Tuesday, March 17, 2020

दैन्य से मुक्ति का साहस (मिथिलेश्वर का उपन्यास ‘यह अन्त नहीं’)



दैन्य से मुक्ति का साहस


(मिथिलेश्वर का उपन्यासयह अन्त नहीं’) 


साहित्य की सबसे गतिशील विधा उपन्यास है, समाजिक परिदृश्य और नागरिक चिन्तन को बदलने का सबसे कारगर हथियार है। गरज यह नहीं कि अन्य विधाएँ न्यून हैं। सचाई है कि आकार की लघुता के कारण लोग कहानी अधिक पढ़ते हैं, प्रदर्शनकारी गुणवत्ता के कारण नाटक हर वर्ग तक सम्प्रेषित होता है, पद-लालित्य और लयबोध के कारण कविता लोगों को आकर्षित कर लेती है, पर उपन्यास में किसी एक व्यवस्था और वस्तु-बोध को व्यापक विवरण मिलता है, इसलिए इसका भावक उस व्यवस्था और वस्तु-बोध को उसके परिवेश, पर्यावरण, पृष्ठभूमि और परिणति के साथ जान पाता है, उसके स्थायी प्रभाव को अपने विचार और व्यवहार में उतार पाता है। यह बात हर देश की हर भाषा के हर काल के हर उपन्यास पर लागू होती है। गोर्की, दोस्तोयव्स्की, हार्डी, एमिली ब्रोण्टे, शरद, बंकिम, आशापूर्णा, शिवराम कारन्त, वैकम मुहम्मद बशीर, शीलभद्र, प्रेमचन्द, नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, राजकमल चौधरी...हर किसी के उपन्यास पर लागू होती है। नई पीढ़ी के प्रौढ़ उपन्यासकार मिथिलेश्वर के नए उपन्यास यह अन्त नहींको इन स्थितियों में देखने की आवश्यकता है।
हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों की समीक्षा अब पुस्तकों की गुणवत्ता पर कम, लेखक के उद्यम, पद-प्रतिष्ठा, अखबार-पत्रिका-रेडियो-दूरदर्शन के साहित्य प्रभारियों और आलोचकों/समीक्षकों से उनके सम्बन्ध तथा उन पर लेखक के प्रभामण्डल के प्रभाव, लोकार्पण समारोह की भव्यता पर अधिक निर्भर करने लगी है। कई पुस्तकों की बहुचर्चा के कारण ये सब भी होते हैं। घोर अपठनीय पुस्तकों की भी बेहतरीन समीक्षाएँ छप जाती हैं, पर वे पुस्तकें समाज पर तो क्या असर डालेंगी, रद्दी का बण्डल अवश्य हो जाती हैं।
मिथिलेश्वर का उपन्यास यह अन्त नहींअपनी प्रखर गुणवत्ता के कारण बहुचर्चित रहा है। इस प्रखरता का कारण कथ्य की जमीन से लेखक का अपनापन एवं यथार्थानुभूति है। हिन्दी कथा-साहित्य में प्र्रेमचन्द के बाद गाँव और गँवारपन के सूत्र टूट-से गए थे। हिन्दी कथाकारों ने शहर और नगर की ओर जिस ललक और तल्लीनता से अपना रुख किया था, उसे देखकर अनुमान करना कठिन था कि यह धारा फिर कभी गाँव की ओर मुड़ेगी। पर बिहार की धरती और बिहार के नागरिक में कृषि और गाँव रचा-बसा है। नागार्जुन और रेणु ने इसे फिर से हिन्दी कथा-साहित्य में प्रतिष्ठित किया। नगरीय परिवेश में जीवन-यापन करने वाले रचनाकारों ने भी नॉस्टेल्जिया के आधार पर अथवा अखबार पत्रिकाओं में वर्णित गाँव के चित्रण के आधार पर, ग्राम-कथा लिखना शुरू किया। बीसवीं शताब्दी के छठे-सातवें दशक में लिखी गई कई कहानियों और उपन्यासों में इसका प्रमाण ढूँढा जा सकता है। लेकिन मिथिलेश्वर की कथाकृतियों में अनुभव की मौलिकता और ईमानदारी की तलाश करीने से की जा सकती