Tuesday, March 17, 2020

खण्डित मूल्यों की मूल्यवत्ता (उमाशंकर चौधरी का कहानी संकलन)



खण्डित मूल्यों की मूल्यवत्ता 

(उमाशंकर चौधरी का कहानी संकलन)

कहानीकार की नजर बड़ी पैनी होती है। हर बेहतर कहानीकार किसी बिम्ब को बड़ी महीनी से देखता है। वह उस बिम्ब की दूरन्त पृष्ठभूमि, असीम विस्तार और सघन वर्तमान को अपनी किस्सागोई में अंकित करता है। इस समय हमारा समाज जिस पर्यवस्थिति में जी रहा है, उसमें ऐसी ही सावधान किस्सागोई की जरूरत है। आज के सामुदायिक परिवेश में जीवन-मूल्य, अर्थ-मूल्य, नीति-मूल्य का सारा सन्दर्भ बदल गया है। लोक-जीवन में न्याय, विधान, आचार, अनुशासन, व्यवस्था, समाज...सब के सब अपना मूल अर्थ खोकर, स्थान-काल-पात्र के सन्दर्भ में नई-नई परिभाषा ग्रहण कर रहा है। सभ्यता और लोक-जीवन की वर्तमान जटिलता के कारण साहित्यिक समाज में सावधान किस्सागोई के बगैर अब काम चलने वाला नहीं है। सामुदायिक चित्तवृत्तियों की इस जटिलता की पहचान हमारे समय के सभी वरिष्ठ और स्थापित कथाकारों को है, किन्तु युवा कहानीकार इस जटिलता की पहचान इन दिनों अपेक्षाकृत अधिक गम्भीरता से कर रहे हैं। ऐसी पहचान-शक्ति के लिए इस समय जिन युवा कहानीकारों के कथालेखन की चर्चा गम्भीरता से की जानी चाहिए, उनमें उमाशंकर चौधरी एक महत्त्वपूर्ण नाम है।
अयोध्या बाबू सनक गए हैं उमाशंकर चौधरी की आठ कहानियों का संकलन है। इसके अलावा उनका एक काव्य संकलन भी है--कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे, जिसके लिए कवि को सन् 2011 का साहित्य अकादेमी युवा सम्मान दिए जाने की घोषणा हुई है। समकालीन समाज के अनुशीलन के रूप में इस संकलन की कहानियाँ पाठकों को निरन्तर बेचैन करती हैं, अपने समय की क्रूरता और हैवानी का परिचय देते हुए हमें यह बोध कराती हैं कि आदिम युग की बर्बरता से मुक्त और सभ्य होकर किसी दृश्य को उसकी वस्तुनिष्ठता में देखना लोग भूल गए हैं। अब वे दृश्य को अपनी चाहत की आँखों से देखते हैं, और वह चाहत, किसी न किसी कामना, वासना की पूर्ति से जुड़ी होती है।
आज के मनुष्य विरोधी ऐसे ही समाज और वर्चस्व-रक्षक वातावरण में उमाशंकर उन आपदाओं और त्रासदियों को अपनी कहानी का विषय बना रहे हैं, जो अब मानवीयता की रक्षा हेतु बड़ी बहस की माँग करती है।
हमारे देश में वस्तुतः व्यक्ति और वस्तु से मुक्त नहीं होने की परम्परा रही है। यहाँ के लोग घिसकर ठूँठ हो गए झाड़ू, टूटे हुए जूते, नाकाम हो गई साइकिल तक को त्यागने-फेंकने का भाव मन में नहीं लाते; जबकि इसी देश में रुग्ण माँ की सेवा-शुश्रूषा में अब लाभ-हानि का तोल-मोल होता है। कहते हैं बकरों की जाति में पैतृक-मातृक सम्बन्ध तभी तक रहता है, जब तक उनमें यौन-क्षमता उदित न हो जाए। इस क्षमता के आते ही उनके बीच केवल यौन सम्बन्ध बचा रह जाता है। उमाशंकर की कहानी अयोध्या बाबू सनक गए हैं मानवीय मूल्य के इसी पतन की कहानी है। उत्तरउपनिवेशवाद के