उपभोक्ता-वृत्ति और विज्ञापन के वर्चस्व के कारण भारत की सदियों पुरानी
भाषिक विरासत आज कहीं नेपथ्य में बैठी है; क्योंकि उसके प्रयोक्ता खुद को विज्ञापनों
की भाषा में सुर्खरू समझते हैं। अब सचाई तो है ही कि यह समय विज्ञापन के वर्चस्व
का समय है; अर्थात् ऊँचा बोलने का समय, झूठ बोलने का समय। अपने शून्य को सौ-हजार और
दूसरों के सौ-हजार की उपेक्षा करने का समय। राजनेता तो खासकर आत्मश्लाघा के कुएँ से
नहाकर आए हुए प्रतीत होते हैं। उन्हें अपने सिवा दुनिया का हर प्राणी निरर्थक,
निकम्मा और बेईमान लगता है। व्यापारी लोग तो अपने उत्पादों का विज्ञापन करते
समय भूल ही जाते हैं कि उनकी डींगें लोगों में पकड़ी जाएँगीं। दूरदर्शन पर टूथ
पेस्ट के विज्ञापन में मॉडल को हवा में उछाल मारते हुए; परफ्यूम लगाने,
माउथ-फ्रेशनर खाने या दाढ़ी बनाने से मॉडलों पर सुन्दरियों को लहालोट होते हुए;
माहवारी स्राव का पैड पहनने से युवतियों में उड़ान भरने की काबिलियत आते हुए
देखकर कितना फूहड़ लगता है? पता नहीं संवाद लिखते हुए लेखक को या कि फिल्माते
समय मॉडल को अपनी इस फूहड़ता का भान होता है या नहीं! भोण्डे विज्ञापनों की इस
ललक से अब तो शिक्षा के व्यापारी भी बचे नहीं हैं। किन्तु सवाल है कि विज्ञापन किसलिए
होता है—उपभोक्ताओं को ठगने के लिए;
या उत्पादकों को सम्पन्न करने के लिए? यह बात विज्ञापनों की भाषा की सूक्ष्म
पड़ताल करने पर ही स्पष्ट होगी। क्योंकि 'भाषा' वस्तुत: मनुष्य के सभ्य और
स्वायत्त होने की पहचान के साथ-साथ अपने उत्पादकों और प्रयोक्ताओं की नीयत भी
बताती है। बशर्ते कि आप उस नीयत को पहचान सकें!
भाषा अपने आविष्कार-काल से ही मानव-जीवन की अलौकिक उपलब्धि है। सभ्य, व्यवस्थित
और उत्तरोत्तर उन्नत होने की दिशा में यह मनुष्य की सबसे बड़ी सहायिका रही है।
भावाभिव्यक्ति के साधन के अलावा यह सामुदायिक संस्कृति की सरणि और सोच-विचार
का आधार भी है। भाषा के बिना कुछ भी सोचा
जाना असम्भव है। अपने वैयक्तिक, पारम्परिक एवं राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान
कोई मनुष्य इसी के जरिए करता है; और जिन मूल्यों एवं नैतिकताओं के कारण वह मनुष्य
होता है, उनके सन्तुलन की चिन्ता करना भी सीखता है। किन्तु विज्ञापनी वर्चस्व
के आधुनिक दौर में हम भाषा को ऐसे नहीं देख सकते। उस दिशा में भारतीय समाज का
भाषिक परिदृश्य आज विचित्र दशा में है। आज के प्रयोक्ताओं के पास शब्दों, सम्बोधनों,
क्रियापदों, प्रयुक्ति की भंगिमाओं की बेहद गरीबी छाई हुई है। स्वायत्त एवं
प्रभुत्वसम्पन्न भारतीय समाज का भाषिक-बोध इतना सिमट गया है कि वे मुहावरों
में भी अभिधेयार्थ ढूँढते हैं। अपने उतावलेपन से आधुनिक हुए ऐसे भारतीय न्यूनतम
