पर्याप्त धैर्य, निष्ठा और प्रभावशाली ढंग से कविता में आमजन की चेतना को
मुखरित करने वाले हिन्दी के विशिष्ट कवि केदारनाथ सिंह (07 जुलाई 1934 से 19 मार्च
2018), वैसे गिने-चुने रचनाकर हैं, जिनकी कविताएँ अमानवीय आचरण के सम्पोषकों के चेहरे पर
झन्नाटेदार चोट करती हैं। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गाँव में
हुआ। सन् 1956 में उन्होंने बनारस विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. और सन् 1964 में
पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। उनका निधन दिल्ली में उपचार के दौरान हुआ। भारतीय
भाषा केन्द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में वे
आजीवन आचार्य (प्रोफेसर इमेरिटस) थे। अकाल में सारस कविता संग्रह के लिए उन्हें
साहित्य अकादेमी पुरस्कार (1989) और समग्र साहित्य-सेवा के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार (2013)
सहित व्यास सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार(मध्य
प्रदेश), कुमार आशान पुरस्कार (केरल), भारत-भारती सम्मान(उत्तर प्रदेश), (बिहार) का दिनकर पुरस्कार आदि अनेक प्रतिष्ठित सम्मान से
विभूषित किया गया। उनके प्रसिद्ध कविता संग्रह--अभी बिल्कुल अभी, जमीन पक रही है,
यहाँ से
देखो, बाघ, अकाल में सारस,
उत्तर
कबीर और अन्य कविताएँ, तालस्ताय और साइकिल, सृष्टि पर पहरा; प्रमुख आलोचनात्मक कृति--कल्पना
और छायावाद, आधुनिक हिन्दी कविता में
बिम्बविधान, मेरे समय के शब्द, मेरे साक्षात्कार हैं। इनके अलावा उनकी सम्पादित कृतियाँ हैं--ताना-बाना
(आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएँ। कहते हुए गौरव से भर उठता
हूँ कि मैं ऐसे महान द्रष्टा का शिष्य रहा हूँ। असंख्य संस्मरण हैं, जिनका उल्लेख यथासमय होगा,
इस समय जब अपने
इस महान गुरु के पार्थिव शरीर को अन्तिम विदाई दे आया हूँ, बाइस वर्ष पूर्व लिखे गए गगनांचल, जुलाई-सितम्बर-1996 में छपे इस आलेख से उन्हें श्रद्धांजलि दे
रहा हूँ।
अपने आवास पर गुरुवर प्रोफेसर केदारनाथ सिंह एवं प्रो. मैनेजर पाण्डेय के साथ देवशंकर नवीन |
तीसरा सप्तक में केदारनाथ सिंह ने अपने वक्तव्य में कहा है, ‘मानव-संस्कृति के विकास में कवि का योग दो
प्रकार से होता है--नवीन
परिस्थितियों के तल में अन्तःसलिला की तरह बहती हुई अननुभूत लय के आविष्कार के रूप
में तथा अछूते बिम्बों की कलात्मक योजना के रूप में।’ फिर कहा, ‘मैं मन को बराबर खुला रखने की कोशिश करता हूँ, ताकि वह आसपास के जीवन की हल्की-से-हल्की आवाज को भी
प्रतिध्वनित कर सके।’ कवि की इन
दो स्वीकारोक्तियों के आलोक में उनकी कविताओं का मर्म बड़ी आसानी से खुलता नजर आता
है। उनकी सारी कविताओं में जीवन के अननुभूत लय का आविष्कार दिखता है, जिसे कवि के खुले मन ने जीवन की तलछट से छानकर