प्रतिघोषणात्मक समय में, सारी संवेदनाओं को ताख पर रखकर, अपने मन और अपनी सुविधा से सारा कुछ करने की छूट लेना इस उत्तर आधुनिक युग में आम बात हो गई है। यह कहानी व्यवस्था के पाखण्ड की गाल पर एक झन्नाटेदार तमाचा है। जिस माँ की गोद में सिर रखकर लोग सारे सपने देखने की कामना करते हैं, किसी भी आपद-विपद में लोगों के अवचेतन में जिस माँ के प्रति आस्था भरी रहती है, उस गरिमामयी माँ के शीघ्र मर जाने की व्यवस्था में विभ्यांशु लिप्त है।...विभ्यांशु की बढ़ती आयु, शारीरिक-मानसिक-बौद्धिक विकास, सभ्यता के विकास, वैज्ञानिक उन्नति अथवा आर्थिक नीति के परिवर्तन के क्रम, बाजारवाद और उपभोक्ता संस्कृति के वर्चस्व के चलन...आखिर किस विचार-व्यवस्था के किस दरवाजे से विभ्यांशु में इस धारणा का प्रवेश हुआ होगा कि उसने अपनी माँ को माँ के बजाए एक सामान्य औरत और अन्ततः एक वस्तु समझना शुरू किया होगा, और मापना शुरू किया होगा कि उसका जीवित रहना उसके लिए हितकारी है या मर जाना-- यह गम्भीर प्रश्न है। कथाकार के जीवन में यह अनुभूत सत्य है, या कौशलपूर्ण कल्पना-- कहा नहीं जा सकता। पर यह आज के समय का समाज-सत्य अवश्य है, और इस कहानी का विवरण सच के समतुल्य है।
कहानी तो सिर्फ इतनी है कि अयोध्या बाबू जैसे निविष्ट व्यक्ति समाज में और सामाजिक व्यवस्था में नैतिकता की एक पौध लगाना चाह रहे थे, वे असफल हो गए, और सनक गए। अब यह सनक अयोध्या बाबू की है या पूरे सामाजिक तन्त्र की-- इसकी झलक एकरैखिक सोच से नहीं मिल सकती। उनके पूरे जीवन के हरेक फलक पर बड़े-बड़े कथा-सूत्र की शृंखला दिखाई देती है। कथा परिदृश्य का वैशिष्ट्य इस समय उसके कथ्य में नहीं शिल्प में दिखता है। इस कहानी की संरचना में पंचायत-सेवक के रूप में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करने में अयोध्या बाबू को आला अधिकारियों की नृशंसता का शिकार होना पड़ा। पूरे समाज में भरपूर प्रशंसा हुई, यह दीगर बात है; पर सचाई है कि उन्हें बार-बार तबादले का शिकार होना पड़ा। वे अपने एकमात्र पुत्र विभ्यांशु को एक आदर्श युवक बनाने की हर कोशिश में असफल हुए, बेटा स्वेच्छाचारी और बदमिजाज निकल गया; प्राणप्रिया पत्नी भी साथ छोड़ने को तैयार बैठी हैं।...अयोध्या बाबू तमाम मुसीबतों को झेल लेते!...पर अपने पंख फैलाकर, नाचकर, पूरी दुनिया को प्रसन्न कर देने वाला मोर जब ठीये पर आकर अपने बदसूरत पैर की ओर देखता है, तो निराश हो जाता है, चकित भी कि जिस पाँव के बल नाचकर मैंने लोगों का मन जीता, वह पाँव इतना बदसूरत है!...अयोध्या बाबू खुश हो सकते थे, तमाम विपत्तियों के बीच खुशियाँ ढूँढने की कोशिश कर सकते थे, पर उस बेटे का क्या करें, जो अब अपनी माँ को घिसे हुए झाड़ू, टूटे जुए जूतों से भी कमतर समझ रहा है!...अयोध्या बाबू की सनक और स्मृतिलोप कहीं इस बात का संकेत तो नहीं कि इस हद तक नृशंस हो चुके समाज और परिवार के उस परिदृश्य को स्मृति में वे अंकित ही न रखना चाहते हों? यह कहीं उस जीवन के अन्त की घोषणा तो नहीं? फिर से वर्णमाला सीखने की क्रिया कहीं यह तो नहीं दर्शाती कि उन्होंने जिस वर्णमाला के माध्यम से आज तक आँखें बनाईं, वह समकालीन नहीं था; कदाचित वे यह संकेत दे रहे हों कि विभ्यांशु के युग में जीने की वर्णमाला आज तक उन्होंने सीखी ही नहीं।
