Thursday, November 28, 2019

दायित्वबोध से भरा कथाकार: काशीनाथ सिंह (महुआचरित उपन्‍यास)



दायित्वबोध से भरा कथाकार: काशीनाथ सिंह

(महुआचरित उपन्‍यास)
रचनात्मक कौशल के मद्देनजर काशीनाथ सिंह होना जितना कठिन है, काशीनाथ सिंह होने का दायित्व निभाना उतना ही दुर्वह। पर देखने से प्रतीत होता है कि शायद काशीनाथ सिंह को यह कोई कठिन और दुर्वह नहीं लगता; वर्ना अपनी हर रचना में वे इतनी सादगी और सहजता से कैसे प्रस्तुत होते? ताजा उदाहरण उनकी उपन्यासिका महुआचरितहै।
सन् 2012 में प्रकाशित यह उपन्यासिका आकार की दृष्टि से बहुत छोटी है, फकत सौ पृष्ठों की। पर इस छोटी-सी कथाभूमि में कथाकार ने विराट व्यंजना, विस्तृत अर्थफलक, बहुविध दृष्टि-विधान की प्रश्नाकुलता और जीवन-दर्शन के अथाह सागर में पाठकों को कई तरह से व्यस्त कर दिया है। अस्सी साल के सेकुलर विचारवाले स्वतन्त्रता सेनानी की कुँआरी और उच्च शिक्षा प्राप्त बेटी महुआइस उपन्यासिका की कथानायिका है; तन और मन दोनों से सम्पूर्ण स्त्री है। जीवन के तीसवें वसन्त का अनुभव ले रही है। कैरियर बनाने के जुनून में अब तक पूरी तरह लक्ष्याभिमुख रही। कभी किसी मनोवेग में उसके पाँव नहीं हिले। थिसिस जमा कर लेने के बाद अब जब खाली हुई तो मनोवेग बलिष्ठ हो उठा। अत्यन्त व्यवस्थित चरित्र-चित्रण में कहीं अनैतिक न दिखने के बावजूद कहा जा सकता है कि महुआ अपनी दैहिक जरूरत पर नियन्त्रण नहीं रख सकी, परास्त हो गई, देहासक्ति के आगे घुटने टेक दिए। भूलवश गर्भवती हो गई, गर्भपात कराया। विवाह के बन्धन में बँध गई, फिर आत्मचेतना की बुलन्द पुकार पर बन्धनमुक्त भी हो गई। ऐसी महुआकी कथा कहकर लेखक ने इसका शीर्षक महुआचरितदिया। शीर्षक में इस चरितशब्द के योग से इस उपन्यासिका का आयत विराट हो जाता है। कृति में एक-एक वाक्य अपने विलक्षण ध्वन्यार्थों से मुहावरे का असर देने लगते हैं।
भारतीय साहित्य में चरित-काव्य की प्राचीन परम्परा है। भेद गिनकर देखें तो आचार्यों ने छह प्रकार के चरित-काव्य की चर्चा की है--धार्मिक, प्रतीकात्मक, वीरगाथात्मक, प्रेमाख्यानक, प्रशस्तिमूलक, लोक-गाथात्मक। अब धार्मिक का अर्थ यदि रामकथाऔर वीरगाथात्मक का अर्थ महाराणाप्रताप की कथा ही न लगाएँ, जो लगाना भी नहीं चाहिए, तो महुआचरितउपन्यासिका में पउम चरिउसे लेकर आज तक जितने भी चरित-काव्य लिखे गए हैं, उनके सारे गुण और सारी कोटियाँ व्याप्त हैं।