निकाला है, और जो आविष्कार अन्य
कवियों के यहाँ नहीं दिखता है।
विषय की दृष्टि से देखें तो केदारनाथ सिंह की कविताएँ मुख्यतया तीन ओर
संकेत करती हैं--एक तरह की वे
कविताएँ हैं जहाँ कवि अपने परिवेश, जनजीवन,
परिस्थिति में व्याप्त विडम्बनाओं से
व्यथित हैं और उन विडम्बनाओं से आक्रान्त कवि गुस्से में न तो गाली-गलौच करते,
न गोली-बारूद की बात करते, न अति क्रान्तिकारी की तरह चीखते-बड़बड़ाते,
वे सिर्फ ‘आग’ की
ओर इशारा कर देते हैं--
आप विश्वास करें
मैं कविता नहीं कर रहा
सिर्फ आग की ओर इशारा कर रहा हूँ
कवि इस बात से वाकिफ हैं कि अराजकता का जो पुख्ता स्तम्भ समाज में खड़ा हो
चुका है, उसे लोहे से नहीं,
मस्तिष्क से तोड़ा जा सकता है और ऐसा ही
होना चाहिए--
एक फावड़े की तरह उससे पीठ टिकाकर
एक समूची उम्र काट देने के बाद
मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ
कि लोहा नहीं
सिर्फ आदमी का सिर तोड़ सकता है।
केदारनाथ सिंह के सृजन संसार की यही मौलिकता उनके जन सरोकारों को और उनके
अनुभवों की ईमानदारी को प्रमाणित करती है।
अपने आवास पर गुरुवर प्रोफेसर केदारनाथ सिंह के साथ देवशंकर नवीन |
आक्रामक मुद्रा में चीख-चिल्लाकर तात्कालिक वाहवाही लूट लेने की प्रवृत्ति
कई जगह देखी जा सकती है पर जीवन की नई-नई परिस्थितियों में सद्यःजात गुत्थियों को
सुलझाने के लिए भाषा और अभिव्यक्ति का इतना धैर्य और इतनी शालीनता, परिस्थितियों के प्रति कवि की गहरी चिन्ता को
द्योतित करती है। यह बात धु्रव सत्य है कि कवि बन्दूक नहीं चलाता और कविता आग नहीं
जलाती। कवि की समझ इतनी प्रखर होनी चाहिए कि वह मनुष्य की ऊर्जा की ताकत और उसका
महत्त्व समझे तथा अपने पाठकों को समझाए। केदारनाथ सिंह की कविता अपने पाठकों को
धीर बनाती है और उसकी बुद्धि को उर्वर। परिवेश की अराजकता से असुर वृत्ति से नहीं,
सुर वृत्ति से टक्कर लेने की तरकीब
सिखाती है। यह अन्दाज कम-से-कम मानवीय शक्ति के अपव्यय और दुरुपयोग को रोकता तो है
ही। केदारनाथ सिंह का कहना है, ‘कविता
से मैं उतनी ही माँग करना चाहता हूँ, जितना वह दे सकती है। कविता--सिर्फ इस कारण कि वह कविता है, दुनिया को बदल देगी, ऐसी
खुशफहमी मैंने कभी नहीं पाली। एक रचनाकार के नाते मैं कविता की ताकत और सीमा--दोनों जानता हूँ। इसलिए इस बात को लेकर मेरे
मन में कोई भ्रम नहीं कि मेरी पहली लड़ाई अपने मोर्चे पर ही है और वह यह कि किस तरह
कविता को मानव-विरोधी शक्तियों के बीच मानव-संवेद्य बनाए रखा जाए। परिवर्तन की
दिशा में आज एक कवि की सबसे सार्थक पहल यही हो सकती है (मेरे समय के शब्द,
पृ.147)।’ इन मानव-विरोधी शक्तियों के बीच कविता को मानव-संवेद्य
बनाए रख पाने की सफलता केदारनाथ सिंह को निर्मल और निश्छल जनसरोकार के कारण मिल
पाई है। अपनी कविताई की जमीन की खोज कवि केदार ने वहीं की है जहाँ यह अपने असली