यह कहानी जितने बड़े फलक की है, उसमें बड़ी-बड़ी व्याख्या की गुंजाइश है। वस्तुतः इधर की हिन्दी कहानियाँ अपनी पाठ-प्रक्रिया के दौरान पाठकों/भावकों/विवेचकों को इसी तरह चिन्तन-विश्लेषण की अत्यधिक गंुजाइश देने लगी हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि ये कहानियाँ बहुफलकीय, बहुपरतीय होने के साथ-साथ अपनी चित्रात्मकता में क्षितिज तक के पूरे लैण्डस्केप के साथ उपस्थित होती हैं। उपस्थित चित्रखण्ड बड़े कैनवस पर विराट परिदृश्य के बीच प्रस्तुत होता है। विवरण के दौरान हरेक छोटे-छोटे विस्तार कहानी की सम्पूर्णता को अर्थवान और हरेक खण्ड को सम्पूर्ण बनाते रहते हैं। उमाशंकर की कहानियों की हर छोटी-बड़ी स्थिति एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदार साबित हो रही है।
विगत ढाई-तीन दशकों में लूट-पाट, अपहरण, घोटाला, नरसंहार, तरस्करी, दंगा, मानव अंगों का व्यापार, आतंकवाद, संसद का विश्वास मत, धरना-अनशन आदि को लेकर तरह-तरह की विसंगतियाँ और विडम्बनाएँ सामने आती रही हैं--इन सबका सम्बन्ध-सूत्र करीब-करीब राजनीतिक और प्रशासनिक विफलताओं और अकर्मण्यताओं से जुड़ता है। इन तमाम मुद्दों पर भौंचक कर देनेवाली एक से एक कविता-कहानी लिखी गई है, जहाँ बड़े मजे से इन अभिकरणों को गालियाँ देकर लोग मनोविकार मिटा सकते हैं। दिलचस्प है कि उमाशंकर के यहाँ भावकों को ऐसा अवसर नहीं मिलता। उनकी अधिकांश कहानियाँ व्यक्ति के अधिकारों के जोखिम को नहीं, उनके कर्तव्यों के धरातल का खाका तैयार करती हैं; दूसरों का नासूर देखने के बजाए अपनी फुन्सी देखने को प्रेरित करती हैं। इस मायने में इस संकलन की कहानियाँ आत्मालोचन की चुनौती देती हैं। स्वीट होम; दद्दा: यानी मदर इण्डिया का सुनील दत्त; छुटकी: अॅ प्राइड ऑव द विलेज जैसी तमाम कहानियों में यह बात देखी जा सकती है।
उमाशंकर के कथा-कौशल की यह खास विशेषता है कि यहाँ वे अपने कथा-चरित्र के चारों ओर फैले सामाजिक परिदृश्य का कोलाज तैयार करते हैं। यहाँ कहानीकार अपनी ओर से कोई निर्णय नहीं देता, उन तमाम दृश्यों का विवरण देता जाता है, और भावक की चित्तवृत्ति को उद्बुद्ध करता है। सामाजिक यथार्थ है कि इस समय हर वर्ग के लोगों के घर बेटियाँ दुख का सागर लिए हुए जन्म लेती हैं। पर इसी समाज में छुटकी: अॅ प्राइड ऑव द विलेज कहानी के लिए कथाकार को एक ऐसा परिवार मिल जाता है, जो बेटी पैदा होने की प्रतीक्षा करता है, उसे उच्चतर शिक्षा दिलाने की व्यवस्था करता है। शिशु से जवान होने तक की पूरी मशक्कत में वह बेटी अपने समाज की तमाम बुराइयों को अपने