Monday, February 10, 2020

प्रगति‍वाद का प्रारम्‍भ और प्रमुख प्रवृत्ति‍याँ



प्रगतिवाद का प्रारम्‍भ और प्रमुख प्रवृत्तियाँ

उद्देश्य
सन् 1930 के आसपास नई सामाजि‍क चेतना से युक्‍त जि‍स सशक्‍त साहि‍त्‍य-धारा का वि‍कास हुआ, हिन्दी साहि‍त्‍य के इति‍हास में उसे प्रगतिशील साहि‍त्‍य या प्रगतिवाद कहा गया। इसकी पृष्ठभूमि छायावाद के दौर में ही बनने लगी थी। यहाँ उसी की
·        पृष्‍ठभूमि ‍एवं उद्भव प्रक्रिया;
·        छायावाद एवं छायावादोत्तर काव्य-सृजन की प्रवृत्तियों से प्रगतिशील काव्य-धारा के अलगाव,
·        प्रगतिशील चेतना के आगमन से सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों में आए परिवर्तन
जैसे प्रसंगों पर विचार किया जाएगा।

प्रस्तावना
सन् 1930 आते-आते समाज की चित्त-वृत्ति का भार वहन करने में छायावाद और रहस्यवाद विफल होने लगा था। 'गबन' और 'तितली' जैसी कथाकृतियों में श्रम और श्रमिकों के प्रति आस्था दिखाई देने लगी थी। हिन्दी कविता में इसी दौरान 'कल्पना' से मोह तोड़कर ठोस वास्तविकता और सामाजिकता का आग्रह दिखने लगा। देश के सृजनधर्मियों में नव सामाजिक चेतना का उदय हुआ था। सन् 1935 में ई.एम. फार्स्‍टर की अध्यक्षता में अन्तर्राष्ट्रीय संस्था प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिशन के अधिवेशन के अगले वर्ष मुल्कराज आनन्द और सज्जाद जहीर के प्रयास से भारत में प्रगति‍शील लेखक संघ का पहला अधिवेशन लखनऊ में हुआ। मुंशी प्रेमचन्द ने अध्यक्षीय भाषण में घोषणा की कि लेखक तो स्वभाव से ही प्रगतिशील होता है।
कल्पना, वैयक्तिकता और भावुकता के घटाटोप में छायावाद के दौरान शब्दों-वाक्यों की फिजूलखर्ची होने लगी थी; कई बार सामाजिक यथार्थ की तीक्ष्णता उजागर नहीं हो पाती थी। कवि, विचारक कि‍सी माध्यम और कथन-शैली की खोज में थे। 'छन्द' के अनुशासन को बन्धन के रूप में देखा जाने लगा था। इसलि‍ए छन्दबद्धता की तंग-राह से विदा लेकर वे मुक्त छन्द की ओर चल पड़े 'जा तू प्रिये छोड़कर बन्धनमय छन्दों की छोटी राह।' या फिर 'जूही की कली' शीर्षक कविता मुक्त छन्द प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से दो दशक पूर्व ही सन् 1916 में लिखी जा चुकी थी।
थोड़े समय बाद सुमित्रानन्दन पन्त ने छायावाद का 'युगान्त' घोषित कर प्रगतिवाद को 'युगवाणी' के रूप में अपना लिया था। 'युगान्त' और 'युगवाणी' उनकी कविताओं के संग्रह हैं। देर-सवेर महादेवी वर्मा ने भी अपनी सीमाओं में इसे स्वीकार किया। और इस तरह छायावाद के अग्रदूत जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा और सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ही प्रगतिशील चेतना के अग्रदूत हुए। प्रगतिवाद की महत्ता रचनात्मक साहित्य और आलोचनात्मक मानदण्ड--दोनों रूपों मे स्वीकृत हुई।

प्रगतिशील काव्यधारा की पृष्ठभूमि
