Sunday, November 17, 2019

खो देता है खुद को, दरवाजा रास्ता होकर.../आती है जैसे मृत्यु(कविता संग्रह)/नन्दकिशोर आचार्य




नन्दकिशोर आचार्य के कविता संग्रह आती है जैसे मृत्यु की कविताओं से एक बात फिर से प्रमाणित होती है कि कविताओं के लिए शब्द-चयन और उसके प्रयोग का कौशल बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। छियासठ कविताओं के इस संग्रह की कविताएँ लघुकाय होने के बावजूद शब्दों की महत्ता और गुणवत्ता के कारण अपनी प्रभाव-सीमा को असीम कर लेती है। इनके शब्दों में, इनकी भाषा में और इनके स्फुरण में शायद ऐसा जादू है या कोई अदृश्य लयात्मकता, जो पाठक को सहज ही आह्लादित करती है। आम तौर पर आज की साहित्यिक कृति का आस्वादन विचार जगत से होते हुए भाव जगत में आकर किया जाता है, किन्तु नन्दकिशोर आचार्य की कविताएँ सीधे भाव जगत से अपना सम्बन्ध जोड़ती है और इस रसास्वादन के बाद विचार जगत जाग्रत होता है, तथा पाठक इसे समझने की कोशिश करते हैं। इस सम्बन्ध में प्रभात त्रिपाठी के मत से सहमत हुआ जा सकता है कि भाषा के साथ संवेदनशील, सतर्क और इसके बावजूद बड़ी हद तक स्वतः स्फूर्त सम्बन्ध होने के कारण नन्दकिशोर आचार्य की कविता में एक तरफ ऐसी निरभ्र पारदर्शिता है कि हम कविता के कथ्य या अर्थ को बगैर किसी दिमागी कसरत के अपने मन में गूँजता पाते हैं, तो दूसरी ओर उसमें किसी सुगढ़ निर्माण का स्थापत्य भी है। ऐसा लगता है जैसे शब्दों से कोई ठोस चीज बन गई हो, जिसे उस निर्मिति को स्वयं पूर्णता से परे किसी एक ही विशिष्ट अर्थ की रैखिकता में लिया जाना समुचित नहीं है। मूल भाव और उसी में फूटती अर्थान्वेष की किरणें उनकी कविता को कला का एक विरल सन्तुलन प्रदान करती हैं। कवि के शब्दों में एक गाम्भीर्य है, अर्थ जगत की गहराई है, जो सहज ही काव्य प्रेमियों को आनन्द के अतल सागर में रससिक्त कराती है तथा कवि की स्वानुभूमि एवं उनके अर्थ वैविध्य से परिचित कराती है।
आलोच्य कृति को कवि ने तीन खण्डों में प्रस्तुत किया है--उतर गई है झील’, ‘राग मरुगन्धा तीनतथा बेघर हुआ जाता शहर।इसकी तमाम कविताओं को यथासम्भव पुस्तक के आवरण पृष्ठ की कलाकृति में ध्वनित करने का सफल प्रयास किया गया है। प्रेमशब्द की निस्सीम परिभाषा को कवि ने अपनी इन कविताओं में ध्वनित किया है। इस कृति की अधिकांश कविताएँ मोटे तौर पर प्रेम कविता का स्वरूप बिखेरती हुई प्रतीत हो सकती हैं। किन्तु इन स्थूल अर्थों की मोटी चादर उन कविताओं के अर्थगाम्भीर्य को ढँक नहीं पाती है। कवि के सृजन सामर्थ्‍य की प्रखर किरणें इस चादर को पारदर्शी बनाती है और जीवन-जगत की समस्याओं से झुलसती मानवीय संवेदनाएँ स्पष्ट दिखती रहती हैं। यह चित्रण कहीं-न-कहीं कवि का विराट औदार्य प्रस्तुत करता है। पुस्तक का प्रारम्भ ज्यों ही अज्ञेय की पंक्ति--
हम निहारते रूप
काँच के पीछे
हाँफ रही है मछली
से होता है, सहज ही कवि की रचना शैली के सम्बन्ध में दृष्टि पथ पर बिम्ब-विधान का एक अद्भुत आलोक तैरने लगता है। बिम्ब ही कवि का ऐसा अस्त्र है, जिसके बल पर कवि अपनी अनुभूति को संक्षिप्तता और प्रभावोत्पादकता प्रदान करता है। इस कला में नन्दकिशोर आचार्य ने अत्यधिक सफलता प्राप्त की है।
उतर गई है झील
सिमट गया गड्ढे में सारा पानी
सूख गई मिट्टी की ये झुर्रियाँ
अभी तक अन्दर से गीली हैं
जरा-सा छूते ही
भुरभुरा रहीं...
