Thursday, November 28, 2019

समय के दंश की जीवन्त गाथा/गंगाधर गाडगिल की पुस्‍तक खिंचाइयाँ/अनुवाद: रेखा देशपाण्डे

समय के दंश की जीवन्त गाथा

गंगाधर गाडगिल की पुस्‍तक खिंचाइयाँ/अनुवाद: रेखा देशपाण्डे



सम्पूर्ण भारतीय वांगमय में व्यंग्य, आधुनिक जीवन-पद्धति की उपज है। भारतवर्ष की किसी भी भाषा के साहित्येतिहास में इसकी परम्परा प्राचीन नहीं है। यह बात सत्य है कि साहित्य हर समय में समाज का दर्पण होता आया है, परन्तु समकालिक समाज का। हमारे यहाँ प्राचीन समय का समाज इतना जटिल नहीं था--राजा और सामन्त होते थे, नायक और सैनिक होते थे, जमीन्दार और मजदूर होते थे, तपस्वी और गृहस्थ होते थे, विद्वान और मूर्ख होते थे, रससिद्ध रसिक और रस का आधार होता था, जोगी और भोगी होता था--इनसान में दरिन्दा और खूँखार जानवर में विवेक का वास नहीं होता था, चेहरे और मन में द्वन्द्व नहीं दिखता था। इसीलिए साहित्य में या तो वीरों, ईष्ट देवी-देवताओं, राजाओं और रूप की मल्लिकाओं की अभ्यर्थना होती थी; या कायरों, धोखेबाजों, पापियों, छली प्रेमियों और धूर्त्त प्रेमिकाओं की भत्स्र्ना होती थी। कुछ छिट-पुट सामाजिक आहार-व्यवहार की भी बातें हो जाती थीं। पर भक्ति आन्दोलन के बाद से विभिन्न भाषा के साहित्य में जनता के जिस मोहभंग का दृश्य सामने आने लगा, उसमें समाज के आम जनजीवन की विकृतियों को पर्याप्त स्थान मिला। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, या यूँ कहें कि सन् 1857 के संग्राम के बाद, संचार माध्यमों और देश की साहित्यिक कृतियों में आम जनता का दुःख दर्द ज्यादा उभरने लगा। संवाददाताओं, सम्पादकों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों की नजर में राजाओं, सामन्तों, जमीन्दारों, शासकों, पूँजीपतियों के करतब घृणा-भाव से और आम जनता की जीवन-प्रक्रियाएँ संवेदना-भाव से दर्ज होने लगीं। जाहिर है कि आम जनजीवन त्रासदियों से भर चुका था, जिसने सृजनधर्मियों को व्यग्र और व्यथित कर दिया। व्यंग्य का उद्भव इन्हीं व्यग्रताओं और व्यथाओं से हुआ। पहले तो यह व्यंग्य, कविताओं, कहानियों, उपन्यासों, नाटकों में ही चलता रहा, पर रचनाकारों को यह लगने लगा कि वे इन विधाओं के आन्तरिक शिष्टाचारों के निर्वाह के साथ-साथ अपने व्यंग्य को पूरी तरह तीक्ष्ण नहीं बना पा रहे हैं, तब उन्होंने निबन्ध में अपने लिए जगह बनाई और निबन्धात्मक रूप में व्यंग्य खूब फला-फूला। इसलिए हम कह सकते हैं कि कथा तत्त्व की सारी उपस्थिति के बावजूद आज का व्यंग्य साहित्य, ललित निबन्ध का रिश्तेदार अपेक्षाकृत ज्यादा लगता है। यहाँ व्यंग्यकारों को कथा-तत्त्व की सीमा तोड़ने की छूट पर्याप्त रहती है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भारतीय साहित्य में व्यंग्य को अपने विकास का अवसर ज्यादा हाथ लगा। ऐसे में व्यंग्यकारों का कर्तव्य बनता है कि वे उन कुकर्मियों का आभार मानें, जिनके कारण उन्हें यह अवसर हाथ लगा। बहरहाल...  