है। नॉस्टेल्जिया और संचार माध्यमों से एकत्र जानकारी के आधार पर गाँव का चित्र अंकित करने वाला व्यक्ति कभी भी ग्राम-परिचय का सही स्वरूप बना नहीं सकता, कारण नॉस्टेल्जिया हर पल चिन्तक को खींचकर अपने कालखण्ड में ले जाती है, जो समकालीन नहीं होता, और संचार माध्यमों की रिपोर्ट, गाँव का वैसा स्वरूप प्रस्तुत करती है, जो रिपोर्टर को बताया जाता है अथवा रिपोर्टर दुनिया को बताना चाहता है। जबकि गाँव का जीवन बहुत गतिशील होता है। प्रेमचन्द का गाँव, नागार्जुन-रेणु का गाँव, राही मासूम रजा का गाँव, जगदीश चन्द्र का गाँव, बीसवीं सदी के अन्त आते-आते पूरी तरह बदल चुका। उनके गाँवों को स्मृति में रखकर ग्राम-कथा की फैण्टेसी ही गढ़ी जा सकती है। मिथिलेश्वर के यहाँ गाँव की मौलिकता है और यही मौलिकता यह अन्त नहींकी प्रखर गुणवत्ता है।
यह अन्त नहींमिथिलेश्वर का चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनकी कहानियों के भी दस संग्रह प्रकाशित हुए। लेखक की पूर्वरचित कृतियों इस कृति की तुलना करते हुए भी तय होता है कि रचनाकार ने यहाँ समय के साथ बदलते हुए राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, कौटुम्बिक परिवेश के गाँव और लगातार ह्रासमान मानव मूल्य और रसातल को जाती जटिल मानवता से भरे गाँव का जीवन्त चित्र यहाँ प्रस्तुत हुआ है। राजनीति एवं बौद्धिक रूप से अतिशय क्रियाशील तथा आर्थिक असमानता की खाइयों से भरे गाँवों का प्रदेश बिहार गत शताब्दी के अन्तिम चरण में परिस्थितियों का दास और त्रासदियों का अखाड़ा हो गया। नक्सलबाड़ी और तेलंगाना आन्दोलन के बाद बिहार के मजदूरों और किसानों में जागरूकता बहुत आई, पर अर्थविपन्न व्यक्ति के लिए जीवन की पहली शर्त रोटी होती है। अंकुशविहीन कांग्रेस सरकार द्वारा भारतीय नागरिक के सिर पर थोपे गए आपातकाल का परिणाम सन् 1977 के आम चुनाव में दिखा। कांग्रेस की हार हुई। पर वह भारत के नागरिक का निर्णय नहीं था, खीज थी, कांग्रेस विरोधी खीज। और उसी खीज का नाजायज लाभ जनता पार्टी को मिला, भारतीय राजनीति की चंचल और दोलायमान अवस्था वहीं से तेज हो गई। स्वाधीनता प्राप्ति के दो बरस बाद से ही, जटिलता, प्रपंच, मूल्यहीनता, अमानवीयता, अविश्वास, अनास्था, राजनीतिक अपराध, आपराधिक राजनीति लगातार बढ़ती रही थी। पर सन् 1977 की कांग्रेसी पराजय से देश में दानवता का ताण्डव शुरू हुआ। स्‍त्रियों, खासकर दलित स्‍त्रियों का शोषण तो पहले भी होता था, लेकिन पहले विरोध का स्वर नहीं था, इसीलिए संघर्ष भी नहीं था। गत शताब्दी के अन्तिम ढाई दशक, इस अर्थ में बिहार के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक वातावरण के लिए विकट विग्रह और दुर्वृत्ति का काल रहा। विग्रह के इस माहौल में बिहार के ग्रामांचल का जो रूप तैयार हुआ, मिथिलेश्वर का उपन्यास यह अन्त नहीं’, सवर्ण-अवर्ण के उसी अहं और अस्तित्व की संघर्ष-गाथा है।