कहने को तो इस उपन्यासिका के कथासूत्र में महुआ के अलावा उसके माता-पिता, भाई सुशान्त, सुशान्त की पत्नी या दोस्त बलविन्दर, साजिद, साजिद की बीवी हमीदा, हर्षुल, हर्षुल की दोस्त या सहकर्मी वर्तिका, उमर खय्याम, और महुआ के घर की छत... कई पात्र हैं; पर असल में दो ही पात्र हैं--कथानायिक महुआ, जिसके शान्त, शिक्षित और सावधान जीवन की पूरी चौहद्दी को चन्द हफ्तों में सबने मिलकर दुनिया के सामने एक सवाल की तरह खड़ा कर दिया; और दूसरा पात्र है महुआ के मकान की निष्प्राण छत, जो महुआ की सहेली है, चुहलबाज, बातूनी और उचितवक्ता; जो महुआ को मनोनुकूल सलाह भी देती है; डाँटती-फटकारती भी है; कभी-कभी उसे धीरज भी बँधाती है; उसकी भाषा केवल महुआ ही समझती है। बाकी सारे पात्र तो चण्ठ हैं, उनके लिए महुआ की संवेदनाओं का कोई अर्थ नहीं है, यहाँ तक कि उसकी उपस्थिति भी उनके लिए किसी वस्तुकी तरह है; किसी के लिए खिलौना, किसी के लिए आइसक्रीम, किसी के लिए ताजमहल, किसी के लिए स्टेटस सिम्बल। सब के सब अपनी उपयोगिता के आधार पर उसका उपयोग करते हैं, और जब-तब महुआ की आत्मा में एक जहरीला काँटा चुभाकर चलते बनते हैं।
आकार से कहानी दिखने वाली यह कृति अपनी परिणति और प्रभाव में फलक तोड़कर जो विस्तार पाती है, उसका कारण प्रकृति वर्णन, भौगोलिक क्षेत्र की विविधता, घटनाक्रम की विभिन्नता और विविध परिवेश के पात्र-सन्दर्भ ही नहीं हैं; उन दिशाओं में तो यह एक उच्चशिक्षा प्राप्त भारतीय नारी के जीवन के चन्द हफ्तों की कथा है। असल में इस कृति में नायिका के मनोवेगों को काशीनाथ सिंह के कौशल ने इस बारीकी से उकेरा है कि महुआ का लघु जीवन-चरित एक विराट व्यंजना प्रस्तुत करता है। कृति के अधोभाग में जब महुआ के मन का सरपंच तय करने बैठता है कि देह का बँटवारा कैसे सम्भव है? सावधान विवेक पर देह ने कैसे बाजी मार ली; तब वह सूक्ति बनाती है और विभ्रम में पड़ जाती है--ऐसा क्या है देह में कि उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता, लेकिन मन का रिश्ता-नाता तहस-नहस हो जाता है!
इस कृति के पूरे पाठ को गद्यं कविनां निकषं वदन्तिकी तरह देखने की तो जरूरत है ही, इसके साथ-साथ इसे आम जनमानस के लिए नए मुहावरों का खजाना के रूप में भी देखने की ख्वाहिश होनी चाहिए। महुआ के मन में उठा यह सवाल एक विराट जीवन-दर्शन की ओर इशारा करता है, और परत-दर-परत कई सवाल उखड़ते जाते हैं। उसके जीवन में जो कुछ हुआ, उसे क्या एक सहज वृत्ति के रूप में गिनकर छोड़ देना चाहिए; क्या महुआ जैसी युवती संसार में इकलौती है? महुआ के मन पर जितना आघात हुआ, साजिद या हर्षुल के मन पर भी उतना हुआ होगा? बलविन्दर या वर्तिका जैसी युवती से महुआ की कोई तुलना की जा सकती है? क्या साजिद की गतिविधियों से हमीदा परिचित थी? उमर खय्याम की मुलाकात कभी असली हमीदा से हो सकेगी, और वह अपने मित्र साजिद की टुच्ची हरकतों को जान सकेगा? महुआ के स्वाधीनता सेनानी पिता का क्रान्तिमुख भाव कभी महुआ के देह-तन्त्र पर विचार करता था? मन और विवेक के युद्ध में महुआ की पक्षधरता न्यायसंगत थी? न्याय असल में है क्या?