छायावाद इस सदी के सांस्कृतिक पुनर्जागरण और प्रगतिवाद राजनीतिक जागरण की उपज थी। साहित्य में हर नया आन्दोलन, जीवन के प्रति बदलते दृष्टिकोण से शुरू होता है। वैज्ञानिक उन्नति के अवदान से मनुष्‍य की चिन्तन पद्धति विकसित हुई। लोगों की समझ में यह बात आने लगी कि जीवन में मुसीबतों का सामना करने के लिए अलौकिक शक्ति की प्रतीक्षा जायज नहीं है। वे समझने लगे कि सामाजि‍क विषमता कोई प्राकृतिक विधान नहीं, मानव निर्मित कुरीति है। यह संसार कि‍सी ईश्वर की निर्मिति नहीं है। मनुष्य सर्वोपरि है। द्वान्द्वात्मक भौतिकवाद की प्रतिष्ठा भी विचारों के परिणाम स्वरूप हुई। युग का नेतृत्व विज्ञान करने लगा। नए समाज की परिकल्पना स्पष्ट होने लगी। वर्ग और धर्म से परे मानवीय समता की बात मुखर होने लगी। साहित्य में जीवन के प्रति इन्‍हीं दृष्टिकोणों के कारण लोकोन्मुखी चेतना का प्रभाव बढ़ा। वर्गहीन सामाजिक व्यवस्था के प्रति लोगों का अनुराग बढ़ा। श्रमजीवियों की आत्मचेतना जागी। ट्रेड यूनियनों की जड़ें जमने लगीं। सन् 1934 के आसपास भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी तथा समाजवादी दल की स्थापना हुई। समकालीन समय और आम जनजीवन का सच बुद्धिजीवियों के सामने अपने दंश के समस्त पैनेपन के साथ उपस्थित हुआ। छायावादी काव्य की सृजन-पद्धति और रूप-विधान उस दंश की भयावहता को सँभाल सकने में विफल हो गए। प्रगतिवाद, सुविधा-असुविधा की इसी अफरा-तफरी की जरूरत, परिणति, अथवा समय की मजबूरी थी। समय के दंश से बेचैन समकालीन बुद्धिजीवियों का आक्रोश यहाँ प्रखर हो उठा।
उस दौर के रचनाकारों ने जन-मन की इच्छा-आकांक्षा और स्‍थिति-परिस्थिति को सूक्ष्मता से पहचाना। 'साहित्य किसके लिए' जैसे सवालों से जूझ रहे रचनाकार 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' जैसी उदात्त वाणी को हृदयंगम कर रहे थे। पहली बार कविता में किसान, मजदूर, श्रमजीवी उपस्थित हुए; उसके घर, परिवार और देह-दशा की स्थिति वहाँ दर्ज हुई।...उल्लेख उचित होगा कि साहित्य में कोई भी नवीन धारा एकदम से न तो आ जाती है, न एकदम से चली जाती है। हर धारा की सीमाबद्धता को जीर्ण-पुरातन घोषित होने में थोड़ा समय लगता है; और नई धारा के आ जाने के बाद भी पूर्व धारा का कुछ-कुछ सूत्र बचा रह जाता है, जो धीरे-धीरे समाप्त होता है। प्रगतिवादी साहि‍त्‍य भी इसका अपवाद नहीं है। प्रारम्भिक दौर में नए-पुराने रचनाकारों की लम्बी सूची तैयार हुई, जो प्रगतिवादी-चेतना से प्रभावित थे, लेकिन उनमें से कई रचनाकारों में पूर्ववर्ती काव्य-परम्परा की सामाजिक चेतना और व्यक्तिवादी, भाववादी संस्कार घुले-मिले रहे थे। इसे सकारात्मक नजरिए से देखने से यह बात सामने आती है कि भारतीय कविता में प्रगतिवाद कहीं से उखाड़कर नहीं लाया गया, बल्कि इसका उद्भव और विकास अपनी साहित्यिक और सामाजिक परिस्थितियों में हुआ।                     
प्रगतिवाद : अखिल भारतीय साहित्यधारा
