Tuesday, March 17, 2020

नैतिक पत्रकारिता की जरूरत (मासिक पत्रिका 'सबलोग' की समीक्षा)



नैतिक पत्रकारिता की जरूरत  

(मासिक पत्रिका 'सबलोग' की समीक्षा)

भाषा-विज्ञान और भाषाई विकास के इतिहास के मद्देनजर तथ्य है कि शब्दों और पदों के अर्थ-विस्तार एवं अर्थ-संकोच की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है। वैज्ञानिक उपदानों की प्रचुरता से शब्द, भाव, वस्तु और परिस्थिति के भौतिक आयामों में भी पर्याप्त विकास और संकोच हुआ है। पत्रकारिता जैसे शब्द को ही लें, तो समझ में सब कुछ आ जाता है। यह उद्यम कहाँ से और किस उद्देश्य से शुरू हुआ और कहाँ आकर दिक्जाल में फँस गया। आज की पत्रकारिता, जिसे वृहत अर्थों में जनसंचार माध्यम कहा जा रहा है, और जो पत्र-पत्रिका के फलक से बाहर आकर रेडियो, टेलीवीजन, इण्टरनेट, पम्पलेट, पोस्टर, ध्वनि विस्तारक यन्त्र से प्रचार तक और कई तरह की विज्ञापन पद्धतियों तक पर अपना साम्राज्य कायम कर चुका है, वह अपने मूलभूत उद्देश्यों से कहीं बाहर चला गया-सा लगता है। टी.आर.पी. के चक्कर में संचार माध्यम खबर का वास्तविक अर्थ भूल गया है। सबकी खबर ले, सबको खबर दे की मुहावरेदार निष्पत्ति अब वहाँ बची नहीं रह गई है। उदन्त मार्तण्ड से लेकर सरस्वती होते हुए आज की पत्रिकाओं और अखबारों और टेलीविजन के खबरिया चैनलों की करामात सुधी जनों के गौरतलब है। अब तो किंवदन्ती ही रह गई है कि पत्रकार देश के सजग प्रहरी हैं। अब कोई पहरेदारी उनसे नहीं होती। समाज के परिष्कार में अपनी भूमिका निभाने में आज की पत्रकारिता का बहुलांश विफल दिख रहा है।
इस अकालवेला में इसी वर्ष प्रारम्भ हुई मासिक पत्रिका सबलोग वस्तुतः लोक-चेतना का राष्ट्रीय मासिक लग रही है, जहाँ लोक भी है और लोक-चेतना भी। अब तक प्रकाशित अपने सात अंकों से इस पत्रिका ने प्रमाणित कर दिया है कि हिन्दी पत्रकारिता को अपनी विरासत के सम्मान में पीछे मुड़ का देखना चाहिए, अन्ततः उसी पदचिह्न के परिष्कृत और समयोचित बर्ताव के साथ वह कुछ सार्थक कर पाएगी।
हिन्दी में इन दिनों पत्रिकाओं और प्रकाशन समूहों की कोई कमी नहीं रह गई है। भूमण्डलीय बाजार में और सरकारी-गैरसरकारी हिन्दी भक्ति में बजट के इतने स्रोत हैं कि हिन्दी में पत्रिका प्रकाशित करना, बेहतर व्यवसाय और फैशन हो गया है। कोई दिक्कत नहीं, लोग व्यवसाय करें, पर पत्रकारिता के रास्ते जो व्यवसाय करें, उसमें उसके मूल लक्ष्य सामाजिक कर्तव्य को भी ध्यान में रखें। सुखद है कि सबलोग पत्रिका अपने अब तक के अंकों में इस दिशा में सावधान दिख रही है।
भारत देश को गुलामी से मुक्ति दिलाने हेतु भारतेन्दु मण्डल के सभी चिन्तकों ने जिस पत्रकारिता को अपरिहार्य समझा था, सबलोग ने उसकी परिणति के इकसठ वर्षों का आकलन करते हुए सुधीजनों के बीच पदार्पण किया। नागरिक अभिलाषाओं और चित्तवृत्तियों का विश्लेषण ममत्व, गाम्भीर्य और तार्किकता से इस अंक में प्रस्तुत किया गया है। आजादी के छिन्नमूल अर्थ और अंग-भंग प्रस्तुति की व्याख्या करने में देश के सुविख्यात लेखकों और पत्रकारों ने अपनी भूमिका अदा की है। कृषि से सिनेमा तक, संसद से किताब तक, कला से साहित्य तक, शिक्षा से आन्दोलन तक, राजनीति से शख्सियत तक, बाजार से मीडिया तक के सभी विषयों पर प्रस्तुत आलेख संयोजन सम्पादन का महत्त्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है। पूर्वोत्तर राज्यों से लेकर बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल, दिल्ली के नागरिक परिदृश्य पर नजर दी गई; कुछ सामग्री द्रविड़ प्रान्तों पर भी केन्द्रित रहती, तो यह अंक मुकम्मल हो जाता।
