Saturday, January 31, 2015

महाकवि‍ वि‍द्यापति‍-2



भारतीय उपमहाद्वीप में सातवीं से अठारहवीं शताब्दी तक के समय को इतिहासज्ञ मध्यकाल कहते हैं; जिसमें सातवीं से तेरहवीं तक के समय को पूर्वमध्यकाल और तेरहवीं से अठारहवीं शताब्दी के काल को उत्तरमध्यकाल कहा जाता है। कुछ लोग मुगल साम्राज् की शुरुआत सन् 1526 में ही उत्तरमध्यकाल का अन् मानते हैं। पर हिन्दी साहित्येतिहास चिन्तक सन् 1000 से 1325 तक के समय को आदिकाल मानते हैं। हिन्‍दी साहित्य के इस युग को हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आदि‍काल कहा है; जबकि‍ काव्‍य-प्रवृत्ति‍ के मद्देनजर आचार्य रामचन्‍द्र शुक्ल तथा विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे वीरगाथाकाल; समय के आधार पर साहित्येतिहास लिखने वाले मिश्र बन्‍धुओं ने प्रारम्‍भि‍क काल; आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीजवपन काल; प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर रामकुमार वर्मा ने चारण-काल; राहुल संकृत्यायन ने सिद्ध-सामन्‍तकाल कहा है। इस काल की मुख्य चार साहित्यि‍क कोटियाँ‍ हैंसिद्ध-साहित्य एवं नाथ-साहित्य, जैन साहित्य, चारण-साहित्य, प्रकीर्णक साहित्य। आचार्य शुक्‍ल ने जि‍न बारह ग्रन्‍थों की प्रवृत्ति‍यों का वि‍श्‍लेषण करते हुए इस काल को वीरगाथा काल कहा, उनमें से दो ग्रन्‍थकीर्ति‍लता और कीर्ति‍पताका, महाकवि‍ वि‍द्यापिति‍ की प्रसि‍द्ध कृति‍ है। ये दोनों कृति‍याँ वीरगाथा की कही गई हैं, जबकि‍ कीर्ति‍पताका शृंगारि‍क रचना है। पर तब से लेकर अब तक के समाज में वि‍द्यापति‍ की लोकप्रि‍यता का मूल आधार शृंगार-रस एवं वीर-रस से ओत-प्रोत उनकी कोमलकान्‍त पदावली है। भारतीय साहित्य की शृंगार एवं भक्ति परम्‍परा के वे प्रमुख स्‍तम्‍भ थे। राजदरबार से लेकर आम नागरि‍क के दैनन्‍दि‍न जीवन तक में उनकी पदावली ने संस्‍कार की तरह जगह पा ली थी, जि‍सका प्रभाव आज छह शताब्‍दी से अधि‍क का समय बीत जाने के बावजूद बरकरार है। उस दौर की प्रचलि‍त भाषाएँ संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश पर उनका मातृभाषा मैथिली के समान अधिकार था। उनकी रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट, एवं मैथिलीतीन भाषाओं में मिलती हैं। उनकी रचनाओं में समकालीन जनजीवन और भाषा का वि‍लक्षण स्वरूप देखा जा सकता है। भक्‍त समुदाय ने उन्‍हें वैष्णव और शैव भक्ति के सेतुबन्‍ध के रूप में स्वीकारा। 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' का सूत्र देकर उन्होंने लोकभाषा की जनचेतना जाग्रत की। आज भी मैथि‍ल लोकाचारों में उनकी शृंगार एवं भक्ति रचनाएँ बरवस फूट पड़ती हैं।
सृजन के प्रारम्भि काल से से रस, छन्, अलंकार  काव् के आवश्यक अवयव माने जाते रहे हैं। रस का शाब्दिक अर्थ है निचोड़। श्रव्य काव्य को पढ़ने अथवा सुनने से; तथा दृश्य काव्य के अवलोकन एवं श्रवण से जो अलौकिक आनन्द मिलता है, उसे काव्य-रस कहते हैं; और जिस भाव के कारण इस रस की अनुभूति होती है, उसे उस रस का स्थायी भाव कहते हैं। रस काव्य की आत्मा है। महाकवि‍ वि‍द्यापति‍ के लगभग समकालीन आचार्य विश्वनाथ ने अपनी प्रसिद्ध कृतिसाहित्यदर्पण में कहा है--वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम्; अर्थात् रसपूर्ण वाक्य ही काव्य है।
आचार्यों ने काव् के मुख्यत: नौ रस बताए हैं--शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, शांत; और इनके स्थायीभाव हैं--क्रमश: रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, घृणा, आश्चर्य, निर्वेद। इनके अलावा वात्सल्य और भक्ति को भी रस माना गया है। शृंगार को रसराज या रसपति‍ कहा गया है। इसे दो भागों में विभक्त किया गया है--संयोग और वियोग। कहीं-कहीं संयोग शृंगार को विप्रलम् शृंगार भी कहते हैं। संयोग और वियोग--शृंगार रस के दोनों पक्षों को मिलाकर नायक-नायिका के बीच प्रेम-प्रसंग के कई भाव और स्थितियाँ सामने आती हैं। विद्यापतिपदावली उन सारी स्थितियों का चित्र-संकलन है। दर्शन, अनुरक्ति‍, आसक्ति‍, स्मरण, प्रणय-निवेदन, अभिसार, मिलन, केलि‍-क्रीड़ा, सुरति‍-सुख, सुरति‍-बाधा, विछोह आदिचित्रों के साथ-साथ नायक-नायिका भेद, नखशि वर्णन करते हुए कविने काव् में भौति सौन्दर्य को जीवन् कर दिया है। सौन्दर्य की इस काव्यजनि समझ के साथ भावकों को पूरी पदावली में एक नए सौन्दर्यशास्त्र का दर्शन होता है। कला, संस्कृति और प्रकृति के आनन्ददायी निरूपण के साथ सौन्दर्यशास्त्र निश्चय ही दर्शनशास्त्र का अंग है; इसमें अभिव्यक्त सौन्दर्य का तात्त्वि विवेचन होता है; किसी सुन्दर बिम्ब को देखकर मन में उठे आनन्ददायी भाव मनुष् को जीवन के जितने प्रसंगों-व्यापारों से जोड़ते-काटते हैं; उसका विवेचन और जीवन की अन्यान्य अनुभूतियों के साथ उसका समन्वय स्थापित करना सौन्दर्यशास्त्र का मुख्य उद्देश्य होता है। साहित्य का सौन्दर्य-विवेचन कृतियों के तात्पर्य और रचना-प्रक्रिया के सामाजिक-ऐतिहासिक पहलुओं से भी संवाद करता है। प्रमाणि सत् है किमनुष्यों के बीच नैतिक अनुभूतियों का सम्प्रेषण न कर पाने वाली कला रूपवादी कसौटियों पर कितनी भी महान हो; सराहनीय नहीं हो सकती। इस दिशा में प्राच्-पाश्चात् चिन्तकों ने लम्बी-चौड़ी बहस की है; जिसके विस्तार में जाना यहाँ काम् नहीं।
विदि है किमहाकविविद्यापति का रचनाकाल घनघोर सामाजि-राजनीतिक उथल-पुथल से आक्रान् था; शृंखलाबद्ध आक्रमणों से भयभीत समाज में हर समय किसी किसी अनिष् की आशंका बनी रहती थी। आम जनमानस सदैव हताशा में राज्-परिषद सम्भावि आक्रमण की दुश्चिन्ता में डूबा रहता था। ऐसे विकट समय में उन्हें और उनके प्रतिपक्ष को जीवन-मूल् का पाठ पढ़ाना बहुत जरूरी था। पर उन्माद में उन्मत्त सुल्तान और पराभव से निराश आमजन को साहित् ही नई-ज्योतिआशा दे सकता था। धर्म, शास्त्र, नीति‍, नैतिकता से भरी वैचारि कृतियों के अलावा अपने प्रेम-तत्त् के कारण विद्यापतिपदावली ऐसे समय में विशेष कारगर साबि हुई। उल्लेख हो चुका है किदरबार सम्पोषि रचनाकार होने के बावजूद विद्यापतिअपने नैति दायित् से भलीभाँतिपरिचि और सतत सावधान थे। यही कारण है किरति‍-विलास के संकेतों और नख-शि वर्णन की विषदताओं के बावजूद उनके शृंगारि पद कहीं कामुकता का भाव उत्पन् नहीं करते; बल्कि जीवन के प्रतिनई आशा का संचार करते हैं। विरह-वेदना के गीतों में भी अन् तक आते-आते विरहाकुल नायिकाओं को सुफल और मिलन की सुनिश्चितिबताते हैं। भक्तिगीतों में भी ईश के प्रति पूर्ण समर्पण के बावजूद कवि‍ ‍आस्था और सकारात्मकता के भरे दिखते हैं। 'माधव हम परिनाम निरासा' कहते हुए उन्हें सारे सम्बन्ध निरर्थक प्रतीत होते हैं, नीन् और माया-मोह में जीवन गँवा देने पर दुख करते हैं, पर आदि-अनादि के नाथ, जगत के तारनहार पर भरपूर आस्था रखते हैं। उनकी भक्तिका आधार भी सम्पूर्ण समर्पण का है, जिसमें वे कहते हैंहे ईश्वर! इस जगत का सारा कुछ तुम्ही से उत्पन् होकर समुद्र की लहर की तरह तुम्ही में समा जाता है--'तोहि जनमि पुनि तोहि समाओत, सागर लहरि समाना।'

विद्यापतिका जीवन क्रम
कवि कोकिल विद्यापति का पूरा नाम विद्यापति ठाकुर था। वे बि‍सइवार वंश के वि‍ष्‍णु ठाकुर की आठवीं पीढ़ी की सन्‍तान थे। उनकी माता गंगा देवी और पि‍ता गणपति ठाकुर थे। वैसे रामवृक्ष बेनीपुरी उनकी माँ का नाम हाँसि‍नी देवी बताते हैं। पर वि‍द्यापति‍ के पद की भनि‍ता (हासि‍न देइ पति‍ गरुड़नरायन देवसिंह नरपति‍) से स्‍पष्‍ट होता है कि हाँसि‍नी देवी महाराज देवसिंह की पत्‍नी का नाम था।‍ कहते हैं कि‍ गणपति ठाकुर ने कपिलेश्वर महादेव (बर्तमान मधुबनी जि‍ला) की घनघोर आराधना की थी, तब जाकर ऐसे पुत्र रत्न की प्राप्ति‍ हुई थी।
उनके जन्‍म-स्‍थान को लेकर देर तक वि‍वाद चलता रहा। लोग उन्‍हें बंग्‍ला के कवि‍ प्रमाणि‍त करने का कठोर श्रम करते रहे।
दरअसल शृंगार-रस से ओत-प्रोत उनकी राधा-कृष्‍ण वि‍षयक पदावली मि‍थि‍ला के कण्‍ठ-कण्‍ठ में व्‍याप गई थी। उन दि‍नों वि‍द्याध्‍ययन करने बंगाल के शि‍क्षार्थी मि‍थि‍ला आया करते थे। काव्‍य संचरण की प्रक्रि‍या जो भी रही हो, पर उन्‍हीं दि‍नों प्रबल कृष्‍णभक्‍त चैतन्‍य के कानों में वि‍द्यापति‍ के पदों की मोहक ध्‍वनि‍ पड़ी। वे मन्‍त्रमुग्‍ध हो उठे, और ढूँढ-ढूँढकर वि‍द्यापति‍ के पद कीर्त्तन की तरह गाने लगे। यह परम्‍परा चैतन्‍यदेव की शि‍ष्‍य-परम्‍परा में अच्‍छे से फलि‍त हुई। कई भक्‍तों ने तो उस प्रभाव में कीर्त्तनों की रचना भी कीं। फलस्‍वरूप बंगीय पदों में वि‍द्यापति‍ का काव्‍य-कौशल वर्चस्‍वमय हो गया। जब स्‍थान-नि‍र्धारण की बात चली तो आनन-फानन बंगदेशीय बि‍स्‍फी, राजा शि‍वसिंह, रानी लखि‍मा तलाश ली गईं; और वि‍द्यापति‍ को बंग्‍ला का कवि‍ प्रमाणि‍त कि‍या जाने लगा। अनुमान कि‍या जा सकता है कि‍ बंग्‍ला और मैथि‍ली की लि‍पि‍यों में कुछ हद तक साम्‍य होना भी इसमें सहायक हुआ होगा। पर महामहोपाध्‍याय हरप्रसाद शास्‍त्री, जस्‍टि‍स शारदाचरन मि‍त्र, नगेन्‍द्रनाथ गुप्‍त जैसे बंगीय वि‍द्वानों ने अपनी भागीदारी से यह वि‍वाद समाप्‍त कर दि‍या, स्‍पष्‍ट कहा कि‍ वि‍द्यापति‍ मि‍थि‍ला-नि‍वासी थे। इस वि‍षय पर सर्वप्रथम डॉ. ग्रि‍यर्सन ने चर्चा शुरू की, और व्‍यवस्‍थि‍त तर्क के साथ वि‍द्यापति‍ का बि‍हारवासी होना प्रमाणि‍त किया।
वि‍द्यापति‍ का जन्‍म-स्‍थान बि‍स्‍फी (जि‍ला मधुबनी, मण्‍डल दरभंगा, बि‍हार) है, जो इस समय वि‍धान-सभा का चुनाव-क्षेत्र भी है। राज्‍याभि‍षेक के लगभग तीन माह बाद राजा शि‍वसिंह ने श्रावण सुदि‍ सप्‍तमी, वृहस्‍पति‍वार, लं.सं. 293 (सन् 1403) को ताम्रपत्र लि‍खकर गजरथपुर का यह गाँव बि‍स्‍फी वि‍द्यापति‍ को दि‍या था। 