मन पर झेलती रहती है। उज्ज्वल तेजस्विता के बावजूद किसी सुबुद्ध घराने की बहू नहीं बन पाती है। बाधित-विवाह के परिताप से माँ-पिता को मुक्त करने हेतु वह आत्महत्या कर लेती है। किसी प्रगतिकामी कथाकार की नायिका आज के समय में आत्महत्या कर ले, यह कोई अच्छी बात नहीं मानी जाएगी। पर इस कहानी के मद्देनजर यह कहना होगा कि छुटकी ने आत्महत्या न की होती तो कथाकार उसके बाद की सामाजिक नृशंसता उजागर नहीं कर पाते। किसी समाज की उच्च शिक्षा प्राप्त उज्ज्वल चरित्र की बेटी के आत्महत्या की घटना पर भारतवर्ष का जनपदीय नागरिक, जैसी घृणित कहानियाँ गढ़ता है, वह समाज का क्रूर और नृशंस चेहरा सामने रखता है। दद्दा: यानी मदर इण्डिया का सुनील दत्त कहानी का नायक समाज और अपने परिवार के लिए व्यसनी, व्यभिचारी, दुराचारी घोषित है, पर वही दद्दा समाज के सताए हुए लोगों के लिए नायक है, समय का देवता है, मदर इण्डिया का सुनील दत्त है, शोषितों का रक्षक है, विधवा विवाह और स्त्री मुक्ति का उन्नायक है। भरी जवानी में फुदकी के विधवा हो जाने पर पूरे समाज के चील, गिद्ध उसे नोच खाने को आमादा हैं, पर दद्दा उसे उस कारा से मुक्त कराकर नई जिन्दगी दिलाने का जब निमित्त बनता है, तो समाज उसे दुष्कर्मी घोषित कर बर्बरता से मार देता है। कहानी का अन्त अनुत्तरित प्रश्नों का एक जुलूस छोड़ जाता है कि जिस फुदकी को तेइस वर्ष की उम्र में वैधव्य की अथाह पीड़ा से उबारकर मानवीय जिन्दगी पाने के उद्यम में दद्दा ने सहयोग किया था, उसी दद्दा की तेइस वर्ष की पत्नी अब विधवा है। पर उस गाँव में अब ऐसा कोई दद्दा नहीं, जो जिन्दगी और मौत के बीच झूलती उस विधवा को उबार सके। सामाजिक विसंगतियों को मिटाने हेतु आगे बढ़ने वाले व्यक्ति को समाज किस तरह असामाजिक घोषित करता है, और उसका नामोनिशान मिटाकर दम लेता है, और उसके पीछे कलंक का इतना बड़ा पहाड़ खड़ा कर देता है कि मृत्यु के बाद भी उसे कोई श्रद्धा से स्मरण न करे। कथाकार ने यहाँ समाज से नैतिकता की उद्भव-परम्परा को निर्मूल करने की उन मनोवृत्तियों को उजागर किया है, जिसमें मुट्ठी भर लोग लिप्त हैं, और पूरे परिदृश्य को लगातार बदबूदार बनाए जा रहे हैं। यह कहानी हमें अपने नागरिक परिदृश्य के पुनरवलोकन को मजबूर करती है।
कहावत है, और सचाई भी कि चोर को उजाले से भय होता है। इसलिए कलुषित चरित्र अन्धेरा पसन्द करता है, और अन्धकार बनाए रखने का उद्यम करता है, उजाला और उज्ज्वलता को मिटाने की कोशिश करता है। इन कहानियों के चरित-नायकों का उज्ज्वल चरित्र जिस उजासमय परिदृश्य की रचना करता है, उससे पूरे कलुष वातावरण में आतंक छा जाता है। उस आतंक से खुद को मुक्त करने हेतु वह उस उजाले के स्रोत को ही आतंकी साबित करने लगता है, और सफल भी हो जाता है। सवाल उठता है कि उमाशंकर की कहानियाँ किसी सकारात्मक परिणति पर खत्म क्यों नहीं होतीं? यह सवाल हमारे नागरिक परिदृश्य की निरपेक्षता पर भी उठना चाहिए!