भक्ति आन्दोलन के बाद, यही वह आन्दोलनकारी साहित्यिक धारा है, जो अखिल भारतीय स्तर पर अपना प्रभाव छोड़ सकी; हिन्दी के अलावा उर्दू, बंगला, गुजराती, मराठी, पंजाबी, तेलुगु, मलयालम एवं अन्य भाषाओं के प्रगतिशील लेखकों का आपसी सम्पर्क बढ़ा। इस विराट सामाजिक भावना से हिन्दी साहित्य को बड़ा लाभ मिला। जन-मन के सामाजिक यथार्थ को पहचान और कविता में उसका चित्रण निर्भीकता और उदारता से होने लगा। मजदूर किसान और निम्न मध्य वर्ग के शिक्षित, साक्षर युवकों में प्रगतिचेतना का उदय हुआ। उनमें से काफी संख्या में कवि, लेखक हुए। इस साहित्य-धारा का स्वागत और समर्थन, उस दौर के सभी सुविख्यात बुद्धिजीवियों और रचनाकारों ने सभी साहित्यिक विधाओं में किया। 'हंस', 'रूपाभ', 'नया साहित्य', 'काव्यधारा', 'संकेत'...सभी पत्र-पत्रिकाओं में साम्यवादी विचार, सामाजिक यथार्थ और प्रगतिवादी काव्य पर विपुल मात्रा में आलेख प्रकाशित हुए। उस दौर के सृजन का मूल स्वर साम्राज्यवाद, पूँजीवाद, फासीवाद, शोषण, अन्याय आदि का विरोध था। सुमित्रानन्दन पन्त की 'गाम्या', सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के 'नए पत्ते' और 'कुकुरमुत्ता', रामेश्वर शुक्ल अंचल की 'करील', नरेन्द्र शर्मा की 'रक्त चन्दन,' गिरिजा कुमार माथुर की 'धूप के धान', नागार्जुन की 'युगधारा', रांगेय राघव की 'पिघलते पत्थर', 'अजेय खण्डहर,' शिवमंगल सिंह सुमन की 'प्रलय-सृजन', केदार नाथ अग्रवाल की 'युग की गंगा,' त्रिलोचन शास्त्री की 'धरती' आदि पुस्तकें प्रगतिवादी काव्य के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
सन् 1930 से 1937 तक सारी स्थितियाँ स्पष्ट हो गईं। साहित्य का बदलता परिवेश, बदलती परिस्थितियाँ, बदलते दृष्टिकोण, उपादेयता...सब कुछ स्पष्ट हो गया। सन् 1937 में सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा--'गा कोकिल बरसा पावक कण, नष्ट भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन', फिर लिखा --'द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र।' कोकिल के गान में कवि सारे जीर्ण, पुरातन को नष्ट कर देने वाली आग की इच्छा करने लगे। सब नष्ट हो जाएँ, बस लोगों के मन में आग की उज्ज्वलता बची रहे। बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' और रामधारी सिंह 'दिनकर' तो पहले से ही समूहवादी भावनाओं के हिमायती के रूप में जाने जा चुके थे।
राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियाँ
द्वितीय महायुद्ध उन्‍हीं दिनों छिड़ा। पूरा देश राष्ट्रीयता की भावना से भर उठा। स्वाधीनता आन्दोलन और प्रखर हुआ। उन्‍हीं दिनों बंगाल में अकाल पड़ा। समकालीन बुद्धिजीवियों के मन पर इसका गहरा असर हुआ। आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों पर मुकदमे चलाए गए। विश्वयुद्ध में रूस की विजय और पराजित हिटलर तथा मुसोलिनी की नृशंसता से भारतीय बुद्धिजीवियों के बीच दुविधा की स्थिति बन गई थी। कुल मिलाकर 1936-47 के बीच की अवधि का घटनाक्रम काफी तेजी से चला। इन घटनाओं का सीधा असर समाज, राष्ट्र और मानवता पर हो रहा था। जाहिर है कि इस दौर के बुद्धिजीवियों की चिन्तनधारा इन घटनाओं से प्रभावित हुई। सभी तरह की विचार व्यवस्था के लोग प्रगतिशील चेतना को अपनाने लगे। प्रगतिवादी कविता लेखन का पाट इतना चौड़ा हो गया कि उसमें कई धाराएँ समा गईं। प्रतिशील कवियों के यहाँ गाँधीवाद, मार्क्‍सवाद, द्वैत-अद्वैतवाद...सारी ही मान्यताएँ समादृत थीं।