नायिका प्रधान इस उपन्यास की कथा चुनिया नाम की लड़की के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। नरोत्तम कहार जैसे मजदूर के घर में चुनिया के जन्म, खेतों की मेड़ों-रेहों में गिरते-पड़ते उसकी जवानी के आगमन, और इलाके के सवर्णों के हाथों अपनी जवानी को लुटने से बचा लेने के साहस, जोखन के साथ उसकी शादी, राजमिस्त्री का काम करते हुए जोखन के पाँव टूट जाने के बाद उसकी सुरक्षा हेतु चुनिया की तत्परता, शोषितों और दलितों के खून से रंगे हुए सवर्णों के जबड़े पर चोट करती उसकी दुर्दमनीयता...सबके सब मिलकर एक बड़ी ही कद्दावर महिला का स्वरूप खड़ा करते हैं। तमिल के प्रसिद्ध उपन्यासकार सु. समुत्तिरम के उपन्यास ओरु कोटुकु वेलिए’ (एक घेरे से बाहर) की नायिका अपने पूरे संघर्ष में इसी तरह टूट जाने के कगार पर पहुँचकर भी झुकने का नाम नहीं लेती। हत्या, बलात्कार, सवर्णों के अनावश्यक अहंकार, लैंगिक दुश्चरित्रता, संवेदनशीलता एवं सामाजिक आचार-विचार-शिष्टाचार का लोप, सामाजिक सम्बन्धों की हत्या, जन सरोकार का विलुप्तीकरण, साधनहीनों को बेवजह सताने की दुर्वृत्ति, दुवृत्ति में पाश्विक जिद्द पर उत्तर आने की प्रवृत्ति--और इन तमाम मुसीबतों से जूझती हुई; नैतिकता, निष्ठा, मानवता और अस्तित्व की लड़ाई लड़ती हुई; साधनविहीन जनता के संघर्ष का कोलाज यह अन्त नहींउपन्यास की कथा का मूल ढाँचा है। खवासडीह, पहाड़पुर और रघुनाथपुर जैसे कुछ गाँव हैं, इन गाँवों में बड़टोली और नन्हटोली--दो खेमे हैं। अस्तित्व रक्षा में एक-एक साँस का लेखा-जोखा लगा देने वाले नरोत्तम, चुनिया, बुन्तु, जोखन, जीतनी है, तो दूसरी तरफ ऐय्याशी और अहंकार में चूर श्रवण सिंह, अगम, रमण सिंह, शत्रुघ्न सिंह हैं, और तीसरी तरफ बिचौलिए का शिकार कल्लन सेठ और सवर्णों की कुत्सित राजनीति के कारण भस्मासुर बना बाइप्रोडक्ट नेता ललन कहार सरपंच है। पर इन सबके बावजूद ललन कहार अपने लिए और साधनहीन जनता के लिए भस्मासुर नहीं है। सवर्णों की चाल-चलन से सीखी हुई राजनीति के हथियार से वह बाद के दिनों में उन्हें ही धराशायी करता है। और, कथित अवर्णों के खोए हुए अधिकार, जब्त कर ली गई सुविधाओं की वापसी कराता है।
वस्तुतः हिन्दी साहित्य के निरीक्षण-परीक्षण में समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण का प्रवेश तो दशकों पहले हो गया, पर व्यावहारिक तौर पर उसका उपयोग व्यापक तरीके से अभी भी नहीं हो पाता है। नक्सलबाड़ी और तेलंगाना आन्दोलन के बाद बिहार के मजदूरों और किसानों में जो जागरूकता आई, उसकी कथा बिहार की धरती पर बड़ी विचित्र और विडम्बनापूर्ण है। बौद्धिक और आर्थिक सम्पदा का यहाँ इतना बड़ा द्वैध है, जिसका विवरण देना एक दुष्कर काम है। आर्थिक समृद्धि की गगनचुम्बी ऊँचाई और पातालगत खाई में जब बौद्धिक तिकड़म लगते हैं, तो कई-कई आन्दोलनों की मशाल की ज्वाला बदल दी जाती है। उक्त आन्दोलनों का स्वरूप कुछ इस तरह बिगाड़ा गया कि प्रान्त के बड़े-बड़े भूस्वामी मार्क्‍सवादी हो गए और मजदूर-किसानों के पक्ष में बड़े-बड़े व्याख्यान जारी करने लगे, आर्थिक विषमता के कारण उत्पन्न