क्रियापदों से सारा काम चलाना चाहते हैं। जबकि क्रियापद और सर्वनाम के जरिए भारतीय
भाषाओं के संस्कार परिलक्षित होते हैं। 'कामचलाऊ सम्प्रेषण' और 'बेशुमार धनार्जन'
के नशे में लिप्त-तृप्त, आधुनिकता के इन सिपाहियों को नहीं मालूम कि भाषा
अन्तत: मनुष्य की निजता और राष्ट्रीयता की पहचान होती है। इन्हें चूँकि अपनी
भाषिक गरिमा का बोध नहीं है; इसलिए किश्तों में अपनी भाषिक-क्षमता खो-खोकर
आज पूरी तरह भाषाविहीन हो गए हैं। इस दिशा में भारत के भाषाविदों, अध्यापकों,
समाजसेवियों, शोधार्थियों और सत्ता के नियन्ताओं को गम्भीरता से सोचने की
जरूरत है कि दीर्घकाल तक औपनिवेशिक मनोदशा के अधीन रहकर भी जिन भारतीयों ने
अपनी भाषा-संस्कृति की गरिमा कायम रखी; आजादी के कुछेक बरस तक भी वह अनुराग
कायम न रह सका। परराष्ट्रीय भाषा के प्रति लोलुप लोग अपने ही भाषिक सौष्ठव से
निरपेक्ष दिखने लगे। अपने अनेक भाषा-व्यवहार में आज का भारतीय अपनी सांस्कृतिक
पहचान और राष्ट्रीयता अस्मिता का सम्पूर्ण संकेत नहीं दे पाता। वे न केवल अपनी
भाषिक प्रयुक्तियों की मर्यादाओं, विशिष्टताओं से नावाकिफ हैं; बल्कि भाषिक
छवियाँ भी उनके लिए अजनबी हैं। चिन्तनीय, किन्तु सत्य है कि ऐसी स्थितियों
में आकर भी वे खुद को अयोग्य नहीं समझते; 'एडवान्स हो चुके' समझते हैं।
भारत के भाषिक परिदृश्य में ऐसी नागरिक निरपेक्षता का कारण सामुदायिक
परिवेश में भोगवृत्ति का गहन प्रवेश है। चारो ओर उपभोक्ता संस्कृति छाई हुई
है। लोगों की पूरी जीवन-व्यवस्था विज्ञापन और विज्ञापन की भाषा से संचालित हो
रही है। विज्ञापनी वक्तव्य पर वे धर्म की तरह आस्था रखते हैं; उस पर संशय/तर्क
करना उन्हें अधर्म-सा लगता है। छह-छह दार्शनिक परम्पराओं वाले देश के नागरिकों
के लिए तर्क करना आज इतना निरर्थक लगता है कि मुर्गी के अण्डे पर चिपके स्टीकर
के कारण वे उसे उस कम्पनी का अण्डा मानते हैं। जबकि अण्डे तो मुर्गी ने दिए! वस्तुनिष्ठता
की दिशा में तर्क-विचार करना अब नागरिकों के लिए निरर्थक हो गया है। मोबाइल
पर ज्यों ही एस.एम.एस. आता है—'बाय
वन, गेट वन फ्री'; लोग हरकत में आ जाते हैं; स्लोगन के व्यापारिक लक्ष्य पर तनिक
विचार नहीं करते। सम्मोहित अनुयायी की भाँति चल पड़ते हैं। क्योंकि वे अपनी
भाषा और भाषिक समझ खो चुके हैं।
आम नागरिक ही नहीं, विज्ञापन की भाषा और पद्धति पर सोचने की जरूरत व्यवस्था-संचालन
के नियन्ताओं को भी महसूस नहीं होती। सामाज में जागरूकता फैलानेवाले प्रसंगों के
अलावा व्यक्तियों/संस्थाओं के व्यावसायिक उन्नति को बढ़ावा देनेवाले विज्ञापनों
को भी इन दिनों भारत में जनसंचार माध्यमों, सोशल मीडिया एवं मुनादी द्वारा