कविता के शब्दों में बिम्ब का स्वरूप मूर्त्त हो उठता है। जीवन जगत की सम्पूर्ण विस्तृति का अवलोकन चन्द शब्दों में अँटाकर कवि ने अपनी सृजनशीलता की परिपक्वता का परिचय दिया है। प्रकृति की छोटी-छोटी घटनाओं को जीवन के विशाल क्षितिज का प्रसार देने का यह सामर्थ्‍य निश्चय ही सत्य माना जाएगा। लघु को विराट और विराट को लघु स्वरूप देने की यह क्षमता असाधारण मानी जाएगी। जब कवि कहते हैं
खुल कर हो रही बारिश
खुल कर नहाना चाहती लड़की
अपनी खुली छत पर
किन्तु लोगों की खुली आँखें
उसको बन्द रखती हैं
खुल कर हो रही बरसात में
तो एक नजर में इसे लड़की और वर्षा के एक दृश्य की कविता नहीं मानकर इसकी गहराई में जाने की जरूरत स्वतः महसूस होने लगती है। वर्षा की उत्सुकता, इच्छा की उन्मुक्तता और लोगों की आँखों में उपस्थित कुलिशबन्ध...एक त्रासद स्थिति को जन्म देता है, जो हमारे जीवन की विडम्बना है और इन विडम्बनाओं से मुक्तिकामी प्राणी भी मुक्त नहीं हो पाता है। कवि नन्दकिशोर आचार्य की कविताएँ इसी द्वैध का ब्लू प्रिण्ट है, जहाँ लोग एक कतरा सुख तलाशते रहते हैं। सुख निर्मल सरिता की तरह आगे से बहता रहता है। लोग जबरन उसे मुट्ठी में बन्द करना चाहते हैं, सरिता का पानी मुट्ठी से फिसलता जाता है। लोग दुख से मुक्त होना चाहते हैं। दुख रक्तबीज है, इसका वध करके भी लोग इससे मुक्त नहीं हो पाते हैं। जनजीवन के इन्हीं अन्तर्विरोधों को कवि ने अपनी दृष्टि की विशालता दी है। अपनी कविताओं में, कड़कती धूप में सन्तप्त रेत पर तड़पती मानवीय संवेदनाओं को जिस धैर्य और निस्पृहता के साथ इन्होंने चित्रित किया है, वह जीवन के प्रति इनकी निर्ममता, तटस्थता और मोह-माया के प्रति निरपेक्षता का द्योतक है। कहीं-न-कहीं अध्यात्म की गूढ़ता और जीवन के रहस्य की ओर भी इनकी कविताएँ इशारा करती हैं। किसी दरवाजे के जीवन में दस्तक का बड़ा महत्त्व है। महत्त्व उसके खुले रहने का भी है। खुला रहना उसकी उदारता है। लेकिन खुले दरवाजे पर कोई दस्तक नहीं देता। विवशता की इस अन्धी सुरंग से निकाले गए कथ्य कवि की कविता में भास्वर होते हैं।
प्रकृति इनकी कविताओं में मानवीय जीवन के सार सन्दर्भों के साथ अपने प्रच्छन्न स्वरूप में आती है। जब कवि कहते हैं।
वह जो वीरानी
खिला रहा था
पात-पात में
हो गया है उसी में लय
भटकती अब
खुद ही को खोजती है
उसे भजती हुई वीरानी
तो जीवन के रहस्यों की ओर केन्द्रित होना स्वाभाविक हो जाता है। यदि सचमुच’ ‘आती है जैसे मृत्युआदि कविता में कवि का दृष्टिबोध और भी प्रखर हो उठता है। बन्धन, शाम, तप्त, दोपहरी, वीरानी, स्याह मौसम, तंग गली, गर्म हवा, गर्द से ढँकी पूर्वजों की तसवीर, मरी हुई छिपकली, फाँस आदि-आदि शब्दों के चित्रात्मक और बिम्बात्मक प्रयोग, बहुत गहरे अर्थों को आघाती ढंग से उभारता है।
जितने निकालते है काँटे
उतनी ही कच्ची ऊन-सी खुद फँसी जाती है...