राहजनी, चोरी, डकैती और लूटपाट को नक्सलियों का विद्रोह कहकर उसकी धार कुन्द करने के पीछे जोर-शोर से लग गए। यह प्रचार इस कदर हुआ कि नक्सलियों और लुटेरों में फर्क करना कठिन हो गया। यद्यपि दोनों हरकतें आर्थिक विषमता की ही परिणति थीं, फिर भी नक्सलवादी समूह के लोग लुटेरे नहीं थे, उसके विरोध और विद्रोह का एक वैचारिक आधार था, पर बिहार के बौद्धिक तिकड़म और निरक्षरता के व्यूह में सचाई कहीं छिपकर रह गई। इसके जवाब हेतु रणवीर सेना और सनलाईट सेना का गठन हुआ, जिसकी नींव सवर्णवादी जाति परम्परा पर धरी गई थी। यह संघर्ष क्रमशः जाति-द्रोह में तब्दील हो गया। सामूहिक नरसंहार का ताण्डव बिहार की नियति बन गई।
आपातकाल के बाद बिहार की राजनीति में कांग्रेस की स्थिति कुछ ऐसी लड़खड़ाई कि उसे ठीक से होश नहीं हुआ। केन्द्र में सत्तासीन लोगों की नीयत सब दिन से बिहार पर घिनौनी रही है। बिहार जैसे बड़े प्रान्त में यदि राजनीतिक स्थिरता और शासकीय पवित्रता आ जाए, तो केन्द्र के शासन में उसकी भागीदारी प्रभावी हो जाएगी, इसलिए वहाँ की राजनीति में, विधान सभा में और प्रान्त के मुख्यालय, मन्त्रलय, सचिवालय में सत्ता की साँसें जमती-उखड़ती रहनी चाहिए, ताकि वे अपने सिर की आग बुझाने में व्यस्त रहें, केन्द्र की तरफ समय न दे पाएँ। इसी बीच मण्डल आयोग, रथयात्रा, शिलापूजन, साम्प्रदायिक द्रोह सब हुए। मन्त्री से सन्तरी तक लूट में व्यस्त; शिक्षक से पत्रकार तक, दण्डाधिकारी से धर्माधिकारी तक, जिलाधीश से ग्रामाधीश तक, सत्ता की दलाली और सड़क-पुल-रेलपथ की ठेकेदारी में व्यस्त; आरक्षी दल के पीर-गुलाम लुटेरों से कमीशन लेने और असहाय-जाया के साथ बलात्कार करने में व्यस्त। अर्थात् पूरा बिहार आदिम युग के दारुण दुःस्वप्न का ज्वलन्त उदाहरण बन गया। और ऐसी दशा में जब बिहार की जनता ने देखा कि मैं वैसे सवार का घोड़ा हूँ, जो मेरी पीठ पर बैठकर कोई धर्मयुद्ध नहीं कर रहा है, अनीति के लिए अनैतिक युद्ध कर रहा है और खुद मेरा और मेरे हितैषियों के मान-मर्यादा-अधिकार का लुटेरा है, तो उसका मोह-भंग हुआ, आस्था टूटी और तत्क्षण सवार को पटककर रौंद दिया या कम से कम रौंदने के लिए तत्पर हो गया। बिहार का समाज आज इसी स्थिति में है। इसलिए बिहार के गाँव या शहर की पृष्ठभूमि में लिखी गई किसी कृति की पड़ताल करनी हो, तो इस समाजशास्त्रीय आधार पर की जानी चाहिए।
यह अन्त नहींउपन्यास ऐसे ही अन्तहीन संघर्ष, अन्तहीन शोषण, अन्तहीन तिकड़म, अन्तहीन प्रतीक्षा की जीवन-गाथा है। अपने धर्म और कर्म पर अहंकार करते लोगों के लिए जैसी फजीहत कबीर ने की है हिन्दू अपनी करे बड़ाई, गागर छुवन न देई/वैस्या के पायन तर सोवै, यह देखो हिन्दुआई।मिथिलेश्वर के उपन्यास में अपनी वंश परम्परा पर दहाड़ते ठाकुरों की खिंचाई उससे कम नहीं है। उच्च वंशोद्भूत जिन ठाकुरों के लिए चुनियाऔर जीतनीअपनी आर्थिक, कौलिक, शैक्षिक, सामाजिक औकात में पाँव तले की धूल भी नहीं है, उनके लिए वही चुनियाअपने यौवन की सम्पदा के साथ सरगपंछीहो जाती है!