रूप में है। यहाँ डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव को उद्धृत करना उपयुक्त होगा कि ‘केदारनाथ सिंह शायद हिन्दी के समकालीन
परिदृश्य में अकेले कवि हैं, जो
एक ही साथ गाँव के भी कवि हैं और शहर के भी। अनुभव के ये दोनों छोर कई बार उनकी
कविता में एक ही साथ और एक ही समय दिखाई पड़ते हैं। शायद भारतीय अनुभव की यह अपनी
एक विशेष बनावट है, जिसे नकारकर
सच्ची भारतीय कविता नहीं लिखी जा सकती। केदार कल्पना का इस्तेमाल जरूर करते हैं और
देखा जाए, तो कल्पना की जो पूँजी
उनके यहाँ है, वह उनके सुपरिचित
समकालीनों के यहाँ विरल है। पर कल्पना का इस्तेमाल वे जमीन-आसमान के कुलाबे मिलाने
के लिए नहीं करते, परिवेश की
जटिल वास्तविकता को अधिक तीखे अर्थ में ग्राह्य बनाने के लिए करते हैं। उनकी कविता
को नाम देने के लिए शास्त्र की दुनिया में जाने की जरूरत नहीं, सीधे हाट-बाजार में निकलने की जरूरत है,
जहाँ केदार की कविता है। जहाँ भाषा ढलती
है, सीधे वहीं से केदार की कविता
अपना समग्र जीवन अथवा जीवन-शक्ति प्राप्त करती है (प्रतिनिधि कविताएँ: केदारनाथ
सिंह, पृ.5-6)।’
और, इस आलोक में मनुष्य
की ऊर्जा तथा मानवीय सरोकारों के प्रति कवि केदार की चिन्ता का औचित्य प्रमाणित हो
जाता है। गाँव से लेकर शहर तक और शहर से लेकर गाँव तक की मानव-विरोधी परिस्थितियों
में केदारनाथ सिंह की अनुसन्धित्सु आँखें और व्याकुल मन सदैव ‘मैं’ की अस्मिता की तलाश करता रहता है। कवि का यह ‘मैं’ केदारनाथ
सिंह नहीं है, यह ‘मैं’ मनुष्य मात्र है, जो
दहशत भरे माहौल में रत्ती भर जिन्दगी और साँस भर उन्मुक्त हवा के लिए व्याकुल है,
जिजीविषा के मूल्य पर अपने को बार-बार
मारता है, बार-बार आहत होता है,
बार-बार टूटता है। केदारनाथ सिंह की
कविताएँ दहशत और शामत भरे माहौल में जीवन बिताते अपने परिवेश के लोगों को
प्रतिक्रिया में चीखने, बड़बड़ाने,
सांघातिक होने का सन्देश नहीं देती,
वे उन्हें सोचने को मजबूर करती हैं।
अपने आवास पर गुरुवर प्रोफेसर केदारनाथ सिंह एवं प्रो. मैनेजर पाण्डेय के साथ देवशंकर नवीन |
उनकी दूसरी कोटि की कविताओं में प्रकृतिपरक कविताएँ हैं। प्रकृति से
सम्बद्ध उनकी कविताओं की भी कोई सीमा नहीं है। क्या वर्षा, क्या वसन्त, क्या ग्रीष्म, क्या
शिशिर, क्या पेड़-पौधे, क्या फसल... सब के सब इनके यहाँ सुषमा की बाढ़
ला देते हैं। एक बात ध्यान देने की है कि प्रकृति-चित्रण भी केदार के यहाँ कोई
फैण्टेसी गढ़ने या भावनाओं को पुलकित करने के लिए नहीं होता। वहाँ भी कवि जीवन के
कोमल तन्तुओं को छूते हुए प्रतीत होते हैं। अपने विचार में, व्यवहार में और लेखन में अत्यन्त आधुनिक हुए केदार को
जब अपनी पारम्परिक थाती और अपनी जमीन की जड़ें हिलती नजर आने लगती हैं, तो कवि उस ओर बड़ी चतुराई से इशारा कर देते
हैं। हमारे खेत में उपजे गन्ने, गेहूँ,