महापुरुषों के जीवन-मृत्‍यु का काल नि‍र्धारि‍त करते समय अक्‍सर हमारे यहाँ दुवि‍धा रहती है, वि‍द्यापति‍ उसके अपवाद नहीं हैं। वि‍द्वानों ने इस पर पर्याप्‍त तर्क-वि‍तर्क कि‍या है। वि‍श्‍लेषणपरक अनुमान के साथ महामहोपाध्याय उमेश मिश्र, ब्रजनन्दन सहाय 'ब्रजवल्लभ', रामवृक्ष बेनीपुरी, सुभद्र झा, रमानाथ झा, वि‍श्‍वेश्‍वर मि‍श्र उनका जन्‍म सन् 1350 में, हरप्रसाद शास्‍त्री सन् 1357 में, नगेन्द्रनाथ गुप्त और ग्रियर्सन सन् 1360 में; बी. के. चटर्जी सन् 1372 में, शि‍वप्रसाद सिंह सन् 1374 में; विमानविहारी मजुमदार, सतीशचन्‍द्र राय और दशरथ ओझा सन् 1380 में मानते हैं। शि‍वसिंह के पि‍ता देवसिंह की मृत्‍यु, शि‍वसिंह के राज्‍याभि‍षेक, और आयु में शि‍वसिंह से वि‍द्यापि‍ति‍ के दो वर्ष बड़े होने के तथ्‍यादि‍ के आधार पर वि‍श्‍लेषण करते हुए पर्याप्‍त तर्क के साथ पं. शि‍वनन्‍दन ठाकुर ने उनका जन्‍म लक्ष्‍मण संवत् 232 (सन् 1342) में अनुमान कि‍या है। वि‍द्यापति‍ के काल-नि‍र्धारण-वि‍वाद का अहम् कारण लक्ष्‍मण संवत् और इस्‍वी सन् के अन्‍तर की अनभि‍ज्ञता भी है। कामेश्‍वर सिंह संस्‍कृत वि‍श्‍ववि‍द्यालय के पूर्वकुलपति‍ डॉ. रामचन्‍द्र झा लक्ष्‍मण संवत् और इस्‍वी सन् में 1110 वर्ष का अन्‍तर बताते हैं। उनके अनुसार लक्ष्‍मण संवत् की शुरुआत 22 जनवरी 1110 को हुई।     
अवहट्ट में लि‍खी वि‍द्यापति‍ की एक कवि‍ता की कुछ प्रारम्‍भि‍क पंक्‍ति‍याँ इस प्रकार हैं
अनल-रन्‍ध्र-कर लक्‍खन-नरवइ सक समुद्द-कर-अगि‍नी-ससी
चइति‍ करि‍ छठि‍ जेठा मि‍लि‍ओ वार बेहप्‍पइ ए जाउ लसी
देवसिंह जउँ पुहवी छड्डइ अद्धासन सुरराअ सरु
××    ××    ××    ××
वि‍ज्‍जावइ कवि‍वर एहू गाबए मानव मन आनन्‍द भओ
सिंहासन सि‍वि‍सिंह बइट्ठो उछबइ बइरस वि‍सरि‍ गओ
चौदह पंक्‍तियों‍ की इस बेहतरीन कवि‍ता में महाकवि‍ वि‍द्यापति‍ ने सूचना दी है कि‍ लक्ष्‍मण संवत 293, शक संवत 1324 के चैत मास, कृष्‍ण पक्ष, षष्‍ठी ति‍थि‍, ज्‍येष्‍ठा नक्षत्र, वृहस्‍पति‍वार को राजा देवसिंह पृथ्‍वी छोड़कर सुरलोक सि‍धारे। अन्‍ति‍म दो पंक्‍ति‍यों में उल्‍लेख है कि‍ राजा शि‍‍वि‍सिंह सिंहासन पर बैठे, और उछाह का वातावरण छा गया।
वि‍द्यापति के इस पद से ‍संवत-वि‍वाद पर बहस की गुंजाइश खत्‍म हो गई । पद की पहली पंक्‍ति‍ में अर्थ नि‍कालने प्रक्रि‍या थोड़ी पेचीदी है, इसे गम्‍भीरता से देखना होगा। उस दौर की रचनाओं में संख्‍या का उल्‍लेख पहेली की तरह होता था। अनल(3)-रन्‍ध्र(9)-कर(2) लक्‍खन-नरवइ सक समुद्द(4)-कर(2)-अगि‍नी(3)-ससी(1) को पलटकर लि‍खें तो यह लक्ष्‍मण संवत 293 और शक संवत 1324 होता है। इसे इस्‍वी सन् में अनुवाद करें तो यह समय सन् 1402 होता है। इस गणना के आधार पर लक्ष्‍मण संवत और शक संवत में 1031 वर्ष तथा लक्ष्‍मण संवत और इस्‍वी सन् में 1109 वर्ष का अन्‍तर दि‍खता है। अर्थात डॉ. रामचन्‍द्र झा की उक्‍ति‍ सत्‍य के करीब है, ति‍थि‍ और मास सुनि‍श्‍चि‍ति‍ के अभाव में एक वर्ष की दुवि‍धा कहीं-कहीं दि‍ख सकती है। ‍पर उम्र में राजा शि‍‍वि‍सिंह से वि‍द्यापति के दो वर्ष बड़े होने; और राज्‍याभि‍षेक के समय राजा शि‍‍वि‍सिंह की आयु पचास वर्ष होने की कि‍म्‍वदन्‍ती के अनुसार लक्ष्‍मण संवत 293 (शक संवत 1324, सन् 1402) में वि‍द्यापति‍ की आयु बावन वर्ष की हुई। तब तो उनका जन्‍म लक्ष्‍मण संवत 241 (शक संवत 1272 सन् 1350) में तय माना जाना चाहि‍ए। पं. शि‍वनन्‍दन ठाकुर द्वारा की गई गणना के अनुसार लक्ष्‍मण संवत् 232 (सन् 1342) में वि‍द्यापति‍ का जन्‍म मानने में एक और दुवि‍धा दि‍खती है। वे तर्क देते हैं कि‍ वि‍द्यापति‍ की पहली कृति‍ 'कीर्ति‍लता' की रचना लं.सं. 252 में हुई, जब वे कम से कम तीस वर्ष के अवश्‍य रहे होंगे। शि‍वनन्‍दन ठाकुर की शोधपूर्ण कृति‍ को पर्याप्‍त सम्‍मान देने के बावजूद यहाँ उनकी बात मानने में असुवि‍धा है, क्‍योंकि‍ कीर्ति‍सिंह के पि‍ता और राजा शि‍‍वि‍सिंह के चचेरे चाचा राजा गणेश्‍वर की मृत्‍यु लक्ष्‍मण संवत् 252 में हुई, जि‍स कथा का वर्णन 'कीर्ति‍लता' में हुआ है। सूचनानुसार वि‍द्यापति‍ अपने पि‍ता गणपति‍ ठाकुर के साथ राजा गणेश्‍वर के दरबार में जाया करते थे। अब वि‍द्यापति‍ सदृश्‍य तेजस्‍वी और प्रखर प्रति‍भाशाली चि‍न्‍तक तीस वर्ष की पकी उम्र में भी पि‍ता के साथ दरबार में जाते हों, तीस वर्ष की उम्र में पहली रचना की हों, यह मानने में असुवि‍धा हो रही है। ल.सं. 241 (सन् 1350) में वि‍द्यापति‍ का जन्‍म मानना सर्वाधि‍क स्‍वीकार्य इसलि‍ए भी लगता है कि‍ इस वर्ष के अनुसार वे शि‍‍वि‍सिंह के राज्‍याभि‍षेक के समय बावन वर्ष के होते हैं। ल.सं. 241 (सन् 1350) के बाद की कि‍सी भी ति‍थि‍ पर वि‍चार करना नि‍रर्थक होगा, क्‍योंकि‍ राजा गणेश्‍वर की मृत्‍यु (ल.सं. 252) के समय वि‍द्यापति‍ की आयु ग्‍यारह से कम की तो नहीं हो सकती न! 
बाल्‍यकाल एवं जीवन-सन्‍धान
कहते हैं किविद्यापति बचपन से कुशाग्रबुद्धिऔर रचनाधर्मी स्वभाव के थे। सूचनानुसार (शिवनन्दन ठाकुर और रामवृक्ष बेनीपुरी) विद्यापतिने प्रारम्भि शिक्षा महामहोपाध्याय हरि मिश्र से हासि की। उनके भतीजे महामहोपाध्याय पक्षधर मिश्र विद्यापतिके सहपाठी थे। दस-बारह वर्ष की बाल्यावस्था से ही वे अपने पिता गणपति ठाकुर के साथ महाराज गणेश्वर के दरबार में जाने लगे थे।
लं.सं. 252 (सन् 1362) में राजा गणेश्वर ने यवन-सरदार असलान को युद्ध में परास् कर दिया था। तदनन्तर असलान ने कपटपूर्वक गणेश्वर को बुलाकर उनकी हत्या करवा दी। इसके बाद गणेश्वर के पुत्र और महाकविविद्यापतिके समवयस् कीर्तिसिंह राजा हुए। पिता की हत्या के प्रतिशोध हेतु वे निरन्तर प्रयत्नशील रहे। विद्यापतिउनके दरबार में रहने लगे। 'कीर्तिलता' की रचना का यही समय है। अपनी उस कृतिमें महाकविने चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के मिथिलाक्षेत्रीय जनजीवन की अराजक स्थितिका दारुण विवरण भी दिया है। 'बालचन् विज्जावइ भासा, दुहु नहिलग्गइ दुज्जन हासा' जैसी गर्वोक्तिसे विद्यापतिके आत्मविश्वास के साथ-साथ यह अर्थ भी लगाया जा सकता है किइससे पूर्व उनकी कोई महत्त्वपूर्ण रचना प्रकाश में नहीं आई थी। इन पंक्तियों का एक निहितार्थ यह भी लगाया जा सकता है किविद्वत्समाज में ईर्ष्यावश विद्यापतिके लि कुछ अवांछि टिप्पणियाँ भी हुई होंगी, जि कारण उन्हें सज्जन-दुर्जन की घोषणा करनी पड़ी होगी। 'कीर्तिपताका' का रचनाकाल भी यही माना जाता है, जबकिइस कृतिकी अन्ति पुष्पिका में शिवसिंह का यशोगान हुआ है।
एवं श्री शि‍वसिंह देव नृपते: संग्रामजातं यशो
गायन्तिप्रतिपत्तनं प्रतिदिशं प्रत्यंगणं सुभ्रुव:
एतत् कीर्ति(सुधाप्रसाधितरसा) वाणीच विद्यापते-
राचन्द्रार्कमियं विराजतु मुखाम्भेजेषु धन्या सदा।।
अर्थात्, जि प्रकार राजाशिवसिंह देव की वीरत्-गाथा से जन-जन, दि‍ग्‍दि‍गन्‍त सुवासि‍त है, उसी प्रकार अमृतरसपूरि‍त वि‍द्यापति‍ की यह वाणी, जब तक सूरज-चाँद रहे, जन-जन के मुख में स्‍थान पाए।
सुकुमार सेन दावा करते हैं कि‍ देवसिंह की मृत्‍यु और शि‍वसिंह के राज्‍याभि‍षेक वाला पद भी कीर्तिपताका से ही उद्धृत है। हालाँकि‍ सभी स्रोतों से उपलब् इसके कुल पाठ को देखकर इसे फुटकर रचना कहना ही श्रेयस्कर होगा।
कीर्तिसिंह और उनके अग्रज वीरसिंह निस्सन्तान परलोक सिधारे, फलस्वरूप अगले राजा कीर्तिसिंह के चचेरे दादा भवसिंह हुए, जिन्होंने अपने भाई भोगीश्वर से राज्‍य बँटवा लिया था। विद्यापतिकी महत्त्वपूर्ण कृति‍ 'विभागसार' और 'पुरुषपरीक्षा' के विरुद् से भवसिंह के राजा होने की सूचना मिलती है, अन्यथा उनके समय की कोई उल्लेखनीय घटना नहीं मिलती। भवसिंह के बाद उनके पुत्र देवसिंह राजा हुए। महाकविविद्यापतिने उनकी आज्ञा से 'भूपरिक्रमा' लिखी। उस दौर के प्रख्यात विद्वान श्रीदत्त की कृति‍ 'एकाग्निदत्तपद्धति‍' से ज्ञात होता है किराजदरबार में उन दिनों अनेक गणमान् विद्वान होते थे। अपने पुत्र शिवसिंह को युवराज घोषि करने के बाद देवसिंह बस नाम के ही राजा थे, सारा राजकाज युवराज शिवसिंह ही सँभालते थे। शिवसिंह ने अपने पिता देवसिंह के प्रतिनिधिके रूप में लम्बे समय तक कुशलतापूर्वक राजपाट सँभाला, कार्ति वदी लं.सं. 291 (सन् 1401) में विद्यापतिकी आज्ञा से रचि एशियाटि सोसाइटी में उपलब्ध पुस्तक 'काव्यप्रकाश-वि‍वेक' में उल्लेख मिल‍ता है किप्रतिनिधिके रूप में शासन करते हुए ही शिवसिंह को महाराजाधिराज कहा जाने लगा था। शिवसिंह की ही आज्ञा से विद्यापतिने 'पुरुष परीक्षा' की रचना की थी, परन्तु उस समय राजा देवसिंह ही थे। तथ् है किराजा शि‍वसिंह दुर्दान् पराक्रमी और वीर योद्धा होने के साथ-साथ बड़े कलावि और स्वाभिमानी भी थे। उन्हें यवनों की अधीनता बहुत पीड़ा देती थी। अपने पिता के जीवनकाल में ही उन्होंने दिल्ली कर भेजना बन् कर दिया। फलस्वरूप यवनों की फौज ने मिथिला पर आक्रमण कर दि‍या और शि‍वसिंह को गिरफ्तार कर दिल्ली ले जाया गया। शिवसिंह के पिता देवसिंह ने यवनों की अधीनता स्वीकार कर अपना राज् तो वापस पा लिया, पर शिवसिंह जैसे पराक्रमी पुत्र की गिरफ्तारी के कारण शोकग्रस् रहने लगे। लखिमा की दशा तो और भी दारुण थी। इस दारुण स्‍थि‍ति‍ से व्‍यथि‍त महाकवि‍ वि‍द्यापति‍ ने हर हाल में शि‍वसिंह को वापस ले आने का प्रण कर दिल्ली पहुँचे। कवीश्वर चन्दा झा के लेख में उल्लेख मिलता है किवे दीवान चन्द्रकर के पुत्र अमृतकर को साथ लेकर दिल्ली गए थे। यह उद्यम जान जोखि में डालने वाला था। अध्‍येता चाहें तो यहाँ वि‍द्यापति‍ के शौर्य, पराक्रम, वीरता और अतुलि‍त साहस का भी परि‍चय पा सकते हैं। बहरहाल, महाकवि‍ दि‍ल्‍ली पहुँचे, अपना परि‍चय दि‍या, सुल्‍तान ने उन्‍हें कुछ चमत्‍कार दि‍खाने का आदेश दिया। महाकविने कहा किमैं अदृश् प्रसंग पर काव्‍य-रचना कर सकता हूँ। सुल्‍तान ने उन्‍हें अपने समक्ष बि‍ठाकर उनके परोक्ष में हो रही एक घटना का संकेत देकर पूछावहाँ क्या हो रहा है? वहाँ एक सुन्दरी नहा रही थी। महाकवि‍ के कण् से सहज ही फूट पड़ा
कामिनी करए सनाने
हेरितहिहृदय हनए पँचवाने...
