Sunday, April 12, 2020

नायि‍का-भेद





नायिका-भेद

शृंगार रस में नायिका का विशिष्ट महत्त्व होता है। इसका कोशीय अर्थ अभिनेत्री, प्रेमिका, युवती, शृंगारी स्त्री, आगे ले जाने वाली, राह दिखाने वाली, नायक की पत्नी तथा वैसी स्त्री होता है, जिसका वर्णन किसी काव्य में हो। नाटक उपन्यास आदि साहित्यि विधाओं की प्रमुख पात्रा को; रूप-रस-यौवन से सम्पन्न स्त्री को नायिका कहा जाता है। सहित्य में नायिका के कई भेद वर्णित हैं। काव्य-रचना और नायक-नायिका सम्बन्धी समस्त अध्ययनों में नायक की अपेक्षा नायिका का महत्त्व प्रारम्भ से ही अधिक है। कारण सम्भवत: भावना के क्षेत्र में पुरुष की अपेक्षा नारी का अधिक संवेदनशील होना हो सकता है। काम-शास्त्र के सन्दर्भ में इसका सम्बन्ध आधुनिक मनोविज्ञान से भी है कि काम-भावना में नारी की स्थितियाँ और प्रतिक्रियाएँ अधिक वैविध्यपूर्ण होती हैं। यही कारण है कि इस विषय के अन्तर्गत नायिका-भेद का विस्तार अत्यधिक है।

इस क्षेत्र में कवियों, आचार्यों ने अपनी विवेचनात्मक शक्ति और काव्यात्मक प्रतिभा का विराट परिचय दिया है। हिन्दी साहित्य के रीति काल के अन्तर्गत नायिका-वर्णन का पूरा काव्य स्वतन्त्र रूप से विकसित हुआ। अधिकांश काव्य-ग्रन्थों का उद्देश्य नायिका-भेद प्रस्तुत करना हो गया। विस्तार तथा महत्त्व की दृष्टि से साहित्य में नायिका-भेद प्रधान है। हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में नायक-नायिका-भेद सम्बन्धी सम्पूर्ण काव्य नायिका-भेद के नाम से ही जाना जाता है।

जन्मजात रूप, गुण, वय, प्रतिभा, कौशल, कुल-वंश-पेशा, आचरण आदि के आधार पर इन सभी नायिका-भेदों के उपभेद भी आचार्यों ने गिनाए हैं। सभी उपभेदों को मिलाकर लगभग एक हजार बावन तरह की नायिकाएँ बताई गई हैं। नैसर्गि एवं जैवि विशेषताओं के अनुसार नायिका के चार भेद हैं पद्मिनी, चित्रिणी, शंखिनी, हस्तिनी। सदैव पद्म-सौरभ से सुवासि‍त श्रेष्ठ नायिका पद्मिनी; कला-निपुण, शृंगार में अधि‍क आसक्‍ति‍ रखनेवाली चित्रिणी; कामकला निपुण नायि‍का शंखिनी और हथिनी जैसे स्वभाव की कामातुरा स्त्री, वारांगना हस्तिनी कहलाती है। कि‍न्‍तु इस वर्गीकरण में कोई वैवि‍ध्‍य नहीं है, और यह चर्चि‍त भी नहीं है। सामाजिक मूल्यों पर आधारित नायक के साथ सम्बन्ध के अनुसार सर्वचर्चि नायिका-विवेचन में तीन कोटियों स्वकीया, परकीया, सामान्या -- का उल्लेख होता है; यद्यपि संस्कृत साहित्य में इसके कई अन्य रूप बताए गए हैं।

परिस्थिति के अनुसार नायिकाओं की तीन कोटि है ‍– गर्विता, अन्यसम्भोगदु:खिता, मानवती। अपने रूप-गुण और नायक का अपने प्रतिसम्मोहन से गौरवान्वि नायिका गर्विता; अन्य स्त्री के तन पर अपने प्रियतम के प्रीति-चिह्न से व्यथित नायिका अन्यसम्भोगदु:खिता और अन्य स्त्री पर आकर्षित अपने प्रियतम के अभि‍ज्ञान से ईर्ष्या और मान करने वाली नायिका मानवती कहलाती है।