समाज को आगे बढ़ाने, मनुष्य के विकास में सहायक होने वाले साहित्य को प्रगतिशील साहित्य माना गया। सिर्फ नारा लगाने या प्रचार करने से कोई साहित्य श्रेष्ठ तो क्या, साधारण भी नहीं हो सकता।
प्रगतिवाद की मूलभूत विशेषताएँ
प्रगतिवाद केवल शब्द नहीं है, अपनी मौलिक संरचना में मानवीय समझ है। विचार से इनके गहरे ताल्लुकात हैं। मार्क्‍सवाद, साम्यवाद, यथार्थवाद, सामाजिक यथार्थवाद, आदर्शोन्मुख यथार्थवाद, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, समाजवाद आदि के आपसी सम्बन्ध की समझ के आलोक में ही प्रगतिवाद की पड़ताल सम्भव है। चिन्तन के इतिहास में कार्ल मार्क्‍स (सन् 1818-1883) ने फायरबाख के भौतिकवाद और हीगेल के द्वन्द्व सिद्धान्त को मिलाकर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की स्थापना दी। स्पष्ट हुआ कि सृष्टि और समाज पल-पल परिवर्तनशील है। परिवर्तन का मूल--क्रियाशीलता और गत्यात्मकता है। यह गत्यात्मकता स्वप्नों और भावनाओं की कोमल सेज पर नहीं, सत्य और परिस्थिति के कठोर धरातल पर सम्भव होती है। सृष्टि और समाज की इस व्यवस्था को समझने का दृष्टिकोण, तर्क और वैज्ञानिक दृष्टि के आधार पर अर्जित होता है। एंजेल्स ने इसे ही वैज्ञानिक समाजवाद कहा।
उत्पादन मनुष्य के सारे कर्तव्यों की प्रेरणा और सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना का लक्ष्य होता है। समाज की इस उत्पादन प्रणाली में भी दो विरोधी शक्तियों का संघर्ष होता है। इसे वर्ग संघर्ष कहते हैं। एक वर्ग शोषक है, जो समाज का आर्थिक और राजनीतिक शासक होता है; दूसरा श्रमजीवी है, जो श्रम के उचित मूल्य से वंचित रहता है। श्रमफल के उचित वितरण का वैज्ञानिक दृष्टिकोण मार्क्‍सवादी चिन्तन में व्याप्त है। समाजवाद, साम्यवाद इसी की परिणति हो सकती है। यही वैज्ञानिक दृष्टिकोण मनुष्य को प्रगति की ओर उन्मुख करता है। प्रगतिवाद का आधार यही है। 'प्रगतिवाद' का और प्रगतिवादी साहित्य का आधार मानव जीवन के यथार्थ चित्रण से तय हुआ। समकालीन समाज का सच जिस साहित्य में न दिखे, वह साहित्य न तो 'समाज का दर्पण' होगा, 'जीवन की व्याख्या' होगी, न ही वह साहित्य 'आम जनता' अथवा 'श्रमिकों' के लिए होगा और न ही उससे कवि को 'स्वान्तः सुखाय' होगा। यही कारण है कि बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के बाद हिन्दी कविता में स्थापित काव्य-मूल्य और सृजन-दृष्टि आम लोगों में, और बुद्धिजीवियों में भी ऊब पैदा करने लगी थी। दुनिया के अन्य मुल्कों में तो कुछ पहले से ही यह स्थिति उत्पन्न हो गई थी, भारत में थोड़ी देर से आई।
प्रगतिशील चेतना की विकास-प्रक्रिया