मकई, बाजरे जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की तरकीब से नाना
विधि रूप में हमारे पास आते हैं तो सही रूप में हम भी उसे नहीं पहचान पाते। हमारी
नींव पर विदेशी पूँजीपतियों की ऐसी अट्टालिका खड़ी हो जाती है कि हम अपनी नींव की
मजबूती की तारीफ करना छोड़कर उस चकाचैंध में उलझ जाते हैं। कवि केदारनाथ सिंह अपनी ‘दाने’ कविता में सन् 1984 में ही इस खतरे की ओर संकेत कर चुके थे जब उनके दाने
खलिहान से उठकर मण्डी नहीं जाना चाहते थे और जाते-जाते कह रहे थे कि हम जाएँगे तो
लौटकर नहीं आएँगे और अगर आ भी गए तो तुम हमें पहचान नहीं पाओगे। वाकई, आज हम उसे पहचान नहीं पाते। सही मायने में
केदारनाथ सिंह की कविता को इस तरह प्रकृतिपरक, प्रेमपरक, समाजपरक कोटियों में बाँटकर देखने का एक ही औचित्य है कि समझने में थोड़ी-सी
सुविधा हो वरना उनकी सारी की सारी कविताएँ भ्रष्ट माहौल, अराजक वातावरण में नैतिकता की तलाश की कविताएँ हैं।
प्रश्नाकुलता, जिज्ञासा, अनुसन्धित्सु प्रवृत्ति, जीवन-मूल्यों की स्थापना के प्रति आग्रह उनकी
कविताओं में हर जगह विद्यमान है। ‘नीम’,
‘नदी’, ‘पहाड़’, ‘सूर्य’, ‘बारिश’,
‘जब वर्षा शुरू होती है’, ‘शाम’, ‘बसन्त’ आदि
कविताओं को देखते हुए यह कहना जितना सहज है कि ये प्रकृतिपरक कविताएँ हैं, उतना ही जरूरी है कि इनमें यह भी ढूँढा जाए कि
इनकी बनावट में मानव जीवन की सूक्ष्म संवेदनाएँ किस तरह रुई-रंग के माफिक रेशे-रेशे
में भरी गई हैं। केदारनाथ सिंह की प्रकृतिपरक कविताओं से गुजरना पूरा का पूरा
मानवीय सरोकारों से साक्षात्कार करना है और यहीं ये बातें भी कहीं ज्यादा स्पष्ट
होने लगती हैं कि वाकई प्रकृति ही मानव जीवन का आधार है।
केदारनाथ सिंह ने प्रेम कविताएँ भी कई लिखीं। लेकिन यहाँ भी सावधान रहने
की जरूरत है कि उनकी प्रेम कविताएँ भावनात्मक श्वासोच्छ्वास की कविता नहीं हैं। ‘तुम आई’, ‘हाथ’, ‘जाना’,
‘जो एक स्त्री को जानता है’, ‘उस शहर में जो एक मौलसिरी का पेड़ है’ आदि कविताओं को देखकर यह निष्कर्ष निकालना सहज
है कि यहाँ प्रेम किसी मनोवेग अथवा उन्माद को रेखांकित नहीं करता, यहाँ जीवन के सारे आयाम खुलते हैं, मनुष्य की दैहिक-क्रिया की सारी सलवटें परत-दर-परत
उलटती जाती हैं। ‘तुम आई’
कविता के प्रेम विषयक नायक अपनी
प्रेमिका के आगमन पर हर्षित होकर किसी यौवनोन्माद को नहीं याद करता, कामुकता का दीप नहीं जलाता, उसे अपनी जिन्दगी के सारे सुख-दुख, हर्ष-विषाद याद आते हैं, उसे फसलों का क्रमशः परिपक्व होना, पकना, फूटना, उपयोगी होना याद
आता है, छीमियों से दाने और भूसे
को अलगाना याद आता है, अर्थात्
एक प्रेमिका अपने प्रेमी को पूरे जीवन में केवल स्वप्नलोक नहीं दिखाती, उसे सुख भी देती है और दुख भी, और ये सारी क्रियाएँ उसे दण्डित करने, छलने के लिए नहीं, उसे पूर्ण करने के लिए करती है। वस्तुतः जीवन में एक