निजी दशा के अनुसार दस प्रकार की नायिकाओं का उल्लेख होता है स्वाधीनपतिका, वासकसज्‍जा, उत्कण्ठिता, अभिसारिका, विप्रलब्धा, खण्डिता, कलहान्तरिता, प्रवत्स्यत्प्रेयसी, प्रोषितपतिका (प्रोषितभर्तृका) , आगतपतिका (आगतभर्तृका)। पति को अपने वश में रखनेवाली नायिका को स्वाधीनपतिका; प्रि-मिलन की सुनिश्चितिजानकर वासक (सुगन्धि एवं वस्त्रादि)‍ से सुसज्‍जि‍त होकर नायक की प्रतीक्षा करनेवाली को वासकसज्‍जा; प्रि‍य-मि‍लन के लि‍ए बेचैन, संकेति‍त स्‍थल पर प्रि‍य के न मि‍लने से चि‍न्‍ति‍त रहनेवाली को उत्कण्ठिता; प्रि‍य-मि‍लन के लि‍ए नि‍र्दि‍ष्ट स्‍थान पर जानेवाली परकीया नायि‍का को अभिसारिका कहते हैं। इस नायि‍का में अपनी यात्रा को गोपनीय रखने के भाव प्रमुख होते हैं। इसके कई भेद होते हैं कृष्‍णाभि‍सारि‍का, शुक्‍लाभि‍सारि‍का, दि‍वाभि‍सारि‍का, पावसाभि‍सारि‍का आदि‍। कृष्‍ण पक्ष की अन्‍धेरी रात में प्रि‍य-मि‍लन के लि‍ए जानेवाली को कृष्‍णाभि‍सारि‍का; शुक्‍ल पक्ष की चाँदनी रात में प्रि‍य-मि‍लन के लि‍ए जानेवाली शुक्‍लाभि‍सारि‍का; दि‍न में प्रि‍य-मि‍लन के लि‍ए जानेवाली को दि‍वाभि‍सारि‍का; वर्षा ऋतु की अन्‍धेरी रात में प्रि‍य-मि‍लन के लि‍ए जानेवाली को पावसाभि‍सारि‍का कहते हैं। संकेति‍त स्‍थान पर प्रि‍य के न मि‍लने से दुखी नायि‍का विप्रलब्धा; अपने नायक में कि‍सी अन्‍य स्‍त्री के साथ रमण करने के चि‍ह्न देखकर कुपि‍त हुई नायि‍का खण्डिता; कलह के कारण पति‍ या नायक का अपमान कर लेने के बाद अपने आचरण पर पछतानेवाली नायि‍का कलहान्तरिता कहलाती है। ऐसी नायि‍का के वर्णन में मनोव्‍यथा, पीड़ा, वि‍ह्वलता, पश्‍चाताप आदि‍ का वर्णन होता है। जिस नायि‍का का नायक परदेश जानेवाला हो, उसे प्रवत्स्यत्प्रेयसी; जि‍सका पति‍ या नायक परदेश (परदेश गए हुए को प्रोषित कहा जाता है) चला गया हो, उसे प्रोषितपतिका (प्रोषितभर्तृका); और जि‍सका पति‍ परदेश से लौट आया हो, उसे आगतपतिका, (आगतभर्तृका) कहते हैं।

प्रकृति-भेद के अनुसार -- उत्तमा, मध्यमा, अधमा -- तीन प्रकार की नायिकाओं का उल्लेख है। अग्निपुराण में -- स्वकीया, परकीया, सामान्या, पुनर्भू चार प्रकार की नायिकाओं का वर्णन है। आगे के कुछ आचार्यों ने पुनर्भू को मान्यता नहीं दी। आचार्य भरत ने यह वर्गीकरण -- कन्यका, कुलजा तथा वेश्या में; वाग्भट तथा केशव मिश्र ने -- अनूढा, स्वकीया, परकीया, पणांगना में कि‍या; नाट्यदर्पण में यह वर्गीकरण -- कुलजा, दिव्या, क्षत्रिया तथा पण्यकामिनी में कि‍या गया। उल्लेख सुसंगत होगा कि स्वकीया और पतिव्रता नायिका की मूल अर्थ-ध्वनि एक होने के बावजूद पारम्परिक मान्यताओं के अनुसार पतिव्रता की ध्वनि थोड़ी अलग है। पर कुछ आचार्यों ने इनमें एक वैशिष्ट्य अलग से जोड़ा कि पतिव्रता नायिका अपने पति पर क्रोध नहीं करती। सम्भवत: यही कारण हो कि समाज में सदैव से रही पतिव्रता नायिका की धारणा का समावेश नायिका-भेद में नहीं किया गया।