भारत देश में महुआ जैसी परिवारनिष्ठ, लक्ष्योन्मुख और विवेकी युवती की न तो पहले कोई कमी थी, न आज कोई कमी है। इस महुआ जैसा जीवन-चरित तो भारतीय जनपद में आए दिन उपजता रहता है; पर अस्सी वर्ष की उम्र वाले स्वाधीनता सेनानी महुआ के अनुभवी पिता ने कभी अपनी जवान बेटी के मन और तन के बारे में सोच लिया होता, तो यह तय नहीं है कि महुआ के जीवन में वैसा न हुआ होता, जैसा हुआ! कम से कम महुआ की माँ तो एक स्त्री थी, उन्हें तो महुआ की उम्र की जरूरत का अनुभव अपने जीवन में हो चुका होगा। पढ़ाई खत्म होने से पूर्व तक, थिसिस जमा होने तक, जिस महुआ ने प्यारजैसे मनोवेग को फुटनोटसमझा, कैरियर की कहानी पूरी होने तक जिसने पहाड़ी नदी के उद्दाम प्रवाह वाले मनोवेग को रोक रखा था, खाली होने पर वह रोका हुआ वेग उग्रतर हो उठा। उसे बाथरूम में अपनी देह गमले में पड़े उस गुलाब की तरह दिखने लगी, जिसे तुरन्त पानी न मिला, तो उसे सूखते देर न लगेगी! पर पानी देता कौन? महुआ के जीवन में ऐसा पानी देने वाला कौन ढूँढे? इस पानी देने वाले की खोज की जरूरत किसे थी? किसी को नहीं! सेकुलर पिता मण्डप में वरको थप्पड़ मारने वाली वधूका समाचार पढ़कर प्रसन्न होते थे, और उसके इस आचरण में देश का भोरकालदेखते थे। इधर महुआ मनोवेग की ज्वाला शान्त करने के लिए पानीको तरस रही थी। महुआ के पिता को अपने पुत्र से नफरत इसलिए थी कि वह अपने सुख और मनोनुकूल आचरण करने की स्वाधीनता प्राप्त करने हेतु घर से अलग रहने लगा था। पर महुआ की निष्ठा तो उन्हें कभी चिन्तित नहीं कर पाई! पिता का कर्तव्य था कि वह बेटी के जीवन में पानीदेने वाला ला दे, या उसे आजाद कर दे कि पानीखुद ढूँढ लो! पिता ने दो में से कुछ नहीं किया। प्यार तो बेटी से बेहद करते रहे, पर क्या उस सेकुलर स्वाधनीता सेनानी को मर्यादा की सम्पूर्ण और व्यावहारिक सीमा मालूम थी? मर्यादा असल में है क्या?
भूख न जाने बासी भात, प्यास न जाने धोबी घाट; नीन्द न जाने टूटी खाट, जोश न जाने टेढ़ा बाटका मतलब मर्यादा की असंगत और अपूर्ण परिभाषा जानने वाले व्यक्ति कभी नहीं जान पाएँगे। सही मायने में महुआ ने कभी मर्यादा नहीं तोड़ी। मर्यादा और विवेक ने ही मजबूर कर उसे ऐसी मनोभूमि में पहुँचा दिया था कि जो उस पर आसक्त होते थे, उन्हें वह बच्चा समझती थी; और जिस पर वह अनुरक्त होती, वह उसे बच्ची समझता था।
यह उपन्यासिका अपने कथा-सूत्रों और घटनाक्रमों से यदि एक तरफ पाठकों को नियति-चक्र, और विडम्बनाओं के परिणाम के जरिए उत्सुक, उन्मुख और भौंचक करती है, तो दूसरी तरफ स्थान-काल-पात्र की परिवेशगत परिणतियों का दार्शनिक स्वरूप भी पेश करती है। जाहिर है कि जरूरत और जुनून से निर्देशित ये परिणतियाँ सही-गलत के फैसले में आड़े आती हैं। इस मसले को कुरेदने से पहले एक नजर इसके घटना-क्रम पर डालते हैं--कैरियर बनाने के जुनून में स्त्रीत्व के समस्त अवदानों से परिपूर्ण महुआ यौनोन्माद से बेफिक्र रही। उम्र के वार्द्धक्य में पीछे छूटते जा