सुल्तान यह सुनकर चकि तो हुआ, पर उसे तसल्ली नहीं हुई। उसने फि से एक पीरक्षा लेनी शुरू कर दी। विद्यापतिको काठ की एक सन्दूक में बन् कर कुएँ में लटका दिया गया, बाहर एक स्त्री को आग फूँकने में लगा दिया गया, और विद्यापतिसे उसका वर्णन करने को कहा गया। वि‍द्यापति‍ वहीं से गाने लगे
सुन्दरि‍! निहुरिफुकू आगि
तोहर कमल भमर मोर देखल मदन उठल जागि
विद्यापति के इस अतुलि कौशल से सुल्तान चकि हो उठे। प्रसन् होकर उन्होंने विद्यापति को इनाम माँगने को कहा। उन्होंने फौरन शिवसिंह की रिहाई माँग ली। शि‍वसिंह को छोड़ दि‍या गया। दोनों मि‍त्र प्रसन्‍नचि‍त्त मि‍थि‍ला वापस आए। उस अवसर पर वि‍द्यापति‍ ने पद रचा
भन विद्यापतिचाहथिजे बिधि‍, करथिसे-से लीला
राजा सिवसिंह बन्धन मोंचल तखन सुकविजीला।
लं.सं. 293 (सन् 1403) में देवसिंह के देहावसान के बाद शि‍वसिंह राजा हुए। उल्‍लेखनीय है कि‍ शि‍वसिंह पर पि‍तृशोक और यवन-सेना के आक्रमण की वि‍पत्ति‍ एक साथ आई। एक ओर उनके सि पिता के श्राद्धकर्म आदिकी व्यवस्था थी, तो दूसरी ओर सुल्तान के साथ बंगाल के नवाब के आक्रमण का सामना। पर शिवसिंह ने अपने अपूर्व पराक्रम और नीतिकुशलता का परिचय देते हुए, यवन-सेना को उल्टे पाँव भागने को मजबूर कर दिया। 'अनल रन्ध्र कर लक्खन नरवइ...' पद में विद्यापतिने उस हृदयविदारक परिस्थितिका मार्मि वर्णन किया है। शिवसिंह के राज्यकाल में अतिसम्मानि विद्यापति‍ के महत्त् को बिस्फी गाँव के स्वमित् के ताम्रपत्र और 'अभिनवजयदेव' की उपाधि से आँका जा सकता है।
ल.सं. 252 (सन् 1362) में हुई राजा गणेश्वर की हत्या के बाद से मिथिला क्षेत्र की शासन-व्यवस्था में उत्पन् अराजक स्थितिलगभग तीन दशकों तक चली; जो बाद के दि‍नों में थोड़ी व्‍यवस्‍थि‍त हुई। कालान्‍तर के सि‍लसि‍लेवार आक्रमणों से वहाँ की त्रासदी फि‍र से सि‍र उठाने लगी। सन् 1394 में जौनपुर स्वतन्‍त्र राजक्षेत्र की राजधानी घोषित हो गई। इस स्‍वाधीनता के कारण मि‍थि‍ला का सम्‍बन्‍ध दि‍ल्‍ली से छूट गया था। अब ओइनवारवंशीय राजा के अलावा मि‍थि‍ला का अन्‍य काई रक्षक नहीं था। फलस्‍वरूप ओइनवारवंशीय राजा ने भी खुद को स्‍वाधीन घोषि‍त कर दि‍या। कि‍न्‍तु पूरब से गौड़ तथा पश्‍चि‍म से जौनपुर के नवाब का आक्रमण बार-बार मि‍थि‍ला को झेलना पड़ा। शि‍वसिंह के सिंहासन सँभालते ही यवन-सेना का जो आक्रमण मि‍थि‍ला पर हुआ था, उसमें पछाड़ खाकर यवन-सेना शि‍वसिंह के पराक्रम से परि‍चि‍त हो चुके थे। इसलि‍ए करीब तीन वर्ष बाद तुगलक-वंशीय दिल्ली सल्तनत से खुद को आजाद घोषि‍त करनेवाले जौनपुर के शर्की-वंशीय राजा इब्राहि‍मशाह (सन् 1402-1440) ने बड़ी तैयारी के साथ फि‍र से मि‍थि‍ला पर चढ़ाई कर दी। इधर परम दूरदर्शी और भवि‍ष्‍यद्रष्‍टा राजा शिवसिंह ने भी अपनी सूझबूझ से काम लि‍या। वे अधीनता स्‍वीकारने को तैयार नहीं थे। इस युद्ध के परि‍णाम से वे परि‍चि‍त थे। इसलि‍ए युद्ध में जाने पूर्व ही उन्‍होंने अपने परि‍वार को महाकवि‍ वि‍द्यापति‍ के संरक्षण में अपने अभि‍न्‍न मि‍त्र राजा पुरादि‍त्‍य के पास राजबनौली (नेपाल की तराई) भेज दि‍या, और स्‍वयं सेना के साथ युद्ध में उतर गए। प्राप्‍त जानकारी के अनुसार शिवसिंह प्रचण्‍ड वेग से शत्रु-सैन्‍य को चीरते हुए बादशाह के नि‍कट पहुँचे और अपनी तलवार से उनका शि‍‍रस्‍त्राण उड़ाते हुए उसी वेग से सैन्‍य-संगठन को चीरते हुए बाहर नि‍कल गए। यवन-सेना ने उनका पीछा कि‍या, पर बादशाह ने उन्‍हें यह कहकर रोक दि‍या कि--'शिवसिंह महावीर पुरुष हैं, उनको मत पकड़ो, जि‍स समय उन्‍होंने शि‍र(स्‍त्राण) उड़ाया, यदि‍ वे चाहते तो मेरा सि‍र भी उड़ा देते, उन्‍होंने वीरोचि‍त काम कि‍या, कदाचि‍त वे अब नहीं लौटेंगे। उनके वंश में यदि‍ कोई हो तो उसे राज्‍य देकर लौट जाओ (बाबू ब्रजनन्‍दन सहाय/'मैथि‍ल कोकि‍ल'/पृ. 19)।' शिवसिंह वहाँ से नेपाल की ओर जंगल में चले गए, फि‍र कभी राज्‍य में वापस नहीं आए। कुछ लोग कहते हैं कि‍ वे मारे गए। त्रैलोक्‍य भट्टाचार्य के अनुसार इस घटना के बाद डेढ़ वर्ष तक पद्मावती और नौ वर्षों तक लखि‍मा ने राज्‍य कि‍या, पर वि‍द्यापति‍ की कि‍सी रचना से इस बात का प्रमाण नहीं मि‍लता। सम्‍भवत: यह दन्‍तकथा मात्र है, क्‍योंकि‍ यह भी सूचना है कि‍ शि‍वसिंह के ति‍रोधान (वीरगति‍ या पलायन) के बारह वर्ष बाद शास्‍त्र नि‍यमानुकूल लखि‍मा देवी ने कुश का बना शि‍वसिंह चि‍ता पर रख कर दाह-संस्‍कार कि‍या और स्‍वयं भी उसमें सती हो गईं। इसके बाद शि‍वसिंह के अनुज पद्मसिंह ने गद्दी सँभाली।
शि‍वसिंह के ति‍रोधान के बाद बहुत दि‍नों तक लखि‍मा देवी के साथ वि‍द्यापति‍ राजबनौली में ही रहे। पुरादि‍त्‍य की आज्ञा से वहीं उन्‍होंने लं.सं. 299 (सन् 1409) में 'लि‍खनावली' लि‍खी। लं.सं. 309 (सन् 1419) में यहीं पर उन्‍होंने 'श्रीमद्भागवत' की अपनी हस्‍तलि‍पि‍ में पाण्‍डुलि‍पि‍ पूरी की। शि‍वसिंह के बाद मि‍थि‍ला का अनुवर्ती शासन पद्मसिंह (नि‍:सन्‍तान दि‍वंगत); रानी वि‍कासदेवी (पद्मसिंह की पत्‍नी); दर्पनारायण नरसिंह (शि‍वसिंह के चचेरे भाई); हृदयनारायण धीरसिंह (नरसिंह के पुत्र) के हाथ रहा। इससे आगे भी ओइनवारवंशीय शासन तीन पीढ़हयों तक मि‍थि‍ला में रहा; पर, वि‍द्यापति‍ का काल धीर सिंह तक ही चला। वि‍द्यापति‍ की रचनाओं के वि‍रुद से इन राजाओ/रानि‍यों के शासकीय प्रभाव की जानकारी मि‍लती है।
पारिवारिक जीवन
महाकवि विद्यापति के पारिवारिक जीवन का कोई व्‍यवस्‍थि‍त प्रमाण नहीं मि‍लता, किन्तु उनके पद 'भनइ वि‍द्यापति‍ सुनु मन्‍दाकि‍नि‍ जगते एहन वि‍धान' तथा 'दुल्‍लहि‍ तोहर कतए छथि‍ माए' से ज्ञात होता है कि‍ उनकी पत्‍नी का नाम मन्‍दाकि‍नि‍ और पुत्री का नाम दुल्‍लहि‍ था। उनके पुत्र का नाम हरपति‍ था। रागतरंगि‍णी में लोचनकवि‍ ने चन्‍द्रकला की कवि‍ता उद्धृत करते हुए अन्‍त में लि‍खा है'इति‍ वि‍द्यापति‍ पुत्रवध्‍वा:।' स्‍पष्‍ट है कि‍ उनकी पुत्रवधू का नाम चन्‍द्रकला था। 
अवसान
समकालीन राजवंशों, रचनाओं एवं कि‍म्‍बदन्‍ति‍यों के सहारे वि‍द्यापति के मृत्‍यु-वर्ष पर भी वि‍द्वानों ने पर्याप्‍त तर्क कि‍या है। पर्याप्‍त शोध-सन्‍दर्भ और तर्कसम्‍मत व्‍याख्‍या से उनकी आयु सन्‍तानबे वर्ष की मानकर पं. शि‍वनन्‍दन ठाकुर ल.सं. 329 (सन् 1342-1439) में; एकासी वर्ष की आयु मानकर दशरथ ओझा सन् 1460 में; समकालीन राजाओं और राजवंशों की तजबीज से नब्‍बे वर्ष की आयु मानकर रामवृक्ष बेनीपुरी (नगेन्‍द्रनाथ गुप्‍त भी) ल.सं. 331 (सन् 1440) में; कीर्ति‍लता की भूमि‍का लि‍खते हुए महामहोपाध्‍याय उमेश मि‍श्र ल.सं. 329 (सन् 1448) (यहाँ इस्‍वी सन् की गणना दोषपूर्ण है) में वि‍द्यापति‍ का देहावसान मानते हैं।
वि‍द्यापति‍ की स्‍वप्‍न कवि‍ता 'सपन देखल हम शि‍वसिंह भूप, बति‍स बरस पर सामररूप' और उद्घोषणा काव्‍य 'काति‍क धवल त्रयोदसि‍ जान, वि‍द्यापति‍क आयु अवसान' के वि‍श्‍लेषण से स्‍पष्‍ट होता है कि‍ वि‍द्यापति‍ ने उक्‍त स्‍वप्‍न माघ अथवा फागुन ल.सं. 328 में देखा होगा। क्‍योंकि‍ ल.सं. 293 में राज्‍यारूढ़ होने के बाद तीन वर्ष नौ महीने तक, अर्थात् पूस ल.सं. 296 (सन् 1406) तक शि‍वसिंह राजा थे। स्‍पष्‍टत: कार्ति‍क धवल त्रयोदशी फि‍र संवत् 329 (सन् 1439) में आता है।
अर्थात्, सम्‍पूर्ण वि‍श्‍लेषण से तय होता है कि‍ वि‍द्यापति‍ का समय ल.सं. 241-329 (सन् 1350-1439) है, और वे लगभग नबासी वर्ष की आयु पाए। शेष सभी बहस कुतर्क लगते हैं।
सुना जाता है कि‍ वि‍द्यापति‍ की चि‍ता पर अकस्‍मात् शि‍वलिंग प्रकट हो गया। वहाँ आज भी शि‍वमन्‍दि‍र है। फागुन महीने में वहाँ मेला लगता है। पहले वहाँ छोटा-सा मन्‍दि‍र हुआ करता था, बहुत बाद के दि‍नों में बालेश्‍वर चौधरी नामक कि‍सी जमीन्‍दार ने वहाँ बड़ा-सा मन्‍दि‍र बनवाकर, महाकवि‍ वि‍द्यापति‍ का नामोनि‍शान मि‍टाकर उस मन्‍दि‍र का नाम बालेश्‍वरनाथ रख दि‍या। सुना यह भी जाता है कि‍ बी.एन.डब्‍ल्‍यू. रेल पटरी का प्रारम्‍भि‍क नक्‍शा वि‍द्यापति‍ के चि‍ता पर से गुजर रहा था। रेलपथ र्नि‍माण हेतु जब वहाँ के पेड़ों की डालें काटी जानी लगीं, तो टहनि‍यों से खून नि‍कलने लगे, और रेल-नि‍र्माण के इंजि‍नि‍यर घनघोर रूप से बीमार पड़ गए। फि‍र वहाँ रेलपथ को टेढ़ा कि‍या गया।
वि‍द्यापति का समय
राजा भोगीश्‍वर के प्रबल प्रताप का वर्णन करते हुए कीर्ति‍लता में महाकवि‍ वि‍द्यापति‍ ने लि‍खा है'पि‍असख भणि‍ पि‍अरोजसाह सुरतान समानल'अर्थात फि‍रोजशाह सुलतान ने उन्‍हें प्रि‍यसखा सम्‍बोधन से सम्‍मानि‍त कि‍या। ये फ़िरोज़शाह तुग़लक़ (शासनकाल सन् 1351-1388) हैं। सुल्तान बनते ही उन्‍होंने अपने पि‍ता मुहम्मद तुग़लक़ के समय किसानों को दिए गए सारे ऋण माफ कर, उपज के आधार पर लगान निर्धारि‍त किया। राजा भोगीश्‍वर का शासनकाल उनके समय में थोड़े दि‍नों तक था। उल्‍लेखनीय है कि‍ भोगीश्‍वर का वह सिंहासन स्‍वाधीन राजा का नहीं था, वे सामन्‍त राजा थे। वि‍द्यापति‍ के एक पद में भोगीश्‍वर का वि‍रुद् है'राअ भोगीसर सब गुन आगर, पदमा देइ रमान रे।' सम्‍भवत: मैथि‍ली में रचि‍त यह वि‍द्यापति‍ की प्रारम्‍भि‍क पद-रचना हो। एक पद में 'ग्‍यासदीन सुरतान' का उल्‍लेख है। सम्‍भवत: ये बंगाल के शासक गयासुद्दीन आजमशाह (शासनकाल सन् 1390-1411) हैं, जि‍नका मकबरा आज के बंग्‍लादेश में है। क्‍योंकि‍ दि‍ल्‍ली सल्‍तनत के गुलामवंशीय सुल्‍तान गयासुद्दीन बलबन का शासनकाल सन् 1266-1286 है, और तुगलकवंशीय गयासुद्दीन का शासनकाल सन् 1320-1325 है; जो वि‍द्यापति‍ की रचनाओं के लि‍ए अप्रासंगि‍क है। गयासुद्दीन आजमशाह कवियों, विद्वानों के बड़े भारी संरक्षक थे। स्‍वयं भी कुछ-कुछ रचा करते थे। फारसी कवि हाफिज के साथ उनका नि‍रन्‍तर सम्‍पर्क रहता था। सुवि‍ख्‍यात बंगाली मुसलमान कवि, शाह मुहम्मद सागिर की प्रसिद्ध कृति यूसुफ-जुलेखा; हिन्दू कवि कृत्तिवास ओझा द्वारा रचि‍त कृत्तिवास रामायण (बंग्‍ला रामायण) उनके शासनकाल की उल्‍लेखनीय उपलब्‍धि‍ है। सुकुमार सेन के सूचनानुसार इसी गौड़ सुलतान के दरबार में उस दौर के दो महाकवि‍यों, वि‍द्यापति‍ और हाफेज की अन्‍तरंग भेंट सम्‍भव हुई थी। एक पद में नसरतशाह का भी उल्‍लेख हैराए नसरत साह नेजलि‍... ये तुगलकवंशीय आठवें सुलतान और फि‍रोजशाह के पौत्र हैं, जि‍न्‍होंने सन् 1395 में गद्दी सँभाली, सन् 1398 में उनकी हत्‍या हो गई।