प्रचारित करने की आजादी मिली हुई है। इन संचार माध्यमों पर अब तो दवाइयों का भी
विज्ञापन होता है(विधानविरुद्ध है, किन्तु वैधानिक बचाव के कौशल वे जानते हैं)। अधिकांश विज्ञापनों से सामाज में ठगी, असावधानी, अन्धविश्वास,
राष्ट्रीयता एवं नैतिकता के प्रति लापरवाही...तरह-तरह की विसंगतियाँ फैल रही
हैं। त्यौहारोत्सव के अवसर आते ही मेल/मोबाईल/टीवी पर ऑफर आने लगते हैं। अभी-अभी
मॉल से जीएसटी ऑफर आया था, मानसून ऑफर आ चुका है, तीज ऑफर/झूला ऑफर आनेवाला है। इन
उत्पादकों ने शायद तय कर रखा है कि आम नागरिक इत-उत में न पड़े, जो भी कमाकर घर
लौटे, आकर हमारे खाते में डाल जाए। विज्ञापन लिखनेवालों, मॉडलिंग
करनेवालों को तो उत्पादकों से मोटी रकम उगाहनी होती है, उन्हें कोसने से भी कुछ
हो नहीं सकता; किन्तु इन ऑफरों/विज्ञापनों के सम्मोहन में बेतहाशा दौड़ते आम
नागरिक का आचरण हैरत में डालता है।
गजब खेल है; उपभोक्ता समझता/कहता है कि वह फायदे में है; जबकि वह शिकार हुआ है। उत्पादक समझता है कि उसका निशाना सही लगा है, पर वह कहता है कि हम तो उपभोक्ता के सेवक हैं, जबकि उसने उपभोक्ता का शिकार किया है। निस्सहाय उपभोक्ता चूँकि लम्बे समय से कथन का 'आरोपित अर्थ' समझता आया है; अपनी भाषिक भव्यता का निरन्तर तिरस्कार करता आया है, इसलिए उसे यह तिलिस्म समझ नहीं आता, वास्तविक स्थिति का उसे बोध नहीं होता। इनकी तर्कशक्ति अवरुद्ध है; विज्ञापनकर्ताओं के लिए ये मुग्ध, सम्मोहित और उनके पीछे बेसुध दौड़ती हुई भीड़ हैं। इस सम्मोहित पीढ़ी के अनुयायियों को समझाया भी नहीं जा सकता। क्योंकि उत्पादकों के विज्ञापन पर इन्हें खुद से अधिक भरोसा है। विज्ञापनों पर तर्क करना उनके लिए अधर्म है। तर्क करने का अर्थ वे विरोध मानते हैं--विज्ञापन का विरोध, विज्ञापन के माॅडल का विरोध। विज्ञापन का माॅडल चूँकि उनके आइकन हैं, इसलिए तर्क का अभिप्राय हुआ उनके आइकन का विरोध; और उनके आइकन का विरोध हुआ तो उनका ही विरोध हुआ! विरोध की इस लम्बी शृंखला में कोई उलझना नहीं चाहता।
गजब खेल है; उपभोक्ता समझता/कहता है कि वह फायदे में है; जबकि वह शिकार हुआ है। उत्पादक समझता है कि उसका निशाना सही लगा है, पर वह कहता है कि हम तो उपभोक्ता के सेवक हैं, जबकि उसने उपभोक्ता का शिकार किया है। निस्सहाय उपभोक्ता चूँकि लम्बे समय से कथन का 'आरोपित अर्थ' समझता आया है; अपनी भाषिक भव्यता का निरन्तर तिरस्कार करता आया है, इसलिए उसे यह तिलिस्म समझ नहीं आता, वास्तविक स्थिति का उसे बोध नहीं होता। इनकी तर्कशक्ति अवरुद्ध है; विज्ञापनकर्ताओं के लिए ये मुग्ध, सम्मोहित और उनके पीछे बेसुध दौड़ती हुई भीड़ हैं। इस