आदर्श प्रेम की यही पूर्णता है भी। केदारनाथ सिंह की कविताओं में प्रेम भी मानव
जीवन को बड़ी चालाकी से शिक्षित करता है।
पुराने जमाने से ही काव्य के प्रयोजन पर बहुत कुछ लिखा कहा जाता रहा है।
आज आकर कविता से लोग कुछ ज्यादा ही अपेक्षा रखने लगे हैं। सन् साठ के बाद की
कविताओं में कवियों ने छुटे मुँह और खुले शब्दों में बहुत कुछ वांछित-अवांछित कहना
शुरू कर दिया है, बल्कि आलोचकों
ने भी ‘किसी भी तरह की भाषा’
को ‘अवांछनीय’ कहना छोड़ दिया है। ऐसे हालात में कविता, जब चीख, चिल्लाहट, बौखलाहट,
गुस्सा, आक्रामकता का साधन बन गई है; केदारनाथ सिंह की कविता अपने पाठकों को धीर, संयत, प्रबुद्ध और चतुर बनाती है। स्वयं कुछ न कर कविता से सब कुछ करवाना चाहने
वालों को केदार की कविताएँ सहमत करती हैं, उसके गुस्से को सहलाकर शान्त करती हैं और उसे याद दिलाती हैं कि तुम्हारी
शक्ति अजेय है, तुम जिस फावड़े से
अराजकता के स्तम्भ तोड़ रहे हो, वह
उस लोहे के फावड़े से नहीं, तुम्हारे
मस्तिष्क से टूट रहा है।
अपने आवास पर गुरुवर प्रोफेसर केदारनाथ सिंह के साथ देवशंकर नवीन |
केदार की कविताएँ जिस रास्ते से गुजरकर यह सफलता हासिल करती हैं, वह इनके बिम्बों और प्रतीकों के संयोजन के
कौशल के कारण हो पाया है। कविता में बिम्बप्रयोग के सम्बन्ध में कवि ने बहुत कुछ
लिखा है। साठ के बाद की कविताओं में बिम्बों के तिरस्कार पर कई तरह की बातें लिखी
गईं और कहा गया कि बिम्बों के घटाटोप के कारण नई कविता शक की चीज होने लगी। लिहाजा
साठ के बाद के कवियों ने बिम्बों से अपना मोह घटाना शुरू कर दिया, कई ने मोह तोड़ लिया। यहाँ तक कि कई कवियों ने
घोषणा की कि कविता में बिम्ब को वे अभिव्यक्ति का अवरोधक मानते हैं। पर केदारनाथ
सिंह का सृजन संसार भी और उनकी आत्म-स्वीकृतियाँ भी कविताओं में बिम्ब की अहम
भूमिका को स्वीकारती हैं। सही मायने में बिम्ब ही वह पहला घटक है जो पाठक को कविता
से जोड़ता है। इस बात से मुकरा नहीं जा सकता कि कोई भी पाठक कविता पढ़ते या सुनते
हुए सबसे पहले उसका बिम्ब ही ग्रहण करता है। किसी भी पाठक के मस्तिष्क पर
सर्वप्रथम कविता के कथ्य का चित्र बनता है और फिर वह उसके विचारों की जुताई-गुराई-निकौनी
करता है। इसी बिम्ब और प्रतीक के सहारे कवि के शब्द-संस्कार को समझने की कोशिश
होनी चाहिए। उनके यहाँ वाक्यों में सदा एक जिज्ञासा, एक खोज भरी पड़ी है। मनुष्य की अस्मिता और नैतिकता की
खोज के रूप में व्याप्त यह आकुलता ही कवि को सदा बेचैन किए रहती है। ‘कौन’, ‘क्या’ जैसे
प्रश्नवाचक शब्द, ‘माँ’ अथवा अन्य सम्बन्धपरक, व्यक्तिपरक शब्द, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, ऋतु, मौसम, समय, सूर्य, सूर्यास्त, शाम, कोहरा,
अजनबी, घाटियाँ, गुफाएँ, कन्दराएँ... आदि