महाराष्ट्र का जो जनपद आज है, वहाँ प्रारम्भ से ही विद्रूपताओं का अम्बार नजर आया है। ऐतिहासिक संग्राम हो चाहे सामाजिक संघर्ष, धार्मिक पाखण्ड हो चाहे जातीय विसंगतियाँ, आर्थिक अपराध हो चाहे आपराधिक राजनीति, व्यापारिक दुष्कर्म हो चाहे दैहिक-भौतिक पापाचार...इन सबके उदाहरण वहाँ ढूँढने में कोई श्रम करने की आवश्यकता नहीं होगी। साहित्येतिहास साक्षी है कि किसी भाषा में साहित्यिक आन्दोलन की उग्रता वहाँ की सामाजिक परिस्थितियों के कारण ही भड़की है। साहित्य की सबसे अधिक प्रभावकारी और सम्प्रेषणीय विधा नाटक है। प्रदर्शनकारी विधा हर स्थिति में सम्प्रेषणीय होगी और आज तमाम भारतीय साहित्य में मराठी नाटक सबसे आगे है, तो उसका मूल कारण वहाँ की सामाजिक परिस्थितियाँ ही हैं। जाहिर है कि व्यंग्य भी इन्हीं परिस्थितियों में फला फूला। तुकाराम, नामदेव, ज्ञानेश्वर, ज्योतिबा फुले...आदि महान व्यक्तियों का जीवन-यापन भी अपनी तरह का एक व्यंग्य ही है। ऐसे में यदि कोई श्रेष्ठ कहानीकार व्यंग्य लिखना शुरू करे, तो जाहिर है कि उसमें चार चाँद लगेगा। और यही चार चाँद मराठी के श्रेष्ठ कथाकार गंगाधर गाडगिल ने अपने व्यंग्य में लगाया है। खिंचाइयाँशीर्षक से उनके पचीस व्यंग्य लेखों का संकलन अभी-अभी हिन्दी में प्रकाशित हुआ है।
गंगाधर गाडगिल का जन्म 25 अगस्त 1923 को मुम्बई में हुआ। सन् 1941 से उनका लेखन में प्रवेश हुआ। वे कई पुरस्कारों के सम्मानित हुए। उनका शुमार उन गिने-चुने रचनाकारों में होता है जिन्होंने मराठी कहानी को नई चेतना से भर दिया, उसे अन्तर्बाह्य परिवर्तित कर कुण्ठा से मुक्त किया। प्रसिद्ध आलोचक गो. मा. पवार के शब्दों में कहें तो उन्होंने ही परम्परागत अनुभव, सीमित कथ्य, रूढ़ अभिव्यक्ति संकेत, घिसी-पिटी भाषा में आबद्ध मराठी कहानी में नई चेतना जाग्रत कर उसे अन्तर्बाह्य परिवर्तित किया...।उन्होंने अपने उपन्यास, नाटक, यात्रा-वर्णन आदि विधाओं में भी अपने विलक्षण रचना-कौशल और शैली का परिचय दिया है। बण्डूसीरीज में पहले वे हास्य कहानियाँ लिखा करते थे। एक लम्बे अन्तराल के बाद फिरकीसिरीज में व्यंग्य लिखना शुरू किया। सन् 1975 में उनका फिरकीलेखन सोबत’ (साप्ताहिक) में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ जो संकलित होकर बाद के वर्षों में फिरकी (1976), बाबूजी का तरबूज और बिटिया का स्वेटर (1979), हम अपने उल्लू के पट्ठे (1991) में प्रकाशित हुआ।
पूरे भारतवर्ष की सभी भाषाओं में हास्य और व्यंग्य अव्ययवाची पद माने जाते हैं--पर यह सच नहीं है। हास्य विकृति से उत्पन्न होता है जबकि व्यंग्य विडम्बना से। हास्य में फूहड़पन होता है, व्यंग्य में गाम्भीर्य। हँसाने का काम पहले संस्कृत नाटकों में विदूषक किया करते थे, सामाजिक पंचायत में भाँड़-मिरासी और अब, सर्कस में जोकर तथा मंचों पर हिन्दी में कुछ ऐसे कवि पैदा हुए हैं जो जनता की तालियाँ और आयोजकों के पैसे लूटने के लिए अपनी पत्नी और प्रेमिका के एकान्त पक्षों पर फिकरा जोड़कर मध्यकालीन मिरासियों की तरह आते हैं। इस तरह अब हास्यशब्द साहित्य में अश्लील हो गए हैं, जिसे अव्ययवाची पूरक की तरह व्यंग्यके साथ लिखा देखकर तकलीफ होनी चाहिए।