सम्मोहित पीढ़ी के अनुयायियों को समझाया भी नहीं जा सकता। क्योंकि उत्पादकों के विज्ञापन पर इन्हें खुद से अधिक भरोसा है। विज्ञापनों पर तर्क करना उनके लिए अधर्म है। तर्क करने का अर्थ वे विरोध मानते हैं--विज्ञापन का विरोध, विज्ञापन के माॅडल का विरोध। विज्ञापन का माॅडल चूँकि उनके आइकन हैं, इसलिए तर्क का अभिप्राय हुआ उनके आइकन का विरोध; और उनके आइकन का विरोध हुआ तो उनका ही विरोध हुआ! विरोध की इस लम्बी शृंखला में कोई उलझना नहीं चाहता।
उत्पादकों का व्यावसायिक गणित पूरी तरह सधा होता है। उन्हें सुविचारित रणनीतियों
के तहत सम्मोहन चित्तविजय का खेल खेलना
पड़ता है! नहीं खेलेंगे तो उनका घटिया सौदा उम्दा कीमत, और आनन-फानन में नहीं बिकेगा।
इसके लिए उन्हें कुछ मदारी खरीदना पड़ता है; भाषा और करतब का मदारी। ये क्रीत मदारी
आम नागरिकों के भावनात्मक दोहन (इमोशनल ब्लैकमेलिंग) का सिलसिलेबार इन्तजाम करते
हैं। संवाद में भाव, भाषा और दृश्य का ऐसा तिलिस्म गढ़ते हैं; संवेदनशील घटना-प्रसंगों
और कोमल सम्बन्धों के अनुराग की दुहाई देकर उत्पाद की ऐसी गुणवत्ता बताते हैं कि
भाव-प्रवण विह्वल क्रेता उत्पाद की वस्तुनिष्ठता के बारे सोचना छोड़कर उस भावुकता
के सरोवर में सराबोर हो जाते हैं। आह्लाद और मोहकता उसे दुनियाँदारी से काट देती है।
निश्छल उपभोक्ताओं की कोमल भावनाओं का दोहन करनेवाले ये चालाक मदारी निमेष
मात्र के लिए नहीं सोचते कि जिस सामान्य नागरिक ने हमें राष्ट्र का आइकन
बनाया; इन विज्ञापनों में हम उन्हें ही चूना लगा रहे हैं और पूँजीपतियों का
खजाना भर रहे हैं! वे कभी देश के नियन्ताओं को नैतिक और राष्ट्रहितैषी पाठ
पढ़ानेवाले विज्ञापनों की बात नहीं सोचते! वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में आगे
रहनेवाले भारत के शोध, अनुसन्धान, शिक्षण, अध्यवसाय के उन्नयन की दिशा में विज्ञापन
करने की बात नहीं सोचते! ऐसा सोचेंगे तो मोटी रकम उगाहने के लिए तेल-मसाला-साबुन-मलहम-ताकतवर्द्धक
दवाई कैसे बेचेंगे? सचमुच, विज्ञापनों की वैधानिकता और भाषा पर गम्भीर बहस की बड़ी
जरूरत आन पड़ी है।
मनुष्य से उसकी 'भाषा' छीनने की यह तरकीब भारत में कोई नई नहीं है; आजादी के
कुछेक बरस बाद से ही शुरू हो गई थी। भारतीय लोकतन्त्र के निर्वाचित जनप्रतिनिधि
और चयनित अधिकारियों में 'शासक' बनने की भूख बलवती हो उठी थी; वे जानते थे कि
जिस मनुष्य के पास भाषा होगी, उस पर शासन नहीं किया जा सकता। (आज के सन्दर्भ
में देखें तो जिस मनुष्य के पास भाषिक समझ और तर्कशक्ति होगी, उसे ऊल-जलूल उत्पाद
नहीं बेचा जा सकता।) क्योंकि भाषा होगी, तो वह बोलेगा; तर्क करेगा; बोलता रहा,