श्रम, मजदूरी और इज्जत के शोषण की परम्परा बिहार के इन सवर्णों और अवर्णों को, शोषकों और शोषितों को विरासत में मिलती रही है। गम्भीरता से देखें, तो इन निम्नजातीय स्‍त्रियों के दैहिक शोषण और आर्थिक-मानसिक पराजय की गाथा प्याज के छिलके की तरह परत-दर-परत खुलती जाती है, इसका कभी अन्त नहीं आता। वैसे, राजनीतिक अराजकता और आर्थिक विषमता ने बिहार की शानदार विरासत छीन ली है, पर इन्हीं दुःस्थितियों और दुर्वृत्तियों के बीच वहाँ के दलित-पराजित लोगों को अस्तित्वबोध भी हुआ है। अस्तित्व-रक्षा के निमित्त आज जब ये दलित उन सवर्णों की दानवीय हरकतों का विरोध करने लगे हैं, समाज-व्यवस्था और सामाजिक शिष्टाचार की संहिता तैयार करने वाले सवर्णों और उनके वंशजों को संहिता के पन्ने पलटकर बताने और दिखाने लगे हैं कि हजारों वर्ष की विकास-परम्परा के बाद सामाजिक प्राणी दानव से मानव हुआ है, आप भी मानव क्यों नहीं हो जाते? दानव ही क्यों बने रहना चाहते हैं?’ तो उन सवर्णों को ये अवर्ण अशिष्ट, अभद्र और उद्दण्ड नजर आने लगे हैं। वे अतार्किक, अनैतिक और अनुचित क्रोध के साथ इन पर टूट पड़े हैं। मिथिलेश्वर का उपन्यास यह अन्त नहींऐसे ही बिहार के गाँवों की गाथा है। दावनता की ओर उन्मुख एक लम्बे अन्तराल की कहानी है। जहाँ तक आंचलिकता का सवाल है, मैं शिव प्रसाद सिंह से सहमत हूँ कि आंचलिकता किसी भी राष्ट्र की सांस्कृतिक खोज के प्रयत्नों से जुड़ी रही है अथवा उसमें नागर जीवन या मशीनी आधिपत्य के विरोध में अपने को बचाने का एक भाव है’ (आधुनिक परिवेश और नवलेखन/ पृ.121)। यद्यपि आगे की पंक्तियों में उन्होंने इसे आधुनिक मूल्यों की अभिव्यक्ति में असमर्थ बताया है, पर इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता। इसी प्रसंग में यह भी सत्य है कि क्षेत्र विशेष की विविधता और भिन्नता प्रस्तुत करने में वहाँ की प्रकृति, मौसम, वातावरण, फसल, खेती-बारी, जीवन-यापन और कृषि-कर्म से जुड़े विभिन्न लोकाचार आदि सबसे बड़ा सहायक होता है। इस मायने में मिथिलेश्वर को काफी चुस्त और तन्दुरुस्त उपन्यासकार मानना जरूरी है कि उन्होंने उपन्यास का शिल्प ही ऐसा रखा, जैसे कोई डक्युमेण्ट्री हो, धारावाहिक रूप से चलने वाली कोई लम्बी दास्तान हो, जो किस्तों में कही जा रही हो, जिसकी हरेक किस्त पूर्व के या पश्चात की सारी किस्तों से सम्बद्ध भी है और अकेले में पूर्ण भी। कथाखण्ड का यह विलगाव और यह सम्बद्धता, सूक्ष्मता से देखें, तो उपन्यास की मूल कथा में विरोध के स्वर फूँकने वाले उनके हरेक पात्र में भी हैं। तेज बारिश मेंउपन्यास की कथा शुरू होती है और चैती फसलसे समाप्त होती है। बीच में पुरवा हवा’, ‘फागुन की रात’, ‘जेठ की दुपहरी’, ‘धनहर खेतों का गाँव’, ‘बदलते मौसमशीर्षक से पाँच खण्ड और हैं। कुल मिलाकर इन सात कथाखण्डों के ये शीर्षक महज नाम भर नहीं हैं, यहाँ प्रकृति, मौसम और वातावरण के दोहन से बिहार के गाँवों का वास्तविक चेहरा प्रस्तुत करने का एक सफल उद्यम भी है और इन शीर्षकों में ग्रामीण जनता के जीवन-संग्राम की तल्खी को सही-सही व्यक्त करने का मुहावरेदार प्रयोग भी। तेज बारिश में अनिष्ट की जितनी भी आशंकाएँ और अभीष्ट की जितनी भी सम्भावनाएँ हो