शब्दों के प्रयोग केदारनाथ सिंह के यहाँ मात्र शब्द भर नहीं रह जाते। ये शब्द उनकी
कविताओं में अपने विशाल आयाम के साथ उपस्थित होते हैं। उनकी कविताओं से ही यह
स्पष्ट होता है कि कवि को जीवन में सबसे ज्यादा भरोसा ‘शब्द’ और
‘मानव मस्तिष्क’ पर है। यह सच है कि इन दोनों का दुरुपयोग नहीं
किया गया तो ये वृहत्तर काम की चीज साबित होंगे। ‘मानव मस्तिष्क’ को ‘शब्द’
प्रेरित करता हैं और ‘शब्द’ ‘मानव मस्तिष्क’ में अर्थ पाता है। इन दोनों घटकों पर केदारनाथ सिंह की
आस्था है, जो उनकी गहरी
जीवनदृष्टि का परिचायक है। शायद यही कारण है कि उनकी कविताओं में कोई भी शब्द
सिर्फ अपने कोशीय अर्थों के साथ नहीं उपस्थित होता। कवि को ‘शब्द शिल्पी’ कहने की सार्थकता उन्हीं की कविताओं से प्रमाणित होती है। ‘रोटी’ पकने के बाद खाद्य होता है, घाव पकने के बाद मुक्ति देता है, विचार पकने के बाद स्वरूप ग्रहण करता है, केदारनाथ सिंह के यहाँ सारे-के-सारे शब्द पके हुए होते
हैं। अर्थात् उनके पके हुए अनुभव में उपस्थित सारे पके हुए शब्द अपनी पूरी
अर्थवत्ता के साथ आते हैं।
‘बाघ’ शृंखला’ में लिखी गई केदारनाथ सिंह की इक्कीस कविताएँ
हैं, जो काफी चर्चित हुईं। पत्र-पत्रिकाओं
में खण्ड-खण्ड में वे कविताएँ पहले से ही प्रकाशित, प्रशंसित होती रहीं। बाद में ‘बाघ’ शीर्षक
से संकलित होकर वे कविताएँ पुस्तकाकार छपीं। अन्तिम रूप से पाण्डुलिपि तैयार करते
समय कवि ने उसमें कुछ नए खण्ड भी जोड़े। कवि के शब्दों के प्रति सावधान व्यवहार की
चर्चा करते हुए, इक्कीस खण्डों
की इस एक कविता की चर्चा आवश्यक है। रूप के स्तर पर समग्रता में इन इक्कीस का एक
होना और खण्ड-खण्ड में इक्कीस होना भी अपनी तरह से व्याख्येय है। पर यदि इन्हें
केवल कवि की अन्तर्दृष्टि के हवाले से देखा जाए तो यहाँ कवि का सूक्ष्म अवलोकन
अचम्भित कर देता है। एक ‘बाघ’
को जीवन की गतिविधियों में इतने फलकों
से देखा जाना कवि की विशाल चिन्तनशीलता का परिचायक है। ‘बाघ’ की
चर्चा करते हुए परमानन्द श्रीवास्तव लिखते हैं, ‘यह कविता आधुनिक जीवन और समय की जटिल वास्तविकता को
अत्यन्त अर्थसघन रूप में प्रस्तुत करती है। इस ढलती हुई शताब्दी के सौन्दर्य और
आतंक को एक ही बिन्दु पर जीने और महसूस करने के लम्बे प्रयत्न के रूप में घटित यह
कविता लम्बे समय तक पाठक को आस्वाद और विश्लेषण का आमन्त्राण देती रहेगी और एक
विलक्षण उत्तेजना भी (प्रतिनिधि कविताएँ: केदारनाथ सिंह)।’
‘बाघ’ शब्द के उच्चारण से
आज भी शैतानी करते बच्चों को डराया जाता है, वार्तालाप करते हुए लोग आज भी कभी हिंसक जानवर,
तो कभी बलशाली जीव के रूप में ‘बाघ’ की चर्चा कर लेते हैं, पर
आज समय के इस मोड़ पर ‘बाघ’
का स्वरूप केवल वही नहीं रह गया है जो
वह समझा जाता रहा है। कवि कहते हैं, ‘आज का मनुष्य बाघ की प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतनी दूर आ गया है कि जाने-अनजाने