तर्क करता रहा तो विरुद्ध बोलेगा। पहले एक बोलेगा, फिर दो, फिर दस, सौ, हजार,
करोड़...आन्दोलन खड़ा हो जाएगा। एक की माँग बेशक भीख कहलाए, हजारो की माँग शासकों
को बेदम कर देती है। इसलिए शासितों के मुँह में ज़बान रहने देना, दिमाग में
तर्क-शक्ति रहने देना शासकों को अपने लिए हितकर नहीं लगा; वे जनता की भाषा
छीनने की जुगत बैठाने लगे। उनकी यह शातिरी उस दौर के विशिष्ट कवि धूमिल को स्पष्ट
दिख गई थी। उन्हें 'भाषा के चौथे पहर में जुआ तोड़कर भागते हुए शब्द' दिखने लगे
थे; 'परिचित चेहरा भी तत्सम शब्द-सा अपरिचित' लगने लगा था; 'शब्दों के जंगल में
शब्द और स्वाद के बीच भूख को जिन्दा रखना' भारी लगने लगा था। अपने पूरे दौर में वे
कविता और भाषा में प्रायोजित अर्थ भरे जाने के कौशल को गम्भीरता से नोट कर रहे
थे। आम नागरिक को कथन के 'प्रायोजित अर्थ' समझाने और मनवाने की परम्परा चल पड़ी
थी। क्योंकि 'प्रायोजित अर्थ' समझने का अभ्यासी नागरिक धीरे-धीरे अर्थान्वेष
की अपनी प्रक्रिया भूल जाता है; अन्तत: गूँगा हो जाता है। धूमिल इस तथ्य से अवगत थे, इसलिए ‘भाषा ठीक करने से
पहले आदमी को ठीक’ करना चाहते थे। वे भाषा में, आदमी होने की तमीज ढूँढते थे। 'भूख और भाषा में सही
दूरी'
न देख पाने वालों के मनुष्य होने पर वे
आपत्ति उठाते थे। भूख सबसे पहले ‘भाषा को खा’ जाती है। अभिप्राय यह कि जीवन जीने की पहली जरूरत 'भूख' किसी
मनुष्य को कई तरह से मजबूर करती है। मजबूरी में भाषा को बदलने में देर नहीं लगती।
भूख से मजबूर होकर ही कोई जमूरा मदारी की भाषा बोलने लगता है।
धूमिल के समय के शासकों को 'भाषा' की वास्तविक शक्ति का डर था। उन्हें इस
बात की गहरी समझ थी कि भूखविहीन मनुष्य तर्क करता है; उचितानुचित की बात करता है; जनप्रतिनिधियों
के कर्तव्यों की समीक्षा करता है; मनुष्य के होने की नैतिकता और तार्किकता की बात
करता है। किन्तु भूख, भाषा को खा जाती
है। इसलिए मनुष्य के 'होने' की बुनियादी
स्थिति को घेरे में रखा जाए; उसे भूख से लड़ने दिया जाए; लगातार अस्तित्व के
अविचल यथार्थ से जूझने को मजबूर किया जाए; वर्ना वह बोलेगा; उसका बोलना सत्ता के
लिए शुभद नहीं है।
उल्लेखनीय है कि 'मनुष्य होना' केवल जैविक
क्रिया भर नहीं है; देह-धारण करते ही मनुष्य कई विवशताओ में उलझ जाता है। भोजन,
वस्त्र, आवास भर से वह तुष्ट नहीं होता। उसके आगे उन्हें सम्मान और सुरक्षा भी
चाहिए, फिर वर्चस्व भी चाहिए। इसी वर्चस्व-स्थापन की प्रक्रिया में मनुष्य
पतित होने लगता है। क्रमश: संवेदनहीन, फिर क्रूर, और फिर खूँखार हो जाता है।
अतिसभ्य एवं अतिसम्पन्न होने के क्रम में वह सारी मनुष्यता त्यागकर पशु-प्रतीक का बेहतरीन उदाहरण बन जाता