गौरतलब है कि इन कहानियों की समाज-व्यवस्था में ज्यों ही किसी उजाले के स्रोत को कालिमा दबोचती है, कथाकार अपने शिल्प के सहारे विडम्बनाओं और विसंगतियों का तुमुल कोलाहल खड़ा देता है, जहाँ भावक उस पूरे परिदृश्य के परिशोधन और परिस्थितियों के अनुशीलन हेतु उद्यमशील हो जाता है। कहना चाहिए कि उमाशंकर की कहानियाँ समकालीन समाज के जीवन-यापन में नए राजनीतिक परिदृश्य, नई शासन-पद्धति, आयातित विचार और व्यवस्था के आलोक में विकसित नई-नई चिन्ताओं और चिन्तनों के कारण, और भूमण्डलीकरण तथा उत्तर औपनिवेशिक युग की स्वेच्छाचारिता, उदारता(?), निरपेक्षता के कारण खण्डित वस्तु-मूल्य, नीति-मूल्य, मानव-मूल्य और संवेदनाओं के हताहत धरातल के कारण, उन विसंगतियों को रेखांकित करती हैं, जहाँ आम नागरिक, अन्धकार के तिलिस्म का शिकार हो रहा है, और बदकिस्मती से अपने हिस्से के पवन-प्रकाश के स्रोत की पहचान उसे नहीं हो पा रही है। ये कहानियाँ समकालीन यथार्थ की इसी बदकिस्मती पर व्यंग्य करती हैं, किसी राजनीतिक परिदृश्य का विश्लेषण करने के बजाय उन परिदृश्यों के बुनियादी घटकों की बुनियादी त्रुटियों की तरफ इशारा करती हैं।
उमाशंकर की कहानियों में विषय-वस्तु का वैविध्य भी कम रोचक नहीं है। प्रेम में धोखा जैसे रत्ती भर के प्राचीन विषय की कहानी स्वीट होम अपने कथन-कौशल, शिल्प के कारण महत्त्वपूर्ण, सार्थक, और नई हो गई है। नई भंगिमा में प्रस्तुत यह कहानी पूरी तरह प्रेम में धोखा के पारम्परिक विधान से अलग एक नए रूप में सामने आती है। आशीष और आतिया के प्रेम की विषादमय परिणति से यह कहानी भारतीय युवा और किशोर की चिन्तनशीलता को रेखांकित करती है। जिस उम्र में प्रेम और संघर्ष के अमिट भाव उपजने की परम्परा भारत में अनादि काल से है, उस भारत के युवा को नायिका के मुँह से इसलिए बदबू आती है कि वह मुसलमान है। शिल्प के बल-बूते पुराने विषय पर ताजा-तरीन कहानी तैयार करने का यह विलक्षण उदाहरण है। ऐसे थे गिरीश दा कहानी का नायक वस्तुतः हँसता हुआ अग्निपिण्ड है, जो हिन्दुस्तान, अथवा धरती के हर चेहरे पर हँसी देखने की कामना करता है, पर इस कामना के बावजूद इस पतनोन्मुख नैतिकता से परिपूर्ण समाज में उनका अन्तर्मन दहकता रहता है, और अन्ततः उनकी अपनी ही हँसी दरक जाती है। विचारणीय है कि सदाबहार छवि अंकित करने वाले गिरीश दा की मृत्यु ब्रेन हैमरेज से हुई। डॉक्टरों को शंका है कि वे खिन्न रहते होंगे; लोग-बाग जानते हैं कि वे हरदम खिलखिलाते रहते थे। अब जीवविज्ञान और जीवन-ज्ञान के बीच का यह व्याकरणिक सूत्र गिरीश दा ने किस आधार पर, और किस कारण तय किया होगा--यह अचम्भित नहीं तो चिन्तनशील अवश्य करता है।
शील-सभ्यता-आदर्श-परम्परा की रक्षा हेतु रची गई व्यवस्था और आचार के पाखण्ड, खानदानी शौर्य-पराक्रम, जमीन्दारी वर्चस्व के खोखले मानदण्ड, सत्ता का तिलिस्म बनाए रखने का छर्,िं परिवार के मुखिया तथा समय के नायक के रूप में अपने व्यक्तित्व की मीनार खड़ी करने की निरर्थक पद्धति हमारे यहाँ बहुत पुरानी है। भारत के खास-खास भूखण्डों में पल्लवित-पुष्पित होने वाली इन विसंगतियों, विडम्बनाओं को आज भी दस्तावेज की तरह संरक्षित किया जाता है। शिष्टोक्तियों की ओट में यहाँ तन-मन-प्राण पर सलाखों के निशान इस कारीगरी से दिए