Tuesday, March 17, 2020

आस्था से परिपूर्ण कविताएँ (श्याम सिंह चौहान का कविता संकलन)



आस्था से परिपूर्ण कविताएँ  

(श्याम सिंह चौहान का कविता संकलन)

फिर भी रहेगी दुनिया श्याम सिंह चौहान की तिरासी ताजा कविताओं का संकलन है। सन् 2008 में प्रकाशित इस संकलन की कविताओं की रचना विगत आठ वर्षों में हुई। इन कविताओं की अनुशंसा करते हुए गंगाप्रसाद विमल ने सही लिखा है कि श्याम सिंह चौहान की कविताएँ पेशेवर कवियों से थोड़ा अलग हैं। वे थोड़ा-थोड़ा अनगढ़पन के कारण लोक-संस्पर्श की स्मृति को सुरक्षित रखे हुए है और इसी कारण निष्पाप-सी मौलिकता का अहसास कराती हैं। इन कविताओं में उभरने वाला कवि-गुण एक सहज स्वाभाविक, नैसर्गिक कवि का इस लापता दुनिया में अपना पता खोजने, अपने अनुभवों को सार्वजनिक करने के अभियान से जुड़ना है।
इस वक्तव्य में सूत्र रूप में इन कविताओं के बारे में सब कुछ कह दिया गया है। कवि स्वयं भी स्वीकारते हैं कि कविता-लेखन की प्रेरणा उन्हें सन् 2000 में मिली। इस अर्थ में सन्तोषप्रद है कि उनचास वर्ष की आयु में मिली इस प्रेरणा को कवि ने पर्याप्त ममता और अनुभवजन्य गरिमा से सहेजा।
सच है कि कवि श्याम सिंह चौहान के पास काव्य-लेखन का दीर्घकालीन अभ्यास नहीं है, पर आम नागरिक के जीवन-यापन और समाज-व्यवस्था की बुनियादी जरूरतों, उसके उद्यम-उद्योगों में लिप्त-तृप्त नागरिक प्रवृत्तियों को देखने का दीर्घ अनुभव उनके पास है। अनभ्यास के कारण इन कविताओं में लोक-प्रसंग और जीवन-सन्दर्भ के चित्रांकन में अनगढ़पन का आभास होता है, पर जीवनानुभव की प्रचुरता यहाँ प्रखर है। गत शताब्दी के सातवें दशक के उत्तरार्द्ध की राजनीतिक हलचल और जनपदीय साँसत को कवि की किशोरावस्था ने सिद्दत से भोगा है, और जवानी से प्रौढ़ावस्था आते-आते बाद के दशकों की तमाम सियासी तिकड़मों का जायजा लिया है। तब तक प्रगति के नाम पर लोगों को लगातार अपनी जमीन से उखड़ते हुए देखकर कवि ने निश्चय ही एक सुदृढ़ जीवन-दृष्टि अर्जित कर ली होगी। सुखद है कि काव्य-लेखन जैसे खतरनाक क्षेत्र में प्रविष्ट होने से पूर्व अनुभव का एक बड़ा दायरा उन्हें प्राप्त हो गया था।
इस संकलन की तमाम कविताओं में तराश की कमी अवश्य है, पर एक विराट अनुभव की अनगढ़ दुनिया अपनी समस्त खूबियों के साथ यहाँ उपस्थित है। दिलचस्प है कि जीवनानुभूति की इस रूपाकृति में कवि ने कभी किसी को दोषी ठहराने जैसा निर्णयात्मक फतबा देने की कोशिश नहीं की है। हर समय वे आत्म-मन्थन, आत्मावलोकन और आत्मबोध की मुद्रा में दिखते हैं। अपनी जिम्मेदारी रेखांकित करते हुए कवि कई बार प्रश्नों के चक्रव्यूह में खड़े निहत्थे अभिमन्यु हो जाते हैं, पर कौरवीय दानवता से पराभूत और भयभीत नहीं होते, वैचारिक मूल्यों की शाश्वतता और अनश्वरता पर उनकी आस्था निरन्तर बनी रहती है--
अपने से बाहर की दुनिया में
सचमुच कुछ भी नष्ट नहीं होता
नष्ट होते हैं व्यक्ति के मन
दुनिया का कुछ भी नष्ट नहीं होता...