शि‍वसिंह के ति‍रोधान काल के पश्‍चात सुकुमार सेन विद्यापति को 'मौलि‍क कवि‍-शि‍ल्‍पी के रूप में नहीं', 'स्‍मार्त्त पण्‍डि‍त-मूर्ति‍ के रूप में' देखते हैं; क्‍योंकि‍ अनुवर्ती राजा-रानी पद्मसिंह-वि‍श्‍वासदेवी का उल्‍लेख पदावली में नहीं है। वे इसकी दो सम्‍भावनाएँ बताते हैंया तो शि‍वसिंह के ति‍रोधान के बाद वि‍द्यापति‍ ने पद-रचना छोड़ दी, या फि‍र उम्र के अन्‍तराल के कारण पद्मसिंह से वैसी अन्‍तरंगता नहीं रही। वैसे लोकमान्‍यता भी है कि शि‍वसिंह के ति‍रोधान के बाद वि‍द्यापति‍ ने कोई शृंगारि‍क पद नहीं लि‍खा, बाद के सारे पद भक्‍ति‍परक रचना ही हैं। नरसिंह-धीरमति‍ देवी, धीरसिंह का उल्‍लेख भी कि‍सी पद में नहीं मि‍लता। पर इन राजाओं के शासनकाल में शास्‍त्र एवं नीति‍ से सम्‍बद्ध कृति‍याँ रची गईं।
सन् 1362 में गणेश्‍वर की कपटपूर्ण हत्‍या के बाद असलान की योजना कीर्ति‍सिंह और वीरसिंह की हत्‍या की भी थी, जो फलीभूत नहीं हुई। उल्‍टे दोनो भाई असलान से पि‍तृवध का प्रति‍शोध लेने हेतु प्रति‍बद्ध रहे। उल्‍लेख है कि‍ असलान से मनवांछि‍त प्रति‍शोध लेकर उसे नतशि‍र करने में कीर्ति‍सिंह को इब्राहि‍मशाह शर्की ने अपने सैन्‍य से मदद की। अब तथ्य है कि‍ इब्राहि‍मशाह ने गद्दी ही सँभाली सन् 1402 में; इसका अर्थ यह हुआ कि‍ सन् 1362-1402 तक के चालीस वर्षों तक मैथि‍ल जनजीवन में अराजकता छाई रही। यहाँ इब्राहि‍मशाह का पूरा प्रकरण अवि‍श्‍वसनीय लगता है। क्‍योंकि‍ कीर्ति‍सिंह के बाद भवसिंह, फि‍र देवसिंह, और फि‍र सन् 1403 (लं.सं. 293) में तो शि‍वसिंह ने भी शासन सँभाल लि‍या था। फि‍र सन् 1402 में कीर्ति‍सिंह का राज्‍याभि‍षेक कैसे सम्‍भव हुआ होगा? महाकवि‍ वि‍द्यापति‍ की कीर्ति‍लता में भी चार जगह इब्राहि‍मशाह का जि‍क्र है। पर चालीस वर्षों तक चली इस दुर्वव्‍यवस्‍था के ऐसे अन्‍त पर वि‍श्‍वास करना असम्‍भव है। तथ्‍य है कि‍ सन् 1406 (पूस मास ल.सं. 296) में इब्राहि‍मशाह ने मि‍थि‍ला पर आक्रमण कि‍या जि‍समें राजा शि‍वसिंह ने इब्राहि‍म को अपना जौहर दि‍खा कर सन्‍न कर दि‍या था। बड़ा वि‍वादास्‍पद मामला है, और सारे वि‍वाद का स्रोत लक्ष्‍मण संवत और ईस्‍वी सन् की समझ में मतान्‍तर और वि‍द्यापति‍ द्वारा कीर्ति‍लता में इब्राहि‍मशाह का उल्‍लेख है।
सि‍रि‍ इमराहि‍मसाह गुणे नहि‍ चि‍न्‍ता नहि‍ शोक (श्री इब्राहि‍मशाह के प्रताप से चि‍न्‍ता-शोक सम्‍भव नहीं),
चलि‍अ तकतान सुरुतान इबराहि‍मओ (इब्राहि‍मशाह सुल्‍तान की ताकतवर सेना चली),
इबराहि‍मसाह पआन ओ पुहबि‍ नरेसर कमन सह (पृथ्‍वी का कौन राजा इब्राहि‍मशाह का प्रयाण सह सकेगा),
इबराहि‍मसाह पआनओ जँ जँ सेना संचरइ (इब्राहि‍मशाह के प्रयाण में सेना जहाँ-जहाँ जाती थी)
कीर्ति‍लता में उल्‍लि‍खि‍त ये इब्राहि‍म यदि‍ शर्कीवंशीय इब्रहि‍म हैं, तो फि‍र कीर्ति‍लता की रचना सन् 1362 के आसपास कैसे मानी जाएगी? क्‍योंकि‍ इस समय तक तो इब्राहि‍मशाह का सम्‍भवत: जन्‍म भी नहीं हुआ होगा।
यहाँ 'इब्राहि‍म' के शब्‍दार्थ पर केन्‍द्रि‍त होने से मामला सुलझता दि‍खता है। इस शब्‍द का अर्थ होता हैप्रतापी, मसीहा, रक्षक...। शर्कीवंश की स्‍थापना से पूर्व जौनपुर में शासकीय संचालन हेतु फि‍रोजशाह ने नि‍श्‍चय ही कि‍सी प्रतापी कार्यकर्ता नि‍युक्‍त कर रखा होगा, जो प्रतापी और उदार रहा होगा; और जो गणेश्‍वर के प्रति‍ फिरोजशाह की सदाशयता से परि‍चि‍त रहा होगा; इसलि‍ए वह वि‍पत्ति‍काल में फिरोजशाह का संकेत पाकर पूरी तत्‍परता से तैयार हुआ होगा। शर्कीवंशीय इब्राहि‍मशाह की मदद से कीर्ति‍सिंह को वि‍जय दि‍लाने को तथ्‍य मानने पर पूरे ओइनवार वंश की शृंखला बि‍खर जाएगी।  
यहाँ एक नजर इति‍हास की कड़ि‍यों पर डालें--तुगलकवंशीय पहले सुल्‍तान गयासुद्दीन के उत्तराधि‍कारी मुहम्मद बिन तुगलक की घातक बीमारी से सन् 1351 में मृत्‍यु हो जाने के बाद उनके भतीजे सुल्तान फिरोजशाह ने बयालीस वर्ष की आयु में शासन सँभाला और सन् 1388 तक राज कि‍या। पर व्यापक असन्‍तोष के कारण उनका शासन-क्षेत्र छोटा होता गया। मि‍थि‍ला नरेश गणेश्‍वर ने उन्‍हें बंगाल पर चढ़ाई करने के दौरान बड़ी मदद की थी। तथ्‍य है कि‍ राज-क्षेत्र बढ़ाने के क्रम में जि‍न मलि‍कों, अमीरों, सामन्‍तों ने गयासुद्दीन की मदद की थी, उन्‍हें उन्‍होंने पुरस्‍कृत कि‍या था; और खुसरो खान के समर्थकों को सज़ा दी थी। सम्‍भवत: उसी परम्‍परा में फिरोजशाह, गणेश्‍वर पर मेहरबान थे।
असल में दिल्ली और बंगाल के अधरस्ते में गोमती-तट पर अवस्‍थि‍त इस महत्त्‍वपूर्ण पड़ाव पर फिरोजशाह रुका करते थे। सन् 1359 में बंगाल पर कि‍ए अपने दूसरे आक्रमण के दौरान, फिरोजशाह यहाँ छह महीने तक रुके और अपने संरक्षक मुहम्मद बिन तुगलक के मूल नाम जूना खान की याद में जौनपुर राज्‍य की स्थापना की। मलि‍क सरवर वहाँ के पहले स्‍वाधीन शासक हुए। वे फिरोजशाह के पुत्र नसीरुद्दीन मुहम्‍मदशाह तुगलक (शासन काल सन् 1390-1394) के वजीर थे, जि‍न्‍हें सन् 1389 में 'ख़्वाजा-इ-जहान' का खि‍ताब दि‍या गया। सन् 1394 में उन्‍हें मलि‍क-उस-शर्क (पूर्वी क्षेत्र का स्‍वामी) की पदवी देकर जौनपुर का शासन सौंपा ग‍या। दिल्ली पर तैमूर के आक्रमण से व्याप्त अनस्थिरता का लाभ लेकर उन्‍होंने तत्‍काल खुद को स्वतन्त्र राजक्षेत्र का स्‍वामी घोषित कर 'शर्की वंश' की नींव डाली। नेपाल की सीमा से बुन्‍देलखण्ड और दरभंगा से अलीगढ़ तक फैले गंगा-घाटी के इस स्वतन्‍त्र राज्‍य की राजधानी जौनपुर बनाई गई। उनके पाँच वर्ष तक शासन करने के बाद उनके दत्तक पुत्र मलि‍क क़रनफल ने शासन किया; फि‍र सन् 1402 में इब्राहिमशाह ने सत्ता सँभाली।
इस प्रसंग में मैथि‍ली के प्रकाण्‍ड आलोचक रमानाथ झा की राय भी गौर तलब है। उन्‍हें कीर्ति‍लता को उस वि‍द्यापति‍ की रचना मानने में दुवि‍धा हो रही है, जो बि‍सइवार वंशोद्भव थे, ओइनवारवंशीय राजा देवसिंह से लेकर धीरसिंह तक के राजदरवार के रत्‍न थे, और जि‍न्‍होंने कीर्ति‍पताका, गोरक्ष वि‍जय, पुरुष-परीक्षा, भू-परि‍क्रमा आदि‍ ग्रन्‍थों की रचना की। जि‍सके दुष्‍कृत्‍य से वि‍द्यापति‍ के आत्‍मीय सखा शि‍वसिंह पराभव में पड़े, उस इब्राहि‍मशाह का वि‍रुद् वे कि‍स मनोभाव से लि‍खेंगे? रमानाथ झा का कथन है कि‍ काव्‍यालोचन और रचना-कौशल की दृष्‍टि‍ से भी कीर्ति‍लता बहुत कमजोर रचना है, जो कि‍सी नौसि‍खि‍ए द्वारा लि‍खवाई गई प्रतीत होती है, और चूँकि‍ उस समय तक वि‍द्यापति‍ ख्‍याति‍लब्‍ध हो चुके थे, इसलि‍ए भनि‍ताओं में उनका नाम जोड़ दि‍या गया है। ये वे वि‍द्यापति‍ नहीं हैं, जि‍नकी हम चर्चा कर रहे हैं।
रमानाथ झा एक और तर्क देते हैं। युद्ध में शि‍वसिंह के पराभव के बाद मि‍थि‍ला की जनता नवाब इब्राहि‍मशाह के वि‍जयी उन्‍माद से भयाक्रान्‍त थी। सुल्‍तान की सम्‍भावि‍त तबाही से कि‍सी प्रकार बचना चाहती थी। पूरा जनपद उस कथा से सुपरि‍चि‍त था जि‍समें‍ महाकवि‍ वि‍द्यापति‍ अपने काव्‍य-कौशल से सुल्‍तान को मुग्‍ध कर बन्‍दी बनाए हुए शि‍वसिंह को सहजतापूर्वक छुड़ा लाए थे। इस हवाले से रमानाथ झा कहते हैं कि‍ हो न हो, उस दौर के नागरि‍क प्रति‍नि‍धि‍यों अथवा वि‍द्यापति‍ के सहकर्मि‍यों ने उन्‍हें इस बात के लि‍ए मनाया हो कि‍ काव्‍यरसि‍क इब्राहि‍मशाह को आप अपने रचना-कौशल से कि‍सी वि‍धि‍ प्रसन्‍न कर दें, ताकि‍ मि‍थि‍ला क्षेत्र के सामान्‍य नागरि‍कों के जीवन की त्रासदी रुक जाए। और, नीति‍कुशल वि‍द्यापति‍ जनहि‍त, जाति‍हि‍त की भावना के वशीभूत अपनी वेदना दबाकर उनकी बात पर राजी हो गए हों; और बड़े बेमन से ऐसी ढीली-ढाली रचना कर दी हो। ... नि‍श्‍चय ही इस रचना में वि‍द्यापति‍ को मर्मान्‍तक पीड़ा हुई होगी।
कीर्ति‍लता में उल्‍लि‍खि‍त 'इब्राहि‍म' का  कोशीय अभि‍प्राय नहीं लेने की स्‍थि‍ति‍ में रमानाथ झा के कि‍सी एक तर्क को मानना समुचि‍त होगा। वैसे एक जगह रमानाथ झा यह भी कहते हैं कि‍ कीर्ति‍लता में उल्‍लि‍खि‍त 'इब्राहि‍मशाह' को जौनपुर का नवाब नहीं मानना कठि‍न है। पर मेरी समझ से यहाँ 'इब्राहि‍म' का कोशीय अभि‍प्राय ही संगत होगा, क्‍योंकि‍ सन् 1362 से 1402 तक के चालीस वर्षों तक कीर्ति‍सिंह की पदयात्रा तो अवि‍श्‍वसनीय है ही, ओइनवारवंशीय शासन-शृंखला भी उलझ जाती है।