सन् 1936 के लखनऊ अधिवेशन में जवाहर लाल नेहरू ने कहा--चाहे समाजवादी सरकार की स्थापना सुदूर भविष्य की ही बात क्यों न हो और हम में से बहुत लोग उसे चाहे अपने जीवन में न देख सकें, किन्तु वर्तमान स्थिति में समाजवाद ही वह प्रकाश है जो हमारे पथ को आलोकित करता है। सन् 1936 में कांग्रेस पार्टी ने किसानों, श्रमिकों के हितार्थ भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना की। समाजवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार बढ़ा। सन् 1938 में भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के दूसरे अधिवेशन में रवीन्द्रनाथ टैगोर का सन्देश था कि साहित्य में प्रगतिवाद का जन्म जनसमूह की राजनीतिक चेतना के फलस्वरूप हुआ। चिर सुसुप्त मानवता जाग पड़ी और उसने मुट्ठी भर धन कुबेरों के इशारे पर नाचने से इनकार कर दिया। जन-समूह ने अपने जीवन की बागडोर स्वयं अपने हाथों में ले ली और जनता के हृदय में उठती इन लहरों का प्रतिबिम्ब पड़ा; फलस्वरूप प्रगतिवाद का जन्म हुआ। सन् 1939 के द्वितीय विश्व युद्ध की उद्भूत परिस्थितियों से फासीवाद का रुख इतना तीक्ष्ण हुआ कि मानव-मूल्य की रक्षा अहम सवाल के रूप में सामने आया।
सामाजिक आर्थिक संकट का दौर
ऐसी विकट राजनीतिक पृष्ठभूमि में भारत की सामाजिक सांस्कृतिक शृंखला बड़े संघर्ष से जूझ रही थी। भाषा, संस्कृति और रहन-सहन पर बेशुमार आक्रमण से जूझता हुआ भारत इन दिनों जागरूक हो चुका था। जनता में मानव मूल्य की मौलिकता अपनी जगह बना चुकी थी। राजाराम मोहन राय के शंखनाद से सती प्रथा और बाल-विवाह की जड़ता टूट चुकी थी। विधवा-विवाह की योजना से एक बड़ी और जटिल कुप्रथा का अन्त हो चुका था। दयानन्द सरस्वती के प्रयास से अन्धविश्वास, पाखण्ड, छुआछूत, जाति-प्रथा आदि का विरोध शुरू हो चुका था। विवेकानन्द के प्रयास से समाज-सुधार के अन्य अभियान भी चल चुके थे। अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार, वैज्ञानिक आविष्कार और यातायात की सुविधाओं से पारस्परिक सद्भाव, सम्मिलन बढ़ा था। जाति-प्रथा की कुरीतियाँ आम जनता को समझ आने लगी थीं। दलित उत्थान, स्त्री शिक्षा आदि को महत्त्व दिया जाने लगा था। कार्ल मार्क्‍स के साम्यवाद और महात्मा गाँधी के साम्यवाद की समझ अपनी-अपनी तरह से विकसित हो चुकी थी। मार्क्‍स के उच्च वर्ग का आधार आर्थिक था, जबकि महात्मा गाँधी के उच्च वर्ग का आधार जाति, कुल, वंश था। गाँधी जी की टोली में धनशाली भी बैठकर निम्न वर्ग की भलाई की बातें कर सकता था। आधार भले भिन्न हो, लक्ष्य एक ही निकलता है।
ऐसे राजनीतिक सामाजिक परिवेश में अंग्रेजों ने भारत के कुटीर उद्योगों को अपंग बनाकर स्थानीय कला कौशल का पेशागत महत्त्व कम कर दिया था। दमन की चक्की में किसान, मजदूर, साहूकार पिसने लगे थे। भारतीय रचनाकारों के मन में परिवर्तन की कामना और प्रगतिवादी लेखन ऐसी ही परिस्थिति में मुखर हुआ। सतत अपने को सँवारते रहना प्रगतिशील काव्यधारा की सबसे बड़ी विशेषता थी। सम्भवतः यही कारण हो कि बाद के दौर की सभी धाराओं में भी प्रगति-चेतना अपने स्‍तर से कायम रही।
