहस्यात्मक स्थापना कि प्रकृति जड़ है, प्रकृति स्त्रीलिंग है, इसलिए स्त्री जड़ है--से काम नहीं चलेगा। स्त्री और पुरुष----स्पष्टतः दो चेतन प्राणी हैं। दो चेतनशीलों के बीच हुए परिणामों का सारा दोष एक पर कैसे दिया जाए? आचार्य विनोवा कहते हैं कि अगर मैं स्त्री होता, तो सहसा सब पुरुषों को मुक्त कर देता। कहता, कि यह सारी जिम्मेवारी मेरी है। न जाने कितनी बगावत करता। मैं तो चाहता हूँ कि स्त्रियों की तरफ से बगावत हो। लेकिन बगावत तो वह स्त्री करेगी, जो वैराग्य की मूर्ति होगी।...स्त्रियों में कोई शंकराचार्य जैसी तेजस्वी स्त्री प्रकट होगी, तभी उनका उद्धार होगा। स्त्रियाँ स्वतन्त्रता चाहती हैं, तो उन्हें वासना के बहाव में बहना नहीं चाहिए।ध्यातव्य है कि यहाँ वासनाका ध्येय केवल यौन लिप्सानहीं है। पद, मद, सत्ता, वर्चस्व की सारी भूख वासना ही है। आचार्य बिनोवा इस मामले में देहात की स्त्रियों को अधिक मुक्त मानते हैं। पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ आरामतलब होती हैं या हो जाती हैं। जंगल का शेर आरमतलब नहीं होता, वह परिश्रम से नहीं डरता, मर्द परिश्रम से नहीं डरता, अतः वे स्वतन्त्र होते हैं। आज जब नारी मुक्ति आन्दोलनकी आवाज बुलन्द की जा रही हो और नारी सिर्फ अपनी देह को ही अपना सर्वस्व माने, तो वस्तुतः नारी का उद्धार कोई नहीं कर सकता। ये सारी स्थितियाँ नारियों के लिए एक नूतन दृष्टिकोण स्थापित करती हैं। मर्दों द्वारा आरोपित तमाम विडम्बनाओं के बावजूद उन्हें जगना चाहिए और परदे के पीछे की सत्यता जाननी चाहिए। इस क्रम में उन्हें धैर्य और क्षणिक उन्माद से अनाशक्ति पालनी पड़ेगी। उन्हें सुरक्षा के कवच फेंक देने होंगे और स्वरक्षा का आह्नान करना होगा। विज्ञान सम्मत और व्यवहार सम्मत बात है कि स्त्रियों का शरीर पुरुषों की अपेक्षा अधिक रक्षण-समर्थ है। दैनिक जीवन का यह व्यावहारिक पक्ष है कि किसी बीमार की सेवा-शुश्रूषा में कोई स्त्री महीनों जागकर लगातार काम करती है और स्वस्थ रहती है, घर के सारे काम करती है, जबकि मर्द खुद ही बीमार हो जाते हैं।
स्त्री-पुरुष की समानता की बात एक भ्रम है, पर जिन अर्थों तक इसमें सचाई है, वहाँ तक जाने के लिए स्त्रियों की जागरूकता आवश्यक है। जबकि आज स्त्रियाँ खुद ही अपनी छवि बिगाड़ रही हैं। इसी क्रम में ऑटोवेंगर ने अपनी पुस्तक में नारियों को चेतनहीन, निर्णयशक्ति से हीन, अदूरदर्शी कहा है। उन्हें वे तर्कशक्ति से निरपेक्ष मानते हैं। फ्रायड की मान्यता है कि नारियों की लज्जा उसकी कमी और दोषों को छिपाने का अस्र है। वे सभ्यता के विकास के लिए पुरुषों को ही समर्थ मानते हैं। स्त्रियों को इस सीमा से बाहर रखते हैं।
और, आज की नारी हैं, जो अपनी इस सीमा के बाहर आने की सारी क्षमता झोली में रखकर मुट्ठी में हवा भरना चाहती हैं। मर्दों की बराबरी का आन्दोलन करना चाहती हैं और मर्दों के कन्धों का सहारा नहीं छोड़ना चाहतीं। बेल के जंगलों को काटने चलती हैं, लेकिन रास्ता बबूल के जंगलों से गुजरते हुए चुनती हैं।
वास्तविक अर्थों में नारी मुक्ति के जिस मौलिक स्वरूप की बात उठती रहती है अक्सर उसमें नारी न कभी परतन्त्र थी और न अभी है। परतन्त्रता कुछ है, तो उनकी मानसिक परतन्त्रता। मनुष्य का जब अपने ऊपर से विश्वास उठा जाता है, आत्मविश्वास जवाब दे देता है, तब वह अन्धविश्वासी हो जाता है। यह अन्धविश्वास मनुष्य को भीरु बनाता है। फिर तो वह धार्मिक अन्धविश्वास, सामाजिक मान्यता के अन्धविश्वास के गिरफ्त में कैद हो जाता है।
हिन्दुस्तान, दिल्ली, 12.07.1992

No comments:

Post a Comment