उल्‍लेख हो चुका है कि‍ सन् 1359 में फिरोजशाह ने अपने संरक्षक मुहम्मद बिन तुगलक के मूल नाम जूना खान की याद में जौनपुर राज्‍य की स्थापना की, जि‍सके पहले स्‍वाधीन शासक मलि‍क सरवर (सन् 1394) हुए। तो क्‍या मि‍थि‍ला से जौनपुर आने में वीरसिंह और कीर्ति‍सिंह को बत्तीस वर्ष लग गए? जब सन् 1362 (लं.सं. 252) के चैत महीने के कृष्‍णपक्ष की पंचमी ति‍थि‍ को मलि‍क असलान राजा गणेश्‍वर से पराजि‍त हुए, तो उनकी हत्‍या भी उसी के आस-पास की होगी! वीरसिंह, कीर्ति‍सिंह यदि‍ सुल्‍तान से मि‍लने चले होंगे तो वह भी उसी वर्ष की बात रही होगी, जब उस शहर को स्‍थापि‍त हुए ही लगभग तीन वर्ष गुजरे होंगे! वि‍द्यापति‍ ने उस शहर के महलों की जैसी भव्‍यता का वर्णन कि‍या हैपेष्‍खि‍अउ पट्टन चारु मेषल जञोन नीर पषारि‍आ/पासान कुट्टि‍म भीति‍ भीतर चूह उप्‍पर ढारि‍या (अर्थात् वीरसिंह और कीर्ति‍सिंह को सुन्‍दर मेखला जैसे यमुन-जल से घि‍रा नगर दि‍खा, जहाँ पत्‍थर सजाकर बनाई गई छत, दीवारों के भीतर-भीतर ही जल नि‍कास की व्‍यवस्‍था थी।) आगे वर्णन हैआबन्‍त तुरुक्‍का षाण मूलूक्‍का, पअ भरे पथ्‍थर चूरि‍आ/दुरुहुन्‍ते आआ बड बड राआ, दवलि‍ दोआरहि‍ चारीआ (आते हुए तुर्क, खान, मलि‍कों के पदभार से पत्‍थर चूर-चूर हो जाता था। बड़े-बड़े राजा दूर-दूर से आ-आकर द्वार पर टहलते रहते थे।)...सुरतान सलामे, लहि‍अ इलामे, आपें रहि‍ रहि‍ आबन्‍ता/साअर गि‍रि‍ अन्‍तर दीप दि‍गन्‍तर, जासु नि‍मि‍त्ते जाइआ/.../आबन्‍ता जन्‍ता कज्‍ज करन्‍ता, मानव कवणे लेष्‍खीआ/तेलंगा बंगा चोल कलिंगा, राआ पुत्ते मण्‍डीआ (सुल्‍तान को सलाम कर इनाम पाने की लालसा से रह-रह कर आप से आप कि‍तने ही लोग आते रहते थे। सागर पर्वत पार से, द्वीप द्वीपान्‍तर से कैसे-कैसे लोग आते रहते थे।...जाते-आते कामकाजी लोगों का तो लेखा ही क्‍या? तैलंग, बंग, चोल, कलिंग के राजपुत्रों से वह स्‍थान महि‍मामण्‍डि‍त होता रहता था)।...गौरतलब है कि‍ युद्ध-सन्‍धान के मार्ग की सुवि‍धा हेतु फि‍रोजशाह के सत्‍प्रयास से जो जौनपुर नगर बसाया ही गया सन् 1359 में; चार वर्ष के भीतर वह नगर इतना महि‍मा-मण्‍डि‍त कैसे हो गया? उस नगर के शासक की इतनी महि‍मा कैसे हो गई कि‍ इतने बड़े-बड़े राजा उनकी खि‍दमत में गुहार लगाने लगे? उस नगर के भवन इतने मोहक कैसे हो गए? गोमती तट पर बसे उस नगर में यमुना नदी की मेखला कहाँ से आ गई? ...असंख्‍य सवाल खड़े होते हैं। जाहि‍र है कि‍ कीर्ति‍लता के तीसरे पल्‍लव में वि‍द्यापति‍ ने जि‍स नगर का भव्‍य वर्णन कि‍या है, वह नगर आज का जौनपुर नहीं है; क्‍योंकि‍ वि‍धि‍वत वहाँ का शासन शुरू ही हुआ सन् 1394 में (शर्की वंश की स्‍थापना के बाद); उससे पूर्व सन् 1388 तक जौनपुर फि‍रोजशाह के अधीन ही था। अर्थात् कीर्ति‍लता में वर्णि‍त नगर 'जोनापुर' (तँ खने पेक्‍खि‍अ नअर सो जोनापु तसु नामअर्थात्, उसी क्षण उन्‍हें एक नगर दि‍खा, अब उसका नाम जो भी हो) का अर्थ दोनों अनजान पथि‍क की दृष्‍टि‍ से लगाया जाना चाहि‍ए, जि‍सका नाम उस समय उन्‍हें मालूम नहीं था; और आगे उस नगर की भव्‍यता का वि‍वरण है। महामहोपाध्‍याय उमेश मि‍श्र की घोषणा कि‍ सन् 1372 में गणेश्‍वर की हत्‍या हुई, सन् 1402-05 के आसपास लगभग चालीस वर्ष आयु में वि‍द्यापति‍ ने कीर्ति‍लता की रचना कीकि‍सी भी तरह संज्ञान लेने वाला सन्‍देश नहीं है; क्‍योंकि‍ उनका सारा भ्रम लक्ष्‍मण संवत और ईस्‍वी सन् के बारे में उनकी अनभि‍ज्ञता के कारण उत्‍पन्‍न हुआ है।        
विद्यापति की रचनाएँ
संस्कृत, अवहट्ठ और मैथिलीतीनो ही भाषाओं में महाकवि विद्यापति को महारत हासि‍ल थी। इन तीनो भाषाओं में उनकी रचनाएँ उपलब्‍ध हैं। वे कर्मकाण्ड, धर्मशास्‍त्र, दर्शन, न्याय, सौन्दर्य शास्त्र, संगीत शास्‍त्र आदि‍ के प्रकाण्‍ड पण्‍डि‍त थे। उनकी रचनाओं के वि‍पुल भण्‍डार से उनके ज्ञानफलक का अनन्‍त वि‍स्‍तार स्‍पष्‍ट होता है। भक्ति रचना, शृंगारि‍क रचनाओं में मि‍लन-विरह के सूक्ष्‍म मनोभाव, रति‍-अभिसार के वि‍षद चि‍त्रण, कृतित्व-वर्णन से राजपुरुषों का उत्‍साह वर्द्धन और नीति‍ शास्‍त्रों द्वारा उन्‍हें कर्तव्‍यबोध देना, सामान्य जनजीवन के आहार-व्‍यवहार की पद्धति‍याँ बताना...हर क्षेत्र की समीचीन जानकारि‍याँ उनकी कालजयी रचनाओं में दर्ज हैं। शास्त्र और लोक के सम्‍पूर्ण संसार पर उनका असाधारण अधिकार था। ओइनवारवंशीय अनेक राजाओं के शासनकाल में रचि‍त उनकी समस्‍त कृति‍याँ उनके अथाह ज्ञान और दूरदर्शिता का प्रमाण है। सहवर्ती राजाओं की शासन-पद्धति‍ में वे सतत अपना मार्गदर्शन देते रहे। दरबार-सम्‍पोषि‍त होने के बावजूद उनका एक भी रचनात्‍मक उद्यम कहीं चारण-धर्म में लि‍प्‍त नहीं हुआ। अपनी हर रचना से उन्‍होंने समकालीन चि‍न्‍तक, सामाजि‍क अभि‍कर्ता, और राजकीय सलाहकार की प्रखर नैति‍कता का नि‍र्वाह कि‍या। उनकी प्रमुख साहित्यि‍क कृति‍याँ हैं--कीर्तिलता, कीर्तिपताका, भूपरिक्रमा, पुरुष परीक्षा, लि‍खनावली, गोरक्ष विजय, मणिमंजरी नाटिका, पदावली। धर्मशास्त्रीय प्रमुख कृति‍याँ हैं--शैवसर्वस्वसार, शैवसर्वस्वसार-प्रमाणभूत संग्रह, गंगावाक्यावली, विभागसार, दानवाक्यावली, दुर्गाभक्तितरंगिणी, वर्षकृत्य, गयापत्तालक।  पर इन सबमें सर्वाधि‍क लोकप्रि‍य रचनाएँ उनकी पदावली हुई।
वि‍द्यापति पदावली 
लोकजीवन की व्‍यावहारि‍कता, लालि‍त्‍यपूर्ण अर्थोत्‍कर्ष, एवं चमत्‍कारि‍क सांगीति‍कता से भरे उनके पद आम जनजीवन में अत्‍यन्‍त लोकप्रि‍य हुए। पूरे मि‍थि‍ला क्षेत्र के संस्‍कार एवं आचारपरक रीति‍-रि‍वाजों में वि‍द्यापति‍ के पदों का गायन नागरि‍क-परि‍दृश्‍य का अनि‍वार्य अंग बन गया, सदि‍यों बाद लोकप्रि‍यता का वह मंजर आज भी जस का तस है। जीवन-यापन के हर अवसर--जन्म, नामकरण, मुण्डन, उपनयन, विवाह, पूजा-पाठ, लोकोत्सव...हर स्‍थि‍ति‍ के गीत उनकी पदावली में उपलब्‍ध हैं। मैथि‍ल जनजीवन का संस्‍कारपरक कोई उत्‍सव आज भी वि‍द्यापति‍ गीत के बिना सम्पन्‍न नहीं होता। रचनाकाल की सुनि‍श्‍चि‍त जानकारी उपलब्‍ध नहीं होने के बावजूद कहा जा सकता है कि‍ ये पद एक लम्‍बे समय-फलक में रचि‍त हैं। ओइनवार राजवंशीय विभिन्न राजाओं एवं अन्‍य लोगों के वि‍रुद् से उन गीतों के समय का यथासाध्‍य अनुमान कि‍या जा सकता है। मिथिला समेत पूरे पूर्वांचलीय प्रदेशों--बंगाल, आसम एवं उड़ीसा में वैष्णव साहि‍त्य के विकास में भाव एवं भाषा माधुर्य के कारण विद्यापति पदावली का अपूर्व योगदान रहा है। वैष्णव भक्‍तों के प्रयास से इन गीतों का प्रचार-प्रसार मथुरा-वृन्दावन तक हुआ।
'अभिनव जयदेव' की उपाधि‍ से वि‍भूषि‍त वि‍द्यापति‍ के समस्‍त पदों के संग्रह को पदावली कहा जाता है। कविकृत हस्तलिपि या अन्‍य रूपों में भी पदावली की सम्‍पूर्ण प्रमाणि‍क प्रति उपलब्ध न होने कि‍ स्‍थि‍ति‍ में उनके पदों की कुल सुनि‍श्‍चि‍त संख्‍या बताना कठि‍न है। महेन्‍द्रनाथ दूबे द्वारा सम्‍पादि‍त शोधसपन्‍न संकलन 'गीत वि‍द्यापति'‍ में वि‍द्यापति‍ के अवहट्ट में रचि‍त दो पद सहि‍त कुल 891 पद संकलि‍त हैं; सन् 1975 में यह संकलन हि‍न्‍दी प्रचारक संस्‍थान, वाराणसी से प्रकाशि‍त हुआ। इस संकलन की वि‍स्‍तृत भूमि‍का को देखते हुए महेन्‍द्रनाथ दूबे के शोध को प्रमाणि‍क मानने में कोई दुवि‍धा नहीं होनी चाहि‍ए। उन्‍होंने मि‍थि‍ला के दो नि‍कटवर्ती भूखखण्‍डबंगाल और नेपाल में भी महाकवि‍ की लोकप्रि‍यता के लगभग स्रोतों को खँगाला है। नेपाल राज दरबार पुस्‍तकालय में उपलब्‍ध पदावली, बंगला वांग्‍मय के पदामृतसमुद्र, पदकल्‍पतरु, संकीर्त्तनामृत, कीर्त्तनानन्‍द आदि‍ में संकलि‍त पद; मि‍थि‍ला में प्रचलि‍त प्राचीन महत्त्‍वपूर्ण संग्रहोंरामभद्रपुर पदावली, रागतरंगि‍णी, तरौनी के तालपत्र में संकलि‍त पद; मिथिला के लोककण्ठ में जीवित गीत; और महामहोपाध्‍याय हरप्रसाद शास्‍त्री, जॉर्ज ग्रि‍यर्सन, नगेन्‍द्रनाथ गुप्‍त, खगेन्‍द्रनाथ मि‍त्र, वि‍मानबि‍हारी मजुमदार, ब्रजनन्‍दन सहाय, सुभद्र झा, शि‍वनन्‍दन ठाकुर जैसे वि‍द्यापति‍-साहि‍त्‍य के वि‍शि‍ष्‍ट अन्‍वेषकों के योगदान का बोधपूर्ण उपयोग कि‍या है; समस्‍त स्रोतों के वि‍श्‍लेषणपरक सहयोग के साथ सम्‍पादि‍त यह संकलन वि‍द्यापति‍ वांग्‍मय के अध्‍येताओं के लि‍ए आकर ग्रन्‍थ है। 
शिवसिंह के ति‍रोधान के बाद अनेक वर्षों तक सांस्कृतिक रूप से समृद्ध क्षेत्र नेपाल की तराई, राजबनौली में रहकर महाकवि विद्यापति के रचनाकर्म के पूर्वोल्‍लेख से स्‍पष्‍ट है कि‍ पहले से ही लोकप्रि‍यता हासि‍ल कर चुके उनके गीत वहाँ के जनमानस में और अधि‍क लोकप्रिय होने लगे। नेपाल राज दरबार पुस्‍तकालय में उपलब्‍ध पदावली उसी लोकप्रि‍यता का परि‍णाम है। यद्यपि‍ उस दौर तक आते-आते वि‍द्यापति‍ शृंगारि‍क पद लि‍खना छोड़ चुके थे। इधर बंगाल में उनके पदों की लोकप्रि‍यता के कई कारणों में से सर्वाधि‍क उल्‍लेखनीय चैतन्‍य महाप्रभु एवं उनकी शि‍ष्‍य-परम्‍परा की कृष्‍ण-भक्‍ति‍ में वि‍द्यापति‍ के पदों के गायन की परम्‍परा तो वि‍दि‍त है ही। वहाँ विद्यापति के पद वैष्णव-भजनों की तरह गाए जाते थे। इस तरह वि‍द्यापति‍ के पद-संग्रह हेतु उपलब्‍ध प्राचीन संसाधन-- नेपाल राज दरबार पुस्‍तकालय से उपलब्‍ध पदावली; बंगला-वांग्‍मय के संकलन क्षणदागीतचि‍न्‍तामणि‍, पदामृतसमुद्र, पदकल्‍पतरु, संकीर्त्तनामृत, कीर्त्तनान्‍द; मि‍थि‍ला में उपलब्‍ध रामभद्रपुर पदावली, रागतरंगि‍णी, तरौनी ताल-पत्र अथवा तरौनी पदावली हैं। आधुनि‍क काल के समस्‍त संकलनकर्त्ताओं ने इन धरोहरों के अलावा लोक-कण्‍ठ को भी आधार बनाया, जि‍नके प्रमुख स्रोत बंगवासी कृष्‍ण-भक्‍त और मैथि‍ल-समाज हुए।
आधुनि‍क काल में इस दि‍शा में बंगला वांग्‍मय सबसे आगे दि‍खता है। प्राचीन काव्‍य-संग्रह सम्‍बन्‍धी जगबन्धु भद्र की योजना महाजन पदावली के पहले खण्ड में विद्यापति के पद संकलि‍त हैं, शारदाचरण मित्र ने इसका संकलन-सम्‍पादन अक्षयचन्‍द्र सरकार के सहयोग से कि‍या, जो सन् 1874 में प्रकाशित हुआ। शारदाचरण मित्र ने उसे विद्यापतिर पदावली नाम से सन् 1878 में स्‍वतन्‍त्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाया।
सन् 1882 में एशि‍याटि‍क सोसाइटी ऑफ बंगाल द्वारा प्रकाशि‍त एन इण्‍ट्रोडक्‍शन टु द मैथि‍ली लि‍ट्रेचर ऑफ  नॉर्थ बि‍हार, कण्‍टेनिंग ए ग्रामर, क्रि‍स्‍टोमेथी, एण्‍ड वोकेब्लरी मैथि‍ली भाषा एवं साहि‍त्‍य के क्षेत्र में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन का अमूल्‍य योगदान है। इसमें ग्रि‍यर्सन ने द पोएम्‍स ऑफ वि‍द्यापति‍‍ ठाकुर शीर्षक से एक व्‍यवस्‍थि‍त भूमि‍का के साथ वि‍द्यापति‍ के 82 गीत संकलि‍त कि‍ए। उल्‍ल्लेखनीय है कि‍ उस समय तक अक्षयचन्‍द्र सरकार और शारदाचरण मित्र द्वारा सम्‍पादि‍त पदावली का प्रकाशन हो चुका था; पर उन दोनों संकलनों के सवधानीपूर्वक अवलोकन के बावजूद ग्रि‍यर्सन को पाँच-छह से अधि‍क पदों में वि‍द्यापति‍ के पद होने की अर्थवत्ता नहीं दि‍खी, अस्‍तु उन्‍होंने उनमें से इतने ही पद संकलि‍त कि‍ए; शेष पदों का संकलन उन्‍होंने लोक-कण्‍ठ से कि‍या। महेन्द्रनाथ दूबे उनमें से 77 पदों की प्रामाणिकता असन्‍दि‍ग्‍ध मानते हैं। बाबू ब्रजनन्‍दन सहाय 'ब्रजवल्‍लभ' द्वारा संकलि‍त-सम्‍पादि‍त संग्रह मैथि‍ल कोकि‍ल वि‍द्यापति‍ सन् 1909 में आरा नागरी प्रचारि‍णी सभा ने प्रकाशि‍त की। उन्‍होंने संकलन के दौरान पदकल्‍पतरु, पदामृतसमुद्र आदि‍ अनेक प्राचीन संकलनों का सहयोग लि‍या था, साथ ही अनेक पद उन्‍होंने मैथि‍ल-लोक-कण्‍ठ से भी एकत्र कि‍या।