प्रगतिवाद के प्रमुख कवियों की काव्य दृष्टि
प्रगतिवाद के प्रवर्तक कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला और सुमित्रानन्दन पन्त के बाद जाग्रत रचनात्मक-चेतना के प्रखर कवि नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, राम विलास शर्मा, गजानन माधव मुक्तिबोध, रांगेय राघव, त्रिलोचन शास्त्री आदि प्रारम्‍भ से ही प्रगतिवादी कविताएँ लिखते हुए अन्त तक अपनी चेतना को नवीकृत करते रहे। मानवतावाद, यथार्थवाद, साम्यवाद, सामाजिक यथार्थ, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, वर्ग-संघर्ष, उत्पाद के वितरण का सामजिक दृष्टिकोण आदि इनकी रचनाओं में प्रमुखता से अंकित हुआ। सामूहिकता और आत्मनिर्भरता के सामर्थ्‍य से सराबोर और श्रम-शक्ति से भरपूर किसान-मजदूर के अन्तरंग चित्र इस कव्यधारा में अनुरागपूर्वक उपस्थित हुए। सामान्य जन की चित्तवृत्ति से इस काव्यधारा का सरोकार निरन्तर बना रहा।
प्रगतिशील कव्यधारा का स्वभाव
नागरिक जीवन की दुख-दुविधा, सुख-सुविधा की समझ, जमाखोरी का विरोध, स्थापित समाज व्यवस्था की रूढ़ियों और जड़ मनस्थितियों का खण्डन, राष्ट्र एवं विश्व के प्रति सजग दृष्टि; नीति मूल्य, जीवन-मूल्य, मानव-मूल्य, सम्‍बन्ध मूल्य की मौलिकता की समझ; जीवन की सहजता बाधित करने वाली जर्जर मान्यताओं, पद्धतियों का तिरस्कार; प्रगति और परिवर्तन के प्रति चेतना; समाज को मानवीय और नैतिक बने रहने, अधिकार-रक्षण हेतु संघर्षोन्मुख रहने की प्रेरणा; स्पष्ट सम्प्रेषण के प्रति सावधानी... प्रगतिशील काव्यधारा के मूल स्वभाव हैं। अपने विस्तार-संकोच-परिवर्तन के साथ लगभग ये सारे स्वभाव आज समकालीन कविताओं में भी दिखते हैं। गरज यह नहीं कि वि‍गत नब्‍बे वर्षों से हिन्दी कविता वहीं की वहीं है। चूँकि प्रगतिवाद कोई मान्यता नहीं, चेतना है; और चेतना में पल-पल विकास होता रहता है। इसलिए, यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि आज की हिन्दी कविता में भी युग सम्मत प्रगति चेतना भरी हुई है--मान्यता पुरानी हो सकती है, चेतना नहीं। चेतना पल-पल नूतन होती जाती है; समाज के लिए मानवीय और मानव के लिए सामाजिक होती जाती है; सुन्दर और कलात्मक होती जाती है। यहाँ नए के प्रति बेवजह आग्रह नहीं है, पुराने के प्रति बेवजह घृणा नहीं है। पूरी तरह संयमित विवेक के साथ प्रगतिवाद का प्रवेश और आह्वान हुआ।
गाँव, प्रकृति और किसान-मजदूरों के चित्र
वस्तु या विषय को देखने की पद्धति में ही कवि की जीवन-दृष्टि और काव्य-दृष्टि छुपी रहती है। प्रगतिशील काव्यधारा सदैव जनपदीय भदेसपन के नितान्त करीब रहती है। इसीलि‍ए सुमित्रानन्दन पन्त को लोग अभाव, भूख, कुपोषण, शोषण के भुक्तभोगी दिखते हैं --
          मिट्टी के मैले तन अधफटे कुचैले जीर्ण वसन
          ज्यों मिट्टी के बने हुए ये गँवई लड़के भू के धन
          कोई खंडित कोई कुण्ठित, कृशबाहु पसलियाँ रेखांकित
          टहनी-सी टांगें, बड़ा पेट, टेढ़े-मेढ़े विकलांग घृणित।