रहे उल्लासों की मदमाती बयार ने उसे जरा-सी थपकी क्या दी कि फुटनोटपर उसकी पकड़ ढीली हो गई, मनोवेग आक्रामक हो गया, योनोन्माद की उत्तप्त दोपहरी को भी परास्त कर देने वाला उसका विवेक पराजित हो गया, पता नहीं किस अबूझ आकर्षण में खिंचती हुई अपने पड़ोसी साजिद के साथ हैदराबाद तक चली गई, भविष्य के तमाम खतरों से परांगमुख वह सारा कर बैठी, जिसे अब तक उसके विवेक ने बरज रखा था। कुँआरी हिन्दू युवती इस दुनिया में कोई कबीर लाए या न लाए--इसका हिसाब लगाने लगी। सामाजिक मान्यताओं के भय से पराजित होकर खुद को खाली कर लिया, मन से क्षत-विक्षत होकर भी खुद को तन से अक्षत साबित करने का प्रमाण जुटा लिया।
यातना के इसी दौर में अचानक हर्षुल प्रकट हुआ। हर्षुल महुआ का पुराना मित्र था। चार वर्ष पूर्व महुआ की डाँट खाकर एक पर्ची थमाते हुए उसके जीवन से चला गया था, पर्ची में लिखा था--पछताओगे सुनो हो ये बस्ती उजाड़ के।हर्षुल के विवाह-प्रस्ताव पर पूरा तजबीज कर उससे शादी की। बर्बादीऔर फिर शादीका यह सिलसिला इतनी तेजी से चला कि वह ठीक से विचार भी नहीं कर पाई। तीन दिन पहले जो कुँआरी युवती अपने अवान्तर गर्भाधान की कथा छिपाए फिर रही थी, गर्भपात से पूर्व डॉक्टर के सामने खुद को विवाहित साबित करने हेतु किसी कल्पित पति के नाम माँग में सिन्दूर भरा, जिसका अंश ढो रही थी, वह पटल से गायब था, जिन्दगी के बियाबाँ में सब्जा उगाने के लिए कदम उठाया, तो खाई में पड़ी। ...ऐसे दुष्काल में उस बिछुड़े मित्र का पुनरागमन उसके मन में विभ्रम से अधिक किसी अदृश्य शक्ति के प्रति आस्था उपजा रहा था। उधेड़बुन से भरे ऐसे मस्तिष्क में नायिका के चरित्र को उज्ज्वल बनाकर कथाकार ने अपनी बड़ी जिम्मेदारी परिचय दिया है। वह साजिद से नफरत तो नहीं कर पा रही थी, पर उसे अपने अन्दर से उस भ्रूण की तरह निकाल फेकना चाहती थी। नायिका का यह बोध उसकी ईमानदारी का सबूत पेश करता है। उसकी चारित्रिक उज्ज्वलता तब और निखर उठती है जब अपना मनोभाव प्रकट करते हुए हर्षुल के विवाह-प्रस्ताव को अपना सौभाग्य बताती है, हँसते हुए घर, खेलती हुई खाट का स्पन्दन उसे पुलकित करता है, पर अपने महत्त्व का अहसास कराने, अपने वर्चस्व और गरिमा का बोध कराने भर के लिए हर्षुल से समय माँगती है।
शादी हुई। देहासक्ति के साथ नई जिन्दगी शुरू हुई। दोनों की देह प्रयोग के साधन और रहस्य के खदान होते गए। शरीर के सभी प्रयोगों से पूरी तरह परिचित दोनों एक दूसरे की नजर में खुद को प्रथम प्रयोक्ता साबित करने में लगे हुए थे। अपने प्रयास में किसे कितनी सफलता मिली, कौन जाने! सुखद रहा कि इस देहासक्ति में दोनों चन्द हफ्तों के लिए रति-कामदेव बने रहे। वर्तिका की सायास उपस्थिति से उस उद्दाम रंग-रभस की जगमगाहट मलिन हो गई, महुआ का संशय अनुसन्धान करने लगा--यह वर्तिका, हर्षुल की क्या लगती है? उधर नैनीताल में उमर खय्याम के सवाल से हर्षुल सोचना शुरू करता है--यह साजिद कौन है? क्या महुआ वाकई अब तक अक्षत थी?