इस पत्रिका ने आगे के अंक लगभग विशेषांक की तरह ही प्रस्तुत किया है। यू.पी.ए. शासन के पाँच वर्ष, महात्मा का हिन्द स्वराज जैसे विषयों पर अप्रैल और मई का अंक केन्द्रित है। इन अंकों में और अन्य अंकों में भी सबसे बड़ी बात यह दिखती है कि ये पाठ वस्तुतः पाठकों को भ्रमित नहीं करते। उन्हें निन्दा प्रशंसा के मोहजाल में भरमाते नहीं, उन्हें तर्क कौशल प्रदान करते हैं, अपने और अपने परिवेश के बारे में खुद सोचने की एक विवेकसम्मत शक्ति देते हैं। विदित है कि आर्थिक उदारीकरण और विपथगामी आपराधिक उद्यमों ने आज के समाज को अंकुशविहीन कर दिया है। ऐसे में अन्ततः सच्ची, सही और नैतिक पत्रकारिता ही समाज को सही राह दिखा सकती है। घटनाओं की सूचना देने वाले उपादानों की अब कोई कमी नहीं रह गई है। आज आवश्यकता है उन घटनाओं को समझने लायक तार्किक और विवेकपूर्ण नजरिया विकसित करने की। यह दायित्व पत्रिकाओं के आलेखों के कन्धे आ गया है। दुखद है कि अधिकांश हिन्दी पत्रिकाएँ अपने इस दायित्व को अपने दृष्टिपथ से बाहर कर चुकी हैं। संयोगवश सबलोग ने इन दायित्व को पहचाना है। इसके आलेखों में मानवमूल्य और सामाजिक दायित्व के ह्रासमान आचरण पर समीक्षात्मक नजर रखी गई है, जो पाठकों को अपने लिए नई चेतना दृष्टि देती है।
ताजा अंक जुलाई, 2009 दुनिया के सबसे बडे लोक-तन्त्र में नवगठित सरकार की चुनौतियों पर केन्द्रित है, जिसमें इस तन्त्र के आगमन के कारणों, उसकी क्षमताओं, सीमाओं, समस्याओं, और सावधान रहने लायक सम्भावित मसलों की ओर न केवल सरकार और सरकारी तन्त्र का, बल्कि आम नागरिक का भी ध्यान आकर्षित किया है। इससे भी अधिक प्रशंसा की बात इस पत्रिका के स्थायी स्तम्भों में दिखती है। इस अंक के हरेक स्थायी स्तम्भ में वैविध्य की विलक्षणता दिखाई देती है।
वास्तविक अर्थों में यह एक समग्र पत्रिका है। सुधीजनों के बीच इसका अच्छा भला स्वागत हो रहा है। इसे सुधी पाठकों की ओर से टिमकना लगाया जाना चाहिए, ताकि यह हिन्दी पत्रिकाओं की भीड़ में खोए नहीं और पूँजीपतियों द्वारा सम्पोषित पत्रिकाओं अथवा शुद्ध वणिक् मनोवृत्ति से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं की काली छाया इस पर न पड़े।
कई लेखकों द्वारा लिखे गए आलेखों में भाषाई एकरूपता देखने की अपेक्षा पाठकों को होती है। कई लेखक कई पदबन्ध अंग्रेजी में सोचकर हिन्दी में अनुवाद करते हैं। उसके दो खतरे होते हैं--पहला यह कि वाक्य संरचना बोझिल हो जाती है, और सन्देश फिसल जाता है। सम्पादक को बधाई कि ऐसा इस पत्रिका में अब तक नहीं हुआ है। पर दूसरा खतरा होता है कि एक ही शब्द में कई तरह के उपसर्ग, प्रत्यय और विशेषण लग जाते हैं। इससे सम्प्रेषण में तो कोई बाधा नहीं होती, पर भाषा का सौन्दर्य असन्तुलित हो जाता है। ऐसा इन अंकों के कुछ आलेखों में देखा गया है। सम्पादक से पाठकों की अपेक्षा है कि जिस तरह उत्तरोत्तर यह पत्रिका बेहतर होती जा रही है, यह मामूली शिकायत दूर हो जाएगी। विशेष बधाइयाँ,
नैतिक पत्रकारिता समाज का पथदर्शक/सबलोग/अगस्त 2009

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