वे ग्राम-देवता समझे जानेवाले शिक्षक को नशेड़ी और व्यसनी देखते हैं। इधर नागार्जुन के 'प्रेत का बयान' होता है। प्रेत अपनी मृत्यु का कारण आँत पर पेचिश का हमला बताता है--
          भूख या क्षुधा नाम हो जिसका
          ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको
          सावधान महाराज,
          नाम नहीं लीजिएगा
          हमारे समक्ष फिर किसी भूख का
उधर केदारनाथ अग्रवाल की 'युग की गंगा' में श्रमजीवियों के खून पसीने की धमक अलक्षित रह जाती है --
          घाट, धर्मशाले, अदालतें
          विद्यालय, वेश्यालय सारे
          होटल, दफ्तर बूचड़खाने
          मन्दिर, मस्जिद, हाट सिनेमा
          श्रमजीवी की हड्डी पर टिके हुए हैं
पन्त और निराला के समय से ही चल पड़ी मानवता की दुहाई आगे के सभी कवियों के यहाँ श्रमिक, सर्वहारा, भिक्षुक के जीवन-यथार्थ दर्ज हुए। धिक्कार, पुकार, आह्वान, चेतावनी, धमकी, निर्णय... सारे स्वर इन कविताओं में दर्ज हुए। 'भिक्षुक' और 'तोड़ती पत्थर' ने कविताओं में व्यक्ति, समाज, व्यवस्था, जीवन, मानवता--जैसे बुनियादी तत्त्वों की ओर संकेत कि‍या गया। वस्‍तुत: प्रगतिवादी कवि‍ता आम नागरिक के आत्मबोध और स्वातन्त्र्य-चेतना की कवि‍ता है।
किसान-मजदूर का जीवन-गीत
सन् 1923 में ही निराला किसान-मजदूर के पक्ष में आह्वान करने लगे थे--
          जीर्ण बाहु, है जीर्ण शरीर
          तुझे बुलाता कृषक अधीर
          ऐ विप्लव के वीर
मानव जीवन के दैन्‍य को उन्होंने आगे और तीक्ष्‍ण किया। प्रकृति प्रेम से लेकर देवी वन्दना तक में उन्हें किसान और गृहस्थ का जीवन याद आया। 'बादल राग' कविता में उन्होंने कहा--
चूस लिया है उसका सार
हाड़ मात्र ही है आधार
, जीवन के पारावार...
फि‍र 'देवी सरस्वती' में वन्दना की--
सुख के आँसू दुखी किसानों की जाया के
भर आए आँखों में खेती की माया से...
उनका 'कुकुरमुत्ता', 'गुलाब' को पूँजीवादी मानकर डाँटता है --
भूल मत जो पाई खुशबू रंगोआब
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतराता है केपिटलिस्ट!
विषय वैविध्य के साथ-साथ व्यंग्य और धिक्कार की शैली भी प्रगतिवादी कविता की बड़ी वि‍शेषता है, जो आगे की पीढ़ी में भी भली-भाँति ‍फली-फूली। निहायत मामूली जीवन के अपारम्परिक प्रसंगों से लि‍ए गए विषय, ठेठ शब्दावाली, चलताऊ भाषा, जनपदीय मुहावरे, चौपाली अन्दाज...सब के सब इस धारा की कवि‍ताओं का मूल स्‍वभाव बना। नागार्जुन के यहाँ कवि‍ता अचानक शास्त्रीय आडम्बर और श्रेष्ठता की फुनगी से उतरकर जमीन पर आ गई। दरअसल इस काव्य क्षेत्र में रचनाकार आए ही थे अपनी प्रगतिशील चेतना के साथ; जो आवेश-उन्माद के प्रभाव से आए, वे जल्‍दी ही लौटकर अपनी जमीन पर चले गए। वैज्ञानिक चिन्तन पद्धति, यथार्थानुभूति, भारतीय समाज की जीवन-प्रक्रिया एवं मानव-मूल्य की समझ से प्रगतिवाद का जुड़ाव सदैव बना रहा।
शमशेर बहादुर सिंह की कविता 'सत्यमेव जयते' में चीन की धोखेबाजी का संज्ञान लि‍या गया...
इस धोखे का नाम दोस्ती है और इस दोस्ती को हम
चीन कहते हैं...