बाघ उसके लिए एक मिथकीय सत्ता में बदल गया है। पर इस मिथकीय सत्ता से बाहर बाघ
हमारे लिए आज भी हवा-पानी की तरह एक प्राकृतिक सत्ता है, जिसके होने के साथ हमारे होने का भवितव्य जुड़ा हुआ है।
इस प्राकृतिक बाघ के साथ--उसकी
सारी दुर्लभता के बावजूद--मनुष्य
का एक ज्यादा गहरा रिश्ता है, जो
अपने भौतिक रूप में जितना आदिम है, मिथकीय
रूप में उतना ही समकालीन।’ इस
संकलन की कविताओं में बाघ को जितने रूपों में जैसी अर्थवत्ता दी गई है, वास्तविक जमीन से उसके सम्बन्ध को जोड़कर देखते
हुए तय होता है कि वाकई बाघ आज हमारे लिए हवा-पानी की तरह प्राकृतिक सत्ता है। यह
बाघ है जो पूरे शहर को एक गहरे तिरस्कार और घृणा से देखता है। केदारनाथ सिंह का यह
‘बाघ’ अज्ञेय के उस ‘साँप’ की याद दिलाता है
जिसे अज्ञेय पूछते हैं कि उसने नगर में बसे बगैर डसना कैसे सीखा, विष कहाँ पाया। वहाँ ‘साँप’ नगर
की जिन विकृतियों का परिचायक है, बाघ
की घृणा यहाँ मनुष्य की उससे भी घिनौनी विकृतियों का द्योतक है।
अपने आवास पर गुरुवर प्रोफेसर केदारनाथ सिंह एवं प्रो. मैनेजर पाण्डेय के साथ देवशंकर नवीन पार्श्व में प्रो; चन्द्रा सदायत एवं प्रतिमा कुमारी |
‘बाघ’ शीर्षक कविता के
सारे खण्ड सही मायने में किसी बाघ की परिभाषा नहीं है, यह मौजूदा हालात में मानव जीवन के विविध पहलुओं की
तलाश है, यह हमारे परिवेश के अलग-अलग
फलक में खण्ड-खण्ड जीवन की भली-बुरी, मोहक-वीभत्स तस्वीर है। यहाँ ‘बाघ’ को जब छिपने की कोई
जगह नहीं मिलती, वह धीरे से उठता
है और जाकर किसी कथा की ओट में बैठ जाता है। ‘बाघ’ के
तीसरे खण्ड का यह ‘बाघ’ भी मानव जीवन का अंग ही है। यह हमारी चेतना का
ही रूप है, उसी की नृशंसता को
द्योतित करता है। यह बाघ अपने शिकार का खून पी चुकने के बाद आराम से किसी कथा की
ओट में बैठा रहता है, यह बाघ
अतीत को स्मृतियों में नहीं रखता, भविष्य
को सामने नहीं आने देता, इसके
पास नैतिकता की कोई परिभाषा नहीं होती, यह अपनी लम्बी शानदार परछाई तक देखने नहीं आता। यह बाघ आज के मनुष्य के
निजी वर्तमान को सुखमय और विलासमय बनाने के लिए नैतिकता भूलती चेतना का परिचायक
है।
इस कविता में ‘बुद्ध’
और ‘बाघ’ का
आमना-सामना हमारे मानवीय रिश्तों के दो पाठ हो जाने का उदाहरण है। भूख और करुणा के
बीच की यह विस्तृत खाई अजब तरह की है। हिमालय की चोटियों पर गिरती बर्फ में बुद्ध
भी सिहरते हैं, बाघ भी हिलते हैं,
पर विडम्बना यह कि एक ही करुणा से त्रस्त
रहते हुए भी भूख और करुणा के बीच कोई पुल नहीं बन पाता। यहाँ गन्ने के खेत में खड़ा
बाघ एक सुन्दर और विशाल टैªक्टर
से ईष्र्या करने लगता है, एक
विराट दाने की तरह ट्रैक्टर को देखकर यह बाघ उसकी सारी सम्भावनाओं पर सोचकर फिर से