अब सवाल उठता है कि कहीं हर्षुल ने महुआ की उस डाँट का बदला लेने के लिए तो इतना उद्यम नहीं किया? वर्ना उसे वर्तिका से महुआ की मुलाकात करवाने की क्या जरूरत थी? महुआ की राय में हर लड़का, हर लड़की का कोई न कोई अतीत होता है, जिसके बारे में बात नहीं करनी चाहिए, पर जब उसके पास स्वयं एक शादीशुदा पुरुष साजिद का अनुभव था, गर्भपात भी करा चुकी थी, फिर वर्तिका-प्रसंग से इतनी बेचैन क्यों थी?
विलक्षण कथा-संरचना और चमत्कारी भाषा-शिल्प के सहारे काशीनाथ सिंह ने मानव मनोविज्ञान के यथार्थ पर उपजी सहज घटनाओं, स्त्री-पुरुष के दैहिक सन्दर्भ, और इस पूरे परिदृश्य पर वर्तमान सामाजिक-दृष्टिकोण की जकड़ी हुई गाँठें इस तरह ढीली कर दी हैं कि सामान्य नागरिक की नजर में भी जीवन-दर्शन के अगम्य-अगोचर सूत्र बड़ी स्पष्टता से दिखने लगे हैं।
दिलचस्प है कि घटना-संयोजन के उत्कृष्ट कौशल से पाठकों को खुली छूट, ढेरो सवाल, मगर बड़ी जिम्मेदारी देकर यहाँ लेखक चुपके से किनारे हट गए हैं। टैक्सी में ब्रीफकेस के बगल में बैठकर महुआ ड्राइवर से कहती है--अब चलो भैया... लेकिन आराम से! कोई जल्दी नहीं है।...
महुआ की यह कैसी निश्चिन्तता है? यात्रा समाप्त करने की, सब कुछ पा लेने की, सब कुछ गँवा देने की, थक जाने की, या नई यात्रा शुरू करने की?... महुआ ने जब हर्षुल को अपने बारे में बताया, और वर्तिका-प्रसंग को रेखांकित किया, तो हर्षुल पर इसका क्या असर हुआ? साजिद कहाँ गया? सुशान्त-बलविन्दर ने आगे क्या किया? महुआ के माता-पिता पर इन सभी घटनाओं का क्या असर हुआ? उमर खय्याम की जिज्ञासा शान्त हुई या नहीं? हर्षुल के मन में साजिद की शंका को कहीं उसी ने तो पुष्ट नहीं किया? महुआ ने आगे क्या किया?... काशीनाथ सिंह इन सभी सवालों से जूझने के लिए पाठकों को मजबूर करते हैं।
हिन्दी के मूर्धन्य कहानीकार काशीनाथ सिंह की कृतियों--लोग बिस्तरों पर, सुबह का डर, आदमीनामा, नई तारीख, सदी का सबसे बड़ा आदमी, कल की फटेहाल कहानियाँ, कहनी उपखान (कहानी), अपना मोर्चा, काशी का अस्सी, रेहन पर रग्घू (उपन्यास), घोआस (नाटक), हिन्दी में संयुक्त क्रियाएँ, आलोचना भी रचना है (शोध-समीक्षा), याद हो कि न याद हो, आछे दिन पाछे गए (संस्मरण)--से परिचित हिन्दी-प्रेमियों को अलग से बताने की आवश्यकता नहीं कि उनकी कथा-दृष्टि वंचित-तिरस्कृत प्रसंगों को भी बड़े अनुराग से पकड़ती है और अनोखे कौशल से समुचित सम्मान के साथ उन्हें अपनी रचनाओं में जीवन्त करती है। इस जीवन्त करने की प्रक्रिया में काशीनाथ सिंह कई बार फैण्टेसी का भी सहारा लेते हैं। उल्लेख असंगत न होगा कि उनकी कहानी में फैण्टेसी को रेखांकित करते हुए राजकमल चौधरी ने 11 दिसम्बर 1965 को उन्हें पत्र लिखा--फैण्टेसी को मैं कहानी के शिल्प में सबसे अधिक कठिन और सबसे दुर्वह मानता हूँ--क्योंकि जरा भी स्थान-च्युत होते ही फैण्टेसी परम हास्यास्पद बन जाती है। वैसे, कमोबेश काफ्का और थाॅमस मैन से लेकर बीट’-मसीहा जैक करुआ तक ने इसके सफल-असफल प्रयोग किए हैं।...आपकी कहानी मैंने तीन चार दफा पढ़ी, और हर दफा मुझको यह कहानी अधिक सफल, अधिक आक्रामक, अधिक कम्युनिकेटिव और सशक्त लगी।...एक दुःस्वप्न जैसी होकर भी यह कहानी यथार्थ है, और इसमें अन्तर्निहित सामाजिक सत्य हम जैसे लोगों को उत्तेजित करते हैं।