अपने पति मात्र से प्रेम करनेवाली विवाहिता स्त्री स्वकीया कहलाती है; जबकि गुप्त रूप से पर पुरुष से प्रेम करनेवाली स्त्री परकीया। स्‍पष्‍टत: कुलजा (कुलवधू) और दिव्या (लोकोत्तर गुणों से युक्त) स्वकीया नायि‍का होंगी। कन्यका (कुँआरी कन्या, अविवाहि स्त्री), अनूढ़ा (अवि‍वाहि‍त युवती, स्‍त्री) परकीया होंगी। सामान्‍या, वेश्‍या, पणांगना, पण्यकामिनी की कोटि‍ एक ही होगी। क्षत्रिया (क्षत्रिय कुल की स्त्री) का समावेश स्वकीया, परकीया, सामान्या, पुनर्भू कि‍सी में हो सकता है।

उम्र के अनुसार स्वकीया के तीन भेद कि गए हैं -- मुग्धा, मध्या तथा प्रगल्भा (प्रौढ़ा)। कुछ आचार्यों ने परकीया के वर्गीकरण में भी इसका उपयोग किया।

शरीर में यौवन के नवसंचार से युक्‍त सरल स्वभाव वाली लज्जाशील, अपनी रति-भावना से परिचित, अपने ही गुण पर मोहित, सहजता से नायक के प्रति अनुरक्त होनेवाली, भोली और सुन्दर स्‍त्री मुग्धा कहलाती है। परकीया की स्‍थि‍ति‍ में अनूढ़ा के लिए भी इसका उपयोग होता है। यह वर्गीकरण उम्र के क्रम और नायिका की लज्जाशीलता के अनुपात पर किया जाता है। उल्लेखनीय है कि अवस्था विशेष में नारी में आकस्मिक परिवर्तन परिलक्षित होने लगते हैं; उस परिवर्तन का मनोरम वर्णन कई कवियों ने किया है। मुग्धा रूप में राधा का मनोहारी वर्णन विद्यापति और सूरदास के यहाँ दिखता है। प्रकृति-वर्णन करते हुए मुग्धा नायिका का भाव-आरोपण छायावादी कवियों ने विलक्षण ढंग से किया है। नायिका की यह अवस्था रीतिकालीन कवियों के यहाँ विशेष आकर्षण का वि‍षय है। मुग्ध शब्द का अर्थ होता है स्तब्ध, मूढ़, भ्रमित, विभ्रान्त तथा सुन्दर। मुग्धा नायिका में इन समस्त गुणों का समावेश माना गया है। अंकुरित यौवन एवं रूप की विशिष्टता के आधार पर मुग्धा के चार भेद बताए गए हैं अपने यौवनागम से अनभि‍ज्ञ नायि‍का को अज्ञातयौवना कहते हैं। यह स्‍थि‍त वय:सन्‍धि‍में आती है। ऐसी नायि‍का के शारीरि‍क वि‍कास का वर्णन कि‍या जाता है। अविदितयौवना, अविदितकामा भी इसी कोटि‍ में है। अपने तारुण्य के आगम का भरपूर ज्ञान रखनेवाली को ज्ञातयौवना कहते हैं। यह वय:सन्‍धि के बाद की स्‍थिति ‍होती है। इसमें नायि‍का के भावावेग का चि‍त्रण होता है। इसे विदितकामा या नवयौवना भी कहते हैं; अर्थात्, वह स्‍त्री, जि‍सकी जवानी चढ़ान पर हो, और उसे इस बात का ज्ञान भी हो। जि‍स नववि‍वाहि‍त स्‍त्री, युवती पर कामावेग