माओ ने सब कुछ सीखा, एक बात नहीं सीखी
यह कोई सपाट कविता नहीं है। राष्ट्रीय संकट की घड़ी में दायित्व नि‍र्वहन को आगे आए एक जि‍म्‍मेदार कवि‍ की राष्‍ट्र-निष्ठा की पहचान है।
श्रम-शक्ति पर आस्था
प्रगति चेतना से सम्‍पन्‍न इस काव्यधारा में आगे चलकर रूस, मास्को, मार्क्‍स, लेनिन, हँसिया-हथौड़ा...सबको जगह मिली, सबका उपयोग हुआ; मगर यह कोई फैशन नहीं था। केदारनाथ अग्रवाल की कविता में
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ
हाथी-सा बलवान जहाजी हाथों वाला और हुआ
...
सुन लो री सरकार, कयामत ढाने वाला और हुआ...
देखकर कुछ लोगों के कान खड़े हुए। उन्होंने 'हथौड़े' को 'हँसिया-हथौड़ा' और कम्युनिस्ट पार्टी से जोड़ लिया। अर्थकार भूल गए कि‍ एक मजदूर परिवार अपनी नवजात सन्तान के लिए बड़े सहज सपने देखते हैं। ये हथौड़े मजदूर के दुर्गतिबोध के नहीं, जोश के उदाहरण हैं। उस परिवार को उस बच्चे में हाथी-सा बलवान, सूरज-सा इंसान, तेररी आँखें, अन्धेरा हरने वाला, कयामत ढाने वाला... सब कुछ दिखता है। यह सारा कुछ देखने की प्रक्रिया कवि की जीवन-दृष्टि के आधार पर होती है।
इसी तरह गिरिजा कुमार माथुर 'शाम की धूप' में मध्यवर्ग की व्यथा व्यक्त करते समय थकान उतारने की चिन्ता में लीन हो जाते हैं। नागार्जुन की जनता अपने-अपने कामों में तल्लीन 'पूस मास की धूप सुहावन' का सुख चखने लगती है। त्रिलोचन शास्त्री को 'धूप सुन्दर' कविता में किसानों के खिले सरसों से भरे खेत दिख जाते हैं। मुक्तिबोध पूँजीवाद के विरुद्ध घोषणा करते हुए उसका भविष्य निर्धारित कर देते हैं--
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ...।
नरेन्द्र शर्मा गुलामी की 'जंजीर' तोड़ संघर्ष की 'दुधारी तेग' अपनाने लगते हैं। रामविलास शर्मा योजना बनाकर सामन्त विरोध का सूत्र पकड़ाते हैं।
प्रेम-प्रकृति
प्रगतिशील कवियों की जीवन-दृष्टि का वैराट्य उनकी प्रेम कविताओं में भी स्पष्ट दिखता है। यहाँ प्रेम स्वस्थ, स्वच्छन्द और स्फूर्तिदायक दि‍खता है। यह प्रेम वैयक्तिक और क्षणिक अनुभूति से बाहर आकर विराट रूप धरता है। समाज और राष्ट्र तक का विस्तार पाता है। त्रिलोचन शास्त्री के प्रेम का विस्तार कुछ यूँ है--
कभी कभी यों हो जाता है
गीत कहीं कोई गाता है
गूँज किसी उर में उठती है
तुमने वही धार उमगा दी
नागार्जुन को 'आषाढ़स्य प्रथमे दिवसे' में प्रवास में रहकर मातृभूमि की याद आती है।
सारांश
लोक-मंगल की भावना और प्रेम के विस्तार के कारण प्रगति चेतना, छायावाद के समक्ष खड़ी हुई। कल्पना और भावोच्छवास में तैरते विषय और भाव को जमीन पर उतार लाने का श्रेय प्रगतिवाद को जाता है। बड़ी संख्या में रचनाकारों ने प्रगतिशील विचारधारा से अपनी यात्रा शुरू की, नई पीढ़ी भी बनी और पुरानी पीढ़ी के लोग भी जीर्ण-पुरातन छोड़कर इसमें आ जुटे। यह धारा किसी नेता या दल का मोहताज नहीं हुआ। अपनी पूरी साहित्यिक यात्रा में प्रगतिशील हिन्दी कवियों ने रचनात्मक जिम्मेदारी निभाई, और परवर्ती पीढ़ी को अपनी चिन्तन पद्धति का उत्तराधिकार सौंप गए। इन दिनों वही धारा समकालीन कविता के रूप में चल रही है।...

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