रचनात्मक उद्देश्यों की उनकी सफलता और सम्प्रेषणीयता का सबसे बड़ा कारण उनकी विशिष्ट कथन-शैली है, जिसमें विषय के साथ उनका लेखकीय वर्ताव, भाषा-फलक, घटना-सूत्र का संयोजन एवं विवरण है। विषय-प्रसंगों की सूक्ष्मतर व्याख्या के लिए अपनी पीढ़ी में काशीनाथ सिंह मशहूर हैं, पर अचरज यह कि इसके बावजूद उनकी कृतियाँ अनावश्यक विस्तार का शिकार नहीं होतीं। मुहावरेदार अर्थव्यंजकता, लोकोक्तिपूर्ण सम्प्रेषणीयता, काव्यमय लयात्मकता, सांगीतिक सहजता उनके गद्य का मूल स्वभाव है, जो उनकी रचनाओं के पूरे अस्तित्व को इतना घनीभूत और अर्थगाम्भीर्य से भर देता है कि उसका संक्षेपण असम्भव हो जाता है, उनकी रचनाओं के संक्षेपण का अर्थ अंग-भंग ही होगा। सघन संरचना, सरल शब्दावली, और जनपदीय भाषा विधान के कारण विवरण, विश्लेषण उनके यहाँ इतना सन्दर्भयुक्त रहता है कि रचना का जर्रा-जर्रा क्रियाशील रहता है। कई बार तो निरर्थक और हास्यास्पद लगने वाले वक्तव्य भी अपने अगले पद के संयोग से मूर्त्तमान, रोमांचकारी और प्रभा-मण्डित हो जाते हैं। कृपया मक्खियाँ उड़ाने की हिम्मत न करें। वे भूखी हैं।जैसी मामूली सूचना एक सेठनुमा व्यक्ति की लाश के सुनहरे दाँतों में टिका कर अपनी कहानी सूचनामें उन्होंने अर्थव्यंजकता और प्रतीकार्थ के इतने द्वार खोल दिए हैं कि पाठक पूरी व्यवस्था के तार-तार उधेड़ने लगते हैं। ये मक्खियाँ कौन हैं? यह सेठनुमा व्यक्ति कौन है? यह सुनहरा दाँत क्या है? यह सूचना कौन किसे दे रहा है? ... रोचक तत्त्व यह है कि सवालों की शृंखला से वे पाठकों को उद्बुद्ध कर आप से आप जवाब तक पहुँचा देते हैं। महुआचरितमें जब हर्षुल ने महुआ से ढाई महीने का गर्भ हटाने का निर्देश दिया, तो उसने कहा--पेट मेरा है। पैदा मुझे करना है। तुम्हें किस बात की तकलीफ है?’ सवाल भरा यह नकारात्मक जवाब हर्षुल के लिए जितना भी भयकारी हो, पर पाठकों को महुआ की ठोस मानसिकता के प्रति आश्वस्त करता है। पूरी कृति में स्वगत वक्तव्यों से मानवीय मूल्यों के प्रति पात्रों की निष्ठा और ईमानदारी तथा निर्णयात्मक कदम उठाने की तात्कालिकता से पात्रों के आत्मबल को रेखांकित करते हुए काशीनाथ सिंह ने अपने जिस रचनात्मक विवेक का परिचय दिया है, वे नई पीढ़ी के हर रचनाकार के लिए प्रेरणादायक हैं। हमें शीघ्र ही उनकी नई कृति का इन्तजार करना चाहिए।
जनसत्ता/
महुआचरित/काशीनाथ सिंह/राजकमल प्रकाशन/पृ. 100/रु. 150.00

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