का वसंचार हुआ हो, लज्‍जा और भय के कारण नायक के नि‍कट जाने में सकुचाती हो, उसे नवोढ़ा कहते हैं। इस नायि‍का को नवल-वधू या नवल अनंगा भी कहते हैं। अपने नायक पर गहन वि‍श्‍वास रखनेवाली, लज्‍जाशीलता और भयप्रीति ‍के कारण अपने नायक के नि‍कट जाने में सकुचानेवाली नववि‍वाहि‍ता भी इसी कोटि‍के अन्‍तर्गत आती है। इसे विश्रब्ध नवोढा कहते हैं। लज्जावती, लज्‍जाप्राया या सलज्‍जरति नायि‍का की गणना भी इसी कोटि‍ में होती है। ऐसी नायि‍का में लाज-संकोच का भाव बहुत रहता है। रति‍रत अवस्‍था में भी कि‍सी सीमा तक लजाती रहती है। नायक के नि‍कट रहने पर लज्‍जा होती है और अलग रहने पर मि‍लन की लालसा बलवती हो उठती है। विदित मनोभव (कामदेव), अर्थात्, प्रकट कामासक्‍ति‍वाली नायि‍का वि‍दि‍त मनोभवा कहलाएगी; नवोद्भूत कामासक्‍ति‍वाली स्‍त्री को नवमदना; उन्‍मत्त कामावेगवाली स्‍त्री को मदनमत्ता कहते हैं। वि‍नय और वि‍श्‍वास से परि‍पूर्ण नायि‍का सप्रश्रया कहलाती है। सुन्‍दर और कामि‍नी स्‍त्री ललिता कहलाती है; बाल्‍यावस्‍था पारकर तरुणाई की उम्र में प्रवि‍ष्‍ट नायि‍का वयःसन्धि और अपने यौवनोदय से मुग्ध नायि‍का उदितयौवना। इस सूची में कई और उपभेद शमि‍ल हैं -- अपने रूप-गुण के समग्र प्रभाव से जवान होती हुई नायि‍का को सकल तारुण्‍या कहते हैं। जि‍नके यौवन के चि‍ह्न प्रकट हो चुके वह आकृतयौवना या अंकुरितयौवना और नवधा-भक्‍ति‍ में भक्‍त की तरह नायक के गुण-वैशि‍ष्‍ट्य के श्रवण, कीर्तन, स्‍मरण, सहवास-सेवन, अर्चन, वन्‍दन, दास्‍य, सख्‍य और आत्‍मनि‍वेदन में प्रसन्‍न रहनेवाली प्रेमासक्‍त नायि‍का नवधा कहलाती है आभूषणों में अति‍रि‍क्‍त रुचि‍रखनेवाली को भूषणरुचि; रति‍क्रीड़ा की इच्‍छुक स्‍त्री को रतिवामा कहते हैं। कुछ आचार्यों ने मुग्‍धा का वर्गीकरण -- प्रथमावतीर्णयौवना, प्रथमावतीर्णमदनविकारा, रतौ वामा, मानमृदु, समधिकलज्जावती के रूप में कि‍या है। यौवन के प्रथम आगमन से अभि‍भूत नायि‍का को प्रथमावतीर्णयौवना; मदन-भाव के प्रथम आगमन से अभि‍भूत नायि‍का को प्रथमावतीर्णमदनविकारा; रति‍क्रि‍या में मनोहारिणी, भ्रूविलासि‍नी सुन्‍दरी, रमणी को रतौ; परि‍स्‍थि‍ति‍वश मृदुल क्रोध से मान करनेवाली स्‍त्री को मानमृदु; और अत्‍यधि‍क लजानेवाली स्‍त्री को समधिकलज्जावती कहेंगे। प्रि‍या या पत्‍नी को कान्ता और कामवेग का अनुभव करनेवाली कामनायुक्त सुन्दर स्‍त्री को कामिनी कहेंगे।