बाद के दि‍नों में शारदाचरण मित्र की प्रेरणा एवं आर्थिक समर्थन से नगेन्द्रनाथ गुप्त ने विद्यापति ठाकुरेर पदावली शीर्षक से 840 पदों का वि‍शि‍ष्‍ट संकलन तैयार कि‍या, जो सन् 1909 में बंगीय साहित्य परिषद द्वारा प्रकाशि‍त हुआ। विद्यापति पद-संग्रह की दि‍शा में नगेन्द्रनाथ गुप्त द्वारा कि‍ए गए इस पहले उद्यम विद्यापति ठाकुरेर पदावली में यद्यपि‍ कई त्रुटि‍याँ हैं, पर बि‍खरे स्रोतों से बीन-बीनकर संकलन तैयार करने की वि‍लक्षण सूझ-बूझ और मेहनत के प्रति‍ कृतज्ञता-ज्ञापन परवर्ती सुधीजनों का दयि‍त्‍व बनता है। संकलन में उन्‍होंने 'मि‍थि‍लार पद' उपशीर्षक से जि‍तने भी पद लि‍ए हैं, उनमें से कुछ ही उनके द्वारा संकलि‍त हैं, अधि‍कांश पद शारदाचरण मित्र के सहयोग से उन्‍हें तत्‍कालीन दरभंगा महाराज रामेश्‍वरसिंह से प्राप्‍त हुए। वृद्धावस्‍था के बावजूद कवीश्‍वर चन्‍दा झा से प्राप्‍त प्रभूत सहयोग हेतु उन्‍होंने वि‍नम्रतापूर्वक कृतज्ञता ज्ञापि‍त की। नेपाल राजदरबार में उपलब्‍ध पदावली का उपयोग सर्वप्रथम उन्होंने ही किया। बंगला-वांग्‍मय की वि‍भि‍न्‍न पदावलि‍यों सहि‍त उन्‍होंने लोचनकृत रागतरंगिणी का उपयोग भी कि‍या। तरौनी-पदावली (तरौनी लालपत्र) अब कहीं नहीं है। उसकी मूल प्रति‍ का उपयसेग बस वे ही कर पाए। उसके बारे में जानने का एकमात्र आधार अब विद्यापति ठाकुरेर पदावली ही है। उन्‍होंने मि‍थिला और बंगाल के लोककण्ठ में बसे विद्यापति के महत्त्‍वपूर्ण पदों को भी अपने संकलन में समावि‍ष्‍ट कि‍या।
कालान्‍तर में उसके कई संशोधि‍त-परि‍वर्द्धि‍त संस्करण प्रकाशि‍त हुए। सन् 1934 में पण्‍डि‍त प्रवर अमूल्‍यचरण वि‍द्याभूषण ने उसमें कई नए पद जोड़कर प्रमाणि‍क संकलन प्रकाशि‍त करवाया। तदुपरान्‍त खगेन्‍द्रनाथ मि‍त्र और वि‍मानबि‍हारी मजुमदार ने बड़े मनोयोग से उसका संशोधन-संवर्द्धन कि‍या और उसकी सुचि‍न्‍ति‍त भूमि‍का लि‍खी; सन् 1952 में शारदाचरण मित्र के पुत्र शरतकुमार मि‍त्र ने उसे प्रकाशि‍त करवाया। संकलन तैयार करते समय मि‍त्र-मजुमदार को नेपाल सरकार से अनुरोधपूर्वक पदावली की प्रति‍ माँगकर महामहोपाध्‍याय हरप्रसाद शास्‍त्री ने उपलब्‍ध करवाई थी। बंगाल में प्रकाशि‍त कुल 933 पदों की वि‍द्यापति‍ पदावली का यह महत्तम संस्‍करण है। विद्यापति-साहि‍त्‍य के कई अनुवर्ती अनुरागि‍यों सहि‍त ब्रजनन्दन सहाय 'ब्रजवल्लभ' एवं रामवृक्ष बेनीपुरी तक को पद-संग्रह के क्रम में इन संस्करणों से प्रभूत सहयोग एवं प्रेरणा मि‍ली। उल्‍लेख संगत होगा कि‍ सन् 1936 में काशीप्रसाद जयसवाल ने नेपाल दरबार पुस्‍तकालय में यह प्रति‍ देखी, उन्‍होंने दरभंगा के तत्‍कालीन महाराजाधि‍राज कामेश्‍वरसिंह के आर्थि‍क एवं प्रशासनि‍क सहयोग से उसकी प्रति‍लि‍पि‍ तैयार करवाकर पटना कॉलेज पुस्‍तकालय में रखवाने की व्‍यवस्‍था की। 
तदुपरान्‍त भाषा-वैज्ञानि‍क दृष्‍टि‍ से वि‍श्‍लेषणपरक वि‍चार करते हुए व्‍यवस्‍थि‍त और समृद्ध भूमि‍का के साथ सुभद्र झा ने नेपाल दरबार पुस्‍तकालय से प्राप्‍त पदावली का प्रकाशन अंग्रेजी में सौंग्‍स ऑफ वि‍द्यापति‍ शीर्षक से करवाया। उनके अनुसार इसमें 288 पद हैं, जि‍नमें 262 पदों में ही वि‍द्यापति‍ अथवा उनके कि‍सी वि‍रुद् का उल्‍लेख है।
इसके बाद सन् 1961 में बि‍हार राष्‍ट्रभाषा परि‍षद्, पटना द्वारा नेपाल दरबार पुस्‍तकालय से प्राप्‍त पदावली का प्रकाशन वि‍द्यापति‍ पदावली, पहला भाग शीर्षक से हुआ। पर जैसा कि‍ सहज सम्‍भाव्‍य था, यह ज्‍यों का त्‍यों नहीं छपा। इसका अहम कारण हुआ मूल पाण्‍डुलि‍पि‍ में जगह-जगह नहीं पढ़े जा सकने वाले शब्‍द। इस समस्‍या के कारण स्‍पष्‍टत: उन शब्‍दों का अर्थ स्‍पष्‍ट नहीं हो पाया। इस व्‍यवधान से उत्‍पन्‍न दोष का शि‍कार मि‍त्र-मजुमदार और सुभद्र झा का संकलन भी है। पर, परि‍षद द्वारा प्रकाशि‍त पदावली में परि‍श्रमपूर्वक पाठ को शुद्ध रूप और समीचीन अर्थ देने की चेष्‍टा की गई है। बि‍हार राष्‍ट्रभाषा परि‍षद्, पटना द्वारा सन् 1961 में प्रकाशि‍त वि‍द्यापति‍ पदावली, दूसरा भाग में रामभद्रपुर पदावली से प्राप्‍त 95 पद, रागतरंगि‍णी से प्राप्‍त 51 पद, और तरौनी पदावली से प्राप्‍त 230 पद संकलि‍त हैं। ‍
वि‍द्यापति और गीति‍काव्‍य परम्‍परा
सुधीजन महाकवि‍ वि‍द्यापति को हि‍न्‍दी के प्रथम गीति‍काव्‍य रचयि‍ता मानते हैं। यद्यपि‍ मैथि‍लीभाषि‍यों ने हि‍न्‍दी के दावेदारों को वि‍द्यापति‍ से बेदखल कर दि‍या है, पर यहाँ भाषा-वि‍वाद के बजाए, गीति‍काव्‍य और वि‍द्यापति‍ पर चर्चा काम्‍य है। प्राचीनकाल से प्राच्‍य-पाश्‍चात्‍य वि‍द्वत्‍समाज द्वारा गीति‍काव्‍य की परि‍भाषा स्‍थि‍र करने की चेष्‍टा के बावजूद कोई सर्वमान्‍य परि‍भाषा तय होना सम्‍भव नहीं हो पाया है। असल में गीति‍काव्‍य का सीधा सम्‍बन्‍ध मानवीय संवेदना से है, जि‍समें इच्‍छा, संवेग, भावना, आत्‍मपरक अनुभूति‍यों के वृहत्तर वि‍स्‍तार की बड़ी भूमि‍का होती है; इनके असीम सम्‍भावि‍त फलक से मनुष्‍य स्‍वयं अनभि‍ज्ञ रहता है; फि‍र वह उसका सर्वमान्‍य स्‍वरूप कैसे सुनि‍श्‍चि‍त करे! पर गीति‍काव्‍य से मानव-जीवन की सहज अपेक्षाओं को देखते हुए यह समझ अवश्‍य बनती है कि‍ इसकी सत्ता मनुष्‍य की प्रारम्‍भि‍क अनुभूति‍यों से जुड़ी हुई है और अधि‍क प्राचीन उदाहरण नहीं मि‍लने की स्‍थि‍ति‍ में भारतीय परि‍दृश्‍य में इसका प्रारम्‍भ वैदि‍क युग से मानते हैं। वैदि‍क गीति‍यों में इसके उदाहरण स्‍पष्‍टत: परि‍लक्षि‍त हैं। लक्षि‍त होता है कि‍ सहज-सुबोध भाषा में रचि‍त लालि‍त्‍यपूर्ण, लयात्‍मक और गेयधर्मी काव्‍य; जि‍समें रचनाकार की आत्‍मानुभूति‍ समूहपरक भावनाओं के साथ तादात्‍म्‍य स्‍थापि‍त कर ले; गीति‍काव्‍य कहलाएगा। स्‍वभावत: इसके रचयि‍ता वही होंगे, जि‍सने अपनी हर स्‍वानुभूति‍ में सामूहि‍क अनुभूति‍ देख सकने; अथवा सामूहि‍क अनुभूति को स्‍वानुभूति‍ की तरह समझ सकने लायक वि‍राट हृदय, मनोभाव, तटस्‍थता और कौशल पा लि‍या है। इस भाव के बि‍ना गीति‍काव्‍य के रचयि‍ता की एकान्‍त आत्‍मानुभूति‍ कि‍सी स्‍थि‍ति‍ में समष्‍टि‍परक अनुभूति‍यों से सादृश्‍य स्‍थापि‍त नहीं कर सकेगी। इस दि‍शा में हीगेल की राय उल्‍लेखनीय है कि‍ गीति‍काव्‍य के रचयि‍ता जगत के सारे तत्त्‍वों को स्‍वयं में समाहि‍त करता है, वैयक्‍ति‍क भावों के प्रभाव से इसे पूर्णत: आत्‍मसात करता है और इस आत्‍मपरकता को सुरक्षि‍त रखनेवाली शैली में अभि‍व्‍यक्‍त करता है।
गीति‍काव्‍य के उद्भव के बारे में बड़े-बड़े वि‍चारक सहमत हैं कि‍ यह काव्‍य का सर्वाधि‍क सहजतम रूप है, इसका सम्‍बन्‍ध रचनात्‍मकता के सचेत बुद्धि‍-व्‍यापार से कम, अनुभूति‍-सि‍द्ध हृदय के सहजोद्रेक से अधि‍क रहा है; इसलि‍ए मनुष्‍य जाति‍ के प्रारम्‍भि‍क भावों के साथ ही इसका उद्भव हुआ। इसमें मानवीय भावनाओं के अथाह पटल की बहुफलकीय गति‍कता, अनुभव, संवेग, कामना, इच्‍छा-अभि‍लाषा, भक्‍ति‍-प्रेम-वात्‍सल्‍य, उल्‍लास-अवसाद, अनुरक्‍ति‍-वि‍रक्‍ति, अनुदेश-उपदेश, दुहाई-धमकी, आह्वान-प्रति‍ज्ञा‍ आदि‍ का जीवन्‍त और प्रभावकारी चि‍त्रण‍ होता है; गेयधर्मि‍ता के साथ-साथ सहजता, संक्षि‍प्‍ति‍, वि‍षय-वि‍चार की उद्देश्‍यमुखी सूत्रबद्धता एवं एकलता इसकी अनि‍वार्य शर्तें हैं। घटना-क्रम के वैवि‍ध्‍य, वि‍षय-प्रसंग के उलझाव और सन्‍धान-सूत्र के शाखा-वि‍स्‍तार की इसमें कोई गुंजाईश नहीं। अपनी इन्‍हीं वि‍शि‍ष्‍टताओं के बलबूते गीति‍काव्‍य वर्णनात्‍मक रचना से पृथक पहचान बनाती है और प्रस्‍तुति‍ के दौरान भावक-प्रस्‍तोता सर्वस्‍व भूलकर उस रचना की स्‍थि‍ति‍ में खो जाते हैं। यह मानने में कि‍सी को कोई दुवि‍धा नहीं होनी चाहि‍ए कि‍ गीति‍काव्‍य की जन्‍मभूमि‍ लोकजीवन ही है। मानव-सभ्‍यता की शुरुआत में ही लोकजीवन की भावनाओं की बहुवि‍ध छवि‍यों की गेय अभि‍व्‍यक्‍ति‍ के रूप में यह सार्वजनि‍क हुई। सम्‍भवत: इसी कारण लयबद्ध-छन्‍दबद्ध होने की अनि‍वार्यता के बावजूद इस पर कोई शास्‍त्रीय बन्‍धन नहीं है; इसके लय-छन्‍दों का कोई नि‍र्धारि‍त-नि‍र्देशि‍त वि‍धान नहीं है। वस्‍तु-शि‍ल्‍प-उद्देश्‍य तीनो ही स्‍तर पर यह लोकजीवन की अभि‍व्‍यक्‍ति‍ और तोष की चि‍न्‍ता रखती है। सामूहि‍क जीवन के भाव-बोध से इसकी ऐसी नि‍कटता कायम होती है कि‍ सम्‍प्रेषण सहज और रसोद्रेक परि‍पूर्ण हो जाता है। समूहगान, एकल गान, और नृत्‍य के सहचर गीतअपने तीनो रूपों में गीति‍काव्‍य, भावक-प्रस्‍तोतादोनो के लि‍ए एक खास मुग्‍धता पैदा करता है। उल्‍लास की अभि‍व्‍यक्‍ति‍, अवसाद की वि‍स्‍मृति‍, श्रमबोध की नि‍वृत्ति‍...हर स्‍थि‍ति‍ में गीति‍काव्‍य के कारक कर्त्ता-भोक्‍ता के रूप में तल्‍लीन रहते हैं।‍ सिंहावलोकन के पश्‍चात अनुमान करना असहज नहीं कि‍ आदि‍काल से ही गीति मानव की सहचरी रहती आई है, आज भी है, आगे भी रहेगी। अस्‍ति‍त्‍व-रक्षा हेतु नि‍रन्‍तर संघर्षशील मनुष्‍य अग्‍नि‍ एवं औजार के आवि‍ष्‍कार तथा पशुओं पर अधि‍कार कर लेने के बावजूद प्रकृति‍ से नहीं जीत सका। आगे चलकर सभ्‍यता के वि‍कास-क्रम में उसने पशु और प्रकृति का सकारात्‍मक उपयोग शुरू कर दि‍या। फि‍र तो शौर्य-पराक्रम-आक्रामकता के बजाए उसके समक्ष हर्ष-वि‍षाद, भय-त्रास, ओज-उत्‍साह, शान्‍ति‍-वि‍स्‍मय, उल्‍लास-अवसाद, राग-द्वेष, प्रेम-घृणा, श्रद्धा-भक्‍ति‍...जैसे वि‍भि‍न्‍न भावों की पहचान‍ स्‍पष्‍ट हुई। वैदि‍क गीति‍यों से शुरू होकर अब तक के सभी गीति‍काव्‍यों में इन सभी भावों की अभि‍व्‍यक्‍ति‍ के संकेत मि‍लते हैं। भारतीय वांग्‍मय में वैदि‍क युग से लेकर अब तक हुई गीति‍-रचना का क्रम जो भी रहा हो पर समकालीन समाज की धार्मि‍क, सामाजि‍क, आर्थि‍क, राजनीति‍क परि‍स्‍थि‍ति‍यों के अनुसार गीति‍काव्‍यों के स्‍वभाव में परि‍वर्त्तन होते रहे हैं।