विदित है कि विगत चार दशक हमारे देश की जनता के लिए उत्थान-पतन के विचित्र अनुभवों के अन्तराल साबित हुए हैं। बेकारी बढ़ी, लोगों के मन में एक साथ निरर्थकता और क्रूरता बढ़ी, सियासी खेल में राजनेताओं ने निरंकुशता और नृशंसता की हदें पार कर दीं, जातीय भेदभाव और साम्प्रदायिक उन्माद फैलाकर मानव-द्रोह फैलाया गया, धार्मिक मान्यताओं की रूढ़ियों से समाज जकड़ गया, मानवीय सम्बन्धों की ऊष्मा समाप्त हो गई, धार्मिक असहिष्णुता ने समाज को खोखला कर दिया। जिन सम्बन्धों की ऊष्मा की बदौलत लोगों ने समाज बनाया, उसी समाज ने मानव-मानव के बीच हजारों दीवारें खड़ी कर दीं। उन दीवारों का अनूठा ध्वन्यार्थ कवि ने अपनी ईंट शीर्षक कविता में दिया है--
ईंट की दीवारों को
न तोड़ो
इन दीवारों और गुम्बदों तले
हुई कामनाएँ पूर्ण सबकी
सब धर्मों का ईंटों से बनाऊँगा
अब एक ही आकार
इसे न तोड़ना कभी
निशानी रहने देना
तेईसवीं सदी के लिए...
फिर भी रहेगी दुनिया शीर्षक यह संकलन श्याम सिंह चौहान की कविताओं का पहला संकलन है, इस संग्रह में इस शीर्षक की एक कविता भी है। यह शीर्षक कवि के विश्वास और आत्मशक्ति का संकेत देता है। इन कविताओं की सबसे बड़ी अन्तर्शक्ति इस धारणा में है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कवि जनसमूह की वैचारिक शक्ति, समाज-व्यवस्था और मानवीय सम्बन्धों के गुणसूत्र, प्राकृतिक सुषमाओं की शाश्वतता, नैसर्गिक अवदानों की निरन्तरता एवं अनश्वरता के प्रति पूरी तरह आस्थावान हैं। अन्धकार और आपदाएँ उन्हें कभी भयभीत नहीं करतीं। आधुनिकता की होड़ और वैज्ञानिक उपलब्धियों के जिस चकाचौंध ने हमारे समाज के बुद्धिवादियों को अपनी विरासत के पूरे अस्तित्व पर शक करने की आदत डाल दी है, कवि उस आतंक में कभी फँसते नहीं। ऐसे ही एक प्रसंग में अशोक वाजपेयी कहते हैं, ‘आधुनिकता का एक अभिशाप यह है कि उसने अपनी सन्देहपरकता और प्रश्नवाचकता की मूल वृत्ति और उसके स्वरचित आतंक के चलते, हमें सृजनात्मक साहित्य में संसार की सुन्दरता या कोमलता की स्तुति करने से बरज रखा है। संसार जो अपनी अपार और अटूट विविधता में अपनी विलक्षण बहुलता में हमें मिला हुआ है, हमारे चारो ओर है, और जिसे किसी हद तक हम बनाते-बिगाड़ते हैं, उसका एक बड़ा और कालजयी पक्ष हमारे साहित्य से बहिष्कृत है।
तोषप्रद है कि आधुनिकता की तमाम सन्देहपरकता और प्रश्नवाचकता के बीच इस संकलन के कवि ने संसार की समस्त सुन्दरता और कोमलता को अपनी रचनात्मकता में स्तुति का विषय बनाया है। यह संसार अपने सम्पूर्ण वैराट्य के साथ इनकी कविताओं में उपस्थित है। कवि पूरी तरह इस सच के प्रति आश्वस्त हैं कि
जिन्दगी की यात्रा में
आखिरी पड़ाव तक
मिटने से पहले
पराजय से इनकार की
चीख निकलेगी...