लज्‍जा और काम की मध्य स्थिति को प्रमुखता देनेवाली स्‍त्री को अधिकांश आचार्यों मध्या नाम दिया है 'समानलज्जामदनेत्यभिहिता' अर्थात् जि‍स नायिका में कामावेग और लज्जा समान रूप से होये अतिविश्रब्धनवोढा भी होती हैं। प्ररूढ़ यौवना, प्ररूढ़ स्मरा, विचित्रसुरता या सुरत-विचित्रा, ईशत्प्रगल्भवचना, मध्यम व्रीडिता, धीरा, धीराधीरा, अधीरा, अनंगवती, इच्छावती, उद्भट यौवना, प्रोषितपतिका अथवा प्रोषितभर्तृका की गणना इसी कोटि‍ में होती है। यौवन से भरी हुई वि‍कसि‍त वक्षवाली नायि‍का प्ररूढ़ यौवना; अपनी प्ररूढ़ावस्‍था को स्‍मरण कर मुग्‍ध और क्रि‍याशील स्‍त्री को प्ररूढ़ स्मरा; वि‍स्‍मि‍त, चकि, विलक्षण केलिक्रीड़ा करनेवाली को विचित्रसुरता या सुरत-विचित्रा; वर्चस्वपूर्वक प्रगल्भ वचन बोलने वाली अत्‍यधि‍क विश्वस्नायि‍का को ईशत्प्रगल्भवचना; प्रौढ़ता एवं व्रीड़ा (लाज, संकोच, विनम्रता) के बीच की स्थितिवाली को मध्यम व्रीडिता; व्‍यंग्य वचन से अपने क्रोध प्रकट करनेवाली को धीरा; रोदन और मुख-मुद्रा से क्रोध प्रकट करनेवाली को धीराधीरा; नायक में पर-स्त्री-संयोग के निशान पाकर अधीर, कुपित, उद्विग् और व्याकुल हो जानेवाली और उग्रता से क्रोध दि‍खानेवाली को अधीरा कहते है। अनंगवती, इच्छावती, उद्भट यौवना, प्रोषितपतिका भी इसी कोटि‍ में आती है। जि‍स नायि‍का पर उग्रता से अनंग (कामदेव) सवार हो, अर्थात्, कामावेग में हो, उसे अनंगवती कहते हैं। अनंगवती का अर्थ कामि‍नी स्‍त्री होता हैकेलि‍क्रीड़ा की कामना से भरी हुई नायि‍का इच्छावती; प्रचण्‍ड और असाधारण यौवन से परि‍पूर्ण नायि‍का उद्भट यौवना कहलाती है।

प्रगल्भ का अर्थ होता है कुशल, दक्ष, प्रतिभा-सम्पन्न, अर्थात जिसकी बुद्धि अवसर के अनुसार काम कर जाए, जो प्रत्युत्पन्नमति हो, साहसी हो, स्पष्ट बोलने में जिसे संकोच हो। वैसे इसका नकारात्मक अर्थ उद्दण्ड, उद्धत, निर्लज्ज, अभिमानी भी होता है; पर नायिका-भेद पर बात करते हुए इन अर्थ-ध्वनियों की उपेक्षा उपयुक्त होगी। इस अर्थ में अपनी दक्षता, सौन्दर्य एवं प्रेमासक्ति पर पूर्ण विश्वास करनेवाली, अपनी भावनाओं एवं क्रीड़ासक्ति की अभिव्यक्ति‍ में मुखर, चतुर, कुशल और नि:शंक नायिका प्रगल्भा कहलाएगी। प्रगल्भा के दो रूप होते हैं -- रतिप्रीतिमती तथा आनन्दसम्मोहिता। धीरा, धीराधीरा, अधीरा का उल्‍लेख प्रगल्‍भा के लि‍ए भी होता है। इसके अलावा स्मरान्धा, गाढ़तारुण्या, समस्तरकोविदा, भावोन्नता, स्वल्पव्रीड़ा, आक्रान्ता की चर्चा भी इसमें होती है। हर प्रकार की रतिकला में निपुण, अल्‍प-लज्जा किन्तु प्रचुर काम-वासना सम्‍पन्‍न तीस से पचास वर्ष तक की आयु की स्‍त्री प्रौढ़ा कहलाती है ऐसी स्‍त्री के लि प्रगल्भा शब् भी प्रयुक् होता है। इसे केलि‍कलाकलापकोवि‍दा भी कहते हैं; अर्थात् केलि‍ की समस्‍त कलाओं में प्रवीण। वि‍भि‍न्‍न आचार्यों द्वारा दी गई परि‍भाषाओं के अनुसार ऐसी नायि‍का स्वकीया ही होनी चाहि‍ए, कि‍न्तु वय और गुण के अनुसार कई परकीया भी ऐसी होती हैं। ऐसी नायि‍का के लि‍ए रति‍प्रीता, आनन्‍दसम्‍मोहि‍ता, समस्‍तरसकोवि‍दा, वि‍चि‍त्रवि‍भ्रमा, भावोन्‍नता, आक्रान्‍ता, लुब्‍धापति‍, लब्‍धापति‍ संज्ञाओं का भी उपयोग होता है।