जैसी कतिपय पंक्तियों में जीवन के रहस्य को अत्यन्त चतुराई से सँवारा गया है। कविता में नगर का मानवीकरण कवि ने अपने संग्रह के एक तिहाई भाग में प्रस्तुत किया है। पुस्तक का यह अंश बेघर हुआ जाता शहरके रूप में प्रतीक अर्थों में जीवन का एक मार्मिक पक्ष उपस्थित करता है। राग मरुगन्धावाले अंश की बीस कविताओं में कवि के लिए अज्ञेय की संज्ञा मरुथल के सौन्दर्य के एक अद्वितीय कविकी सत्यता तलाशी जा सकती है।
पोर-पोर को छका डालूँगी
तुमने कहा
मैं वह धारा सार बारिश हूँ
नहीं--मैंने--
फिर भी तुम एक मौसम हो
मैं सदा रेगिस्तान
कविता में कवि ने बारिश और रेगिस्तान की अस्मिता अक्षुण्ण रखते हुए उनमें जन भावनाओं को और सहानुभूति को अत्यन्त सूक्ष्मता से पिरोया है।
कवि नन्दकिशोर आचार्य की कविताएँ, उस प्रगतिकामी जनजीवन की कविता नहीं है, जो एक सुविचारित निर्णय के साथ अपना हक हासिल करने को मशाल लिए दौड़ता है अथवा खाली हाथ, खाली पेट, क्षीण आवाज के साथ गला फाड़ कर व्यवस्था को गाली या धिक्कार देता है बल्कि इनकी कविताएँ इस जनजीवन के आत्म-परीक्षण की कविता है, जीवन-दर्शन की कविता है, जहाँ क्षण विशेष को अत्यन्त महत्त्व के साथ उठाया गया है। उस क्षण की स्थिति का अवलोकन कवि के दृष्टिकोण को जिस हद तक कुरेद पाता है, उनकी संवेदनाओं को जिस स्तर तक खरोंच पाता है उतने ही मार्मिक और धारदार शब्दों के साथ कविता उतर आई है। कवि के वीतरागत्व, जीवन-दर्शन, जन-जीवन से जुड़ाव, वैयक्तिक अनुभूति, मानवीय घात-प्रतिघात, प्राकृतिक अवदान (सामान्य रूप में अथवा बिम्ब रूप में), नागरिक परिवेश, जीवन-सन्दर्भ आदि-आदि चीजें इस कदर सम्मिश्रित होकर बहुरंगी स्वरूप में उपस्थित हुए हैं कि इन तत्त्वों में से किसी पर भी अलग से विचार कर पाना कठिन है। और इसके समन्वित सौन्दर्य उत्कृष्ट हैं।
खूबियों के साथ खामियाँ कुछ-न-कुछ होती ही हैं। कवि की एकाध कमजोर कविताओं का नाम गिनाया जा सकता था, किन्तु, यहाँ उस कमी से ज्यादा दूसरी बात अखड़ती है। कवि शायद इस बात में विश्वास नहीं रखते कि किसी भी रचनाकार का सबसे बड़ा वकील उनकी कृति होती है। रचनाकार को जो प्रतिष्ठा उनकी रचना नहीं दिला सकती, वह धरती की कोई ताकत नहीं दिला सकेगी। आलोच्य पुस्तक के अध्ययन के पश्चात यह हल्की-सी प्रतिक्रिया देने में सामान्य पाठक को भी संकोच नहीं होगा कि कवि को अपनी रचना से अधिक भरोसा अपने बारे में दूसरों की राय पर है। हिन्दी साहित्य-जगत में नन्द किशोर आचार्य की स्थिति अब वैसी नहीं है कि ये किसी की उँगली पकड़कर भीड़ में खड़े रहें और अपने निजत्व के संघर्ष के लिए जूझते रहें, इनकी अपनी अहमियत है, अपना महत्त्व है। लेकिन उन सब को अपनी प्रशस्तियों की तीक्ष्ण धूप में सुखाकर धुँधला किया है, अपना कद छोटा किया है, बहुत छोटा। इस पुस्तक के साथ अपनी कविताओं के सम्बन्ध में, अपनी काव्य साधना और काव्य-मान्यताओं के बारे में तथा इन कविताओं के बारे में इनके अपने शब्द जितने महत्त्वपूर्ण होते, उतने महत्त्वपूर्ण ये विरुदावली नहीं हैं।
खो देता है खुद को दरवाजा रास्ता होकर, संडे ऑब्जर्वर, नई दिल्ली, 10-16 मई 1992
आती है जैसे मृत्यु(कविता संग्रह)/नन्दकिशोर आचार्य/वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर/मू.50/-रु. पृ.80 -संडे आबजर्वर, 10-16 मई 1992

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