इन तमाम खूबियों के साथ यह उजागर सत्य है कि श्याम सिंह चौहान की कविताएँ स्थापित कद-काठी के कवियों के सृजन-संसार से थोड़ा भिन्न संसार रचती हैं। लोक-चेतना, ग्राम्य-सुषमा, वन-उपवन, स्वप्न-आकांक्षा, खग-मृग-मानव की कोमल संवेदनाओं के अनुराग से भरे इस कवि के यहाँ अनुभव और आस्था की एक बड़ी दुनिया अवश्य है, पर कई बार ऐसा लगता है कि कवि को काव्य-सृजन के इस क्षेत्र में अभी बहुत कुछ जानने समझने की अपेक्षा है। सपनों और उड़ानों की समस्त अभिलाषा ही इन दिनों कविता की दुनिया तैयार नहीं कर पाती। इक्कीसवीं सदी के इन प्रारम्भिक वर्षों में कविता के समक्ष जितनी बड़ी-बड़ी चुनौतियाँ हैं, नेता-अफसर-पुलिस-पत्रकार-शिक्षक और धर्म-राजनीति-न्याय के ठेकेदारों ने चारों ओर विडम्बनाओं की इतनी तीक्ष्ण ज्वाला फैला दी है, कि आम नागरिक का जीवन उसमें झुलसता रहा है। अनास्था, आतंक, बेकारी, महँगाई, दंगा, अनिश्चय, अपराध, अपहरण, आत्मघात, नृशंसता आदि की फसल पिछले कुछ दशकों में इतनी तेजी से पनपी है कि कोई भी मनुष्य अपने को महफूज मानने को राजी नहीं होता। दुनिया का सबसे बड़ा लोक-तन्त्र होने की घोषणा जिस स्वाधीन भारत में होती है, रामायण, महाभारत जैसे महान ग्रन्थ की रचना जिस देश में हुई है, महात्मा बुद्ध, चाणक्य, अशोक, हरिश्चन्द्र की कथा जिस देश को उपलब्ध है, गाँधी, सुभाष, भगत सिंह की शहादत जिस देश की विरासत है-- उस देश में मानव अंगों का व्यापार होता है, खाद्य सामग्री और दूध-तेल-घी-दवा में मिलावट होती है, अबोध बच्चों का अपहरण होता है, बेटियाँ बेची जाती हैं, नरबलि दी जाती है, वधुओं को जलाया जाता है... मुट्ठी भर लोग अपने को अनाज-पानी-पवन-प्रकाश का देवता और समय का महानायक साबित करने हेतु खुलेआम मनुष्य के प्राण और अभिलाषा-हरण का खेल खेलता है... इस विकराल परिस्थिति से निपटने, अस्तित्व बचाने के संघर्ष में लगे रहने के लिए आज रचनाकारों के पास शब्द के अलावा कुछ नहीं है। और जाहिर है कि इस विचित्र मौसम में शब्द अपने स्थापित अर्थ में बौने साबित हो रहे हैं। जाहिर है कि शब्दों को असरकारी बनाने और समय तथा समाज की चौकीदारी करने लायक बनाया जाता है। उनमें नया अर्थ पैदा किया जाता है। यह नया अर्थ पैदा होता है कि बिम्ब और प्रतीकों द्वारा, शब्दों के मुहावरेदार और अनूठे प्रयोगों द्वारा। श्याम सिंह चौहान को भीषण संग्राम में कूदने के लिए अपने शब्दों में, अपने रचनात्मक कौशल में वह ताकत भरने की महती आवश्यकता है। अतीत, विरासत और शाश्वत के प्रति आस्थावान रह जाने से ही जीवन-संग्राम की, खासकर हमारे समाज की मौजूदा प्रणाली की जटिल गुत्थियाँ नहीं सुलझ पाएँगी। मनुष्य की ममता और कोमलता से परिपूर्ण फूँक से ढिबरी की लौ बुझ सकती है, दावानल नहीं, चौके का चूल्हा सुलग सकता है, विद्रोह की आग नहीं। तमाम आस्था के बावजूद आज क्रोध और कूटनीति बहुत आवश्यक है। अन्ततः विरासत और प्रकृति की रक्षा के लिए भी उग्रता से खड़े रहने, डटे रहने की जरूरत होती है। सम्भवतः कवि का अगला संकलन कुछ ताकतवर धारणाओं के साथ आए।
समीक्षा, नई दिल्ली, अप्रैल-जून 2009
फिर भी रहेगी दुनिया/श्याम सिंह चौहान/अपनी जुबान प्रकाशन, दिल्ली/पृ 128/रु. 195

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