ग्‍यारह से पन्‍द्रह वर्ष की आयु की कन्‍या किशोरी कहलाती है कुछ आचार्यों ने उम्र के आधार पर वर्गीकृत कर सात वर्ष तक की आयु की बालिका को देवी, सात से चौदह वर्ष तक की आयु की किशोरी को देवगन्धर्वी, चौदह से इक्कीस वर्ष तक की आयु की युवती को गन्धर्वी, इक्कीस से अट्ठाइस वर्ष तक की आयु की युवती को गन्धर्वमानुषी, अट्ठाइस से पैंतीस वर्ष तक की आयु की स्त्री को मानुषी कहा है। एक दूसरे आचार्य ने दस वर्ष तक की आयु की बालिका को गौरी, सवा बारह से साढ़े चौबीस वर्ष तक की आयु की युवती को लक्ष्मी और पैंतीस वर्ष तक की आयु की स्त्री को सरस्वती माना है। स्वकीया नायिका का विभाजन कुछ आचार्यों ने दुखिता के अन्तर्गत किया है -- मुधापति (नि‍रर्थक पति‍) दुखिता, बालपति दुखिता, वृद्धपति दुखिता, नपुंसकपति दुखिता। अनभिज्ञ नायक के समान इन नायिकाओं को भी रस का आलम्बन नहीं माना गया; क्योंकि यहाँ रति का अभाव है। स्पष्ट है कि स्वकीया नायिका सदैव विवाहिता ही होगी; इसलिए ऊढ़ा और अनूढ़ा को स्वकीया का भेद नहीं माना जा सकता, वह सदैव परकीया ही होगी।

सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर नायिका का दूसरा भेद परकीया है। परपुरुष से प्रेम सम्बन्ध स्थापित करनेवाली स्‍त्री परकीया नायिका कहलाती है। परकीया नायिकाओं को कवि‍यों ने विशेष गौरव दिया है, इसका कारण सम्‍भवत: यह हो कि परकीया प्रेम का क्षेत्र बहुत विस्तृत होता है और रति भाव की ऐसी तल्लीनता स्वकीया प्रेम में सम्‍भव नहीं होती है। उसमें प्रेम के विभिन्न रूपों और परिस्थितियों के वर्णन का अवकाश रहता है। दशा के अनुसार इसका वर्गीकरण -- मुदिता, विदग्धा, अनुशयना, गुप्ता, लक्षिता, कुलटा में कि‍या गया है। कि‍न्‍तु मूलत: इसे दो कोटि‍यों -- ऊढ़ा, अनूढ़ा में बाँटा जाना चाहि‍ए। शेष सभी कोटि‍याँ इन्‍हीं दोनों के उपभेद होंगी। भरत ने इस नायिका-भेद के लिए कन्यका नाम दिया है। केशव ने इसे कृष्ण के सम्बन्ध में परब्रह्म परमात्मा की प्रिया माना। हो हो कि परवर्ती काल के अधिकांश कवियों ने इसी धारणा के अधीन कृष्ण को नायक माना; किन्तु केशव द्वारा दी गई परकीया नायिका की परिभाषा अधिकांश आचार्यों को स्वीकार्य नहीं हुई। हिन्दी साहित्य का रीतिकाल परकीया प्रेम से भरा हुआ है, जि‍सके नायक प्राय: कृष्ण हैं। कृष्ण के प्रति‍ गोपियों का प्रेम, परकीया भाव का ही प्रेम है। विद्यापति की राधा परकीया की ही भाँति‍ भाव-विह्वल एवं उद्विग्न है, जयदेव के गीतगोविन्द की राधा स्व: परकीया रूप में अंकित है। सौन्दर्यानुभूतिकी सशक्त शैली के कारण यह परकीया प्रेम भक्ति-भावना भी उपस्थि कर देता है; चण्डीदास के भक्तिभाव में यही रूप दिखता है, इस प्रेम की पीड़ा की अनुभूतिविद्यापति की राधा में है। चण्डीदास की राधा में शरीर के स्थान पर हृदय की प्रधानता हो जाती है। सूरदास के यहाँ प्रस्तुत राधा का परकीया रूप अनुपम है। आचार्यों के यहाँ परकीया प्रेम करै परपुरुष सोंया परपुरुषरतया परगामित्वात्के रूप में परिभाषित है। किसी-किसी ने परपुरुष से प्रेम के उल्लेख के साथ-साथ अपने पति की अवहेलना की बात भी कही है; पर ऐसी स्थिति में तो अनूढ़ा को परकीया के अन्तर्गत नहीं रखा जाएगा, क्योंकि 'जाकी गति उपपति सदा, पति सों रतिगति नाहि' की स्थितिमें अथवा शृंगार-दर्पण के अनुसार 'निजपतिवंचन' की स्थितिमें अनूढ़ा की गिनती कैसे होगी? वह तो अविवाहि है, उसके तो पतिहैं ही नहीं। यहाँ तर्क किया जा सकता है किअनूढ़ा भी अपने माता-पिता या भाई-भौजाई देख-रेख में पालि होती है; किन्तु इनमें से किसी के साथ उसका नायिका-सम्मत प्रेम तो नहीं होता!