जाते हैं कि मरते दम तक सम्मान का भ्रम बना रहे। शेक्सपियर क्या तुम उससे मिलना चाहोगे वर्चस्व-रक्षण की ऐसी ही कहानी है। अपनी नाक को समय की आँधी के झटकों से बचाने हेतु, जमीन्दारी के मिथ्या अहंकार में झूमते रहने हेतु सुमेरनाथ चौधरी बुधनी गाँव का नामकरण जैसे अजीबोगरीब पाखण्ड का अनुष्ठान करते हैं। उनकी विकृत मौत तक में वर्चस्व का पाखण्ड भर दिया जाता है। उनके बड़े बेटे सूर्यकान्त चौधरी की ताजपोशी, और छोटे बेटे देवकान्त के साथ मीना जैसी अबोध बाला की शादी, मीना के वैधव्य काल में उसकी मान-प्रतिष्ठा, कामदंश की असह-पीड़ा, दमित वासना का दग्ध सौन्दर्य...हर जगह इन्हीं विडम्बनाओं का कोलाहल मचा हुआ है। पूरा सन्दर्भ बेचैन कर देने वाला विमर्श प्रस्तुत करता है। मीना को जेठ से मिलने वाला सम्मान उसी जमीन्दारी प्रथा का पाखण्ड है, जहाँ उसे शहद चटाकर जीवन के उल्लास से वंचित रखने की साजिश चल रही है। मीना अपने मन की जिस आग का अनुताप किसी से बता तक नहीं सकती, उसकी चिन्ता किसी को नहीं है, उसकी जेठानी तक को नहीं, जो खुद एक स्त्री है। वह मीना पूरी जिन्दगी एक वैसे मर्द की विधवा बनकर गुजार देती है, जिसकी उसने कभी तसवीर तक नहीं देखी। जड़, जोरू, जमीन को अपनी सम्पत्ति, और इसलिए अपनी इज्जत समझने वाले जमीन्दार अपने को धर्मात्मा साबित करने के इस गोरखधन्धे में समझ नहीं पाते कि वर्चस्व-रक्षा के पचड़े में वे जीते जी अपना मानवीय अर्थ खो देते हैं! ताउम्र वे इस सत्य को स्वीकार नहीं करते कि दौलत और शोहरत की यह मीनार, वर्चस्व का यह फतवा उनके साथ नहीं जाएगा, यहीं खाक हो जाएगा।
 ईर बीर अत्ते फत्ते कहानी भारत की लोकतान्त्रिक पद्धति, शासन-व्यवस्था की नीचता, और नागरिक-जीवन की दरिन्दगी की बेहतरीन तस्वीर है। यहाँ समाज की उन सभी हरकतों का पर्दाफाश हुआ है, जिसमें दारुण घटनाएँ अब दिल नहीं दहलातीं! आपदाओं से निजात पाना अब सामाजिक संस्कार नहीं होता, हर व्यक्ति उस पूरे परिदृश्य में अपनी भूमिका और अपने मतलब की बात देखते हैं। लिहाजा सारा कुछ फैण्टेसी की तरह देखा जाता है। देश के चार सिरफिरे किसी विचित्र-से कौतुक के लिए भीड़ में बम रख आते हैं और उसके ब्लास्ट होने की खबर एफ.एम. चैनल में सुनने के लिए बैठ जाते हैं। पर उनका सिरफिरापन भी तब चौंक जाता है, जब उन चारो द्वारा रखे गए बम का दायित्व कोई आतंकी संगठन ले लेता है, और उस जुर्म के अपराधी के रूप में कुछ निर्दोष लोगों को हिरासत में ले लिया जाता है। पूरी कहानी वर्तमान शासन-व्यवस्था और सामाजिक सरोकार की धज्जियाँ उड़ा रही है।
उमाशंकर की कहानियाँ अपने कथ्य और विषय-वस्तु की तुलना में शिल्प के स्तर पर अधिक मुँहजोर हैं। उनकी बुनावट में नागरिक जीवन के आहार-व्यवहार, आचार-विचार, मान्यताएँ-मुहावरे-लोकोक्तियों का वे भरपूर दोहन करते हैं। इन उपस्करों का उपयोग वे कई बार रूढ़ हो गई मान्यताओं पर व्यंग्य के लिए करते हैं, तो कई बार उनकी स्थापित अर्थ-ध्वनियों के चौखटे तोड़कर उन्हें नई परिणतियों में ढालते हुए करते हैं। दिलचस्प है कि इस पूरे कौशल में कथाकार का शिल्प दोहरी सफलता में लिप्त रहता है। एक तरफ तो यह कथा-संरचना को विस्तार देता है, उसे माँसल, रोचक और प्रभावकारी बनाता है, तो दूसरी तरफ वह भावकों को नागरिक जीवन की ओर