है। ये मुट्ठी भर वर्चस्वकामी, देश भर के
सहृदय मानव के हिस्से का अनाज-पानी, पवन-प्रकाश सोखने लगता है। औरों के हिस्से
में उसके इस अतिक्रमण का विरोध आम नागरिक न करे, वह अपनी मुसीबतों को सुलझाने में व्यस्त
रहे, इसके लिए उस दौर के शासकों ने 'भूख' की निरन्तरता बरकारार रखी। भूख से बिलबिलाता
नागरिक विरोध की भाषा नहीं बोल सकता। इसलिए उन्हें भूख के अधीन रखकर भाषा का 'आरोपित
अर्थ' समझाया जाता था। जबकि धूमिल ने सावधान कर दिया ‘नहीं, अब वहाँ कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है/पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों/और बैलमुत्ती इबारतों
में/अर्थ खोजना व्यर्थ है।'
किन्तु आज धूमिल का समय नहीं है। धूमिल की इन प्रयुक्तियों में 'भाषा' तो मानवीय आचरण के प्रतीक भर थी, आज तो भाषा का मौलिक स्वभाव ही कहीं किनारे हो गया है। शासकों की दीर्घकालीन संगति से उपभोक्ता-सामग्री के उत्पादकों और वणिकों ने ऐसी व्यवस्था निर्मित कर ली है कि नागरिक परिदृश्य से भाषिक निजता का पूरा स्वरूप गायब है। विज्ञापन से इतर कोई भाषा आज का नागरिक जानता ही नहीं। धूमिल आज होते, तो देखते कि जिस जनता की ओर से वे भाषा की राजनीति पर सत्ता को फटकार रहे थे; वह जनता आज खुद-ब-खुद अपनी भाषा त्यागकर विज्ञापन की भाषा की गुलाम हो चुकी है। स्थिति भयावह अवश्य है, किन्तु हम अपनी निजता की ओर लौटना चाहें, तो असम्भव भी नहीं है।
किन्तु आज धूमिल का समय नहीं है। धूमिल की इन प्रयुक्तियों में 'भाषा' तो मानवीय आचरण के प्रतीक भर थी, आज तो भाषा का मौलिक स्वभाव ही कहीं किनारे हो गया है। शासकों की दीर्घकालीन संगति से उपभोक्ता-सामग्री के उत्पादकों और वणिकों ने ऐसी व्यवस्था निर्मित कर ली है कि नागरिक परिदृश्य से भाषिक निजता का पूरा स्वरूप गायब है। विज्ञापन से इतर कोई भाषा आज का नागरिक जानता ही नहीं। धूमिल आज होते, तो देखते कि जिस जनता की ओर से वे भाषा की राजनीति पर सत्ता को फटकार रहे थे; वह जनता आज खुद-ब-खुद अपनी भाषा त्यागकर विज्ञापन की भाषा की गुलाम हो चुकी है। स्थिति भयावह अवश्य है, किन्तु हम अपनी निजता की ओर लौटना चाहें, तो असम्भव भी नहीं है।
"धूमिल के समय के शासकों को 'भाषा' की वास्तविक शक्ति का डर था। उन्हें इस बात की गहरी समझ थी कि भूखविहीन मनुष्य तर्क करता है; उचितानुचित की बात करता है; जनप्रतिनिधियों के कर्तव्यों की समीक्षा करता है; मनुष्य के होने की नैतिकता और तार्किकता की बात करता है। किन्तु भूख, भाषा को खा जाती है।"
ReplyDeleteऐसा सोचता हूँ कि इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
This comment has been removed by the author.