अनूढा का शाब्दि अर्थ होता है अविवाहिता। इसे कन्यका भी कह सकते हैं। 'अनव्याही केहु पुरुष सों अनुरागिनी जो होय' (अर्थात् कोई अनव्याही स्त्री जब किसी पुरुष की अनुरागिनी हो) कहकर 'रसराज' में मतिराम ने अविवाहितावस्था में किसी पुरुष से प्रेम करनेवाली कहा है। विवाहि नहीं होने बावजूद पिता की छत्रछाया में रहने के कारण अविवाहितावस्था में किसी पुरुष से प्रेम करनेवाली स्त्री को भानुदत्त ने परकीया नायिका ही माना। पहले पति की मृत्यु के बाद या पूर्व पति से मुक्त होकर सर्वथा, सर्वदा के लि दूसरे पुरुष के साथ तल्लीनता से जीवन बिताने की कामना रखनेवाली स्त्री पुनर्भू नायिका कहलाती है। प्ररूढ़ यौवना, प्ररूढ़ स्मरा, विचित्रसुरता या सुरत-विचित्रा, ईशत्प्रगल्भवचना, मध्यम व्रीडिता, धीरा, धीराधीरा, अधीरा नायि‍का की गणना इस कोटि‍ में भी होती है। इस सूची में और कोटि‍याँ भी हैं। प्रि‍य-मि‍लन के सुनि‍श्‍चि‍त स्‍थान के नष्‍ट हो जाने से दुखी अनुशयाना नायि‍का इसी कोटि‍ में हैं। इसमें नायि‍का के दुख के तीन कारण होते हैं एक में नायि‍का मि‍लन-स्‍थल को नष्‍ट होते देखकर दुखी होती है, दूसरे में सम्‍भावि‍त मि‍लन-स्‍थल के संकेत के लि‍ए चि‍न्‍तातुर रहती है, और तीसरे में मि‍लन-स्‍थल पर नहीं पहुँच पाने की वि‍वशता से दुखी रहती है। इनके अलावा ऊढ़ा, परोढ़ा, परपरिणीता, अन्यदीया, अन्या, कुलटा, कामुकी, पुंश्चली, वेश्‍या, गणिका, रूपाजीवा, गुप्ता, कामवती, कामकला कोविदा, कामासक्ता, वल्लभा, वचनवि‍दग्‍धा, क्रियाविदग्धा, विरहोत्कण्ठा, वियोगिनी या वि‍रहि‍णी, विविध भावा, सुवया, रतिकोविदा, मुदिता, मुदितावाग्विदग्धा, रमणी, लक्षिता की गणना इस कोटि‍ में होती है। अपने पति‍ से परांग्‍मुख होकर जो वि‍वाहि‍त स्‍त्री दूसरे पुरुष से प्रेम करे, उसे ऊढ़ा या परोढ़ा या परपरिणीता; जि‍स स्‍त्री की पहचान कि‍सी और पुरुष की प्रि‍या के रूप में हो, कि‍न्तु भोग-वि‍लास कि‍सी और से करे, उसे अन्यदीया; जो स्‍त्री कि‍सी भोग-वि‍लासी नायक के जीवन में इत्‍यादि की तरह रहे, उसे स्‍त्री अन्या कहा जाता है। अनेक पुरुष से प्रेम करनेवाली व्‍यभि‍चारि‍णी और कामातुरा स्‍त्री को कुलटा या कामुकी या पुंश्चली या वेश्‍या; धन-लोभ के कारण नायक से प्रेम करनेवाली स्‍त्री गणिका; रूप की बदौलत जीवि‍का चलानेवाली को रूपाजीवा; सुरति छि‍पाने में दक्ष रखेली को गुप्ता, काम-सुख की इच्‍छा से युक्‍त स्‍त्री को कामवती; कामावेग बढ़ाने, कामोद्दपन उग्र करने की कला में प्रवीण नायि‍का को कामकला कोविदा; काम-सुख की तीव्र आसक्‍ति‍ से भरी स्‍त्री को कामासक्ता कहते हैं। प्रि‍यतमा, प्रेयसी, प्‍यारी स्‍त्री को वल्लभा; वाक्‍पटुता से अपना अभि‍प्राय बताकर चतुराई से परपुरुष को अपने में अनुरक्‍त करनेवाली स्‍त्री को वचनवि‍दग्‍धा; क्रि‍याओं द्वारा अपना अभि‍प्राय बताकर परपुरुष को अनुरक्‍त करनेवाली स्‍त्री को क्रियाविदग्धा; कि‍‍सी कारण से नायक के न आने पर वि‍रह में उत्‍कण्‍ठित‍ और दुखी स्‍त्री को विरहोत्कण्ठा; प्रेमी से बि‍छुड़ी हुई स्‍त्री को वियोगिनी या वि‍रहि‍णी; वि‍‍भि‍न्‍न प्रकार के भाव प्रदर्शि‍त करनेवाली को विविध भावा; प्रौढ़ा स्‍त्री को सुवया; रति‍क्रीड़ा की समस्‍त कलाओं में नि‍पुण स्‍त्री को रतिकोविदा कहते हैं। परपुरुष-प्रेम सम्‍बन्धी आसक्ति और अभिलाषा की पूर्ति देखकर मुदि होनेवाली स्‍त्री मुदिता कहलाती है। ऐसी स्‍त्री को मनचाही स्थिति कि‍सी घात से प्राप्त होती है। वार्तालाप कला में नि‍पुण मुदि‍ता स्‍त्री को मुदितावाग्विदग्धा कहते हैं। सुन्‍दर स्‍त्री को रमणी हैं।