उसे देखता है और उससे ईष्र्या कर बैठता है। यह ईष्र्या और कुछ नहीं, सिर्फ मानव जाति की लिप्सा है, लालसा है, जिसके तहत आज हर मनुष्य दुनिया का हरेक सुख, हरेक उपलब्धि अपने नाम जोड़ना चाहता है,
दूसरों की सम्भावनाओं में स्वयं को फिट
कर देना चाहता है, यही लिप्सा,
यही तृष्णा उसे ईष्र्यालु बनाती है।
मनुष्य की चुप्पी, उसकी प्यास,
उसके दुख के बारे में इतना जिज्ञासु और
इतना निरुपाय बाघ आज के मानव जीवन की हताशा है, लाचारी है, जो हर उलझन, हर मुसीबत
का उत्तर पा जाने के बावजूद उसके निराकरण में निरुपाय रहता है। जलती दोपहरी में
सुस्ता रहे आदमी के कानों में बरगद के गीत गाने की हरकत पर मुग्ध होता बाघ,
प्रेम-कथा में व्याप्त जादुई बाघ,
अक्षरों को अर्थात् जिसका नाश न हो उसे
आधा करके लिखना या सीखने की हरकत पर अथवा ‘ईश्वर’ जैसा अमूर्त ‘शब्द’ सीखने पर परेशान और पस्त होता बाघ, रात भर अकेला रोता हुआ और सारे जीव-जन्तुओं को अपने
रोने का कारण न बताता हुआ अकेला बाघ, अपनी हिंसक प्रवृत्ति पर खीजता, अपने पराक्रम के सदुपयोग से कुछ नया कर पाने की सम्भावना तलाशता, अपने अहंकार के पिंजरे से बाहर आकर सोचता बाघ
जो खरगोश की मुलायम देह को सहलाते हुए अपनी जीभ पर उस कोमलता का स्वाद महसूस करता
है--मानवीय स्वभाव का सबरंग
उदाहरण है। अनैतिक से नैतिक होने के बीच का महीन और कोमल परदा यहाँ कितना कमजोर
दिखता है--केदारनाथ सिंह ने इस
चित्र को जिस तल्खी से पकड़ा है, वह
आश्चर्यचकित करता है। जीभ, नाखून
के स्वाद और स्पर्श को जिस सूक्ष्मता से चित्रित किया गया है, उसे देखकर रोमांचित हो जाना पड़ता है। बाघ की
मूर्ति के टूट जाने और उसी बाघ की उसी मूर्ति की तलाश करने की हरकत, कवि की गहरी मानवीय दृष्टि का परिचायक है। एक
ऋतुचक्र पूरा कर कवि ने बाघ के जितने रूपों को अपनी इस कविता शृंखला में प्रस्तुत
किया है उसे प्रसिद्ध ओड़िया कवि के शब्दों में देखा जा सकता है कि ‘इस ढलती हुई शताब्दी के इस अन्धे मोड़ पर ‘बाघ’ दरअसल समय के विध्वंसों के खिलाफ मनुष्य के संघर्ष की लोकगाथा है।’
कवि केदारनाथ सिंह की केवल बाघ कविता ही नहीं, जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, उनका पूरा काव्य संसार आतंक और विकृतियों से
भरे इस माहौल में कहीं तिनका भर मानवता की तलाश का उद्यम है। यहाँ विराट लौह सैन्य
से लड़ने की ताकत न जुटा पाने की स्थिति में उसे गाली देने और उसके लिए अपमान भरे
शब्द टीपने की जरूरत कभी नहीं महसूस की गई है। यहाँ भाषा की शालीनता, शब्द-प्रयोग का चातुर्य, बिम्ब-निर्माण का कौशल और इन सबके सहारे कविता
की आत्मा में एक अजब ढंग से मनोहारी लय उपस्थित है, जो पाठकों के उग्र मनोवेग, विकृत मनोविकारों का शमन भी करती है और उन्हें मानवीय
ऊर्जा तथा शब्दों की शाश्वतता के प्रति आवश्स्त भी करती है।
-गगनांचल, जुलाई-सितम्बर-1996
Very nice post
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