सकती हैं, वे सब यहाँ दर्ज हैं। ठीक इसी तरह पुरवा हवा के अलस् भाव, फागुन की रात की मधुर-तिक्त आकांक्षाएँ, जेठ की दुपहरी का तीक्ष्ण दंश, धनहर खेतों के गाँव का लघु-कालीन सुख भी दर्ज है। फिर बदलते मौसम के सारे खट्टे-मीठे तेवर को अभिव्यक्त कर देने के बाद चैती फसल की नई शुरुआत होती है। चुनिया और जोखन के संघर्ष की समाप्ति के बाद दुराचारों और दुर्वृत्तियों की काली रात का अन्त होता है और चैती फसल की नई सुबह आती है, जिसमें भविष्य की सारी सुविधाओं-दुविधाओं का संकेत होता है। कुल मिलाकर गाँव के पूरे माहौल का सर्वविध निचोड़ इस उपन्यास में दर्ज है। लेखक ने गाँव का वास्तविक चेहरा जैसा देखा-भोगा है, उसे जस का तस रख दिया है। यह उपन्यास, बीसवीं सदी की समाप्ति पर भारत के गाँवों की अन्तिम परिणति का स्वरूप अंकित करता है; विज्ञान, राजनीति, विकास, प्रौद्योगिकी, व्यापार, शिक्षा, मानवता--सारे मामलों में विकासमान भारत के उन गाँवों का चेहरा प्रस्तुत करता है, जिनके बारे में गाँधी युग का मुहावरा था कि भारत की आत्मा गाँव में बसती है। कहा जा सकता है कि यह उपन्यास, उस मुहावरे के गाल पर करारा तमाचा है। महावीर जैन, महात्मा बुद्ध, सम्राट अशोक, चाणक्य-चन्द्रगुप्त, राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण के बिहार में, उनकी तड़पती आत्मा का सबूत है यह उपन्यास।
नारी चेतना और श्रम चेतना की जागृति के बाद, आतंक के पर्वत से संघर्ष की छेनी-हथौड़ी के टक्कर की जो कथा होनी चाहिए और छेनी-हथौड़ी की विजय का जो स्वरूप होना चाहिए, वह एक सरस, जनपदीय और प्रवाहमय भाषा शैली में, आकर्षक कथाक्रम और घटनाक्रम के साथ यहाँ दर्ज है। बीच-बीच में कुछ प्रसंगों के चित्रण में अविश्वसनीयता और विवरण में कहीं-कहीं फाँक दिखता है। इस अविश्वसनीयता और फाँक की वजह, विस्तार का अनियन्त्रण हो सकता है। संयोग-कथा उत्पन्न करने की चेष्टा भी इसी अनियन्त्रण का फल है। ये स्थितियाँ कई बार बालीवुड के सिनेमाई अन्दाज का झटका दे देती है, जो पाठकों के लिए दुखद है। यदि इन परिस्थितियों से बचा जाता, तो उपन्यास सघन होता और जीवन-संग्राम की तल्खी सही-सही उभर पाती। लेकिन इन सबसे अलग जो बड़ी बात सामने आती है, वह यह कि अपने समय के तीक्ष्ण दंश को ध्वनित करने के बावजूद, काल के तीखे यथार्थ को अंकित करते हुए भी, यह उपन्यास काल-सम्मत ही होकर रह गया, कालजयी नहीं हो पाया। मानवता के ध्वस्त खण्डहर से लाई गई बदसूरत ईंटों को रचनाकार ने सजाया तो बहुत खूबसूरती से, पर कुछ जगहों पर कथाक्रम और घटनाक्रम के अविश्वसनीय चित्रण के कारण भावकों का सशंकित हो जाना उचित है। साहित्य में और समाचार में यही एक बुनियादी फर्क है कि समाचार पत्र जो देखता है, वही कहता है और साहित्य, जो देखता है, उसे उसकी पृष्ठभूमि और परिणति की जाँच-पड़ताल, निरीक्षण-परीक्षण के साथ सच की तरह, विश्वसनीय ढंग से कहता है। बहरहाल, ‘यह अन्त नहींउपन्यास बीसवीं सदी के अन्त तक नृशंसता को प्राप्त हो गई मानवता की त्रासदी की गाथा है। इसे इसी रूप में देखे जाने की आवश्यकता है।
-त्रासदी के तवे पर मानवता की भुजिया, पलप्रतिपल, पंचकूला, 2002

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