अर्थ-ध्वनि के अनुसार सामान्य जीवन व्यतीत करनेवाली सभी स्त्रियों को सामान्या माना जाना चाहिए; किन्तु आचार्यों ने इस शब्द का अर्थ ऐसी स्त्री से लिया जो स्त्री सर्वसाधारण के लिए सुलभ हो। इस अर्थ में सामान्या का कोशीय अर्थ वारांगना या वेश्या होता है। भरत ने इसे वेश्या कहा, धनंजय और शारदातनय ने साधारण स्त्री; पद्माकर ने गणिका कहा। ऐसी नायिका केवल धन के लिए पर पुरुष से प्रेम करने का ढोंग करती है। इनमें प्रेम-भावना का समुचित रूप नहीं होने के कारण अधिकांश आचार्यों ने इस कोटि की स्त्री को नायिका मानने से इनकार कर दिया। पण का एक प्रकार का सिक्का होता है, किन्तु इसका अर्थ स्त्री, वेश्या, वेतन, मूल्य, प्रतिज्ञा, इकरार आदि भी होता है। इस तरह पण से बने विशेषण पण्य का अर्थ होगा क्रय-विक्रय के योग्य। इसलि पण्यपरिणीता को रखेली कहते हैं। अर्थात् प्रेम लुटाने के प्रतिदानस्वरूप परपुरुष से मूल्य की कामना करनेवाली स्त्री पण्यकामिनी कहलाएगी। पण्यकामिनी की दृष्टिमें प्रेम भी एक सौदा ही होता है। वेश्या या पणांगना भी ऐसा ही करती हैं, किन्तु पण्यकामिनी की पद्धति वेश्या से तनि भिन्न होती है। वेश्या अपनी देह एवं कला को जीवन-बसर का आधार मानती हैं; नाच, गान, नखरे, कसव, दैहि उन्माद आदि से ग्राहकों को रिझाकर धन का उपार्जन करती हैं, उनका ग्राहक कोई भी पुरुष हो सकता है; जबकि पण्यकामिनी के भोगी गिने-चुने पुरुष होते हैं। सामान्या नायि‍का में ऊढ़ा, अनूढ़ा, स्वयंवरा, स्वैरिणी, वेश्या, कुलटा, कामुकी, पुंश्चली, वेश्‍या, गणिका, रूपाजीवा की गणना होगी।

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