इन दिनों हास्य-व्यंग्य के बीच की विभाजक रेखा धूमिल हो गई है। इसका कारण सामाजिक जीवन की जटिलता है। जिन विडम्बनाओं, पाखण्डों, प्रपंचों, धोखा और फरेबों का शिकार स्वातन्त्र्योत्तर काल का भारतीय जनपद हुआ है, उनमें हास्य के सूत्रों की तलाश बेमानी है। चतुर्दिक व्यंग्य के दृश्य ही परिलक्षित होते हैं, महत्त्वपूर्ण होते हैं। मराठी में गंगाधर गाडगिल सहित अन्य रचनाकारों एवं अन्य भाषाओं के समकालीन रचनाकारों ने भी ऐसी स्थितियों में अपने व्यंग्य की धार ऐसी बनाईं कि वे कुछ हँसाएँ भी, कुछ चौंकाएँ भी। क्योंकि हँसना एक तरफ तन, मन और मस्तिष्क स्वस्थ रखने के लिए जरूरी है, तो दूसरी तरफ व्यंग्य में उतरने में सहायक होता है। बण्डूशृंखला का गंगाधर गाडगिल का कथालेखन ऐसा ही लेखन है, जिसे मराठी के पाठकों और आलोचकों ने व्यंग्यात्मक कहानी शैलीका कहने के बावजूद और अन्तर्बाह्य परिवर्तन लानेवाला कहने के बावजूद अन्ततः हास्य-लेखन ही कहा। किन्तु तथ्यतः अपनी उन रचनाओं में लेखक अपने पाठकों के लिए कुनैन पर चीनी की लेप लगा रहे थे और पचीस-तीस वर्ष बाद जब कोरा कुनैन खिलाने वाली शृंखला पर आए, अर्थात फिरकीसीरीज पर, तो सीधे-सीधे गम्भीर वहाँ व्यंग्य दिखने लगे।
फिरकीशृंखला में लिखी गई व्यंग्य रचनाओं के इस संकलन का नाम खिंचाइयाँबड़ा ही सार्थक नाम है। वस्तुतः रचनाकारों की यह बड़ी सही समझ है कि गिद्ध होते राजनीतिज्ञ, भेड़िए होते पड़ोसी, बाज होते रिश्तेदार, भक्षक होते रक्षक को बम-पिस्तौल-लाठी-तलवार या अन्य किसी दण्ड-विधान के बजाय साहित्य के सहारे सुधारा जा सकता है, उसका हृदय परिवर्तन किया जा सकता है, उन्हें अज्ञान के अन्धकार से निकालकर ज्ञान की ज्योति में बैठाया जा सकता है। व्यंग्य उसमें सबसे शानदार तरीका है, बिना साबुन-पानी के मनुष्य को धो देता है, ‘खिंचाईके जरिए धो देता है, ‘खिंचाईसे हर कोई बचना चाहता है। गंगाधर गाडगिल का व्यंग्य इसी खिंचाई के जरिए अपने समय के लोगों को धोता है।
शिक्षण संस्थान से लेकर, सास-बहू की दिनचर्या तक; अध्यापक-अध्यापिकाओं की चर्या-पुनश्चर्या से लेकर कालेज की लड़कियों की मटरगस्ती तक; खेल के मैदान की लफ्फजाजी से लेकर संगीत सभा की बेवकूफी तक; पीढ़ी के द्वन्द्व और अन्तराल से लेकर सामाजिक विसंगतियों तक; राजनीतिक पाखण्ड और मूर्खताओं से लेकर सफरनामे की मूढ़ता तक; मेहमाननबाजी के ढोंग से लेकर आधुनिकता की चकाचौंध में मौजूद वाहियात हरकतों तक को गाडगिल ने अपने इन व्यंग्यों में बड़े सधे हुए निशानेबाज की तरह अपना शिकार बनाया है।
कहानी और व्यंग्य लेखन में जो एक खास फर्क इधर के कुछ वर्षों में स्पष्ट हुआ है, वह यह कि कहानी का चरम, कहानी का मर्म अन्त में जाकर खुलता है, मर्म खुलने से पूर्व उसमें बुनावट रहती है, चरित्र और परिस्थिति को सूक्ष्मता से अथवा स्थूलता से बुना जाता है, आकर्षण भले ही पूरी कहानी में बना रहे पर मर्म का खुलासा अन्त में ही होता है। पर व्यंग्य में सामान्यतया ऐसा नहीं होता। कथा सूत्र उसका सहारा भर रहता है, उसकी हरेक पंक्ति महत्त्वपूर्ण होती है। व्यंग्य में वाक्य संरचना, शब्द चयन और पूरे निबन्ध का फ्रेम बड़ा अहम होता है। ये सब मिलकर ही उसे उत्कर्ष देते हैं। कहानी का सारांश, उसकी आत्मा, उसके घनत्व का बखान किया जा सकता है। कहानी की संरचना निकाल लेने पर भी कथ्य में थोड़ी जान बची रह जाती है, व्यंग्य में ऐसा नहीं होता। उसकी संरचना ही उसका कथ्य होती है, उसका सारांश नहीं किया जा सकता। इस अर्थ में ऐसा सम्भव है कि कोई-कोई कहानी व्यंग्य का भी उत्तम उदाहरण हो, जैसा कि अक्सर गंगाधर गाडगिल के कुछ व्यंग्य, मोटे तौर से मुकम्मल कहानी भी लगते हैं। बीवी का बर्थ-डे, शौहर की शामत’, ‘मैं और ग्रीस की राजकुमारी’, ‘विदेश मन्त्रलय: मेरे कुछ और कारनामेआदि ऐसी ही रचनाएँ हैं।