ले जाकर एक परिष्कृत मनुष्य बनने की प्रेरणा देता है। फिर तो उन्हें अपने ही सामाजिक परिदृश्य की विसंगतियों से उबकाई आने लगती है। जनपदीय संस्कृति की मान्यताओं, मुहावरों, उक्तियों का ऐसा दोहन पूर्ववर्ती पीढ़ी के कथाकार काशीनाथ सिंह के यहाँ दिखता है, जहाँ पुरानी मान्यताएँ न केवल उल्लिखित होतीं, बल्कि नए सन्दर्भों का नया अर्थ पाकर मुखर और जीवन्त हो उठती हैं। शिल्प की इस विशेषता के लिए कथाकार अपनी पीढ़ी में अलग पहचान बनाए हुए दिखते हैं। कहना गैरमुनासिब न होगा कि इस क्रम में कथाकार कहीं-कहीं अतिकथन के शिकार भी हुए हैं।
अत्यन्त छोटे कथ्य, छोटे विषय की कहानी...और इब्नबतूता गायब हो गया  शिल्प के सहारे तीव्रतर घटनाओं का बड़ा परिदृश्य प्रस्तुत करती है, और विराट व्यंजना की गम्भीर अर्थध्वनियाँ देती है। कथानायक इब्नबतूता लोखण्डे अचानक गायब हो जाता है, पर विभिन्न गाँवों में उस ढब-ढाँचे का विक्षिप्त-सा व्यक्ति लोगों को दिखाई देता रहता है, जिसने अपनी दमे की बीमारी से निजात पाने हेतु एक मशीन ईजात कर रखी है, वह मशीन बिजली से चलती है। उसे बहुत लम्बी यात्रा करनी है, वह थकता नहीं है, वह लहलहाते हुए खेतों की मेड़ पर जाकर सबसे पूछता है--दिल्ली चलोगे? अपने पूरे चरित्र के साथ इब्नबतूता भारत के अधिसंख्य नागरिकों का प्रतीक बना हुआ है।
इब्नबतूता के दादा का गाँव से उजड़ना, तीसरी पीढ़ी के आते-आते अपनी संस्कृति से कट जाना, जीवन-बसर के लिए वेल्डिंग दुकान पर चाकरी करना, पशुवत श्रम और दूषित वातावरण के कारण दमे का मरीज होना, चाकरी पाने-खोने के सिलसिले में उखड़ती हुई साँसों को बचाने की मशक्कत करना...सब के सब उस हृदयहीन व्यवस्था और मनुष्य विरोधी वातावरण को रेखांकित करता है, जिसमें खेतों की हरियाली से मुँह मोड़कर मनुष्य फैक्ट्री के धुएँ में खुद को झोंके जा रहा है, और बची-खुची कुछ अन्तिम, उखड़ती हुई साँसों के साथ जब होश आता है, तब बहुत देर हो गई रहती है, रौंदी हुई लालसाओं और थकित मनोदशा में वे वीतराग हो गए रहते हैं।
इन कहानियों के पाठक सोच सकते हैं कि उमाशंकर का हर उज्ज्वल चरित्र अपने संघर्ष के चरम तक आते-आते टूट क्यों जाता है, पतनशील व्यक्ति ही विजयश्री की माला पहनकर क्यों चाक-चौबन्द हो जाता है? कहीं यह कथाकार, हताश और पराजित नायकों के जनक तो नहीं?...पर नहीं, पाठकों को निरन्तर महसूस होगा कि इन कहानियों के उज्ज्वल चरित्र अपनी शहादत की शक्ति से ही पतनोन्मुख विजित को ग्लानि के सागर में डूबने हेतु मजबूर करता है, उसे सिर नहीं उठाने देता। तथ्य है कि सामाजिक संरचना के संशोधन में यह स्थिति अधिक कारगर हो सकती है। माँ की मजार पर खड़ा होकर कोई पुत्र अपने पाँव में ताकत महसूस कर सकता है, पर जिसने अपनी माँ की जिन्दगी बेचकर नौकरी खरीदी है, वह कायर युवक अपनी किस ताकत पर गुरूर करेगा? अयोध्या बाबू अपना अक्षर ज्ञान भूलकर भी अपने जाज्वल्यमान अतीत के लिए वरेण्य बने रहेंगे, पर विभ्यांशु भविष्य का बादशाह बनकर भी काले अतीत की छाया ढोता रहेगा। छुटकी की आत्महत्या के कारण ही उसके गाँव के भद्र नागरिकों की नीचता जाहिर हो सकी। ... दद्दा की हत्या के कारण ही मिश्री सिंह और पशुपति के आचरण का खुलासा हो सका। आतिया का जीवन-रस सूखने के कारण ही भारतवर्ष के युवाओं का स्वाभाविक चरित्र और प्रेम-सम्बन्धी संकल्पनाओं की नग्नता सामने आ सकी। इन अर्थों में उमाशंकर की इस किस्सागोई की प्रशंसा की जानी चाहिए। अपनी बुनावट में ये कहानियाँ इतनी नूतन, मौलिक और भिन्न हैं कि अपने समाप्ति स्थल के बाद पाठकों के मन में नए सिरे से प्रारम्भ होती हैं, चेखव और राजकमल चौधरी इस बात पर एकमत हैं कि उत्तम कोटि की कहानी अपने समाप्ति-स्थल से ही शुरू होती है।