अनुशीलन करते हुए वि‍द्यापति‍ पदावली में गीति‍काव्‍य के ये सारे तत्त्‍व समग्रता से मि‍लते हैं। वैदि‍क-युग से वि‍द्यापति-युग तक भारतीय वांग्‍मय का गीति‍काव्‍य भली-भाँति‍ फला-फूला; यहाँ उस वि‍कास-क्रम के वि‍स्‍तार में जाना उद्देश्‍य नहीं।‍ सम्‍भव है कि‍ शोध के दौरान प्राचीन-अर्वाचीन स्रोतों से संकलि‍त गीतवि‍द्यापति‍ संग्रह के कुल 889 पद के अलावा कुछ और पद सामने आ जाएँ; पर उससे वि‍द्यापति‍ पदावली के अनुशीलन में कोई खास अन्‍तर नहीं होगा। मुख्‍यत: ये पद दो तरह के हैंशृंगारि‍क पद और भक्‍ति‍ पद। इसके अलावा कुछ ऐसे पद भी हैं, जि‍नमें प्रकृति‍, समाज, नीति‍, संगीत आदि‍ जीवन-मूल्‍यों को रेखांकि‍त कि‍या गया है। शृंगारि‍क पदों में वय:सन्‍धि‍, नायि‍काभेद, नखशि‍ख वर्णन, मि‍लन-अभि‍सार, मान-मनुहार संयोग-वि‍योग, वि‍रह-प्रवास आदि‍ का वि‍लक्षण चि‍त्र उकेरा गया है। ऐसे पदों की संख्‍या साढ़े सात सौ से अधि‍क है। उल्‍लेख हो चुका है कि‍ अपने प्रि‍य सखा राजा शि‍वसिंह के ति‍रोभाव (सन् 1406) के बाद से महाकवि‍ ने कोई शृंगारि‍क पद नहीं रचा; बाद के समय की उनकी सारी ही रचनाएँ भक्‍ति‍-प्रधान पद हैं, या फि‍र नीति‍, शास्‍त्र, धर्म, आचार से सम्‍बन्‍धि‍त वि‍चार। भक्‍ति‍-प्रधान पदों की संख्‍या लगभग अस्‍सी हैं; जि‍समें शि‍व-पार्वती लीला, नचारी, राम-वन्‍दना, कृष्‍ण-वन्‍दना, दुर्गा-काली-भैरवि‍-भवानी-जानकी-गंगा वन्‍दना आदि‍ शामि‍ल है। शेष पदों में ऋतु-वर्णन, बेमेल वि‍वाह, सामाजि‍क जीवन-प्रसंग, रीति‍-नीति‍-सम्‍भाषण-शि‍क्षा आदि‍ रेखांकि‍त है।
उल्‍लेख हो चुका है कि‍ तीन भाषाओं--संस्‍कृत, अवहट्ट, मैथि‍ली में नीति‍, धर्म, शास्‍त्र, आचार-वि‍चार से सम्‍बद्ध वि‍षयों पर दर्जन भर से अधि‍क पुस्‍तकों के प्रणेता वि‍द्यापति‍ की सर्वाधि‍क लोकप्रि‍यता का आधार उनकी पदावली है। और, पदावली की लोकप्रि‍यता का आधार उसका वि‍षय-प्रसंग, भाषा-फलक, और रचनात्‍मक तकनीक है। वि‍शुद्ध लौकि‍क, व्‍यावहारि‍क और सामाजि‍क वि‍षय; जन-सुबोध भाषा; और वि‍लक्षण गेयधर्मि‍ता ही उनके पदों को वि‍राट जनमानस में इतना आदर दि‍लाया। पदों के छन्‍द सांगीति‍क रूप से इतने सधे हुए हैं कि‍ कहीं सुर-ताल-लय का व्‍यति‍क्रम नहीं आता। कोमलकान्‍त पदावली की वि‍लक्षण सांगीति‍कता के कारण ही उन्‍हें 'अभि‍नव जयदेव' कहा गया। जयदेव के गीतों की भाँति‍ ही वि‍द्यापति के पद संगीतबद्ध वि‍धानों से परि‍पूर्ण हैं। सहज वि‍श्‍वास कि‍या जा सकता है कि‍ उन्‍हें गान-वि‍द्या में महारत हासि‍ल थी। वैसे लोचन कवि‍ कृत रागतरंगि‍णी में हुए उल्‍लेखसुमति‍ सुतोदय जन्‍मा जयत: शि‍वसिंहदेवेन/पण्‍डि‍तप्रवर कवि‍शेखर वि‍द्यापतये तु सन्‍न्‍यस्‍त: --से ज्ञात होता है कि‍ राजा शि‍वसिंह अपने राज्‍य के दक्ष कलावि‍द् सुमति‍ के पुत्र जयत को 'सुर' सम्‍बन्‍धी सहयोग हेतु वि‍द्यापति‍ के साथ कर दि‍या था। भावकों को जहाँ कहीं वि‍द्यापति‍ के पद में छन्‍द-भंग दि‍खता है, वहाँ उन्‍हें ध्‍वनि‍ के आगम से काम लेना चाहि‍ए, क्‍योंकि‍ सांगीति‍क प्रभाव से रचे गए पदों में अक्षर और मात्रा से अधि‍क महत्ता ध्‍वनि‍ की होती है।
राधा-कृष्‍ण प्रेम वि‍षयक वि‍वि‍ध वृत्ति‍याँ एवं ईश-भक्‍ति पदावली का मुख्‍य वि‍षय है; कुछ पद अन्‍य लौकि‍क व्‍यवहार के भी हैं; पर इन वि‍षयों के नि‍रूपण पूरी तरह लौकि‍क हैं। उल्‍लेखनीय है कि‍ वि‍द्यापति‍ का युग न केवल मि‍थि‍ला के लि‍ए, बल्‍कि‍ पूरे भारतीय जनपद के लि‍ए सामाजि‍क, आर्थि‍क और सांस्‍कृति‍क...हर दृष्‍टि‍ से उथल-पुथल से भरा था। सि‍लसि‍‍लेवार आक्रमण के कारण पूरा जनजीवन हर समय दहशत में पड़ा रहता था। दि‍ल्‍ली से लेकर बंगाल तक की यात्रा में आक्रमणकारि‍यों और आक्रान्‍तों के जय-पराजय की तो अपनी स्‍थि‍ति‍ थी, पर उस दहशत में सामान्‍य नागरि‍क भी मनत: व्‍यवस्‍थि‍त नहीं रह पाते थे। आक्रमण का जाते हुए उत्‍साह में, और वि‍जयी होकर लौटते हुए उल्‍लास में, अथवा वि‍फल लौटते हुए हताशा में सैनि‍क कहाँ-कि‍तना-कि‍सको आहत करते थे, उन्‍हें पता नहीं होता। पीढ़ी-दर-पीढ़ी अहंकार-तुष्‍टि‍ और वर्चस्‍व-स्‍थापन के लि‍ए तरह-तरह के गठबन्‍धन बन रहे थे। सामन्‍तों को भी तो अपनी अस्‍मि‍ता कायम रखनी होती थी। पर इसी बीच साहि‍त्‍य एवं कला के लि‍ए ठाँव-ठाँव जगह भी बनती जा रही थी। जाति‍-व्‍यवस्‍था और कठोर हो रही थी, पर राजनीति‍क दृष्‍टि‍कोण से उसमें परि‍वर्त्तन की अपेक्षा देखी जा रही थी। हि‍न्‍दू-मुसलमान के बीच एक-दूसरे को समझने की नई दृष्‍टि‍ वि‍कसि‍त हो रही थी। आर्थि‍क-सामाजि‍क अपेक्षाओं के तहत दोनों एक-दूसरे के करीब आ रहे थे। कला-साहि‍त्‍य-संस्‍कृति‍-धर्म-दर्शन सम्‍बन्‍धी मान्‍यताओं को लेकर दोनों के बीच संवाद की बड़ी जरूरत आन पड़ी थी; जि‍समें साहि‍त्‍य की महती भूमि‍का अनि‍वार्य थी।...ऐसे समय में वि‍द्यापति‍ की अन्‍य रचनाओं का जो योगदान है, वह तो है ही, उनकी पदावली ने प्रेम, भक्‍ति‍ और नीति‍ के सहारे बड़ा काम कि‍या। पदलालि‍त्‍य, माधुर्य, भाषा की सहजता, मोहक गेयधर्मि‍ता से मुग्‍ध होकर समकालीन और अनुवर्ती साहि‍त्‍य-कला प्रेमी एवं भक्‍तजन भाषा, भूगोल, सम्‍प्रदाय, मान्‍यता, जाति‍-धर्म के बन्‍धन तोड़कर वि‍द्यापति‍ के पद गाने लगे थे। उनका एक घोर शृंगारि‍क पद है'कि‍ कहब हे सखि‍ आनन्‍द ओर, चि‍रदि‍ने माधव मन्‍दि‍र मोर...' (हे सखि‍, बहुत दि‍नों बाद माधव मुझे अपने कक्ष में मि‍ले, मैं अपने उस आनन्‍द की कथा तुम्‍हें क्‍या सुनाऊँ!)। कहते हैं कि चैतन्‍य महाप्रभु इस पद को गाते-गाते इस तरह वि‍भोर होते थे कि‍ मूर्छा आ जाती थी।‍ उल्‍लेखनीय है कि‍ चौदहवीं-पन्‍द्रहवीं शताब्‍दी में मि‍थि‍ला उत्तर भारत के सभी क्षेत्रों में सांस्‍कृति‍क रूप से अग्रगण्‍य था, दूर-दूर से ज्ञानाकुल लोगों का आवागमन वहाँ खूब होता था। इस आवागमन में साहित्‍य, संस्‍कृति‍, आचार-वि‍चार, रहन-सहन की स्‍थानीयता का भी सुवि‍धानुसार आदान-प्रदान होता था। जाहि‍र तौर पर‍ सौन्‍दर्य और प्रेम के प्रति आकर्षण-भाव मानव-जीवन की ‍सहज वृत्ति‍ है। इस सहज मानवीय वृत्ति के मर्म को प्रगति‍शीलता के उन्‍नायक महाकवि‍ वि‍द्यापति‍ ने बड़ी सूक्ष्‍मता से पकड़ा था। परमज्ञानी नीति‍कुशल पि‍ता के साथ अल्‍पवयस में ही राजदरबार में प्रवि‍ष्‍ट हुए परमज्ञानी वि‍द्यापति‍ एक तरफ ओइनवार वंश के कई राजाओं की शासकीय नीति‍ देखकर अनुभव-सम्‍पन्‍न हुए थे, तो दूसरी तरफ समकालीन आर्थि‍क, राजनीति‍क, शासकीय पर्यवस्‍थि‍ति‍यों में लोक-जनवृत्त के सूक्ष्‍म मनोभाव को अनुरागमय दृष्‍टि‍ से अवलोकन कर रहे थे। दरबार सम्‍पोषि‍त रचनाकार होने के बावजूद चारणवृत्ति‍ उनका स्‍वभाव न था। दि‍ल्‍ली से बंगाल की आक्रमण-बहुल बर्बर पर्यावरण में दहशतगर्द जीवन व्‍यतीत कर रहे जनमानस की जैसी दशा वे देख रहे थे, उसमें बड़े कौशलपूर्ण ढंग से सामाजि‍क दायि‍त्‍व नि‍भाने की जरूरत थी। इति‍हास साक्षी है कि‍ हर काल के बुद्धि‍जीवी समकालीन समाज और शासनाध्‍यक्ष के दि‍ग्‍दर्शक होते आए हैं। प्रत्‍यक्ष परि‍स्‍थि‍ति‍यों में स्‍पष्‍टत: उपस्‍थि‍त शासकीय उन्‍माद और लोकजीवन की हताशा को अनदेखा कर नए सम्‍बन्‍धों की सुस्‍थापना हेतु सौन्‍दर्य और प्रेम से बेहतर कुछ भी नहीं होता; फलस्‍वरूप इसे ही वि‍द्यापति‍ ने अपने रचना-सन्‍धान का मुख्‍य वि‍षय बनाया।
उनके शृंगारि‍क पदों के प्रेम और सौन्‍दर्य-वि‍वेचन के आधार राधा-कृष्‍ण वि‍षयक प्रेम है। गौरतलब है कि‍ पूरे भारतीय वांग्‍मय में राधा-कृष्‍ण की उपस्‍थि‍ति‍ पौराणि‍क गरि‍मा और वि‍ष्‍णु-अवतार कृष्‍ण की अलौकि‍क शक्‍ति‍ एवं लीला के साथ है। पर, वि‍द्यापति‍ के राधा-कृष्‍ण अलौकि‍क नहीं हैं, पूरी तरह लौकि‍क हैं, उनके प्रेम-व्‍यापार के सारे प्रसंग सामान्‍य नागरि‍क की तरह हैं। पूरी पदावली में प्रेम और सौन्‍दर्य वर्णन के कि‍सी वि‍न्‍दु पर वे आत्‍मलीन नहीं दि‍खते। हर पद में रसज्ञ और रसभोक्‍ता के रूप में कि‍सी न कि‍सी राजा, सुल्‍तान की दुहाई देते हैं; या नायक-नायि‍का को प्रबोधन-उपदेश देते हैं। पूरी पदावली में प्रेम-व्‍यापार के हर उपक्रमवि‍भाव, अनुभाव, दर्शन, श्रवण, अनुरक्‍ति‍, सम्‍भाषण, स्‍मरण, अभि‍सार, वि‍रह, वेदना, मि‍लन, उल्‍लास, सुरति‍-चर्चा, सुरति‍-बाधा, आशा-नि‍राशा...या फि‍र सौन्‍दर्य-वर्णन के हर स्‍वरूपनायि‍काभेद, वय:सन्‍धि‍, सद्य:स्‍नाता, कामदग्‍धा, नवयौवना, प्रगल्‍भा, आरूढ़ा, स्‍वकीया, परकीया...को रेखांकि‍त करते हुए वि‍द्यापति‍ सतत तटस्‍थ ही दि‍खते हैं। पूरी पदावली में वि‍द्यापति‍ भगवद्गीतोपदेश के कृष्‍ण की तरह लि‍प्‍त होकर भी नि‍र्लि‍प्‍त प्रतीत होते हैं। हर समय वे अपने नायक-नायि‍का के मनोभावों को रेखांकि‍त कर एक सन्‍देश देते हुए दि‍खते हैं। जीवन में सौन्‍दर्य और प्रेम के शि‍खरस्‍थ स्‍वरूप को रेखांकि‍त करते हुए वे सभी पदों में जीवन-मूल्‍य का सन्‍देश देते प्रतीत होते हैं। नागरि‍क मन से हताशा मि‍टाने और राजाओं, सुल्‍तानों के हृदय में मानवीय कोमलता भरने का इससे बेहतर उपाय सम्‍भवत: उस दौर में और कुछ नहीं हो सकता था। इसलि‍ए वि‍द्यापति‍ पदावली के अनुशीलन की सर्वोचि‍त पद्धति‍ चि‍त्रि‍त प्रेम-प्रसंग और सौन्‍दर्य-नि‍रूपण में कामुकता से परांग्‍मुख होकर जीवन-मूल्‍य की तलाश होनी चाहि‍ए। आम नागरि‍क की तरह उनकी नायि‍का वि‍रह में व्‍यथि‍त-व्‍याकुल होती है, और नायक को स्‍मरण करती है, उन्‍हें पाने का उद्यम करती है, कि‍सी तरह की अलौकि‍कता उनके प्रेम को छूती तक नहीं। उन्‍हें चन्‍दन-लेप भी वि‍ष-वाण की तरह दाहक लगती है, गहने बोझ लगते हैं, सपने में भी कृष्‍ण दर्शन नहीं देते, उन्‍हें अपने जीने की स्‍थि‍ति‍ शेष नहीं दि‍खती। अन्‍त में कवि‍ नायि‍का को गुणवती बताकर मि‍लन की सान्‍त्‍वना के साथ प्रबोधन देते हैं--
चानन भेल विषम सर रे, भूषन भेल भारी।
सपनहुँ नहि हरि आएल रे, गोकुल गिरधारी।।
...