Deleteपुनर्विचार से पहले विचार करने की आवश्यकता है, फिर पुनर्विचार भी हो, यह शब्द है ही इतना गरिमामय कि हर हाल में अपनी कोख में सम्भावना लिए रहता है। सम्भवत: इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद भी कुछ स्थितियों में अपील का प्रावधान रहता है।
ReplyDelete'भूख, भाषा को खा जाती है' कोई अध्यादेश वाक्य नहीं है; एक प्रस्तावना है; अर्थ-दोहन हेतु एक साधन है। इस पंक्ति की अर्थ-ध्वनि रूपक से निकलेगी; अभिधा से नहीं। मनुष्य की भाषा छीन लेने के कुटिल प्रयास की नीति कोई धूमिल के समय में, या कि आज ही नहीं अपनाई जा रही है। इस वृत्ति में सत्ताधीश सदैव सावधान रहते आए हैं। बस पद्धति बदलती गई है।
शासकों को शासितों के उन आचरणों पर सदैव शंका होती आई है, जिनमें गद्दी हिलाने की कोई चिनगारी सम्भावित हो। भारतीय मिथकों में भी ऐसा सन्दर्भ है। किसी तपस्वी के ध्यानस्थ होने की सूचना पाते ही इन्द्र अपनी गद्दी के लिए भयाकुल हो जाते थे। नागरिक की मद्धिम-मद्धिम ध्वनियाें में भी शासकों को बगावत की बू दिख जाती हैं। रूपकार्थ में ढूँढें तो ऐसा सदैव ही होता आया दिखेगा। इस क्रम में भाषा बहुत मूल्यवान पद्धति है। वह जनशक्ति के उद्घोष का माध्यम है। हर समय के शासक, नागरिकों की भाषा छीनने की अलग-अलग पद्धति अपनाते रहे हैं। धूमिल से अब तक के समाज में फर्क इतना तो आया है कि उन दिनों कुछ लोग इस खतरे से आम नागरिक को सचेत करना अपना कर्तव्य समझते थे। अब तो 'बदनाम हुआ बटमार मगर घर को रखवालों ने लूटा' की स्थिति है। दूध की रखवाली बिल्ली कर रही है। सुविधाओं की अनन्त लिप्सा में बड़े-बड़े सूरमा दुविधाओं से ग्रस्त हैं। अपना क्या बेच लेने से लोग क्या पा लेंगे, इस दुविधा में पूरा का पूरा नेतृत्व वर्ग--शिक्षक, उपदेशक, सन्त, नेता, पुलिस, पत्रकार, अधिकारी किंकर्तव्यविमूढ़ हैं; फिर बेचारे आम नागरिक को रास्ता कौन दिखाए! सारे पथप्रदर्शकों में भोगवृत्ति की होड़ लगी हुई है। अपनी भाषा बेच डालने को, जुबान कटवा लेने को तुले हुए हैं...सब कुछ ले लो, भोग करने दो। नैतिकता का हम क्या अचार डालेंगे?... अपने समय के नीतिनिर्धारकों, अनाज-पानी के देवताओं, और शिक्षा-दीक्षा के तस्करों की नीयत में इन रूपकों की तलाश कर सकते हैं।
उक्त उद्धरण में मैंने कोई फतवा जारी नहीं किया है। अपनी चिन्ताएँ व्यक्त की है। लोग विचार और पुनर्विचार करें; और मेरी बात को गलत साबित कर दें, तो मुझे भी खुशी होगी। मेरी भी चिन्ता दूर होगी। जनहित और राष्ट्रहित में कोई अच्छी पहल होगी। मैं अपनी घोषणा पर डटा नहीं हूँ; प्रतिपक्ष से सहमति की सम्भावना मेरे पास हरदम रहती है। तत्परता से भाषाविहीन होते जा रहे समाज के सार्वजनिक वातावरण में रोज किसी न किसी दीवार से टक्कर लग जाता है; घायल हो जाता हूँ। पर लोग कहते हैं कि जमाना बदल रहा है भाई, कहाँ हैं आप?... बदलाव बेहद जरूरी है, किन्तु सुसंगतिविहीन बदलाव कितना सार्थक होगा, इस पर भी विचार और पुनर्विचार की जरूरत है। फिर भी लोगों के प्रबोधन सुनकर स्वयं पर पुनर्विचार करने लगता हूँ, कि वस्तुत: कहाँ हूँ मैं? अब एक बार आपके प्रस्ताव पर भी पुनर्विचार करने की चेष्टा करूँगा? --देवशंकर नवीन