एक बात अलग से कहने की आवश्यकता है कि मराठीभाषी क्षेत्र और जनता के आहार-व्यवहार एवं जीवन-प्रक्रिया में व्यंग्य की पर्याप्त गुंजाइशें रहती आई हैं, लेकिन व्यंग्य की परम्परा अपेक्षाकृत अन्य भारतीय भाषाओं के, खास कर हिन्दी की तुलना में नई भी है और कमजोर भी। पारम्परिक मराठी प्रहसनों, लोक-नाट्यों, लीला चरित्रों से ही प्रारम्भ में काम चलता रहा। बाद में श्रीपाद कृष्ण कोल्हटकर, चिं. वि. जोशी, पु.ल. देशपाण्डे, द.मा.मिरासदार आदि ने इस दिशा में प्रयास किया, पर उनका प्रयास हास्य तक सीमित रह गया। व्यंग्य की तल्खी तो वस्तुतः गाडगिल के यहाँ ही दिखाई पड़ी। यद्यपि द.मा.मिरासकर ने व्यंग्य की तीक्ष्णता को भरपूर ताकत दी है। इन अर्थों में गाडगिल की देन मराठी व्यंग्य के लिए और भी महत्त्वपूर्ण होती है, क्योंकि उन्होंने राह की सफाई भर ही नहीं की, राह बनाई भी, और वह भी इस कदर कि परवर्ती काल के मराठी व्यंग्यकारों के लिए वह राजमार्ग बन गया।
हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक कन्हैयालाल नन्दन ने गाडगिल के व्यंग्य पर बड़ी ऊँची तालियाँ बजाई हैं। मराठी साहित्य में यह बात भले ही सच हों, पर हिन्दी व्यंग्य की समकालीन उपलब्धि के बरक्स यह नहीं थमता। कोई-कोई निबन्ध तो दबाव में, धारावाहिक लेखन की मजबूरी की तरह के लगता है। पर, उनमें भी भाषा की रवानगी, संरचनात्मक कौशल और दृष्टि का पैनापन ऐसा है कि उसकी जान बचा लेता है। गाडगिल के व्यंग्यों की दो खास बात और है--पहला कि उनके व्यंग्य में जनजीवन का कोई भी खण्ड अछूता नहीं रहता, और दूसरा कि अपने व्यंग्य को उत्कर्ष देने हेतु खिंचाई में वे किसी को नहीं बख्शते। उनके पूरे व्यंग्य लेखन से जो ठोस बात सामने आती है, वह यह कि घनीभूत जीवन, आहार-व्यवहार और नेत-नियम का घनत्व उनके लिए बहुत मायने रखता है, जीवन की कई फिजूल हरकतों, जीवन प्रक्रिया के आडम्बरों की खिंचाइयाँ उनके तमाम व्यंग्यों में मौजूद हैं। शायद प्रभावित और प्रभावी जन को इससे कुछ शिक्षा मिले और वे अपने को उन आडम्बरों से निकाल पाएँ! उनके द्वारा किए गए चरित्र-वर्णन और स्थिति-वर्णन से आहत होकर तो कोई जानवर भी अपनी आदतें सुधार ले। वर्णन में तुलना करते हुए वे जैसा साम्य और विरोधाभास दर्शाते हैं, अचानक वह चुभ-सा जाता है। स्थितियों और चरित्रों के चित्रण की मौलिकता और तथ्यात्मकता इतनी प्रामाणिक मिलती है कि सारा कुछ निजी भोग की तरह प्रतीत होता है। बेहतरीन अनुवाद भी इन व्यंग्यों की बेहतरी का एक आधार है। सारा कुछ सही रहने के बावजूद, यदि अनुवाद घटिया हुआ होता तो वह ले डूबता। पर इस संकलन के उत्कर्ष के लिए अनुवादिका (रेखा देशपाण्डे) भी बराबर की हकदार हैं।
समय के दंश की जीवन्त गाथा, इण्डिया टुडे
खिंचाइयाँ/गंगाधर गाडगिल/अनुवाद: रेखा देशपाण्डे/भारतीय ज्ञानपीठ/मू.150.00/ पृ.228.

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