चन्द्रबदनि नहि जीउति रे, बध लागत काहे।।
मि‍लन की स्‍थि‍ति‍ में प्रेमातुर नायि‍का सर्वेन्‍द्रि‍य लगाकर सुखानुभव लेती है। एक ही पद में कवि‍ ने सुख का ऐसा सागर उमराया कि‍ सूखे काठ तक में रस आ जाए। 
जनम अवधि हम रूप निहारल, नयन न तिरपित भेल।   (रूप--आँख)
सेहो मधुर बोल स्रवनहि‍ सूनल, स्रुति पथ परस न गेल।।  (ध्‍वनि‍--कान)
कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि, न बुझल कइसन केलि‍।      (गन्‍धनाक)
लाख लाख जुग हिअ हिअ राखल, तइयो हिअ जरनि गेल।।      (स्‍पर्शत्‍वचा)
कत विदग्ध जन रस अनुमोदए, अनुभव काहु न पेख।    (रसमन)
भावोल्‍लास से भरे इस पद की हर पंक्‍ति‍ में नायि‍का अपने प्रि‍यतम की उपस्‍थि‍ति‍ का सुख अलग-अलग इन्‍द्रि‍यों से प्राप्‍त कर रही है--रूप नि‍हारती है, बोल सुनती है, बसन्‍त की मादक गन्‍ध पाती है, यत्‍नपूर्वक क्रीड़ा-सुख में लीन होती है, रसि‍कजन के रसभोग का अनुमान करती है। जाहि‍र है कि‍ योजनबद्ध ढंग से अपने रचना-सन्‍धान में आगे बढ़ रहे कवि‍ को लक्षि‍त उद्देश्‍य की प्राप्‍ति‍ हेतु वि‍लक्षण भाषा और अचूक तकनीक भी अपनाना था।
वि‍द्यापति‍ पदावली का भाषा-शि‍ल्‍प
पदावली की भाषा मैथि‍ली है। जाहि‍र है कि‍ वह तुलना में आज की मैथि‍ली से भि‍न्‍न है। 'भाषा बहता नीर' पर वि‍चार करते हुए स्‍पष्‍ट दि‍खता है कि‍ नागरि‍क सभ्‍यता के वि‍कासमान दौड़ में दशक भर में भाषा का स्‍वरूप बदल जाता है, क्‍योंकि‍ वह बहती नदी के नीर की तरह स्‍थान-काल-पात्र के अनुसार अपना स्‍वरूप बदल लेती है। उसके उपयोक्‍ता की योग्‍यता और प्रयोजन के अनुसार उसकी ध्‍वनि‍यों और अर्थ-छवि‍यों में अन्‍तर आता जाता है; पदावली तो लगभग सात सौ वर्ष पुरानी रचना है! एतदरि‍क्‍त इन पदों का संकलन तीन भि‍न्‍न-भि‍न्‍न भाषि‍क समाज मि‍थि‍ला, बंगाल, और नेपाल के लि‍खि‍त, मौखि‍क स्रोतों से कि‍या गया है। भाषि‍क संरचना के गुणसूत्रों से परि‍चि‍त सभी लोग इस बात से सहमत होंगे कि‍ रचनाकार से मुक्‍त हुई गेयधर्मी रचना लोक-कण्‍ठ में वास करती हुई अनचाहे में भी कुछ-न-कुछ अपने मूल स्‍वरूप से भि‍न्‍न हो जाती है, और फि‍र संकलक तक आते-आते उसमें स्‍थानीयता के कई अपरि‍हार्य रंग चढ़ जाते हैं। लोक-कण्‍ठ से संकलि‍त सामग्री का तो यह अनि‍वार्य वि‍धान है! वि‍द्यापति‍ पदावली इसका अपवाद नहीं है। चौदहवीं से बीसवीं शताब्‍दी तक के सात सौ वर्षों तक की यात्रा में वि‍भि‍न्‍न माध्‍यमों द्वारा प्रचारि‍त, प्रसारि‍त, संकलि‍त इन पदों में कब-कहाँ और कि‍नके कौशल से क्‍या जुड़ा, क्‍या छूटा, यह जान पाना मुश्‍कि‍ल है। फि‍र एक तथ्‍य यह भी है कि‍ इन पदों के प्रारम्‍भि‍क संकलनकर्त्ताओं की मातृभाषा मैथि‍ली नहीं थी। रागतरंगि‍णी, तरौनी ताल-पत्र के लि‍खि‍त प्रमाण के साथ-साथ चन्‍दा झा जैसे कुछ महान संस्‍कृति‍सेवि‍यों एवं कुछ सामान्‍य नागरि‍कों से उन मैथि‍लेतर संकलनकर्त्ताओं को बेशक भरपूर सहयोग मि‍ला; पर चूँकि‍ उनकी अपनी भाषा मैथि‍ली नहीं थी, इसलि‍ए कई ध्‍वनि‍यों, शब्‍दों, पदों और सन्‍दर्भ-संकेतों को लि‍खि‍त रूप में व्‍यक्‍त करते हुए नि‍श्‍चय ही परि‍वर्तन आ गया होगा। बाद के दि‍नों में तो तरौनी तालपत्र लुप्‍त ही हो गया। स्‍पष्‍टत: शंका होने पर भी परि‍मार्जन की गुंजाईश जाती रही। बंगाल और नेपाल से प्राप्‍त पदों में तो स्‍थानीयता का प्रभाव आ जाना सहज सम्‍भाव्‍य था। लि‍हाजा बाद के दि‍नों में मैथि‍ली और हि‍न्‍दी के वि‍द्वानों ने जब उनका संकलन शुरू कि‍या, तो उन्‍होंने जगह-ब-जगह अपने बुद्धि‍-वि‍वेक के उपयोग से जनसुलभ और मैथि‍ली, हि‍न्‍दी के परि‍वेश के अनुकूल पाठ बनाने का वि‍कल्‍प दि‍या। आज के भाषानुरागि‍यों को इन पदों के अवगाहन में भले कुछ अर्थबाधा अनुभव हो, पर जनश्रुति‍यों की अति‍शयोक्‍ति‍ को सम्‍पादि‍त करते हुए भी समझें तो यह मानने में कोई दुवि‍धा नहीं है कि‍ पदावली की पंक्‍ति‍याँ वि‍द्यापति‍ के जीते जी मुहावरे और कहावतों की श्रेणी पा गई थीं। जाहि‍र है कि‍ लोकमानस में इस तरह समादृत होने का मूल कारण उस दौड़ की लोकप्रि‍य शब्‍दावली और सम्‍प्रेषणीय भाषा-वि‍धान ही रहा होगा। भाषा की सहजता ने ही इन पदों को उस दौड़ के जन-जन तक पहुँचाया, जाति‍-धर्म-लिंग-वंश-ओहदा सबसे परे जन-जन के कण्‍ठ में बसाया, रचना कोमलकान्‍त पदावली कहलाई, और रचनाकार अभि‍नव जयदेव, कवि‍कण्‍ठहार, कवि‍शेखर कहलाए। स्‍पष्‍टत: पदावली की लोकप्रि‍यता में लोक-रंजक भाषा, जनजीवन के गहन प्रसंगों से जुड़े वि‍षय, एवं' लोक'सम्‍मत सांगीति‍कता की उल्‍लेखनीय भूमि‍का है। पदावली की गेयधर्मि‍ता से वि‍द्यापति‍ की संगीतसि‍द्धि‍ तो सर्वमान्‍य है, पर इन पदों के गायन हेतु संगीत-शास्‍त्रीय साधना अनि‍वार्य भी नहीं है। इनका रचनात्‍मक तकनीक ऐसा वि‍लक्षण और लोकाश्रि‍त है कि शास्‍त्रीय प्रशि‍क्षण से दीक्षि‍त हुए बि‍ना भी अनुरागी-जन इन्‍हें लोकगीतों के वि‍धान में बड़े आराम से गाते हुए मुग्‍ध होते हैं। उल्‍लेख संगत होगा कि‍ इनके एक-एक पद कई-कई रागों में गाए जाते हैं।
इन पदों की गेयधर्मि‍ता इस तरह वर्चस्‍व पा गई कि‍ वि‍द्यापति‍-पदावली पर वि‍चार करते समय सामान्‍यतया उनकी छन्‍द-योजना पर व्‍यवस्‍थि‍त रूप से वि‍चार नहीं के बराबर हुआ है। अधि‍कांश पदों के प्रारम्‍भ में एक छोटी पंक्‍ति‍ होती है, गायन में उस पंक्‍ति‍ की बार-बार आवृत्ति होती है, इसे स्‍थायी या ध्रुवपद, या टेक कहते हैं। इसे छन्‍दक भी कहते हैं। कई पदों में तो यह छन्‍दक पहली पंक्‍ति‍ है, कुछ पदों में दो पंक्‍ति‍ के बाद है।‍
उदाहरणार्थ-- 
कि आरे! नव यौवन अभिरामा 
जत देखल तत कहए न पारिअ, छओ अनुपम एक ठामा ।।  
हरिन इन्दु अरविन्द करिनि‍ हि‍म, पिक बूझल अनुमानी 
नयन बदन परिमल गति तन रुचि‍, अओ गति सुललित बानी ।।
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कबरी-भय चामरि गिरि-कन्दर, मुख-भय चाँद अकासे।
हरिनि नयन-भय, सर-भय कोकिल, गति‍-भय गज बनबासे।।
सुन्दरि, किए मोहि सँभासि न जासि।
तुअ डर इह सब दूरहि पड़ाएल, तोहें पुन काहि‍ डरासि।।
छन्‍दक के ऐसे दोनों तरह के प्रयोग चण्‍डीदास के यहाँ भी मि‍लते हैं। बाद के दि‍नों में कबीरदास और सूरदास के यहाँ पद के प्रारम्‍भ में और रैदास एवं नानक के यहाँ दोनों तरह के प्रयोग दि‍खते हैं।
छन्‍द-शास्‍त्र के आचार्यों ने छन्‍द की दो कोटि‍याँ र्नि‍धारि‍त की हैंवर्णि‍क और मात्रि‍क। वि‍द्यापति‍ के सभी पद मात्रि‍क सम छन्‍द में रचि‍त हैं। अधि‍कांश पद की रचना एक ही छन्‍द में हुई है; पर कई पदों में मि‍श्रि‍त छन्‍द का भी उपयोग हुआ है; अर्थात् दो-तीन या अधि‍क छन्‍दों के चरणों का मेल कि‍या गया है। लगभग सत्रह छन्‍दअहीर, लीला, महानुभाव, चण्‍डि‍का, हाकलि‍, चौपई, चौपाई, चौबोला, पद्धरि‍, सुखदा, उल्‍लास, रूपमाला, नाग, सरसी, सार, मरहठामाधवी, झूलना आदि‍ का स्‍वतन्‍त्र प्रयोग; और अखण्‍ड, नि‍धि‍, शशि‍वदना, मनोरम, कज्‍जल, रजनी, गीता, गीति‍का, वि‍ष्‍णुपद, हरि‍गीति‍का, ताटंक, वीरछन्‍द, समानसवैया जैसे छन्‍दों के चरणों को अन्‍य छन्‍दों में जोड़कर कि‍या है। उल्‍लेख मि‍लता है कि‍ उल्‍लास, नाग, रजनी, गीता छन्‍द के नि‍र्माता वि‍द्यापति‍ ही हैं; क्‍योंकि‍ उनसे पूर्व के कि‍सी रचनाकार के यहाँ ये चारो छन्‍द नहीं दि‍खते। पर तथ्‍य है कि‍ वि‍द्यापति‍ ने बहुतायत में चौपई, चौपाई, सरसी, सार जैसे छोटे छन्‍दों का प्रयोग कि‍या है; बड़े छन्‍द 'झूलना' का प्रयोग तो मात्र एक पद 'खनरि‍ खन महँधि‍ भइ कि‍छु अरुण नयन कइ, कपटि‍ धरि‍ मान सम्‍मान लेही' में हुआ है। 'नाहि‍ करब वर हर नि‍रमोहि‍या/बि‍त्ता भरि‍ तन वसन न ति‍नका, बघछल काँख तर रहि‍या। बन बन फि‍रथि‍ मसान जगाबथि‍, घर आँगन ऊ बनौलन्‍हि‍ कहि‍या' जैसे गि‍ने-चुने पद ही हैं जि‍नमें समानसवैया, ताटंक और वीर जैसे कुछ अपेक्षाकृत बड़े छन्‍द प्रयुक्‍त हुए हैं। पदावली की गीति‍धर्मि‍ता के उत्‍कर्ष का श्रेय इन छोटे छन्‍दों की प्रयुक्‍ति‍ को भी जाता है। सामान्‍य जन की छोटी-छोटी आशाओं, आकांक्षओं, मनोभावों, उद्वेगों का समावेश इन छोटे-छोटे छन्‍दों के छोटे-छोटे गीतों में हो पाना सहज भी होता है, प्रभावक भी।
जनम होअए जनु, जओं पुनि‍ होइ। जुबती भए जनमए जनु कोइ।।
होइए जुबति‍ जनु हो रसमन्‍ति‍। रसओ बुझए जनु हो कुलमन्‍ति‍।।
नि‍धन माँगओं बि‍हि‍ एक पए तोहि‍। थि‍रता दि‍हह अबसानहु मोहि‍।।
स्‍त्री-जीवन की वि‍वशता, आरोपि‍त मर्यादा, सहज उमंग, प्रेम-प्रसंग की एकनि‍ष्‍ठता के सामाजि‍क परि‍दृश्‍य से काव्‍य-नायि‍का की पीड़ा इतनी घनीभूत है कि‍ युवावस्‍था के उमंग-आवेग, प्रेम-अनुराग, वंश-मर्यादा के मद्देनजर वह बेटी के जन्‍म को नि‍रर्थक कह बैठती है; और अपने अवसान-काल तक के लि‍ए ईश्‍वर से चि‍त की थि‍रता माँगती है, अपने लि‍ए एक सभ्‍य और रसि‍क प्रेमी माँगती है।
नि‍:संकोच कहा जा सकता है कि‍ वि‍लक्षण प्रतीक-योजना और सघन बि‍म्‍ब-वि‍धान से परि‍पूर्ण वि‍द्यापति‍ पदावली समकालीन जीवन-व्‍यवस्‍था का ऐसा अलबम है, जि‍समें लोकजीवन के सारे चि‍त्र अपनी सूक्ष्‍मता के साथ उपस्‍थि‍त हैं। 
निष्कर्ष
पर्याप्‍त तर्क-वि‍तर्क के पश्‍चात् हम वि‍द्यापति‍ का काल सन् 1350-1439 मानने को सहमत हुए हैं। यह पूरा दौर भारतीय जीवन-व्‍यवस्‍था के लि‍ए बेहि‍साब उथल-पुथल का समय रहा। यह अन्‍तराल दि‍ल्‍ली सल्‍तनत में तुगलक वंश (सन् 1320-1413) और सैयद वंश (सन् 1414-1451) के अन्‍तर्गत आता है। सन् 1351 में अपने पि‍ता मुहम्‍मद बि‍न तुगलक की मृत्‍यु के बाद फि‍रोजशाह तुगलक ने गद्दी सँभाली और अपने साम्राज्य का पुराना क्षेत्र वापस पाने के लिए सन् 1359 में बंगाल के खिलाफ 11 महीने तक युद्ध किया। उस दौरान मि‍थि‍ला के राजा गणेश्‍वर ने उन्‍हें भरपूर समर्थन दि‍या, फिर भी वे बंगाल को दिल्ली सल्तनत में शामिल नहीं कर पाए। सैंतीस वर्षों तक शासन करने के बाद सन् 1388 में फिरोजशाह की मृत्यु हुई, और घोर अराजकता छा गई। बाद के दि‍नों में फिरोजशाह के पौत्र नसरतशाह (शासन क्षेत्र फिरोजाबाद; सन् 1395-1398) और ज्‍येष्‍ठ पुत्र महमूद तुगलक (शासन क्षेत्र दि‍ल्‍लीय सन् 1399-1413) ने शासन किया। सन् 1398 में भारत पर समरकंद के तुर्क सम्राट तैमूर लंग के आक्रमण में भयंकर नरसंहार हुआ। दिल्ली सल्तनत में हड़कम्‍प मच गया, डर के मारे सुल्तान महमूद गुजरात भाग गए, तैमूर के वापस जाने के बाद अपने वजीर मल्लू इक़बाल की सहायता से उन्‍होंने पुन: दिल्ली पर अधिकार प्राप्‍त कि‍या। पर मुल्तान के सूबेदार ख़िज्र ख़ाँ से युद्ध करते हुए मल्लू इकबाल जल्‍दी ही मारे गए। उनकी मृत्‍यु के बाद सुल्तान ने दिल्ली की सत्ता अफगान सरदार दौलत ख़ाँ लोदी को सौंप दी। सन् 1412 में महमूद तुगलक़ की मृत्यु के बाद सन् 1413 में दौलत ख़ाँ लोदी को परास्‍त कर ख़िज्र ख़ाँ ने दिल्ली की गद्दी पर अधिकार कि‍या और सैयद वंशकी स्थापना की। बाद के दि‍नों में ख़िज़्र खाँ (सन् 1414-1421), मुबारक़शाह (सन्1421-1434), और मुहम्मदशाह (सन्1434-1445) आदि‍ ने शासन कि‍या। पर, वस्‍तुस्‍थि‍ति‍ यह है कि‍ फि‍रोजशाह की मृत्‍यु के बाद वि‍द्यापति‍ से सम्‍बद्ध कि‍सी प्रसंग के सूत्र दि‍ल्‍ली से नहीं जुड़ते। सन् 1394 में जौनपुर में 'शर्की वंश' की स्‍थापना हुई। मलि‍क सरवर वहाँ के पहले स्‍वाधीन शासक हुए। फि‍र तो मि‍थि‍ला पर बंगाल और जौनपुर का दबाव बढ़ने लगा। सन् 1406 में इब्राहि‍मशाह के आक्रमण से राजा शि‍वसिंह का ति‍रोधान हुआ। उसके बाद वि‍द्यापति‍ का बड़ा कालखण्‍ड नेपाल की तराई बनौली में बीता।
वर्चस्‍व लोलुप इन शासकों की आक्रमणकारी हरकतों से चि‍न्‍ति‍त वि‍द्यापति‍ अपनी रचनाओं द्वारा समाज में प्रेम और सौमनस्‍य का मानवतावादी भाव भरने की नि‍रन्‍तर चेष्‍टा करते रहे। नीति‍ एवं आचारपरक अन्‍य रचनाओं के साथ जन-मन में प्रेम-भाव भरते जाने का उनका अचूक सन्‍धान पदावली की रचना थी। उथल-पुथल और शृंखलाबद्ध आक्रमणों से ह्रस्‍त-त्रस्‍त, हताश जनजीवन में सकारात्‍मक ऊर्जा भरने में पदावली को प्रभूत सफलता मि‍ली। इस पाठ में पदावली के इसी वैशि‍ष्‍ट्य और वि‍द्यापति‍ के कालखण्‍ड का मूल्‍यांकन करने की चेष्‍टा की गई है।  

सहायक ग्रन्थों की सूची
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आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी/हिन्दी साहित्य की भूमिका/राजकमल प्रकाशन, दिल्ली/1991
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दशरथ ओझा/हि‍न्‍दी नाटक : उद्भव और वि‍कास/राजपाल एण्‍ड सन्‍स/2008


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