उमाशंकर का कथाकार लगातार स्वयं को शामिल करते हुए अपनी पीढ़ी पर कुपित और क्षुब्ध दिखता है। उन्हें वे ऐसी पीढ़ी के प्रतिनिधि के रूप में देख रहे हैं जो अपनी विफलताओं की जिम्मेदारी अपनी प्रतिभाशून्यता, अकर्मण्यता, भटकाव, दिशाहीनता, नैतिक पतन को नहीं देकर पूर्वजों की निर्धनता और अपने दुर्भाग्य को देते हैं। इस आयुवर्ग के जितने भी चरित्र उनकी कहानियों में खड़े होते हैं, वे उनके सोच-विचार की मलिनता के कारण, धिक्कार का भागी बनकर सामने आते हैं। कदाचित् शीघ्र ही यह पीढ़ी जागे, और अमानवीय हो रहे समाज और असामाजिक हो रहे मानव को कोई जादू की झप्पी दे। हाँ, निबन्धात्मक शैली की घुसपैठ यदा-कदा अखरने लगती है।
तथ्य है कि आज के कहानीकारों को पूर्वजों के कथा-कौशल ने बहुत कुछ सिखा दिया है; पर तथ्य यह भी है कि विगत तीन दशकों के वैज्ञानिक आविष्कार, औद्योगिक विकास, व्यापारिक विधान, राजनीतिक सन्धान, सामाजिक व्यवस्था, पारिवारिक आचार, और अन्ततः मनुष्य के वैयक्तिक संस्कार (?) ने अपनी पद्धतियों से इन कहानीकारों को हतप्रभ कर रखा है। उन्हें अपने आस-पास की पूरी व्यवस्था एक तिलिस्म लगने लगी है, जहाँ कुछ भी व्यवस्थित और अनुकूल नहीं है, पर सब कुछ ठीक होने, सम्पूर्ण सुव्यवस्था और अनुकूल वातावरण कायम होने की घोषणा की जा रही है। उमाशंकर जैसे कहानीकारों के समक्ष इस समय यह बड़ी मुसीबत है कि अन्धकार और अराजकता के तुमुल कोलाहल में कहानी कहाँ से शुरू और कहाँ से खत्म की जाए! पूर्वजों के दिखाए मार्ग और शिल्प-सन्धान आज के कहानीकारों को कुछ जोखिम उठाने की अनुमति देते हुए-से प्रतीत हो रहे हैं। मौके-बेमौके कोई अवान्तर, किन्तु अनुषंगी कथा-प्रसंग, कथाकार की शिल्प-संरचना में आकर समाविष्ट होने की याचना करने लगते हैं। यह समकालीन सामाजिक जीवन-व्यवस्था के वैविध्य का प्रताप है। सम्भवतः यही कारण हो कि आज की कहानियों में कई बार कई-कई कहानियों के अँखुवे दिखने लगते हैं। अपने परिवेश के इस दारुण दबाव को झेलते हुए यहाँ उमाशंकर ने अपने कथा-कौशल को एक बेहतर परिणति तक पहुँचाया है। विकृतियों के सागर में तैरते हुए इस समाज में इन कहानियों के चरित-नायकों का उज्ज्वल चरित्र, और दुर्दमनीय साहस अन्तिम साँस तक जूझता रहता है, एक परिष्कृत समाज-व्यवस्था की संस्थापना हेतु अभिलाषित रहता है, तदर्थ उद्यम भी करता रहता है, शहीद हो जाता है, पर उसकी वह संघर्षमय शहादत व्यर्थ नहीं जाती, पूरे समाज को आत्मज्ञान का आलोकपुंज और दिव्यचक्षु का अक्षय स्रोत देकर वे विदा होते हैं। आशा की जानी चाहिए कि उनके पात्रों की यह उज्ज्वल नैतिकता और अनासक्त बलिदान इस समाज को निश्चय ही एक दिशा दिखाकर दम लेगा।
अयोध्या बाबू सनक गए हैं/उमाशंकर चौधरी/भारतीय ज्ञानपीठ/रु.170.00/पृ. 174

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